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Home » मलय की कविताएँ

मलय की कविताएँ

‘क्या यह     आग पीकर     जीने का     जलता हुआ     समय है?’ मुक्तिबोध के मित्र रहे नब्बे वर्षीय मलय (जन्म: 19 नवम्बर, 1929,जबलपुर) इस समय हिंदी के सबसे सीनियर रचनारत कवि हैं. ‘हथेलियों का समुद्र\’, \’फैलती दरार में\’, \’शामिल होता हूँ\’, \’अँधेरे दिन का सूर्य\’, \’निर्मुक्त अधूरा आख्यान\’, \’लिखने का नक्षत्र\’, \’काल घूरता है\’ आदि उनके प्रमुख […]

by arun dev
December 28, 2019
in कविता
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‘क्या यह    
आग पीकर    
जीने का    
जलता हुआ    
समय है?’
मुक्तिबोध के मित्र रहे नब्बे वर्षीय मलय (जन्म: 19 नवम्बर, 1929,जबलपुर) इस समय हिंदी के सबसे सीनियर रचनारत कवि हैं.
‘हथेलियों का समुद्र\’, \’फैलती दरार में\’, \’शामिल होता हूँ\’, \’अँधेरे दिन का सूर्य\’, \’निर्मुक्त अधूरा आख्यान\’, \’लिखने का नक्षत्र\’, \’काल घूरता है\’ आदि उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं. इसके अतिरिक्त एक कहानी-संग्रह \’खेत\’ तथा आलोचना-पुस्तक \’सदी का व्यंग्य\’ भी प्रकाशित है. उन्हें भावानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार, भवभूति अलंकरण, चंद्रावती शुक्ल पुरस्कार, रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.
मलय की ये नई कविताएँ हैं समालोचन पर. आज़ादी से पहले पैदा हुई पीढ़ी आज हमारे समय को किस तरह से देख और रच रही है. यह देखना अर्थगर्भित तो है ही विचलित करने वाला अनुभव भी है.

मलय की कविताएँ                   



टेढ़े चाँद की नोकें

विषमता की बर्बरता    
इतनी विकराल है   
देह के समुद्र में    
कष्ट के टेढ़े चाँद की नोकें              
              चुभती हैं   
हड्डियों में कीलों-सी गड़ती हैं    
साँसों की लहरें    
थरथराती रहती हैं
  
इच्छाएँ, फिर भी    
विवेक की ऊँचाई से   
गिरते प्रपात-सी गिरतीं-तेजस्वित   
एक होकर    
तूफानी लहरों पर सवार होतीं    
हार नहीं मानतीं       
तहस-नहस होता पर   
बचता हूँ टूटने से-   
डूबने से खुद में ही   
लथर-पथर होकर    
बेधड़क रहता हूँ   
कष्ट के टेढ़े चाँद की   
चुभती चतुराई भरीं   
घेरकर छातीं विपत्तियाँ   
कुछ नहीं-कर पातीं    
थरथराहट    
थमे न भले ही   
थाह पाता चलता हूँ   
देह के समुद्र में!

एक बार 

दृष्टि की टहनियों में   
उगते लहरते    
नए-नए पत्तों सा     
बदलता रहता हूँ   
समय    
हवाओं की तरह    
बहता है   
सक्रियता    
रात और दिन की   
दूरी में भी    
दरकी नहीं कभी   
आज तक       
अब एक-बार   
हज़ार बार   
मौत के सिर पर   
कील ठोकने की   
हुज्जत में लगा हुआ    
अपनी हाय-हाय से दूर   
एकदम सतर्क हूँ   
पता नहीं कितना?

शरीर  

स्वयं को काटती हुई    
उम्र    
आगे बढ़ती    
रहती है   
केवल शरीर है   
बदलाव में    
समाहित होता हुआ    
अपनी कर्मशीलता के   
स्वयं रोपता चलता है   
दिमाग के दमकते    
प्रकाश में   
किसी की कुछ नहीं सुनता   
अंदर से घबड़ाकर    
बड़बड़ाती विकलता को            
         चित्त करता हुआ   
लुभावनी मणियों के     
चमकते चमत्कार से   
मुग्ध नहीं होता,  
उन्हें    
अपने रास्ते से    
दरकिनार करता है   
खुद ही उपजाई    
किरण का    
केवल अकाट्य सबूत    
गति की पुकार    
होकर चलता है
उम्र के साथ    
उससे भी बड़ा    
बढ़ा होता है   
अपनी सीमाओं को   
समझने वाला शरीर!   
 

गहरे ताप में  

याद के बढ़ते    
गहराते ताप में   
ढलकर    
मिट जाने के सिवाय    
हीरा हो जाता हूँ
  
तुम्हारी    
दमक को समेटकर    
किरणीला    
कौंधों से लबालब    
भरा हुआ
  
क्या यह    
आग पीकर    
जीने का    
जलता हुआ    
समय है?   

_________________________
मलय
8839684891
Tags: कवितामलय
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