सौमित्र मोहन विष्णु खरे के शब्दों में ‘वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है’ के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया. एक ‘कल्ट’ कवि और ‘लुकमान अली’ कविता से चर्चित/ प्रशंसित/ निंदित जो अब ८० वर्ष का है, […]
सौमित्र मोहन विष्णु खरे के शब्दों में ‘वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है’ के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया. एक ‘कल्ट’ कवि और ‘लुकमान अली’ कविता से चर्चित/ प्रशंसित/ निंदित जो अब ८० वर्ष का है, पर क्या इधर कोई किसी ने उनपर आलेख लिखा है? उनपर केन्द्रित किसी पत्रिका का कोई अंक प्रकाशित हुआ है ? किसी विश्वविद्यालय ने क्या उनपर कोई लघु शोध भी पूरा कराया है? जब दिल्ली के ही संदिग्ध कवियों के पास उनके तथाकथित संग्रहों से अधिक तमगे हैं और जिनपर बे-हया कारोबारी ‘आलोचकों’ ने किताबे संपादित भी कर रखी हैं, और मतिमन्द शोध निर्देशकों ने कूड़ा शोध करा रखा है, सौमित्र मोहन के पास ‘सम्मान/पुरस्कार’ की भी जगह ख़ाली है.
स्वदेश दीपक कहा करते थे कि ‘सौमित्र मोहन का लेखन अपने आपसे लड़ाई का दस्तावेज़ है.’ बाहर लड़ने के लिए पहले आत्म से लड़ना होता है, इसे ही मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष कहते हैं. और यह भी कि ‘एक जनवादी – प्रगतिशील’ और मर्यादित माने जाने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने लुकमान अली के लिए कहा है “‘फन्तासी’ की यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है”.
विष्णु खरे ठीक ही कहते हैं “सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना,बर्दाश्त करना,समझ पाना आदि आज 60 वर्षों बाद भी आसान नहीं है.”
सौमित्र मोहन पर समालोचन के इस दूसरे अंक में आप उनकी पंसद की नौ कविताएँ, लुकमान अली के चार हिस्से और इस कविता पर केदारनाथ अग्रवाल का आलेख पढ़ेंगे.
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तुम कहाँ गए थे लुकमान अली : (दो)
कवि ता एँ
पैटर्न
मेरे पहले आने के पहले वह आएगा।
सूखी घास पर रेंगते कीड़े का कोई अर्थ नहीं है
वह गीली भी हो सकती थी — या नहीं भी हो सकती थी
कुर्सी पर बंद पड़ी पत्रिका में किसी की भी कविता हो;
चाय पीते हुए मौसम की याद आ जाए या रविवार या शुक्रवार की
[ट्राम बंद होने की खबर ही तो है]
दीवार पर बच्चों ने कितनी लकीरें खींच दी हैं—
उनकी गिनती नहीं है।
सारंगी भी नहीं है, हिरन भी नहीं है, पतंग भी नहीं है
एक दीवार है— उस पर लकीरें हैं : ख्एक कौवा अभी-
अभी उड़ कर गया था अलगनी पर टँगे कपड़ों के ऊपर,
एक पेड़ है; उसकी छाल दिन-ब-दिन उतरती जा रही है
कल कोई आएगा और उसके चिकने हिस्से पर अपना
नाम लिख चला जाएगा।
कोई किसी की आँखों में क्यों देखता है स्वीकृति के लिए…
[एक बिस्तर है जो यूँ ही पड़ा रहेगा बिना सलवटों के]
‘मेरा घर’ निबंध पर ब्लेड रख मैं अभी बाहर गया हूँ
बिना उढ़का दरवाजा बिना उढ़का ही है
न उसका रंग उड़ा है, न वह पुराना हुआ है, न गणेश
की खुदी तस्वीर खंडित हुई है
एक दरवाज़ा है, एक निबंध है, एक ब्लेड है; है;
[अन्दर से निकल कर कोई बाहर गया है अन्दर आने के लिए]
भागते हुए
देर तक चलने वाली बातचीत में
एक चुप्पी घुल गई थी और
उसके चुंबनों में
आने वाले दिनों की उदासी थी।
वह तपते हुए
आलोक में भी अकेली थी
और भविष्य की
अँधेरी सुरंग तक पहुँच कर रुक गई थी।
अपने चारों ओर की तेज़ आवाज़ों में
एक हल्की सरसराहट की तरह
वह आकर्षित कर गई थी।
उसका शरीर संयम-तरंगों पर
झूल रहा था।
स्पर्श की ऊष्मा में वह
अस्थिर खड़ी थी।
निर्वसन होकर भी वह स्वप्नों से
ढंकी हुई थी।
वह उजाले में भी निपट अँधेरा थी;
और लंबी चुप्पी में
टिकटिकाती घड़ी की
सुई थी।
समय के साथ भागते हुए वह थक गई थी।
देशप्रेम-1
लोग बैंडबाजे की इंतज़ार में खिड़कियाँ खोलकर चुपचाप खड़े हैं।
कोई करतब नहीं हो रहा।
देश ठंडी हवा को सूँघ कर उबासियाँ ले रहा है।
भीतर ही भीतर कोई उतर कर खो जाता है कहीं।
हमारे लिए आने वाला कल घिसे हुए उस्तरे की तरह धूप में पड़ा है।
सफर शुरू नहीं होता, खत्म होता है।
एक कमीने आदमी की तलाश में नामों का क्रम बदलता
रहता है और दुखती आँखों में गंदगी भर जाती है।
सिर्फ़ एक अहसास बाकी रह जाता है छलाँग का… कपड़े बदलने
में तारीखें और वार, खरगोश और हिन्दी, पीढ़ी और ढोल
जगह बदलते हुए एक घपला बन जाते हैं। अश्लीलता
सिर्फ़ रह गई है परिवार नियोजन के पोस्टरों में या घरों से
जा कर घरों में घुसते हुए या दल बदलने के साहसपूर्ण कार्यों में।
खाली मनिआर्डर लेकर अवतार आकाश से उतर रहे हैं। उन्हें सेवाएँ
चाहिए सारे देश की। लोग हैं कि चुपचाप खड़े हैं बैंडबाजे की
इंतज़ार में खिड़कियाँ खोल कर।
जुलूस में शामिल होकर एक रेडक्रॉस-गाड़ी उठा रही है :
पत्थर
फटे हुए झंडे
छुटी हुई चप्पलें
और लाशें पिछवाड़े पड़ी हैं; मकानों के दरवाज़ों में दीमकें व्यस्त हैं।
देखना-2
एक बहुत लंबी सफेद दीवार के पीछे से आधा दिखता
वह आदमी अपनी उपस्थिति को
बेपर्द कर रहा है
साँझ की ताँबई रोशनी में
कठफोड़वे की बेधक गवाही के साथ।
बाल्कनी से दिखता
कपड़े प्रेस करता हुआ धोबी पत्ते की तरह
हिलता है।
कई छोटे बच्चे और आवारा कुत्ते
मनकों की तरह यहाँ वहाँ
बिखरे हैं
किसी फिल्म का एक चाक्षुष बिंब बनाते हुए।
सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में
एक खड्डी मौन खड़ी है अपने परिवेश से
कट कर।
किसी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी की सीढ़ियाँ
चढ़ते/उतरते
दो औरतें
अपनी-अपनी एनजीओ के बारे में सूचनाओं का
आदान-प्रदान करते हुए सरकार को कोस रही हैं।
हिमालय पर छोड़े गए टनों कबाड़ के
इस ऐतिहासिक दौर में कई दिनों से उदास रहे
एक पाठक ने
सज्जा-विहीन सादे कमरे में बैठ कर
कविता-पुस्तक का पन्ना
उँगली पर थूक लगा कर पलटा है।
कुछ देर पहले तक
वह किलों के परकोटों के साए में
घूम रहा था पीछे छूटी हुई जिंदगी को
कोई तरतीब देने के लिए।
दीवार के पीछे से आधा दिखता आदमी
इस आश्चर्य को देख रहा है
कि भीड़ कैसे प्रतीक्षा को भर देती है!
चरागाह
एक सफेद घोड़ा दौड़ता हुआ नदी में कूदता है और पानी की
उछाल लेती झालर में छिप जाता है चरागाह और धोती
सुखाते हुए आदमी का पाँव।
जंगल जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2 पाँव हट रहे
हैं जमीन से। बंद मुँह से निकलती हुई आवाज़ में भाषा
बन रही है। आहिस्ता से आदमी घर में घुस रहा है।
‘नहीं, अभी नहीं बदलना है हमें!’ एक नारा
फटे हुए झंडे के बीच में से सरक जाता है बिना किसी गुल के।
डर के।
फिर वही दृश्य है। घोड़े के पीछे से दिखता हुआ आदमी है।
दृश्य नहीं है : आदमी है। और प्रेम से खुले
होंठों में मक्खियों की कतार है। शब्द हैं; जिसके लिए
किसी को फिक्र नहीं है।
पानी जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2 शरीर-धर्म
भूलता जा रहा है। आपे में नहीं कोई और केवल
एक सूँघ है जानवर के आसपास मँडराने की, जंगल
में खोए हुए आदमी के लिए तलाशी लिए जाने
की।
एक चरागाह और धोती में लिपटे पाँच इंच लंबे पाँव में
ठंड बस गई है।
उर्फ़ की भाषा :
आज की ख़बरों पर ध्यान करें, न करें;
सेहत का ख्याल रखें : सिद्ध आसन
जब मैंने अपना हाथ परदे के पीछे छिपा लिया था तब
तुमने पान की बेगम मेज़ पर रख दी थी और ‘उस’
बात के लिए मुस्कराए थे जब हम दोनों कमरे
में हाथों का खेल खेलते रहे थे। आपने जामा
मस्जिद की वह गली नहीं देखी होगी जहाँ धूप
सबसे पहले बाँहों पर पड़ती है : यह अहसास
है। आप नाड़ा ढीला करें तो आपको भी होगा।
या आपको इस अँगूठी पर अभ्यास करना होगा
जिससे जमादार, छिड़काव, दरी का बिछना, दिल्ली
के मेयर का कुर्सी पर बैठना और आपकी पत्नी का
फालतू बाल साफ करते हुए दिखाना होता है।
हमारे लिए आसान है ‘होना’।
षष्ठि पूर्ति
28मई 1968को दिल्ली में आयोजित
देवेंद्र सत्यार्थी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर
बासी फल।। फल में कीड़ा।। कीड़े में चमक।।
चमक में घोड़ा।। घोड़े पर सवार।। सवार पर तोप।।
तोप पर सत्यार्थी।। सत्यार्थी का झोला।। झोले में कहानी।।
कहानी का नायक।। नायक की टाँग।। टाँग में जोड़।।
जोड़ में शतरंज।। शतरंज की चाल।। चाल में मात।।
मात में गुस्सा।। गुस्से में खून।। खून में पहलवान।।
पहलवान की चीख।। चीख में अँधेरा।। अँधेरे में गुम।।
बासी फल।।
झील
दिन बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसाकि उसने सोचा था।
वह अपने बेचैन होने के सबब को
घंटों (हाँ, घंटों तक!) आलमारी में ढूँढ़ता रहा था।
क्या तुम उस दृश्य के साक्षी थे
जब पानी झील में बदल रहा था?
यह झील पौराणिक नहीं थी। बल्कि— नहीं है।
कविता के रूपक की सलाखें तोड़ी जा रही हैं
और मृत शब्दों की अर्थियाँ भारी होती जा रही हैं।
वह अपने दोस्त के आँसू पोंछने लगा है
और अपने पसीने की नमकीन हवा के साथ
कैमरे के सामने खड़ा हो गया है।
खटाखट फोटो उतर रहे हैं— हवा के।
वह खुद कहाँ चला गया है?
वह वही है
जो कवि और कविता के दरवाज़ों पर
पहरेदार की तरह खड़ा है…
यथार्थवाद
मैंने सिर्फ देखा था।
एक गंध कई गज के घेरे में बसी हुई है।
तौलिया मुचड़ा हुआ है।
चादर अपने स्थान से हट कर
एक तरफ ज्यादा लटक गई है।
शिथिलता हवा को दबोचे है।
क्या अभी-अभी कोई
कमरे से बाहर गया है?
शायद!
मैंने तो सिर्फ देखा था।
लुक मान अली
पेंटिग
Salman Toor : Humiliated Ancestor #1 (2016)
[1]
झाड़ियों के पीछे एक बौना आदमी पेशाब करता हुआ गुनगुनाता है और सपने में
देखे हुए तेंदुए के लिए आह भरता हुआ वापिस चला जाता है। यह लुकमान
अली है : जिसे जानने के लिए चवन्नी मशीन में नहीं डालनी पड़ती।
लुकमान अली के लिए चीज़ें उतनी बड़ी नहीं है जितना उन तक पहुँचना।
वह पीले, लाल, नीले और काले पाजामे एक साथ पहन कर जब खड़ा होता
है तब उसकी चमत्कार शक्ति उससे आगे निकल जाती है।
वह तीन लिखता है और लोग उसे गुट समझने लगते हैं और
प्रशंसा में नंगे पाँव अमूल्य चीज़ें भेंट देने आते हैं : मसलन,
गुप्तांगों के बाल, बच्चों के बिब और चाय के खाली डिब्बे।
वह इन्हें संभाल कर रखता है और फिर इन्हें कबाड़ी को बेच
अफीम बकरी को खिला देता है। यह उसका शौक है और इसके
लिए वह गंगाप्रसाद विमल से कभी नहीं पूछता।
‘लुकमान अली कहाँ और कैसे है?’
अगर आपने अँगूठिए की कथा पढ़ी हो
तो आप इसे अपनी जेब से निकाल सकते हैं। इसका नाम
लेकर बड़े-बड़े हमले कर सकते हैं, पीठ पर बजरंग बली के चित्रा दिखा सकते हैं,
आप आँखें बंद करके अमरीका या रूस या चीन या किसी
भी देश से भीख माँग सकते हैं और भारतवासी कहला सकते
हैं : यह भी मुझे लुकमान अली बताता है।
[3]
लुकमान अली के लिए स्वतंत्राता उसके कद से केवल तीन इंच बड़ी है।
वह बनियान की जगह तिरंगा पहनकर कलाबाजियाँ खाता है।
वह चाहता है कि पाँचवें आम चुनाव में बौनों का प्रतिनिधित्व करे।
उन्हें टाफियाँ बाँटें।
जाति और भाषा की कसमें खिलाए।
अपने पाजामे फाड़कर सबके चूतड़ों पर पैबंद लगाए। वह गधे की
सवारी करेगा।
अपने गुप्तचरों के साथ सारी
प्रजा पर हमला बोल देगा।
वह जानता है कि चुनाव
लोगों की राय का प्रतीक नहीं, धन और धमकी का अंगारा है
जिसे लोग अपने कपड़ों में छिपाए पानी
के लिए दौड़ते रहते हैं।
वह आज
नहीं तो कल
नहीं तो परसों
नहीं तो किसी दिन
फ्रिज में बैठ कर शास्त्रों का पाठ करेगा।
रामलीला से उसे उतनी चिढ़ नहीं है जितनी
पुरुषों द्वारा स्त्रियों के अभिनय से।
वह उनकी धोतियों के नीचे उभार को देखकर नशा करने लगता है।
वह बचपन के शहर और युवकों की संश्स्था के उस लौंडे की याद करने
लगता है। वह अपने स्केट पाँवों से बाँध लेता है।
प्रेमिका के बाल जूतों में रख लेता है। वह अपने बौनेपन में लीन
हो जाता है।
वह तब पकड़ में नहीं आता क्योंकि वह पेड़ नहीं है।
वह पेड़ नहीं है इसलिए लंबा नहीं है।
वह लुकमान अली है : वह लुकमान अली नहीं है।
[6]
लुकमान अली की त्रासदी में वे सभी शामिल हैं जो पाँचवें सवार हैं।
चार्ली चेपलिन से लेकर जगदीश चतुर्वेदी तक के कपड़ों में भूसा भर कर वह एक
फिल्म बनाता है और संवादों तथा शॉट्स की एडिटिंग में व्यस्त हो जाता है :
‘‘जनाब, आप अपने जूतों को संडास की तरह मत बरतें। पैसे इंग्लैंड में रख
कर बारिश का मज़ा आप हिन्दुस्तान में ले रहे हैं।’’ कट।। ‘‘आपकी
कोहनी पर बैंगन उग आए हैं। आप कार्श से तस्वीर खिंचवा रहे
हैं।’’ कट।। ‘‘डाली की मूँछों की कीमत एयर इंडिया का महाराजा है। आप
चाहें तो सौदा कर सकते हैं।’’ कट।। ‘‘मेरी ज़ुल्फें किसने काट लीं?
मैं तो कामयनी की गंजी नायिका हूँ। हाय, मेरे स्तनों को
चूसते हुए तुम हीरो लगते हो।’’ कट।। ‘‘धरती अब भी नहीं घूम
रही— गैलीलियो, तुम अपना अपराध स्वीकार कर लो।’’ कट।। ‘‘मैं खुद
को ढूँढ़ रहा हूँ। मेरी बाईं पसली पर आड़ू लगे हुए हैं। क्या आप
मेरी सहायता करेंगे।’’ कट।।
(शॉट् चौथा) सड़क पर जाते-जाते उसे अचानक लगता है कि वह अकेला है।
उसके चेहरे पर मासूमियत उतर आती है। मासूमियत उसे ‘आदमी’ बना
देती है और वह घबड़ा कर भागने लगता है। वह ‘आदमी’ होने के
अहसास से अपरिचित है। सामने से आती हुई मोटर उलट जाती है।
उसमें लपटें उठने लगती हैं। उसे राहत मिलती है और वह फिर से
लुकमान अली बन जाता है। वह अपने पाजामे कसने लगता है।।
(शॉट् सत्ताइसवाँ) वह एक सपना देखता है। दो दोस्तों के साथ वह पटरे पर
बैठकर उसे सड़क पर घिसट रहा है। एक महिला सड़क के नियम भंग करने
की बात कह कर उनका चालान करना चाहती है। ग ग ग एक कोठे पर वे तीनों
चढ़ रहे हैं। सीढ़ियों पर संगमरमर का एक शिल्प है जिसमें भग की
आकृति में बालक कृष्ण का अभिप्राय खुदा है। (शिल्प और ‘वह’ का
क्लोज़ अप) ग ग ग नाच हो रहा है। इतने में भगदड़ मच जाती है। एक
कारिंदा घबड़ा कर कहता है : ‘‘चिड़िया उड़ गई। अब तो नकली हार बचा
है।’’ ग ग ग वह भाग रहा है। उसका दोस्त उसे बताता है कि असली हार
उसके पास है। वह हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगता है क्योंकि नकली हार
उसके पास होता है। (दोनों के चेहरों का तीस सेकैंड तक फ्रीज़ शॉट्)।।
(शॉट् बत्तीसवाँ) नाली के पास एक कुत्ता खड़ा होकर नंगी नहाती हुई
औरत को देख रहा है। एक कौवा औरत की ब्रॉ नीचे फेंक देता है।
लुकमान अली उसे जेब में रखकर पत्थर से कुत्ते को भगा रहा है और
ठीक कुत्ते की मुद्रा में नंगी नहाती हुई औरत को देखने लगता है।।
(शॉट सत्तरवाँ) काफी हाउस की हर मेज़ पर काफी रखी है। लोगों के कपड़े
उनकी कुर्सियों पर पड़े हुए हैं। वे केवल अंडरवियर पहन कर इस दृश्य को
बाहर खड़े देख रहे हैं। (लोगों की इस भीड़ पर कैमरा कुछ समय तक घूमता है)।।
[7]
सरकस के कुत्ते की तरह
लुकमान अली कूदता है और एक गुफा में दाखिल हो जाता है।
यहाँ वह उस औरत को जातक कथाएँ सुनाएगा।
जो महीने में केवल चार दिन के लिए
उसे संरक्षक मान लेती है : और बाकी
दिनों के लिए
अपने ज़िस्म के हवामहल में ‘न, न, धीरे’ कराहती हुई आसन
बदलती रहती है।
लुकमान अली गुदा और मुख और दरवाज़ों में मोमबत्तियाँ जलाकर
दिन कर लेता है। वह अपने पाजामे
उतार कर जब लेटता है तो उसे ‘प्रेम’ शब्द का अर्थ ‘धातु’ याद आने
लगता है। वह मुरदा-घर के बाहर खड़ी गौओं और सीढ़ियों पर टंगे
कफ़न में तिस्तु बनकर प्रवेश कर जाता है।
उसे हरी रोशनी का जंगल अपने पाँवों के चारों ओर घेरता हुआ
लगने लगता है। वह अंधा होकर आसनों
का अभ्यास करने लगता है। वह लुकमान अली का ‘पॉप आर्ट’ बन जाता है।
वह कंधों पर माओ के चित्रा और कैनेडी के हत्यारे की बंदूक
रख लेता है और अपने पाजामों को
पैराशूट बनाकर किसी पेशाबघर में उतर जाता है।
वह दिल्ली के बीचोंबीच संजीवनी बूटी बो कर
बेहोश लोगों की तलाश में है या लावारिस लाशों की खोपड़ियाँ चुराने
की तैयारी में उँगलियाँ ठोकता रहता है।
लुकमान अली
अंडा पकड़कर बचपन
के शहर में घूम रहा होता
है। वह
गश्त लगाता हुआ सोता है और घोड़े की पीठ पर उलटा बैठकर
अपनी गोलियों को मसलता रहता है।
तारकोल में धागा बाँध कर लुकमान अली खबर भेजता है :
‘‘विएतनाम और नक्सलवाड़ी
बर्ट्रेण्ड रसेल और ज्याँ पाल सार्त्रा
के संबंधों को हवा-मुर्ग से जाँच कर मैं घोषित करता हूँ :
युद्ध का कोई पर्यायवादी शब्द नहीं अगर शिश्न तोप नहीं है। मेरी बेकारी
के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। मेरे पाजामों को
टिनोपाल की जरूरत नहीं : शांति कपोत को है। उसे उड़ते हुए धोना होगा।’
**
लुकमान अली चौंसठ जोकरों की ताश बाँटता है। वह उन लोगों की प्रतीक्षा में है
जो जनगणना में शामिल नहीं हैं
और किसी भी ‘खेल’ में पूरे नहीं हैं।
वह हर तरफ से पंद्रह गिनकर लुकमान
अली नहीं है। वह वही है। आसमान
के रंग और घास के कीड़ों का
जोड़ करते हुए वह तीस करोड़ नब्बे लाख दो सौ उन्नीस आदमियों के एक्स-रे का
अध्ययन कर रहा है। वह उसके पाजामों का गणित है— हिन्दुस्तान की
आबादी का नहीं।
लुकमान अली प्रजातंत्रा की हंडिया में महापुरुषों की डाक टिकटें, सिक्के और
वीरताचक्र इकट्ठे करता हुआ भीख माँग रहा है। वह अंगूठे में फ्रेंचलेदर पहन कर
सलाम करता है। वह उँगली वहाँ रखता है, जहाँ
सुरसुरी होती है।
और हीजड़े बिच्छू को पकड़ने के लिए भरी महफिल में फुदकने लगते हैं।
लु। क। मा। न। अ। ली। को। पी। ठ। की। त। र। फ। से।
जा। ते। हु। ए। दे। ख। ना।
लुकमान अली अपने टखनों में कीलें ठोंकता हुआ धीरे से पूछ रहा है :
‘मीदास, तुम कहाँ हो?’
___________
लुकमान अली
केदारनाथ अग्रवाल
अक्टूबर-नवम्बर, सन् 1968, के ‘कृति परिचय’ के ‘युवालेखन विशेषांक : 1’ में छप कर सामने आया ‘लुकमान अली’ सौमित्र मोहन के दुःस्वप्न का पुत्र है. नाम मुसलमानी है. एक साथ लाल, नीले, पीले और काले पाजामे पहनता है. लोगों की जेबों में रहता है. वहाँ से बाहर निकाला जा सकता है. इसका नाम लेकर रूस, चीन, अमरीका या किसी भी देश से भीख माँगी जा सकती है और वह भी आँख मूँद कर (यानी बिना प्रयास के) और भारतवासी कहलाया जा सकता है.
वैसे तो ‘लुकमान अली’ मात्र प्रतीक मालूम होता है जो खोजने पर भी— कहीं भी—समूचे भारत में आदमी के एक शरीर के रूप में नहीं मिलता. लेकिन— करोड़ों आदमियों का भारत— विसंगतियों के परिवेश का आज का भारत— अनचाही यंत्रणाओं का भारत—दुःस्वप्न की मनोदशा में पहुँच चुका भारत है और इसी भारत का प्रतिनिधि ‘लुकमान अली’ है. अपनी ‘फन्तासी की सत्ता’ में व्यक्ति विशेष होकर भी यह व्यक्ति विशेष नहीं है— साधारण है— अति साधारण है— जिसे देखकर-समझकर पूरे भारत को देखा और समझा जा सकता है.
दुःस्वप्न की मनोदशा में पहुँचे अब के भारत को हाड़-मांस के किसी एक जाने-माने व्यक्ति के चरित्र-चित्रण के द्वारा आंशिक रूप में भी व्यक्त नहीं किया जा सकता था. अनेकों व्यक्तियों का एक जगह चित्रण भी असम्भव था. व्यक्ति या समूह एक रचना में एक साथ पकड़ में न आ सकते थे. सौमित्र मोहन ने ‘लुकमान अली’ को ‘फन्तासी की सत्ता’ दे कर असम्भव को सम्भव किया है और एक के माध्यम से अनेक के भारत को एक स्थान पर यथासाध्य शाब्दिक जामा दिया है जो व्यक्त हो रही विसंगतियों— अनिच्छित यंत्रणाओं को— तीखे और पैने तरीके से उभारता और दरसाता है.
‘फन्तासी’ की यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है. इसलिए भी इस कविता का विशेष महत्व है.
दस खंडों में छपी यह एक लम्बी कविता है. युगीन और आधुनिक कथ्य को— जन-मानस में व्याप्त विसंगति को— जो अब तक की लिखी छोटी-बड़ी कविताएँ न कह सकीं उसको इसने कहा और भरपूर कहा और ऐसा कहा कि भरपूर impact पड़ा. इसका कथ्य उतना ही युगीन और आधुनिक है जितना इसका शिल्प. न कथ्य में रोमान है— न सौन्दर्यात्मक प्रवृत्ति है— न शाब्दिक अलंकरण है— न दार्शनिक आरोपित चिंतन है— न पलायन-प्रेरणा है— न भ्रम और भ्रांति है. न शिल्प में पारम्परित वाक्यांश हैं— न स्वीकृत काव्यांगी उपमाएँ हैं— न रूपकों का आइना है, न भाषा की गढ़न है— न छंदों की छलन और छुअन है— न कथ्य को शोभित करने की लालसा है— न कुरूप को विकृत करने की उत्कंठा हैं— न यथार्थ का दमन है— न आदर्श की चाल-चलन है. जैसी नंगी विसंगति है और जैसा नंगा उसका कथ्य है वैसा नंगा उसका शिल्प है. गद्य और पद्य इसी कविता में कविता हुए हैं और दोनों यहीं अपना-अपना अस्तित्व एक कर सके हैं और एक होकर भारतीय जन-मानस की विसंगति की मनोदशा को अभिव्यक्ति दे सके हैं.
मुक्तिबोध और राजकमल की मृत्यु के समय तक हिन्दी कविता जहाँ तक पहुँची और ले जायी गयी थी वहाँ से आगे पहुँची और ले जायी गयी यह कविता— ‘लुकमान अली’— है. इसकी पहुँच का यह स्थान हिन्दी कविता की वर्तमान उपलब्धि का विशेष महत्व का स्थान है. इस स्थान पर परम्परा और प्रगति का अविच्छन्न सम्बंध टूटा है— काव्य की समस्त स्वीकृत मान्यताएँ तिरोहित हुई हैं— मानसिक गुहाओं की रोमांचक यात्राएँ समाप्त हुई हैं— स्वर से संगीत विलग हुआ है— यथार्थ को विसंगति के साथ अभिव्यक्ति मिली है— श्लील की मृत्यु हुई है और अश्लील को साहित्यिक स्वीकार्य मिला है— और गद्य को भी कविता कहलाने का गौरव मिला है. \”मेरी प्रगतिशीलता कइयों की प्रगतिशीलता से भिन्न रही है. मैंने अपने दार्शनिक सिद्धांतों को कविता के कसने की कसौटी नहीं बनाया. वह \’पार्टी-वाद\’ होता और उस \’पार्टी-वाद\’ से परखना इस अपने युग की काव्य-उपलब्धियों के साथ न्याय-सम्मत न होता. यही सोच कर और समझ कर मैंने, \’पार्टी-वाद\’ से बाहर निकल कर, \’आदमीवाद \’ अपनाया और कविता को आदमियत की परख से परखा.\”
(\’समय-समय पर :केदारनाथ अग्रवाल\’ की भूमिका से )
यह वास्तव में युगबोध की आधुनिक साहसिक कविता है. यह विश्वविद्यालयी स्वर से अछूती है. यह सड़क के स्वर की, हरेक नगर के ऊबे-डूबे परिवेश की, करोड़ों-करोड़ साधारण-जनों की सही अर्थों में कविता है. तभी तो यह राजनीति को पास नहीं फटकने देती. प्रतिबद्धता इसका स्वभाव नहीं है. नेताओं को यह नियामक नहीं मानती. उन पर चोट करती है. आदमियों को— नकली बने आदमियों को निरावरण करती है. अपना सब कुछ न पाकर विपन्न जीने वालों की आज की यह कविता उतनी ही वैयक्तिक है जितनी सामूहिक है. इसमें न व्यक्ति की अवज्ञा है— न भीड़ की. व्यक्ति और भीड़ इसी कविता में विसंगति के स्थल पर पहुँच कर अपना-अपना निजी महत्व खो सके हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं. सभ्यता और संस्कृति की परतें यहीं उखड़ी हैं और उनके उखड़ने पर दुःस्वप्न पैदा हुआ है और वही दुःस्वप्न आज के भारत का दुःस्वप्न है जिसे, भारतीय जी रहे हैं असहाय, असमर्थ और चिंतनीय.
(‘समय-समय पर’, केदारनाथ अग्रवाल, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 6 जुलाई, 1970)