सौ साल के राजकपूर
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आर के फ़िल्म्स के तहत इक्कीस फ़िल्में बनाई गई हैं जिनमें से दस पर बतौर निर्देशक राजकपूर का नाम है. यह नीली आँखों वाला गौर वर्ण नौजवान नायक एक ऐसे समय में आया था जब स्टाइलाइज़्ड एक्टिंग, मेलोड्रामा, टूटे हुए दिल वाले ग़मज़दा नायक नायिकाओं, अच्छी शायरी और संगीत का दौर था. बहुत शुरु से शुरु करके अपने जीते जी ख्याति के शिखर पर पहुँचने वाले और कुछ बहसतलब ढंग से महान फिल्मकारों के साथ गिने जाने वाले राजकपूर ने, इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी सिनेमा पर अपना गहरा असर छोड़ा है. उनसे प्रभावित कई फिल्मकारों ने कभी उनके गीतों के फिल्मांकन से, कभी उनकी शो मैन छवि से प्रेरणा ली है. बहुत कम लोग उस दर्जे और रुतबे को हासिल कर पाए हैं जो राजकपूर ने अपने जीवनकाल में बहुत कम उम्र में पा लिया था.
राजकपूर एकदम नौजवानी में, कुछेक फ़िल्मों में सहायक रहने और कुछ में अभिनय के बाद ही चौबीस की उम्र में अपना प्रोडक्शन शुरु कर देते हैं. ख़्वाजा अहमद अब्बास, वी पी साठे, इंदर राज आनन्द जैसे लोगों की सोहबत है. वे ख़ुद अपनी एक टीम बनाने की प्रक्रिया में हैं. ‘आग’ (1948) उनकी पहली, डगमगाती सी सिनेमाई कोशिश है. नरगिस, ख़्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र, हसरत, मुकेश, लता, शंकर जयकिशन- ये सब धीरे-धीरे टीम राजकपूर बनते हुए ‘बरसात’ (1949) की चमकीली सफलता में भागीदार होते हैं. यह फ़िल्म आर के बैनर और राजकपूर को मजबूती से स्थापित कर देती है. यहाँ से राजकपूर के यश की वह शानदार कहानी शुरू होती है जो इस यात्रा के दौरान मिली चन्द असफलताओं से भी मलिन नहीं होती.
स्वप्नदर्शी, सृजनात्मक, परस्पर प्रेरक- राजकपूर की यह अंतरंग टोली एक के बाद एक सफलता के अध्याय लिखती चली जाती है. राजकपूर इस टीम को जुटा सके, इसके पीछे उनकी अंतर्दृष्टि और खरे सिक्के की पहचान कर सकने की क्षमता को मानना ही होगा. राजकपूर की चमत्कारिक छवि का मूलधन उनकी गुणी साथियों को जुटाने की यही खूबी है.
फिर आती है ‘आवारा’ (1951). इस फ़िल्म से उनके साथ सिनेमेटोग्राफर राधू कर्माकर (या कर्मकार ?) भी जुड़ते हैं और अपने जीवनपर्यन्त आर के फिल्म्स का हिस्सा बने रहते हैं. यह फ़िल्म राजकपूर को देश की सीमाओं के पार ले जाती है. रूस के कंठ में ‘आवारा हूँ’ किसी एन्थम की तरह बस जाता है. यह एक नया नायक है. वैसा कवि हृदय, कोमल, शायराना नहीं, जैसा हिन्दी सिनेमा में अब तक होता आया था. इसमें प्रतिनायकत्व के तमाम बीज हैं. यह अन्याय से उपजे गुस्से में खदबदाता नायक है जो नायिका से भी एक खुरदुरे, हिंसक ढंग से पेश आ सकता है. यह सवाल करता है. ख़्वाजा अहमद अब्बास एक तरह से इस फ़िल्म के नायक में उस एंग्री यंग मैन की एक अग्रिम झलक ले आते हैं जो सत्तर के दशक में हिंसा और प्रतिशोध के साथ जुड़ कर एक ट्रेंड बन जाती है.
‘आवारा’ अपनी इंटेंसिटी में आज भी सन्दर्भों में सदाबहार रहने वाली फ़िल्म है जिसके अनेक दृश्य याद रह जाते हैं. जैसे राजकपूर ‘आवारा’ में प्रस्तुत होते हैं, वैसे और कहीं नहीं. और राज कपूर ही क्यों, नरगिस भी. ‘आवारा’ इस युगल की सबसे शानदार रूमानी अदायगी है. इसी फ़िल्म में आया स्वप्नगीत भी ट्रेंड सेंटर है. ‘आवारा’ पर्दे से उभरती ऊर्जा, रूमान, ग़ुस्से, कुंठा, और एक समग्र सिनेमाई अनुभव की एक अविस्मरणीय आँच है.
सामाजिक सवालों के रूपक अब्बास की कलम से और गाढ़े, और तीखे होकर उभरते हैं ‘श्री चार सौ बीस’ (1955 ) में. पूँजी की सर्वग्रासी शक्ति और भ्रष्ट करने की अकूत सामर्थ्य के संजाल में घिरे एक नेक बन्दे की यह कहानी जो राज कपूर के ‘आवारा’ से शुरू हुए चैपलिनीयन परसोना को और अवसर देती है, अपनी बात मार्मिकता और दृढ़ता से दर्शकों तक पहुँचाती है. शैलेन्द्र ने जैसे इस बदलाव को कितनी सादगी भरी, बाकमाल मारकता से इस गीतात्मक उलाहने में मूर्त किया है :
तू और था
तेरा दिल और था
तेरे मन में ये मीठी कटारी न थी
इसी में ‘बरसात’ का वह चिरजीवी गाना है: ‘प्यार हुआ, इकरार हुआ’ जिसमें बारिश का अनन्य फ़ील है. हालांकि गाने में बारिश का ज़िक्र नहीं है लेकिन फ़िल्मांकन में बहुत प्यारी और रूमानी बरसात है. वह काली छतरी, प्लेट में भाप निकलती चाय डाल कर उसे पीता हुआ चायवाला, बूंदों का लहराता हुआ मलमली दुपट्टा,छतरी के नीचे राज-नरगिस, शैलेन्द्र शंकर जयकिशन का वह अद्भुत रसायन, गीली सड़क जिस पर स्ट्रीट लाइट्स चमकती हैं, उस पर जाते हुए बरसाती ओढ़े वे तीन बच्चे, और वे दुर्निवार पंक्तियाँ:
मैं ना रहूँगी
तुम ना रहोगे
फिर भी रहेंगी निशानियाँ !
कुल मिलाकर एक कालातीत जादू. पटकथा और निर्देशन के लिहाज़ से ‘श्री चार सौ बीस’ राजकपूर के कामों में हमेशा अलग से चमकते रहने वाली फ़िल्म है.
सामाजिक सरोकारों का यह रुझान ‘बूटपालिश’ (1954 ) में भी है जो अनाथ बच्चों के जीवन संघर्ष का हाई वॉल्टेज मेलोड्रामा है. इसके एक दृश्य भर में राजकपूर दिखाई देते हैं. सभी को पता है कि इसके निर्देशक के तौर पर भले ही राजकपूर ने नाम अपने सहायक प्रकाश अरोरा का दिया था, लेकिन निर्देशन उन्हीं का था. नेहरुयुगीन यूटोपिया का हैंगओवर ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957) में दिखाई देता है. ‘जागते रहो’ (1956) एक बार फिर अब्बास और शम्भू मित्रा द्वारा सामाजिक पर्यावरण की विकृतियों के बीच फँस गए एक गरीब देहाती किसान की प्यास का रूपक खड़ा करती है. नरगिस इस फ़िल्म में अन्तिम बार एक छोटी सी उपस्थिति में राजकपूर के साथ आर के फ़िल्म्स में दिखाई देती हैं. यह एक पटाक्षेप है जो सिनेमाई और वास्तविक धरातल पर समानांतर घटित होता है. इसके बाद स्त्री राजकपूर के यहाँ लगातार और और देह होती जाती है. विनोबा और जेपी की अपील की पृष्ठभूमि में डाकू समस्या और उनके समर्पण की थीम पर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ श्वेत श्याम युग की वह अंतिम फ़िल्म है जिसके निर्देशक भले ही उनके सिनेमेटोग्राफर राधू करमाकर हों किन्तु इस फ़िल्म में राजकपूर के नये अध्याय की स्पष्ट झलक है.
श्वेत श्याम दौर की फ़िल्मों में राज कपूर निर्देशक के तौर पर इवॉल्व होते हैं. वे एक केन्द्रीय विचार के इर्दगिर्द मनोरंजक मेलोड्रामा को बुनने की कला साधते हैं. यह नेहरुयुगीन आदर्शवाद का दौर है. राजकपूर की फ़िल्में चैप्लिन की अदाओं, आखिरी आदमी के आँसू और मुस्कान, उच्च और मध्यवर्ग की ख़ुदपरस्ती के इज़हार, शानदार गीत संगीत, उभरते हुए निओ रिअलिज़्म वाले सिनेमा के असर वाली सिनेमेटोग्राफी, एक नयी तरह के रॉ और झनझना देने वाले युवा रूमान, बेहतर पटकथा संवाद और सम्पादन के दम पर भारतीय दर्शकों के ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय फलक पर जगमगाती हैं. राजकपूर भारत ही नहीं, चीन, तुर्की, रूस और अन्य एशियाई देशों में भी लोकप्रिय हो जाते हैं. वे नरगिस के साथ सोवियत रूस जा कर अपने हज़ारों प्रशंसकों के बीच मौजूद रहते हैं. उनकी फ़िल्मों के विदेशों में रीमेक होते हैं. मात्र तेईस-चौबीस बरस की उमर में अपनी फ़िल्म निर्माण संस्था आरम्भ करने वाला यह कलाकार प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की तरह देश विदेश में लोकप्रिय हो जाता है. राजकपूर के करियर का यही स्वर्णकाल है जिसमें उनकी सिनेमाई कृतियों में विचार, मनोरंजन, स्टारडम, संगीत सब कुछ अपने शीर्ष पर पहुंचता है और उनकी अपार, किंवदंतीनुमा ख्याति का मूल आधार बनता है.
ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने के आरोहण काल के बाद सफलता के पठार पर चहलकदमी करते हुए अब राजकपूर रंगीन फिल्मों के समय में प्रवेश करते हैं. ‘संगम'(1964) में विदेशी लोकेशन्स की अतिरिक्त चाक्षुष दावत है. त्याग, प्रेम, दोस्ती, बलिदान के ड्रामा में डूबा प्रेमत्रिकोण जो हिन्दी सिनेमा में इस किस्म की फ़िल्मों के लम्बे सिलसिले की शुरुआत है. इस मेलोड्रामा में बहुत कुछ है लेकिन संगीत बहुत खूब है. राज कपूर इस फ़िल्म के संपादक भी हैं. अपने रचे को रखने का मोह उनसे फ़िल्म की लंबाई को बढ़वा देता है. वे जैसे यह परीक्षण भी कर रहे हैं कि अगर दर्शक को उसके माफ़िक आता मनोरंजन मिलता रहे तो वे लम्बी फ़िल्म भी मज़े में देख जाते हैं- एक ऐसा निष्कर्ष जो अगली और महत्त्वाकांक्षी फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता के अनेक कारणों में से एक साबित होता है. ‘संगम’ बहुत बड़ी हिट होती है. नरगिस युग के बाद वैजयंतीमाला अब नयी ‘वूमन इन व्हाइट’ हैं. राजकपूर ने इस फ़िल्म के लिए पहले दिलीप कुमार, फिर देवआनंद को लेने के प्रयास किए थे लेकिन उनके इंकार के बाद उन्होंने राजेन्द्र कुमार को लिया. ‘संगम’ आज भी अपने संगीत के कारण याद की जाती है.
इस पठार काल की दूसरी फ़िल्म है- ‘मेरा नाम जोकर’ (1970). यह प्रेरणा के छल का भी उदाहरण है. जोकर की हँसी के पीछे छुपे उसके आंसुओं को दिखाती, शो मस्ट गो ऑन के निर्मम यथार्थ को स्वीकारती यह एक एंथोलॉजी फ़िल्म सी प्रतीत होती है जिसमें नायक के दिल टूटने के तीन अध्याय हैं. राजकपूर सोवियत रूस में अपनी लोकप्रियता को फिर से जगाना भी चाहते होंगे, इसलिए एक प्रेमिका रूसी भी है. फ़िल्म लम्बे समय तक बनी, बहुत लम्बी बनी और उतनी ही जल्दी नकार दी गई. राजकपूर को इससे गहरा आर्थिक और मानसिक झटका लगा. यह उनकी संभवतः एकमात्र फ़िल्म है जिसमें उनसे अनबन हो जाने के कारण लता मंगेशकर का प्लेबैक नहीं है. संगीत बहुत अच्छा है, हमेशा की तरह और जीना यहाँ मरना यहाँ, जाने कहाँ गये वो दिन, कहता है जोकर सारा ज़माना वगैरह मुकेश के गाये गीत तब से आज तक सुने जाते हैं. लेकिन यदि टीचर (सिमी ग्रेवाल) वाला शुरुआती चैप्टर छोड़ दिया जाए तो अपने तमाम फिलॉसफाना अंदाज़ के बावजूद ‘मेरा नाम जोकर’ बोझिल पटकथा और शिथिल सम्पादन की भेंट चढ़ जाती है. दिलचस्प यह है कि बाद में इसी फ़िल्म को लोगों ने अधिक देखा और अधिक सदाशयता के साथ देखा.
जोकर के बाद सफलता के लिए विकल राजकपूर टीन एज रोमांस की ओर मुड़ते हैं. ‘बॉबी’ (1973) में एक नये राजकपूर हैं. ‘बॉबी’ के साथ ही राजकपूर का सिनेमाई सफ़र अपने तीसरे और अंतिम दौर में प्रवेश करता है. तमाम बॉक्स ऑफिस सफलताओं के बावजूद एक निर्देशक के रूप में यह राजकपूर का अवरोहण काल है. बॉक्स ऑफिस के जले राज कपूर अब इसी कामयाबी को सबसे आगे रखने लगते हैं. वे अब ‘बूटपॉलिश’ और ‘जागते रहो’ वाले जोखिम ले सकने वाले राजकपूर नहीं हैं. दिलचस्प यह है कि इस नौजवान प्रेमकथा को वही ख्वाजा अहमद अब्बास लिखते हैं जो राजकपूर की पहले दौर की फ़िल्मों के प्रमुख सृजनात्मक स्तम्भ रहे थे. व्यावसायिकता के सर्वस्व हो जाने के इस फ़ेज़ में अब न शैलेन्द्र हैं न शंकर जयकिशन. पुराने लोग विदा ले रहे हैं. नए लोग जुड़ते-अलग होते रहते हैं. टीम वाली बात अब छीज चुकी है. जयकिशन की मृत्यु के बाद शंकर जयकिशन की जगह उस समय के बहुत सफल संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल लेते हैं. ‘बॉबी’ का संगीत अच्छा है और गाने बहुत हिट हुए हैं लेकिन अब आप राज कपूर की फ़िल्मों में यही ‘चलने’ वाला तत्व प्रधानतः पाते हैं, ‘टिकने’ वाला नहीं. समय बदल गया है. दर्शक भी बदल गए हैं. राजकपूर भी बदले हैं. वह क्लासिक एलिमेंट अब पुरानी यादों का हिस्सा बन रहा है जो राजकपूर की फ़िल्मों के यादगार क्षणों में झलक जाता रहा है.
‘बॉबी’ कामयाब होती है. राजकपूर जोकर के झटके से उबर कर शो मैन के अपने मीडियाई रुतबे में लौट आते हैं. उल्लेखनीय यह है कि किसी समय राज नरगिस की जोड़ी के युवा रोमांस से दर्शकों को झनझना देने वाले राजकपूर एक टीन एज युगल के साथ प्रेम का नया मुहावरा और नया माहौल उसी ताज़गी के साथ फिर से रच पाते हैं.
लेकिन अगली फ़िल्म उन्हें फिर एक बार बताती है कि राजकपूर अजेय नहीं हैं. जिस आइडिया के इर्दगिर्द एक सांगीतिक ड्रामा रच कर और सेंसर की तत्कालीन सीमाओं के अंत तक जाते हुए उसे इरॉटिक बना कर वे प्रस्तुत करते रहे हैं वह फिर पोच साबित हो सकता है. कहानी में एक सत्याभास भी चाहिए, स्त्रीदेह के उदार प्रदर्शन भर से उसे दर्शकों के गले नहीं उतारा जा सकता. ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ (1978) बाहरी बनाम आंतरिक सौंदर्य की बात करते हुए एक उदात्त किन्तु फ़र्जी दर्शन का आभास रचती है. शशि कपूर, जिन्होंने ‘आवारा’ में राजकपूर के बचपन की भूमिका की थी, इस फ़िल्म के नायक हैं. वे इस दौर में इतने व्यस्त अभिनेता हैं कि स्वयं राजकपूर उन्हें ‘टैक्सी’ कहते हैं. नायिका हैं जीनत अमान, जिन्होंने इस रोल को हासिल करने के लिए नायिका के मेकअप और वेशभूषा में राजकपूर से मुलाकात की थी. इससे प्रभावित हो कर राज साहब ने यह भूमिका उन्हें दे दी. राजकपूर की आवाज़ रहे मुकेश इसी फ़िल्म के लिए अपना अंतिम गीत रेकॉर्ड करते हैं. मुकेश के जाने के साथ ही राजकपूर के सभी पुराने साथी, उनके कैमरामैन राधू करमाकर को छोड़ कर, अब उनसे विदा ले चुके हैं.
इसके बाद अस्सी के दशक में, कामना चन्द्रा की कहानी और जैनेन्द्र जैन की पटकथा पर ‘प्रेमरोग’ (1982) आती है. फ़िल्म तो यह भी कामयाब है लेकिन इसमें राज कपूर का स्पर्श नहीं मिलता. विधवा प्रेम और ठकुराई अकड़ और हिंसा का यह घालमेल कुछ बासी सा है. शुरु में इसका निर्देशन फ़िल्म पत्रकार रह चुके और काफ़ी समय से लेखन निर्देशन में राज कपूर के सहायक रहे जैनेन्द्र जैन कर रहे थे लेकिन राज कपूर को लगा कि बात कुछ बन नहीं रही है. पहले भी ‘बूटपॉलिश’ में उन्होंने सहायक प्रकाश अरोरा के बजाय खुद ही निर्देशन किया था, इस बार भी वही किया. इस फ़र्क के साथ कि इस बार निर्देशक के तौर पर नाम भी अपना ही दिया. राज कपूर यदि अपनी इन उत्तर फ़िल्मों का धुंआधार प्रचार न करते, मीडिया के ज़रिए दर्शकों में उनके लिए उत्सुक प्रतीक्षा न जगा देते तो कहना मुश्किल है कि इन फ़िल्मों का बॉक्स ऑफ़िस पर क्या हश्र हुआ होता.
इसके बाद उनकी अंतिम फ़िल्म आती है ‘राम तेरी गंगा मैली’ (1985). नदी और नारी की समानान्तर अवमूल्यन गाथा. भरपूर देह प्रदर्शन और हाई वोल्टेज ड्रामा जिसकी अंतर्भुक्त कुरूपता के कुछ तत्वों को हम खूब शोर शराबे और भव्यता के साथ सुभाष घई और संजय लीला भंसाली जैसे मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों में बाद में देखते हैं. राज कपूर यहाँ भी बहुत ऊँची बात कहते हुए नज़र आना चाहते हैं और दर्शक पारदर्शी वस्त्र में झरने में नहाती मंदाकिनी को देख कर कृतार्थ हो जाते हैं. यहाँ लक्ष्मी प्यारे की जगह रवीन्द्र जैन ले लेते हैं और इस तरह उन्हें भी राजश्री के बैनर के बाहर मेनस्ट्रीम सिनेमा में अवसर मिलता है. फ़िल्म हिट होती है लेकिन न नायक राजीव कपूर को सफलता मिलती है, न मंदाकिनी को. केवल राजकपूर अकेले सफल होते हैं, वह भी सिर्फ़ बॉक्स ऑफ़िस पर जो अब तक उनके लिए सफलता का एकमात्र अर्थ रह गया था.
राज कपूर ने बहुत सी फ़िल्मों में अभिनय किया. उनके अभिनय में उनकी सुपरिचित मुद्राओं, संवाद अदायगी, उनके अक्सर भोले और भले परसोना के साथ साथ आत्मदया का एक तत्व हमेशा रहा. एक ही फ़िल्म मुझे उनकी इस अभिनय शैली से कुछ अलग लगती है- ‘तीसरी कसम’ (1966). यह कल्पना ही की जा सकती है कि राजकपूर जैसे व्यावसायिक फ़्रेम में सोचने वाले निर्माता निर्देशक अभिनेता को ‘तीसरी क़सम’ में काम करते हुए कैसा लगता रहा होगा!
‘तीसरी कसम’ राजकपूर की अवधारणाओं से बिल्कुल अलग तरह की फ़िल्म है. एक बैलगाड़ी है जो चलती चली जा रही है. हीरो हीरोइन के बीच क्या है, ये पता ही नहीं चल रहा. कोई स्वप्न युगल गीत नहीं. कोई झरना या बरसात नहीं. नौटंकी वाली बाई है मगर आँचल सरकता ही नहीं. हीरो सहगान में कोरस में गाता है और मुख्य गायक चरित्र अभिनेता होता है. खल पात्रों का बोलबाला नहीं. अंत में मिलन नहीं. कविराज शैलेन्द्र के बहुतेरे इसरार पर अभिनय के लिए मान गए होंगे राज साब लेकिन मुहूरत शॉट से उन्हें पता होगा कवि की फ़िल्म है: इसे डूबना ही है.
सच तो यह है कि ‘तीसरी क़सम’ एक कवि ही बना सकता था: अपनी महबूब कहानी में भस्म हो जाना किसी कवि के ही बूते का था. इसलिए भी राज कपूर गुरुदत्त नहीं हो सके. गुरुदत्त- जो आरपार, बाज़ी, सीआईडी जैसी चलताऊ फ़िल्मों से शुरू करके ‘प्यासा’, ‘साहब बीबी और गुलाम’ ही नहीं,’काग़ज़ के फूल’ तक गए. राज कपूर ‘आवारा’ और ‘श्री चार सौ बीस’ से ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक आए. बदलते समय के साथ राजकपूर के निर्देशन में व्यावसायिक स्थूलता बढ़ती गई. उनका बेहतरीन काम उनकी उसी पुरानी बेहतरीन टीम के साथ ही था जिसके न रहने पर वे सफल फ़िल्में तो बनाते रहे लेकिन इन फ़िल्मों में उनका अपना स्पर्श नहीं था. ये ज़रूर था कि दर्शक उनकी फिल्मों का इंतज़ार करते थे और मीडिया उन्हें जबरदस्त प्रचार देता था. राजकपूर दर्शकों को क्षुब्ध या विचलित नहीं, सुखान्त से संतुष्ट करना चाहते थे. ‘राम तेरी गंगा मैली’ के अंत में, जो पहले रखा गया था, नायिका गंगा मर जाती है क्योंकि नदी और नारी वाले रूपक की परिणति यही थी. राजकपूर इस पर सोचते रहे. अंततः उन्होंने इस अंत को रद्द करके फिर से क्लाइमेक्स शूट किया और नायक नायिका को मिला दिया.
तब भी यह कहना होगा कि राजकपूर अपने तमाम व्यावसायिक दबावों के बावजूद निरर्थक मनोरंजन के मनमोहन देसाई वाले स्कूल की तरफ़ नहीं गए. वे व्यावसायिक तकाजों को ध्यान में रखते हुए एक आइडिया, एक थीम के आसपास अपनी संगीतमय कहानियाँ रचते रहे. उनकी एक बहसतलब सौंदर्य दृष्टि थी, संगीत की समझ थी, और यह समझ भी बहुत साफ़ थी कि फ़िल्म का चलना बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसी से नाम चलता है, प्रासंगिकता बनी रहती है, बहुत से लोगों का जीवनयापन होता है. इस संदर्भ में वे देवआनंद से बिल्कुल अलग थे जिन पर अपनी फ़िल्मों की लगातार असफलताओं का भी कोई असर नहीं हुआ.
आयु और स्थूलता का असर राजकपूर पर अपेक्षाकृत तेज़ी से चढ़ा. 1960 तक ही ये असर नज़र आने लगे थे. इस वजह से एक नायक के रूप में वे सुदीर्घ पारी नहीं खेल पाए. बल्कि 68 तक और उसके बाद उन्हें नायक के बतौर देखना कठिनतर होता चला गया. वे ‘तीसरी कसम’ में भी किरदार के लिहाज से अधिक वय के लगते हैं लेकिन रेणु का हीरामन इतना असरदार है कि राज कपूर न सिर्फ़ निभ जाते हैं बल्कि भले लगते हैं.
राज कपूर को मैं उनकी फ़िल्मों में गाहे बगाहे मिलने वाले मोमेंट्स, जो महानता को छूते हुए गुज़र जाते हैं, के बावजूद महान निर्देशक कहने में संकोच करुंगा. हाँ, उनका अपना विलक्षण आभामंडल (ऑरा) है. उनकी अधिकतर फ़िल्मों की सफलता इस ऑरा को लगातार सुदृढ और प्रकाशमान करती रही है. बहुत कम उम्र में एक निर्माण संस्था, एक स्टूडियो, एक बैनर खड़ा करना; समर्थ सृजनधर्मी साथियों को चुन कर अपना सहयोगी बनाना, संगीत की बेहतरीन समझ और चुनाव करना, अपने पिता की ख्याति का लाभ न लेते हुए तीसरे सहायक निर्देशक के कमतर माने जाने वाले कामों से शुरुआत करना, क्लैप देने में गड़बड़ी करने पर निर्देशक केदार शर्मा का थप्पड़ तक खाना, बहुत मजबूती से कपूर परिवार को हिन्दी फ़िल्म जगत का पहला परिवार बनाना और सबसे बढ़ कर हिन्दी सिने दर्शकों को आनन्द के कुछ यादगार क्षण देना : राज कपूर की अन्यतम देन है.
मई 1988 में राष्ट्रपति श्री वेंकटरमन से, जो खुद मंच से नीचे चल कर आए, दादा साहब फालके पुरस्कार ग्रहण करने के लिए अस्थमा से पीड़ित राज कपूर बमुश्किल खड़े हो पाए थे. इसके बाद वे कभी उठ नहीं सके. महीने भर के भीतर ही उनका देहान्त हो गया.
बनी रुबेन ने राजकपूर की जीवनी ‘द फैबुलस शोमैन’ में उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया है कि
“आर के संस्था का पूरा भाग्य मेरे तीनों बेटों के हाथों में है.”
राज कपूर के जाने के बाद उनके तीनों बेटों ने आर के फ़िल्म्स के लिए एक-एक फ़िल्म निर्देशित की. रणधीर कपूर ने ‘हिना’ (1991), राजीव कपूर ने ‘प्रेम ग्रंथ’ (1996) और ऋषि कपूर ने ‘आ अब लौट चलें’ (1999) बनाई. इसी के साथ आर के फ़िल्म्स का उपसंहार हो गया.
आर के की प्रसिद्ध होली तो सिमट चुकी ही थी, गणपति का उत्साह भी उनके साथ ही चला गया. ये वो हलचलें थीं जिन्होंने मिथकीय रंगत ले ली थी और राजकपूर के आभामंडल का और विस्तार किया था. इन्हीं में 14 दिसम्बर को उनके जन्मदिन की पार्टी भी मशहूर है जिसमे तमाम सितारों का जमावड़ा हुआ करता था.
यह भी विडम्बना की तरह ही है कि आर के युग के साथ ही उसके तमाम स्मरणीय चिन्हों, उनकी तमाम फ़िल्मों में इस्तेमाल हुई चीज़ों, वस्त्रों, प्रॉपर्टीज़ आदि का संग्रह 2017 में वहाँ लगी आग में पूरी तरह नष्ट हो गया. आखिर यह धरोहर स्थल, जहाँ राजकपूर ने करोड़ों दर्शकों को मुग्ध करने वाली फ़िल्में सोची थीं और उन्हें पर्दे पर साकार किया था, 2019 में बिक गया. व्यवहारिक और व्यावसायिक तकाज़े ऐसे ही होते हैं. खुद राजकपूर भी तो उन्हीं के दबाव में खुद को बदलते चले गए थे.
बहरहाल, हम राजकपूर को प्यार करते हैं. उस दुबले से नौजवान को तो ज़रूर ही, जिसकी नीली आँखों में एक अलग गहराई थी जिनमें दुनिया के तौर तरीकों पर हैरानी और दुख घुले मिले थे, उस उभरते फ़िल्मकार को भी जिसने रूमान को नए अर्थ देने वाले प्रणय दृश्यों को रचा था, उस व्यावसायिक निर्माता को भी जो बॉक्सऑफिस का सिद्ध साधक था, उस निपुण निर्देशक को भी जिसे अपनी कहानी में संगीत को पिरोने में महारत हासिल थी, लोकप्रिय मनोरंजन पर जिसकी अचूक पकड़ थी, और जिसकी छवि अपने जीवनकाल में ही अपने जीवन से वृहत्तर हो गई थी और जो आज तक वैसी ही बनी हुई है.
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आशुतोष दुबे (1963) कविता संग्रह : चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन की आयतें, विदा लेना बाक़ी रहे, सिर्फ़ वसंत नहीं. संयोगवश और छाया का आलोक (अनुवाद). कविताओं के अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और जर्मन में भी. |
बहुत सुंदर आलेख। एक अद्भुत गाथा को अपने में समेटता हुआ। राजकपूर ग्रेट शोमैन थे। बहुत बधाई🙏🙏
राजकपूर और आर के बैनर्स की कहानी कहता यह आलेख राजकपूर साहब की सिनेमाई दृष्टि की लगभग निरपेक्ष पड़ताल करता है। नीली आँखों वाले युवक के ऑरा को भी यहाँ खूबसूरती से एक डिकोड मिलता है। प्रसिद्धि और सिनेमा में आर्थिक सफलता के प्राथमिक हो जाने से जो कुछ बदलता है, कमतर होता है वह भी हूबहू दर्ज है। हिन्दी सिनेमा के किसी व्यक्ति पर लिखे गये किसी आलेख में यदि इतनी समग्रता है तो वह निश्चित रूप से आशुतोष दुबे सर का ही हो सकता है। समालोचन पर ही प्रकाशित देव आनंद पर लिखा उनका आलेख भी इस बात की गवाही है।
शुक्रिया आशुतोष सर यह पढ़वाने के लिए।
निहायत शानदार और मुकम्मिल आलेख।जो राजकपूर जैसी सिने हस्ती की सम्पूर्ण फ़िल्म यात्रा की दास्तां बयाँ करता उनकी खूबियों।का जायज़ा लेने के साथ उनकी सीमाओं पर भी अँगुली रखता है।लेख के अंत में तीसरी कसम की असफल शोहरत के साथ ही राजकपूर की फिल्मी यात्रा के अवसान की गाथा भिगो देती है।आशतोष जी इस आलेख के लिए बधाई के पात्र हैं।
आशुतोष ने बिलकुल अपने अनूठे अंदाज़ में यह कमाल का लेख लिखा है, उनकी गहरी दृष्टि, विश्लेषण का नायाब ढंग और कसी हुई भाषा में राजकपूर के जीवन और कर्म को इस तरह पेश करना आशुतोष को सर्वथा एक अलग पहचान देता है। आशुतोष को किसी भी रूप में पढ़ना मुझे न केवल मुग्ध करता है बल्कि एक सर्जनात्मक रोमांच से भी भरता है।
अद्भुत। सटीक, गहन और उम्दा आलेख। विशेषकर संगम, तीसरी कसम और राज कपूर की अन्यतम देन पर आपकी बात मन को छू गई। उनकी सौंदर्य दृष्टि और संगीत की समझ निश्चित बेजोड़ थी।
आपको पढ़ना सदा समृद्ध होना है।
ऐतिहासिक महत्ता वाला लेख। विषय को बहुत उदार ट्रीटमेंट के साथ पेश किया गया है। इन विषयों पर आप और भी लिखें।
आशुतोष जी ने राजकपूर को बहुत सधी दृष्टि के साथ याद किया है। आग से लेकर राम तेरी गंगा मैली तक की पूरी यात्रा को राजकपूर के दर्शन और व्यवसाय की भूमिका को देखते हुए पड़ताल की है। उनके अभिनय,निर्देशन, उनकी मंडली और साथी कलाकारों के साथ उनके अवदान को रेखांकित करते हुए वे उचित ही बाद के दौर की उनकी और आर के स्टूडियो की परिणति पर क्षुब्ध होते हैं। बावजूद इसके, राजकपूर न कोई तब हुआ और न अब है। आगे भी इसकी संभावना क्षीणतर ही है। राजकपूर की जन्मशती पर समालोचन की इस प्रस्तुति के लिए आभार। आशुतोष दुबे को बधाई।