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परिप्रेक्ष्य : भालचंद्र नेमाडे : प्रफुल्ल शिलेदार
भालचंद्र नेमाडे मराठी भाषा और भारतीय साहित्य परम्परा के अपने कथाकार हैं. उन्हें इस वर्ष के भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. प्रफुल्ल शिलेदार ने उनके उपन्यासों के माध्यम से इस आलेख में उनके अवदान को रेखांकित किया है और समकालीन वैश्विक स्थितियों में उनकी महत्ता को भी पहचाना है. देशजवाद का […]
भालचंद्र नेमाडे मराठी भाषा और भारतीय साहित्य परम्परा के अपने कथाकार हैं. उन्हें इस वर्ष के भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. प्रफुल्ल शिलेदार ने उनके उपन्यासों के माध्यम से इस आलेख में उनके अवदान को रेखांकित किया है और समकालीन वैश्विक स्थितियों में उनकी महत्ता को भी पहचाना है.
देशजवाद का अदम्य योद्धा
प्रफुल्ल शिलेदार
भारत के एक शीर्षस्थ उपन्यासकार तथा इस वर्ष के ज्ञानपीठ पुरस्कार-विजेताभालचंद्र नेमाड़े का मराठी में बड़ा अनूठा और सदा चर्चित स्थान रहा है.उनकी छवि एक आत्मसजग और विश्वचेतस् लेखक के रूप में रही आई है. समाज के हर वर्गसे खुलेपन से जुड़े रहना और किसी भी दबाव में न आकर अपनी बात कहते रहना, जो एकअच्छे लेखक के लक्षण हैं, उनमें भरपूर हैं.अपने लेखन में और बोलने में हमेशा दो टूकबात करनेवाले नेमाड़े को इस वजह से कई बार विवादों को भी झेलना पड़ा है.मुक्तिबोध द्वारा अपेक्षित \’\’अभिव्यक्ति के खतरे\’\’ उठाने वाले चुनिंदाभारतीय लेखकोंमें से वह एक हैं.
जब 1963 में नेमाड़े की पहली किताब आई तब वह महज पच्चीस साल के युवाथे. वह थी उपन्यास \’ कोसला\’, जो आज पचास साल बाद २०१५ में भी वर्तमान पीढ़ीके युवा पाठकों और युवा लेखकों को तब-जैसा ही आकर्षित करता है. \’कोसला\’ ने मराठी साहित्य में कई बातें नई तमीज के साथ स्थापित कीं और कई पूर्व-स्थापितबातों के गढ़ तोड़ दिये. आज तक इस उपन्यास का पाठ तीन पीढ़ियों केपाठकों ने किया है, फिर भी वह मराठी की सबसे चर्चित किताब के स्थान से जरा भीनहीं हटी. \’कोसला\’ पर अब भी नए सिरे से विचार और अध्ययन हो रहा है.\’कोसला\’ ने क्या किया ? जिस वक्त मराठी उपन्यास रूमानियत और सौंदर्यवादके प्रभाव मेंथा, उस वक्त नेमाडे ने \’कोसला\’ लिखकर यथार्थवाद को हैरतअंगेज रूप से पेश किया. यह यथार्थवाद भी वह कोरा यथार्थवाद नहीं था, जिसे नेमाड़े के बाद केकई मराठी उपन्यासकारों ने बुरी तरह से अपना लिया. यह लैटिन अमेरिकनजादुई यथार्थवाद से भी मिलता-जुलता कतई नहीं था. \’कोसला\’ समाज की युवापीढ़ी की भाषा को अपना करलिखा गया था. इस में सिर्फ बोली-भाषा को ही नहीं बल्कि युवा पीढ़ी का जीवन जीने केप्रति जो नजरिया है उसे भी लिखने के अंदाज़ में अपनाया गया था. \’कोसला\’ के नायकपांडुरंग सांगवीकर के \’विराग\’ का रुझान रूमानियत की जगह जब जीवन की जड़ों तकपैठता चला जाता है तब यह उपन्यास एक क्लासिक कृति के स्तर को छू लेता है.
\’कोसला\’ के बाद नेमाड़े के चार उपन्यास प्रकाशित हुए जिन सब में एक ही\’प्रोटैगोनिस्ट\’, चांगदेव पाटील, है जो शिक्षा व्यवस्था की पड़ताल की आड़ हमारी पूरीसमाज व्यवस्था की पड़ताल करता है. 1980 में छपे \’हूल\’ उपन्यास के बाद पूरे तीससाल की लम्बी खामोशी नेमाड़े के पाठकों ने शिद्दत से झेली, जो किसी अन्य लेखक को भीहैरान कर सकती है.
लेकिन उसके बाद २०१० में प्रकाशित हुआ उनका बहुप्रतीक्षित उपन्यास \’\’हिन्दू – जीनेका संपन्न कबाड़\’\’ . इस छह सौ पृष्ठों के उपन्यास का नायक है \’\’खंडेराव\’\’. खंडेराव का जन्म महाराष्ट्र के खानदेश क्षेत्र के एक देहात के ऐसे परिवार मेंहुआ है जो अपनी परम्पराओं की श्रृंखलाओं में जकड़ा हुआ है. यह नायक अपनी जड़ोंकी तलाश में हजारों साल पुराने इतिहास में जाता है. उसकी यह अतीत-यात्रामोएंजोदड़ो तक पहुँचती है. खंडेराव पुरातत्व शास्त्र का अध्येता है. वहप्रागैतिहास के जरिये हमारी सभ्यता की पड़ताल करता है, अतीत से वर्तमानमें लौटकर आता है और भविष्य पर भी अपनी पैनी नज़र डालता है. अपनी खुद कीजड़ों की तलाश में वह पूरी समाज-व्यवस्था, परम्पराओं, रूढ़ियों, रिश्तों के दबाव, संस्कार, इन सारी चीजों की खोज करता है. इस खोज में नेमाड़े काल के अलग अलगखण्डों में बसे भारतीय समाज के घटकों का चित्रण करते है जिसमें टोलियां है, देहात है, स्त्रियां है, आदिवासी हैं , जातियां है, आक्रमण है, विरोध है. समाजके कुचले हुए तबकों की बहुत सारी निराशाएं भी हैं.एक बड़ा कैनवस है जिसमेंनेमाड़े ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय दृष्टियों से भारतीयताकी खोज करते है. काल का एक लम्बा पटल तना हुआ है जिसके तले सदियों कीलम्बाई पसरीहै. इस छह सौ पृष्ठों के उपन्यास के बाद के तीन और खंड आना बाकी हैं जिनमें सेदो खण्डों का लेखन नेमाड़े करीब करीब पूरा कर चुके हैं.
\’हिन्दू\’ के जरिये वे न केवल हिंदुस्थानी समाज की बल्कि पूरे भारतीयउप-महाद्वीप कीसभ्यता की पड़ताल
करते है, हालाँकि नेमाड़े की हिन्दू होने की कल्पना आज कीहिंदुत्ववादी व्याख्या से कोसों दूर है. वे \’हिन्दू\’ शब्द से परहेज़ न रखते हुए भारतीय उप-महाद्वीप की बहुसांस्कृतिक सभ्यता को हिन्दू सभ्यताकहने का जोखिम उठाकर अपनी पूरीबात एक लम्बे विमर्श के साथ रखते है. इस विमर्श का एक महत्वपूर्ण अंग\’देशजवाद\’ है (जिसे मराठी में \’देशीवाद\’ और अंग्रेजी में Nativism के नाम सेजाना जाता है.) हिंदी साहित्य में इस विचार के बीज को भारतेंदु-प्रेमचंदतक से पाया जा सकता है. नेमाड़े ने मराठी में इस देशजवाद को \’रोमांटिसिज्म\’ के ख़िलाफ़ साग्रहखड़ा किया जिससे ऐसे कई लेखकों को बल मिला जो अन्यथा कभी भी हाशिये से केंद्रतक का सफर पूरा नहीं कर पाते. \’हिन्दू\’ में नेमाड़े की भाषा-सम्पन्नतासे साक्षात्कार तो होता ही है, उनकी विश्वकोशीय संज्ञानात्मकता कापरिचय भीहमें चकित कर देता है. इस उपन्यास को ज्ञानपीठ से सम्मानित करना हमारे भारतीयउप-महाद्वीप की कालजयी सांस्कृतिक एकात्मता का गौरव है. यह आशा भीमराठी पाठकों केमन में अंकुरित हुई है कि आज के विश्व साहित्य में उपन्यासों का जोमहत्त्वपूर्ण स्थान बना हुआ है उस में ज्ञानपीठ के बहाने इस शतप्रतिशत देशज और ठेठ भारतीय लेखक को भी गंभीर आदर और समुचितस्थान मिल सकता है.\’\’भालचंद्र नेमाड़े अर्थात् उपन्यास\’\’,यही एक नाता बना हुआ है लेकिन वह मूलतः एककवि हैं. बड़े आलोचक, अनुवादक, भाषाशात्री और अध्येता तो वह हैं ही, बहुतकम कविताओं केबावजूद उन्हें मराठी का अत्यंत महत्वपूर्ण साठोत्तरी कवि भी माना जाता है. वेकहते है , \’भले ही कविता लिख न पाऊँ, दिन के अंत में मेरे जीने का वाष्पीकरण होकरकविता की महज एक सतर बन जाय, ऐसा स्वप्न हर लिखनेवाले के दिल में होना चाहिए.\’ नेमाड़े के भीतर का यह कवि उनके उपन्यासों को भी मानवीयता तथा संवेदना के नएआयाम देता है. नेमाड़े को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना मराठी की दो हजार वर्षों की गद्य-गल्प परंपरा का सम्मान करनेवाली और मराठी में भरपूर लिखे जा रहेउपन्यासों की हौसला अफ़ज़ाई करनेवाली घटना है. नेमाड़े जी जैसे बहुमुखीप्रतिभाशाली और ज़मीन से जुड़े लेखक का किसी भी देश, समाज और भाषा में होनाउन्हें छद्म-आधुनिकता, दिग्भ्रमित वैश्विकता तथा सर्वनाशक भूमंडलीकरण कीआँधी से जूझने की ताकत देता है.
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हिंदी-मराठी की मिली-जुली संस्कृति के नगर नागपुर में जन्मे प्रफुल्ल शिलेदार वरिष्ठता की दहलीज़ पर क़दम रखते हुए मराठी के बहुचर्चित-बहुप्रकाशित कवि-अनुवादक-समीक्षक हैं.वह पिछले कई वर्षों से हिंदी से मराठी में अनुवाद कर रहे हैं और विनोदकुमार शुक्ल एवं ज्ञानेंद्रपति जैसे चुनौती-भरे कवियों के पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित कर चुके हैं जिन्हें मराठी में बहुत सराहा गया है.स्वयं उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय तथा अंग्रेज़ी सहित अन्य विदेशी भाषाओँ में हुए हैं. ब्रातिस्लावा,स्लोवाकिया में होनेवाले कविता-समारोह ‘’आर्स पोएतीका’’ में 2013 में आमन्त्रित वह पहले भारतीय कवि थे.उनकी पत्नी सौ.साधना शिलेदार हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्द गायिका तथा कुमार गंधर्व की अध्येता हैं.प्रफुल्ल शिलेदार (09970186702) मुंबई में रहकर बैंक की नौकरी करते हैं.
(8फ़रवरी 2015 के दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ के सभी संस्करणों में इस आलेख का संपादित अंश छपा है, मूल यहाँ दिया जा रहा है.लेखक और सम्पादक का आभार. साथ ही विष्णु खरे जी को यह आलेख उपलब्ध कराने के लिए समालोचन की ओर से विशेष आभार.)