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Home » प्रियंवद की नई कहानी : अबू आंद्रे की खुजली

प्रियंवद की नई कहानी : अबू आंद्रे की खुजली

दीपपर्व की शुभकामनाओं के साथ वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद की नई कहानी, ‘अबू आंद्रे की खुजली’ ख़ास आपके लिए प्रस्तुत है. नगरीय जीवन की तलछट के नीम-उजाले, उघड़े-गोपन और मद्धिम-हलचल के गहन कथानकों के संवेदनशील और आवेगी रचनाकार प्रियंवद हिंदी के अनूठे कथाकार हैं. उनकी कहानियाँ बेचैन और विह्वल करती हैं. प्रियंवद के कथा-नायक मनुष्य होने का सुख और भरोसा देते चलते हैं. कहानी प्रस्तुत है.

by arun dev
October 20, 2025
in कथा
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प्रियंवद की नई कहानी : अबू आंद्रे की खुजली
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प्रियंवद की नई कहानी
अबू आंद्रे की खुजली

सावन की एक शाम, जब चुड़ैलों का अवकाश दिवस खत्म हो रहा था और सूरज दरिया में डूबने जा रहा था, अचानक बारिश शुरू हो गयी. बारिश की मोटी बूँदों पर जब दिन की आखिरी धूप गिर रही थी, और वे पीले उजाले में आँसुओं की तरह चमक रहीं थीं, अबू आंद्रे की पीठ पर भी कुछ बूँदें गिरीं. हालाँकि कुछ दिन पहले पाँव की टूटी हड्डी जुड़ने के बाद की बची थोड़ी सूजन के बावजूद, वह एक बस स्टॉप की छत के नीचे छिपने के लिए भागा था, लेकिन इसमें जितना समय लगा, उसमें उन बूँदों ने उसकी क़मीज़ को पूरा भिगो दिया था. उसकी पीठ का वह हिस्सा भी भीगा था जहाँ रीढ़ की हड्डी के ऊपर की कसी और चिकनी खाल में नाली बनी होती है.

उस शाम भीगने के बाद ही से, अबू आंद्रे की इस नाली में अक्सर खुजली उठने लगी थी. यह एक छोटे कनखजूरे की तरह नाली में कभी ऊपर, कभी नीचे सरकती हुई जगह बदलती रहती थी. कई बार यह ऐसी जगह  रुक जाती जहाँ हर तरह की कोशिश के बाद भी अबू की उँगलियाँ नहीं पहुँच पाती थीं. इसी कोशिश में एक बार, उसका कंधा मांसपेशियाँ खिंच जाने की वजह से दस दिन तक एक ओर झुका रहा था. उसके बाद से उसने खुद उस जगह को खुजलाने की कोशिश हमेशा के लिए छोड़ दी थी.

खुजली जब उठती, अबू के लिए तब बेहद जरूरी हो जाता कोई व्यक्ति उसकी खाल पर रूकी या दौड़ती सरसराहट को खाल से खुरच कर अलग कर दे. जब तक ऐसा नहीं होता, अबू एक नोचती हुई बेचैनी में तड़पता रहता. उसके लिए कुछ भी करना संभव नहीं रह जाता. अगर उस वक्त कोई उसके साथ होता, तो वह हर तरह का संकोच छोड़ कर, बेहद शालीन भाषा में, विनम्रता से आधा झुककर, उस व्यक्ति से कहता,

“महाशय क्या कुछ पलों के लिए आप मेरी पीठ खुजला देंगे? मैं खुद यह कर लेता, पर पिछले पतझर में मेरा कंधा इस कोशिश में उतर गया था और तभी ठीक हुआ था जब पेड़ों पर नई पत्तियाँ आ गयी थीं और गिरगिट ने रंग बदलना शुरू कर दिया था. मैं जानता हूँ यह कहना और करना दोनों अभद्रता हैं, खासतौर से इस खुली सड़क पर. फिर भी, मानवीयता के नाते मैं आपसे अनुरोध करता हूँ मुझ पर दया करें और मुझे इस कष्ट से मुक्ति दें.”

वह व्यक्ति पहले तो हैरानी से अबू की इस दयनीय गिड़गिड़ाहट को सुन कर इसका अर्थ समझने की कोशिश करता, फिर अबू की आँखों का भय और उसके आड़े तिरछे होते बदन को देख कर सचमुच उसके अंदर दया जाग जाती. जब तक अबू चाहता वह अबू की पीठ खुजला देता. कई बार अबू आंद्रे सड़क पर बिल्कुल अकेला होता, जो अक्सर होता था, खासतौर से तब, जब कब्रिस्तान का मुर्गा किसी अज्ञात कारण से वक्त से पहले बाँग दे देता.

उसकी आवाज़ सुन कर अबू ताज़ी हवा लेने के लिए सड़क पर निकल जाता. पिछले आठ सालों से, सुबह के घूमने से ही अबू अपनी दिनचर्या शुरू करता था. इसके भी पहले, नींद से बाहर आते ही, वह आग पर चाय का पानी चढ़ा देता. दबा कर निकाले गए नारियल के तेल का बड़ा घूँट भर कर उसे मुँह के अंदर चलाता. कुछ देर इसी तरह करने के बाद, वह उसे फेंक देता. इसके बाद हल्के गर्म पानी में नमक डालकर उसे भी मुँह के अंदर चलाता. उस पानी का बड़ा घूँट बना कर मुँह में रख कर मुँह फुलाता. मुँह की खाल मुलायम होने और पीछे खिंचने के लिए जब तक अबू यह करता, चाय का पानी खौलने लगता. अबू चाय बनाता. उसके बाद मुँह में भरा नमक का पानी फेंक कर चाय पीता. फिर घर से बाहर घूमने निकल जाता.

अबू का कई वर्षों का अनुभव था कि सुबह की ताजी हवा में गहरी साँस लेते हुए तेज़ चलने पर, दिमाग की उर्वरा और कल्पना शक्ति बढ़ जाती है. नया कुछ लिखने के लिए अबू ने ज्यादातर विषय इसी समय सोचे थे. इस समय सोचे गए विषय या आकर्षक वाक्य या चौंकाने वाले शीर्षक से शुरू हुए लेख, समीक्षा या रिपोर्ताज उसके संपादक मित्र ने, और उस विदेशी अख़बार ने, जिसमें अबू लिखता था, बहुत पसंद किए थे. खासतौर से ‘अकेलेपन की पवित्रता‘, ‘भावना को जकड़ने वाली बुद्धि की बेड़ियाँ‘, ‘दीमक और अधूरे स्वप्नों की जुगलबंदी‘ ‘उँगली पकड़ कर साथ चलता हुआ ऊबा ईश्वर‘ ऐसे ही कुछ शीर्षक थे जो अबू ने ऐसी सुबहों में सोचे थे और जिन्होंने पाठकों की गहरी प्रशंसा और साथी लेखकों की दबी ईर्ष्या पायी थी.

ऐसे समय उठने वाली खुजली अबू को ज्यादा परेशानी में डाल देती. इतनी सुबह अक्सर सड़कें खाली रहतीं. दूर तक कोई नहीं दिखता जिससे वह पीठ खुजलाने का अनुरोध कर सकता. फिर भी, अबू की नज़र कुहासे में डूबे फुटपाथ, सीवर लाइन के चौड़े गोल पाइप या किसी बुझी भट्ठी के पास लेटे इनसान को या फिर जूता सिलने वाले, दीवार पर कंडे थापने वाले या खच्चरों के खुरों में नाल ठोकने वाले, लालटेन मरम्मत करने वाले, दाँत उखाड़ने और लगाने वाले, ढोल बजाना सीखने वाले लड़के को ढूँढ लेती.

वह उसके पास जाता. आधा झुक कर विनम्रता से पुराना वाक्य दोहराता. ऐसे बेवक्त जागने और सड़क पर दिखने वाले लोग वे ही होते थे, जो लगातार दीनता और हीनता में, बगैर किसी उम्मीद के लम्बे समय तक जिंदा रहने के कारण, अपना मनुष्य होना, अपना स्वत्व पूरी तरह भूल चुके होते थे. अबू की भाषा, उसका आधा झुक कर गिड़गिड़ाना उनको पहले डर, फिर आश्चर्य में डाल देता. वे खुद इसी तरह गिड़गिड़ा कर बोलते हुए अपना जीवन जीते आए थे. अपने सामने, अपनी ही तरह किसी के गिड़गिड़ाने को वह तब तक शंका और अविश्वास से देखते, जब तक कि उन्हें अबू की खुजली और उससे पैदा होने वाली उसकी बेचैनी पर पूरा यकीन नहीं हो जाता था. सड़कों पर रहने या घूमने वाले ये सब व्यक्ति हृदय से हमेशा दयालु होते थे, इसलिए एक बार अबू की बात समझ जाने और उस पर विश्वास कर लेने के बाद, पूरी हमदर्दी और ख़ुशी से उसकी पीठ खुजलाते रहते, जब तक कि अबू पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो जाता.

 

 

२/

अबू आंद्रे एक पुरानी बस्ती की, पुरानी इमारत की चौथी मंजिल पर बने दो छोटे कमरों में रहता था. इन कमरों में से एक कमरे से जुड़ा छोटा और टूटा बाथरूम था. उसकी नाली से तिलचट्टे और चूहे आते जाते रहते थे. उसकी टूटी छत की दरार में जमा पानी से बाथरूम की एक दीवार हमेशा गीली रहती थी. उससे टूट कर गिरती हुई सीमेंट और चूना बाथरूम के फर्श पर कीचड़ बनाए रखते थे. अबू छुट्टी के दिन इसे इतना रगड़ कर साफ कर लेता था कि एक हफ्ते तक वह उस पर बिना फिसले पैर रख सके. दूसरे कमरे से जुड़ी तिरछी, थोड़ी सी खुली जगह थी. इसके एक हिस्से को उसने टीन से ढक कर रसोई बना लिया था. यहीं एक नल लगा था. वहाँ अबू खाने के बरतन, और कपड़े धोता था. बाकी बची हुई खुली जगह से ऊपर देखने पर आसमान की एक छोटी फाँक भर दिखती थी. इसी से अबू के घर में धूप, चाँदनी, बारिश, चिड़िया, धूल, धूप और कोहरा आता जाता रहता. कभी कभी मन होता तो कई दिन रह भी जाता था.

उस खुली जगह में ही बैठकर बंदर एक दूसरे की जूँ बीनते या मकड़ी अपने जाल के लिए ऊपर की ईंटों से तार का एक सिरा चिपका कर छोड़ देती जो हवा में झूलता रहता. इसी खुली जगह की छोटी मुँडेर पर कोहनियाँ टिका कर अबू अक्सर इमारत के चारों ओर पसरी, अपने हिस्से में आयी नन्ही दुनिया देखा करता. इस दुनिया का एक बड़ा टुकड़ा ऊँचे, तीन मंजिला मकबरे की जली हुई चौड़ी काली छत और बची रह गयी कुछ टूटी मुँडेरे ढक लेती थीं. मकबरे के सामने के मटियाले, खाली मैदान में हर साल ताज़िए  दफ़न किए जाते. एक छोटे इमामबाड़े के अंदर दीवारों के सहारे सटा कर रखे गए पुराने अलम दिखते थे. मकबरे में दो सौ साल पहली कब्रों पर लिखे नाम और मौत की तारीखें मटमैली हो चुकी थीं. अंदर के उजाड़ गलियारों और ऊँची, सूखी घास के बीच आँधी में गिरी छत और आग में फूँकी गयी ऊपरी मंजिल की कालिख पर जब सूरज की रोशनी पड़ती, तो जमीन से ऊँचाई पर बने इस मकबरे के अन्धेरों और नमी में, लखौरी ईटों के बीच की दरारों में उगे सब्ज़े, बदहवासी से अजनबी और खुद को नंगा करती हुई इस रोशनी को देखते.

दौ सौ साल पुराने बरगद की झूलती, मोटी, उलझी जड़ों के नीचे जाल में बंद मुर्गियाँ जब पंख फड़फड़ा कर शोर करतीं, और आटा चक्की के चबूतरे पर ऊँघते कुत्ते उनके शोर से चौंक कर भौंकते, तब इस मकबरे की पुरानी दीवारों से कुछ पपड़ियाँ टूट कर मिट्टी में मिल जातीं. ऐसे में इस मुर्दा और बेजान दिखते मकबरे के चारों ओर गुजरते हुए समय में इसके जिंदा रहने का अहसास होता. बेशक मरता हुआ ही सही, पर वह इस समय का एक हिस्सा दिखता. मकबरे के पीछे आपस में गुथीं गलियों में, आपस में गुथे हुए कच्चे-पक्के, टूटे, पुराने मकानों और तंग गलियारों में बदल चुके पुराने अस्तबल और नौबतखाने की नमी और अन्धेरे में, लोग दर्द से कराह कर, तस्बीह पर उंगलियाँ फेरते हुए अपनी लम्बी उमर को कोसते. उनकी नंगी हड्डियों से चिपकी, कुछ लापरवाही और कुछ बेमन से दी गयी लम्बी उमर की दुआएं उन्हें मरने नहीं देतीं.

जब सामने की सड़क पर, मिट्टी ढोने वाली गाड़ियों से गिरी मिट्टी पर रात भर टपकी ओस से बनी कीचड़ पर कोई नंगे पाँव चलता, और गंगा लहरी बुदबुदाता हुआ गंगा की तरफ नहाने जाता, या दूर रेलगाड़ी सीटी बजाती गुजरती, और चमगादड़ों के झुंड उलटा लटकने के लिए पेड़ों की तरफ लौटते, और एक औरत अपने बिना पैरों वाले पति को विकलांग गाड़ी पर बैठा कर भीख माँगने निकलती, तब इस मनहूस दिखते शहर का इतिहास और वर्तमान भी आपस में गड्डमड्ड हो जाता. टाट के पर्दे की आड़ में जल्दबाजी में किए रात के आधे अधूरे संभोग, बुझ चुकी भट्ठियों की राख, मज़ार पर अंगूठी बेचने वाला गूँगा, नाई, डबलरोटी के टुकड़े बेचने वाली औरत, अपने- अपने ठियों पर बैठ जाते.

जब यतीमखाने के दरवाज़े पर गजक बनाता हलवाई,  होम्योपैथी का डाक्टर, शराब की दुकान के पीछे रोएं झड़ी बीमार बत्तखें किसी अपाहिज चूहे को सरकते देख कर उसके पीछे भागतीं, तब कई सदियाँ आपस में उँगलियाँ फँसा कर उनके ईदगिर्द चहलकदमी करतीं. इसी बस्ती में अबू आंद्रे अपने दो कमरों के मकान में, पिछले आठ सालों से, अपनी खुजली और अकेलेपन के साथ जी रहा था.

 

 

३/

इस तरह जीते और मेहनत से ज्यादा अच्छा लिखने के कारण, अबू आंद्रे के पास कुछ रुपए जमा हो गए. उसने घर का काम करने के लिए एक औरत रख ली. सुबह या शाम, जब वह चाहती आती. उसके पास अबू के घर की एक ताली रहती थी. अबू घर पर हो या न हो, वह आ कर उसके कपड़े धोती, घर और बर्तन साफ करती, बिस्तर ठीक कर देती. वह सारा काम तय समय में सलीके के साथ, कर देती थी. धीरे-धीरे अबू उस पर निर्भर हो गया था. उसने खुद घर के काम करना छोड़ दिया. नतीजे में उसके पास और अधिक समय रहने लगा. इसका उपयोग उसने नए तरह के विचार और नए तरह के लेखन में किया. इसी दौरान उसने पाप, धर्म और नैतिकताओं की कुछ ऐसी व्याख्याएं सोच डालीं, जो हर समय में वर्जित थीं और जिन्हें समझाने वाले, हर समय में सूली पर चढ़ा दिए गए थे.

उसने रचना में विचार और समय की क्रमबद्धता के अनावश्यक बल्कि बेहूदा होने पर गहरा चिन्तन किया. शैतान को ईश्वर से अधिक शक्तिशाली सिद्ध करने के कुछ मौलिक तर्क ढूँढ लिए. तानाशाही और नपुंसकता के बीच एक सूक्ष्म, मनोवैज्ञानिक संबंध तलाश लिया. कई बार अबू जब घर पर ही होता, औरत काम करने आ जाती. अगर औरत का कुछ खाने का मन होता, जो शायद अबू के न रहने पर हमेशा होता था, वह चुपचाप रसोई में जा कर जो चाहती बना लेती.

वह जो भी बनाती, उससे उठने वाली महक और उसकी शक्ल, उसके अच्छा होने का स्वयं प्रमाण होती. अबू चुपचाप, दूर से ललचायी और भूखी निगाहों से खाना बनते और औरत को खाते देखता. एक बार अबू को इस तरह ताकता देख कर वह द्रवित हो गयी. उसने अपनी प्लेट से एक टुकड़ा अबू को भी दे दिया. तरस खाने के अलावा, उसने अबू को इस उम्मीद में भी टुकड़ा दे दिया कि अबू उसे अपने लिए खाना बनाने से कभी रोके नहीं, क्योंकि उसकी काम की शर्तों में सिर्फ तनख्वाह शामिल थी, खाना नहीं. बावजूद इसके, अबू ने उसे खाना बनाने और खाने से न कभी रोका, न टोका. इसलिए भी, कि वह जो भी बनाती थी, वह बेहद स्वादिष्ट होता था और अबू को खाने को मिल जाता था. उस दिन उसकी खाना बनाने की मेहनत भी बच जाती.

जिस दिन औरत के घर में रहते हुए अबू की पीठ में पहली बार खुजली उठी, अबू ने उससे उसी निश्छलता और विनम्रता से पीठ खुजलाने के निवेदन किया, जिस तरह वह रास्ता चलते किसी अनजान से कर देता था. औरत उमर में अबू से थोड़ी बड़ी थी. उसके बदन में कसाव और खाल में चमक बाकी थी. अपने शरीर के इन तत्वों की शक्ति ताकत का उसे पूरा अहसास था. उसने बैंगन भूनना रोक कर अबू को गहरे शक की निगाह से देखा. अबू आंद्रे के असली इरादे को भाँपने की कोशिश की. इसी कोशिश में वह अबू की खुजली और उसके आड़े तिरछे होते बदन को देर तक देखती रही. जब उसे यकीन हो गया कि अबू सचमुच खुजली से परेशान है और वह उस समय सिर्फ इतना ही चाहता है कि वह उसकी पीठ खुजला दे, तो वह यह काम करने को तैयार हो गयी.

ऐसा करने के लिए भी उसने अपनी दो शर्तें रख दीं. पहली अबू पलंग पर नहीं लेटेगा, बल्कि दीवार से पेट चिपका कर सीधा खड़ा रहेगा. वह इसी स्थिति में उसकी पीठ खुजलाएगी. दूसरी, अबू की नंगी पीठ वह अपनी उँगली से नहीं छूएगी, बल्कि झाडू में लगे डंडे के सिरे से, जो प्लास्टिक टूटने के वजह से नुकीला हो गया था, उससे खुजलाएगी. वह अनुभव से जानती थी, औरत पलंग पर लेटे मर्द का बदन कहीं से भी छू ले, मर्द के अंदर की मर्दानगी गर्म साँड की तरह जाग जाती है.

अबू को उसकी दोनों शर्तें मानने में कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि औरत को लेकर उसका कतई ऐसा कोई इरादा नहीं था. औरत ने यही किया. बैंगन भूनना बंद करके उसने दीवार से अबू को अपना पेट और दोनों हाथ ऊपर उठा कर, दीवार से चिपका कर खड़ा कर दिया. इसके बाद, दो फिट की दूरी से झाडू के नुकीले सिरे से अबू की पीठ खुरचने लगी. जब तक वह अबू की पीठ खुरचती रही, बड़बड़ाती रही कि उसने ऐसा बेहूदा काम इसके पहले कभी नहीं किया है. अबू अकेला रहता है और नेक इनसान है, इसलिए तरस खा कर वह ऐसा कर रही है. अगली बार अबू की पीठ में जितनी भी तेज़ खुजली उठे, वह ऐसा नहीं करेगी. अबू चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा. उस दिन पीठ खुजलाने से मिली राहत के बाद, अबू उस औरत से बहुत ज्यादा दब कर रहने लगा.

औरत के काम में उसने कोई भी कमी निकालना छोड़ दिया. कुछ देखता भी, तो चुपचाप मुँह घुमा लेता. कोशिश करता कि खाना खाने के बाद बर्तन खुद साफ करके रख दे. कपड़े और घर कम गंदा करे. सिगरेट के बचे टुर्रे और कागज़ फर्श पर न फेंक कर, जेब में रख लेता. रसोई में कुछ ऐसी  नई चीजें रखने लगा जिससे औरत के लिए अपना खाना बनाना आसान और विविधता भरा हो जाए. वह अपने मन की और भी कई चीजें बना कर खा सके और इच्छा हो तो अबू को भी दे दे. खासतौर से बिना मौसम की हरी मटर, पनीर, कुल्फी और कुकुरमुत्ता वह रसोई में जरूर रखने लगा. औरत ने भी अबू के स्वभाव और व्यवहार में आए बदलाव को महसूस कर लिया. नतीजे में उसने अपने लिए खाना बनाते हुए उसने उसमें अब मक्खन की मोटी पर्त डालनी भी शुरू कर दी. पनीर और हरी मटर तो लगभग हर तरह के खाने में डालने लगी. पहले नहीं करती थी पर अब खाने के बाद कुछ खाना बाँध कर घर भी ले जाने लगी.

अबू ने उससे कुछ नहीं कहा. घर के सामान में चुपचाप उसने मक्खन, पनीर और मटर की मात्रा दुगनी कर दी. अबू औरत के घर पर रहते हुए खुजली उठने का इंतजार करने लगा. वह देखना चाहता था, औरत के साथ हर तरह से अच्छा व्यवहार करने और उसे हर तरह की स्वतंत्रता देने के बाद, क्या वह दूसरी बार उसकी पीठ खुजलाएगी? बावजूद इसके, कि उसने कहा था, वह ऐसा कभी नहीं करेगी, अबू की पीठ में जब खुजली उठी, वह अपनी ज़िद और इरादे से पीछे हट गयी. तड़पते हुए अबू को अपनी ओर दीनता, याचना और लाचारी से ताकता देख कर उसका दिल पसीज गया. उसने पहले की तरह बड़बड़ाते और झाडू के टूटे किनारे से अबू की पीठ खुजलाते हुए, कई देवताओं की कसमें खायीं कि वह अगली बार ऐसा कतई नहीं करेगी. ऐसा करने पर उसने देवताओं को खुद को कई तरह के नए शाप देने के सुझाव भी दे डाले. लेकिन जब अबू की खुजली तीसरी बार उठी, उसने फिर खुजला दिया.

अबू को विश्वास हो गया कि औरत के कारण उसे घर में उठने वाली खुजली से काफी हद तक निजात मिल गयी है. उसका विश्वास मजबूत हो गया कि उसकी समस्या का बड़ा हिस्सा लगभग सुलझ गया है. नतीजे में वह मानसिक रूप से पूरी तरह संतुष्ट और अधिक शांत रहने लगा. इस निश्चिंतता ने उसकी रचनात्मकता को बहुत अधिक सँवारा और सजाया. उसमें धार, विलक्षणता और गम्भीर अर्थ पैदा कर दिए. उसने कुछ ऐसे वाक्य लिख लिए जिनसे प्रभावित होकर विदेशी अख़बार ने उसे कई बड़े, नए और महत्वपूर्ण काम दे दिए. उसके कुछ आकर्षक वाक्य या शीर्षक थे, ‘जीवित मनुष्य से अधिक वेध्य मरा मनुष्य होता है‘ या ‘अंकुश रहित जटिलताओं का स्वरूप‘ या ‘करुणा मनुष्य को सुंदर बनाती है‘ या ‘ईश्वर शैतान से कमजोर होता है क्योंकि उसके स्वरूप पर शंका की जाती है, शैतान के नहीं‘, या फिर ‘वर्जनाओं की सूली पर चढ़ाए जा चुके शब्दों की सम्मोहकता‘ आदि.

एक दिन ओस पर नंगे पाँव घूमते हुए अबू ने सामने बिखरी गीली और पीली पत्तियों के ढेर को हटा कर एक मोटे, काले कीड़े को ऊपर आते देखा. उसे अपने रक्त में कुछ रहस्यमयी फुसफुसाहटें सुनायी पड़ीं. अनायास ही उसने अपने बदन में घर में काम करने वाली औरत के उस खूबसूरत कीड़े जैसे गठे और काले जिस्म की नोक चुभती महसूस की. उसके साथ उसने कई कामुक और उत्तेजक दृश्यों की उम्मीद कर डाली. कुछ असंभव लगती संभावनाओं की कल्पना में उसने कुछ ऐसे विलक्षण शब्द गढ़ डाले, जो इसके पहले भाषा में इतनी सार्थकता और मर्मज्ञता से प्रयुक्त नहीं हुए थे. ‘निशातरंगितजघनमीन‘, ‘विपरीतरतिमेखलशिंजन’ ,‘सुरतताण्डव‘,  चञचुपुटचुम्बन‘ ‘जघनरथारूढ़ा‘ आदि. उसने इन शब्दों को भविष्य में किसी अनुकूल व उचित अवसर पर प्रयोग करने के लिए सुरक्षित रख लिया.

इन शब्दों को गढ़ने के बाद अबू को पूरा यकीन हो गया कि उसकी इस अविश्वसनीय प्रगति और रचनात्मक उर्वरता का सीधा ताल्लुक उसकी खुजली से है, जिसे खुजलाने का श्रेय उस औरत को जाता है. लेकिन अबू का यह संतोष, मानसिक शांति और रचनात्मक विस्फोट अधिक दिन नहीं रहा.

एक दिन औरत काम पर आयी, तो अबू से बेहद रूखे स्वर में बोली, अब वह घर में काम नहीं करेगी. यह सुन कर अबू का चेहरा भय से पीला पड़ गया. उसने सोचा शायद उसने अनजाने में कभी औरत का अपमान कर दिया होगा या उसे खाने के लिए कभी धोखे से टोक दिया होगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ था. ऐसा इसलिए भी नहीं होना था, कि इसके पहले वाले दिन अबू ने अरब का सबसे जानदार खजूर ‘मेजुल‘ उसके खाने के लिए रसोई में रख दिया था, साथ में मौसम का पहला शरीफ़ा भी.

औरत ने दोनों खाए भी थे. कोई कारण नहीं था कि वह अबू से नाराज होती. अबू का डरा हुआ पीला चेहरा देख कर, उसने अबू को सांत्वना दी कि उसे अबू से कोई शिकायत नहीं है, बल्कि उसे भी काम छोड़ने का दुख है. लेकिन दो दिन पहले, जब वह झाडू के सिरे से दीवार से चिपके अबू की नंगी पीठ खुजला रही थी, सामने वाले घर में रहने वाले अबू के प्रतिद्वन्द्वी अख़बार के कार्टूनिस्ट ने, अपनी खिड़की से यह पूरा दृश्य देख लिया. उसने इस घटना का कार्टून बना कर अपने अख़बार में छपवा दिया. उसका अख़बार अबू के संपादक मित्र के अख़बार से ज्यादा बिकता था, इसलिए उसे बहुत लोगों ने देखा.

औरत ने भी देखा. उसने अबू को बताया, कार्टून देखते ही वह घबरा गयी और सीधे अबू के पास आयी है. कार्टून में अबू तो पहचाना नहीं जा रहा, क्योंकि उसकी केवल पीठ दिख रही है और ऐसी पीठ लाखों मर्दों की होती है, लेकिन उसका चेहरा साफ तौर पर पहचाना जा रहा है. उसने अबू को बताया कि कार्टून में अबू के घर की झाडू भी दूर से पहचान में आ रही है, क्योंकि आसपास के दूसरे मुहल्लों में, ऐसे टूटे सिरे और इतनी कम सींकों वाली खराब झाडू किसी दूसरे घर में नहीं है. उसने अबू पर इल्ज़ामतराशी करते हुए कहा, कि उसके कई बार कहने पर भी अबू ने  नई झाडू नहीं खरीदी. ऐसा हुआ होता तो शायद वह कुछ बचाव कर लेती. उसने अबू को बताया कि अभी जब वह उसके घर आ रही थी, आसपास के घरों की खिड़कियों से बाहर निकले कई सर उसे देख कर बेहूदा तरीके से मुस्करा रहे थे.

उसने कुछ फुसफुसाहटें भी सुनीं जिनमें कुछ अश्लील शब्द थे. एक खिड़की से झाँकते, बिना दाँत वाले बूढ़े ने उसे देख कर अपनी पीठ भी खुजलाई. उसने अबू से कहा, कि इतने अपमान और इतनी बुरी नज़रों से देखे जाने के बावजूद भी, वह अबू के घर पर काम कर लेती, क्योंकि अबू के घर को वह अब तक अपना घर और उसके सामान को अपना सामान समझने लगी थी. इतना ही नहीं, अबू के अकेले होने के कारण उसके अंदर अबू के लिए ममत्व भरा दया भाव भी रहने लगा था. लेकिन उसके पति के एक दोस्त ने जब उसके पति को कार्टून दिखाया, तो वह गुस्से से आग बबूला हो गया, क्योंकि वह पति की पीठ खुजलाने के लिए कई बार मना कर चुकी थी. घर आ कर उसने उसे बहुत मारा. प्रमाण के तौर पर उसने पहली बार अबू को अपनी नंगी पीठ देखने को कहा. अबू ने उसकी पीठ देखी. उस पर सुबह पगडंडी पर पड़े पत्तों के बीच रेंगते कीड़े की तरह के कुछ धब्बे थे.

अबू की वैसी ही कैफ़ियत फिर हो,  इसके पहले औरत ने पीठ कपड़े से ढक ली, वापस घूम कर अबू से कहा, उसके आदमी ने उसे मारने के बाद कहा, अभी जाओ और नौकरी छोड़ो. हिसाब करके आओ. इसीलिए वह आयी है. अबू ने औरत की तनख्वाह का कभी कोई हिसाब नहीं रखा था. वह जब जितने रुपए चाहती, अबू चुपचाप दे देता था. अब, जब वह काम छोड़ कर जा रही थी, अबू ने सोचा उसका हिसाब करते समय उससे उस मक्खन, पनीर और मटर पर खर्च हुए रुपयों के बारे में भी बात करें, जो वह रोज खाया करती थी. यह काम की शर्तों में शामिल नहीं था इसलिए उसका खर्च तनख्वाह के हिसाब में जोड़ा जा सकता था. यही नहीं, उस खाने की कीमत भी जोड़ी जा सकती थी, जो वह बाद में घर बाँध कर भी ले जाने लगी थी. लेकिन अबू जब उससे यह सब कहने ही वाला था, उसे ख़याल आया औरत ने भी तो अबू की पीठ खुजलाने के लिए रुपए नहीं लिए थे.

वह चाहती तो उस समय अबू से कितने भी रुपए माँग सकती थी, जो अबू यकीनी तौर पर दे देता. उसका अबू की पीठ खुजलाना वास्तव में अबू के सर पर एहसान जैसा था. इस एहसान के बदले में मक्खन, पनीर, मटर या घर ले जाने वाले खाने की कोई कीमत नहीं थी. यह सब सोचने पर, अबू के अंदर अपनी टुच्ची और घटिया सोच के लिए गहरी ग्लानि पैदा हुई. अपनी तुच्छता और क्षुद्रता पर उसे इतनी शर्म आयी, कि उसने औरत को हिसाब में दो महीने की तनख्वाह अधिक दे दी, यह कह कर, कि जब तक उसे कोई नया काम नहीं मिलता, वह इससे अपना नुकसान पूरा कर ले. अबू ने इशारे में यह भी कह दिया कि काम छोड़ने के बाद भी, जब उसका मन करे, आ कर रसोई में कुछ भी बना कर खा ले, चाहे तो अबू को भी उसमें से कुछ दे दे, चाहे तो घर भी बाँध कर ले जाए.

 

 

4/

औरत के काम छोड़ कर चले जाने के बाद अबू आंद्रे अपने घर में अकेला तो हो ही गया, आसपास के घरों में बदनाम भी हो गया. झाडू के सिरे से उसकी नंगी पीठ खुजलाने के चित्र ने लोगों को उसके चरित्र के बारे में अनुमान लगाने के अनेक धरातल और कल्पना की उड़ान भरने के लिए अनेक क्षितिज दे दिए. इन क्षितिजों में जादू-टोना, प्रेत विद्या, यौन विकृति, चिकित्सीय प्रयोग, विक्षिप्तता, मनोरोग, रचनात्मकता की तलाश और कई पिछले जन्म शामिल थे.

सामने वाले घर के कार्टूनिस्ट को भी अपने सुनहरे भविष्य के लिए, अबू के घर और जीवन में छिपे कार्टून के लिए नए विषयों की अनन्त संभावनाएं दिखीं. इसलिए अब वह अक्सर अपने कमरे की खिड़की के पर्दे के पीछे छिप कर, दूरबीन से अबू के कमरे को घंटों देखा करता था. इस पूरे घटनाक्रम का पहला नतीजा तो यह हुआ, कि अब कोई स्त्री अबू के घर काम करने को तैयार नहीं थी. दूसरा यह, कि अबू को फिर से घर के सारे काम खुद करने पड़े, जिसने उसकी रचनात्मकता की गुणवत्ता और विचारों की सघनता पर गहरा असर डाला. उसके लेखों में अचानक आयी गिरावट की ओर उसका ध्यान आकर्षित करते हुए विदेशी अख़बार ने उसे काम देना कम कर दिया.

संपादक मित्र ने भी उसके कुछ लेख लौटा दिए, इस टिप्पणी के साथ, कि बासी दिखते शब्दों की ऐसी मुर्दा भाषा कोई नहीं पढ़ेगा. इसने अबू की आय पर भी असर डाला. तीसरा नतीजा यह हुआ, कि घर में अबू की पीठ में खुजली उठने पर, खुजलाने वाले की समस्या फिर लौट आयी. घर के कामों को निपटाने के लिए अबू को छुट्टी के दिन पूरा समय घर पर ही रहना पड़ता. ऐसे में अगर खुजली उठती, तो अबू घर की दीवार का कोई टूटा कोना या दीवार से बाहर निकली छोटी कील, लकड़ी के दरवाजे की सिटकनी या नल की टोंटी से टिक कर पीठ खुजलाता. उनकी अलग-अलग ऊँचाई होने का कारण, उन तक पहुँचने के लिए अबू ने कई तरह की ऊँचाई वाले छोटे स्टूल खरीदे. उन पर चढ़ कर वह जहाँ, जैसी जरूरत होती पीठ छूआ लेता.

इस तरह खुजलाने में अबू का समय और मेहनत तो ज्यादा लगती ही, खाल भी अक्सर खुरच जाती. इसके कारण बू की रीढ़ की हड्डी के इर्दगिर्द की खाल छोटी-छोटी पपड़ियों से भर गयी थी. इनके नीचे सूख चुके घाव थे. इन सारी समस्याओं और इन्हें सुलझाने की चिंताओं में डूबे रहने के कारण अबू का वजन कम हो गया. वह चिड़चिड़ा हो गया. इतना, कि कोई उसको रोक कर रास्ता पूछता तो अबू उसे गलत रास्ता बता देता. भाषा में बेहूदा गलतियाँ करने लगा. सबसे बड़ी बात यह, कि सड़क पर चलते समय अक्सर लड़खड़ा जाता. इसने उसके अंदर कहीं भी गिर पड़ने और हड्डी टूटने का भय पैदा कर दिया. इस भय से अबू घर में ही ज्यादा रहने लगा. नतीजे में उसके रोग, उसकी समस्याएं बढ़ने लगीं. अबू के सफल और सुखी जीवन के लिए ज़रूरी हो गया कि वह खुजली की समस्या को किसी भी तरीके से स्थायी रूप से सुलझाए.

एक रात जाग कर अबू ने पूरी बात पर बेहद गंभीरता और तल्लीनता से विचार किया. इसके हर पहलू पर, हर नजरिए से सोचा. जैसे ही सुबह की पहली किरण फूटी और पहली चिड़िया बोली और अजान का पहला स्वर उठा, किसी ने भैरवी का पहला आलाप लिया, विचारों में डूबे और घुटने मोड़ कर दोहरे लेटे अबू को झाडू के डंडे के नुकीले सिरे ने एक अद्भुत यंत्र का विचार दिया. अबू तेजी से उठा. उसने उसी समय काग़ज पर उसकी एक डिज़ाइन बना ली. डिजाइन बना कर अबू इतना उत्तेजित, प्रसन्न और संतुष्ट हुआ और समस्या सुलझ जाने की उम्मीद में इतना उल्लसित हुआ, कि सूती मिल की पहली पारी शुरू होने का सायरन बजने से पहले ही, वह उस बढ़ई की दुकान पर पहुँच गया जो चलने फिरने वाले लकड़ी के खिलौने, रंगीन लट्टू और घिर्री पर डोरी के सहारे चलने वाले यंत्र बनाता था.

गलियों के बीच बनी उसकी दुकान के चबूतरे पर बैठ कर अबू बढ़ई के आने का इंतजार करने लगा. जब मिल का सायरन बज कर बंद हो गया और उन गलियों में, जहाँ एक ही तरह से जन्मता, पसरता और जीवित रहता हुआ उदंड्ड और कुरूप सच्चाइयों से दहाड़ता जीवन साँस लेता था, जहाँ सदियों से क्रांतियाँ और गर्भपात एक साथ होते थे, जहाँ सदियों से एक दूसरे से सटीं चौखटों पर शव और वेश्याएं एक साथ सजती थीं, बढ़ई लंगड़ाता हुआ अपनी दुकान पर आया.

उसे देख कर अबू दुकान के चबूतरे से उठ गया. आगे बढ़कर उसने बढ़ई को रोका और विस्तार से अपनी समस्या बतायी. यंत्र की डिजाइन दिखायी. यंत्र को उपयोग करने का तरीका बताया. अबू ने क़मीज़ उठा कर बढ़ई को पपड़ियों वाली अपनी नंगी पीठ भी दिखायी. बढ़ई ने देर तक अबू की पीठ देखी. उँगलियों से पीठ में बनी नाली की गहराई और चौड़ाई नापी. उसकी पपड़ियों को छूआ. इसके बाद उसने कागज़ पर बनी अबू की डिजाइन देखी.

उसने अबू से वायदा किया, पाँच दिन में वह अबू को एक ऐसा यंत्र बना कर देगा जो उसकी समस्या को हमेशा के लिए खत्म कर देगा. यह कहते हुए बढ़ई की आँखें भीग गयीं. उन्हें पोंछता हुआ वह दुकान खोलने चला गया. पाँच दिन बाद अबू बढ़ई की दुकान पर आया. यंत्र तैयार था. यह लगभग वैसा ही था जैसा अबू ने बढ़ई को डिज़ाइन करके दिया था. बढ़ई ने लकड़ी के खाँचे के अन्दर एक छोटी खूँटी लगायी थी. यह एक घिर्री पर डोरी के सहारे, खाँचे के अंदर ऊपर नीचे हो सकती थी. उस खाँचे को किसी भी दीवार पर मनचाही ऊँचाई पर टाँग देने के बाद खूँटी पीठ को छूती थी. उससे पीठ टिका कर घिर्री के सहारे खूँटी को ऊपर नीचे करने से खूँटी से पीठ खुजलायी जा सकती थी.

बढ़ई ने खूँटी को आगे से झाडू के सिरे की तरह नुकीला कर दिया था. अबू को यकीन था, बढ़ई ने नुकीले सिरे का विचार और प्रेरणा कार्टून को देख कर पायी थी. यंत्र का परीक्षण करने के लिए बढ़ई ने अबू को खाँचे से सटा कर खड़ा कर दिया. उससे डोरी से खूँटी को ऊपर नीचे चलाने को कहा. अबू ने यह किया. इस तरह करने से वह खाँचे से सटी पीठ के जिस हिस्से में चाहता, खूँटी पहुँच सकती थी. जहाँ वह चाहता  रुक जाती. जितना चाहता उतनी दूर चलती. खुजली के मामले में यह सरल और पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाने वाला यंत्र था. खुजलाने के लिए अबू को किसी व्यक्ति के आगे गिड़गिड़ाने की ज़रूरत नहीं थी. बढ़ई को धन्यवाद देते हुए अबू ने जब गहरी संतुष्टि और प्रसन्नता ज़ाहिर की, बढ़ई ने उसे बताया वह इस यंत्र को चिकना करके कई रंगों में रंग देगा, जिससे कि दीवार पर टाँगने के बाद यह एक आधुनिक कलाकृति दिखे.

अबू के, प्रसन्नता और बढ़ई के सौन्दर्य बोध, काष्टकला के अनुभव और ज्ञान पर आश्चर्य प्रकट करने और फिर से धन्यवाद देने के बाद, बढ़ई ने अबू को बताया कि यंत्र उसने सिर्फ अबू की डिज़ाइन देख कर ही नहीं बनाया है, बल्कि अपने पुरखों के बनाए कुछ पुराने यंत्रों और कुछ महान काष्ठ शिल्पियों की कलाकृतियों की डिजाइन से भी प्रेरणा ली है. कुछ जीवित बचे हुए पुराने बढ़इयों से भी बातें की हैं. उसने पिलरी और गिलोटिन के पटरे और गिरने वाले गंडासे के खाँचे और यातना देने वाले दूसरे यंत्रों के चित्रों को भी ध्यान से देखा है. खुद अपनी पीठ पर इसका प्रयोग करने के बाद ही उसने अबू को बुलाया है.

उसने अबू को बताया कि वह सोच रहा है इस यंत्र का पेटेन्ट करा कर इसे बाजार में उतार दे. आखिर अकेले रहने वाले बूढ़े या बीमार, जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है या वे लोग जिनके कंधे दर्द से ऐंठे रहते हैं, वे अपनी पीठ की खुजली के लिए किसी पर आश्रित क्यों हों? अबू के पूरी बात ध्यान से सुनने और सहमति में सर हिलाने के बाद, उसने अपने बढ़े हुए व अतिरिक्त आत्मविश्वास के साथ अबू को बताया कि उसे भविष्य में इस यंत्र की व्यापारिक सफलता की अनन्त संभावनाएं दिख रही हैं. उसने सर झुका कर विनम्रता से इसका पूरा श्रेय अबू को दिया और इस व्यापार में अपने साथ भागीदारी करने का प्रस्ताव भी रखा. उसने यंत्र का विचार देने का अबू का एहसान मानते हुए, उससे यंत्र की कोई भी कीमत लेने से इनकार कर दिया. इतना ही नहीं, अपनी उदारता और सदाशयता दिखाते हुए, उसने अबू को ऐसे तीन यंत्र और बना कर देने का वायदा किया जिन्हें अबू अपने घर के दोनों कमरों, छोटी रसोई और गुसलखाने में भी लगा सके. खुजलाने के लिए अबू को हर बार घर के एक ही हिस्से में भागना न पड़े.

 

 

5/

यंत्र ने घर के अंदर अबू की खुजली की समस्या खत्म कर दी पर घर के बाहर रहने पर खुजली उठने की समस्या अभी बनी हुई थी. बहुत दिनों तक इस पर भी गम्भीरता और गहनता से सोचने के बाद, अबू को इसका एक ही उपाय सूझा कि वह अपने साथ एक ऐसा साथी रख ले जो हर समय उसके साथ रहे. जब भी, जहाँ भी ज़रूरत हो, निःसंकोच उसकी पीठ खुजला दे, जो सस्ता और भरोसेमंद हो, उसे अचानक छोड़ कर न चल दे, जो उससे सहानुभूति रखता हो, जो घर को साफ रख सकता हो, बीमार पड़ने पर उसकी देखभाल कर सके, अबू को गर्म खाना भी खिला सके. अबू ने सोचा ऐसा साथी उसे सिर्फ पत्नी के रूप में ही मिल सकता है. वह पीठ खुजलाने के सुख के अलावा उसे कुछ दूसरे सुख भी दे सकती थी.

अबू ने शाम को अपना यह विचार जब अख़बार के संपादक मित्र को बताया तो वह अबू की इस सूझबूझ से इतना प्रसन्न और उत्तेजित हुआ कि उसने अबू से बिना पूछे और बताए, सुबह छपने वाले अख़बार में एक विज्ञापन दे दिया. विज्ञापन में उसने लिखा था कि विवाह के लिए इच्छुक एक जवान, अकेले और चरित्रवान युवक के लिए पत्नी चाहिए जो जरूरत पड़ने पर कभी और कहीं भी उसकी पीठ खुजला सके.

विज्ञापन में यह भी लिखा था कि स्त्री की आयु, जाति, धर्म, देश का कोई बंधन नहीं है. विज्ञापन में यह आश्वासन साफ शब्दों में दिया गया था कि स्त्री को सिर्फ पीठ खुजलानी होगी, दूसरा कोई अंग नहीं. इसके लिए पुरुष कभी नहीं कहेगा.

विज्ञापन के जवाब में दो उत्तर आए. सिर्फ दो उत्तरों का आना इस बात का सबूत था कि सार्वजनिक रूप से स्त्री द्वारा किसी पुरुष की पीठ खुजलाना सभ्य समाज में अभी तक अशोभनीय और कुछ हद तक अनैतिक समझा जाता है.

आने वाले दो उत्तरों में से पहला चर्म रोगों के अस्पताल में काम करने वाली नर्स का था. दूसरा उत्तर एक अधेड़ हो चुकी वेश्या का था. नर्स ने उत्तर में प्रस्ताव पर तैयार होने के साथ, यह भी लिखा था कि अपने कई वर्षों के अनुभव से उसे विश्वास है कि वह विवाह के बाद विज्ञापन दाता के चर्म रोग को जल्दी ठीक कर देगी. उसके आत्मविश्वास की प्रशंसा करते हुए व उसके पत्र का उत्तर देते हुए, संपादक ने जब उससे निर्णय के लिए तीन महीने प्रतीक्षा करने का अनुरोध किया तो वह ख़ुशी से तैयार हो गयी. इतना ही नहीं, उसने संपादक को लिखा कि इन तीन महीनों का उपयोग वह चर्म रोग के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने में करेगी. अपने अस्पताल में अब तक आए मरीजों के किए गए इलाज का रजिस्टर पढ़ेगी और वरिष्ठ डाक्टरों से भी बात करेगी.

उसने कानूनी तौर पर विज्ञापनदाता से इस बात का आश्वासन माँगा, कि ऐसा नहीं होना चाहिए कि जब वह उसके रोग को ठीक कर दे, तो उसे उसकी जरूरत न रहे और वह उसे छोड़ दे. उसकी इस शंका को दूर करने के लिए के लिए संपादक ने स्वयं उसे इस बात की गारन्टी दी कि ऐसा नहीं होगा. इतना ही नहीं, उसने स्वयं न्यायालय में एक शपथ पत्र दाखिल करने का भरोसा दिया जिसमें लिखा होगा कि यदि विज्ञापन दाता ने ऐसा किया, तो संपादक व्यक्तिगत रूप से उस नर्स को अपने अख़बार में उसी तनख्वाह पर नौकरी देगा जो उसे विवाह के समय अस्पताल में मिल रही थी.

यह भी, कि वह स्वयं विवाह के बीच की अवधि की अस्पताल में बनने वाली उसकी तनख्वाह की तीन गुना राशि भी मुआवजे के तौर पर देगा. इस आश्वासन से संतुष्ट हो कर नर्स आंद्रे की बीमारी का गहन अध्ययन करने और उसका इलाज ढूँढने में जुट गयी. तीन महीने प्रतीक्षा करने की बात संपादक ने इसलिए कही थी क्योंकि उसका अपना विचार था कि विवाह के बाद अबू का दो कमरों का घर छोटा पड़ जाएगा. अकेले रहने के कारण अबू के पास गृहस्थी के लायक पूरा सामान भी नहीं था.

फौजियों के इस्तेमाल करने वाला स्प्रिंग का एक पलंग था जो उसने नीलामी में खरीदा था. बर्तन के नाम पर चार चम्मच, दो भगौने, एक कढ़ाही, चाय का बर्तन, दो थाली, चार कटोरी थीं. एक मेज और टेबिल फैन था. एक रूम हीटर था.

संपादक-मित्र चाहता था कि विवाह से पहले अबू घर को पत्नी के रहने लायक बना ले. उसका सुझाव था अबू अगर दूसरा बड़ा घर नहीं ले सकता, तो कम से कम इस घर की मरम्मत, रंगाई, पुताई करके, इसे जीवन को सरल और खुशहाल बनाने लायक जरूरी सामान से तो भर ही सकता था. इस काम में तीन महीने का समय और कुछ पैसा खर्च होना तय था. संपादक को उम्मीद थी विदेशी अखबारों में अबू के लेख और पत्रिकाओं में कुछ समीक्षाएं और इंटरव्यू छपवा कर वह अबू को विदेशी मुद्रा में अच्छी धनराशि दिलवा देगा. इसके अलावा अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में देश की मुद्रा की साख लगातार गिरने के कारण उसे अबू के सुनहरे भविष्य की पूरी उम्मीद थी.

तब तक अधेड़ वेश्या परिदृश्य में कहीं नहीं थी. अबू के संपादक मित्र ने उसका कोई नोटिस नहीं लिया था लेकिन उसका उत्तर अबू को पढ़ा दिया था. यह दिलचस्प पत्र था. उसने लिखा था कि वह पुरुषों के शरीर के हर अंग में उठने वाली खुजली के कारण, मर्म और रूप के बारे में पिछले चालीस वर्षों से जानती है. उसे दूर करने की न सिर्फ अभ्यस्त है, बल्कि इस काम में उसे विशेष दक्षता हासिल है. उसने संपादक के द्वारा विज्ञापनदाता को निमन्त्रण दिया था कि वह चाहे तो खुजली उठने पर उसके पास आ कर उसके दावे की सत्यता और कौशल को परख सकता है. उसने अपने घर का पता भी लिखा था.

यह सुअर पालने वालों के मुहल्ले के पीछे बनी फायर ब्रिगेड की पुरानी इमारत के पास भूसाटोली की एक टूटी दुछत्ती का था. एक दिन अबू जब शहर के बहुत पुराने टाँकीज़ में, बहुत पुराना सिनेमा देखने के बाद, फायर ब्रिगेड के पास से गुजर रहा था, उसकी पीठ की नाली में तेज़ सरसराहट हुई. उस विशेष प्रकार की सरसराहट से अबू समझ गया कि यह खुजली की पहली दस्तक है और कुछ देर में वह विकराल रूप लेने वाली है. तभी उसे अधेड़ वेश्या का ध्यान आया. अबू लोगों से पूछता हुआ भूसाटोली गया. सड़क से ही भूसाटोली के एक ओर बनी पुरानी दुछत्ती दिख रही थी. यह टूटी और सीलन से भरी थी. उसकी दीवारों में उगे हरे पौधों के बीच कोने के स्टूल पर एक औरत बैठी थी. अबू दुछत्ती के नीचे खड़ा हो कर उसे देखने लगा. वह अनुमान लगा रहा था क्या यह वही हो सकती है? तभी उसने अबू को अपनी ओर देखते हुए देखा. वह मुस्करायी. वह इस तरह दुछत्ती के नीचे खड़े राहगीरों को देख कर मुस्कराने की अभ्यस्त थी. उसे मुस्कराते देख कर अबू समझ गया, यह वही है. अबू के दाएं-बाएं हिलने और पीठ को आगे पीछे करने से वह भी समझ गयी कि अबू कौन है?

अबू के अपने भावी पति होने की संभावना या कल्पना से उसकी आँखों में विनम्रता के साथ दया और ऊपर आने का निमन्त्रण दिखने लगा. इसे समझने की कोशिश में अबू चुपचाप खड़ा उसे देखता रहा. तब उसने हाथ से अबू को ऊपर आने का इशारा किया. अबू ने उस भूसाघर को देखा. भूसे के गोदाम और ताजी खाली हुई गाड़ियों के पीछे तैरते भूसे के पीछे एक संकरी सीढ़ी ऊपर जा रही थी. अबू उस सीढ़ी से ऊपर चढ़ गया. दुछत्ती का दरवाज़ा खुला दुछत्ती था. दरवाज़े के बाद एक छोटा आँगन था. उसके बाद नीची छत वाली लम्बी दुछत्ती थी. वह इसी में स्टूल पर बैठी थी.

अबू को सीढ़ी पर देख कर वह स्टूल से उठ गयी. उसने अबू को अंदर आने का इशारा किया. दुछत्ती की एक दीवार के साथ लोहे के दो बक्सों को जोड़ कर पलंग बनाया गया था. इस पर एक पतला गद्दा पड़ा था. गद्दे पर एक नाचते हुए मोर के चित्र वाली पुरानी पीले रंग की चादर पड़ी थी. उसने अबू को क़मीज़ उतारने का इशारा किया. अबू ने उतार दी. उसने अबू को गद्दे पर लेटने का इशारा किया. अबू लेट गया. उसने अबू को पलटने का इशारा किया. अबू पलट गया. अब अबू की पूरी नंगी पीठ उसके सामने थी. बक्सों के पास रखी एक चौकी पर वह बैठ गयी. अबू की पीठ की नाली पर उसने अपनी उँगलियाँ फेरीं. उँगलियाँ फेरती हुई वह उस बिंदु को तलाश रही थी जहाँ खुजली का केन्द्र था. अबू अपनी खाल पर घूमती उसकी उँगलियों की थरथराहट और लय महसूस कर रहा था.

वे मुलायम और सुडौल थीं. अबू की पीठ की नाली पर वे पियानो बजाने वाले संगीतकार की कुशलता के साथ एक तय लय में चल रहीं थीं. पियानों न भी हो, तो हारमोनियम या तबला बजाने वाले की तरह तो निश्चित ही लय में थीं. उँगलियाँ फेरते हुए एक बिन्दु पर आ कर वह  रुक गयी. वहाँ उसने अपना एक नाखून हल्का या चुभाया. अबू के अंदर आनंद की अभूतपूर्व लहर उठी. उसका पूरा बदन काँप गया. इतना ज्यादा कि उसने सोचा शायद पेट के नीचे दबा मोर थिरक रहा है. फिर उसने आँखें बंद कर ली. ‘‘ओह, आह‘‘ करता हुआ अबू सिहर रहा था. वह औरत पुरुष के इस आनन्द, इस कंपकंपाहट, इस ‘ओह, आह‘ का अर्थ सम्पूर्णता में समझती थी. उसने बिन्दु को जरा सा खुरचा. अबू को लगा मोर अब पंख फैला कर थिरक रहा है. औरत समझ गयी अबू की पीठ खुजलाने की ज़रूरत नहीं है, बस खुजली के उस गर्भ बिन्दु को हल्के से नाखून से दबाने और सहलाने भर की ज़रूरत है.

उस बिन्दु को दबाते, सहलाते हुए वह अबू की खुजली से अनुभवी खिलाड़ी की तरह खेल रही थी. उसने अबू की खुजली को पूरी तरह नियन्त्रण में कर लिया था. उसकी हर हरकत को पकड़ लिया था. अबू उसकी उँगलियों के थिरकने की कला और उससे जन्मे सुख से इतना अधिक प्रसन्न और प्रभावित हुआ, कि उस मोर पर लेटे हुए उसे लगा औरत उँगलियों की जुम्बिश से केवल खुजली मिटने का सुख ही नहीं, बल्कि कोई भी सुख देने की ताकत रखती है.

कुछ ही देर में अबू की खुजली और नाली की सरसराहट पूरी तरह खत्म हो गयी. अबू के नीचे दबे मोर ने भी थिरकना बंद कर दिया. औरत समझ गयी उसका काम खत्म हो गया. उसने आखिरी बार खाल के उस गर्भ बिन्दु पर उँगली फेरी जैसे उसे विदा दे रही हो, फिर उठ गयी. अबू पलट कर पीठ के बल लेट गया, फिर उठ गया. वह भी चौकी से उठ गयी. कमीज़ पहनते हुए अबू ने उसे परखने वाली नज़र से देखा. वह सर झुकाए खड़ी थी. थोड़ा लजाते हुए अबू को देख रही थी. वह भरसक कोशिश कर रही थी सीधी खड़ी रहे जिससे उसकी झुकी कमर और झुके कन्धों से उसकी उमर का पता न चले.

उसने अपने दोनों हाथ पीछे ले जा कर हथेलियाँ आपस में बाँध लीं. इससे उसके पिचके स्तनों का उभार थोड़ा बढ़ गया था. उसके चेहरे की खाल पर अभी झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं, लेकिन मटमैली लकीरें उभरने लगी थीं. अबू ने सोचा जब ये नहीं होंगी, तब उसका चेहरा ज़रूर आकर्षक रहा होगा. उसके कपड़े सस्ते थे लेकिन उनमें किसी तरह की अस्तव्यस्तता नहीं थी. बल्कि सुरुचिपूर्ण सलीका था. घर में होने के बावजूद, कपड़ों के रंगों का चयन मौसम के अनुकूल था. आँखों के अंदर खिलखिलाता रहा था. वह अभी तक एक शब्द नहीं बोली थी. अबू ने उसकी आवाज नहीं सुनी थी लेकिन उसके पत्र की भाषा ने बता दिया था, वह पढ़ी लिखी है. सुसंस्कृत और शिक्षित है. पुरुष का मनोविज्ञान समझती है. मुमकिन था संगीत और नृत्य भी जानती हो.

उसने अभी तक ज़ाहिर नहीं किया था कि वह अबू को पहचान गयी है. अबू ने भी ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वह समझ गया है, उसी ने विज्ञापन के उत्तर में पत्र लिखा था. दरअसल खुजली ने दोनों को बेपर्दा कर दिया था और दोनों चुपचाप एक दूसरे को कई नज़रियों से तौल रहे थे. अबू नहीं जानता था वह उसमें क्या देख और समझ रही है, पर वह अपने तौलने की असलियत जानता था. वह दो बातें प्रमुखता से सोच रहा था. विवाह के बाद जब वह अबू के साथ सोएगी, तो क्या उसका शरीर अबू के अंदर किसी तरह की उत्तेजना पैदा कर पाएगा, जो फिलहाल उस समय तक नहीं कर पाया था. उसकी ओर देखते हुए अबू इस बात से भी डर रहा था, कि विवाह के बाद वह हर पल अबू को दिखेगी, जो शायद उसके अंदर धीरे-धीरे एक गहरी ऊब पैदा कर दे. लेकिन तब उससे भागना या बचना फिर संभव नहीं होगा. लेकिन इसी विचार के साथ अबू पर यह विचार भी हावी हो रहा था, कि पूरी संभावना है वह घर के सारे काम करना जानती हो, अच्छा खाना बना लेती हो, उसकी सोहबत अच्छी सिद्ध हो, बातें मधुर और रस भरी करती हो, लोगों से मिलने जुलने का सलीका आता हो.

यह भी पूरी तरह संभव था उसका बदन अबू के अंदर उत्तेजना भी पैदा कर दे. अगर न भी करे, तो भी यकीनी तौर पर वह उसे पैदा करने के गुर जानती होगी. दूसरी बात अबू यह सोच रहा था कि जब वह अबू के साथ उसके घर में रहेगी, तो सामने वाले घर का कार्टूनिस्ट उसका कार्टून ज़रूर बनाएगा. शहर में बहुत से पुराने लोग उसे जानते होंगे. उनके पास उसके किस्से होंगे. कार्टून छपने के बाद वे कार्टूनिस्ट को उसका अतीत बता सकते हैं जो शायद अच्छा न हो. पत्नी होने के नाते उसका अतीत अबू की छवि खराब कर सकता था जो पहले से ही खराब है.

हो सकता था पास पड़ोस वाले उसे मुहल्ला छोड़ कर जाने को भी कहें. अबू जब ये बातें सोच रहा था, वह उसी तरह चुपचाप खड़ी अबू को देख रही थी. शायद वह समझ चुकी थी अबू क्या सोच रहा है. अपने अनुभव और ज्ञान के कारण वह मर्दों की मन की बात उनसे भी पहले समझने में पारंगत थी. शायद वह यह भी समझ गयी थी अबू क्या फैसला करेगा. वह हल्के से मुस्करा दी. तिरस्कार और उपेक्षा से नहीं बल्कि स्नेह और दया के साथ, जिसमें अबू के लिए क्षमा भाव भी शामिल था. अबू भी मुस्कराया. उसने जेब में हाथ डाल कर कुछ रुपए निकाले. औरत ने एक क्षण रुपयों को देखा. रुपए देख कर उसकी निगाहें बदल गयीं. उसे जो धक्का लगा, वह उसके चेहरे पर सफेदी बन कर उभर आया. उसकी आँखों में पानी आ गया. इनमें अबू के लिए तुच्छता और भर्त्सना थी.

अबू ने चुपचाप रुपए वापस जेब में रख लिए. एक बार उसे, फिर मोर को देखा और सर झुकाए सीढ़ियाँ उतर आया. लौट कर अबू ने संपादक मित्र को पूरी बात बतायी. दोनों स्त्रियों के साथ अबू के भावी जीवन के हर पहलू पर गम्भीरता से सोचने के लिए उसने दो दिन का समय माँगा. दो दिन बाद उसने अबू को अपना फैसला सुना दिया. उसने अबू से कहा, पूरे मामले के सारे पहलुओं पर गौर करने के बाद उसे लगता है कि पत्नी रूप में नर्स ही उसके लिए उपयुक्त रहेगी. इस निर्णय पर पहुँचने के उसने तीन कारण बताए. पहला, नर्स दैहिक रूप से अधिक आकर्षक और जवान थी इसलिए शारीरिक रूप से अबू को लंबे समय तक संतुष्ट करने में समर्थ थी. दूसरा, उसका कोई ऐसा ज्ञात और सार्वजनिक अतीत नहीं था जो कार्टूनिस्ट को उन दोनों का अप्रिय कार्टून बनाने के लिए उकसाए या विषय दे और जो संभवतः भविष्य में कभी अबू के घर छोड़ने का कारण बने. तीसरा, बहुत मुमकिन था वह तीन महीनों के अन्दर अबू की खुजली के लिए कोई ऐसी दवा तलाश ले जो उसकी समस्या सदा के लिए समाप्त कर दे.

अबू को ये तीनों कारण तर्कपूर्ण, दूरदर्शिता भरे और अपने हितों को सुरक्षित करने के साथ ही, एक नए व सुनहरे भविष्य की नींव रखने वाले दिख रहे थे. अबू ने प्रसन्नता और संतोष प्रकट करते हुए संपादक मित्र का निर्णय स्वीकार कर लिया. संपादक ने अबू को विवाह करने और एक नए व सुखी जीवन में प्रवेश करने की अग्रिम बधाई भी दे दी.

 

 

 

6/

अबू ने यह फैसला जाती हुई सर्दियों के आखिरी दिनों में किया था. इस फैसले के तीन दिन बाद वसंत शुरू हो रहा था. अबू पूरा साल वसंत की पहली सुबह की प्रतीक्षा करता था. लेखक की आत्मा से कुछ नया और विलक्षण फूटने के लिए सिर्फ एक आघात की ज़रूरत होती है. वसंत की पहली सुबह अबू को यह आघात देती थी. वसंत की पहली सुबह से पहले वाली रात अबू सो नहीं पाया था. उसके संपादक मित्र ने उसे एक नाटक का निमन्त्रण पत्र देते हुए, अगले दिन अख़बार में छपने के लिए उसकी समीक्षा और प्रशंसा, दोनों ही रात दस बजे तक लिख देने के लिए कहा था. नाटक का निर्देशक इसके एवज में संपादक को पेशगी महँगी विदेशी शराब की बोतल और आबनूस की लकड़ी में जड़ा बेल्जियम कांच का एक डिनर सैट दे गया था.

शराब की बोतल संपादक ने रख ली थी. डिनर सैट उसने अबू को इस शुभकामना के साथ दे दिया था कि वह अपने घर में, पत्नी के साथ सुहागरात के पहले वाला भोजन इसी में करे. नाटक देर से शुरू हुआ था इसलिए खत्म भी देर से हुआ था. अंतिम पंक्तियों में उसने एकालाप का रूप ले लिया था. स्टेज के एक कोने पर गिरती रोशनी के वृत्त में काले चोगे में लिपटी काया किसी रोमन सेनेटर जैसी गम्भीर और नपी तुली आवाज में, खूबसूरत तरीके से शब्दों पर उचित बलाघात देते हुए बोल रही थी. अबू ने इन पंक्तियों को सुरक्षित कर लिया था. वह अपनी समीक्षा की शुरूआत इन्हीं पंक्तियों से करना चाहता था.

‘‘मेरे चारों ओर उन्मादी समय है. लोगों के चेहरे फुफकारती उत्तेजना और विकलांग उम्मीदों से विकृत हो चुके हैं. वे हँसते हैं तो पेड़ों से परिन्दे उड़ जाते हैं. वे बोलते हैं तो मुँह से गुर्राहटें निकलती हैं. उनकी आँखें हिंसक और इरादे क्रूर हैं. उनकी रगो में खून की जगह कई सदियों से संजो कर रखी गयी नफरत और कई सदियों तक इतिहास की भट्ठी में उबाल कर पकायी गयी वहशत दौड़ रही है. वे रक्त में घुली अपनी इस व्याकुलता की वजह नहीं जानते. इसे समझने की कोशिश में अपने नुकीले खुरों और बनैले सींगों के साथ बेहूदा ढंग से चीखते हुए चारों ओर भाग रहे हैं. वे इसी को ख़ुशी और जीवन कहते हैं.

मैं जानता हूँ, अशुद्ध आलापों और अशुभ प्रार्थनाओं को जन्म देने वाला यह समय मेरा नहीं है. मैं जानता हूँ, मेरे और इस समय के बीच युद्ध ठन चुका है. यह समय, मेरे विवेक का बलिदान चाहता है और मैं हठपूर्वक, अपने विवेक की खराद पर, इस समय को आखिरी रेशे तक छील देना चाहता हूँ. यह अपनी लांछित लालसाओं और स्खलित सपनों पर मुग्ध है. मैं अपनी दुख की उज्ज्वलता पर इतरा रहा हूँ. मेरे और इसके बीच निश्चित ही युद्ध ठन चुका है.‘‘

नाटक खत्म होने के बाद, देर तक अबू इन पंक्तियों का अर्थ और मर्म खोलने वाली समीक्षा के लिए उचित शब्द तलाशता रहा. आधी रात से पहले उसने संपादक को नाटक का मूल्यांकन करके दे दिया. अख़बार के दफ्तर के बाहर निकल कर उसने मकबरे के बाहर दुकान का आखिरी पटरा लगाते हुए होटल वाले को रोका. वहाँ रखी बची हुई उबली दाल में दो पाव और भकोसा के दो टुकड़े डुबो कर खा लिए. जब तीन मंजिल की सीढ़ियाँ चढ़ कर अबू घर पहुँचा, बुरी तरह थक गया था. जाते ही बिस्तर पर गिर पड़ा. उसने किसी अदृश्य से प्रार्थना की, उस वक्त उसे खुजली न हो. वह अदृश्य भी जाग रहा था. उसने अबू की प्रार्थना सुन और मान ली.

खिड़की पर पर्दा पड़ा होने के बावजूद, मकबरे की छत पर जलने वाले दो बल्ब की रोशनी की लकीरें पेड़ों की शाखाओं से छन कर अंदर आ रहीं थीं. अबू के कमरे की छत पर उसकी तिरछी लकीरें बनी थीं. अबू आंद्रे नींद की उम्मीद में कुछ देर उन्हें देखता रहा. कुछ देर बाद हथेली की लकीरों की तरह उनमें छिपे अर्थ ढूँढने लगा. इस कोशिश में उसने लकीरों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक कई बार देखा. सुबह होने के कुछ देर पहले तक अबू उन लकीरों में छिपे अर्थ नहीं समझ पाया. ग्वालों के चट्टों के पीछे से वसंत की पहली सुबह मकबरे की छत पर उतरने वाली थी. अबू ने सोचा अजान की आवाज़ आ जाए तो सोने की कोशिश छोड़ कर बिस्तर से उठे और जिंदगी शुरू करे.

लेटे हुए ही उसने खिड़की पर पड़े पर्दे की फांक से बाहर देखा. बाहर अभी इकरंगा और ठोस अन्धेरा था. मुअज़्ज़िन की आवाज़ का वक्त तय था. बावजूद बढ़ती उमर और बढ़ते घुटनों के दर्द के, वह मस्जिद की बाईस सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर जाता और तय समय पर अज़ान देता था. सत्रह सालों से लोग उसकी आवाज़ सुन रहे थे और उसी से समय की नब्ज़ नाप रहे थे. अबू उसकी आवाज़ के इंतजार में कुछ देर और लेटा रहा. जब गली में एक कुत्ता मुँह उठा कर रोया और दूसरे कुत्ते उसका रोना सुन कर, उसे भगाने के लिए एक साथ भौंकने लगे, तब अबू को लगा वक्त हो गया है लेकिन मुअज़्ज़िन ने अभी तक अज़ान नहीं दी है. उसने सोचा इस तरह लेटे रह कर इंतजार करने से बेहतर है वह मुअज़्ज़िन के घर जा कर देख ले कि देर क्यों हो रही है? कहीं ऐसा तो नहीं उसका घुटनों का दर्द बढ़ गया हो, और उठने और बाईस सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर जाने में उसे दिक्क़त हो रही हो. हालांकि सत्रह सालों में दो बार ही ऐसा हुआ था जब मुअज़्ज़िन ने तय समय पर अज़ान नहीं दी थी. एक बार जब रात को अचानक उसकी साँस उखड़ गयी थी. दूसरी बार, गाँव में फसल का हिसाब करके लौटने में रेलगाड़ी छूट जाने की वजह से उसे देर हो गयी थी. दोनों ही बार समय बीतता देख कर अबू ने अज़ान दे दी थी.

अबू पलंग से उतर गया. पर्दा हटा कर उसने बाहर देखा. गुलमोहर के घने पेड़ के पार, एक टूटी मुँडेर पर हँसिए की शक्ल का पंचमी का चाँद नीचे छलांग मारने के लिए उकडूँ बैठा था. गूलर के पेड़ पर एक कौआ, उलटा लटके मरे चमगादड़ के बच्चे को ख़ुशी से चीखता नोच रहा था. तेज़ हवा में टूटे पत्ते सड़क पर दौड़ रहे थे. यही वसंत की पहली सुबह थी. मुअज़्ज़िन के घर जाने के लिए अबू सीढ़ियाँ उतर कर घर से बाहर निकल आया. मुअज़्ज़िन के घर जाने के दो रास्ते थे. एक चौड़ा, खुला और मुख्य मार्ग था. दूसरा संकरी गलियों से हो कर जाता था. नसों की तरह एक दूसरे से जुड़ी इन्हीं गलियों में अबू जन्मा, पला और बड़ा हुआ था. यह उसकी अपनी बेहद पहचानी और भोगी हुई दुनिया थी.

अबू गलियों के बीच से गुज़रने लगा. बिना प्लास्टर के नंगी ईंटों वाले मकान, चिमनियाँ, घंटाघर, आसमान पर रात के बचे काले धुएं की पर्त, छज्जों पर सूखते कपड़ों से गुजरते हुए अबू ने सफेद कुहरे में मुँडेर पर चलती बिल्ली देखी उसके मुँह में कबूतर दबा था. एक घोड़ा गाड़ी देखी. उस पर मरा हुआ घोड़ा लदा था. एक बनते हुए मकान में दो लड़कियाँ देखीं वे नींद से उसी समय जागीं थीं. उनमें एक लड़की लैम्प की पीली रोशनी में अँगड़ाई ले रही थी. दूसरी गोद के बच्चे के मुँह में अपनी पिचकी छाती ठूँस कर वीरान आँखों से सर खुजला रही थी.

मुअज़्ज़िन का घर एक गली के आखिरी हिस्से में था. गली के मोड़ पर तम्बाकू बेचने वाले की दुकान थी. उसके बाद एक हज्जाम, फिर चाँदी का वर्क तैयार करने वाले और फिर जूते की दुकान थी. उसके बाद एक गोदाम था. इसमें पहले कपड़े की गाँठें रखी जाती थीं. अब वहाँ भटियारखाना खुल गया था. गोदाम में रेलगाड़ियों पर यात्रियों को दिया जाने वाला खाना बनता और पैक होता था. हर वक्त भट्टी सुलगती रहती थी. उस पर कड़ाही चढ़ी रहती. औरतें पूड़ियाँ बेलतीं, तलतीं, उतारती और डिब्बों में रख कर डिब्बे तैयार करती थीं.

उसी भटियारखाने के दरवाज़े से सटी, पुरानी, टेढ़े मेंढ़े हो चुके पत्थरों वाली सीढ़ियाँ ऊपर जाती थी. इसकी पहली मंजिल पर मुअज़्ज़िन रहता था. उसके ऊपर दो मंजिल चढ़ कर वह अज़ान देता था. अबू जब गली में घुसा तम्बाकू की दुकान का बल्ब जल रहा था. जूते की दुकान के बाहर ज़ंजीर से बँधे तख्त पर कुत्ते सो रहे थे. भटियारखाने के अंदर दो बल्ब जल रहे थे. उनकी रोशनी में तीन औरतें खाना बना रहीं थीं. गर्म तेल और ताजे गूँथे गए आटे की गंध भटियारखाने में भरी थी. धुआँ भी.

अबू दरवाजे पर रुक गया. वह दरवाजे की आड़ में था. उनमें से किसी ने भी अबू को नहीं देखा था. अबू उन्हें देख रहा था. वे तीन थीं. उनमें एक औरत भट्ठी पर चढ़ी कढ़ाही की पूरियाँ पलट रही थी. उसकी आधे से ज्यादा खुली पीठ अबू की तरफ थी. थोड़ा झुकने के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी की गुर्रियाँ दिख रहीं थीं. उसकी पीछे की काली खाल पर गुथे हुए बालों की चोटी पड़ी थी. चोटी में लाल रंग के रेशमी फीते का आठ पंखुड़ियों वाला फूल बना था.

उसके पास बैठी दूसरी औरत पूरियाँ बेल रही थी. उसके सर पर घूँघट था. उसका चेहरा नहीं दिख रहा था. उसकी बाँह कोहनी तक कपड़े से ढकी थी. कोहनी के बाद कलाई तक दिखता हाथ और हथेली बता रही थी कि उसकी उमर कम है. उसकी कलाई की चूड़ियाँ पूरी बेलते समय झनझना रहीं थीं. उनकी झनझनाहट में सुबह गाया जाने वाला राग था. शायद वह इरादतन इस तरह पूरियाँ बेल रही थी कि अनजाने में चूड़ियों से राग फूट रहा था. तीसरी औरत कड़ाही से उतरी पूरियाँ सम्हाल रही थी. डिब्बे तैयार कर रही थी. उसके सर पर कोई कपड़ा नहीं था. बाल बेहद काले और घने थे. उसका मांसल बदन गले तक कपड़े से ढका था. उसने बाल समेट कर पीछे बाँधे हुए थे. अबू को उसके चेहरे का एक हिस्सा दिख रहा था. उस दिखते हुए हिस्से के कान में एक मोटा बुंदा लटक रहा था. उसके गाल की खाल चिकनी थी, जैसे नदी के किनारे पत्थरों पर जमी हुई पुरानी काई या फिर तबले की खाल होती है. चमक शायद उसकी अपने बदन की थी या फिर आग की लपट की या फिर रगो में दौड़ते तेज़ खून की थी. उन सबके कपड़े मोटे, सस्ते और ढीले चोगे ऐसे थे या शायद चोगे ही थे जो उन्होंने अपने कपड़ों के ऊपर डाल लिए थे जिससे कि वे गंदे न हों.

भट्ठी के एक ओर पेड़ की पतली टहनियाँ पड़ी थीं. आग जब धीमी होती वे उन टहनियाँ को भट्टी में डाल कर आग तेज़ कर लेतीं. भटियारखाने की ऊँची छत लकड़ी के लट्ठों पर टिकी थी. एक लट्ठे से पुराना टूटा फानूस लटक रहा था. भटियारखाने के दूसरी ओर छोटे बड़े बोरे रखे थे. उनमें अनाज, मसाले, कच्ची सब्जियाँ, कोयला, कड़ाही, तवा और कुछ बर्तन रखे थे.

तीनों औरतों के हाथ सधी लय में तेजी से चल रहे थे. इस लय में कलाई की चूड़ियाँ, पसीने की बूँदें, खाल की चमक और अन्न की गंध शामिल थी. शायद अबू की परछाईं पहुँची या वसंत की हवा में उसकी गंध या फिर यूँ ही बाहर की रोशनी देखने के लिए लाल फीते में बनाए आठ पँखुरियों वाले फूल वाली औरत ने सर उठा कर दरवाज़े की ओर देखा. उसकी आड़ में छिपे अबू को देखा. उसे अपनी ओर देखता पा कर, अबू अंदर आ गया.

‘‘मुअज़्ज़िन ने अभी तक अज़ान नहीं दी. उसके पास जाना है.”

अबू ने दरवाज़े के पीछे छिपे होने की सफाई दी. पर उसने सुना नहीं या सुना तो जवाब नहीं दिया. वह सर झुका कर पूरियाँ बेलने लगी. बाकी दोनों ने अबू की तरफ देखा भी नहीं. अबू चुपचाप सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया. भटियारखाने की रोशनी में सीढ़ियाँ दिख रहीं थीं. सीढ़ियाँ इतनी संकरी थीं कि दो आदमी एक साथ नहीं चढ़ सकते थे. उनके पत्थर टेढ़े हो चुके थे. दीवार पर खूँटे गाड़ कर जूट की मोटी रस्सी बाँधी गयी थी जिसे पकड़ कर आदमी चढ़ सके, खासतौर से मुअज़्ज़िन, जिसके घुटनों में दर्द रहता था. सीढ़ियों के किनारे टूटी झाडू, पुराना टेबल फैन, एक जोड़ी पुराना जूता और बिना तार वाला वायलिन रखा था. दीवारों पर मकड़ियाँ और जाले थे.

सीढ़ियाँ चढ़ कर अबू  मुअज़्ज़िन के कमरे में पहुँचा. दरवाजा बंद था. अबू ने हाथ रखा. दरवाज़ा खुल गया. अबू अंदर आया. मुअज़्ज़िन जिस तख़्त पर सोता था वह खाली था. साथ का कमरा, बावर्ची खाना, गुस्लखाना भी अबू ने देखा. मुअज़्ज़िन कहीं नहीं था. मुअज़्ज़िन के कमरे की खिड़की के बाहर अबू ने झाँका. बाहर अभी रोशनी नहीं फूटी थी. अभी देर नहीं हुई थी. अबू तय नहीं कर पा रहा था अज़ान दे या मुअज़्ज़िन का इंतजार करे. वह जानता था लोग अज़ान का इंतजार करते थे, खासतौर से उसके जैसे लोग, जो अक्सर रातों को सो नहीं पाते या वे, जो इसके बाद जिंदगी शुरू करते थे या वे, जो इस आवाज़ के साथ अपनी किश्तियों की पतवार खुदा के हाथ सौंप कर उसे मँझधार में छोड़ देते थे, या वे, जिनकी मौत की मुराद पूरी नहीं हो रही थी.

मुअज़्ज़िन के कमरे से निकल कर अबू बाईस सीढ़ियाँ चढ़ कर उस छोटी कोठरी में पहुँचा जहाँ मुअज़्ज़िन अज़ान पढ़ता था. वहाँ एक माइक रखा था. मुअज़्ज़िन जो बोलता था अबू को याद था. धीरे-धीरे अबू ने रात में मंच पर सुनी आवाज़ जैसी तहदार, लरज से भरी आवाज़ में संगीत के कुछ स्वर डाल कर अज़ान पढ़नी शुरू की. उसने आँखें बंद की लीं. कुछ ही पल में अबू को बंद आँखों के अंदर अपने कमरे की छत पर बनी लकीरें दिखने लगीं. फिर गुलमोहर पर उलटे लटके चमगादड़ के बच्चे को नोचता कौआ दिखा, फिर पेड़ों से टूट कर चटकी नसों वाले कत्थई पीले पत्ते दौड़ते दिखे. कान में लटका बुंदा, आठ पँखुडियों वाला लाल फूल दिखा. वसंत की पहली सुबह कोठरी में उतर रही थी. अज़ान खत्म हुई. तभी कोठरी में एक सरसराहट हुई. अबू ने आँख खोलीं. कोई नहीं था. एक दबी हुई आवाज़ दीवारों पर पंजे गड़ा कर चढ़ रही थी. वह आवाज़ कोठरी के हर गोशे, हर अन्धेरे, हर सिकुड़न, वसंत के हर लम्हे को धीरे-धीरे ढक रही थी.

भटियारखाने में खाना बनाती औरतों में कोई औरत आलाप ले रही थी. इस आलाप ने सब कुछ ढक लिया था. किसी नदी की तरह घुमावों पर मुड़ती, काँपती, दर्द भरी गहरी आवाज़ उस ठहरे अँधेरे में गूँज रही थी.

अब है क्या देर कोई सोच कदम क्यों रोके
कोई बजरा कोई किश्ती नहीं बारे-दरिया
नीम बेहोश हुई दिन की थकन की लहरें
सो चला रात की गोदी में फ़शारे-दरिया
नैया बाँधो रे किनारे-दरिया.

धीरे-धीरे अबू को चारों ओर से अपनी कुंडली में जकड़ता, फुफकारता दर्द पिघलने लगा. भोर की लाली सलाखों पर आ बैठी थी. कँगूरों पर, छज्जों पर, छतों पर, आँगन-मीनारों पर, मंदिर के कलश, ठंडी भट्ठियों, दुकानों पर, पेड़ों पर, अँधेरों और परिन्दों की नींदो पर वह आवाज़ फैल रही थी. नदी तटों पर, पुल पर उल्टी पड़ी नावों, ठंडी हो चुकी राख और मकबरे की जली छत पर फैल रही थी.

गर मैं होती जवाँबख़्त पुराना बरगद
जिससे तुम बाँधते दरिया के किनारे नैया
या तुम्हीं होते सजन मेरे गले की कंठी
मेरी बेदी मेरी आँखों का रसीला कजरा
शाम की राह पे फिर आह न कहती फिरती
राज़दाँ तीरगी होती है निसारे-दरिया
नैया बाँधो रे किनार-दरिया
बाँधो किनारे-दरिया.

अबू फर्श पर तड़प रहा था.

पिया आने को है शम्एँ करो रोशन, सखी उट्ठो मेरे गहने लाओ
मोतियों से मेरे जूड़े को सजाओ, नई रातें हैं निराला चाओ (चाव)
बद्धियाँ बेले की ज़रतार सखी हाथ मेरे गुँथवाओ
माँग सन्दल से भरो, आओ पिन्हाओ गजरे
ऐ सखी आओ पिन्हाओ गजरे
नैया बाँधो रे सजन अब तो किनारे-दरिया.

धीरे-धीरे अवरोह पर आती हुई आवाज़ धीमी होते हुए खत्म हो गयी.

देर क्या आओ भी नैया बाँधो
रात खुद ओट है अब आओ भी नैया बाँधो
देर क्या रात ही खुद ओट है अब आओ भी नैया बाँधो
देर क्या आओ भी नैया बाँधो
नैया बाँधो रे किनारे दरिया, बाँधो किनारे दरिया.

अबू धीरे से फर्श पर लेट गया. उसका पूरा बदन भीग गया था. अबू कुछ देर लेटा रहा फिर उसने आँखें खोलीं. अपने भीगे बदन को हथेलियों से रगड़ कर उस पर चिपका पसीना पोंछा. वह देख नहीं पा रहा था पर जानता था उसका चेहरा पीला पड़ गया है. बदन की कंपकंपाहट नसों को थरथरा रही थी. कुर्सी का सहारा लेकर वह उठा. कुछ देर फटी आँखों से  मुअज़्ज़िन की कोठरी देखता रहा फिर कुछ साँसें लेकर खड़ा हो गया. सीढ़ियों से उतर कर नीचे भटियारखाने में आया.

कड़ाही पर पूरियाँ देख कर अचानक उसे भूख लगी. उसे याद आया उसने पिछले बीस घंटों से ढंग से कुछ खाया नहीं है. सीढ़ियों के पास खड़ा वह गर्म पूरियाँ देखने लगा. घूँघट वाली, कम उमर और सांवली खाल वाली औरत ने उसे पूरियों की ओर ताकते देखा. उसकी नजरों को देखा जिसमें भूख, तड़प, याचना और लालसा थी. ‘‘खाओगे‘‘? उसने घूँघट के अन्दर से पूछा. अबू ने एक क्षण में पहचान लिया. यही वह आवाज़ थी जो गा रही थी. इसी का नाद ब्रह्म को नचा रहा थ. उसके साँवलेपन में सौन्दर्य का परिष्कृत सत्व था. यह उसकी आवाज़ में, चूड़ियों की घनघनाहट तक में उतर आया था. अबू ने चुपचाप सर हिला दिया. उसने तैयार रखे डिब्बों में से एक डिब्बा अबू की तरफ बढ़ा दिया. अबू ने आगे बढ़ कर डिब्बा ले लिया. वह चाहता था उसके पास फर्श पर बैठ कर, उसे पूरिया बेलते, देखते हुए, खा ले. वह समझ गयी. ‘‘बाहर बैठ कर खा लो.”

उसने घूँघट के अन्दर से अबू को देखा. आँखों में एक स्त्री की काँपती करुणा थी. वसंत की पहली सुबह की आहट भी थी, जो अभी धरती पर पूरी तरह नहीं उतरी थी. अबू डिब्बा लेकर भटियारखाने के बाहर आ गया. तख्त पर अब कुत्ते नहीं थे. तख्त खाली था. अबू उस पर बैठ गया. डिब्बे में जो भी था उसने धीरे-धीरे सब खा लिया. खाने के बाद उसने सामने लगे नल के पास कूड़े के ढेर पर खाली डिब्बा फेंका. नल पर हाथ धोए. झुक कर पानी पिया फिर सामने तख्त पर वापस आ गया. कुछ देर बैठा रहा. ठंडी हवा में उसे नींद आने लगी. इतनी तेज़ नींद कि अबू तख्त पर ही लुढ़का और सो गया.

 

 

7/

अबू के चेहरे पर कुछ बूँदें गिरीं. अबू की आँख खुल गयी. उसे अपने चारों ओर कुछ गुर्राहटें सुनायी दीं. फिर से बंद होती आँखों से उसने देखा. उसके ऊपर कुछ लोग झुके थे. बनैले… हिंसक. उनके होंठों के कोनों से लार टपक रही थी. वे अबू की पसलियों में उँगलियाँ चुभो रहे थे. अपने खुरों से उसे ठोकर मार रहे थे. तेज़ हवा में अबू ने उनके मुँह के थूक के साथ गिरते शब्द सुने. साला…पगला….. वे हँस रहे थे. हाथों में पत्थर उठा रहे थे. भागो… कोई अबू के कान में फुसफुसाया. वे पागल कुत्तों की तरह तुम्हें दौड़ा कर मारेंगे. भागो…. अबू ने अपने हाथों से उनके चेहरे हटाने की कोशिश की. वे अबू के चेहरे को नोचने के लिए नाखून जोड़े थे.

अबू ने पूरे बदन की ताकत लगायी. एक झटके के साथ अबू उठ गया. आँखें फाड़ कर उसने चारों ओर देखा. वसंत की पहली सुबह दीवारों, दरख्तों से नीचे उतर आयी थी. गलियों में अभी सन्नाटा था. एक पुराने पेड़ के फटे तने के अंदर कुकुरमुत्तों के गुच्छे उगे थे. इनके सिरे आगे से गिलहरी के मुँह की तरह संकरे थे. पेड़ की छाल पुरानी और चटकी खाल की तरह जगह-जगह नुची थी. नुची जगह में दीमकों ने घर बना लिए थे. अबू का पूरा बदन पसीने में भीग गया था. सीने में तेज़ दर्द और घबराहट महसूस हो रही थी. वह फिर तख्त पर लेट गया. उसने आँखें बंद कर लीं. इसी तरह पस्त वह देर तक लेटा रहा.

धूप अब उसके बदन पर गिर रही थी. कुछ देर बाद अबू ने अपने ऊपर छाँह महसूस की. माथे पर किसी का हाथ महसूस किया. उसने आँखें खोलीं. सामने उसी अधेड़ वेश्या का चेहरा था. हल्की मुस्कराहट से चमकता. उसने अबू का माथा सहलाया. अबू उसे माथा सहलाते देखता रहा. कुछ क्षण बाद अबू उठ कर तख्त पर बैठ गया.

उसने अपना एक हाथ औरत की तरफ बढ़ाया. उसने चुपचाप अबू का हाथ पकड़ लिया. अबू तख्त से उतर गया. उसका हाथ पकड़े, उन्हीं गलियों से लौटता हुआ अबू घर आ गया. उसका हाथ पकड़े हुए ही अबू घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा. उसके एक ओर वसंत की पहली सुबह और औरत के एक ओर नाचता हुआ मोर भी सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे.

______________________________

 

प्रियंवद
22 दिसम्बर 1952, कानपुर (उत्तर प्रदेश)

पुस्तकें: भारत विभाजन की अन्तः कथा, भारतीय राजनीति के दो आख्यान, पाँच जीवनियाँ, इकतारा बोले आदि (वैचारिक)
वे वहाँ कैद हैं, परछाईं नाच, छुट्टी के दिन का कोरस, धर्मस्थल (उपन्यास)
एक अपवित्र पेड़, खरगोश, फाल्गुन की एक रात (कहानी संग्रह)
प्रियंवद की कहानियों पर आधारित दो फिल्में अनवर और खरगोश प्रदर्शित.

अकार पत्रिका का कई वर्षों से नियमित संपादन-प्रकाशन और संगमन का समन्वय.

पता :
बी 204, रतन सैफायर 16/70, सिविल लाइंस कानपुर-208001

मो0. 9839215236
ई मेल- priyamvadd@gmail.com

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Comments 31

  1. ऋषि गजपाल says:
    4 weeks ago

    प्रिय कहानीकार प्रियंवद जी की बेहतरीन कहानी, अबू आंद्रे की खुजली, पढ़कर देर मंत्रमुग्ध रहा। अब उन्हें पढ़ते हुए पूरी संजीदगी और तन्मयता की जरूरत होती है। पिछले लगभग चालीस साल से उन्हें पढ़ते हुए कहानी के प्रति दिवानगी कायम है।

    Reply
  2. माताचरण मिश्र says:
    4 weeks ago

    दो चार दस कहानियां तो हिन्दी में कोई भी गढ़ कर कहानीकार हो जाता है परन्तु प्रियम्वद जैसे अफसानानिगार कहानियां गढ़ते नहीं सुनते हैं जैसे कोई सजीली दोशीजा क्रोशिए से तकिये के खोल पर महीन कढ़ाई करें या कोई नायिका हल्के शीत के दिनों में अपने प्रिय के लिए सब्ज पुलोवर बिने , प्रियम्वद अफसाने सुनते हैं शब्दों और दृश्यों और महीन से महीन अनुभवों को अफसाने बुनते हैं तो अबूआंद्रे गली पार करते किसी ऐसे आदमी को ढूंढ़ता है जो उसके पीठ की खुजली पर अपने संवेदनशील हाथों को फिरा उसकी पीठ पर एकाएक मचती हुई खुजाश को सहला दे, परन्तु सारे आकाश तले कोई उसे नहीं मिलता, खुजली होती रहती है और सारी दुनिया में उसे कोई एक आदमी नहीं मिलता,अजब परेशानी में वह घर में उसके लिए रोटी पाथती औरत से कहता है और वह डरते हुए उसकी पीठ सहलाती है जिसे घर के सामने रहने वाला कार्टूनिस्ट कार्टून बना उससे ज्यादा बिकने वाले अखबार में छपवा देता है जिसे घर में काम करने वाली औरत का शौहर देख लेता है,और काम छुड़वा देता है,अजब मशक्कत है ,बीस बीस घंटे भटकने के बाद भी उसे रोटी नहीं मिलती, पाठको इतनी बड़ी दुनिया में अकेला भटकता अबू आंद्रे कोई भी हो सकता है, मैं या तुम या कोई आप सचमुच अजब खुजली मची रही होती है और आसपास कोई नहीं मुअज्जिम की छत पर अबू फ़ज़ल की मजार भी पढ़ लेता है,राहचलते कोई औरत उसे कुछ पूरियां दे देती है ,,,वह खाके संतृप्त होता है , प्रियम्वद का जादू अफसाने को कुछ और गहरी चमक देता है, यही किस्सागो प्रियम्वद का जादू है जो पढ़ने वाले को आगे और आगे तफसीलों में इतनी बारीकी से बांधता है जैसे कोई जादूगर चादर ओढ़ कर सोने जमूरे से कहता है तेरी पीठ में खुजली हुई जमूरा बोलता है,हां उस्ताद हुई बहुत तेज हुई फिर मैंने क्या किया जमूरा बोलता है उस्ताद मैं अपनी लैला के पास गया उसने उसकी पीठ खुजाई,फिर दोनों हंसने लगे लैला और वह मजनू और वह उस्ताज उसकी पीठ में खुजली होती है वह किसके पास जाए,,,,,

    Reply
  3. अम्बर पाण्डेय says:
    4 weeks ago

    कहानी दो भागों में बँटी है— पहला खुजली और ख्याति, दूसरा उज्ज्वल स्याह और स्वप्न से बना। पहले भाग में तो एक प्रवेश द्वार जहाँ सिर बिल्कुल झुकाकर, इतना झुकाकर कि खोपड़ी जिसके अंदर दिमाग़ होता है वह भूमि से बिल्कुल रगड़ खाती हुई निकले, दूसरे भाग में फाटक क्या कोई पार्श्वद्वार, खिड़की, रोशनदान कुछ नहीं है, योगिनियों के मंदिरों की तरह यह बिना छत का घर है कहाँ ऊपर से कूदकर प्रवेश करना होता है।

    चरित्रहीनता क्या है? दूसरों से जो validation हासिल करना चाहता है वही चरित्रहीन है क्योंकि बिना दूसरे के उसे लगता है वह कुछ नहीं, आदमी देखे तो औरत को लगे वह है वरना अपने होने का भाव जाता रहे, औरतें तारीफ़ करे, आसपास मंडराए तो आदमी को लगे वह है नहीं तो ख़ुद को बिसरा दे जैसे वह है ही, उसका कोई चरित्र नहीं।

    पीठ की खुजली की तरह त्रासद होता है चरित्रहीन का जीवन और जो ख़ुद को खोज ले, मैं हूँ ही नहीं कुछ- जान ले तो प्रवेश करता है स्वप्नलोक में, जहाँ उज्ज्वल अँधेरा है, कविता है, प्रेमिका है और राग है।

    Reply
  4. सुधीर मोता says:
    4 weeks ago

    अद्भुत है। पढ़ता चला गया दौड़ते हुए। इसे धीमे धीमे नहीं पढ़ा जा सकता। हां, इस से गुजरने के अनुभव को लिखने के लिए रुक रुक कर ही शायद कुछ कहा जा सके। कविता हो या कहानी , पढ़ते हुए कहीं न कहीं अपने को उसमें देखें तो फिर कहना क्या , कहानी ने कह तो दिया!!

    Reply
  5. Rakesh Kumar Mishra @ North Gujarat says:
    4 weeks ago

    कथाकार के तौर पर आदरणीय प्रियंवद जी के पास थकान का कोई नामोनिशान नहीं है। पिछले दो दशक में उन्हें लगातार पढ़ते हुए नवीनता के कुछ नए अर्थ मिले हैं। कई स्तर पर वो अपने समकालीन लेखकों से एकदम अलग दिखते हैं। कहन और प्रवाह के कारण यह कहानी लम्बे समय तक मेरे साथ रहेगी। ‘समालोचन’ का हार्दिक आभार इस कहानी के लिए 🙂🙏🏻

    Reply
  6. Vinay Kumar says:
    4 weeks ago

    पढ़ते हुए सवाल उठा – यह खुजली क्या है – दमित कामना या खीझ या क्राई फॉर हेल्प ? क्राई फॉर हेल्प वाला ज़ाविया ज़्यादा मुखर लगा। खुजली की प्रवृत्ति भी घुसपैठिया (intrusive)। ऑब्सेसिव! यानी एक वजह है भीतर। इस “इचिंग” को मिटाने वाला“स्क्रैच” चाहिए। एक नन्हीं मगर बेचैन करती तकलीफ़ के लिए मिलती-जुलती ज़्यादा बड़ी तकलीफ़। इर्रिटेटिंग सेंसरी एक्टिविटी के लिए अधिक इरिटेटिंग सेंसरी एक्टिविटी।

    लॉस ऑफ़ लविंग/ लव्ड ऑब्जेक्ट हो सकता जड़ में – यह अंत में खुला। वास्तविक या आभासी मातृहीनता हो सकती वजह। अधेड़ वेश्या के घर जाना, सुकून महसूस करना – यहाँ यह संकेत। सोचने -समझने के बाद निराश होना और नर्स के पक्ष में निर्णय व्यावहारिक होने की कोशिश है, मसलहत का तक़ाज़ा। मगर अनकॉन्शियस का इच्छित वस्तु (ऑब्जेक्ट ऑफ़ डिजायर) कम उम्र की नर्स न थी। वह माँ का स्थानापन्न नहीं हो सकती थी। क़िस्मत वाला निकला अबू कि लेखक ने डिज़ायर्ड ऑब्जेक्ट परोस दिया और मन का मोर नाच उठा। ग्रेटिफिकेशन सम्पन्न!

    माहौल का बारीक़ रचाव देख लगा था कि कुछ अलग होने वाला है। मगर हम वहीं पहुँच गए। प्रियम्वद का प्रिय और पुराना इलाक़ा।

    Reply
  7. Astbhuja Shukla says:
    4 weeks ago

    मेरी समझ बहुत उन्नत तो नहीं फिर भी प्रियंवदजी का कथाकार दुनिया के अनेक अच्छे कथाकारों के बीच खड़े होने की दीप्ति से सत्यापित होता हुआ प्रतीत होता है।अबू आंद्रे की खुजली के लिए भी शुभकामनाएं।

    Reply
  8. Khudeja khan says:
    4 weeks ago

    अबू आंद्रे की मार्फ़त उसके घर,परिवेश, बस्ती से उसी तरह रुबरू होते हैं जैसे टर्की के किसी शहर का चित्रांकन। नेक बख़त इंसान का जीवन भी दूभर है संसार में।प्रतिद्वंद्विता ने काम करने वाली औरत छुड़वा दी।
    वही अकेलापन और असहाय बोध।पीठ खुजाने वाले यंत्र का जुगाड़ हो सकता है,साथ निभाने वाले साथी का निर्माण कोई नहीं कर सकता।
    आवश्यकता के कारण अपरिहार्य हों तो ख़ुजली की तरह उनका निदान भी उतना ही अपरिहार्य है।
    शराफ़त, ज़रुरत का विकल्प नहीं हो सकती।अबु का मोर ,स्त्री के बिना नहीं नाच सकता था। अब वो नर्स हो या वेश्या। यहां बाज़ी वेश्या ने मार ली अपनी समझ और अनुभव के बूते।
    कहानी अपनी छाप छोड़कर,ज़हन में ठहर जाती है।
    आभार।

    Reply
  9. Yogita Yadav says:
    4 weeks ago

    कहानी अद्भुत है। कई पाठ की मांग करती है। हर बार खुजली अपने नए अर्थ में खुलती है, और नायक अपने समय की सारी बैचेनियों के साथ यहां मौजूद है। वो जो शीर्षक या वाक्य बस यूं ही लिख दिए गए लगते हैं कहानी में, असल में कहानी में दाखिल होने का रास्ता वहीं से खुलता है। जो शिथिल होते समाज और आक्रामक राजनीति की चुभन भी साथ लिए चलता है।

    Reply
  10. Charanjit Sohal says:
    4 weeks ago

    Great….

    Reply
  11. दिनेश भट्ट says:
    4 weeks ago

    प्रियंवद जी की आज तक पढ़ी सभी कहानियों की तरह यह कहानी भी प्रभावित करती है। दृश्य विधान और कथानक को पाठकों की स्मृति में हमेशा के लिए स्थापित करने वाला अनोखा शिल्प और बहती हुई तरल भाषा। एकाकी जीवन जी रहे कई लेखक कलाकारों को हमने अपने अस्तव्यस्त जीवन की खाज मिटाने की दुरुहता के साथ देखा है।

    Reply
  12. अरुण कुमार असफल says:
    4 weeks ago

    कहानी पठनीय। इनकी ही एक कहानी ‘ बूढ़े का उत्सव’ याद आ रही थी। कुछ कुछ वैसा ही तिलस्म बुना गया है।

    Reply
  13. बजरंग बिहारी says:
    4 weeks ago

    सोचा था कि ‘अनामदास का पोथा’ से प्रियंवद की कहानी का साम्य तलाशूँगा लेकिन जल्दी ही इस विचार को झटक दिया। विवरण समृद्ध कहानी अपने पाठकों को कहीं ले जाने का इरादा नहीं रखती।
    अबू की नियति पर कभी करुणा और कभी क्रोध करता मन वसन्त की पहली सुबह में रम-सा जाता है।

    Reply
  14. पवन करण says:
    4 weeks ago

    मोहक कहानी है। बहुत अच्छी।

    Reply
  15. Mamta Sharma says:
    3 weeks ago

    प्रियंवद जी बेहद प्रिय रचनाकार हैं।उनकी कहानियों/उपन्यास को पृष्ठ दर पृष्ठ रम कर पढ़ा है।
    इस कहानी ने निराश कर दिया।
    कहानी दो बैठकों में पूरी हुई।
    कहानी में व्याप्त लिजलिजा पन सिहरन पैदा करता रहा ।
    प्रभावित न कर पाया।
    पढ़कर कष्ट हुआ!!
    क्षमा याचना सहित।

    Reply
  16. ललन चतुर्वेदी says:
    3 weeks ago

    समालोचन में प्रियंवद जी की कहानी आने की घोषणा के पश्चात उत्सुकता बनी हुई थी. इस कहानी को पढ़ना श्रमसाध्य काम था.फिर भी पढ़ा. मैं कोई आलोचक नहीं लेकिन पाठक के तौर पर निराशा हुई. कहानी का नायक पूरी तरह दिग्भ्रमित है. खुजली यदि मैं समझ रहा हूँ तो उसे दूर करने के लिए बाजार में अनेक यंत्र उपलब्ध हैं.बावजूद कथा-नायक उसे बनवाने के लिए ख़ासा परेशान है और भटक रहा है. बात केवल यह नहीं है. उतरार्ध तक आते-आते यह संकेत मिलने लगता है कि स्त्री पुरुष के लिए अपरिहार्य है. बड़े-बड़े सिद्ध-तपस्वी और पराक्रमी पुरुष भी स्त्री के सामने कातर हो उठते हैं. इसे मैं कोई बुराई नहीं कह रहा हूँ. .यहाँ भी कथानायक अंततः समर्पण कर देता है और यह पुरुष का नहीं बौद्धिक व्यक्ति का समर्पण है. दुखद यह है कि यह समर्पण बहुत बाद में हुआ है. इस दृष्टि से कहानी कुछ नया नहीं जोड़ पा रही है. जीवन में कुछ भी हो सकता है के लिहाज से देखें तो कहानी ठीक है. अंततः पुरुष पीड़ा का आख्यान रचती हुई यह कहानी कहीं स्त्री विमर्श की और तो नहीं मुड़ गयी.

    Reply
  17. Anonymous says:
    3 weeks ago

    प्रियंवद ऐसे ही विषय-शिल्प और ऐसी ही भाषाई जादू के लिए जाने जाते हैं। बहुत अच्छी बनी है कहानी।

    Reply
  18. Akhilesh Singh says:
    3 weeks ago

    प्रियंवद इसी जादू के लिए जाने जाते हैं। भाषा-शिल्प में लाक्षणिकता और समांतर फ्रेमों के अभिगामी रूप से विकसित होने के लिए। विषय उनके यहाँ हाशिए के भी हाशिए से आते हैं। या यूँ कहें कि न दिखती हुई परत के भी किसी असंभावित परत से उपजा विषय। बहुत सुंदर कहानी।

    Reply
  19. प्रिया says:
    3 weeks ago

    बहुत उम्दा कहानी।एक छोटे और साधारण विषय पर असाधारण कहानी रची है प्रियंवद जी ने।

    Reply
  20. Aditya Shukla says:
    3 weeks ago

    आकर्षक भाषा और रोचक बुनावट वाली कहानी. प्रियंवद जी का कहानी कहने का ढंग किसी भी नए लेखक के लिए नज़ीर होगा. भाषा और किस्से का ऐसा मिश्रण दुर्लभ है. कुछ सवाल – अबु आंद्रे कौन है? कहाँ का वासी है? कहानी में कहीं कहीं मर्दाना परवर्जन स्पष्ट है. आख़िरी हिस्सा उतना असरदार नहीं है जितना कि शेष।

    Reply
  21. Praveen singh says:
    3 weeks ago

    रोचक कहानी।अंत तक उत्सुकता बरकरार रही।अंत बहुत अच्छा था।मज़ा आ गई

    Reply
  22. डॉ. नीरज says:
    3 weeks ago

    कहानी विश्व की श्रेष्ठतम कहानियों में से एक कही जा सकती है l कहानी के महीन बिम्ब कल कल करती भाषा और कथानक कहानी को अद्भुत बनाने के लिए पर्याप्त है l आदमी के भीतर की खुजली एक ऐसी कमजोरी से अंतरसाम्य स्थापित करती है जिसे दूर करने के लिए लिए वह वह लगातार प्रयास करता रहता है,पर दूर नहीं कर पाता l प्रियंवाद की कहानी मानवीय संघर्ष और uskvभीतर के अंतरद्वन्द को को स्थापित करती है l सही मायने में कहा जाए तो कहानी का उद्देश्य श्रोता को आनंद पहुंचना होता है,कई बार कथाकार कहानी में सीख भरने के प्रयास में कहानी को रिपोरताज बना देता है प्रियंवद की कहानी जहां एक ओर जिज्ञासा प्रस्तुत करती है वहीं दूसरी ओर मध्यम वर्गीय चेतना को उजागर करने का प्रयास भी करती है l कहानी पढ़ते हुए मुझे बार-बार मेटामोरफोसिस की याद आ रही थी जहां एक क्लर्क का गोबरिला बन जाना और जीवन के लिए संघर्ष करना बताया गया है वही इस कहानी में भी खुजली के माध्यम से एक सामान्य मध्य वर्गीय व्यक्ति की परेशानियों को बताया गया है कहानी में वेश्या का पात्र और उसका सूक्ष्म वर्णन देखते बनता है सच मायने में कहानी पठानिय और और संग्रहणीय है l

    Reply
  23. त्रिभुवन says:
    3 weeks ago

    एक बहुत ही अच्छी और अलग तरह की कहानी है। मोहक है। अच्छी है। पठनीय इतनी है कि एक बार शुरू करो तो ख़त्म करके ही छोड़ें। यह कहानी जिस तरह मानवीय मनोवेगों को जिस तरह हेरती है, वह अद्भुत है। इसके लिए समालोचन और प्रियंवद जी को असीम शुभकामनाएँ।

    Reply
  24. राजनारायण बोहरे says:
    3 weeks ago

    प्रियंवद की अपनी शैली में लिखी यह कहानी दो बार के पाठ में भी पूरी तरह नहीं खुल पाई। यूँ भी हमारा हाथ ऐसी प्रतीकात्मक कहानी को समझने में तंग रहता है। लेकिन जितनी भी खुली उसने एक पाठकीय आनन्द से भर दिया। युवा नर्स और अधेड़ वेश्या के विकल्प में वैसे भी अबू को अधेड़ कामवाली के एवज़ में व्यवहार दक्ष वेश्या ही पुसाने वाली थी, भूख लगने पर युवा भटियारिन नशा पैदा करने वाला एक वक्त का खाना भले दे दे, मगर तृप्ति और जागरण तो वही अनाम अधेड़ वेश्या दे सकती थी, जो वसंत के साथ उसके घर की एक एक सीढ़ी चढ़ते हुए बेधड़क उसके अन्तः कक्ष में प्रवेश करने और पलँग के चादर पर मृत प्रायः पड़े मयूर को भी नचाने का हुनर जानती है। ग़ज़ब प्रियंवद जी।।।

    Reply
  25. Pravendra singh says:
    3 weeks ago

    Bahut achchi kahani

    Reply
  26. Sachin paal says:
    3 weeks ago

    Waah mza aa gyi kahani padhkar

    Reply
  27. Tasneem Khan says:
    3 weeks ago

    मैं हैरान हूं। पिछले दिनों में कई कहानियां, कई उपन्यास पढ़े। लगता है पढ़ने की खुराक अब पूरी हुई। इस कहानी का असर जेहन पर दिनों तक रहने वाला है। प्रियंवद जी अपनी हर नयी कहानी से पहले से ज्यादा चकित करते हैं।

    Reply
  28. जयराम जय says:
    3 weeks ago

    वास्तव में प्रियंवद जी की कहानियां अनूठी होती हैं।उसी क्रम में यह कहानी भी विविधा से भरी है।कहानी की रोचकता अंत तक बांधे रही।

    Reply
  29. Anonymous says:
    2 weeks ago

    कुछ समझ नहीं आया! ऐसी कहानी केवल लेखक गण ही पढ
    सकते हैं! आम पाठक के लिए ऊब पैदा करेगी!
    जादुई यथार्थ वाद की झलक है किंतु कनेक्ट मिसिंग लगा! डिटेलिंग की अधिकता पैराग्राफ को स्किप करके वाचन करने को मजबूर करती है!
    क्षमा करें! किंतु जो समझा, वहीं प्रतिक्रिया दी

    Reply
  30. Kumar Bijay Gupt says:
    2 weeks ago

    एक बेहतरीन कहानी। आद्ययंत रोचक।

    Reply
  31. Jaya Jadwani says:
    2 weeks ago

    अबू आंद्रे की खुजली – प्रियंवद

    प्रख्यात कहानीकार प्रियंवद ने अपनी कहानियों से एक बड़ा विशिष्ट पाठक वर्ग तैयार किया है, जो उनकी हर कहानी को बड़े चाव, बड़े लगाव से पढ़ता है. उनकी लगभग अबूझ और जटिल कहानियों से गुज़रना किसी घने जंगल में अकेले घुसने की तरह है, जहाँ आप कभी ऊपर से गिरती आड़ी-तिरछी रौशनी की शहतीरों से, कभी जमीन पर गिरे सूखे पत्तों पर खुदी अनसमझी लिपि से, कभी उबड़-खाबड़ ज़मीन, कभी मकड़ी के जालों, वृक्षों की जड़ों में बैठे अंधेरों, अनगिनत जानवरों और कीड़ों के संसार से जा मिलते हैं. कोई किसी से अलग नहीं है, सब पहले से ही घट रही एक मुख्य कहानी के किरदार हैं.
    उनमें उन मनुष्यों का संसार भी है, जो आम तौर पर हम सभी की निगाहों से ओझल रहते हैं. वे हैं तो सही, पर हमारी अपनी निगाह इतनी भोथरी हो गई है कि हम उन्हें देख नहीं पाते या कहें वे हमें दिखलाई इसलिए नहीं देते कि हम खुद उन्हें देखना नहीं चाहते पर प्रियंवद उनके संसार में बड़ी सहजता से समा जाते हैं, समाते रहे हैं. यही एक लेखक की अंतर्दृष्टि है.
    प्रियंवद की कहानी पढ़ने के बाद एकाएक कुछ कहा नहीं जा सकता. भीतर की नसों में पैठ गया वातावरण, संवाद और दृश्य देर तक पकड़े और जकड़े रहते हैं. यह कहानी पाठक पर गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ बनाती है. कहानी का लोकेल हमेशा की तरह विरल, विचित्र और प्रियंवद का प्रिय क्षेत्र रहा है. एक-एक दृश्य का वे तीक्ष्ण नज़र और संवेदनात्मक लय से इस तरह वर्णन करते हैं कि लगता है हम वहीं हैं, उसी ओस पर फिसलते, उसी खुरदुरी जमीन पर रपटते, उसी अंधेरे में घिसटते. ये कोई छोटा मोटा नहीं, बड़ा कमाल है.
    खुजली क्या है? एक ज़रूरत के नीचे दबी हुई चाह कि कोई उसे समझ ले, खुजला दे, सहला दे, और अबू जाता भी कहाँ है? जहाँ जा सकता है, जो उसी के भीतरी संसार का प्रतिनिधित्व करता है. ये चाह जब फूटती है तो चाहे कैसा भी सहलाव हो, कितना तीक्ष्ण और कष्टकारी हो, उससे गुज़रना लाज़मी हो जाता है पर भीतर मुलायम स्पर्श की चाहत बनी रहती है, तभी तो अबू खाना बनाने वाली के, झाड़ू से ही खुजला देने को, इतना बड़ा उपकार मानता है कि उसके प्रति ज़रूरत से ज्यादा नर्म और उदार बना रहता है.
    मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से खुजली अवचेतन में दबे हुए किसी असंतोष, इच्छा या दमन की शारीरिक अभिव्यक्ति है, इसे conversion कहते हैं. यह खुजली उस पात्र के भीतर दबे हुए, किसी भावात्मक या यौनिक तनाव की भौतिक अभिव्यक्ति है. और पीठ वह जगह है, जो खुद की नजरों से ओझल होती है, यानी ‘सेल्फ अवेयरनेस’ से बाहर. सो पीठ पर खुजली यानी उस अवचेतन क्षेत्र से कोई दबा हुआ भाव बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है. अब अबू चाहता है कि कोई उसे सहलाए या खुजला दे यानी एक अपूर्ण इच्छा को किसी और का स्पर्श चाहिए. अबू के भीतर अवचेतन रूप से स्नेह, स्वीकृति या शारीरिक निकटता की तीव्र चाह है, जो दबी रह गई है. वह जाने कब से ऐसी इच्छा को दबा रहा है, जो समय-समय पर अनियंत्रित होकर ऊपर आ जाती है और जब आ जाती है, वह किसी भी सूरत में इसका शमन चाहता है, तब वह और कुछ नहीं चाहता, चाह नहीं सकता.
    इसके अलावा खुजली अस्तित्वगत बेचैनी का प्रतीक भी हो सकती है, जिसकी संभावना इस कहानी में बिल्कुल नहीं है. संकेत भी हैं, अधेड़ औरत के खुजलाने से मोर का पंख फैलाकर नाच उठना और अंतिम द्रश्य में अबू का, उसका हाथ पकड़ कर घर की सीढ़ियाँ चढ़ना, जिससे उसे सर्वाधिक सुख मिला था. उसने सिर्फ यही चाहा है. उसका चुनाव इसी बात की ओर इशारा करता है. वह मिला हुआ असीम सुख उसे कुछ और सोच सकने की अनुमति नहीं देता. और औरत? कितनी भी जाहिल हो, एक तीसरी आँख होती है उसमें, वह आदमी को देखते ही समझ जाती है उसे चाहिए क्या आखिर? उसे कुछ कहना कहाँ पड़ता है? वह आदमी की ज़रूरत का क्षण पहचानती है और लपक लेती है.
    कहानी में अबू एक लेखक है. अच्छा लिखने के लिए खुद से जूझता भी है और अपनी ज़रूरत के हाथों मजबूर भी है. अगर किसी भी कहानी को किसी छलनी में छाना जाए तो जो सबसे बारीक पिसा हुआ चूरा है, वह लेखक का ‘आत्म’ नहीं है क्या?
    एक अच्छी कहानी के लिए लेखक को साधुवाद.

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