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Home » सबद भेद : रीति काल का स्त्री पक्ष : सुजाता

सबद भेद : रीति काल का स्त्री पक्ष : सुजाता

हिंदी साहित्य में ब्रिटिश राज्य की स्थापना से पूर्व ब्रज भाषा में जिस तरह की कविताएँ बनायी जाती थीं, उन्हें आचार्यों ने रीतिकाल कहा है. इसे ‘श्रृंगार’ और ‘प्रेम’ की कविताओं का भी समय समझा जाता है. दरबारी प्रभाव और सामंती रुचियों के लिए इस  काल की पर्याप्त निंदा भी हुई है. कुछ विद्वानों ने […]

by arun dev
May 24, 2015
in Uncategorized
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हिंदी साहित्य में ब्रिटिश राज्य की स्थापना से पूर्व ब्रज भाषा में जिस तरह की कविताएँ बनायी जाती थीं, उन्हें आचार्यों ने रीतिकाल कहा है. इसे ‘श्रृंगार’ और ‘प्रेम’ की कविताओं का भी समय समझा जाता है. दरबारी प्रभाव और सामंती रुचियों के लिए इस  काल की पर्याप्त निंदा भी हुई है. कुछ विद्वानों ने इसे पतन काल भी कह डाला है. अब चूँकि यह हिंदी पाठयक्रम का हिस्सा है तो गाहे –बगाहे इस पर (कु) चर्चा भी होनी है. अभी तक यह चर्चा पुरुषों की नैतिकतावादी दृष्टि के दायरे में ही रही है.
आज जब एक सचेत स्त्री- अध्येता इस काल को देखती है तब उसे एक ‘सांस्कृतिक धक्का’ लगता है कि जैसे किसी ने नायिका से  रीतिक्रिया करते हुए चुपके से उसका एम.एस.एस. बना लिया हो और उसे सार्वजनिक भी कर दिया हो और उसे देखकर राजा- दरबारी आह-वाह कर रहे हों और कवीजी पर मुहरों की बरसा हो रही है.
डॉ. सुजाता के इस आलेख में इस काल को लेकर कुछ नई बातें हैं. पढ़ें  
  
रीतिकाल और रति  का  एम.एम.एस
सुजाता

(एक)

रीतिकालपर  बात करनाहिंदी  साहित्य के इतिहासकार  के लिए आसान  विषय कभीनहीरहा.यातोवहरीतिकालकीलानत–मलामतमेव्यस्तहुआयाउसकेप्रतिएकरक्षात्मकरवैयाअपनाताहुआदिखा.जिसनायिकाभेद, श्रृंगार, रूपकथन,नखशिख वर्णनकेकारणरीतिकालआमजनसेकटा  हुआ प्रतीतहोताहैउसकाएकबनाबनायाखाँचारीतिकालकोपरम्परासेहीप्राप्तहुआथा.अत: रीतिकालकोगरियानाभीउतनासरलनहीथा.ब्रजभाषाअपनीपराकाष्ठापरथी.कविताकाऐसामनोहररूपइससेपहलेऔरबादमेंदिखाई  नही देता.आखिररीतिकालकोसाहित्यकेइतिहाससेगायब  नहीं कियाजा  सकता. केवलउसकेपाठकेतरीकोंकोबदलाजा  सकता है.किसीएक  पाठ मेंरीतिकालकोबद्धकरदेनाहीउसकविताकेसाथसबसेबड़ाअन्यायहै.अत: यदिरीतिकाव्यकोपूर्वकाव्य– परम्परासेविचलनभीमानलेंतोभीवहअवश्यहीआंदोलनकारीथाजिसकापाठआजभीहिंदीकेआलोचक, साहित्यकार,इतिहासकार और पाठककेसमक्षचुनौतीबनकरखड़ाहै.

(दो)

कोईभीपाठहोवहस्वयंअर्थकाउत्पादननहीकरताबल्किउसेअर्थकाजामापाठकपहनाताहै.जिसदृष्टि, अभिरुचि या कोणसेयहसम्भवहोताहैवही‘आस्वाद’ है.अत: काव्यास्वादकोतयकरनेकाकामकविकानहींहै.केशवदासभीजबकहतेहैं–
‘आगेकेसुकविरीझिहैंतोकविताईनतोराधिकाकन्हाईसुमिरनकोबहानौहै.‘
तो वे दरअसलपाठककोउसकेयादृच्छिक‘आस्वाद’ की सहूलियतहीदेरहेहैं.1

किसीपाठकेबहुआयामीस्तरोंकोउजागरकरनेकेलिएयहआवश्यकहैकिसाहित्यिकपाठकेसाथसाहित्येतरपाठकोभीप्रस्तुतकियाजाए.यहसाहित्यिकपाठकोएकांगी, सीमित या प्रभाववादीहोनेसेबचाताहै.यहअंतर्पठनीयतासाहित्यके‘पाठ’ की संरचनामेंनिहितप्रत्यक्ष–परोक्षसंकेतोंकोपकड़नेमेंसहायकहोतीहै.2 अत: रीतिकालकापाठवैसानहीरहजाताजैसाकिअबतकहोताआयाहै.स्त्रीदृष्टिसेरीतिकालकोपढनानईअर्थच्छवियोंउद्घाटितकरनेजैसाहै.जिसरीतिकालनेस्त्रीकोकेवलकामिनीरूपमेंदेखा,सामाजिकजीवन से निकालकरउसे ‘अभिसारिका’ बना दियाउससे आज केस्त्रीविमर्श कोआपत्ति हो यह स्वाभाविक है.स्त्रीविमर्श पितृसत्तात्मकसमाज मे स्त्रीअस्मिता के हाशियाकरणकी प्रक्रियाको समझने कादृढ आधार प्रदानकरता है. सामंतीसमाज मनुष्य कीश्रेणी से पददलितकरके स्त्री को‘वस्तु’ मेंपरिवर्तित करदेता है जोपुरुष के आनंदका  कारणबने. एक दीर्घव सूक्ष्मसामाजिक अनुकूलनकी प्रक्रियाद्वारा स्त्री मेंसे ओज औरस्वतंत्रता केगुणों का सफायाकरके उन अभिलक्षणोंको प्रशंसितऔर पुरस्कृतकिया जाता हैजो एक बधियाके होते हैं– डरपोकपना, गोलमटोलपन, नज़ाकत, क्लांतिऔर सुकुमारता.3 रीतिकालका नायिकाभेदऔर नखशिख वर्णनइसी प्रकार केअभिलक्षणों कीप्रशंसा का गान  है. किंतुयहाँ उद्देश्यमहज़ आपत्ति दर्जकरना नहीं हैवरन यह परखनाहै कि जोलिख दिया गयाहै वह  किसके आस्वादका विषय हैऔर स्त्री काउस आस्वाद मेंक्या हिस्सा है?    


(तीन)

किसीरचनाकारचनाकालकुछभीहोउसकापाठअपनेसमयकेदबावोंकेतहतहीकियाजासकताहै/जानाचाहिए.पाठककालिकदृष्टिसेसाहित्यकारकेसमयमेंनहींबैठाहोता.श्रृंगारीकविताकापाठवलेखनइनदोनोंप्रक्रियाओंकेबीचएकअवश्‍यंभावीअंतरालहै.यहअंतरालसर्वप्रथमतोकालिकहै, द्वितीययहअंतरालसामाजिकतथाऐतिहासिकदृष्टिकाभीहै.यहभीमहत्‍वपूर्णहैकिचूँकिसाहित्यकापाठकस्‍पेसकीदृष्टिसेलेखकसेभिन्नस्पेसमेंअवस्थितहोताहैअत: वहअनिवार्यत: उनबलाघातोंतथातथ्‍योंसेसहमतनहींहोताजिन्‍हेंसाहित्कारनेअपनीरचनाकेलिएचयनितकियाथा.कालऔरस्पेसकायहअंतरालरीतिकालीनकविताकेआस्वादकेस्वरूपकोअनिवार्यत: प्रभावितकरताहै.

दरअस्ल,  काव्यास्वादकेवल अनुभूतिका विषय नहीहै,अनुभूतिके अतिरिक्तभी उसमें बहुतकुछ शामिल होताहै.4स्वाभाविकहैकिआस्वादकोप्रभावितकरनेवालाएकमहत्वपूर्णआयामलैंगिकभीहै.इसदृष्टिसेरीतिकालीनकविताकीआस्वाद्यतायापठनीयताकास्त्रीकोणबदलजाताहै.21 वींसदीमें‘श्रृंगार काल’ एक ‘सॉफ़्टपॉर्न’ की तरह सामनेउपस्थितहै.भलेहीपुरुषकेलिएउसकीआस्वाद्यतामेकुछविशेषअंतरनआयाहोलेकिनजो‘स्त्री’ रीतिकालका‘विषय’ बना  दी गयी थी वह अपनेहोशहवासमेआजउसकेसमक्षखड़ीहै.

(चार)

काव्यशास्त्रीयपरम्परा  मेदेखें तो साहित्यास्वाद  के लिएसाधारणीकरण काहोना आवश्यक है.साधारणीकरण क्याहै ? रामचंद्रशुक्ल अपने निबंध‘साधारणीकरण औरव्यक्तिवैचित्र्यवाद’ मेंलिखते हैं – “साधारणीकरणका  अभिप्राययह है किपाठक या श्रोताके मन मेंजो व्यक्ति–विशेषया वस्तु–विशेषआती है,वहजैसे काव्य मेंवर्णित ‘आश्रय’ के भावका अवलम्बनहोती है,वैसेही सब सहृदयपाठकों या श्रोताओंके भाव काआलम्बन हो जाताहै.….जैसे,यदिकिसी पाठक याश्रोता का किसीसुंदरी से प्रेमहै तो श्रृंगाररस की फुटकलउक्तियाँ सुननेके समय रह–रहकरआलम्बन रूप  में उसकीप्रेयसी की मूर्तिही उसकी कल्पनामें आएगी.”5इससेसिद्ध हुआ किसाधारणीकरण आलम्बनत्वधर्म का होताहै.रीतिकालीन कविताका आलम्बन स्त्रीहै, ऐसीनायिका, जिसकी कामोत्तेजकगतिविधियाँऔरशारीरिकसौंदर्यनायककोआनंदप्रदानकररहीहैं, उसका चित्तहरणकररहीहैं.
कुचगिरिचढिअतिथकितहैचलीडीठिमुँहचाड़.
फिरिनाटरी,परियैरही, गिरी चिबुककीगाड़॥
आलम्बनत्वधर्मकेसाधारणीकरणसेक्यायहरचनास्त्रीकेलिएउसीप्रकारआस्वाद्यहैजैसाकिपुरुषकेलिए? क्या वह आनंदकाकारणबनकरआनंदप्राप्तकररहीहै? समाज से कटीहुईदरबारीकवितामेंएकआमस्त्रीकैसेआस्वादग्रहणकरसकतीहैजबकि स्वयं दरबारकाचरित्रपौरुषमयहै, सामंती है.6 दरबारोंमेसंगीत–नृत्यकेअखाड़ेलगाकरतेथेऔरकविअपनेआश्रयदाताकीरुचिकेअनुसारकवितालिखाकरताथा.7स्त्रीयहाँ‘कर्ता’ न होकर‘वस्तु’ थी.जिसकावस्तुकरणहोगयाहोउसकीकैसीअनुभूति! येसभीकाम–चेष्टाएँस्त्रीकीउपभोग्यतामेंश्रीवृद्धिकरनेकेलिएहीनिर्मितप्रदर्शितकीगईंहैं.उसकेव्यक्तित्व,प्रेम, विरह,हाव–भाव, लीला–विलासका एक हीउद्देश्य है, उसके आकर्षणको समृद्ध करकेअधिक से अधिकउपभोग्य बना देना.8इसआलम्बनरूपीनायिकाकेअंगोंकावर्णनएकस्वतंत्रविषयहोगयाऔरनजानेकितनेग्रंथकेवलनखशिखवर्णनकेलिएलिखेगए.9

डॉ. नगेंद्रकहतेहैंकि‘साधारणीकरण कविकी भावनाओंका होता है’.10लक्ष्मण–परशुरामसम्वादमेंक्रोधऔरउपहासदोनोंभावोंकासाधारणीकरणनहीहोसकता.कविकीभावनाएँलक्ष्मणकेसाथहैं.अत: सहृदयउसीकेसाथस्वयंकोएकाकारकरपाएगा.नायिका–भेद, नखशिख वर्णन, रूप कथनकी कविता की रचनापुरुषनेपुरुषकेआस्वादनकेलिएहीकीहै.इसलिए‘आनंद’ मेंस्त्रीकावहहिस्सागायबहैजिसकेसाथवहसाधारणीकरणकरपाए.वहकेवलयौन–वस्तुमेंबदलजातीहैजोदूसरेलैंगिकप्राणियों(पुरुषों) केइस्तेमालऔरआस्वादनकेलिएहै.इसप्रकारनिष्क्रियताकेरूपमेंस्त्रीकीपह्चानकरकेउसकीलैंगिकताकोनकाराभीजाताहैऔरउसकामिथ्यानिरुपणभीहोताहै.11ऐसाकरकेएकअभीष्टस्त्रीरूढछविकीप्राप्तिहोतीहै,जिसकाआकांक्षी पितृसत्तात्मकसमाज रहता है.यही कारण हैकि  वात्सल्यकेआस्वादन  में स्त्रीकाजितनाहिस्साहैउसकाशतांश भी श्रृंगार मेंनहींहै.जहाँसम्भवहोसकताथावहाँउसेअलौकिकऔरअशरीरीबनादियागया. आचार्यविश्वनाथप्रसादमिश्रभारतीय  आलोचना  और साधारणीकरण पर चर्चाकरतेहुए  कहते  हैं– “जो यह समझतेहैंकिरसकेवलआनंदकोध्यानमेंरखताहैतोवेभ्रममेंहैं.रसकेआनंदकीभूमिलोकभूमिहै.”12 स्पष्ट है साहित्यकीपठनीयतामेंसाहित्येतरविमर्शोंकीभीअपनीभूमिकाहोतीहै.लेकिनआगेवेसमझातेहैंकि‘रस’ अपनेस्वरूपमेंहीसामाजिकताकोध्यानमेंरखताहैअत: रीतिकालीनकाव्यभीसमाज–विरोधीनहींमानाजानाचाहिए.जोसमाज–विरोधीहैवहस्वयमेव‘रसाभास’ की कोटिमेंचलाजाताहै. वस्तुत:, आधी आबादीकेप्रतिउपभोगदृष्टियदि  समाज–विरोधीनहीं  है तो इसका सीधाअर्थयहीहैकि‘रस’ और साधारणीकरणकीदृष्टिसेइससमस्तविवेचनकेकेंद्रमेंस्त्रीहैहीनहीं.यूँभीलोकभूमिमेंस्त्रीकेवलपत्नीयाप्रेमिकानहींहैऔरजीवनकाआनंदकेवलरति–क्रीड़ाएँनहींहैं.

अस्तु, आस्वादकोईलिंग–निरपेक्षअवधारणानहींहै.इसलिएएकस्त्रीकेलिएआस्वादकास्वरूपनिश्चितरूपसेपुरुषसेभिन्नहोगा.कोईदो  पाठक किसीपाठसेएकअर्थाभिप्रायनहीलेते.पाठ  में उपस्थितअवकाशोंकोहरपाठकअपनेतौरपरभरताहै.13 यहप्रश्नभीज़रूरीहैकिसाहित्यकोरचतेहुएभीक्यायहजेंडरिंगकीप्रक्रियाकामकरतीहैजोकाव्यास्वादकेस्वरूपकोप्रभावितकरतीहो? या क्या लेखकभीस्वयंयहतयकरताहैकिसाहित्यास्वादकाक्यास्वरूपहोगा? निश्चित रूपसेरीतिकालकेआस्वाद  के संबंध मेंयहीहोताहैक्योंकिरीतिकालीनकविताकेकाव्यास्वादकेस्वरूपकोसमझनेकेलिएजोभीपारम्परिकव्याख्याएँकीगयींउनका‘अभिप्रेत पाठक’ पुरुष ही है.रसकोअखण्डऔरब्रह्मानंदस्वरूपमाननेवालीपारम्परिकसरणियाँ, जिनका पितृसत्तात्मकसमाजकेप्रतिनिधियोंनेसूत्रपातकिया, उनमें‘सहृदय’ और ‘साधारणीकरण’ की व्याख्या पुरुषकीदृष्टिसेकीगईंऔरआलम्बनरूप  में जो स्त्रीउपस्थितहैवहआस्वादनकीप्रक्रियामेंअनुपस्थितहै.


(पांच)

इसमेंआश्चर्यकी  बात नहींकिरीतिकालकीस्त्रीपूरीतरहसेपुरुषकीनिर्मितिहै.यौवनमदमेंमत्तनायिकाकीस्वच्छंदताअपनेआपमेंपुरुषकेलिएआनंदकाविषयहै.इसस्वच्छंदताकीकल्पनाकाआनंदस्त्रीकेलिएभ्रमहै. दरअसलविषयबनजानेमेंहीएकभ्रमहै.‘विषय’ बनकरमनुष्यसमझताहैकिवही‘कर्ता’ है.लेकिनहोतासिर्फइतनाहैकिवहकिसीबड़ेसिस्टमयाकिसीबड़ेसंस्थानकाऔजार–भर बनताहै.14बिहारीकीनायिकाभीजबराहमेंनायककोछ्लसेटकराकरउकसानाचाहतीहैतोवहदरअस्ल‘कर्ता’ नहींहै.15स्थितियोंकोनियंत्रितवहनहींकरतीहैबल्किकविकेहाथमें, उस बड़ी पितृसत्तत्मकसामाजिकसंरचनाकाएकपुर्ज़ाभरहैजिसमेंस्त्रीकीयौनिकताउसकेअपनेआनंदकासाधननहींवरनपुरुषकेमनोरंजनकाविषयहै.रीतिकालीनकविताकेआस्वाद्नमेंस्त्रीकेलिएयहएकबड़ीबाधाहैकिवह स्वयं कोवहाँजिसरूपमेउपस्थितपातीहैउसकेसाथतादात्म्यस्थापितकरनाकठिनहै. रीतिकालीनकविताकीआस्वाद्यतामेंकठिनाईहीयहहैकिवहउसबड़ेसिस्टम, जिसे हम समाजकहेंगे, का उत्पादहै जिसकी संरचना मेंयहनिहितथाकिसाहित्यकापाठकस्त्रीनहीहै.पाठऔरपठनकीभीएकराजनीतिहोतीहैजोअनिवार्यत: सत्ताशक्तिसेसम्बद्धहोतीहै.पितृसत्तात्मकसमाजमेंसत्ताजिसकेपासहैसाहित्यमेंआस्वादनकेलिएवहीअभिप्रेतपाठकहै. 
स्त्रीकी यौनिकताउस  जेंडरस्टीरिओटाइप काशिकार रही हैजिसके अनुसार स्त्रीकामोत्तेजना काविषय तो हैलेकिन स्वयं उसकीकामेच्छा स्वतंत्रना होकर केवलपुरुष के लिएआलम्बन का कामकरती है. श्रृंगारकी कविता केवलपुरुष के आस्वादनका विषय नहींहोनी चाहिए. वहसमान रूप सेस्त्री के आस्वादका विषय भीहै और यहकहने की आवश्यकतापड़ना अपने आपमें कुछ संकेतकरता है. समाज  की हीतरह साहित्यऔर साहित्यास्वादकी संरचना लैंगिकभेद भाव सेमुक्त नही है. सहीकटावों और गोलाइयोंमे उलझा रीतिसाहित्य मानव स्त्रीकी ओर मुखातिबही नहीं है. वहाँवह स्त्री हैजो इस कदरभरमायी हुई हैकि अपनी यौनिकतासे ही बेदखलहै. कविता चाहेकामिनी की परछाईंमात्र से अंधाहोने को लेकरभयभीत हो याकामिनीकीहीअलकों, चुम्बनोंऔरवक्षपरजीवनन्योछावरकरकेप्रगतिशील का तमगापानाचाहतीहोउसेपढतेहुएखुदको‘ठगा हुआ’ महसूस होताहै.साहित्य, साहित्येतिहास और साहित्यशास्त्रसभीमेंस्त्रीकापक्षनहींदिखाईपड़ता..स्त्रीकीदृष्टिसेरीतिकालीनश्रृंगारीकविता, नखशिख और नायिकाभेदऐसाप्रतीतहोताहैजैसेरातमेंरतिक्रीड़ारतस्त्रीसुबहउठीतोयहदेखकरअवाकरहगईकिउसकाएम.एम.एस. बनालियागयाहैजोसंचारकेहरमाध्यमपरप्रसारितहोकरपुरुषकेआनंदकाकारणहोगयाहै.
________
संदर्भ: 
1.हिंदी साहित्य और सम्वेदना का विकास , डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ.58 ,लोकभारती प्रकाशन
2 आस्वादन के आयाम, डॉ. वीरेंद्र सिंह, प.116,बोधि प्रकाशन, जयपुर
3. विद्रोही स्त्री ,जर्मेन ग्रियर , प. 16,राजकमल प्रकाशन
4 संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद एवम प्राच्य काव्यशास्त्र,गोपीचंद नारंग ,पृ. 213,साहित्य अकादमी,
5.साधारणीकरण एवम व्यक्तिवैचित्र्यवाद,पृ.157 चिंतामणि भाग-1, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य सरोवर,आगरा.
6.रीतिकाव्य की भूमिका , डॉ नगेंद्र , पृ.171 ,नेशनल पब्लिशिंग हाउस.
7 हिंदी साहित्य का  अतीत -2, आचार्य विश्वनाथप्रसाद  मिश्र, पृ. 54, वाणी प्रकाशन
8 रीतिकाव्य की भूमिका , डॉ .नगेंद्र ,पृ. 171 नेशनल पब्लिशिंग हाउस.
9. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,पृ. 131,नागरी प्रचारिणी सभा ,काशी
10.रीतिकाव्य की भूमिका, डॉ नगेंद्र , नेशनल पब्लिशिंग हाउस
11.विद्रोही स्त्री, जर्मेन ग्रियर ,पृ.16,राजकमल प्रकाशन
12. हिंदी साहित्य का  अतीत -2,आचार्य विश्वनाथप्रसाद  मिश्र, पृ. 7,वाणी प्रकाशन
13. संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद एवम प्राच्य काव्यशास्त्र,गोपीचंद नारंग ,पृ. 230,साहित्य अकादमी
14. फूको : ज्ञान और सत्ता का विमर्श,आलोचना  से आगे सुधीश पचौरी ,पृ.113,राधाकृष्ण प्रकाशन
15. बिहारी शती –विद्यावाचस्पति पण्डित विष्णुकांत शुक्ल,निहाल पब्लिकेशंस,दिल्ली
अन्य संदर्भ:
16.रीति –श्रृंगार , डॉ नगेंद्र ,साहित्य सदन , झाँसी
17.स्त्री अधिकारों का  औचित्य साधन, मेरी वोल्सटनक्राफ्ट,राजकमल प्रकाशन
18. इतिहास में स्त्री, सुमन राजे, भारतीय ज्ञानपीठ
19. स्त्री पराधीनता, जॉन स्टुअर्ट मिल, राजकमल प्रकाशन
_________

डॉ. सुजाता

सहायक प्रोफेसर 
श्यामलाल कॉलेज, शाहदरा/दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली.
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