ज्योति शोभा
1)
क्षमा के विरुद्ध नहीं होता अपराध
अपराध के बाद दी गयी क्षमा में कितना रस आया
यह वही बताता है
जिसके केशों पर पखवाड़े की धूल है
जिसकी देह पर गिरी रहती है पूस की शीत
जो फुलिया में रहता है कृत्तिबास ओझा की तरह और
निराकार हो कर बुनता है सूत की धोती
जैसे संत कवि ओझा बुना करते थे बांग्ला के निरुद्वेग छंद
पन्द्रहवीं सदी में जब सुलभ थे राम मनुजों में
कुसुम कोमल राम की कल्पना में दिन निकाल दिए कृत्तिबास ओझा ने
कहते हैं इनके राम
फूल का धनुष लिए गए बन में
विलाप भी इतना सुमधुर किया- कि मेघ झुक आये मुख पर
\”हाय! उद्धार प्रिया का हो ना सका\”.
देव किस देव को मनाते भला
तब जांबवंत ही सुझाते
‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!!’
बाण लग गया हृदय में
तब शक्ति की आराधना में डूब गए ओझा के राम
तब ढाक बजे स्वप्न में
तब शंखनाद हुआ चतुर्दिक
और बंगाल में अवतरित हुई दुर्गा की छवि
छवि भी ऐसी कि सोलह कलाओं जैसी नित बढ़ती थी
क्वार के जलमय नौ दिन में प्रत्यक्ष रहकर
वर्ष भर नासापुटों में भरी रहती थी
योजन तक गमकती
प्रेमी जैसे रहता है काल्पनिक प्रणय में
स्वप्न में कृत्तिबास समाधिलीन रहते
गौड़ेश्वर के दरबार में क्षण भर को जाते
सत्कार होता, पुरस्कार पाते किन्तु मन
फुलिया में टिका रहता
मानों प्रिया से बिछड़े प्राण न पाते थे
जिस रोज़ शाक्त सम्प्रदाय के यहाँ भोजन करते उसी रोज़ सोते वैष्णवों के घर
वाल्मीकि के राम जानकी के सिरहाने रहने लगे
गौरी का क्लेश मिट गया शिव से
वैष्णवों का शाक्तों से
क्षमा के विरुद्ध नहीं होता अपराध
यह कौन कहता जो कृत्तिबास न कहते
जो मुझे न कहता मेरा प्रेम
चाहे बांग्ला न आती हो मुझे
किन्तु यह निश्चित है
धूम्र की गठरी जो ओझा गए खोल कर
उसी से जलती हैं पुतलियाँ.
2)
आलोकधन्वा के लिए
तुम जरूर आये हो कलकत्ता
देखा है इस शहर को रात के जीर्ण आलोक में
पहने हुए सिर्फ नीली चादर
लाल दीवारों और हरी खिड़कियों के पीछे का असीम अबोला पाट
दादूरों का हठ
और तुम्हारे सफ़ेद कुरते पर बारिश का कशीदा
शायद ही किसी ने ऐसे देखा हो
सुपारी के गाछों पर लिपटे ग्रीष्म के निर्दोष नभ को
जैसे तुमने देखा है
पटना में छूटे हाथ का लालित्य
क्या नहीं मिलता डाल पर भीगी जवा से
तुम जानते हो आलोकधन्वा
यहीं आयी तुम्हारी कविता की भागी हुई लड़कियां
उड़ती मेघमालाओं जैसे
सोई हैं बालों में कुमुदिनी लगाए
उनकी त्वचा के नीचे चमकता है पारे जैसा जल
खुद तुम्हारे शहर का शरद् आया था साथ
झीनी ठण्ड लिए
यहीं छूट गया तुम्हारे पीछे
तुम जल्दी में गए थे शायद
कुछ निष्कम्प शब्द बांधे कुछ बिखेरे इस पुराने शहर की हवा में
अब भी सरसराते हैं वे दौड़ती रेल के संग
धान के खेतों में उतर कर
कुछ छोटे महीनों के पीछे कुछ और लम्बे महीने आते हैं
जैसे तुम आये थे आलोकधन्वा
और यहीं रह गए
कि फिर आने से अच्छा है रुक जाना कलकत्ते में.
3)
कि यह सतयुग की कथा है
कृष्ण पक्ष की अर्ध रात्रि गंगा किनारे
तुम्हारी कथा सुनती हूँ
चिबुक मेरा तुम्हारे घुटनों पर है
और दृष्टि अंतरिक्ष के एक मेघ पर
हृदय प्रेत सामान परिक्रमा करता है तुम्हारी देह की
केश उड़ते हैं शीतल हो के
एक एक कर खोलती हूँ
गेंदे के आभूषण
तुम्हारी कथा के नायक राजा राम चुनते हैं उन्हें
कि कलयुग में कौन पहनेगा इन्हें
धृष्ट हैं झींगुर
आते हैं मेरी तुम्हारी कथा के बीच
कौन पूछे मंत्रमुग्ध अवस्था में
जैसे यक्ष, गंधर्व देव सब की गृहस्थी है
क्या इनकी नहीं है
जरा हाथ उठाती हूँ तो नौका डोलती है
तुम्हारी कथा के नीचे प्रगाढ़ जल है
मैं झुकती हूँ किन्तु
एक साक्षात अस्पृश्य स्त्री उसे छू कर देखती है
तुम्हारी कथा में मृत मृग का रक्त चमकता है पलाश जैसे
उठती हूँ कि नखों पर मल लूँ
तुम खींचते हो मेरा मणिबंध
कि यह सतजुगकी कथा है
बैठो, जानकी की हँसुली का मूंगा भी रक्तिम चमकता है
अदृश्य वार्तालाप में चूमती हूँ तुम्हारे अधर
तिमिर और गाढ़ हो गया है
कलियुग और भीषण
उठा नहीं जाता
कथा में कथा चलती है संसार में.
4)
अपनी कविताओं के विपरीत
चेहरे पर इतना शरद् है उसके
जिससे गर्म नहीं होता हृदय
बस सिंकता रहता है
रात्रि आलोक में सिंकते
बनफूल की तरह
मेरा कवि छत्तीसगढ़ से चला है
पहर भर रुकेगा गंगासागर में, रात काटेगा
तब उतरेगा कलकत्ता में
उसके बक्से, पेटी और किताबें भी उतरेंगी
जैसे सूरज उतरता है
मेरे कमरे के दर्पण में
उसके कान इतने ठंडे हैं दोपहर में
जितने झरनों के नीचे होते हैं कंकर
अचानक ही छू गए
पहले मुझे भी पता नहीं था
दूर से छुए जा सकते हैं तारे
मेरे जन्म से मीलों दूर उसका जन्म है
आंधी मिला दे तो मिला दे
बाढ़ मिला दे तो मिला दे
और कोई सूरत नहीं
दुर्घटना के अतिरिक्त
किसी दूसरे से बातें करता वह कितना औपचारिक
क्या इतना ही होगा
इतना ही कम
अपनी कविताओं के विपरीत
जो मृत्यु की लपट जैसी सिहरा देती है मुझे.
5)
मन एक पुरुष का अहम था
जितना बाँधा गया
उतना खुला
मन एक पुरुष का अहम था
कुछ और न था
अभिसार की बेला
तुम्हारे मुख से आयी मेरे मुख में
भाषा ऐसी थी
जैसे मिसरी की ढेली
उत्तर की और मुख कर सोती
दक्षिण की ओर पगतल
ऐसे ही रहती कविता
कवि के समानांतर
जैसे रहती है उसकी स्त्री
तुम रजत माला की तरह फेरते
वह चाहती तुलसी माला की तरह फेरी जाए
भाव की तरह खोने न पाए
कठोर पाषाण सी जगहों पर
शब्द की तरह सूख कर गिरने की जगह मिले
कर्णफूल न था वह
संवाद था मेरा अपनी अपूर्णता से
जिसमें उलझ जाते तुम
उलझ जाता मेरा शिल्प
मेरी वेणी की बेली थी
जो जितनी नष्ट हुई
उतनी ही तीव्र हुई उसकी गंध
तुम्हारी देह में आयी
तुम्हारी निद्रा में आयी
आयी तुम्हारे चरित्र में
जैसे आती है मध्य मार्गी समीक्षा
एक पुराने अपदस्थ कवि द्वारा
एक नए कवि की.
६)
तुम आओ तो दिखाऊँ तुम्हें कलकत्ता
तुम आओ तो दिखाऊँ तुम्हें कलकत्ता
क्या पता कल तक मैं न बचूं
न मेरी कवितायेँ बचे
क्या पता तुम फूल लाओ या फिर विमल मित्र की किताब
एक घाट पर मिलो या एक ट्राम में
तुम आओ तो कहूँ
मेरे बाद लोग पढ़ेंगे मेरी कविताएँ
सम्पादक छापेंगे मेरे एकालाप
उत्तम कुमार जैसी सुन्दर दिखूँगी पत्रिका की श्वेत श्याम छवि में
मेरे बाद मेरे घर का पता पूछने लगेगा कोई अखबार बेचने वाला
कि उसे जानना है ठाकुरबाड़ी का पता
मेरे बाद बंसी बनाने की एक पुरानी कला सीखाने आएगा कोई कारीगर
कब से बुलाती थी उसे
मेरे बाद तुम भी आ जाओगे कलकत्ता
देखना, नए गुड़ की ऋतु होगी
सौंधी गंध आएगी चाय दुकान की आंच से
पूस की रात रस चुआती होगी
जैसे जल बहता है शोभा बाज़ार की एक शास्त्रीय नर्तकी के पैरों से
मेरे बाद ठीक मेरी तरह देखना
कलकत्ता ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर पर है
सब स्टीमर गोल वलय में घूमते हैं
तुम कहीं से भी शुरू करोगे भ्रमण
तुम्हारी दृष्टि में तिरता रहेगा बेलूर मठ
फिर भी तुम पूछते रहोगे चालक से-
और कितना समय शेष रहा इस जल में
और कितना इस जग में.
७)
इसी बहाने कुछ नया होगा
क्योंकि और किसी से नहीं कह सकती
तुमसे कहती हूँ
पड़ोस में कपड़ों की अलसायी गंध
और कमरे में फैली है किसी बंदरगाह की बासी छुअन
छूटूँगी इनसे तो आऊँगी
चौरंगी की उसी दूकान में
जहाँ दर्पण ही दर्पण हैं, बिम्ब ही बिम्ब
संसार मात्र प्रतिबिम्ब
संकलित रचनाओं के पीछे खड़ा पुस्तकालय बूढ़ा होता जाता है
पुरानी हो चुकी महामारी में नयी पीड़ाओं जैसे उठती है
घर लौटने की, केश गूंथने की, चिलम भरने की हुक
घृणा फीकी होती है मैले पड़े पलंग से
और अपराध होते भी हैं तो इतने छोटे जिनसे अंतर नहीं पड़ता साँसों की लय में
पानी गिरता है तो कीच हो जाता है
गल्प गिरती है तो चरित्रहीन
सब जंजाल के साधन जुटाए हैं जीवन ने
छूटूँगी तो आऊँगी
शीत में ठिठुरते मायापुर के भोग में
दो गज़ कपड़ा फाड़ कर झंडा बनाने वाले
और तिरपाल से साहित्य का मंच बनाने वाले संसार से छूट कर आऊँगी
इसी बहाने कुछ नया होगा नगर की गोष्ठी में
युद्ध टाला जाएगा अगले सत्र के लिए.
8)
तुमने टाल दी विपदा
म्लान आकाश पर टाल दिया था आमंत्रण
आषाढ़ के गदराये गाछों पर टाल दिया था
तुम्हारे टाले से टल गया दुर्भिक्ष
बच गयी चीलें
बच गए उजले झुटपुटे और
उनमें घुटने भर पानी
कि कलकत्ता डूबा सके अपनी डोंगियां
किन्तु निर्दोष रह जाए मन से
अचानक के पश्चाताप में रह गया मेरा दर्पण
जैसे दृष्टि में रह गया दृश्य
अपराध टल गया
जिस साल पत्र पर जीवन ऋण लिखा है वह घूमता है रेलों में
कल्पना में अल्प वय की कल्पना करता है
हठ नहीं करता
कि डूबना है बंगाल की गंगा में
तुमने टाल दी विपदा
बच गयी विभूति भूषण की किताब
बच गयी जंघाएँ जिन पर सब सरस पोथियाँ जीवन की बही जैसे पड़ी थी
भीषण बाढ़ में भी फिर अनुराग पाने की
मनुष्य की कामना बच गयी.
९)
दुःख से कैसा छल
मूरख है कालीघाट का पंडित
सोचता है
मंत्रोचार से और लाल पुष्पों से ढक लेगा पाप
नहीं फलेगा कुल गोत्र के बहाने कृशकाय देह का दुःख
मूरख है ममता बन्दोपाध्याय का रसोइया
दुःख को सुन्दर माछ की तरह रांधने का
प्रयास करता है
मूरख है धर्मतल्ला का व्यापारी
गरम चादर की तरह
नित ही
दुःख बेचकर खरीदता है दुःख
मूरख है विक्टोरिया का बुढ़ा कोचवान
हिनहिनाते हैं दूर दूर खड़े पशु तो
मात्र चारा पानी देता है उन्हें
कामदेव के बाण की तरह मूरख है संसार
द्वार पर आम पत्र बांधता है
नहीं जानता
उसी के सुसज्जित कुटुंब से निकला है दुःख जुलूस बन के
और सबसे मूरख हैं ये कवि
संसार के दुःख को भाषा से छलते हैं.
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(by Ishita Adhikary) |
१०)
जितने दिन कलकत्ते रहूँगी
जितने दिन कलकत्ते रहूँगी
निर्भय उतरूँगी सुंदरबन के अकेले स्टेशन पर
प्रेम सार्वजनिक करूँगी
गालियाँ सार्वजनिक दूँगी
नारों की तरह निमंत्रण भी सार्वजनिक दूँगी प्रेमी को
अभी कलकत्ता इतना भी गया गुज़रा नहीं हुआ है
कि भूल जाए पुराने दिन
हाथ गाड़ियों में दौड़ते पौष के चन्द्रमा को
भूल जाए शिराओं की कलप को
भूल जाए \’हे राम\’ में छुपे हिंसा के विलोम को
मुट्ठी भर चिनियाबादाम फाँक कर
चौराहे पर पढूँगी सरकार के खिलाफ लिखी कविता
जितने दिन कलकत्ता रहूँगी
मेरी देह से आती रहेगी पोखर की कमलिनी की गंध
इतना व्यर्थ भी नहीं कलकत्ता
कि पुकारूँ और पलट कर न देखे
बरसों पहले की मिष्टी दुकान के सन्देश आज भी सरस हैं
बदले नहीं कतई
वरना तो रोज़ नयी सरकार आती है देश में
मोना ठाकुर की नयी साड़ियों जैसी.
११)
मृत्यु के बाद और भी सुन्दर हो गए हो तुम
मृत्यु के बाद और भी सुन्दर हो गए हो तुम
भोर की निराशा से परे
रात की मलिनता से अछूते
मैं आना चाहती हूँ तुम्हारे पास
शिशिर के पार
फिर एक जीवन की खोज की तरह
किन्तु रहते हैं वे शब्द
बीच सिहरन
बीच श्वास
बीच स्पर्श
निर्वात के ऊपर या फिर
मेरी ही देह के अतल अंधकार में
मुझे आने नहीं देते हैं.
1२)
वर्ष के अंत तक
वर्ष के अंत तक बचा लिए हैं
खोजबीन वाले औजार
अब उतर सकूँगी निर्मम पहरों में और खोज लाऊँगी
फैज़ की नज़्म
मेरे कानों पर झुक कर गा रहा है वह
जब अज़ान हो रही है पास के मस्जिद में
जब होड़ कर रहे हैं मेघ कबूतरों की पाँत से
जब कर्फ्यू लग रहा है पूस की कालिमा में
क्यों जाओगे तुम आदिम कथा में
लोहे की खुरपी लाने
कथाओं से संदर्भ नहीं निकले जाते
बचा लिए हैं मैंने अपने नख
अपने दाँत
तुम्हें नहीं पता
गीली माटी पर
बहुत सुन्दर कला उकेरते हैं प्रेमी
वेद ग्रन्थ तो गल गए
बीच अरण्य के कांस भी मुरझा गए
मूक हो गए विख्यात घरों के शास्त्रीय गायक
क्यों मांगते हो रोजगार
क्यों चाहते हो स्वाधीनता
क्यों नष्ट होते हो प्रेम में
इस असम्भव दृश्य के अंदर ही
बचा लिए मैंने स्वेद के धब्बे बालों में छुपा कर
किसी भी धरने में
किसी भी प्रणय में
किसी भी जैविक समीकरण में इसकी जरूरत रहेगी
वय के तीसरे पहर तक
बचा लिए हैं संताप
अब खुल कर मिलूँगी सरस गद्य लिखते काका दीपांकर दास से
ताड़ी फेंटती प्रभाबाला से ठिठोली करुँगी
पंडित उमा चौधरी के ठाकुर के समक्ष कपूर की तरह धुआँ होती रहूँगी
पछाड़ खाती गंगा में बैठूँगी
झरूँगी तुम्हारे कन्धों पर
जैसे इस समय रात्रि की ठंडक झरती है
हलके हलके.
1३)
किन्तु मैं नहीं मरी
किन्तु मैं नहीं मरी
नाम भानु गुप्ता था
एक छोटी दुकान थी चाय की
दूध की मीठी गंध से चौक गंधाता रहता
और टपरी पर धुंए के मेघ डोलते
देखते ही पूछ लेता-
केमोन आछो बाउदी !
मारा गया कोरोना में
मैं अब भी अच्छी हूँ
नदी पार गाँव में कुम्हार आता था
पूजा के कच्चे दीपक ले कर
इस बार कराहता था खाट में
और दीपक जलता जाता था मेरी देह के निकट
जैसे सब आलोक से पूरित ही है संसार में
जिस रिक्शे में हाट जाने का नियम था
वह झोली भर निम्बू लिए हाँक लगाता था गली में
बोला- गाड़ी छीन ली मालिक ने
भाड़ा नहीं दे पाया कई मास हुए
फिर कई बार देखा उसे
मेरे म्लान चित्त की तरह
पैर ऐसे चलते थे उसके जैसे अदृश्य पहिये पर चलते हैं
जरा दूर के अस्पताल में
देश दिशावर से आते परिचित मारे गए
जिनके नाम तक अज्ञात थे
नीचे तक गिरा हुआ आँचल इसलिए भीगा
क्योंकि पड़ोस में स्नान करते शव का जल ढलक गया इस तरफ
नदी पर बैठी नाव मारी गयी
दो शहरों के बीच की ज़मीन मारी गयी
बाबा मारे गए
कविता मारी गयी
किन्तु मैं नहीं मरी
जैसे कभी नहीं मरती है उदासी
श्वेत श्याम से रंगीन हो जाती है बस.
1४)
बेलुर की श्यामल सांझ में
बेलुर की श्यामल सांझ में
एक सराय ही है हमारी नींद
तुम भी ठहरते हो
मैं भी ठहरती हूँ
बिलकुल पास पास वाले कमरों में
जैसे कविता लिखते एक हाथ के पास ठहरता है एक दूसरा संकोची हाथ
नींद में ही बनते हैं घर
नींद में गिरते हैं छप्पर
नींद में आते हैं मेघ
ढक लेते हैं पतझड़ से नग्न कलकत्ता को
छज्जे के नीचे बजता रविंद्र गान फीका पड़ जाता है
चले जाते हैं ढाकी अपने देस
जैसे चली गयी देवी के पीछे उग आता है
एक भूला क्लेश
नींद में आये कठोर शीत का जल
म्लान मुख पर लपलपाता है
फूले काठ की तरह
अधिकतर संकेत से भरी भाषा नहीं खुलती नींद में
तुम कहते हो
इस जगत में सराय ही सबसे उपयुक्त जगह है संवाद के लिए
नींद में उठकर ही मैं आती हूँ अपने हृदय के पीछे
अपनी देह लिए.
![]() |
(by Satyam Roy Chowdhury) |
1५)
इसी तरह आएगी आग
इसी तरह आएगी आग
देवताओं के सूखे मुखों से
और निगल लेगी हमें
इसी तरह एक बरजते दिवस
रंग उड़ जाएगा खिले सिमुल का
और पानी हो जाएगा वह
इसी तरह गुप्त रह गया सरकारी खज़ाना
संवाद में आये गुप्त संकेतों जैसे
देह पर नमक लेकर लौटे बंधुआ
और प्रेयसी की पीठ बियाबान हो गई
इसी तरह द्वार पर डोलते रहे भूखे बछड़े
और दुशाला हाथ आई एक प्रसिद्ध कवि के
इसी तरह सुन्न हो गई थी मेरी उंगलियाँ
एक घने अंधकार को छूते
और सच मान लिया
स्त्रियों के दर्शन में निम्न स्तर पर हैं स्त्री का वैभव
जबकि सिन्धु लाँघ गये तरूण ऐश्वर्य पाने
नष्ट कर आये यौवन
इसी तरह चीख कर चुप हो गई सभ्यता
गगनचुम्बी हो गये नगर
राजाओं, प्रेमियों को मिली काष्ठ की सुंदर प्रतिमाएँ
नौकाएँ झंझावात के साथ डुब गई
और देखते रहे सागवान के ऊँचे दरख्त
इसी तरह हम सबने
दुःख को देखा है दुःख से ढकते हुए.
1६)
वैसा नहीं होगा सम्मोहन का अंत
वैसा नहीं होगा सम्मोहन का अंत
जैसा मैं सोचती हूँ
वैसा भी नहीं जैसा तुम सोचते हो
लौटती रहेंगी चींटियां
लौटते रहेंगे व्यापारी
जैसे हम लौटते हैं अपनी देह में
और घटने लगता है कौतुक
सम्मोहन झड़ने लगता है किनारों पर
माटी की बांबियों से.
१७)
इतनी उम्मीद मत करो मुझसे
इतनी उम्मीद मत करो मुझसे
जितनी सूने रास्तों पर इस समय खाली ट्रामें करती हैं
और बहुत धीमे चलती हैं
भीगती रहती हैं
अनिश्चित कोलाहल की तड़प में
इतनी उम्मीद में रुँध जाता है नभ
जितनी गेंदे की सुगंध करती है
संत गवैयों के आह्वान में मत्त
वेणी से झूलती हुई
मैं शरबिद्ध हूँ
अंतर नहीं जानती
औषध और तुम्हारी उँगलियों के स्पर्श में
हो सकता है मूर्छा में
ताज को विक्टोरिया कह दूँ
मंदिर की पताका को मस्जिद का गुम्बद
इतनी उम्मीद मत करो मुझसे
कि भूल जाऊँ
भीगी है मेरी पीठ
मैं मेघों के देश में हूँ
हटा दो मेरी देह पर से
सुंदर फूलों का वैभव
नक्काशीदार संग्रहालयों की छाया
घासफूल पर लेट जाओ मेरे पास
और लौटा दो उन दूतों को
जो स्वर्ग की उम्मीद देने आये हैं
इस ठण्ड में गर्माती देह को
थक जाएंगे तो पशु हो जाएंगे हम
किसी भी दिशा में मुख कर के रो लेंगे
किसी भी झाड़ी से अंधकार मांग लेंगे
किसी भी गुफा से उष्णता
जितने दिवस युद्ध होगा
उतने दिवस सोते रहेंगे
इतनी उम्मीद मत करो
कि मृत हिलसा से भारी हृदय लिए
नापते रहोगे हुगली का पाट
जी पाओगे सिर्फ मनुष्य हो कर.
१८)
मरीचिका है यह शहर
मरीचिका है यह शहर
नींद में टटोलती हूँ तो हाथ नहीं आता है
बदल लूँगी एक दिन इसे जन्मस्थान में
किसी ढह चुके सरकारी अस्पताल का नाम दे दूँगी आवेदन पत्र में
किसी सहमे मृग की तरह चुप रहूँगी श्वास रोके
जहाँ एक भी आखेटक दिखेगा कवि की मुद्रा बनाये
मनोरथ की तरह बताते हैं रसिक इसे
पूंजीपति कहते हैं तमाशबीनों और सस्ते बहरूपियों का तीरथ है
नेता इसे धर्म की तरह बरतते हैं
जितनी भी भीड़ हो फतवों के हक़ में हो
बदल लूँगी इसे
अपने बिस्तर से
सुनूँगी जुलूस में हिंदी भाषियों के विरुद्ध होता धरना
और निश्चिन्त
देर तक सोऊँगी मेघों से घिरे दिवस में
पड़ोस में रहते असमिया भद्रजन से कहूँगी
विस्थापित नहीं आते यहाँ
प्रेमी आते हैं
रूपक की तरह आते है जैसे नीलकंठ एक संस्कृत के दोहे में
भगाता है मुझे यह अपने पीछे सारी रात
स्वप्न में घाम से भर जाती है मेरी पृथ्वी
बदल लूँगी इसे
सजा पाए अपने लाख के आभूषण से
![]() |
उत्तप्त करेगा मेरी आत्मा तो
दुःख में पिघलेगी इसकी देह
छाती में गड़ा रहेगा
कांस जैसे गड़ती है शरद की हवा के तलवे में.
___________
ज्योति शोभा के दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. कोलकाता में रहती हैं.
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