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Home » बहसतलब : २ : कविता और समाज : गिरिराज किराडू

बहसतलब : २ : कविता और समाज : गिरिराज किराडू

साहित्य के भविष्य पर आयोजित बहसतलब -२ की अगली कड़ी में कवि – संपादक गिरिराज किराडू का आलेख. कविता की पहुंच और उसकी लोकप्रियता पर गिरिराज ने कुछ दिलचस्प आकड़े एकत्र किए हैं, इसके साथ ही अनेक आयोजनों के उनके अनुभव भी यहाँ है. यहाँ विचारों  और तथ्यों के साथ लेखक साहित्य के प्रति अपनी गहरी  ज़िम्मेदारी […]

by arun dev
July 19, 2012
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साहित्य के भविष्य पर आयोजित बहसतलब -२ की अगली कड़ी में कवि – संपादक गिरिराज किराडू का आलेख. कविता की पहुंच और उसकी लोकप्रियता पर गिरिराज ने कुछ दिलचस्प आकड़े एकत्र किए हैं, इसके साथ ही अनेक आयोजनों के उनके अनुभव भी यहाँ है. यहाँ विचारों  और तथ्यों के साथ लेखक साहित्य के प्रति अपनी गहरी  ज़िम्मेदारी के साथ आया है. बहस को आधार देता आलेख .


एक विपात्र के नोट्स :              
कविता और उसके समाज के बारे में बात करना सीखने की तैयारी के सिलसिले में

गिरिराज किराडू 
(मैं इस पर अभी मुकम्मल ढंग से, मोहन दा की तरह, कुछ कह नहीं पाया हूँ. वैसा हुनर कहाँ! हो सकता है फिर आऊँ लौट के)


फरवरी २०११ में बोधिसत्व और अशोक कुमार पाण्डेय के साथ \’कविता समय\’ की शुरुआत करते हुए जो वक्तव्य मैंने ड्राफ्ट किया था उसे याद करना ठीक रहेगा:

\”पूरी दुनिया के साहित्य और समाज में कविता की जगह न सिर्फ कम हुई है उसके बारे में यह मिथ भी तेजी से फैला है कि वह इस बदली हुई दुनिया को व्यक्त करने, उसे बदलने के लिए अनुपयुक्त और भयावह रूप से अपर्याप्त है. खुद साहित्य और प्रकाशन की दुनिया के भीतर कथा साहित्य को अभूतपूर्व विश्वव्यापी केन्द्रीयता पिछले दो दशकों से मिली है. एक अरसे तक कविता-केन्द्रित  रहे हिंदी परिदृश्य में भी कविता के सामने प्रकाशन और पठन की चुनौतियाँ कुछ इस तरह और इस कदर दरपेश हैं कि हिंदी कविता से जुड़ा हर दूसरा व्यक्ति उसके बारे में अनवरत ‘संकट की भाषा’ में बात करता हुआ नज़र आता है.  लेकिन मुख्यधारा प्रकाशन द्वारा प्रस्तुत और बहुत हद तक उसके द्वारा नियंत्रित इस ‘चित्रण’ के बरक्स ब्लॉग, कविता पाठों और अन्य वैकल्पिक मंचों पर कविता की  लोकप्रियता,  अपरिहार्यता  और असर हमें विवश करता है कि हम इस बहुप्रचारित ‘संकट’ की एक खरी और निर्मम पड़ताल करें और यह जानने कि कोशिश करें कि यह कितना वास्तविक है और कितना  बाज़ार द्वारा  नियंत्रित एक मिथ.  और यदि यह साहित्य के बाज़ार की एक ‘वास्तविकता’ है तो भी न सिर्फ इसका प्रतिकार किया जाना बल्कि उस प्रतिकार के लिए जगह बनाना, उसकी नित नयी विधियाँ और अवसर खोजना और उन्हें क्रियान्वित करना कविता से जुड़े हर कार्यकर्ता का – पाठक, कवि और आलोचक – का साहित्यिक, सामाजिक और राज(नैतिक) कर्त्तव्य है.\”

कविता के इस सार्वभौमिक (सार्वभौमिक क्यूंकि यह कहना तथ्यपरक नहीं होगा कि दुनिया भर में ऐसी \’गत\’ केवल हिंदी कविता की हुई है, अगर हुई है) \’संकट\’ पर बात करने वाले न हम पहले थे न कोई और.  
तब हमने, असद ज़ैदी के सुझाने पर, जेरेमी स्माल का यह मज़मून भी पोस्ट किया था जिसमें बहुत साफ़ नज़र से यह पहचान थी कि Poetry, as it exists today, is a spontaneous, self-organizing and utterly unprofitable source of culture that exists in the gap between production and capitalist appropriation…
(Poetry as Site of Resistance (excerpts): Jeremy Schmall)
२

\’कविता समय\’ के दो वार्षिक आयोजन हो चुके हैं. उसमें ९० से अधिक कवियों, आलोचकों के साथ १०० के करीब गैर-प्रतिभागियों ने भी हिस्सेदारी की होगी. उसके बाद दिल्ली में सत्यानन्द निरुपम, प्रभात रंजन और आशुतोष कुमार के संयोजन में \’कवि के साथ\’ शुरू हुआ. इसके हर दूसरे महीने होने वाले कविता–पाठों  में १४ कवियों ने हिस्सा लिया है. उसमें आये कुल श्रोताओं का कोई व्यवस्थित आंकड़ा मेरे पास नहीं, मैं जिस (पांचवें ) में आमंत्रित था उसमें ४०-५० लोग होंगे. इन दोनों आयोजनों से पूर्व बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्रों के एक-दिवसीय  आयोजन में दिन भर मैराथन कविता पाठ हुआ था और एक बड़ा हॉल पूरा भरा था दिन भर. इन तीनों आयोजनों में कविता केंद्रित होने के अतिरिक्त एक प्रमुख समानता यह है कि इन तीनों में प्रतिभागी अपने खर्चे से आये. बी.एच.यू. के आयोजन (वे इतने सफल आयोजन को दुहरा नहीं पाए यह दुखद है) और कविता समय में स्थानीय मेजबानी पूर्णतः आयोजकों की थी. \’कवि के साथ\’ में चाय-वाय का भी इंतजाम नहीं रहता. मैं जानबूझकर वैचारिक को व्यावहारिक में \’रिड्यूस\’ कर रहा हूँ, मुआफ करें. दिल्ली में मिथिलेश श्रीवास्तव के कार्यक्रम भी इसी मॉडल पर आयोजित होते रहे हैं. सईद अय्यूब ने मुझे जिस कार्यक्रम में जयपुर में आमंत्रित किया था उसमें प्रतिभागियों का यात्रा व्यय और आतिथ्य उन्होंने मैनेज किया था (मैं भाग नहीं ले सका था हालाँकि नानी के देहांत के कारण) – उनके दिल्ली के कविता आयोजनों की अर्थव्यवस्था का मुझे अंदाज़ा नहीं[i].
यह सब हो चुकने के बाद \’समालोचन\’ ने यह बहस शुरू की है. लेकिन एक \’सामान्य\’ परिप्रेक्ष्य में, स्पेसिफिक हुए बिना. मुझे लगता है कविता की समाज में व्याप्ति और उसकी पहुँच के बारे में विचार करते हुए हमें ऐसे मुक्त, अवाँ-गार्द प्रयासों को एक प्रस्थान बिन्दु बनाना चाहिए (और हो सके तो ऐसे ही पुराने, ऐतिहासिक प्रयासों के अध्ययन को भी, जैसे रघुवीर सहाय दिल्ली में एक अनौपचारिक \’कविता केन्द्र\’ संचालित करते थे). क्यूंकि कविता और साहित्य की समाज में व्याप्ति का संकट इस कारण भी है कि ऐसे प्रयत्न एक बड़ी सामूहिकता बनने की कोशिश नहीं करते बावजूद इसके कि कमोबेश वही पढ़ने सुनने वाले इन तमाम अलग अलग ठिकानों पर पाए जाते हैं. एक बहुत छोटी-सी कोशिश यह है कि कविता समय की वेब साईट कविता-केंद्रित दूसरे ठिकानों का भी पता देती है. मसलन आप वहाँ से \’कवि के साथ\’ के फेसबुक पेज पर जा सकते हैं या कविता कोश, पोएट्री इंटरनेश्नल वेब, तहलका पोएट्री, अनुनाद, पढ़ते पढ़ते जैसे ठिकानों पर भी.

३

\’कविता कोश\’ पर कवियों के होम पेज पर हुए विजिट्स की संख्या का रैंडम सर्वे कुछ दिलचस्प संकेत करता है.
कवि                                                                              विजिट्स

महादेवी                                                            ८३९५२
अज्ञेय                                                             ४३९०३
कबीर                                                             ७५००१
मिर्ज़ा ग़ालिब                                                       ८९३९३
अशोक चक्रधर                                                      ६०८७२
मुक्तिबोध                                                          २०८१३
अरूण देव                                                          २४६३
ओम प्रकाश वाल्मीकि                                                २२१७
कुंवर नारायण                                                      ११८६१
अल्लामा इकबाल                                                    ३०१३९
अशोक वाजपेयी                                                     १३५८०
असद ज़ैदी                                                         ६८५२
अदम गोंडवी                                                        ३५४९९
मीरां                                                              ६०१८०
अनुज लुगुन                                                       १९६८
निदा फाजली                                                       ६६५७३
अनामिका                                                         १६०७४
नागार्जुन                                                          ३७६०८
अरुण कमल                                                      ११६४१
गगन गिल                                                        ४४९४
पंकज चतुर्वेदी                                                      ५६२६
दिनकर                                                           १६५६६९
नीलेश रघुवंशी                                                     २६५०
फैज़                                                             ६०८६३
मीर                                                              ३४७९४
शमशेर                                                           ११८९९
मंगलेश डबराल                                                    ६७०८
व्योमेश शुक्ल                                                      २३६४
अशोक कुमार पाण्डेय                                               ३९३०
अष्टभुजा शुक्ल                                                    ५४१८
केदारनाथ सिंह                                                    १५४००
लीना मल्होत्रा                                                     ५७१
धर्मवीर भारती                                                     २४१३८
केदारनाथ अग्रवाल                                                  २१०७७
इस साईट पर जो संख्याएँ हैं उनको तय करने वाले कारकों के बारे में सोचते हुए कई अटकलें दिमाग में आती हैं – यह मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग का क्षेत्र है इसे भारतीय बल्कि उत्तर-भारतीय समाज का प्रतिनिधि किसी भी रूप में नहीं माना जा सकता (यह और बात है कि मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ से \’हंस\’ जैसी पत्रिका, हार्ड कॉपी, लेने के लिए भी मुझे १००-१५० किलोमीटर चलना पड़ सकता है), भक्त कवियों और शायरों के पेज अधिक लोगों ने विजिट किये ही होंगे, स्कूल कॉलेज के सिलेबस में शामिल कवियों के यहाँ विजिट्स ज्यादा होंगे ही, जो मीडिया में या ऐसी ही लोकप्रियता/वर्चस्व की जगहों में काम काम करते हैं उनके भी विजिटर ज्यादा होंगे ही, जो हर वक्त इंटरनेट पर \’सक्रिय\’ रहते हैं उनके भी नम्बर्स ज्यादा होंगे ही, \’प्रतिबद्ध\’ कवियों के पाठक अधिक होने चाहिए आदि आदि लेकिन इन अनुमानों से विचलन भी खूब है. इंटरनेट पर नहीं दिखने वाले पंकज चतुर्वेदी और अष्टभुजा शुक्ल के पेज अरूण देव या अशोक कुमार पाण्डेय जैसे सक्रिय नेट-नागरिकों से ज्यादा लोगों ने देखे हैं, अशोक वाजपेयी और अरुण कमल के पृष्ठों पर विजिटर संख्या असद ज़ैदी और मंगलेश डबराल के पृष्ठों की मिली-जुली संख्या जितनी या अधिक है. अनामिका इन चारों से अधिक लोकप्रिय मालूम पड़ती हैं और कुल मिलाकर इन पाँचों की कोई प्रभावी नेट-सक्रियता नहीं है. अदम गोंडवी की लोकप्रियता केदारनाथ सिंह से दुगुनी से भी ज्यादा है, अज्ञेय से कम है लेकिन नागार्जुन के लगभग बराबर. मुक्तिबोध का पृष्ठ अज्ञेय के पृष्ठ से आधी बार विजिट किया गया है, और शमशेर का मुक्तिबोध से आधी बार. दिनकर का पेज ग़ालिब से लगभग दुगुनी बार और फैज़ से चार गुनी बार विजिट किया गया है. कबीर, मीरां और तुलसी मिलकर दिनकर से अधिक हो पाते हैं.

ये संख्याएँ एक स्तर पर हिंदी की कैननाइजिंग मशीनरी की सफलता को प्रतिबिंबित करती हैं और दूसरे स्तर पर उसके साथ कई तरह के तनावों को भी.
४
आप भारत भूषण अग्रवाल से पुरस्कुत कवि हैं। फिर आपने कविता लिखना छोड़ क्यों दिया?

हिंदी में बहुत सारे कवि हैं जो अच्छी कविताएं लिख रहे हैं। ऐसे में मेरे कविता लिखना छोड़ने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। 

(राजेंद्र धोड़पकर से रंगनाथ सिंह और अंकुर चौधरी की बातचीत)
राजेंद्र धोड़पकर को लगा मेरे   कविता करने से कुछ  सार्थक नहीं हो रहा है. उन्होंने मानो घोषणा करके कविता लिखना छोड़ दिया. उनकी यह कविता पढ़िये:
मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता था

मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता था
पहले मेरी बहुत लोगों से पहचान थी,
मैंने उनसे स्मृतियाँ पाई कविताएँ लिखीं

कविताएँ लिखीं और विद्वज्जनों की सभा में यश लूटा
मेरे अंदर एक विराट चट्टान थी जिसके आसपास पेड़ों पर
बहुत बन्दर रहते थे
जो फल खाया करते थे

मैं जब विद्वज्जनों की सभा से बाहर निकला तो
हवा में जहर फैला हुआ था
सारे बन्दर उससे मारे गए, मैं बहुत उदास हुआ
और अकेला चट्टान पर बैठा रहा
पेड़ों से हरे पत्ते और आकाश से पारदर्शी
पत्ते मुझ पर झरते रहे

मैंने कहा- मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता हूं
जब बन्दर ही नहीं रहे तो सारे परिश्रम का क्या अर्थ है
मैं पत्तों से पूरा ढका दो कल्पों तक बैठा रहा चट्टान पर
तपती धूप में
किसी समय हवा से नई और स्मृतियाँ गायब हो गईं
किसी युग में पेड़ भी कट गए

एक दिन एक तितली मेरे कंधे पर आकर बैठ गई
उसने कहा- सारे युद्ध समाप्त हो गए हैं
सारी विशाल इमारतें और मोटरकार आधी
धंसी पड़ी हैं जमीन में
सारे अखंड जीव नष्ट हो गए हैं
हवा से नमी और स्मृतियाँ गायब हो चुकी हैं
पीड़ा से ऐंठता मैं पहुंचा बाहर
विद्वज्जनों की सभा में पहुंचा
वहां बिना सिर और पंखों वाले लोग बैठे थे
मेरा बटोरा हुआ यश दरियों पर बिखरा पड़ा था
मैंने कहा- मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता था
लेकिन मैं-
लेकिन कोई फायदा नहीं था
उन लोगों के पास कोई स्मृति नहीं थी.
जानकीपुलसे
५

हिंदी के साहित्यिक समाज पर जिस एक सरंचना का प्रभाव बहुत गहरा रहा है वह है (संयुक्त) परिवार. (इस अंतर्दृष्टि के लिए गगन गिल का शुक्रिया, उनके किसी आत्म-कथ्य या लेख में यह पढ़ा था स्रोत याद नहीं)  उत्तर भारतीय परिवारों में जो सर्वाइवल की लड़ाईयाँ, ज़मीन-जायदाद की रंजिशें, पितृहन्ता-भ्रातृहंता आवेश और शक्तिहीन के दमन की तरकीबें और साजिशें पायी जाती हैं उनका असर हिंदी साहित्यिक स्फेयर की सरंचना पर गहरा रहा है. जिसे हम गुटबाजी आदि कहते हैं उसे इसी का फलन माना जा सकता है.
क्यूंकि कविता इस संयुक्त परिवार की सबसे पुरानी, \’अपनी\’ विरासत (शॉर्ट स्टोरी और नॉवेल उपनिवेशीकरण के साथ आये) थी इसको लेकर घर में भारी झगरा रहा है. और यही हिंदी साहित्य और आलोचना के बहुत समय तक कविता-केंद्रित रहने का एक प्रमुख कारण भी होना चाहिए.
६

हिन्दी समाज की तरह हिन्दी साहित्य में भी व्यक्ति का, व्यक्तिमत्ता का वास्तविक सम्मान बहुत कम है कुछ इस हद तक कि कभी कभी लगता है यहाँ व्यक्ति है नहीं जबकि बिना व्यक्ति के (उसी पारिभाषिक अर्थ में जिसमें समाज विज्ञानों में यह पद काम मे लाया जाता है) ना तो ‘लोकतंत्र’ (ये शै भी हिन्दी में वैसे किसे चाहिये?)  संभव है ना ‘सभ्यता-समीक्षा’ जैसा कोई उपक्रम। यह तब बहुत विडंबनात्मक भी लगता है जब हम किसी लेखक की प्रशंसा ‘अपना मुहावरा पा लेने’, ‘अपना वैशिष्ट्य अर्जित कर लेने’ आदि के आधार पर करते हैं। यूँ भी किसी लेखक के महत्व प्रतिपादन के लिये जो विशेषण हिन्दी में लगातार, लगभग आदतन काम में लिये जाते हैं – “महत्वपूर्ण” कवि, “सबसे महत्वपूर्ण” कहानी संग्रह,  “बड़ा” कवि, हिन्दी के “शीर्ष-स्थानीय” लेखक, “शीर्षस्थ” उपन्यासकार आदि – वे श्रेष्ठता के साथ साथ ‘विशिष्टता’ के संवेग से भी नियमित हैं। एक तरफ होमोजिनिटी उत्पन्न करने वाला तंत्र और दूसरी तरफ विशिष्टता, श्रेष्ठता की प्रत्याशा। व्यक्तिमत्ता के नकार और उसके रहैट्रिकल स्वीकार के बीच उसका सहज अर्थ कि वह ‘विशिष्ट’ नहीं ‘भिन्न’ है, कि अगर 700 करोड़ मनुष्य हैं तो 700 करोड़ व्यक्तिमत्ताएँ हैं कहीं ओझल हो गया है।


मेरिटोक्रेसी पर एक विलाप से

भारतीय समाज में \’मेरिट\’ उससे कहीं ज्यादा जटिल एक कंस्ट्रक्ट है जैसा अमेरिकी और योरोपीय समाजों में रहा है. हिंदी का साहित्य समाज अपनी तमाम यूटोपियन सद्कामना के बावजूद मेरिटोक्रेटिक समाज रहता आया है, इसका सवर्ण अवाँ-गार्द सामूहिकता के वाग्जाल के बीच \’अति विशिष्ट\’, \’भीड़ से अलग\’ स्वरों की बाट जोहता रहा है.  संयुक्त परिवार के असर, मेरिटोक्रेटिक छद्म और मध्यवर्गीय कामनाओं ने [आप एक कवि का बायो डाटा देखें वह मध्यवर्गीय मानकों पर उपलब्धियों का एक सूची पत्र होता है, गगन गिल के ही बायो डाटा में जितने देशों की यात्रा करने का ज़िक्र होता था हम लोग अपने दोस्तों घर वालों से कहते थे देखिये ये भी हिंदी कवि है हम कोई फालतू काम में नहीं लगे हैं :-)] ने साहित्य के क्षेत्र को लगभग \’रीयल स्टेट\’ रूपक में बदल लिया है. \’श्रीमान का हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण अति विशिष्ट \’स्थान\’ है पढकर लगता है आह प्राइम लोकेशन !लगता है मरीन ड्राइव पर सी-व्यू फ्लोर ले लिया है या उन्होंने अपने लिए एक \’ख़ास जगह\’ बना ली है से लगता है चलो इनके नाम भी प्लॉट आवंटित हो गया है. (बस श्रीमान से \’साहित्य से होने वाली आय\’ के अंतर्गत प्रविष्टि करने के लिए मत कहिये आप तो जानते ही हैं प्रकाशकों से भी हमारे तो पारिवारिक सम्बन्ध रहे – ना हमने हिसाब माँगा न उन्होंने दिया. आखिर संबंधों का ग्रेस भी कोई चीज़ होती है कि नहीं! )
अगर १२० करोड़ के देश में १०००-२००० लोग कवि के रूप में अपने को देखना चाहने लगें तो तो समूची शाविनिस्टिक शक्ति और विश्वामित्री बड़बड़ाहट उन् \’जाहिलों\’, \’मीडियाकरों\’ और \’हुडुकचुल्लुओं\’ को साहित्य के पवित्र प्रदेश से बाहर करने पर आमादा हो उठती है. पिछले दिनों \’फेसबुक कवियों\’ और ख़ासकर इस माध्यम में सक्रिय स्त्री कवियों को लेकर \’निजी बातचीत\’ में जो झुंझलाहट और बेरहमी देखने को मिली वह भी काफी शिक्षाप्रद थी.
यह और बात है कि एक दूसरे के लिखे में \’मानवीय नियति का विराट दर्शन\’, \’एक वृहत्तर वैश्विक दृष्टि\’, \’सम्पूर्ण मानवता की सच्ची स्वाधीनता का स्वप्न\’, \’संसार के समस्त उत्पीड़ितों की वाणी\’ आदि देखना हमारे लिए दैनिक है.
नहीं हमारी आँखों में कभी कोई फ़रेब था ही नहीं[ii]..

७

आह
          मुक्तिबोध!
[i] [तकरीबन इसी अवधि में मैंने साहित्य अकादमी और दूरदर्शन के साथ-साथ स्वतन्त्र लेकिन समृद्ध अंग्रेजी पत्रिका \’आलमोस्ट आयलैंड\’ के सालाना  अंतर्राष्ट्रीय आयोजन में [उन्होंने मुझे जयपुर से दिल्ली आने जाने का भी हवाई टिकट दिया था ताकि मैं अपने साले की शादी और उनका आयोजन दोनों अटैंड कर सकूं :-)] भी कविता पाठ किया है और \’केवल किराये\’ वाले सी.एस. डी. एस. के आयोजन में भी. जेब से पैसा खर्च करके बनारस ग्वालियर जयपुर हैबिटेट में पाठ से जो सुख मिला वह अन्य किसी आयोजन में नहीं. २००० में मेरे पहले सार्वजनिक पाठ – भारत भवन – से भी नहीं. कारण बहुत सीधा है – इन आयोजनों में साहिब लोगों ने कुछ भी तय नहीं किया था, इनकी गति और मुक्ति दोनों का सीधा सम्बन्ध इनके अर्थशास्त्र से है]
[ii] असद ज़ैदी कि एक काव्य पंक्ति को थोड़ा बदलकर.
________________________________
 mail@pratilipi.in

________________
बहसतलब -२ :
 १.भूमिकाएं जहां से शुरू होती हैं :
 २. कविता तो रहेगी : मोहन श्रोत्रिय 
 ४. मृत्यु से कविता की मौत तक : डोनाल्ड हॉल 
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