अखिलेश
पिछले दिनों पुरुषोत्तम जी का फ़ोन आया और उन्होंने कहा कि आपके लिए पद्मावत भेजी है पढ़कर बताना कैसी लगी. अब मैं इन्तजार में था और पद्मावत नहीं आ रही थी. कारण व्यक्ति की व्यस्तता थी. ग्वालियर से भोपाल आने में उसे एक माह का समय लगा और मैंने पढ़ना शुरू किया. मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ किताब पर टिपण्णी करने के लिए और न ही मुझे कोई दक्षता हासिल हैं ऐतिहासिक विषयों पर बात करने की. इसका छोटा सा कारण समय है जिस पर मुझे कभी क्रमानुसार भरोसा करने का मौका ही न मिला न मैं लेना चाहता हूँ.
मैं उस अवकाश में रहता हूँ जहाँ समय का भान भर है. खैर देवदत्त पटनायक की विशिष्ट प्रस्तावना और सच में साधारण रेखांकनो से सजी? यह पुस्तक मेरे लिए एक नया अनुभव ले आयी. पहली बार किसी पुस्तक को पढ़ते हुए दूसरी पुस्तक तक पहुँचने का अनुभव हुआ और मैं उदयनसे वासुदेवशरण अग्रवाल की \’पदमावत\’ ले आया.
इसी बीच बहु-पिटित संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावतभी देखने का मौका मिल गया. सूर्यवंशम की तरह ये फिल्म भी टीवी पर रोज आ रही थी. अत: एक दिन देख ही ली. यह एक साधारण फिल्म थी जिसमें भव्यता पाने की, लाने की भरसक कोशिश की गयी थी और इसी कारण यह अत्यन्त गरीब फिल्म लग रही थी. इस फिल्म को देखते हुए मुझे लगा कि भव्यता बाहरी नहीं है उसका भीतर उजला है या उसमें उजास भरी हो तब भव्यता के दर्शन सम्भव है.
भारी भरकम सेट लगाने और नकली जेवरात पहनाने से designer film बन सकती है किन्तु उसमें छिपी अंदरूनी गरीबी दर्शक तक पहुँच ही जाएगी. ये समय फिल्म के लिए नक़ल का समय है जहाँ हॉलीवुड से होड़ है किन्तु धैर्य नहीं है कि क्लियोपेट्रा या बेनहरजैसी फिल्म रच सकें. ये फिल्में भी आज की फिल्में नहीं है जब संजय जी का जन्म हो रहा था उस समय या उसके पहले की होंगी. संक्षेप में भव्यता का सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूँगा जिससे बात लौट कर \’पद्मावत\’ पर आ सके.
यदि आपने महाबलीपुरम के मंदिरों और शिल्पों को देखा है तब उसकी साधारण भव्यता और भीषण विशालता का अनुभव जरूर किया होगा. भारतीय शिल्प कला के ऐसे अनेक उदहारण हैं जिनमें प्रकृति के साक्ष्य में उन्हें रचा गया है और उनकी रचनात्मकता में अनगढ़ता ही उसका नैसर्गिक सौन्दर्य है जिसकी शानदार सचाई आपका मन मोह लेती है.
फिलहाल \’पद्मावत\’ जिसे पढ़कर मैं उस महाकाव्य की काल्पनिकता से अभिभूत हूँ जो पंद्रहवीं शताब्दी का आधुनिक काव्य है. उसकी आधुनिकता इस तरह भी है कि वो समय कीलित काव्य नहीं है उसकी आधुनिकता हर समय के मूल्यों पर खरी उतरती है. वह प्रेरणादायी अनूठा काव्य है. उसके अनेक अर्थ हैं और उसके अनेक पाठ किये जा सकते हैं. पुरुषोत्तम जी ने पद्मावत का ज्यादा सटीक और तथ्यपरक पाठ लिखा है. इस पाठ में काल्पनिकता और ऐतिहासिक प्रमाण दोनों ही साथ साथ पढ़ने को मिलतें हैं और अपना कोई निर्णय पुरुषोत्तम जी अपनी तरफ से नहीं थोपते हैं. उनका पठन काव्य केन्द्रित है और एक काव्य की यह ताकत है कि वह किसी मान-मर्यादा की विश्वसनीयता से ज्यादा कल्पना के संसार में डूबा हुआ होता है. सचाई से कोसो दूर वो अपनी सचाई रचता है. उस मायने में यहाँ पुरुषोत्तम जी की विशेषज्ञता को उजागर करता यह एक निर्दोष पाठ है इसकी ताईद करते हुए देवदत्त जी लिखतें हैं-
\”Prof. Agrawal demonstrates how this poem has nothing to do with history, religion, or God, or hatred, or invasion, or honour. We find no trace of of the right wing\’s \’thousand years of slavery\’ discourse or the left-wings \’Brahmanical hegemony\’ discourse. It is simply an incredible ode to love, where characters happen to be Rajput, Brahmin and Muslim. Their nobility or cupidity is a function of their personality, not their identity.\”
ऐसा नहीं है कि इस तरफ पुरुषोत्तम जी का ध्यान न गया हो वे लिखते हैं
\”Jayasi never meant to write history. His poem is a work of creative, imaginative literature woven around an episode in history. He transforms that episode and its legend into rich, intricate tapestry of love, desire, struggle and sacrifice.\”
यह जो भेद है जिसकी तरफ इशारा लेखक कर रहा है वो उसी साधारण भव्यता और नकली सजावट का फर्क है. इतिहास हमेशा बाद में लिखा गया टेक्स्ट है जिसका वर्तमान लिखे जा रहे शब्द हैं. कविता हर वक़्त पढ़ने वाला सत्य है जो समय के साथ अपना \’आधार\’ बदलने की क्षमता रखता है. इतिहास लिखने वाला जानता है कि उसके लिखे का आधार झूठ है इसलिए वो सजावटी सामान लगाता है उसमें शौर्य, वीरता, भव्यता, झूठी तारीफ़ के सलमें-सितारे टाँकता है और कवि आत्म अनुभव की शुद्धता और कल्पना की ऊँची उड़ान से उस भव्य का वर्णन करता है जो बरसों बाद भी अपनी साधारण भव्यता से पाठक को अभिभूत कर सकने की क्षमता रखती है.
इस पाठ में हमारा ध्यान लेखक उस तरफ भी ले जाता है जो पाठ के पीछे का है उसके अनगिनत संकेत जिनकी तरफ़ जायसी ने इशारा भी नहीं किया किन्तु एक अच्छे काव्य का गुण है कि वो अपने समय का कुछ सच छिपाए रहता है. पुरुषोत्तम जी की विद्वत्ता इन इशारों को पाठक के सामने धीरे से खोलकर अगली व्याख्या की तरफ़ मुड़ जाती है. वे इस तरह के अनेक ग्रन्थ, काव्य, चरित, समय से उपजे विवादों, लेखकों और पाठ के प्रमाणों के साथ जायसी के पदमावत की उस धीर-गंभीर प्रेम कहानी को चित्रित करते जाते हैं जिसमें शौर्य, त्याग, बलिदान, स्वतंत्रता, दोस्ती, डाह, जलन, विद्वेष, छल-कपट, सूफ़ी, युद्ध, बदला आदि अनेक बातों का वर्णन है. जिससे आम पाठक सम्भवतः चूक सकता है. वे पण्डित की तरह इस पाठ को खोलते चलते हैं.
चित्रकला में यथार्थ को लेकर हमेशा से टकराव रहा कि किस यथार्थ का चित्रण हुआ जाता है दृश्यजगत का, या कुछ और है जिसे हासिल किया जाता है. \’सेजा\’ ने जब ये कहा चित्र किसी और के नहीं अपने बारे में हैं तब से लेकर अब तक चित्रकला के क्षेत्र में यथार्थ की सुनामी आयी हुई है. इसके बीच पिकासो ने बहुत ही खुबसूरत ढंग से इसे कहा कि हर कल्पना यथार्थ है. यथार्थ से इस तरह का टकराव कविता में होता होगा जहाँ पद्मावत को वास्तविक मानकर उस काव्य कल्पना को हत्याओं का सबब बनना पड़ा. किन्तु एक सच उसमें शुरू में ही कह दिया जाता है जिसका मुरीद हुए बिना कोई पाठक नहीं रह सकता और ये सच लेखक ने यहाँ इस तरह रखा है.
मुहमद बाई दिसी तजी एक सरवन एक आँखिं.
जब ते दाहिन होई मिला बोलू पपीहा पाँखि..
“Historians have reconstructed Jayasi\’s life from Sufi tazkiras (descriptions), legends and various traditions and hints given by the poet himself. It emerges that his was not \’happy\’ life. He the suffered from smallpox in early childhood, which resulted in him losing his left eye and being permanently short of hearing in the left ear. He gives his physical condition a movingly poetic twist in the course of narrative: \’Since my beloved looked at me and spoke to me on my right side. I myself give up my left eye and ear.\’ ”
और साथ ही लेखक यहाँ एक और कवि सूरदास की याद भी दिलातें हैं:
“There is a story about great poet Surdas who was also blind. He was granted eyesight briefly and saw Krishna and Radha. He requested them to make him blind again as he did not want his vision, purified by their darshan, to be used for worldly affairs.”
जायसी और सूरदास का दिव्यांग होना यथार्थ और कल्पना साथ साथ है. एक सांसारिक सच है एक काल्पनिक. सच दोनों हैं. इसी सच की बुनियाद पर पद्मावत आगे बढ़ता है और पाठक एक नये संसार में खुद को पाता है.
पुरुषोत्तम जी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने बहुत ही ख़ूबसूरत ढंग, प्रांजल रोचकता से प्रमाणिकता को बनाये रखते हुए बिलावजह विवादित हुए महाकाव्य को उसकी गरिमा और उसके गूढ़ अर्थों को खोला है. उनका ये उपक्रम अनेक पाठकों को रोमांचित करेगा और शायद वे भी परिचित हो सकेंगे उस भव्यता से जो भीतरी है जो हासिल नहीं की जा सकती जिसे वरदान की तरह पाया जा सकता है. जो रोजमर्रा के साधारण तथ्यों में ही बसती है जिसे बनावट की नहीं बुनावट की जरूरत है. वो इस नकली सांसारिक, या इस माया-रूपी जगत की नहीं है वो इस दुनिया को उसके कार्य व्यापार को इसके बनाये अनेक नियमों को कुछ इस तरह से देखती है कि वे दूसरी दुनिया के लगने लगते हैं. उनमें जादुई तत्वों का समावेश हो जाता है. वे अ-लोकिक हो जाते हैं. साधारण सी बात ही अ-साधारण हो जाती है.
मेरी समस्या \’कल्पना\’ है और एक बार खुल जाने के बाद मुझे खुद को पकड़ना पड़ता है रोकना पड़ता है ताकि पाठ का स्वास्थ्य बना रहे. मैं बहुत ही संकोच में यह सब लिख रहा हूँ जिसके योग्य होने के लिए मुझे अंग्रेजी भी जानना चाहिए और अवधी भी.
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