विनोद कुमार शुक्ल संजीव बख्शी |
अपने साहित्य में सारी परम्पराओं को तोड़ने वाले बिलकुल ही अलग व्याकरण रचने और अपनी उम्र की गिनती को दरकिनार कर सतत साहित्य साधना में पूरी सक्रियता के साथ लगे रहने वाले विनोद कुमार शुक्ल ने अपने आपको अतुलनीय बना दिया है. विनोद जी जैसा कोई नहीं. वे जिस जिजीविषा के साथ और तल्लीनता के साथ बच्चों के लिए और किशोरों के लिए उपन्यास, कहानी, कविताएँ लिख रहे हैं वह अपने आप में अद्भुत है. अभी-अभी उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के पर हम सबकी ओर से उन्हें बहुत-बहुत बधाई और मंगलकामनाएँ.
उनकी रचनाओं के भीतर की प्रगतिशीलता, मनुष्यता और रचनाशीलता ने सबको सीधा-सीधा करारा जवाब दिया. पूर्व में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत होने के साथ-साथ वे देश के प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित होते रहे. पिछले दिनों उन्हें अमेरिका से दिया जाने वाला विश्व का प्रतिष्ठित ‘पेन नाबाकोव सम्मान’ से उन्हें सम्मानित किया गया. एशिया के वे इस सम्मान से सम्मानित होने वाले पहले साहित्यकार हैं और अब 59 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार का सम्मान भी उनके खाते में आ गया. यह देश के लिए और सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ के लिए गौरव की बात है.
विनोद जी बीती बातों को स्मरण करते हुए बताते हैं कि उनके बड़े चचेरे भाई थे भगवती प्रसाद शुक्ल. वे बहुत अच्छी कविता लिखते थे. उन्होंने विनोद जी को एक कापी लाकर दी और कहा कि इधर-उधर कागजों में मत लिखा करो इस पर लिखो. भाई ने पत्नी के गहने बेच कर एक कविता संग्रह छपवाया. उसका नाम रखा संग्रह. दुखद यह रहा कि उनका कैंसर से देहावसान हो गया. काव्य संग्रह बंडल का बंडल घर में पड़ा रहा. विनोद जी को बचपन में घर में साहित्यिक वातावरण मिला. घर में माधुरी और अन्य साहित्यिक पत्रिकाएँ आती थीं. एक बार विनोद जी के पास जमा किए हुए पैसे दो रूपए हो गए तो उन्होंने माँ से पूछा कि इसका क्या करें?
माँ ने कहा कि कौनो किताब खरीद लौ. माँ बैसवाणी थीं. विनोद जी ने फिर पूछा कि कौन सी किताब खरीदूँ? माँ ने कहा कि शरतचंद्र की कौनो किताब खरीद लौ. माँ बंगाल में रहीं सो उन्हें शरतचंद्र के बारे में जानकारी थी. विनोद जी ने शरतचंद्र की ‘विजया’ खरीदी.
विनोद जी यह भी बताते हैं कि माँ प्रति दिन सुबह पाँच बजे बीएनसी मिल का पोंगा सुन कर उठ जाती थी. दिन भर काम करती रहती थी. और रात सबसे आखिर में सोती थी. पेड़-पौधे भी सब सो जाते तब वह सोती. उसके शरीर में ताकत नहीं रह गई थी वह आत्मा की ताकत से काम करती. माँ विनोद जी से कहती बेटा जब भी लिखना दुनिया की सबसे अच्छी किताब पढ़ कर लिखना. विनोद जी ने माँ का कहा याद रखा और ‘खोजा नसीरूद्दीन‘ पढ़ा.
विनोद जी के अनुसार वे कभी हिंदी के विद्यार्थी नहीं रहे. उनका चित्त कभी एकाग्र नहीं होता था. चित्त में एक तरह की चंचलता रहती थी. साइंस कालेज में उन्हें भर्ती किया गया तो वे हिंदी निबंध और केमिस्ट्री में फेल हो गए. बाद में वे एग्रीकल्चर कालेज गए वहाँ भी मन नहीं लग रहा था पर वे अच्छे नंबरों से पास हो गए. फर्स्ट डिविजन में पास हुए तो उन्होंने मुक्तिबोध जी को टेलीग्राम किया कि ‘पास्ड फर्स्ट’. बाद में मुक्तिबोध उनसे कहते हैं कि मैं समझा था यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आए हो. विनोद जी यूनिवर्सिटी में दसवें नंबर पर थे.
मुक्तिबोध के बारे में विनोद जी बताते हैं कि वे जब भी कविता सुनाते अच्छा लगता था. मुक्तिबोध कहते जब भी समझ में न आए पूछ लेना पर विनोद जी कभी नहीं पूछा. वह बताते हैं कि मुक्तिबोध धीरे-धीरे कविता पढ़ते थे. वे जब कविता सुनाते अपनी कविताओं का लय भी लगाते थे. सुनाते-सुनाते वे जांघ पर हथेली से ठोक देते. उनकी कविताएँ लय बद्ध नहीं होती पर शब्दों का चयन ऐसा होता कि उसमें शब्दों के झंकार का लय बनता था.
मुक्तिबोध से पहले-पहल भाई ने ही मिलाया यह कह कर कि यह कविता लिखता है. विनोद जी को तब यह भान नहीं था कि मुक्तिबोध
इतने प्रतिष्ठित हैं. उनको भान तब हुआ जब उनके चाचा को किसी ने अज्ञेय की एक किताब भेंट की. अज्ञेय ने यह किताब मुक्तिबोध को समर्पित की थी.
विनोद जी ने बताया कि जब वे अपनी कविता लेकर मुक्तिबोध के पास जाते थे तो वे उसे पढ़ते थे. एक बार उन्हें कविताएँ पसंद आ गईं तो वे बोले कि इसे कृति में भेजते हैं. उन्होंने एक पत्र के साथ कविताएँ श्रीकांत वर्मा को भेज दी. उसमें छपने के बाद मुक्तिबोध ने कृति की एक प्रति विनोद जी को दी और कहा कि देखो तुम्हारी कविता इसमें छपी हैं. यह देख कर विनोद जी बहुत खुश हुए थे. वे जो भी कविता लिखते उन्हें दिखाते. एक दिन मुक्तिबोध ने उनसे कहा कि तुम अपनी कविता के खुद आलोचक बनो.
विनोद जी जबलपुर में रहे, उसके बारे में बताते हैं कि वे जब भी परसाई जी के पास जाते तो वे लिखते बैठे होते थे. उनके जाते ही वे लिखना बंद कर देते. पास में बैठाते और बाते करते. पहली बार वे मुक्तिबोध जी की चिट्ठी लेकर परसाई जी से मिले थे. जबलपुर में विनोद जी कृषि महाविद्यालय में थे, नरेश सक्सेना इंजीनियरिंग कालेज में और सोमदत्त वेटनरी कालेज में थे. तीनों परसाई जी के घर में एक दूसरे से मिले थे. तब से गहरी दोस्ती हो गई. रात-रात भर जबलपुर के सड़कों में घूमना, ठंड के समय में सारी दुकानें बंद हो जाती तो रात में बंद होटलों की भट्टियों के सामने बैठकर आग तापते घंटों बतियाते रहते थे.
इसके बाद ग्वालियर में भी नरेश सक्सेना का साथ रहा. यहाँ निदा फ़ाज़ली और शानी का भी साथ मिला. नरेश सक्सेना ने ही विष्णु खरे से परिचय कराया. दिल्ली में एक बार नरेश सक्सेना, विष्णु खरे जी से मिलाने उन्हें ले गए. तब विष्णु खरे दिल्ली में नवभारत टाइम्स में संपादक थे. इस समय विष्णु खरे ने ‘लालटेन’ कविता सुनाई जो बहुत अच्छी थी. यह विनोद जी बताते हैं.
एक दिन की बात है विनोद जी और राजेंद्र मिश्र जी दोनों मेरे घर में बैठे थे. विनोद जी पुराने दिनों को याद करने लगे. राजनांदगाँव उन्हें बहुत ही प्रिय है वहाँ का सूर्योदय उन्हें बहुत प्रिय है. एक कविता में भी उन्होंने इसका जिक्र किया है. वे राजनांदगाँव के राम टॉकीज को याद करने लगे. अब तो उस स्थान पर दुकानें बन गई हैं. राम टाकीज में उस समय ‘उड़नखटोला’ फिल्म लगी थी. उसमें अच्छे गाने थे. ‘मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ भी उसी फिल्म का गाना था. उस समय राम टॉकीज में यह व्यवस्था थी कि जब भी कोई गाना बजता तो हॉल के पर्दा का एक हिस्सा कुछ ऊपर उठ जाता और इसे बाहर चौक में खड़े लोग देख पाते. चौक में भीड़ लग जाती. विनोद जी बताते हैं कि कुछ दोस्तों ने नोट कर लिया था कि गाने कब-कब होते हैं सो गाने के समय में वे सब चौक में इकट्ठे हो जाते.
वे बताते हैं कि बचपन में पिता नहीं थे. माँ डरती कि लड़का बिगड़ न जाए. वे माँ के डंडे भी खाए. एक बार वे फिल्म देखने गए थे. बाजू में जो बैठा था वह सिगरेट पी रहा था. तो उनके कपड़े पर सिगरेट की राख गिर गई. घर लौटे तो माँ के डंडे खाए. उनके घर के पास ही कृष्णा टॉकीज था और उसके सामने बाबूलाल होटल. उसका मालिक विनोद जी को जानता पहचानता था. विनोद जी अक्सर पेंसिल की नोक छीलने के लिए उनके पास जाते तो वे पेंसिल छील देते. क्योंकि खुद से पेंसिल छीलने से नोक टूटने का डर होता था. उसी समय एक दिन उनके काउंटर में रखे सौंफ विनोद जी ने खा लिए और घर आए तो माँ को लगा शराब पी लिया है फिर डंडे खाए.
विनोद जी चंचल तो थे ही एक दिन स्कूल के एक दोस्त के साथ गोल स्कूल के पास ही एक किनारे में कुंड पानी के एक स्टोरेज जैसा कुछ बना हुआ था उसमें सारे कपड़े उतार कर नहा रहे थे. दोनों नहा ही रहे थे कि स्कूल का चपरासी आ गया और उसने उनके सारे कपड़े उठा कर प्राचार्य के कमरे में रख दिया. विनोद जी ने बताया कि मैं तो मारे शर्म के पानी से निकला ही नहीं. वह दोस्त पूरी दबंगता से वैसे ही पानी से निकल कर चपरासी से कपड़े मांगता रहा उसने उससे कहा कि जानते नहीं मेरे साथ बड़े लाल साहब का बेटा है. पिता के नाम का उस समय वहाँ दबदबा हुआ करता था. चपरासी कहाँ मानने वाला था. कहता रहा प्राचार्य के आने के बाद ही कपड़ा मिलेगा. प्राचार्य के आने के बाद मेरा दोस्त वैसा ही प्राचार्य के सामने खड़ा हो गया. और कपड़े ले कर आ गया. यह उसका साहसिक कार्य था.
जब भी विनोद जी के पास बैठना होता उनसे कुछ न कुछ रोचक तथ्य मिल जाते. एक दिन वे नौकर की कमीज उपन्यास कैसे लिखा गया इस पर चर्चा कर रहे थे. उन्होंने बताया कि नरेश सक्सेना और सोमदत्त के कहने पर उपन्यास लिखने के लिए मध्यप्रदेश सरकार से गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप के लिए आवेदन कर दिया वह स्वीकृत भी हो गया. यह फरवरी 76 की बात है. कुल छह हजार रुपए मिले. उपन्यास एक साल में पूरा करना था. छह माह बीत गए और कोई काम शुरू ही नहीं हुआ. बारह साल की नौकरी हो गई थी इसलिए पूरे वेतन के साथ एक साल की छुट्टी मिल गई थी पर छह माह बिना कोई काम किए बीत गया था. इस बीच यह भी सोचा गया कि हिंदी टाइपिंग सीख लिया जाए. इससे लिखने में आसानी हो जाएगी. रायपुर गोल बाजार से दुर्गा टाइपिंग इंस्टीट्यूट में सीखने का काम प्रारंभ किया गया. पास ही श्रीवास्तव बाबू रेडियो सुधारने का काम किया करते थे. समय बचता तो उनसे रेडियो सुधारने का काम भी सीखने लगे. यह उनकी इच्छा थी कि रेडियो सुधारना सीख जाए. छह महीना बीत गए पर वे न टाइपिंग सीख पाए न रेडियो सुधारना सीख पाए. जिस काम के लिए छह हजार रुपए दिए गए थे वह काम भी नहीं हो पा रहा था. बहुत अटपटा लग रहा था विनोद जी को.
पत्नी सुधा जी ने उनकी स्थिति को देखा तो कहा कि यह राशि लौटा दें. पैसे की दिक्कत थी. माँ को भी पैसे भेजने होते थे. कहाँ से इतने पैसे लाते? किसी तरह उपन्यास लिखना शुरू किया. फिर ऐसा हुआ कि अगले छह माह में नौकर का कमीज उपन्यास पूरा हो गया. विनोद जी ने बताया कि 13 फरवरी 77 को वे उपन्यास लेकर भोपाल गए. राष्ट्रपति फखरुद्दीन साहब का देहावसान दो दिन पहले ही हुआ था. भारत बंद था. सारे सरकारी कार्यालय बंद थे. उसी दिन उपन्यास सौंपना जरूरी था. साल भर का समय पूरा हो गया था. दूसरे दिन देने से एक दिन का विलम्ब हो जाता. इसे लेकर वे अशोक वाजपेयी जी के निवास स्थान पर गए. उस समय अशोक वाजपेयी मध्यप्रदेश शासन में संस्कृति सचिव थे. उन्हें उपन्यास की पांडुलिपि सौंप दी. अशोक जी करीब घंटे भर पांडुलिपि को उलटते पलटते रहे. सामने विनोद जी बैठे रहे. फिर अशोक जी ने वहीं से लोगों को फोन लगाना शुरू किया. सबको बुलाते रहे. दो सत्रों में विनोद जी से उपन्यास का पाठ कराया. रमेश चंद्र शाह, मंजूर एहतेशाम और कई लोग आ गए थे. दो दिनों का सबका खाना नाश्ता सब अशोक वाजपेयी जी के घर में हुआ. सबने उपन्यास की बहुत तारीफ़ की.
सन 1994 से 1996 के बीच निराला सृजन पीठ में रह कर विनोद जी ने ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ और उसके बाद ‘खिलेगा तो देखेंगे’ दो उपन्यास पूरे किये. जैसे एक दबाव में पहला महान उपन्यास नौकर की कमीज़ पूरा हुआ था उसी तरह ही दबाव में ये दोनों महान उपन्यास पूरे किए गए.
जब भी विनोद जी के पास जाना होता है उनके पास बैठना होता है इसी तरह कुछ न कुछ उनसे जानने का अवसर बन जाता है. उन्हें प्रणाम.
![]() संजीव बख्शी कई कविता संग्रह और दो उपन्यास ‘भूलन कांदा’ और ‘खैरागढ़ नांदगांव’ प्रकाशित पता : आर 5. अवंति विहार कालोनी. सेक्टर 2. |
शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई !
आत्मीय ख़ुशी और संतोष! मेरे बहुत प्रिय कवि को ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए बधाइयाँ, जिन्होंने बिना किसी दिखावे, लाग-लपेट और शोर-शराबे से इतर अपना लिखना कायम रखा. ऐसे रचनाकारों को जब पुरस्कार और सम्मान मिलता है तो दुनिया में बची हुई थोड़ी सी अच्छाई के प्रति भरोसा और बढ़ जाता है. ❤🌸
छत्तीसगढ़ के लिए गौरव की बात है। विनोद जी को हार्दिक बधाई ।
उनके ऊपर रैचक आलेख लिखने के लिए संजीव जी को साधुवाद ।
अपने प्रिय रचनाकार के बारे में पढ़ना प्रीतिकर अनुभूति है। मेरा शुक्ल जी से परिचय दुनिया के बेहतरीन उपन्यासों में एक ‘ दीवार में एक खिड़की रहती थी’.. से हुआ। आदरणीय विनोद जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की अनेकशः मंगल कामनाएं और बधाई ।
विनोद कुमार शुक्लजी को मेरे और मेरे परिवार और मेरे शोध साथी मेरे मित्रो की और से लाख-लाख बधाई…
मैं विनोदजी के कथा-साहित्य पर काम कर रहा हूँ..
मेरे पीएच.डी. के मेरे शोध विषय के लेखक श्री विनोद कुमार शुक्लजी है..
विनोदी कुमार शुक्लजी को मेरा कोटि-कोटि धन्यवाद और और मेरा प्रणाम🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
श्री विनोद कुमार शुक्ल जी को हिन्दी साहित्य के 59 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार एवं छतीसगढ़ के प्रथम लेखक के रूप में सम्मानित किए जाने पर बहुत -बहुत बधाई ‘ एवं शुक्ल जी को शतायु होने के लिए ईश्वर से प्रार्थना |
संजीव बख्शी जी के साथ विनोद शुक्ल जी से हुई कुछ मुलाकातों में उन्हे थोड़ा जानने का अवसर मिला। उन्ही अपनी लिखी कुछ किताबें भेंट करने का सौभाग्य भी मिला। किताब ” शकुनि” पर जब उनका फोन आया कि अच्छा लिख रहे हो इसे जारी रखना , तो मन खुश हो गया। कल संजीव बख्शीजी ने जब बताया कि उन्हें यह पुरस्कार देने हेतु चयनित किया गया है तो बधाई देने निवास पर गया ,शुक्ल जी के दर्शन का सौभाग्य मिला। संजीव बख्शी जी ने उनकी यह जो साहित्य जीवनी संजोई है यह सांस्धकृतिक धरोहर है। उन्हें बहुत बधाई। समालोचन को हार्बदिक धाई।
दिलचस्प प्रस्तुति. हम सब जश्न मना रहे हैं विनोद जी के पुरस्कृत होने का.
इसी आलेख की तर्ज़ पर विनोद जी की जीवनी लिखी जानी चाहिए. मुझे याद नहीं उन्होंने कहाँ लिखा या बोला था कि उनकी मां जलावन की लकड़ी पर रेंगती चीटी को हटाकर ही उसे चूल्हे में डालती थीं.