शिवशंकर मिश्र : ९ अक्टूबर १९५९, (उत्तर -प्रदेश ) उच्च शिक्षा – इलाहाबाद और बनारस से बाल्जाक (पीजेंट्स) और प्रेमचंद (गोदान) पर शोध कार्य किसान संगठनों में सक्रिय गायन और अभिनय भी. पत्र – पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित सहयात्रा प्रकाशन (कथादेश) से अंतिम उच्चारण कहानी संग्रह जल्दी ही. फिलहाल : अध्यापन ई-पता : shivshankarmishra99@gmail.com शिवशंकर […]
बाल्जाक (पीजेंट्स) और प्रेमचंद (गोदान) पर शोध कार्य
किसान संगठनों में सक्रिय
गायन और अभिनय भी.
पत्र – पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित
सहयात्रा प्रकाशन (कथादेश) से अंतिम उच्चारण कहानी संग्रह जल्दी ही.
फिलहाल : अध्यापन
ई-पता :shivshankarmishra99@gmail.com
शिवशंकर मिश्र पिछले कई दशकों से कहानियाँ लिख रहे हैं. जिस तरह कि वह कहानियाँ लिखते हैं उसके लिए उन्हें लम्बे अंतराल की दरकार होती है. 52 की उम्र में उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हो रहा है जिसमें कुल जमा 6 कहानियाँ हैं. इसके अलावा बमुश्किल उनके पास प्रकाशित–अप्रकाशित दो–चार और कहानियाँ होंगी. ज़ाहिर है शिवशंकर तात्कालिकता के मोह से बच कर सृजनात्मक विवशता के कारण कहानियाँ लिख रहे हैं. ये कहानियाँ भारतीय समाज के देशज अनुभवों से समृद्ध और शिल्प की नई प्रविधियों से कुछ इस तरह सधी हुई हैं कि चेतना और सौंदर्यबोध दोनों स्तरों पर प्रभावित करती हैं.
कहानिओं ने कथ्य की एकरसता और प्रभाव की एकता से पाठ की अनिश्चितता, संशय और अंतरभाष्य की प्रविधि तक लम्बी यात्रा की है. कहानी के पाठ की विविध संभव व्याख्याएं, अंतराल और खुले अन्त आज कहानी के नए प्रतिमान हैं. शिवशंकर अपनी कहानिओं में अंतरपाठ का इस्तेमाल करते हैं और व्याख्याओं के अनेक चोर दरवाजे छोड़ देते हैं. उनकी दृष्टी ग्रामीण बनैले समाज पर है पर उनका तीसरा नेत्र इसके कारणों के वैचारिक आधार पर भी टिकाहै.
अंतिमउच्चारण
दस साल का हो जाने पर भी जब तीसरालड़का बोलने की बजाय महज इशारे करता और लोगों को देख कर निर्मल हँसी हँसता, तो हरखूमिसिर को निराशा हुई. उन्हें लगा कि यह बड़े लड़के की तरह नहीं कि बम्बई से पैसा कमाकर भेजे , घर आने पर खेती के काम में हाथ बँटाये या गाँव में किसी से झगड़ा-टंटाहोने पर बाप की बगल में लाठी लिये डटा रहे. एक रात नींद आने से पहले मिसिर को जंगीपाठक के भाई गूंगे पाठक की याद हो आयी. गूंगे पहलवान ने गूँगेपन और थोड़ा बहरेपन केबावजूद अपने परिवार की उन्नति में जो मदद की, गाँव में जब-तब इसके चर्चे चलते- …कि कैसे गूंगे के रहते गांवदारी के मसलों में जंगी पाठक से लोग हमेशा दबते थे, …कि कैसे गूंगे पाठक जब खेत में पहुँचते तो मजदूर मुस्तैदी से काम करने लगते, …कि कैसे एक बार हाथ भर जमीन के लिए लाठियां चलीं और गूंगे शहीद हो गए…आदि-आदि. मिसिर खिल उठे. उन्हें लगा कि अगर दूध-घी की भर्ती की जाय और रियाज-पानीपर जोर दिया जाय, तो घर में जल्दी ही गूंगे पहलवान जैसा एक लठैत तैयार हो सकता है.फिर मिसिर की आँखों में पंचायतों में उनका रुख भांपते लोगों, दखल की हुई बंजर जमीन, डरे हुए मुस्तैदी से हल चलाते मजदूरों और लहलहाती फसलों के कई सपने तैर उठे.
शायदइसी उत्साह में अगले दिन जब भैंस की खली और मिट्टी के तेल की खरीद के लिए मिसिरबाजार गए, तो तीसरे लड़के के लिए मारकीन का कुर्ता और चारखाने का जांघिया सिलातेआये. मिसिराइन को निर्देश दिया कि इसे थोड़ा दूध-मट्ठा दे दिया कर. यह पहली बार था, जब कि उसकी ओर ध्यान दिया गया. मिसिर दिन भर खेतों में होते या सरपंच की चौपाल मेंबैठ कर अपनी हैसियत पुख्ता कर रहे होते. मिसिराइन भोर से देर रात तक घरेलू धंधोंमें उलझी रहतीं. बड़ा बेटा बम्बई में पैसे कमा रहा होता. मझला प्राइमरी स्कूल मेंपढ़ने जाता, छुट्टी होने पर दखिनहिया माई के चौरे के पास पीपल की छाँव मेंगुल्ली-डंडा खेलता या कुछ अनाज झटक कर लाई-गुड और चूरन खरीदने की फिराक में इधर-उधरमंडराता रहता.
छोटे को पढाई के काबिल नहीं समझा गया. …जब बोलता ही नहीं, तो पढेगाक्या? इस तरह पढ़ाई -लिखाई के जंजाल से बचा रहा वह. बच्चों के संग खेलने का बड़ा मनहोता. लेकिन उसकी उम्र के लड़के मजाक उड़ाते. छोटे बच्चे उसके संग खेलने में हिचकते, शायद डर जाते थे. वह मुंह लटका कर किसी नुक्कड़ परखड़ाहो जाता. आते-जाते कोई दिखजाता तो फिर वही निर्मल हंसी. लोग गंभीर हो जाते, अजनबी आँखों से उसे घूरते और आगेबढ़ जाते. वह उदास हो जाता और चुपके से पड़ोस के मंदिर में घुस जाता. वहां बेडौलचिकने पत्थरों को सूंघने -चाटने और चढ़ाए हुए फूलों को इकट्ठा करने में व्यस्त होजाता. कम ही कभी ऐसे अवसर आते, जब दोपहरी में मिसिराइन को तेल लगाने के लिए मिसिरकोठरी में बुलाते. खूब आत्मीयतापूर्वक बैठे माता-पिता के चेहरों पर एक विशेष प्रकारका मानवीय भाव दमकता रहता, जो कभी ऐसे ही अवसरों पर दिखता था. वह भी दौड़कर वहांपहुंच जाता. जल्दी ही माता-पिता दृढ़ता से उसे खेलने भेज देते. वह कहाँ जाए..? किसकेसंग खेले..? कोई तो नहीं खेलता उसके साथ..! मुंह लटकाए वह फिर पड़ोस के मंदिर मेंपहुंच जाता, जहां तरह-तरह के फूलों, चन्दन और हवन की गंध में एक अलग माहौल मिलता, जो घर के माहौल से बेहतर होता.
छोकरा बाढ़ पर है और आगे चलकर कपड़ेछोटे हो सकते हैं, इस भय से मिसिर ने अभी तक उसे नए कपड़े नहीं सिलाए थे. भाइयों केजो पुराने रंगउड़े कपड़े पहनाये गए, उनमें उसकी रूचि नहीं बनी. इस तरह उन कपड़ों केचीथड़े हमेशा मंदिर के पिछवाड़े घूर पर पाए गए. लेकिन आज नए कपड़े पहनकर वह बड़ी देरतक खुद को निहारता रहा और दरवाजे से हो कर गुजरने वालों को दिखाता रहा. नए कपड़ों कीचिकनाई से बदन में गुदगुदी होने लगी. उसे लगा कि अब गर्मियों में जब बारातेंसजेंगी, झैंयक-झैंयक बाजे बजेंगे और सजे-धजे पुरुष और कुछ एक बच्चे ट्रैक्टर परसवार होकर कहीं बहुत दूर जायेंगे, मिठाइयाँ खायेंगे, तो उनके संग वह भी जा सकेगा.इस विचार से उसे इतनी खुशी हुई कि कुर्ते का दामन खींचते हुए गाँव की गलियों मेंदौड़ पड़ा. जो भी मिला, प्रसन्नता से \’हे हे\’ करके उसका ध्यान खींचा, कुर्ता दिखायाऔर आगे बढ़ गया. इस तरह गाँव की दो परिक्रमा हो गयी और मन की खुशी नहीं चुकी, तो नहरकी ओर दौड़ गया वह. वहां बहते हरे पानी और दूर तक फैले बेतरतीब सिंवान कोदेखते-देखते कपड़ों की ओर से ध्यान हट गया भूख लग आयी और वह घर की ओर लौट पड़ा. नहरसे गाँव की ओर जाने वाली पगडंडी के किनारे-किनारे दरारों वाली काली मिट्टी में पलाशऔर झरबेरी के तितर-बितर झाड़ खड़े थे. थोड़ी देर तो कुर्ते की जेब में हाथ डाले बिनाकुछ देखते हुए चलता रहा वह, लेकिन जल्द ही, लगभग बीस कदम चलने के बाद, झरबेरी केझाड़ में चमकते नन्हे सिंदूरी फलों ने उसका चित्त मोह लिया. दौड़ कर वह झाड़ केनिकट उकडूँ बैठ गया. उसे याद आया कि मंदिर में जब एक दिन बहुत-सी औरतों ने जलचढ़ाया था, तो कुछ विचित्र फलों, फूलों और पत्तियों के साथ ये नन्हे सिंदूरी फल भीदिखे थे.
ताबड़तोड़ पांच-छः झरबेरियाँ तोड़ते-तोड़ते उंगलियों में कई कांटे चुभ गए.कांटे चुभते, तो वह कान के पास हाथ ले जाकर हिलाता, खून को कुर्ते में पोंछता औरझरबेरियाँ तोड़ने-खाने लगता. दोपहर तक झरबेरियाँ खाते-खाते जब तृप्त हो गया औरकुर्ता कई जगह से फट गया,तो उसके मन में एक विचार कौंध गया कि जो चीज उसको इतनी भलीलगी, वह जरूर सबको भली लगेगी. फिर कुर्ते को उतार कर ढेर सारी झरबेरियों की पोटलीबनायी और गाँव की ओर दौड़ पड़ा. वह झरबेरियाँ खाकर खुश होते लोगों की कल्पना कर रहाथा. इस कल्पना से मन में कुछ ऐसा उल्लास उमग आया कि बरबस उसके मुंह से \’बईऽऽऽऽबईऽऽऽऽ \’ का उच्चारण फूट पड़ा. \’बेर\’ कहने की कोशिश में वह \’बईऽऽऽऽ बईऽऽऽऽ\’ चिल्लाता जा रहा था. पहला उच्चारण था यह उसका ….. दरवाजे-दरवाजे \’बईऽऽऽऽबईऽऽऽऽ\’ चिल्लाते हुए वह बच्चों को झरबेरियाँ बांटता रहा . बाद में बड़ी उम्र की लड़कियों औरबहुओं ने भी झरबेरियाँ लूटने में उत्साह दिखाया. बहुओं के देर से भोजन बनाने यानौजवानों की आवारगी पर झींकते और माला जपते बूढ़ों को भी उसने झरबेरियाँ देनीचाहीं, लेकिन उन्होंने यह समझ कर कि छोकरा चिढ़ा रहा है, झिड़क दिया.किसी-किसी नेतो लाठी भी उठा ली. वह कुछ दूरी पर खड़ा होकर विस्मय से उन्हें देखता और चलदेता…. .
गाँव के मंद उबाऊ जीवन में, जहाँअतीत की छोटी-छोटी बातों का जिक्र कर के लोग ऊब मिटाते हैं, यह एक महत्वपूर्ण घटनाथी. बच्चों के लिए तो पूरा मेला था. उनकी पूरी पलटन उसके पीछे- पीछे गलियों मेंदौड़ती रही. वे उछल रहे थे और तालियाँ पीट रहे थे. नए सखा को छू रहे थे और बेर मांगरहे थे. बहुत अच्छा लग रहा था उसे. उसका सब कुछ बच्चों को अच्छा लग रहा था आज.भरा-पूरा स्वस्थ शरीर, छोटे-छोटे खड़े बाल,गेहुंआ रंग, शरीर पर भूरे चकत्ते, सदाखुले रहने वाले होठों से बहता लिसलिसा पदार्थ, निर्मल खिलखिलाहट,आँखों में सहजजिज्ञासा और आत्मीयता की चमक, उच्चारण की विफल चेष्टा और सफल संकेत-बच्चों का मनमोह रहा था यह सब. अब तक उसके पिता ने उसका कोई नाम नहीं रखा था. वह घर में सबसेछोटा था, लिहाजा उसको सब छोटका कहते थे. यही उसका नाम था. लेकिन छोटे बच्चों कोअपनी उम्र से बड़े सखा को \’छोटका\’ कहना शायद उचित नहीं लगा. उन्होंने उसके प्रथमउच्चारण को ही उसका नाम मान लिया और उसे \’बई\’ कहना शुरू कर दिया. बाद में पूरे गाँवने इस संज्ञा को स्वीकार कर लिया. बई के लिए अपूर्व उल्लास का दिन था वह. घर केअकेलेपन से उबरकर पहली बार वह गाँव के जीवन में शामिल हो गया था- अपने ढंग से.
साँझ हो रही थी. आकाश में पक्षियोंके काफिले उत्तर की ओर उड़े जा रहे थे.सिंवान से लौटते पशुओं के खुरों से धूल उड़रही थी गाँव की गलियों में. अँधेरा चुपचाप पसर रहा था. बईकीटांगों और आँखों मेंकच्ची जामुन-सी कसैली थकान महसूस हुई. घर की ओर लौट पड़ा वह- फटे कुर्ते की पोटलीमें थोड़ी झरबेरियाँ लिए हुए. उसे पूरा विश्वास था कि माई झरबेरियाँ पाकर बहुत खुशहोगी. आंगन में ढिबरी जलाती मिसिराइन छोकरे की वजह से होने वाली जगहँसाई से वैसे हीकाफी गुस्से में थीं और जब नए कुर्ते की यह गत देखी, तो लाल भभूका हो गयीं.कानउमेठते हुए उसकी पीठ और गाल पर दो-तीन हाथ जड़ दिये उन्होंने और देर तक बड़बड़ातीरहीं, जिसका सारांश यह था कि अभी क्या पिटाई हुई है, बाप के आने पर असली कुटम्मसहोगी. डर के मारे वह भीतर कोठरी में दुबक कर बैठ गया, जहां कुछ देर में मिसिराइन नेदीवार के बिलके में जलती हुई ढिबरी रख दी. पहले तो वह बाप के आने का इन्तजार करतारहा -सहमा हुआ, लेकिन जब मिसिर देर तक नहीं आये तो डर-भय भूलकर ढिबरी की सिंदूरी लौऔर धुंए को देखने में डूब गया. वह हल्के-हल्के फूंक मारता, ढिबरी की लौ कांपती, फिरस्थिर हो जाती कोठरी को आलोकित करते हुए.मजा मिल रहा था उसे. एक बार फूंक तेज होगयी, ढिबरी बुझ गयी. अंधेरी कोठरी में ऊबने लगा वह . कुछ देर में प्यास महसूस हुई.माई गुस्से में थी. …पानी कैसे मांगे ? …क्या करे? अचानक एक जुगत सूझी…. .अँधेरे में उसने ढिबरी टटोली. मिट्टी का तेल मुंह में जाते ही उसका जी मिचलाने लगाऔर उल्टियां शुरू हो गयीं.
गोधूली बीत चुकी थी. पीपल के पीछेपूर्णिमा का चाँद झाँकने लगा था, जब मिसिर सरपंच के यहाँ से बैठकबाजी करके लौटे. वेबहुत खुश थे. ख़ुशी की बात यह थी कि हरिजन बस्ती में डाका डालने की जिम्मेदारीसरपंच ने मुख्य रूप से मिसिर को ही सौंपी थी, जिसमें सवर्ण परिवारों के और भी लठैतशामिल थे . मिसिर को यह बिलकुल उचित लगा कि अगर इन सालों को लतियाया नहीं गया,तोफिर कलट्टर के यहाँ बंधुआ मजदूरी के खिलाफ दरखास भेजेंगे. लेखपाल जांच करने आयेगाऔर बेमतलब घूस देना पड़ेगा.शायद इसी ख़ुशी में हाथ नहीं उठाया मिसिर ने. या इस वजहसे भी, कि उनके पहुंचने पर बई का चेहरा घिन से विकृत हो रहा था. बुरी तरहउल्टीकररहा था वह. या इस वजह से कि मिसिराइन उसका सिर सहलाते हुए मिसिर को बरज रही थीं किखुद अपनी करनी से मर रहा है, मार-पिटाई मत करो. पिटाई के लिए हाथ तो नहीं उठायामिसिर ने, लेकिन गुस्से में बार-बार आँगन से दरवाजे तक चक्कर लगाते रहे. दांत पीसतेहुए बड़बड़ाते रहे कि साला पिछले जनम का मुद्दई है, जिसने बदला लेने के लिए औतार लियाहै… आदि-आदि.
इस तरह बई गाँव का चर्चित छोकरा होगया. काम-काज से फुर्सत हो कर लोग गांवदारी के गंभीर मसलों पर बातें करते और जबऊबने लगते तो उसकी नित नयी वारदातों के चर्चे चलाते. गाँव के किसी भी टोले केबच्चों के खेल और बालकलह में उसे सहज प्रवेश मिल गया था. सांझ को जब बुजुर्गजम्हाइयां लेते हुए बातें करते और घरों के भीतर औरतें खाना बना रही होतीं, तो बच्चेघुटपहला खेलते. वे बई को आँख मूंदने को कहते. वह आँख बंद कर लेता. बच्चे गीत गाते –
\’सिल फूटे सिलौटी फूटे
देखन वाले की आंखी फूटे….\’
फिर बच्चे खंडहरों में छिप जाते. बईउन्हें खोजने और छू लेने के लिए इधर-उधर छापे मारता. अब वह रोज नए-नए शब्द बोलने कीविफल कोशिश करता. कभी बच्चे बई के नेतृत्व में आकाश में उड़ते पंछी जैसे जहाजों कोदेखते. फेरी वालों की अजीब बेरस आवाजों या आइसक्रीम वालों के भोंपू सुन कर वे गाँवकी सरहद तक उनका पीछा करते. कभी घर में कलह करके दरवाजे पर बैठे गंभीर, चिंतितलोगों को वे कौतूहल से घूरते और तालियाँ बजाते हुएभागजाते.
एकदिन पासियोंके टोले में बारात आयी.
दिन ढलते-ढलतेबीन और ढोलक के संगीत के साथ-साथ आग में भुनते सुअर की चिघ्घाड़ पूरे गाँव मेंसुनाईपड़ने लगी. सवर्ण घरों के बच्चों को उनके माता-पिता ने वहां जाने की अनुमतिनहीं दी. बच्चे रोते रहे. लुकते-छिपते कुछ बच्चे बई के साथ वहां जा पहुंचे. सुअर केपैर बंधे थे. गुदामार्ग में जलती हुई सलाख डाल कर आग की लपटों में पकाया जा रहा थाउसे.बच्चे बुरी तरह डर कर भाग गये. कुछ देर में सुअर शांत हो गया…. बीन बज रहीथी. ढोलक पर थाप पड़ रही थी. पता नहीं क्या जादू था उस संगीत में कि बच्चे डर-भय भूलकर फिर आ गये. बारातियों को पहले मिर्चवांग [ गुड़ और काली मिर्च का शरबत ] पिलायागया, फिर महुए की शराब. थोड़ी देर में मशालें जलीं और चमन्नचवा शुरू हो गया – बिनामंच के. नकली घोड़े पर सवार एक आदमी मिर्जा बन कर आ गया – हाथ में चाबुक लिए. वहअपने पैरों पर चलता था, लेकिन बच्चों को लगता, घोड़ा नाच रहा है. पीछे-पीछे सुमांगीनाचता- कागज की लम्बी टोपी लगाये हुए. पखावज और सतावर बजते. बीच-बीच में अचानकमिर्जा चाबुक फटकारता, बाजे बंद हो जाते और सुमांगी तरह-तरह के चुहल करता. इसी बीचमिर्जा ने एक बार चाबुक फटकारा, बाजे बंद हो गए. मिर्जा कड़क कर बोला-
\’सुमांगी!\’
\’जी सरकार !\’
\’एक गधा ले आओ! \’
\’ हजूर अब गधेनहीं मिलते! \’
\’ क्यों ?\’
\’अब सारेगधेनेता हो गएसरकार!\’
लोग हँसते-हँसतेलोट-पोट हो रहे थे.
बच्चों के लिए तो यह बिलकुलनया तमाशा था. देर रात तक वे आँखें फाड़े वहीँ डटे रहे. इस बीच सभी बच्चों केबाप,चाचा या बड़े भाई आये. वे बच्चों को डांटते-पीटते घर ले गए. बई के लिए कोई नहींआया. हरखू कहीं गाँव से बाहर गये थे. मिसिराइन पासियों के टोले में जा नहीं सकतीथीं. आधी रात को खाने- पीने के लिए पंगत बैठी तो बई भी एक किनारे बैठ गया. बारात औरघरात के लोग नशे में चूर थे. वे भावुक हो रहे थे. कोई हँस रहा था. कोई रो रहा था.पहले तो बाँभन के लड़के को खाना खिलाने में संकोच किया उन्होंने, लेकिन बई के हाथपसार देने पर द्रवित हो उठे. दो-एक निवाले गले के नीचे उतरते ही उसे उबकाइयां आनेलगीं. फिर तो भीतर का सारा माल बाहर-मूल ब्याज समेत. बारातियों का सारा मजा किरकिराहो गया. डांटकर भगा दिया उन्होंने उसे. वह अँधेरी गलियों में भागा जा रहा था, लड़खड़ाते हुए. गलियों में सोये कुत्ते जाग गए और भौंकने लगे. कुछ देर भौंकते रहे.फिर अपना दायित्व निभा कर सो गए.
दूसरे दिन पूरे गाँव में यह खबर बिजली की तरह फैलगयी. अक्सर लोग यह चर्चा करते पाए गए कि बइअवा साला तो पगलेट है ही, लेकिन हरखूमिसिर को क्या कहा जाय? उन्हें निगरानी नहीं करनी चाहिए? साला पासियों के यहाँभच्छाभच्छ खा आया.बड़े कर्मकांडी बनते हैं. आखिर जिस बर्तन में बइअवा खायेगा, उसीमें तो खायेंगे. भला बोलोअब हरखू के घर खाने पीने लायक है? इस तरह खासा बातका बतंगड़ बन गया. बात मिसिर के कान तक पहुँच गयी. उन्हें गांवदारी, न्योता-ब्याहऔर जजमानी का भी संकट दिखाई पड़ा. उन्होंने जमकर बई की धुनाई की और थाली पीटते हुएपूरे गाँव में ऐलान किया कि पंचों, अब हमें इस कुजात से कुछ लेना-देना नहीं और न आजसे इसे हम अपने बर्तन में खिलाएंगे. घर लौटकर उन्होंने मिसिराइन को ख़बरदार किया किआज से यह पम्पूसेट पर रहेगा. रेंड़ के पत्ते पर खाना परोस देना. अंजुरी से पानी पिलादेना. ध्यान देना कि घर में घुसने न पाए और इसे छूना मत. …बहुत कोशिश के बाद भीयह माजरा बई की समझ में नहीं आया. घर में घुसना चाहता, तो पिता लाठी लेकर दौड़ालेते. अब भी वह गाँव में घूमता. बच्चों के संग खेलना चाहता, बच्चे भी उसके साथखेलना चाहते, लेकिन ज्यों ही सवर्ण टोले का कोई बड़ा-बुजुर्ग उसे देख लेता, डांटकरभगा देता और सारी घृणा धरती पर थूककर पवित्र हो लेता. सबने अपने-अपने बच्चों कोउसके साथ खेलने और उसे छूने की मनाही कर दी थी. पम्पिंगसेट पर कोई बच्चा नहीं जाताथा. गाँव से बहुत दूर था पम्पिंगसेट बिना बच्चों के संग खेले वह रह नहीं पाता था.अक्सर वहां पिता उपस्थित होते थे. पिता की उपस्थिति आतंकित करती थी. हरखू पूरी तरहनिराश और उदासीन हो गए थे उसकी तरफ से.
गाँव से हटकरदक्खिन की ओर हरिजन बस्ती थी.अब उसका सारा समय वहीं बीतता. कोईबाधा नहीं थी वहां… . बच्चों के संग घुटपहला और गुल्ली-डंडा खेलता. बच्चों को छूलेता और निर्मल हँसीहँसता. पानी की कोई कमी नहीं थी. भूख लगने पर दिक्कत होती.सांझ होते-होते थके-हारे स्त्री-पुरुष खेतों से मजदूरी करके लौटते-पोटली में दिन भरकी मेहनत का मोल बांधे हुए. झोपड़ों के ऊपर धुंआ उठता. अपने-अपने भाग का कुछ खानावे बई को दे देते. वह चपड़ी मटर की रोटियों को एकत्र करता और खा लेता. जब अन्न सेशरीर में कुछ शक्ति का संचार होता, तो हर झोपड़े के सामने जा कर खिलखिलाता. शायदआभार व्यक्त करता इस तरह. कभी-कभी बस्ती के झोपड़ों के ऊपर धुंआ नहीं उठता था. भूखसे बिलबिला उठता वह, तो देर रात को दबे पाँव सवर्णटोलेमें प्रवेश करता. घर केपिछवाड़े की सांकल धीरे से खटखटाता. हरखू पम्पिंग्सेट की रखवाली के लिए खेत केकिनारे बने झोपड़े में होते. माई धीरे से सांकल खोलती. रेंड़ के पत्ते पर भात और नमकरख देती. वह खाने लगता-सड़प-सड़प. माई लोटे से पानी की धार गिराती. वह अंजुरी से पीलेता. तृप्त होने पर माई को देख कर खिलखिलाता. माई डांट देती-
\’चुप नासपीटे, करमजले! कोई सुन लेगातो सांसत हो जाएगी सारे परिवार की.\’ फिर वह भाग जाता हरिजन बस्ती में.भूख के सिवा कोई बाधा नहीं थी उसके लिए वहां.तीन साल बीत गए इसी तरह. बहुत कुछसीख-समझ लिया उसने इस बीच. जांघिये का नाड़ा बांधना सीख लिया, जो सबसे मुश्किल कमथा उसके लिए. जाड़े की ठिठुरन भरी रातों में आग, पुआल और कपड़ों से आदमी का रिश्तासमझ लिया. गर्मी की तपती दोपहरियों में पानी और छाँव से जिन्दगी का नाता समझ लिया.दाना-पानी और बच्चों के संग खेले बिना नहीं रहा जा सकता, यह भी समझ लिया. अब भी वहकभी-कभी देर रात को दबे पाँव सवर्ण टोले में घुसता. कुत्ते सो रहे होते. वह धीरे सेकुंडी खटखटाता. माई किवाड़ खोलती. रेंड़ के पत्ते पर बचा-खुचा खाना परोस देती. लोटेसे पानी की धार गिराती. अंजुरी से पानी पी लेता वह पहले की तरह. कभी-कभी माई बड़ेया मझले भाई का कोई पुराना कपड़ा दे देती. अब वह उनके चीथड़े नहीं करता था, फिर भीबहुत कुछ ऐसा था, जो नहीं सीख -समझ सका था वह. सवर्ण टोले के लोग उसे छूते क्योंनहीं? बापू उसे घर में घुसने क्यों नहीं देते? माई रेंड़ के पत्ते पर खाना क्योंदेती है? थाली में क्यों नहीं? उसे अंजुरी से पानी क्यों पीना पड़ता है? बड़ी कोशिशके बाद भी ये बातें बिल्कुल समझ में नहीं आयी थीं . एक अजीब परिवर्तन हो गया थाउसके अन्दर. खिलखिलाती लड़कियाँ बहुत सुन्दर लगतीं, हर चीज से सुन्दर. हंसते-खेलतेलड़के-लड़कियाँ किसी झाड़ , झोपड़ी या अरहर के खेत में छिप जाते . उसका बहुत मन होता किकोई खिलखिलाती लड़की उसके संग खेले…. फिर वह भी छिप जाय कहीं उसे लेकर…. उसकीसूरत और बेवकूफियों को देख कर चंपा खूब हंसती. बई को बहुत अच्छा लगता. चंपा केकाले-कलूटे गालों में पकी झरबेरी-जैसी चमक उग आती. वह खिलखिलाती तो सांवले होंठ औरउजले दांतों के बीच एक जादू कौंध जाता. अजीब सम्मोहन ! भूख लगने पर रोटी, प्यासलगने पर पानी, पेट भरा होने पर फूल जितने सुन्दर लगते, उससे भी सुन्दर और आकर्षक थावह जादू ! उससे रहा नहीं गया. एक दिन उसने चम्पा के गाल छू लिए \’तड़ -तड़ \’ दो झापड़जड़ दिए चंपा ने उसके गालों पर. यह छुअन अच्छी लगी उसे… . बहुत अच्छी… . लेकिनएक बात समझ में नहीं आयी. चंपा के चहरे पर घृणा का भाव…? वह बोली-
\’पहले ऐना में अपनी सूरत तो निहारले.\’
वह तुरंत समझ गया कि जब तक ऐना मेंअपनी सूरत नहीं देखेगा,
चंपा उसे छूने नहीं देगी. भूख-प्याससे मोहलत मिलती तो आइने की तलाश में जुट जाता. एक दिन बिसाती आया – साइकिल केआगे-पीछे फीते, चोटियाँ, सोने की-सी दिखती अंगूठियाँ, मोती की-सी चमकती मालाएं, रिबन और पता नहीं क्या-क्या लटकाए. लड़कियों, बहुओं का मेला लग गया उसके चारों ओर .बई ने देखा कि उसके पास छोटे-बड़े कई तरह के आइने हैं. वह दौड़ कर बिसाती के पासपहुँच गया. लड़कियाँ हँस पड़ीं उसे देख कर. बई ने महसूस किया कि निश्चय ही उसका यहाँआना सब को अच्छा लगा. आत्मीयता की चमक से दीप्त आँखों और निर्मल मुस्कान से आभारव्यक्त किया उसने सब के प्रति. फिर इशारों से आइना माँगा बिसाती से. बिसाती नेआइनों के मोल बता दिए –
\’छोटा ऐना दो रुपैया. उससे बड़ा तीनरुपैया. सबसे बड़ा पांच रुपैया. कौन-सा चाहिए ?\’
बई ने बड़े आइने की ओर इशारा किया.
\’तो पांच रुपैया निकालो !\’
वह सोच में डूब गया… . रुपैया…? …ऐना रुपैया से मिलता है ? …चंपा के गाल छूने के लिए पहले ऐना में मुंह निहारनाहोगा. …ऐना रुपैया देने पर मिलेगा. …रुपैया कहाँ मिलेगा…? कैसे बनाया जाता हैरुपैया? बहुत कठिन काम लगा यह उसे. उसने चकित हो कर बिसाती की ओर देखा. …कैसाआदमी है यह? …इतने सारे ऐना हैं इसके पास. …एक ऐना दे नहीं सकता? …उसके पासएक भी ऐना होता,तो बारी-बारी से पूरे गाँव को दे देता. हर आदमी ऐना में अपनी सूरतनिहार लेता और लड़कियों के गाल छू लेता . बहुत उदास हो गया वह और धीरे-धीरे सिरझुकाए लौट पड़ा…. लड़कियाँ हंसने लगीं. उसने मुड़कर अचरज से उन्हें देखा. इस हँसीका अर्थ उसकी समझ में नहीं आया….
असाढ़ के दिन थे. खूब पानी बरस चुका था.पेड़-वृक्ष सब धुलकर और भीतरो-ताजालग रहे थे. कहीं डौल न बैठने से खूब भूख लग आयी थी बई को. वह इधर-उधरमंडरा रहा था-भूख से विकल…. सैयद पांड़े के खेत में ककड़ी की काफी अच्छी उपज हुईथी इस साल. उनका नाम सियादत्त पांड़े था. लोग ऊब मिटने और मजा लेने के लिए सैयदपांड़े कहते थे. बाद में यही नाम लोकप्रिय हो गया. गर्मी में पांड़े ककड़ियां तोड़कर बाजार ले जाते. पैसे मिलते. बरसात आने पर ककड़ियां कम फलतीं. जो फलतीं, कड़ी औरमोटी हो जातीं. उनके पैसे न मिलते. कोई खरीदता नहीं था. पैसे न मिलें, न सही .बच्चे खायेंगे इस इरादे से उन्होंने ककड़ी की फसल नहीं उजाड़ी थी. लगभग दस बिस्वाखेत में ककड़ी की पियराई विरल लताएँ छ्छ्ड़ी हुई थीं. बीच-बीच में कुछ एक बड़ीककड़ियां चमक रही थीं. बई को यह सब बहुत भाया…. अभी वह नहीं समझ सका था कि हवा, बारिश, धूप-छाँव, सूरज-चाँद और तारों की तरह धरती सब की नहीं होती. वह टुकड़ों मेंबँटी होती है. टुकड़ों पर अलग-अलग लोगों का मालिकाना होता है, सब का नहीं. खेतों मेंउगी फसल और पेड़ों में लगे फल सब के नहीं होते. उससे नहीं रहा गया…. खेत में कूदकरककड़ियां खाने लगा. तृप्त होने पर भी ताजानहायी लताओं का सौन्दर्य और ककड़ी कास्वाद लुभाता रहा.
उस सौन्दर्य और स्वाद को सार्वजनिक करने का बरबस मन हो आया उसका.ककड़ी खा कर खुश होते बच्चों की कल्पना करके वह इतना प्रसन्न हुआ कि \’ककई-ककई\’ काउच्चारण फूट पड़ा मुंह से. तार-तार हुए कुरते की पोटली में ककड़ियां भरता, \’ककई-ककई\’ चिल्लाता और बच्चों में बाँट आता. बच्चे खुश होते. वह खिल उठता… .पोटली की ककड़ियां ख़त्म होतीं, तो फिर तोड़ लाता. पहले तो हरिजन बस्ती में ककड़ियांबांटता रहा, फिर उसे लगा कि उस परम स्वाद से कोई वंचित न रह जाय. इस तरह उल्लास केअतिरेक में सारी मूमानियत और मर्यादा भूल कर सवर्ण टोले में भी जा पहुंचा. पुरुषखेतों में थे. कोई जुताई करवा रहा था. कोई धान की रोपाई करारहा था. बच्चों ने बहुतदिनों के बाद सखा को पाया, वह भी ककड़ियों के साथ. उन सब ने ककड़ियां खायीं. खुशहुए… .वह खिलखिला रहा था…. होठों और नाक से बहता लिसलिसा पदार्थ ठोढ़ी पर आ रहाथा. मानो भीतर का उल्लास छलक रहा हो.
घर-घर ककड़ी बाँटते हुए सैयद पांड़े के भी घरजा पहुंचा वह. कुंडी खटखटायी. पंड़ाइन ने दरवाजा खोला.खिलखिलाते हुए ककड़ियों कीपोटली पसार दी उसने पंड़ाइन के सामने…. पंड़ाइन को मामला समझते देर नहीं लगी. पूरेगाँव में केवल उन्हीं के खेत में ककड़ी की फसल हुई थी उस साल. वे आगबबूला हो उठीं.पिछले चार साल से उन्हें कुछ मनोरोग थे शायद. बात करते-करते बेवजह झगड़ने लगती थीं.पांड़े के खेतों में वैसी ही उपज होती, जैसे दूसरोंके खेतों में, लेकिन पंड़ाइन इसबात पर कुढ़ती रहतीं कि उनके खेतों में अच्छत भी नहीं निकलता. गुजारा कैसे होगा…? उनके लड़के हृष्ट-पुष्ट थे. लेकिन उन्हें फ़िक्र बनी रहती कि उनके लड़के दिन पर दिनदुबले होते जा रहे हैं. बड़ी बहू आये अभी तीन साल ही हुए थे, लेकिन उन्हें यह भीउलझन रहती कि यह मुंहझौंसी बाँझ उन्हीं के लड़के की किस्मत में थी…. पूरे गाँव केबारे में दुश्मन होने का शक था उन्हें…. लेकिन चूंकि वे घर की सार-सँभार ठीक सेकरती थीं और चिंता करती थीं, तो अपनी सम्पत्ति, अपने पति और अपनीसंतानों की, इसलिएगाँव में मनोरोगी के रूप में स्वीकृत नहीं हुई थीं.
यह घटना मथतीरही उन्हें. …छोकरे की ढिठाई तो देखो कि
मेरे ही खेत की ककड़ी तोड़ी और मुझेहीचिढ़ानेआ गया. …ऊपर से हँस भी रहा है. आज ककड़ी तोड़ रहा है, कल डकैती भी करसकता है. …धान पकेंगे. …खलिहान गाँव से बाहर ही रहेगा. …आग भी लगा सकता हैखलिहान में. …बच्चे दिन भर इधर-उधर टहलते रहते हैं. …गला भी दबा सकता है उनका. …जरूर इसमें उसके माई-बाप का भी हाथ रहा होगा. नहीं तो उसकी ऐसी मजाल कि मेरी हीककड़ी तोड़ कर मेरे ही घर आ गया कि लो ककड़ी खा लो और करेजा तर कर लो. आपे से बाहरहो गयीं पंड़ाइन. पूरे शरीर में क्रोध की लहर उठने लगी . दिन ढलने में अभी कुछ देरथी, जब वे उलाहना देने पहुँच गयीं हरखू के दरवाजे. मिसिराइन ने बहुत समझाया कीछोकरा पागल है. लेकिन पंड़ाइन की समझ में बात आयी नहीं .
\’पागल है कि बौरहा. हम नहीं जानते.तुम्हें मना नहीं करना चाहिए.
बिना तुम्हारी मर्जी के इतना बड़ाकांड कर डाला उसने ? आंय ?\’
\’ अरे पंड़ाइन ककड़ी ही तोड़ी है, किसीकी मूड़ी तो नहीं
मरोड़ दी. बेमतलब की बात हमें नहींअच्छी लगती. \’
\’क्या कहा ? बेमतलब की बात है यह ? मूड़ी
मरोरेगा तो टेंटुआ नहीं दबा देंगे हमउसका ?\’
दोनों महिलाएं गला फाड़-फाड़ करचिल्लाने लगीं .
कोई किसी की सुनने को तैयार ही नहींथा. ताने-तिश्ने बढ़ते गये.
\’ तेरा भतार मरे. तू रांड़ होजा.\’
\’मेरा काहे ? तेरा भतार मरे . तेरापूत मरे. \’
पंड़ाइन क्रोध में काँप रही थीं –
\’तेरा झोंटा उखाड़ लूंगी डाइन !\’
वे लिपट गयीं मिसिराइन से. अन्यमहिलाएं और बच्चे तटस्थ
प्रेक्षक के रूप में खड़े थे. पुरुषखेतों में थे. कुछ बूढ़े, जो काम पर नहीं जा सकते थे, लाठी का सहारा लेकर आ गये थे.दोनों महिलाएं गुत्थम-गुत्था….इसी बीच पंड़ाइन की धोती की गांठ खुल गयी.किफायतशारी के चलते पेटीकोट पहनती नहीं थीं. बेपर्द हो गयीं वे. मामला संगीन होगया…. अपमानित पंड़ाइन घर चली गयीं. अपनेही बाल नोचने लगीं.वे काँप रही थीं. सिरपटक रही थीं और गला फाड़ कर चिल्ला रही थीं . बच्चे धोती दे रहे थे –
\’माई धोती पहन ले. चुप हो जा.\’
लेकिन वे चुप न हुईं.
\’हटा ले धोती. आज खून पी के रहूंगीइस डाइन का, तभी धोती
पहनूंगी. चोरी, ऊपर से सीनाजोरी …? मजाल तो देखो रांड़ की !\’
सैयद धान की रोपनी करा कर लौट रहेथे.
रास्ते में ही सारा मामलामिर्च-मसाले के साथ सुन लिया था उन्होंने. घर पहुँच कर मेहरारू का यह हाल देखा, तोसंयम खो बैठे. फौरन तमंचा निकाला. कारतूस भरा. कुछ कारतूस कमर में खोंस लिए औरपहुँच गये हरखू के घर. हरखू धान की रोपनी करा कर लौटे थे. थके हुए लेटे थे चारपाईपर. सैयद ने ललकारा – \’निकाल अपनी मेहरारू को घर से. आज इसे नंगी नचाएंगे पूरे गाँवमें. एक तो तेरे लडके ने ककड़ी तोड़ी, ऊपर से तुम्हारी मेहरारू ने नंगी कर दिया मेरीजोरू को सारे गाँव के सामने. निकाल डाइन को. आज मजा चखाऊंगा.\’
हरखू ने सैयद केहाथ में तमंचा देखा. वे तुरंत सजुक हो गए.
सिर में फेंटा बांध लिया और लाठी उठाली. बोले-
\’देखो सैयद ! मेरा छोकरा पागल है.ससुरे को हमने घर से भी निकाल दिया है.
फिर ककड़ी तोड़ी तो कोई हीरा-मोती तोतोड़ नहीं लिया? रही मेहरारू कीबात तो मेहरारू
जानें. हमसे बात करनी है तो जबानसम्हाल कर बात करो, नहीं तो जीभ खींच लूंगा हाँ !\’
दोनों ओर से वीरोचित बातें होतीरहीं.
सारा गाँव इकट्ठा हो गया था. हरखू नेसोचा कि हाथ पर लाठी मारकर तमंचा छीन लें. उन्होंने लाठी तानी, तब तक \’\’धाँयऽऽऽ…!\’\’ हरखू वीरगति को प्राप्त हुए…. . चहचहाते पक्षी उड़ गये. सिंवान सेलौटते पशु इधर-उधर भागने लगे. तमाशबीन भाग गए. तमाशबीनों में बई भीखड़ाथा. वह कुछभी नहीं समझ पाया . बापू की लाश के पास खड़ा हो गया. हरखू का बेजान जिस्म धरती परपड़ा था. सिर छितरा गया था. खून के फौव्वारे निकल रहे थे. बापू की लाश के पास माईछाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थी. बापू की यह दुर्दशा देख कर या माई का विलाप सुनकरया पता नहीं किस कारण सेअचानक बई चीख पड़ा- \’हू…\’ और गाँव से बाहर भाग गया.
कई दिनों तक गाँव में सन्नाटा रहा.सैयद गाँव छोड़कर भाग गये. पुलिस ने उनके घर कुर्की कर डाली थी. दिन भर कौए मंडराते.सांझ को दक्खिन के पोखरे में बनमुर्गियाँ चहकतीं . रात को सियार बोलते . कुत्तेरोते. लोगों का कहना था कि यह सब भयानक अपशकुन है. कई दिनों तक शौच-मैदान के सिवालोग घरों से बाहर नहीं निकले. घरों में रात भरदीयेजलाए जाते. सोते बच्चे रातोंको अचानक चीख पड़ते. रात भर स्त्रियाँ पतियों से चिपकी रहतीं. कहीं किसी से भेंटहोने पर लोग एक-दूसरे का रुख भांपते, फिर सम्हल कर फुसुर-फुसुर बातें करते –
\’बाल्हा रे! ऐसा इस्टीडन्ट? \’
\’महराज सोनबरसा में ऐसा कब्भी नहींहुआ .\’
\’ई बइअवा साला महाकारनी लौंडा है.चाहे जो करा दे.\’
\’क्या कहा पुलुस ?\’
\’भागो महराज पुलुस का क्या भरोसा? \’
\’पता नहीं ससुरे क्या बात-बेबातपूछें .\’
मृतक संस्कार हो चुका था. दसवें दिन
होने वाली शुध्दि और तेरहवें दिनहोने वाले भोज सम्बन्धी कर्म-कांड अभी बाकी थे. हरखू का बड़ा लड़का बम्बई से आ गयाथा. सैयद अदालत में हाजिर हो चुके थे. गाँव का जनजीवन अभी सामान्य नहीं हो पाया थाकि एक दिन गाँव वालों ने उसे देखा. उसने शायद किसी को नहीं देखा… . सूरज निकलनेमें देर थी. उजाला फैल चुका था. आकाश में कौओं के झुण्डदक्खिनकी ओर जा चुके थे.गाँव के नर-नारी, बच्चे-बूढ़े पेट साफ करने और पगडंडियों को गन्दी करने की गरज सेगाँव से बाहर निकल रहे थे. प्रथम दृष्टि शास्त्री जी की पड़ी. देश के एक पूर्वप्रधानमन्त्री की तरह ठिगने होने की वजह से लोगों ने उन्हें यह उपाधि दे दी थी.शास्त्री जी ने उपाधि की मर्यादा के अनुसार निरंतर तालव्य \’श\’ बोलने का अभ्यास करलिया था. तुरंत उनहोंने सारी सुर्ती थूक दी. नाक पर गमछा रख लिया और बुदबुदाये –
\’राम-राम ! महा अशुभ! पितरघाती!\’
नौरंगी बहू के पेट में मरोड़ थी.लेकिन
वह भी पल भर के लिए ठिठक गयी- \’पिच्च\’. सारी घृणा थूककर वह आगे बढ़ गयी. लगभग इसी तरह सबने उसे देखा.उसने किसीकोनहींदेखा. \’माई\’ कहने की विफल चेष्टा में \’बाँईऽऽबाँईऽऽ!\’ चिल्लाता चला जा रहाथा वह. खेतों की मेड़ों पर लड़खड़ाता,सम्हलता, फिर वेग से चल देता. जिस समय उसने गाँवमें प्रवेश किया, बछड़े रस्सी तोड़ डालने की कोशिश में कुलांचे भर रहे थे. गायोंकेथनों में दूध की उत्तेजना भर गयी थी. …लेकिन वह इन सबसे बेखबर था. बस \’बाँईऽऽबाँईऽऽ\’ चिल्लाता चला जा रहा था. सुबह की नम हवा, चिड़ियों की चहचह और गाँव कीअलसायी शांति को उसकी चीत्कार नुकसान पहुंचा रही थी.
गाँव के बाहर उत्तर की ओर बंदरहियाबारी है. बंदरहिया बारी में
न तो बन्दर हैं,न बारी. शायद कभीबन्दर भी रहे हों और बारी भी. अब तो केवल नीम, बबूल,गूलर और पीपल के कुछ पेड़ बचेहैं. झाड़-झंखाड़ . कम ही कोई उधर जाता है. भागते-भागते वहीँ गिर पड़ा था बई. दिमागबिल्कुल सन्न … . एक गहरा अँधेरा दिमाग में भरता जा रहा था. उस अँधेरे में कुछ भीनहीं दिख रहा था. कुछ देखने, करने, सुनने, बोलने की इच्छा भी नहीं महसूस हो रही थी … .
आराम… . बहुत आराम मिल रहा था… .तन-मन पूरी तरह ढीला … . अनंत विश्राम… . वह अचेत हो गया… . कई दिन, कई रातवह इसी तरह पड़ा रहा… . कभी सूरज की किरणें या बारिश की तेज बौछारें जगा देतीं.भूख-प्यास की अवश प्रेरणा से वह इधर-उधर टहलता, लड़खड़ाते हुए. पीपल के फल, निबोली, बबूल की पत्तियां – जो भी मिल जाता, खा लेता. धरती के गड्ढों में जगह-जगह बरसातीपानी भर गया था. पानी में कुंजीबेरा के दूधिया रंग वाले फूल खिल गये थे… . वहपानी पी लेता. कुछ देर कुंजीबेरा के फूलों को निहारता… . फिर सो जाता…. दिन मेंचील, कौए और गीध मंडराते. रातों में मेढक और झींगुर बोलते. सियार \’हुआ-हुआ\’ करते.तरह-तरह के जलजीव और वन्यजीव निकलते. वे उसे सूंघते-चाटते. चलती हुई सांस को महसूसकरते. उसके जिस्म में कोई हरकत न होती.
उसकी निर्भय अहिंसा पर वे चकित होते और अपनीराह चले जाते, बिना कोई नुकसान पहुँचाये. कभी-कभी नींद खुलने पर बड़ी मुश्किल होतीउसे. सोनबरसा के पास ही सोहागी पहाड़ था. सोहागी की चोटियों को काटकर कोई कारखानाबनाया जा रहा था. आये दिन डायनामाइट के धमाके होते. धरती काँप उठती… . वह बुरीतरह डर जाता. दिमाग में तरह-तरह के दृश्य तैरने लगते… . कहीं बहुत से लोग गिर गयेहैं… . उनके सिर के टुकड़े बिखरे हैं … . खून के फौव्वारे बह रहे हैं…. डर करवह भागने लगता है इधर-उधर… . हर जगह धमाकों की गूँज… . हर जगह धरती कांपती… .कहाँ जाए… ? फिर दिमाग सन्न… . गहरा अँधेरा दिमाग में पसरने लगता… . इसअँधेरे में कुछ भी न दिखता… . कुछ भी सुनायी न देता… . वह अचेत हो जाता….
…
इस बीच कुछ सपने देखे उसने. सपनोंका वर्णन संभव नहीं है. वर्णन के लिए भाषा के सिवा कोई साधन नहीं है, जबकि सपनेभाषा में नहीं देखे थे उसने. या कम से कम इस भाषा में नहीं देखे थे, जिसमे उनकावर्णन किया जा रहा है –
प्यास…. . बहुत तेज प्यास…. .गला सूख गया है. जीभ तालू से चिपक गयी है. जान चली जायेगी बिना पानी के…..पोखरापास में है. वह दौड़कर पहुँचना चाहता है वहां…. पूरी ताकत से कदम उठाता है. लेकिनआगे नहीं बढ़ पाता… . हवा का बहुत तेज झोंका ऊपर उड़ा ले जाता है. …फिर वह गिरजाता है. पोखरा फिर उतनी ही दूरी पर, जितना पहले था… . बार-बार यही सिलसिला… .अंत में उसे लगा कि छलांग लगा कर नहीं पहुंचा जा सकता पानी के पास… . प्यासबुझाने के लिए लेट कर, धरती को पूरी तरह पकड़ कर ही जाना होगा पोखरे तक… . छाती केबल घिसट कर वह पोखरे के किनारे पहुँच जाता है. …स्थिर शांत जल… . वह अंजुरीडुबोना चाहता है कि अचानक चौंक जाता है. ….पानी में एक चेहरा… . …अरे यह तोउसका अपना ही चेहरा है. वह हंसता है और पानी में अपनी निर्मल हँसी का प्रतिबिम्बदेख कर मुग्ध हो जाता है. …बिना पानी पिए जिया नहीं जा सकता. अंजुरी डुबोने सेनिर्मल हँसी का अपना ही प्रतिबिम्ब टूट सकता है. क्या किया जाय…? …एक अजीबकशमकश में फंस जाता है वह. प्राण या प्रतिबिम्ब…? …आखिरकार वह अंजुरी डुबो देताहै… . पानी में हलचल हुई. प्रतिबिम्ब टूट गया… . डूबते सूरज की लाली से लालपानी में होंठ, दांत, आँखें – अलग-अलग हो गए. वे टेढ़े-मेढ़े होकर तैरने लगे… . …बहुत उदास हो गया वह. थोड़ी ही देर में पोखरे का पानी फिर स्थिर हो गया. उसे फिरअपना प्रतिबिम्ब दिखने लगा. …अरे यह क्या? पोखरे के किनारे की कीचड़ हिलनेलगी…. …धीरे-धीरे कीचड़ ऊपर उठने लगी. …नहीं-नहीं… . यह कीचड़ नहीं है….कौन है यह…? कौन है यह…? कौन…? चम्पा… . वह बहुत खुश हो गया. बहुत खुश… .वह कहना चाहता है कि चम्पा मैंने अपनी सूरत देख ली. आइने में नहीं,पानी में. …लेकिन मुंह से बोल फूटते ही नहीं… . चम्पा खिलखिला रही है. वह चम्पा के गालछूना चाहता है. लेकिन जितना हाथ बढ़ाता है, चम्पा की लम्बाई उतनी ही बढ़ती जाती है.
सिर उठा कर चम्पा के होठों और दांतों के बीच बहता जादू देखना चाहता है वह. लेकिनदृष्टि चम्पा के मुंह तक नहीं पहुँच पाती. बहुत सिर उठाने के बाद भी वह चम्पा केसीने से ऊपर नहीं देख पाता. अरे यह क्या…?चम्पा के शरीर में तो यह अंग नहीं था…. स्तन … . खुले हुए… . स्तनों से दूध की धार बहने लगी…. . नहीं यह चम्पानहीं है! फिर कौन है…? दूध की धार में नहा उठा वह… . अरे यह तो माई है. माई !माई! वह खिलखिलाना चाहता है. लेकिन बोल नहीं फूटते ! पूरी ताकत लगा कर एक बार चीखताहै. मुंह से निकलता है – \’बाँई…\’. …नींद टूट गयी. सपना नहीं टूटा… . या कम-से- कम सपने का प्रभाव ख़त्म नहीं हुआ. सपने को असलियत समझ रहा था वह. बार-बार \’बाँईऽऽ-बाँईऽऽ!\’ चीख रहा था. सूरज निकलने में अभी देर थी. लेकिन उजास फैल चुकी थी.बंदरहिया बारी के पेड़ों पर बैठे पंछी चहक रहे थे. उसकी चीख से पंछी एकबारगी चुप होगये. फिर और तेजी से चहकने लगे…. वह इन सबसे बेखबर था. एक उन्माद – सा छा गया थामन में. एक ही सनक – माई से मिलने की, उससे लिपट जाने की. वह गाँव की ओर दौड़ा जारहा था.
पति की मृत्युके बाद से मिसिराइन का अजब हाल था. रात भर नींद नहीं आती थी.पता नहीं क्या-क्या बिसूरती रहतींऔर भोर होते-होते सो जातीं. फिर दिन चढ़ने पर अचकचा कर उठ जातीं. गृहस्थी कीसार-संभार भी नहीं कर पाती थीं. रोटी-पानी बड़ी बहू कर देती. मिसिराइन आँगन में सोयीथीं. दरवाजा खुला था. आँगन में जूठे बर्तन इधर-उधर बिखरे थे. बड़ी बहू उन्हें इकट्ठाकर रही थी. बड़ा लड़का शौच-मैदान के लिए चला गया था. मझले ने गाय का दूध दुह लियाथा. बछड़े की रस्सी खोल दी थी और धान के खेतों को देखने चला गया था. बछडा बार-बारगाय के थन में मुंह मार रहा था, लेकिन दूध नहीं निकल रहा था…. \’बाँईऽऽ!\’ \’बाँईऽऽ!\’ की दहाड़ मारता बई सीधे आँगन में पहुंचा. बड़ी बहू चौंक गयी. नंग-धड़ंग बईको देख कर बरबस उसके मुंह से निकल पडा-
\’हायदैया!\’
बई को कुछ नहींदिख रहा था. बस माई दिख रही थी.
अजीबउन्माद…. सोयी हुई माई से लिपट गया वह. अचकचा कर माई ने आँखें खोलीं. सारीदुर्दशा का कारण साक्षात लिपटा था. माई ने झटक दिया. बई चारपाई से नीचे गिर पडा.फिर माई घूंसे बरसाती रही. रोती रही. …बहुत दिनों के बाद माई की छुअन मिली थी.घूंसे बहुत भले लग रहे थे बई को… . आंसुओं की बूँदें शरीर पर पड़ रही थीं. उसे माँके दूध में नहाने की अनुभूति हो रही थी… . गुदगुदी हो रही थी. वह खिलखिला रहा थाऔर \’बाँईऽऽ !\’ \’बाँईऽऽ !\’ चिल्ला रहा था. माई ने घसीट कर उसे द्वार पर बैठा दिया.लेकिन वह माई को छोड़ नहीं रहा था. लिपट गया था माई से और खिलखिला रहा था. इस बीचगाँव के बड़े-बुजुर्ग हरखू के द्वार पर इकट्ठा हो गये. उन्होंने बई के चाचारामजियावन को भी साथ में ले लिया था. गाँव की परम्पराओं को सुरक्षित रखने का जिम्माथा उनके सिर पर. काफी गंभीर थे सब लोग. कौतूहलवश कुछ बच्चे भी आ गये. बुजुर्गों नेउन्हें डांटा
–\’भागो यहाँ से! तुम्हारा क्या काम ?\’
बच्चे फिर भीडटे रहे. शास्त्री जी कड़क मिजाज के आदमी थे. धार्मिक कर्मकांड में किसी तरह की त्रुटि, गाँव केरीति-रिवाज और जात-पांत की मर्यादाओं का किसी भी तरह का उल्लंघन देख कर आपे से बाहरहो जाते. मनुस्मृति पढ़ते थे. उन्होंने कहा-
\’ऐशे नहींमानेंगे ये.\’
फिर बच्चों की ओर मुखातिब हो कर दांतपीसते हुए कड़क कर बोले –
\’भाग जाओ शरऊ नहीं तो हुमक कर चढ़बैठेंगे. तुम्हारा यहाँ का परोजन है ?\’
बच्चे भयभीत हो कर भाग गये…. अन्यलोगों ने शास्त्री जी की बात का समर्थन किया-
\’महराज बच्चों की दोस्ती जान काखतरा.\’ \’बालक-बर्रै एक समाना.\’ आदि-आदि.
बई को कुछ नहीं दिख रहा था. वह अब भीमाई से लिपटा था और खिलखिला रहा था.
माई उसे झटकने की कोशिश करती तो \’बाँई-बाँई\’ कहते हुए और कसकर चिपक जाता. माई का अजब हाल था. आंसुओं की धार बंदनहीं हो रही थी. आवाज निकल नहीं रही थी. कभी बई को झटकना चाहती. कभी खुद भी कसकरचिपक जाती उससे… . लोगों के सामने समस्या थी. बई को उसकी माई से अलग कैसे कियाजाय ? उसे छुआ नहीं जा सकता था ?धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. रामजियावन ने उपाय खोजनिकाला. एक डंडा कसकर मारा बई की पीठ पर. बोले-
\’मार के आगे भूत नाचते हैं सरऊ !क्या मुंह दिखाएँगे जात-बिरादरी में ?
आँय ? बेटा-बेटियों का बियाह कैसेहोगा ? कुलच्छनी ससुर !\’
वे बड़ी देर तक बड़बड़ाते रहे.
डंडे की चोट से बई का सपना टूटगया… . अचानक उसे सब कुछ याद आने लगा. गाँव के जिम्मेदार बुजुर्गों के चहरे देखेउसने. उसे लगा कि अभी इन लोगों के हाथों में कोई खिलौनेजैसी चीज आ सकती है. धमाकाहो सकता है. खून के फौव्वारे फूट सकते हैं. …बुरी तरह डर गया वह. मुंह से चीख भीनहीं निकल सकी और भाग गया. माई ने दौड़ कर पकड़ लिया उसे. बड़ा बल आ गया था माई केशरीर में. बोली – \’कहाँ जा रहा है ? चल बैठ घर में !\’
शास्त्री जी ने फैसला सुनाया-
\’देखो हरखू बहू, तुम्हारे लड़के ने शुअर का मांश खाया है.
मैंने बहुत शेशाश्तर-पुराण बांचे, इशका कोई पराश्चित नहीं है.
छत्रीमांश-मदिरा का शेवन कर शकता है, परंच बाम्हन के लिए
महापाप है. फिरशुअर का मांश ? राम-राम!\’
इतना कह कर उन्होंने जमीन पर थूकदिया. फिर बोले-
\’हाँ तुम्हारा पराश्चित हो शकता है.तुम्हें उशने छुआ है, तुम पंचगब्ब पियो.
दूध में शंखपुहुपी उबाल कर पियो. तभीहम लोग तुम्हारे भोज में खायेंगे.
रही लड़के की बात तो अपना लड़काशबको पियारा होता है. मुदा इश
कारनी लड़के के मोह में न फंशो . यहअभगुतमूल नछत्तर में पैदा हुआ है.
बाप को लील लिया, यह तुमने देखा ही.यदि यह घर में रहेगा तो पूरे बंश
का बिनाश हो जाएगा. जो हमारा करतबथा, हमने शमझा दिया. बाकी तुम जानो.\’
हरखू बहू बोलीं-
\’ऐसा न करो पंडीजी ! कुछ तो उपायखोजो!\’
इतना हीकह पायीं वे और रोने लगीं….
हरखू का बड़ा लड़का धीरे से बोला-
\’आज-कल होटलों में हर जाती के लोग सबकुछ खाते-पीते हैं.\’
शास्त्री जी तमतमा उठे-
\’होटल-फोटल की बात छोड़ो. शोनबरशा कीबात करो. हमारे गाँव की
बंभनमंडली का आचरण पूरे इलाके मेंबखाना जाता है. इशी के बलबूते
हम लोगों को और गाँव वालों शे अधिकदैजा-दहेज़ मिलता है. शमझे ?\’
आम तौर पर सरपंच दयालु आदमी थे. दखलकी हुई जमीन, बंधुआ मजदूरी और उनके
प्रभुत्व के खिलाफ बोलने वालों कोछोड़कर बाकी सब के लिए वे बहुत भले आदमी थे. अपने आदमियों के लिए जायज-नाजायज सब कुछकरने के लिए तैयार रहते. हरखू बहू का रोना देख कर वे पसीज उठे. उन्होंने शास्त्रीजी को घुड़का-
\’सास्त्री जी हरखू हमारे आदमी थे. हरचीज का परास्चित होता है.
जरा होस-हवास में बाँचो किताब. कोईरास्ता निकल आयेगा. तुम
पंचगब्ब, दूध और संखपुहुपी पिलाने कोकहते हो. मैं कहता हूँ नहला
दो साले को उसी में. तो भी नहींहोगा परास्चित ? क्यों भाई तुम लोग बोलो ?\’
प्राइमरी स्कूल के मास्टर रामतवंकलबोले –
\’अरे भाई जून – जमाना बदल रहा है औरफिर जब सरपंच
साहब कह रहे हैं तो जरा सोच-समझ करबोलो सास्त्री जी. \’
शास्त्री जी दबे मन से बोले-
\’उपाय तो कुछ नहीं है. मुदा शमरथ कोनहि दोश गोशांई.
जब शरपंच शाहब कहते हैं तो इशको भीशंखपुहुपी और
पंचगब्ब पिलाओ. शतनरायन की कथाशुनाओ. अब हम क्या
कहें ?मुदा छोकरा कारनी है. इश बातको शमझ लो. \’
सरपंच ने कहा-
\’कुछ कारनी – वारनी नहीं. देखो हरखूबहू, सास्त्री जी जो कह रहे हैं, सो करो
और इस ससुरे को घर में रखो. अब कोईभच्छाभच्छ न खानेपाए. न कोई
खुराफात करने पाए. घर से निकले तोहड्डी – पसली एक कर दो साले की.\’