दो भाषाओँ के बीच अनुवाद सांस्कृतिक प्रक्रिया है, मुझे लगता है कि जैसे साहित्य से उस समाज का पता चलता है उसी प्रकार जिस भाषा में अनुवाद हो रहे हैं, उसकी गुणवत्ता से उस समाज की समृद्धि और सुरुचि का भी अंदाज़ा लग जाता है.
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निराला रचनावली (खंड 6) में अनुवाद से सम्बंधित निराला–द्विवेदी वार्ता के कुछ अंश संकलित हैं:
\”एक बार मै हिंदी के धुरंधर आचार्य पूज्यपाद पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी के दर्शन करने गया था. एकाएक अनुवाद का प्रसंग चल पड़ा. मैंने उनसे उसके नियम पूछे. द्विवेदीजी ने कहा, उभय भाषाओं पर अनुवादक का पूर्ण अधिकार होना चाहिए. उभय भाषाओं के मुहाबरे बिना जाने अनुवाद में सफलता नहीं होती. दूसरे, अनुवाद के लिए यह कोई नियम नहीं कि मूल की अर्थध्वनि कुछ और हो और अनुवाद की कुछ और. अनुवादक को सर्वदा मूल के अर्थ पर ध्यान रखना चाहिए. उसी अर्थ को दूसरी भाषा में परिस्फुट कर देने की चेष्टा करनी चाहिए. सारांश यह कि मूल की भाषा और भावों से अनुवाद की भाषा और भाव क शिथिल न होने देना चाहिए.\”
परवर्ती काल में अंग्रेजी, संस्कृत और भारत की दूसरी भाषाओं के अनूदित ग्रंथों से हिंदी निस्संदेह अत्यंत समृद्ध हुयी. उभय भाषाओं में निष्णात और अनुवाद–कला को नयी ऊंचाई प्रदान करने वाले अविस्मरणीय साहित्य–साधकों की श्रेणी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, निराला, बौद्ध शास्त्र–सूत्र अनुवाद के वृहतत्रयी राहुल सांकृत्यायन, भिक्षु जगदीश कश्यप और आनंद कौसल्यायन , बंगला साहित्य के तलस्पर्शी विद्वान हंस कुमार तिवारी,, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, दिनकर, बच्चन आदि पांक्तेय हैं. फिर भी यह हिंदी साहित्यिक परिदृश्य का एक कटु यथार्थहै कि एशिया की साहित्यिक कृति को बिना अंग्रेजी अनुवाद की बैसाखी का सहारा लिए मूल भाषा से अनुवाद करने की क्षमता रखने वाले वाले साहित्य–साधक आज भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं.
आचार्य द्विवेदी ने जिन नियमों का प्रतिपादन किया है, वे सार्वभौम, सर्वयुगीन और स्वत–सिद्ध सत्य हैं. चूँकि मैं कई दशकों से कोरियाई भाषा से जुड़ा रहा हूँ, इसलिए मैंने यह जानने की कोशिश की कि अंग्रेजी अनुवाद पर निर्भर होकर कोरियाई कविता के मूल भाव और संवेदना को हिंदी में उतारना संभव है या नहीं. पिछले दो दशकों में आधुनिक कोरियाई कविताओं के तीन संकलन प्रकाशित हुए हैं. इस आलेख में दिविक रमेश की पुस्तक \”कोरियाई कविता यात्रा\” (साहित्य अकादेमी, 1999) से कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर अंग्रेजी अनुवाद पर आधृत काव्यानुवाद की कठिनाइओं और खतरों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा.
(दि.र. पृष्ठ 56-57 )
मूल कविता से मिलाकर देखने पर मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया की दिविक रमेश का अनुवाद मूल कोरियाई में व्यक्त भाव और विचार से बहुत दूर चला गया है. इस कविता को मैंने इस तरह समझा है.
विछोह
मैं नहीं जानता
दिविक रमेश की पुस्तक में ऐसे अनेक अनुवाद हैं जिसमे मूल रचना तो दूर की बात है, अंग्रेजी अनुवाद से भी बहुत फासला बन गया है. \”छिंदालय\” की पहली पंक्ति का \”भ्रामक अनुवाद \”जाओगी जब दूर मेरी बढ़ती हुयी उदासियों से\” अंग्रेजी वाक्य \”If you go away, through with me\” पर आधृत है, यद्यपि कवि का अभिप्रेत है, \”ऊबकर मुझसे अगर मुंह मोड़ लोगे.\”
दिविक रमेश ने एक लोकप्रिय कविता की पहली पंक्ति \”Come July in my village town\” . का अनुवाद किया है, \”आना जुलाई मेरे गाँव\” (p. 39), जबकि कवि कहना चाहता है, \”आता है जब जुलाई का महीना मेरे गाँव\”. इसी कविता में कवि कहता है, \”दूर–दराज से एक मित्र आता है, मेरे साथ बैठ, साथ साथ अंगूर का साथ मजा लेने\”. दिविक रमेश की समझ में \”share grapes\” का अर्थ है, \”वह आता है अंगूर बांटने को\”.
कवियत्री मो यून –सुक की एक कविता में निःस्वार्थ प्रेम की बेदी पर प्रेमिका के प्राणोत्सर्ग के प्राण का उल्लेख है और इस भावना को एक कोरियाई अनवादक KIm Jaihiun ने \”I will not spare my life\” \”के रूप में अभिव्यक्त किया है. दिविक रमेश का अनुवाद है, मैं नहीं माफ़ करूंगी अपने जीवन को. उसी कविता में एक वाक्य है, Debts throw me out of wits .. जिसे हिंदी में \”बोझ फेंक रहा है मुझे समझ के बाहर\” के रूप में व्यक्त किया गया है.
इस कविता का मेरा अनुवाद है:
दिविक रमेश की पुस्तक में दिए गए प्रायः सभी कवि परिचय कुछ कांट–छांट के साथ Jaijiun Kim द्वारा अनूदित और सम्पादित काव्य–संकलन \”The Immortal Voice: Anthology of Modern Korean Poetry\” से उठाये हुए हैं. उदाहरणार्थ भिक्षु–कवि हान योंग–उन का परिचय किम ने इस तरह दिया है:
“Born in Hongsong-gun, Chungchóng namdo, in the south. A devoted Buddhist monk since his early years. Han was one of the 33 members who in 1919 signed the historical document to declare Korean independence of the Japanese colonial rule. His poems concern his philosophical meditation on nature and the mystery of human existence.
\”होंगसांग में जन्म. शुरू से ही समर्पित बौद्ध भिक्षु. देशभक्त. कविताओं में विशेष रूप से दार्शनिक चिन्तनयुक्त प्रकृति और मानव सत्ता. उन ३३ सदस्यों में से एक, जिन्होंने 1919 में जापानी उपनिवेशवाद से कोरिया की मुक्ति सम्बन्धी ऐतिहासिक दस्ताबेज पर हस्ताक्षर किये थे.प्रसिद्ध कृतियों में \”प्यार का मौन (1926) और हानयोंग–उन का संपूर्ण साहित्य (1973) है.”
हिंदी पाठकों को दक्षिण कोरिया के होंगसंग जिले को होंगसांग के रूप में परिचित कराना अनुत्तरदायित्व की पराकाष्ठा है. अगर हिंदी साहित्य का कोई विदेशी अनुवादक पंतजी के बारे में कहे कि उनका जन्म अलमीरा में हुआ था, तो जिज्ञासु विदेशी पाठक, अलमीरा नमक स्थान को भारत के मानचित्र में कैसे ढूंढ पायेगा? और परिचय की दूसरी पंक्ति \”शुरू से ही समर्पित बौद्ध भिक्षु\” का क्या अर्थ होता है? क्या उन्होंने अपने जीवन के आरम्भ में ही चीवर धारण कर लिया था? क्या वे जन्मजात बौद्ध धर्म के प्रति समर्पित व्यक्ति थे? वस्तुतः १३ वर्ष की अवस्था में पारम्परिक रीति से उनका विवाह हुआ, और सन 1904 में 25 वर्ष की आयु में उन्होंने बौद्ध धर्म की चोग्ये परंपरा में प्रव्रज्या दीक्षा धारण की. 1933 में यु सुक–वन नामक महिला से उनका पुनर्विवाह हुआ. 1 मार्च 1919 को हान योंग–उन ने बौद्ध –प्रतिनिधि रूप में दूसरे धर्मों के ३१ अन्य प्रतिनिधियों के साथ कोरिया की स्वतन्त्रता के ऐतिहासिक घोषणा–पत्र पर हस्ताक्षर किया जो कोरिया के असहयोग आंदोलन का शंखनाद था. जापानी साम्राज्यवाद को चुनौती देने के जुर्म में उन्हें कारावास की सजा भुगतनी पडी. “कविताओं में विशेष रूप से दार्शनिक चिन्तनयुक्त प्रकृति और मानव सत्ता” “philosophical meditation on nature and the mystery of human existence” का गलत अनुवाद ही नहीं है, यह ऐसी अभिव्यक्ति है जिसे समझने के लिए मूल पाठ को देखना आवश्यक हो जाता है.
अंग्रेजी अनुवादक किम का अभिप्रेत है, हान योंग–उन के काव्य की भाव–भूमि मानव–अस्तित्व की प्रकृति और रहस्यमयता है और उसमे आध्यात्मिक और दार्शनिक तत्वअनुस्यूत है. कवि परिचय के अंतिम भाग में उन्होंने अपनी तरफ से तीन शब्द (प्रसिद्ध कृतियों में) जोड़ दिए हैं. मूल टेक्स्ट में लिखा हुआ है, Silence of Love (1926); Complete Works of Han Yong-un (1973). अब प्रश्न यह उठता है कि हानयोंग–उनकी मृत्यु के 29 साल बाद प्रकशित ग्रंथावली को क्या हम उनकी प्रसिद्द कृति में परिगणित क रसकते है? प्रेमचंद की प्रसिद्ध कृतियाँ सेवासदन, गोदान, कफ़न आदि हैं, बीस जिल्दों में प्रकाशित प्रेमचंद रचनावली नहीं.
कवि–परिचय भी कितना भ्रामक है,इस तथ्य के सम्यक निरूपण के लिए कुछ और त्रुटियों पर विचार करना आवश्यक है.ओसांग–सुन (जिसे दिविक रमेश ओसंगसन के रूप में लिप्यन्तरित करते हैं) के बारे में अंग्रेजी अनुवादक कहते हैं, “”Despairing of the national situation after the defeat of the Independence Movement, he gave himself up for a while to nihilistic abandon”(p. 32).
दिविक रमेश इस वाक्य को इस तरह संक्षिप्त करते हैं कि वाक्य पंगु बन जाता है.दिविक रमेश के वाक्य \”एक बार स्वतन्त्रता आंदोलन के विफल हो जाने के कारण बहुत निराश हो गए थे\” को पढ़कर पाठक यही सोचेगा कि क्या यह भी कोई सूचना है.स्वतन्त्रता आंदोलन के निराश होने पर उस आंदोलन में भाग लेने वाले लेखक का दुखी होना कोई ऐसी सूचना नहीं है जो उसके जीवन को पारिभाषित करता है.
इस पुस्तक की दो और खामियां हैं, एक है अंग्रेजी शब्दों का अर्थ न जानने के कारण उनका उट पटांगअर्थ लगाना या अंग्रेजी शब्दों को ही अपने अनुवाद में घुसा देना और दूसरा कोरियाई नामों या शब्दों का सदोष लिप्यंतरण. पृष्ठ१२५ पर दी गयी कविता में एक शव यात्रा का वर्णन है.शव यात्रा में कुछ लोगों के हाथ में streamer अर्थात रंगीन झंडियां हैं, कुछ के हाथ में घंटियाँ, लेकिन दिविक रमेश streamer का अनुवाद कतार करते हैं, और हाथ की घंटियाँ, हाथी की घंटियाँ बन जाती हैं. Listless शब्द का अर्थ है मायूस, किन्तु दिविक रमेश उस शब्द की व्याख्या \”लावारिश\” के रूप में करते हैं. (प.१२५). बिजली, टेलीफोन या तार के खम्भे को कहा जाता है, लेकिन दिविक रमेश की लेखनी इसे \”उपयोगी खम्भे \”बना देती है.
हिंदी अनुवाद में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग भी पाठक के गले में अटकते हैं. “नन से भी ज्यादा अकेली\” (P. 59) में नन के बदले भिक्षुणी, तपस्विनी या साध्वी का प्रयोग किया जा सकता था.\”एक हो जाएँ हमारे ह्रदय वेल्ड होकर\” (प. ५६) में वेल्ड होकर के बदले अगर \”जुड़कर\” \”मिलकर\” आदि किसी हिंदी शब्द का प्रयोग अपेक्षित था.
कोरियाई भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण दिविक रमेश एक ही नाम को अलग–अलग जगहों पर भिन्न–भिन्न रूपों में लिप्यन्तरित करते हैं.कोरियाई उपनाम CHOE चो, छवै, छो, चोए, छए आदि रूपों में अवतरित होता है. पुस्तक के विभिन्न स्थलों पर कोरिया के प्रांत चन नाम को चोनाम, चोन्नाम, चन्नाम और क्यंगसांग को ग्योंगसांग, क्योंगसोंग, ग्योंगसांग आदि रूपों में लिप्यंतरी कृत किया गया है. अनुवादक अगर कोरियाई भाषा और साहित्य की थोड़ी–बहुत जानकारी रखनेवाले किसी व्यक्ति की सहायता लेते तो इन गलतियों से बचा जा सकता था और कोरियाई कवियों के नाम के लिप्यंतरण में भी विकृति नहीं आती. कोरियाई साहित्य की अमर विभूति किमसोवल को किमसॅावॉल के रूप में याचुयोहान को छूयोहन अथवा चूयोहन के रूप में देखने काफी खटकता है.
काव्यानुवाद शव–साधना है, पुनर्सृजन की प्रक्रिया है.विदेशी जमीन के पौधे को अपने जीवंत भाषिक सन्दर्भ में ढालना और उसे नया संस्कार देना तभी संभव है जब अनुवादक श्रोत भाषा के काव्य में अन्तर्निहित भाव–गाम्भीर्य को ही नहीं, शब्द–सौष्ठव, नाद योजना और छंद विधान को भी बारी की से समझता हो. मई 1924 के मतवाला में शरत बाबू के उपन्यास \”चरित्रहीन\” के हिंदी अनुवाद की समीक्षा करते हुए निराला ने लिखा था कि मूल में कोई चमत्कार हो तो अनुवाद में भी चमत्कार दिखाना चाहिए, किन्तु अनुवादक महोदय की कृपा से चमत्कार तो दूर रहा, मूल का अर्थ भी गायब हो गया है.यह दुःख के साथ कहना पड़ता है कि दिविक रमेश की अनूदित पुस्तक पर निराला का कथन अक्षरशःलागू होता है.
애인(愛人)아말해다오벙어리입이말하는침묵(沈黙)의말을내눈에일러다오.
어쩌면너와나떠나야겠으며아무래도우리는나누어져야겠느냐?
우리둘이나누어져미치고마느니차라리바다에빠져두머리인어(人魚)로나되어서살자!
고운 마음을 아는 이 있을까
저허하노니 꽃 지는 아침은
울고 싶어라.
맑게 가라앉은
하얀 모래펄 같은 마음씨의
벗은 없을까
pankaj@nalandauniv.edu.in