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समालोचन

Home » अमृता भारती : अशोक अग्रवाल

अमृता भारती : अशोक अग्रवाल

16 फरवरी 1939 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के नजीबाबाद में जन्मी लेखक, संपादक और अनुवादक अमृता भारती को अब न हिंदी की दुनिया जानती है, न नजीबाबाद के लोग. उनका जीवन किसी उपन्यास से कम नहीं रहा. साहित्य, कला और दर्शन में आजीवन रमी रहीं अमृता भारती का निधन 19 अक्टूबर 2024 को पुडुचेरी के श्रीअरविंद आश्रम में हुआ. वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल ने अपने इस संस्मरण में अमृता भारती की उपस्थिति को मूर्त कर दिया है. बिखरे रंग मिलकर एक मुकम्मल तस्वीर बनाते हैं. संस्मरण विधा को अशोक अग्रवाल ने इधर जीवंत कर दिया है. यह विशेष अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
May 22, 2025
in संस्मरण
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अमृता भारती : अशोक अग्रवाल
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अमृता भारती 
काल की खदान से उत्खनित एक पुराकृति

अशोक अग्रवाल

शुरुआत से पहले एक जरूरी उपकथा.

 

यह वर्ष 1968 का अक्टूबर रहा होगा. मैं एम. ए. प्रथम वर्ष का छात्र था. गांधी जन्म शताब्दी समारोह के आयोजनों की शुरुआत होने लगी थी. इस अवसर पर हमारे कॉलेज ने गांधीजी से संबंधित एक स्मारिका का प्रकाशन किया. इसमें हरिशंकर परसाई, दादा धर्माधिकारी और अन्य महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं का चयन किया गया था.

मेरे लिए सबसे अधिक विस्मित करने वाला इस स्मारिका का आवरण था. गहरे बैंजनी रंग की पृष्ठभूमि में गांधीजी की दांडी-यात्रा का सफ़ेद रंग की बारीक रेखाओं से उत्कीर्ण रेखांकन, जिसने स्मारिका को कलात्मक आकार प्रदान कर दिया था. स्मारिका के अंदरूनी पृष्ठ पर आवरण के कलाकार का नाम– अमृता भारती और स्मारिका के संपादक के स्थान पर प्रभात मित्तल का नाम छपा था.

अमृता भारती का नाम उनकी उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं के माध्यम से सुपरिचित था. प्रभात मित्तल का नाम मेरे लिए निहायत अजनबी. पास खड़े एक सहपाठी ने दूर से आते व्यक्ति की ओर संकेत करते कहा, यह प्रभात मित्तल हैं, कुछ समय पहले इस कॉलेज में वाणिज्य विभाग में प्रवक्ता पद पर आए हैं. छह फुट से भी अधिक लंबा कद, गौर वर्ण और इकहरा शरीर.

संयोग से उसी शाम मुख्य सड़क पर स्थित परिचित रमेश पान वाले की दुकान पर खड़ा मैं सिगरेट पी रहा था, उसी समय प्रभात मित्तल को उसी दुकान पर आते देखा. वह पान खाने के शौकीन थे.

मैंने उन्हें देखते ही बिना किसी संकोच के तपाक से पूछा, ‘आप अमृता भारती को कैसे जानते हैं?’

प्रभात मित्तल कुछ क्षण सकपकाए से खामोश रहे और फिर बोले,’अमृता भारती मेरी बड़ी बहन हैं.’

उन्होंने मेरा नाम पूछा. मेरे बताने पर उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आई,

‘जब मैं जबलपुर से हापुड़ के लिए निकला तो मन बेहद उद्वेलित और अनमना था. जबलपुर से एक छोटे कस्बे में आना बेहद खराब लग रहा था. ज्ञानरंजन ने मुझे दिलासा दिया कि तुम्हें वहाँ अकेलापन नहीं लगेगा. अशोक अग्रवाल और उनके कुछ साथी तुम्हें जबलपुर का अभाव नहीं होने देंगे.’

प्रभात उसी समय मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ घर ले आए. उनका किराए का घर मेरी गली से सटी दूसरी गली में स्थित था.

उस पहले दिन करीब दो-ढाई घंटे तक साथ रहा. प्रभात घर में अकेले थे. सत्या भाभी अपने मायके खुर्जा गई हुई थीं. वह स्थानीय आर्य कन्या डिग्री कॉलेज में इतिहास विभाग की अध्यक्ष थीं. उन्हीं के कारण प्रभात को अवसर मिलते ही जबलपुर से हापुड़ स्थानांतरित होने का निर्णय लेना पड़ा.

प्रभात मित्तल अत्यंत संवेदनशील, शालीन और सुरुचि संपन्न व्यक्ति थे. वार्तालाप के दौरान यह बात अत्यंत रुचिकर थी कि जो लेखक मुझे प्रिय हैं, उन्हें वह भी पसंद करते हैं. चाय उन्होंने खुद बनाई. लेपचू की ग्रीन पत्तियों का इस्तेमाल किया था. टिकौजी से ढके टीपॉट में सुगंधित चाय. दूध और चीनी पृथक-पृथक पाट में. इतने सम्भ्रांत तरीके से चाय पीने का यह मेरा पहला अवसर था.

प्रभात मित्तल संगीत प्रेमी थे. एचएमवी का पुराना रिकॉर्ड प्लेयर निकाला और उस पर सहगल, मास्टर मदन और हेमंत कुमार के गायन के रिकॉर्ड्स एक-एक करके सुनाने प्रारंभ किये.

यह संग-साथ नियमित दिनचर्या का अपरिहार्य हिस्सा बन गया. प्रभात मित्तल की जब भी कॉलेज की छुट्टियाँ होतीं तो अपने साथ मेरा भी लखनऊ का रिजर्वेशन करवा लेते. लखनऊ में उनके तीन भाई और सबसे बड़ी बहन रहती थीं. लखनऊ इतनी बार आना-जाना हुआ कि लगने लगा मैं भी इसी परिवार का एक सदस्य हूँ. उनकी पारिवारिक पारस्परिक बातचीत में मेरी उपस्थिति सहज स्वीकार्य हो गई थी.

वर्ष 1969 की कॉलेज की छुट्टियों में प्रभात का अमृता भारती के पास मुंबई जाने का कार्यक्रम बना. इस यात्रा के लिए उनके प्रस्ताव को मैंने खुशी से स्वीकार कर लिया.

मुंबई की यह यात्रा टुकड़ों-टुकड़ों में सम्पन्न हुई. सबसे पहले हापुड़ से इलाहाबाद, जहाँ छुट्टियों में ज्ञानरंजन जबलपुर से आए हुए थे. इलाहाबाद से जबलपुर, जहाँ प्रभात को हरिशंकर परसाई और अपने पुराने कॉलेज के कुछ सहकर्मियों से मिलना था. जबलपुर से उज्जैन, जहाँ उनके दूसरे नंबर की बहन विमला दीदी का निवास था. उनके पति उज्जैन विश्वविद्यालय में वाणिज्य विभाग के अध्यक्ष थे. उज्जैन से सीधे अपने गंतव्य-स्थल मुंबई.

 

एक)
अपार्टमेंट का दरवाजा खोलते ही प्रभात के साथ मुझ अजनबी को देख अमृता जी के चेहरे पर रूखापन लिए जो निस्पृहता का भाव आया, उसने मेरे भीतर संकोच का बीज अंकुरित कर दिया. महसूस हुआ, प्रभात के प्रस्ताव को स्वीकार कर मैं कोई भूल कर बैठा हूँ. अमृताजी अपने जिस एकांत में जी रही थीं, मेरी उपस्थिति निश्चय ही उसमें खलल उत्पन्न करने वाली थी. प्रभात का दस साल छोटे और पूर्णतया अपरिचित युवक को अपने साथ लाना उन्हें रुचिकर तो लगा ही नहीं होगा!

प्रभात मित्तल ने मुझे अपने पीछे-पीछे आने का इशारा किया. वह मुझे अपार्टमेंट की लॉबी में ले आया. उस लॉबी में एक शेट्टी, एक मेज़ और दो कुर्सियाँ रखी थीं. सामने की दीवार पर अमृता भारती द्वारा निर्मित दो ऑयल पेंटिंग्. लॉबी के बाहर एक छोटा खुला बरामदा. तीन-चार गमले जिनमें छोटे-छोटे नीले रंग के पुष्प खिले थे. यही शेट्टी मुंबई प्रवास में एक माह के लिए मेरा ठिकाना बनी.

आगामी सुबह बालकनी में चाय पीने के दरमियान अमृताजी से समकालीन लेखकों और पत्रिकाओं के बारे में कुछ जानकारियों का आदान-प्रदान हुआ. विभिन्न लेखकों की रचनाओं के बारे में पसंदगी-नापसंदगी की वजहें भी. चाय समाप्त होने तक आभास हो गया कि उन्होंने मेरी उपस्थिति को स्नेह और अनौपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया है.

 

०
सदाशिव हाउसिंग सोसाइटी के पाँचवीं मंजिल पर उनका दो बेडरूम का छोटा सा किराए का अपार्टमेंट था. उनके कलात्मक रहन-सहन का साक्षी अपार्टमेंट का चप्पा-चप्पा था. अपार्टमेंट की बालकनी से सांताक्रुज का रेलवे स्टेशन और उसके समीप एक पीपल का पेड़ दिखाई देता.

अमृताजी के अपार्टमेंट का नंबर 502 था और उसके ठीक सामने 501 अपार्टमेंट के आगे जयश्री टी. की नेम प्लेट लगी थी. जयश्री टी. का नाम उस समय की औसत फ़िल्मों में भड़काऊ नृत्यों के लिए जाना जाता था. पूरे एक माह के प्रवास के दौरान सीढ़ियों से उतरते-चढ़ते हमेशा उनके अपार्टमेंट की सांकल में ताला झूलते देखा.

धीरे-धीरे मेरा सानिध्य अमृता जी को प्रीतिकर लगने लगा. प्रभात की तरह मैं भी उन्हें दीदी कहकर संबोधित करता. वह अब मार्केट जाते समय या कहीं और किसी काम से बाहर निकलतीं तो मुझे अपने साथ चलने के लिए कहतीं.

एक बार जुहू के समुद्री तट पर घूमते हुए उन्होंने पूछा कि क्या तुम बलराज साहनी से मिलना पसंद करोगे? नहीं का कोई सवाल ही नहीं था. बलराज साहनी मेरे प्रिय अभिनेता थे. बलराज साहनी के जूहू पर निर्मित विशाल बंगले पर पहुंचे तो चौकीदार से उनकी अनुपस्थिति की खबर मिलने पर निराशा हुई. अमृता भारती ने एक कागज़ पर सिर्फ़ इतना लिखा कि अपने छोटे भाई के साथ आपसे भेंट करने की इच्छा से आई थी. गलती मेरी थी कि आपको पहले से सूचित कर देना चाहिए था.

दो दिन बाद बलराज साहनी का खुद का लिखा पोस्टकार्ड मिला, जिसमें खेद जताते हुए उन्होंने लिखा कि उन्हें क्षमा करें. उस दिन वह जरूरी शूटिंग के कारण घर से बाहर थे. आप अपने भाई के साथ जरूर आइए. इस बार एक पोस्टकार्ड द्वारा सूचित अवश्य कर दें, ताकि अपनी उपस्थिति सुनिश्चित कर सकूं. यह पत्र इतनी विनम्र भाषा में लिखा गया था जैसे सारा दोष उनका हो. उस मुंबई प्रवास में बलराज साहनी के घर दोबारा जाना संभव नहीं हो सका.

 

०
प्रभात ने पहले से ही बता रखा था कि अमृता भारती उन दिनों वाराणसी विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में महाकवि भवभूति के साहित्य पर शोधकार्य कर रही थीं, जब वह धर्मयुग में कार्यरत वरिष्ठ कवि के सम्मोहन में मुंबई चली आईं. उस समय उनकी आयु मुश्किल से चौबीस वर्ष की रही होगी. धर्मवीर भारती के संपादक पद पर नियुक्ति के बाद उस कवि ने त्यागपत्र दे दिया. वह खुद को धर्मवीर भारती से अधिक वरिष्ठ मानते थे. अमृता भारती मुंबई के एक प्राइवेट कॉलेज में संस्कृत विभाग में प्रवक्ता पद पर कार्य करने लगीं.

उक्त कवि को तीन-चार बार अपनी उपस्थिति में अपार्टमेंट के गलियारे से आते-जाते देखा. अमृता भारती से आयु से लगभग तीस साल बड़े रहे होंगे. गौरवर्णीय, रेशमी कुर्ता-पायजामा पहने, कंधों तक आते घुंघराले बाल, सुनहरे फ्रेम का चश्मा और बालकनी तक आती इत्र की खुशबू. जुहू से अगला स्टेशन विले पार्ले में उनका निवास-स्थल था.

उनके जाने के बाद अमृता भारती अवसाद में घिरी नज़र आतीं. ऐसे ही किन्हीं क्षणों में उनके मुंह से निकला होगा, ‘जिस समय मुझे इस व्यक्ति के संग-साथ की सबसे अधिक ज़रूरत महसूस होती है, इसे अपना घर और परिवार का स्मरण हो आता है.’

 

०
एक दिन बालकनी में बैठे अमृताजी ने अनायास पूछा कि क्या मैं राजकमल चौधरी की रचनाओं से परिचित हूँ ?

मैंने बताया कि राजकमल चौधरी मेरे प्रिय कहानीकार और कवि रहे हैं. अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले उन्होंने अपनी लंबी कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ का प्रकाशन एक पुस्तिका के रूप में खुद किया था. मेरा पता शायद उन्हें किसी लघु पत्रिका में प्रकाशित मेरी रचना से मिला होगा. उसमें एक पर्ची रखी थी, जिसमें लिखा था कि यदि मैं उस पुस्तिका का मूल्य मनीऑर्डर द्वारा भिजवा सकूं तो उन्हें खुशी मिलेगी. उन दिनों वह पटना के अस्पताल में सर्जिकल वार्ड में भर्ती थे. उसी दौरान उन्होंने ‘मुक्तिप्रसंग’ लिखने का कार्य किया. पुस्तिका का मूल्य मात्र दो रुपए था.

अमृताजी के चेहरे पर एक ऐसा अवसाद दिखाई दिया, जो अपने किसी प्रियजन की अनुपस्थिति के बाद आता है. उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि राजकमल से उनके पत्र- मैत्री के संबंध थे. राजकमल के पत्र बहुत सुंदर और गहन संवेदना से भरे होते.

अपनी एक स्मृति उस दिन उन्होंने साझा की. अपने एक पत्र में राजकमल ने लिखा कि वह उनसे मिलने वाराणसी गया था, तब तक तुम वहाँ से मुंबई जा चुकी थीं. मैं सिर्फ़ तुमसे मिलने के लिए मुंबई आ रहा हूँ. उस पत्र में राजकमल ने अपने आने की दिनांक और समय के बारे में सूचित किया था.

अमृताजी उस दिन बालकनी में बैठी टकटकी लगाए स्टेशन की दिशा में देखती रहीं. अधिक समय गुज़रने के बाद उन्होंने सोचा कि राजकमल ने यूं ही वह पत्र लिख दिया होगा.

अगले दिन राजकमल चौधरी का अंतर्देशीय पत्र, जो मुंबई सेंट्रल से भेजा गया था, उन्हें मिला तो वह विस्मित हो आईं. राजकमल ने अपने पत्र में लिखा था—

अमृता, मेरे न आने से तुम्हारी वह धारणा पुष्ट हुई होगी जो पूरे हिंदी संसार में अफवाह की तरह मेरे बारे में प्रचलित है. तुमने भी मुझे ग़ैर जिम्मेदार, झूठ बोलने वाला और अपनी बातों से अपरिचितों और विशेष कर लड़कियों को प्रभावित करनेवाला जैसा कुछ सोचा होगा.

मैं निश्चित समय पर आया था. तुम्हें बालकनी में बैठे किसी की प्रतीक्षा करते भी देखा. तुम्हारी निगाहें शायद स्टेशन के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे खड़े लाल शर्ट पहने आवारा से दिखते उस युवक की ओर पड़ी होगी जो सिगरेट पर सिगरेट फूंकता हुआ लगातार तुम्हारी बालकनी की ओर देख रहा था. बालकनी में बैठी आधी धूप में तुम्हारा चेहरा इतना पवित्र और निष्कलुष प्रतीत हो रहा था कि मैं तुम्हारे पास आने का साहस नहीं जुटा सका. मुझे लगा मेरी उपस्थिति मात्र ही उसे पवित्रता को नष्ट कर देगी. जब तुम बालकनी से उठकर भीतर चली गईं तो मैं भी मुंबई सेंट्रल चला आया.

मुंबई में ठहरने का अब कोई औचित्य या उद्देश्य भी नहीं है. मैं सिर्फ़ तुमसे मिलने आया था. कुछ देर बाद मेरी ट्रेन वाराणसी के लिए छूटने वाली है. यह पत्र मुंबई सेंट्रल से ही लिख रहा हूँ.
–राजकमल

०
मुंबई के उस एक माह के प्रवास में सबसे अधिक रेखांकित करने योग्य स्मृति जगदंबाप्रसाद दीक्षित से चर्चगेट के समीप सेंट जेवियर कॉलेज में मुलाकात की है. राजेंद्र यादव के अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘कटा हुआ आसमान’ ने मुझे बेहद प्रभावित किया था. कॉलेज के कंपाउंड में प्रवेश करते ही छात्र-छात्राओं को बेझिझक सिगरेट पीते, गलबहियाँ करते और उन्मुक्त वार्तालाप करते देख ‘कटा हुआ आसमान’ की पूरी पृष्ठभूमि मेरे सामने स्पष्ट हो गई.

जगदंबाप्रसाद दीक्षित का निवास जुहू तट पर बने एक बैरकनुमा घर में था, जिसमें एक कतार में बने बहुत सारे कमरों में एक कमरा उन्होंने किराए पर लिया हुआ था. कमरे का सारा सामान अस्त-व्यस्त और बेतरतीब बिखरा हुआ. जिस चारपाई पर वह सोया करते , उसी पर कुछ हस्तलिखित कागज़ फैले थे. यह उनके लिखे जा रहे दूसरे उपन्यास ‘मुर्दाघर’ के पन्ने थे. मुंबई के निम्नवर्ग के चकलाघरों में नारकीय जीवन जी रहीं धंधा करने वालियों की यथार्थ दास्तान. मेरे अनुरोध पर उन्होंने उस लिखे जा रहे उपन्यास के कुछ पन्नों का पाठ भी किया. स्टोप पर देर तक उबालते दो गिलास कड़क चाय बनाई, जिसका अपना अलग स्वाद था.

 

 

दो)
मुंबई से आए कुछ महीने ही व्यतीत हुए होंगे कि अमृता भारती का पत्र मिला. यह पत्र उन्होंने श्रीगणेशपुरी आश्रम से लिखा था, कि कुछ अपरिहार्य स्थितियों के कारण उनका मुंबई से यहाँ आना अनिवार्य हो गया. घर का सारा समान परिचितों के बीच वितरित कर दिया, जो शेष रहा उसे वहीं छोड़ अपार्टमेंट को स्थाई तौर पर खाली कर दिया.

अभी भी कुछ पेंटिंग्स और डायरियाँ मेरे साथ चली आई हैं, जिनके मोह से मुक्त नहीं हो पा रही हूँ. तुम किसी भी प्रकार, जल्दी से जल्दी, यहाँ चले आओ. वे वस्तुएँ ँ तुम्हारे सुपुर्द कर देना चाहती हूँ. इसके लिए प्रभात को भी लिख सकती थी, लेकिन भाई होने के नाते उसके और मेरे बीच कुछ सीमाएँ हैं.

पत्र में उन्होंने श्रीगणेशपुरी आश्रम पहुंचने का पूरा विवरण लिखा था. पत्र पाने के दो दिन बाद ही मैं वहाँ के लिए निकल लिया.

अनेक वर्ष राग- विराग के द्वंद, उलझनों और गुत्थियों की राह से गुज़रते हुए उन्हें श्रीगणेश पुरी आश्रम किसी शरण्यस्थली की तरह प्रतीत हुई होगी.

इतने उलझे हुए तार हैं
दुर्नम्य प्रतिरोध से लिपटे हुए
कि गुत्थी बन गया है
मेरा जीवन
न खुलता है
न सुलझता है
(अमृता भारती)

०
पत्र में लिखे निर्देशानुसार मुंबई सेंट्रल उतरकर लोकल ट्रेन से वसई रोड और फिर स्थानीय बस स्टैंड, जहाँ से गणेशपुरी के लिए बसें चलती थीं. उस एक घंटे के सफ़र में खिड़की से झांकते हुए पहली बार महाराष्ट्र के ग्रामीण जीवन के रंग देखे. मछलियों से भरी टोकरियाँ संभालते हुए कुछ मछुआरिनें भी सहयात्री थीं.

पहाड़ियों और गंधक के झरनों के बीच एक अवधूत सिद्ध के समाधि स्थल से पवित्र स्वामी मुक्तानंद का यह आश्रम बाहर की सड़क से ही प्रारंभ हो जाता. आश्रम में प्रवेश करते ही एहसास होता कि इसमें बहुत सी सीढ़ियाँ हैं और बहुत से सोपान. जिसे पर्यटकों की नज़रों से छुपा कर उनके लिए बनाया गया है, जो अपनी चेतना के उस मोड़ पर आ गए हैं, जहाँ से एक नई यात्रा शुरू होती है. इसे एक ऐसे सिद्धाश्रम की तरह भी देखा जा सकता था, जो पृथ्वी पर होकर भी आँखों से अगोचर रहते हैं. मुक्तानंद परमहंस के गुरु स्वामी नित्यानंद के बारे में स्थानीय व्यक्तियों के बीच यह प्रचलित था कि वह औघड़ संत थे और उस निर्जन अरण्य में हिंसक पशुओं के बीच स्वछंद विचरण करते थे.

०
आश्रम के कुछ नियम थे, जिनका पालन करना यहाँ आने वालों के लिए अनिवार्य था. आश्रम की छोटी पगडंडियों पर एक हाथी का छोटा शिशु स्वच्छंद रूप से विचरण करता. उसे सामने से आते देख आश्रमवासी सिर झुकाकर अलग खड़े हो जाते. सुबह के समय स्वामी मुक्तानंद परमहंस अपने हाथों से उसके मुंह में चॉकलेट पकड़ाते. एक शिशु के खुले मुँह की तरह उसकी सूंड स्वामी मुक्तानंद की हथेली से टिक जाती और उसकी आंखें खुशी की रोशनी से दिप्त.

०
उस आश्रम की एक अविस्मरणीय स्मृति:
दोपहर के सामूहिक भोजन के समय अपने सामने की कतार में बैठी सुप्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस को देख विस्मित हो आया. श्वेत रेशमी साड़ी पहने उनके चेहरे पर सादगी की वही चिरपरिचत आभा, जिसका सम्मोहन उनकी फिल्में देखते हुए होता था. उनका शरीर थोड़ा स्थूल हो आया था. स्वामी मुक्तानंद परमहंस अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे. विभिन्न देशों के नागरिकों के अलावा एक बड़ी संख्या महत्वपूर्ण और प्रभावशाली उन व्यक्तियों की थी, जो राजनीति, उद्योग और फ़िल्म जगत से जुड़े थे. इनका नियमित आगमन आश्रम के लिए एक सामान्य दिनचर्या थी.

०
अमृता दीदी ने अपनी कुछ पेंटिंग्स और एक बैग मुझे पकड़ाते हुए कहा, ‘इसमें मेरी कुछ डायरियाँ और अन्य जरूरी कुछ वस्तुएँ  हैं. हापुड़ ले जाने में कोई असुविधा नहीं होगी. इन्हें मेरी धरोहर समझ अपने पास रखना.’

 

 

तीन)
वर्ष 19 75 में अमृता भारती गणेशपुरी से हापुड़ चली आईं. सभी भाई बहनों में अमृता जी को सबसे अधिक लगाव प्रभात से था. उनके इस तरह आकस्मिक आगमन से मैंने अनुमान लगाया कि वह या तो परिवर्तन की इच्छुक थीं या आश्रम के संचालकों को विदेशी युवकों से अधिक वार्तालाप करना आश्रम के अनुशासन के विपरीत लगा होगा.

प्रभात के घर मुश्किल से कुछ दिन ठहरीं. उन्होंने राधापुरी में ही एक कमरे का घर किराए पर ले लिया. कुछ माह बाद दो किलोमीटर की दूरी पर दूसरी कॉलोनी में स्थानांतरित हो गईं. यह उनके एकांतिक जीवन के प्रति लगाव के कारण अपरिहार्य आदत में शुमार हो गया था. मेरा और प्रभात का कुछ समय के लिए उनके यहाँ जाना नियमित दिनचर्या हो गई.

वर्ष 1972 में संभावना प्रकाशन की शुरुआत के बाद अमृता भारती के तीन कविता संग्रह वर्ष 1975 में प्रकाशित हुए. ‘मिट्टी पर साथ-साथ’ और ‘आज या कल या सौ बरस’ बाद लंबी कविताएँ थीं. इन दोनों लंबी कविताओं के आंतरिक संसार में स्वामी मुक्तानंद और आश्रम की ध्वनियाँ सुनी जा सकती थीं.’ मैंने नहीं लिखी कविता उनकी फुटकर कविताओं का संकलन था. उनका पहला कविता संग्रह ‘मैं तट पर हूँ ’ वर्ष 1971 में सबसे अधिक प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था. तीन साल बाद उन्होंने दिल्ली जाना तय किया. इस बार भी कुछ जरूरी किताबों और कविताओं की डायरियों के अलावा सभी कुछ प्रभात को सौंप दिया. यह कहते हुए, कि इन इन सभी वस्तुओं का निपटारा वह जैसा करना चाहे करे.

वर्ष 1978 में मॉडल टाउन, दिल्ली में रहते हुए प्रणवकुमार बंद्योपाध्य के संयुक्त संपादन में साहित्यिक पत्रिका ‘पश्यंती’ के कुछ अंक निकाले. प्रणव के उच्च अध्ययन के लिए ऑस्ट्रेलिया जाने के बाद अमृताजी अरविंदो मार्ग पर स्थित श्रीअरविंद आश्रम में रहने चली आईं. श्रीअरविंद आश्रम की संचालिका तारा जौहर ने अमृता जी की इच्छानुसार एक पत्रिका की शुरुआत की, जिसमें प्रमुख रूप से श्रीअरविंद और श्रीमां से संबंधित सामग्री हुआ करती. पत्रिका के प्रकाशन के लिए एक प्रिंटिंग प्रेस भी लगवाया.

अमृता भारती की बड़ी बहन विमल गुप्ता भी श्रीअरविंद के विचारों से अनुप्रेरित होकर श्रीमां की अनुयाई हो गई थीं. ‘पंखों की उड़ान’ शीर्षक से उनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ था. श्रीमां के सानिध्य में रहने के लिए उनकी पुडुचेरी की यात्राएँ नियमित रूप से हुआ करतीं. उनकी सुविधा के लिए उनकी बेटी बेनू ने आश्रम के समीप एक निजी अपार्टमेंट क्रय कर लिया था. बेनू श्री अरविंद कॉलेज में अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता पद पर कार्य करती थी , जिसका निर्माण श्रीअरविंद आश्रम के परिसर में हुआ था. अपनी बुआ अमृता भारती के सहयोग से उसने श्रीअरविंद की कविताओं का हिंदी अनुवाद ‘महानिशा के तीर्थयात्री’ शीर्षक से किया. बेनू का प्रेम विवाह परंपरा के विरुद्ध अमृताजी के बड़े भाई और विमला दीदी के छोटे भाई जितेंद्र कुमार मित्तल के पुत्र निलय से हुआ था.

०
श्रीअरविंद आश्रम में रहते हुए वह निर्मल वर्मा के संपर्क में आईं. निर्मल वर्मा को भी उनका सानिध्य पसंद था, जिनके साथ वह विविध विषयों पर गंभीर चर्चा कर सकते थे.

एक बार निर्मलजी ने उनके कमरे में रखे पीतल के एक कलश को देखा. उसके ऊपर फूल पत्तियों की कलात्मक नक्काशी उत्कीर्ण हुई थी. निर्मलजी ने उसकी प्रशंसा की तो अमृतजी ने कहा, ‘आप इसे अपने साथ ले जा सकते हैं.’

निर्मलजी ने मुस्कुराते हुए इंकार कर दिया, ‘यह आपके इसी कमरे में शोभा देता है.’

अगले ही दिन अमृता जी उस कलश को निर्मल जी की बरसाती में पहुंचा आईं.

निर्मलजी के अलावा दिल्ली में रहते हुए उनके आत्मीय संपर्क कवि भवानी प्रसाद मिश्र से रहे, जिनकी कविताएँ निजी तौर पर उन्हें बहुत पसंद थीं. उनकी चुनी हुई कविताओं के एक संग्रह ‘शरीर, कविता, फसलें और फूल’ के संचयन के साथ उन्होंने उसका प्रकाशन भी निजी संसाधनों से किया.

उनके परिवार के अधिकांश सदस्य लखनऊ में रहते थे. लखनऊ उनका अक्सर आना-जाना रहता. लखनऊ प्रवास के दिनों में उनका श्रीलाल शुक्ल और कुंवर नारायण से मेल-मिलाप रहता. श्रीलाल शुक्ल अमृताजी के प्रति विशेष स्नेह और आदर रखते. उन्हीं की संस्तुति से अमृता भारती को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के ‘साहित्य भूषण’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

०
अमृता भारती जी के परिवार का मूल संबंध नजीबाबाद से था. साहू परिवार से उनके नज़दीकी संबंध थे. टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप के प्रबंध संपादक रमेशचंद्र जैन और ज्ञानपीठ के मुख्य संचालक श्री लक्ष्मीचंद्र जैन अमृता जी का सम्मान करते थे. उनके जीवित रहते उन्हें कभी भी कविताओं के प्रकाशन में कोई असुविधा नहीं हुई.

०
वर्ष 19 85 की एक दुर्लभ स्मृति:

श्री रमेशचंद जैन ने जयपुर घराने की सुप्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत की गायिका किशोरी आमोनकर के गायन का विशेष आयोजन अपने 4, तिलक मार्ग के विशाल बंगले में किया. पच्चीस के आसपास विशिष्ट आमंत्रित श्रोता रहे होंगे. अमृता भारती के अनुरोध पर मैं भी सुबह 8:00 बजे उनके निवास पर पहुंचा. सभी आमंत्रित श्रोता किशोरी आमोनकर के आगमन की व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहे थे. धीरे-धीरे एक घंटा व्यतीत हो गया. संचालकों की ओर से बार-बार यही बताया जा रहा था कि किशोरी आमोनकर के आगमन में विलंब हो गया है. इस समय वह विश्राम ले रही हैं और जल्दी ही मंच पर उपस्थित होंगी.

कुछ देर बाद किशोरी आमोनकर ने मंच पर विराजमान होते ही श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा,’ मैं बिल्कुल ठीक समय पर आ गई थी. देरी की जिम्मेदारी पूरी तरह आयोजकों की है, जिसके लिए उन्हें श्रोताओं से क्षमा याचना करनी चाहिए.’

सामान्य होते हुए उन्होंने अपने साथ आए तबलावादक की ओर संकेत करते हुए मीराबाई के एक भजन का आलाप भरा.

किशोरी आमोनकर का यह बेबाकपन, निर्भीकता और निस्पृहता हमेशा के लिए मन पर अंकित हो गई.

 

 

चार)
वर्ष 1995 में विविध विधाओं में लिखी हुई उनकी गद्य रचनाओं का संकलन ‘प्रसंगत:’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ. इस संकलन को उन्होंने प्रभात का स्मरण इन शब्दों से किया–

 

प्रभात को
जो अब नहीं है
बचपन की सरल स्मृतियों के साथ

प्रभात का रक्त कैंसर से आकस्मिक निधन मात्र 54 वर्ष की आयु में हो गया था. अमृता भारती के लिए भावनात्मक रूप से यह गहरा आघात था, जो अपने इस भाई में रोमेन रोलां के ज्याँ क्रिस्तोफ की छवि देखती थीं. इसी के साथ उनका हापुड़ आना हमेशा के लिए छूट गया.

एक जगह टिक कर रहना उनके मूल स्वभाव की प्रवृत्ति नहीं थी. जगह के साथ-साथ वह सारा सामान भी, जिसे उन्होंने लगाव के साथ जुटाया होता, पीछे छूट जाता.

‘प्रसंगत:’ के प्रकाशित होने के दिनों में वह बैंगलोर के नज़दीक ‘विवेकानंद केंद्र योग-अनुसंधान संस्थान’ के प्रशांति निलयम् में निवास कर रही थीं, जिसकी स्थापना नासा के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉक्टर नागेंद्र ने की थी.

यहाँ रहते हुए उन्होंने डॉक्टर नागेंद्र द्वारा लिखित महत्वपूर्ण पुस्तकों ‘आदि ऊर्जा प्राण’, ‘मनुष्य में प्राण के आयाम’, ‘नाड़ी-तंत्र एवं प्राण’ के हिंदी अनुवाद किये.

वर्ष 2006 में मेरा प्रशांति निलयम जाना हुआ. उससे दो साल पहले इस संस्थान को छोड़कर अमृता भारती पुडुचेरी चली आई थीं. इसका परिसर कई सौ एकड़ में फैला था. इस संस्थान को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्ज़ा मिला हुआ था, जहाँ पूर्वोत्तर भारत और श्रीलंका, थाईलैंड आदि विभिन्न देशों के छात्र योग और आयुर्वेद में अनुसंधान कर रहे थे.

परिसर में घूमते हुए पुस्तकालय भवन पर पर नज़र गई. इस पुस्तकालय की नींव अमृता भारती ने रखी थी. संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं की महत्वपूर्ण पुस्तकों के अलावा दो अलमारी हिंदी किताबों से भरी थीं. संभावना प्रकाशन की सारी पुस्तकें इसमें सम्मिलित देख खुशी का एहसास हुआ. भारतीय ज्ञानपीठ, राजकमल और अन्य प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित श्रेष्ठ किताबों का चयन किया गया था.

परिसर में घूमते हुए एक कॉटेज के सामने डॉक्टर नागेंद्र के नाम की पट्टिका देख उनसे मिलने का लोभ हो आया. अमृता भारती का उल्लेख करने पर डॉक्टर नगेंद्र के स्वर में उनके प्रति आभार और आदर का भाव उत्पन्न हुआ. उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि

‘अमृताजी विदुषी महिला हैं. हमारे संस्थान के लिए उनका योगदान अमूल्य रहा है. हमारी तो यही इच्छा थी कि वह यहीं निवास करतीं लेकिन पुडुचेरी और श्रीअरविंद आश्रम उन्हें अपने पास बुला रहा था. जब कभी पुडुचेरी जाना होता है तो उनसे एक बार मिलने का प्रयास रहता है.’

०
श्रीअरविंद आश्रम में रहते हुए उन्होंने श्रीमां के सानिध्य में कुछ समय व्यतीत किया. श्रीमां वर्ष 1973 में समाधिस्थ हो गई थीं. श्रीअरविंद आश्रम के प्रकाशन गृह से जुड़कर उन्होंने श्रीअरविंद की कुछ लंबी कविताओं के अनुवाद पुस्तिका रूप में प्रकाशित करवाये. ‘सानेट’, ‘बाजीप्रभु’, ‘उर्वशी’, ‘प्रेम और मृत्यु’, जिनमें प्रमुख हैं. इसके अलावा श्रीअरविंद की सौ से भी अधिक कविताओं के अनुवाद, जो नेशनल बुक ट्रस्ट से अंग्रेजी- हिंदी में प्रकाशित हुए. इन सभी का अनुवाद स्वयं उन्होंने किया था.

उनका एक महत्वपूर्ण कार्य श्रीअरविंद कृत नाटक ‘मुक्तिदाता परसीयस’ वृहद ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने इस नाटक का भारतीय एवं पाश्चात्य कला- दृष्टि से विशद विवेचन किया है.

 

पाँच)
एक लेखक का जीवन उसके लेखन में बिखरा रहता है. कभी स्पष्ट तो कभी अदृश्य. अमृताजी का लिखा उनका स्वानुभूत सत्य है, जिसके सहारे उनके लेखन और उन्हें किसी सीमा तक समझा जा सकता है.

‘सन्नाटे में दूर तक’ कविता संग्रह वर्ष 1992 और ‘आदमी के अरण्य में’ वर्ष 2006 में प्रकाशित हुए. वर्ष 2004 में प्रकाशित उनके संग्रह ‘मन रुक गया वहाँ’ के बारे में निर्मल वर्मा ने कहा था—

‘अमृता भारती मेरे विचार में, शायद आधुनिक हिंदी कविता के पटल पर सबसे अकेला हस्ताक्षर हैं.अकेला और अनूठा. बहुत वर्ष पहले जब उनकी कविताओं को पढ़ने का संयोग मिला था,तो गहरी विचलन की अनुभूति हुई थी. बिंबों का इतना विचित्र संयोजन पहले किसी हिंदी कविता में नहीं देखा था. यहाँ ऐंद्रिक मांसलता और अस्तित्वगत विकलता का अद्भुत मिश्रण था.आध्यात्मिक सुर्रियलिज्म? यदि ऐसी कोई चीज़ है, तो ये दो शब्द अमृता भारती के काव्य- संसार को सबसे सशक्त रूप में अभिव्यक्त करते हैं.’

‘मन रुक गया वहाँ’ का नवीन संस्करण वर्ष 2011 में संभावना से प्रकाशित हुआ.

अपनी ओर से कुछ टिप्पणी करने से बचते हुए मैं उन्हीं के लिखे कुछ अंशों को उद्धृत कर रहा हूँ. यह अदृश्य महीन धागों की बुनावट से अधिक कुछ नहीं.

 

०
मैं अपनी कविताओं में एक ऐसे अरण्य का अनुभव करती हूँ , जहाँ पहले कोई नहीं आया. आदमी का अरण्य मेरा अपना ही अरण्य है.

०
जब वह
मुझे लेकर चला–
मैं देश थी
जब उसने मुझे
ज़मीन पर उतार दिया–
मैं दरगाह बन गयी.
०
मैं अपने अंदर कुछ कीलें रखती हूँ
उलझन पैदा करने के लिए
और वहाँ ठहरती हूँ बारी से
मानो वे भी कोई मुकाम हों
०
नंगी सड़क पर चलना शुरू किया
जो कुछ ही दूर जाकर
एक सूखे कुएँ पर रुकती थी
जहाँ मुंढेर पर बैठे
बूढ़े जंगल
जोर- जोर से बात करते थे–

 

०
जीवन की रफ़्तार इस अर्थ में काफी तेज़ रही कि कभी रुकना नहीं हुआ, पड़ावों पर, वस्तुओं और व्यक्तियों के अंदर. जैसे सब हाथ से सरकता चला गया या झर गया. आज जिस निष्कर्ष के अंदर हूँ, वह भीतर की असम्पृक्त रहने वाली एक स्त्री का परिमंडल है.

खर्च हुई इतनी सारी स्याही के अंदर अगर कहीं कोई रोशनी की एक लकीर खिंच सकी है, तो उसे मैं कृतज्ञता की तरह स्वीकार करती हूँ.

०
मेरे अंदर महत्वाकांक्षा नहीं थी यह कहना गलत होगा, लेकिन मेरे अंदर की सारी महत्वाकांक्षाएँ एक ऐसे महत् नकार से क्षण भर में पुंछ जाती थीं, जिनका संबंध ईश्वर के प्रेम प्रसंग से था. आदमी के प्रेम में मैंने बहुत सी निचाइयों को पार किया है, लेकिन जब ईश्वर नायक हुआ, तो मुझे उन शिखरों को सहना पड़ा, जिसने मेरा दर्प हर अगले क्षण पहले से अधिक ऊंचा कर देता था.

०
स्मृति केवल भूतकाल की ही चीज नहीं होती, यह भविष्य में भी जुड़ी हो सकती है. दार्शनिक अर्थ में यह प्रत्यभिज्ञा है– एक ऐसा स्मरण जो भूत और भविष्य के साथ बिना किसी पूर्वापर के जुड़ा है. जिस तरह सुदूर अतीत के अंतरालों में कोई एक घटना अचानक हमारे वर्तमान पर आरेखित हो जाती है और हमें कुछ याद आ जाता है–कोई संबंध, कोई स्वजन, कोई स्थल या घटनाक्रम. उसी तरह ऐसा भविष्य के साथ भी होता है. अतीत के संदर्भ में स्मृति की और भविष्य के संदर्भ में पूर्वस्मृति की तीव्रता इसका कारण है.

 

०
यात्रा भी कितनी अजीब चीज़ है–हम चलते हैं और हमें पता नहीं होता. कोई भी थकान हमें अपनी यात्रा से अलग नहीं करती –कोई भी विश्रांति इसे रुकने नहीं देती. आवेगों के आवर्तों के अंदर, इच्छाओं की डोर से बंधे,या कभी किसी लक्ष्य की महत्वाकांक्षा को लेकर हम चलते रहते हैं पर जब कुछ भी ऐसा नहीं होता,तब भी हम चलते रहते हैं, बिना किसी अनुभूति और एहसास के.

अपनी हर निराशा, उदासी और अवसन्न्ता में मैंने इसी यात्रा को जाना है. जैसे भीतर की गहराई में कोई है जो चल रहा है. मेरे रुक जाने की, सब कुछ को अवरुद्ध करने की पूरी हट के बावजूद जो गतिशील है.

क्या यह विकास है –विकास क्रम की अनिवार्यता जो घटित होती रहती है प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से? या यह मैं हूँ स्वयं अपने ही अंदर– एक सुंदर छोटी सी आकृति– मेरा पूरा निचोड़, मेरा पूरा सारतत्व, मेरी पूरी वास्तविकता जो स्थिति के सहारे ही अंधेरों में संचरिणी दीपशिखा की तरह अग्रसर रहती है.

०
मेरे अंदर स्वतंत्रता की बहुत बड़ी आकांक्षा थी– एक ऐसी मुक्तता, जो हर किसी संचरण में व्यक्त हो– जो इतनी प्रबल और पूर्ण हो कि शरीर के अंदर से भी प्रकट होती प्रतीत हो– आंख की दृष्टि में, शब्दों में, हर चेष्टा में, पूरे व्यक्तित्व में. यदि कोई मुझसे पूछता, तुम्हें सबसे अधिक क्या प्रिय है तो मैं कह सकती थी– स्वतंत्रता व्यक्तित्व की स्वतंत्रता, व्यक्तित्व में प्रकाश, प्रेम आनंद की स्वतंत्रता– ज्ञान की स्वतंत्रता– शायद यह तत्व मेरे अंदर थे– इसलिए मैं स्वतंत्रता को इतना अधिक चाहती थी.

०
मैं अपने जीवन को टटोलती हूँ तो एक खोयापन हाथ आता है– एक भरे हुए मौसम में झरती हुई जीर्णता. कुछ भी ऐसा नहीं मिलता, जो सुंदर हो संपूर्ण हो और सुखद हो. जैसे एक भागा हुआ जीवन बार-बार पकड़ा जाकर किसी गर्त में मुंह छुपा लेता है– वैसे ही रहा सब कुछ. विस्मृति साथ नहीं देती– स्मृति आहत करती है.

०
एक ऐसी अनावश्यकता का अनुभव मेरे अंदर होता है जो एक लकीर को भी मेरे साथ नहीं रहने देता. गतिशीलता भी इसका कारण हो सकती है– एक ऐसी यात्रा जो कहीं भी मुझे रुकने नहीं देती और जो न मुझे गठरी बांधने देती है –मुझे अपने सामान को छोड़ते हुए चलना पड़ता है. जो पाथेय नहीं बन सकते, वे स्वाभाविक रूप से छूट जाते हैं– कहाँ– कब– वह स्थान– काल भी याद नहीं रहता- – –

०
अमृता भारती का वर्ष 2018 में रे माधव आर्ट प्राइवेट लिमिटेड से प्रकाशित कविता संग्रह ‘अंतिम पत्ती’ उनकी एक लंबी कविता या एक कलाकथा मात्र नहीं, उनका जीवनवृत्त भी है. उसके कुछ अंश उल्लेखनीय हैं, जिसके माध्यम से अमृता भारती के जीवन को कुछ-कुछ समझा जा सकता है:

 

प्रसिद्ध रचनाकार इरविंग स्टोन का
लस्ट फॉर लाइफ समाप्त क्या किया
कि जीवन की लौ ही हिल गयी.
पात्र के साथ तादात्म्य-भाव
मेरे स्वभाव की विवशता थी.
जब वान गाग
यह नाम असह्य हो गया
तो उपन्यासकार को एक पत्र लिखा
उत्तर भी आया
यह पत्र- मैत्री कुछ दिन रही.

०
मैं चाहे जब
नुक्कड़ के
मुक्तेश्वर महादेव के मंदिर में चली जाती
अंदर आंगन के
विशाल पीपल वृक्ष की परिक्रमा करती
उछलकर घंटा बजाती
और शिवलिंग पर चढ़े
सबसे सुंदर फूल
और अर्पित पेड़े को लेकर
भाग आती.

०
उत्तर लेख
_ _ _

मैंने
सार्थकता को
पृथक् कर लिया था
सफलता से.

कृतार्थता संपूर्ण थी
पूर्ण हुआ विराम चिन्ह.
कुछ दिन निकले थे
क्या मैं अब भी शेष थी,
मेरा कोई करणीय कर्म?

०
मैं
चित्रवीथि नहीं
मैं घर हूँ
न दीवार
न कोई आला ही

०
और दादी की यह गुलकारी की संदूकची
संपूर्ण अर्थ में है पुराकृति?
किसी में मेरी कोई निजता नहीं–
मैंने विचार किया
और उसे नगर के
पुरातत्व संग्रहालय में
एक पत्र के साथ भेज दिया.
सहर्ष स्वीकृति और
धन्यवाद का संदेश भी मिल गया.

और मैं?

एक संभावित विकल्प के साथ
मेरा परिचय और पता संलग्न है:

‘मैं भी एक पुराकृति हूँ
काल की खदान से
उत्खनित
एक मूर्ति–
अंतस् -तल पर
आलोकित
अपलक आसीन.’

या
मैं एक पत्ती हूँ
‘ऊर्ध्वमूलमअध:शाखम्’
इस संसार वृक्ष की.
किंतु अब वृक्ष नहीं
शाख नहीं,
केवल एक मैं
आकाश के पटल की
अंतरंग टहनी पर
अटकी
अंतिम पत्ती
‘अदन’ की.

 

छह)
सुदूर पुडुचेरी में स्थायी निवास करने से वह हिंदी के तथाकथित मुख्य संसार की धारा से छिटक गई थीं. उनके संपर्क सूत्र बहुत कम रह गए थे. संपर्कशीलता उनके मूल स्वभाव का तत्व था ही नहीं. उन तक पहुंचने वाली पत्रिकाओं की संख्या मात्र दो रह गई थी. उदयन वाजपेयी द्वारा संपादित ‘समास’ उनके पास नियमित पहुंचा करती, जिसमें उनके बहुत से शोध परक आलेख प्रकाशित हुए. दूसरी पत्रिका भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा संपादित ‘नया ज्ञानोदय’ थी, जिसमें उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहीं.

गगन गिल से उनके संबंध वर्ष 1978 में ‘ ‘पश्यंती’ के समकालीन कविता अंक के समय से बन गए थे. इस अंक में जो कवि किसी पत्रिका में पहली बार प्रकाशित हुए थे, उनमें गगन गिल के अलावा कवि उदय प्रकाश, स्वप्निल श्रीवास्तव आदि के अलावा बहुत बड़ी संख्या उन युवा कवियों की थी, जो आज के सुप्रसिद्ध नाम हैं.

निर्मल वर्मा के गगन गिल से विवाह के उपरांत यह संबंध घनिष्ठता में रूपांतरित हो गये. हम सभी की तरह गगन गिल भी उन्हें ‘दीदी’ कहकर संबोधित करती. संभवतः गगन गिल के माध्यम से उनका संपर्क ‘रे माधव प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड’ के मुख्य संचालक माधव भान से हुआ. माधव भान अमृताजी की रचनाओं से बेहद प्रभावित थे. उनके प्रारंभिक कविता संग्रहों को उन्होंने आकर्षक और कलात्मक रूप देकर पुनः प्रकाशित किया. राजकमल प्रकाशन द्वारा ‘रे माधव’ के अधिग्रहण के बाद, उसमें स्वीकृत सारी पांडुलिपियाँ राजकमल प्रकाशन को सौंप दी गईं. इन पांडुलिपियों में अमृता भारती की कई महत्वपूर्ण रचनाएँ थीं.

दो साल तक अमृता भारती उनके प्रकाशन की प्रतीक्षा करती रहीं और राजकमल की ओर से उन्हें आश्वासन मिलता रहा. जब अधिक समय व्यतीत हो गया, अमृताजी ने अभिषेक से उन्हें वापस लाने का आग्रह किया. दरअसल अब अमृता भारती को प्रकाशित करना जोखिम भरा काम था, जो उनके लिए किसी काम की नहीं रह गई थीं. संभावना के पूर्व सहयोगी अवधेश श्रीवास्तव, जो इन दिनों राजकमल के संपादकीय मंडल में काम कर रहे थे, के माध्यम से उन भारी भरकम पांडुलिपियों को हापुड़ लाया गया.

इन पांडुलिपियों में ‘मुक्तिदाता परसीयस’ जैसा महत्वपूर्ण ग्रंथ भी था, जिसका प्रकाशन संभावना ने किया. ‘आदिनाथ गाथा’ के अलावा ‘ जीवन को मैंने पहना ही नहीं’ कविता संग्रह भी संभावना ने अपने सीमित संसाधनों ने प्रकाशित किये.

100 से भी अधिक श्रीअरविंद की कविताओं के अनुवाद कमलकिशोर गोयनका की सहायता से नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित होना संभव हुआ.

कवि होने के साथ-साथ वह सूक्ष्मदर्शी कलाकार भी थीं. वर्तनी से लेकर आवरण तक उन्हें अपने अनुकूल चाहिए था, किसी भी प्रकार की त्रुटि उन्हें कविता को आहत करती प्रतीत होती.

वर्ष 2019 में उनका कविता संग्रह ‘भूमिका’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ. इसके आवरण से अमृता जी बेहद असंतुष्ट थीं. जब भी उनका फोन आता, वह शिकायत करतीं,

‘आवरण में जितने चटख रंगों का प्रयोग हुआ है, उसने मेरी कविताओं के मर्म को ठेस पहुंचाई है. वाणी प्रकाशन को कई बार फोन लगाया लेकिन वहाँ मेरी बात कोई नहीं सुनता.’

संयोग से, वर्ष 2020 के मार्च में, प्रकाशन संस्थान के संचालक हरिश्चंद्र शर्मा के अनुरोध पर उनके पोते के जन्मदिवस समारोह में शामिल होने दिल्ली जाना हुआ. मेरा दिल्ली जाना कोई आठ साल के बाद हुआ होगा.

भव्य बैंक्विट हॉल में शर्मा जी मुझे उस गोलमेज के चारों ओर बिछी कुर्सियों में एक खाली कुर्सी पर बैठा गये, उसी गोलमेज की अन्य कुर्सियों पर पल्लव और आनंदस्वरूप वर्मा पहले से विराजमान थे. कुछ देरी बाद वाणी प्रकाशन के स्वामी अरुण माहेश्वरी अपनी सदाबहार मुस्कुराहट के साथ मेरे पास आकर बैठ गए. वार्तालाप के बीच उन्हें अमृता भारती की शिकायत के बारे में बताया और कहा कि यदि संभव हो तो उसके आवरण को परिवर्तित कर दें.

अरुण माहेश्वरी ने निस्पृह भाव से मुसकुराते हुए कहा,  ‘अमृता भारती जी को यदि किताब के प्रकाशन से इतनी परेशानी है तो उनसे कह दें कि हम इस किताब को प्रचार और बिक्री से डंप किये देते हैं.’

अरुण माहेश्वरी के इस कहे को मैं किन शब्दों में अमृताजी तक पहुंचाता!

 

०
वर्ष 2016 तक अमृता भारती का साल में एक बार पुडुचेरी से कुछ दिनों के लिए अवश्य दिल्ली आना होता. उनका भतीजा निलय प्रतिष्ठित बिल्डर के रूप में अपना स्थान बना चुका था. दिल्ली की पाश कॉलोनी ग्रीन पार्क में उसने चार मंजिला भव्य कोठी का निर्माण करा लिया था. चंडीगढ़ में भी उसने एक आवासीय कॉलोनी का निर्माण किया था.

अमृता भारती की बड़ी बहन विमला जी के निधन के बाद उनकी भतीजी ने भी उनसे दूरी बना ली. अमृता जी फोन पर शिकायत करतीं, बेनू ने मुझसे कहा है कि अपने आने से 15 दिन पहले सूचित कर दिया करूं ताकि वह मेरे ठहरने की व्यवस्था कर सके. उसकी कोठी में कमरों की कोई कमी नहीं है. सबसे ऊपरी मंजिल पर चार-पांच घरेलू सहायक दिन-रात रहते हैं. यह उसका मुझे दिल्ली न आने का अपरोक्ष इशारा है.

अमृताजी के सभी भाई बहनों का निधन हो चुका था और उनके भतीजे- भतीजियों ने उनसे दूरी बना ली थी, जिनका मानना था कि अपनी इस हालात की ज़िम्मेदार वह ख़ुद हैं.

०
अमृताजी का स्वास्थ्य जब तक साथ देता रहा, वह नियमित रूप से श्रीअरविंद आश्रम की प्रकाशन संस्था से जुड़ी रहीं. उनकी चक्षु तांत्रिकाएँ शुष्क हो गई थीं, लिखने पढ़ने में मुश्किल आने लगी थी. नियमित अंतराल से उन्हें महंगे इंजेक्शन लगवाने होते. वह अब अपार्टमेंट में क़ैद होकर रह गई थीं. जब उनका फोन आता तो पार्श्व में किसी तमिलभाषी महिला की की मोबाइल पर जोर-जोर से बातें सुनाई देतीं. अमृता जी कहतीं, ‘यह भी अच्छी तरह जान गई है, मैं उस पर पूरी तरह निर्भर हूँ. मेरी बात को अनसुना कर देती है.’

०
वर्ष 2017 में सबसे बड़ा आघात उन्हें सुरेश की मृत्यु ने पहुंचाया. सुरेश हरियाणा का रहने वाला इंजीनियर युवक था, जो अमृता जी के साथ पुडुचेरी चला आया था, अपनी नौकरी और परिवार को छोड़कर. अमृता जी से वह 25 वर्ष छोटा रहा होगा. अमृता जी ने एक आश्रमवासी युवती से उसका विवाह करवाया और हस्तकरघा शिल्प की एक शॉप भी उसे करवाई. सुरेश के दो पुत्र हुए, लेकिन उसका मन घर-परिवार में नहीं लगा और वह अमृताजी के सानिध्य की इच्छा से उनके पास लौट आया. अपना कविता संग्रह ‘अंतिम पत्ती’ उन्होंने सुरेश को ही समर्पित की है, जिसे वह प्यार से ‘गनु बाबा’ कहकर संबोधित करतीं.

०

अमृताजी के पास अब सिर्फ़ शिकायतें और शिकायतें बची थीं. शिकायतें भाइयों बहनों के पुत्रों के बारे में या मित्रों के बारे में, जो बहुत कम रह गए थे. भारतीय ज्ञानपीठ के नए संचालकों के बारे में, जो अब कुछ भी उनकी परवाह नहीं करते थे. माधव भान के बारे में, जिन्होंने उनकी सबसे महत्वपूर्ण कविता ‘अंतिम पत्ती’ को प्रकाशित किया था कि उन्होंने पुस्तक की प्रस्तुति में उसे इतनी अधिक साज -सज्जा और फूल पत्तियों से भर दिया है, कि कविता की आत्मा ही खो गई है.

कभी गगन गिल के बारे में, जो अब उनके फ़ोन का उत्तर भी नहीं देती. गगन गिल को उन्होंने हमेशा अपनी छोटी बहन की तरह स्नेह किया था.गगन गिल के पास उनकी समस्याओं के समाधान का कोई विकल्प नहीं था. चुप्प रहना ही उन्हें ऐसे समय में राहत देता होगा.

कभी उनका आग्रह होता कि मैं किसी भी प्रकार कुछ दिन के लिए पुडुचेरी चला आऊ. ‘तुम्हारा हवाई यात्रा में 3 घंटे से अधिक का समय नहीं लगेगा.’उन्हें कैसे बताता कि मैं खुद स्वास्थ्य से लाचार घर में कैदी बन कर रह गया हूँ !
०
एक दिन उनका फोन आया कि उनकी एक बहुत सुंदर कविता, जो ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुई थी,उन्हें नहीं मिल रही है, जिसे उनके आगामी कविता संग्रह में सम्मिलित होना चाहिए. ‘नया ज्ञानोदय’ में मेरी कोई नहीं सुनता. तुम मधुसूदन आनंद से बातें करके उस कविता को तलाशने में मदद करो. भला, इसमें मैं उनकी क्या सहायता कर सकता था!

दरअसल, यह उस कवि की आखिरी इच्छा थी, जिसने अपने जीवनानुभवों के मंथन से कविता के आकार में अमृत की बूंदों को रचा था. भौतिक वस्तुओं से निस्पृह वह इन बूंदों को सुरक्षित रखना चाहती थीं.

०
अभिषेक के लिए वह अनदेखी बुआ थीं और वह हमेशा उन्हें बुआ से संबोधित करता. उनकी शिकायतों को सुनने का उसमें अजब धैर्य था.

वर्ष 2022 में उनका आखिरी कविता संग्रह ‘स्वप्नारोपण’ संभावना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ. मुदित रूप में इसे देख वह अत्यंत प्रमुदित और संतुष्ट थीं. अपने ‘दो शब्द’ में उन्होंने लिखा, ‘अपनी कविता में मैं अपने अंदर निरंतर बड़े हो रहे सत्य को शब्द दे सकूं, कवि के रूप में यही मेरी कृतार्थता है. कविताओं में यह सत्य अब भी हो, पर मेरे व्यक्ति में खोयापन है.- – – बरसों पहले कुछ कविताओं को पढ़कर निर्मल जी (निर्मल वर्मा) ने कहा था कि मैं संकलन का नाम ‘स्वप्नारोपण’ दूं. उनकी याद, उनका प्रेम अंदर है, उनके शब्दों का सम्मान भी और सर्वोपरि रूप से उनका स्मरण भी. इसलिए इस संकलन का शीर्षक ‘स्वप्नारोपण’ है. वे मेरी हर बात समझ लिया करते थे, आज भी समझ लेंगे.’

‘स्वप्नारोपण’ का आमुख में सुप्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी ने उनकी कविताओं की विशिष्टताओं को रेखांकित करते हुए लिखा–

‘दशकों पहले हिंदी कविता के परिदृश्य पर उपस्थित और सक्रिय अमृता भारती ने न सिर्फ़ अपने लिए बल्कि अपनी कविता के लिए उर्वर एकांत चुना– ऐसा एकांत जो अध्यात्म और कविता के बीच कहीं अवस्थित है.

‘इन कविताओं को पढ़ने से लगता है कि हम अपने जीवन से लुप्त हो गई पवित्रता के एक बार संवाद -सा कर रहे हैं : मन एक तरह की निर्मल आभा से भर उठता है. हम इस आभा में पहचान पाते हैं कि यह एकांतिक की विनयपत्रिका है, जिसे पढ़ने और जिससे विनय-विगलित होने का अनुभव हो रहा है. हमारे अंधेरे समय में कोई भी कविता इससे अधिक और क्या कर सकती है!’

यह यथार्थ विस्मित करता है कि एक कवि की जो सृजनात्मक विशिष्टता है, उसी के कारण उसकी रचनाओं को अनदेखा करते हुए साहित्य – संसार के मुख्य पटल से हमेशा के लिए अदृश्य कर दिया जाता है.

इतना विशद लेखन के बावजूद उन्हें
उपेक्षित किया गया. संभवतः वर्ष 2000 के बाद की पीढ़ी के लिए यह नाम सर्वथा अपरिचित हो.

 

सात)
19 अक्टूबर 2024 की सुबह मोबाइल पर एक संदेश प्राप्त हुआ, जिसमें अमृता जी के निधन की सूचना दी गई थी. संदेश में लिखा था कि आज सुबह अमृता जी ने शांतिपूर्वक अपनी अंतिम सांस ली. उनका पार्थिव शरीर अंतिम दर्शन के लिए आश्रम के प्रांगण में दोपहर के समय रखा जाएगा. आगामी दिन दोपहर को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.

उनके मोबाइल में जो गिने-चुने नंबर रहे होंगे उसी के आधार पर किसी आश्रमवासी ने उनके निधन का समाचार पहुंचाया होगा. शाहजहाँपुर में कॉलेज से सेवानिवृत्त उनकी भतीजी मीरा गुप्ता ने अपनी बुआ के निधन की सूचना देते हुए बताया कि लखनऊ से ताऊजी के छोटे पुत्र और उनकी पत्नी पुडुचेरी के लिए रवाना हो गए हैं.

अपनी उम्र के 85 वर्ष पूरा कर अमृताजी 86 वें और इसमें प्रवेश कर चुकी थीं.

०
पुडुचेरी का स्पर्श करते बंगाल की खाड़ी के किसी तट पर उनके पार्थिव शरीर की राख समुद्र की लहरों को समर्पित कर दी गई. उसी के साथ उनके मानस के तलघर में स्थाई रूप से डेरा डाले न जाने कितनी लालसाएँ, कितने पश्चाताप, कितनी ग्लानियाँ, कितने राग- विराग, परिजनों और जीवन में आए अंतरंग चेहरों की छायाओं के साथ और भी न जाने कितना अनकहा समुद्र की उमड़ती लहरों में सदा के लिए विलीन हो गए.

पीछे छूट गईं बंद अपार्टमेंट में अप्रकाशित कविताएँ, डायरियाँ और वे पत्र और कलाकृतियाँ जिनका मोह अभी तक उन्हें सहेजे हुए था.

यह स्मृति आलेख लिखते हुए उनके चार साल पहले फोन पर कहे स्वर मेरे कानों में निरंतर फुसफुसा रहे हैं – ‘तुम मुझे वचन दो कि कभी मेरे बारे में एक शब्द भी नहीं लिखोगे. तुम मेरे बारे में जानते ही कितना हो!’

I shall note die
Although this body, when the spirit tires
Of its cramped residence, shall feed the fires,
My house consumes, not l.
— Sri Aurobindo

वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण  कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस’ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक  से यात्रा वृतांत‘ तथा संस्मरणों की पुस्तक  संग साथ’ संभावना प्रकाशन’ हापुड़ से प्रकाशित है.

मोब.-८२६५८७४१८6

Tags: अमृता भारतीअशोक अग्रवाल
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Comments 32

  1. ललन चतुर्वेदी says:
    1 month ago

    इस मार्मिक और भाव भींगे संस्मरण को पढ़ते हुए लगा कि सारे वृक्षों को मनचाहा आकाश नहीं मिलता. अमृताजी की कुछ प्रभावकारी कविताएँ इधर-उधर पढने को मिली. अशोक अग्रवाल जी के संस्मरणों में आत्मीयता का राग होता है. इनको बार-बार पढने का मन होता है. राजकमल चौधरी वाला प्रसंग कितना पावन है. आह कवि …… सचमुच सच्चे कवि राजकमल और अमृता की तरह ही तो होते हैं.

    Reply
  2. Swapnil Srivastava says:
    1 month ago

    आपका संस्मरण पढ़कर भावुक हो गया. हापुड़ प्रवास में अमृता दीदी और प्रभात जी से नियमित मुलाक़ात होती थी.
    उन दिनों अमृता दी ने हापुड़ में अपना आवास बनाया था. मैंनें अपने जीवन में इतनी जीवट और जीवंत महिला को नही देखा है. अपनी मृत्यु के कुछ दिन पूर्व उन्होंने अपने दो कविता संग्रह भेजे थे जिस पर मैंने लिखा भी था. आपके इस संस्मरण से अमृता दी के बारे में अन्य जानकारिया मिली. आपने हापुड़ के दिनों की याद दिला दी. मैं यह भी जानता हूँ कि इस संस्मरण को कितनी तकलीफ से लिखा होगा.

    Reply
  3. Vinay Kumar says:
    1 month ago

    कोई अपना जीवन भी ठीक से लिख सके यह भी कहाँ हो पाता ।
    अपने मन की लिखी स्क्रिप्ट को जी पाना तो बड़ी बात।
    यह संस्मरण बहुत कुछ कहता है।

    Reply
  4. रवि रंजन says:
    1 month ago

    हिंदी साहित्य के आम अध्येताओं, शोधार्थियों एवं शिक्षकों को अमृता जी के जीवन एवं शब्दकर्म से परिचित करवाने के लिए अशोक अग्रवाल जी को बहुत बहुत धन्यवाद.
    उम्मीद है कि इस आलेख को पढ़कर कोई युवा अध्येता अमृता जी के शब्दकर्म के मूल्यांकन में प्रवृत्त होगा.

    Reply
  5. प्रकाश चंद्रायन says:
    1 month ago

    मर्मराग है यह स्मरण

    Reply
  6. मनोज मोहन says:
    1 month ago

    लेपचू चाय की खूशबू, जयशंकर जी द्वारा दी गयी अमृता भारती की किताब के साथ स्मृति में यह संस्मरण भी दर्ज हुए जा रही है…

    Reply
  7. श्याम बिहारी श्यामल says:
    1 month ago

    स्मृति-शेष रचनाकार अमृता भारती के अंतर्संघर्षों से पूरित व्यक्तित्व को अशोक अग्रवाल के स्मृति-लेख ने जिस संवेगात्मक आवेग के साथ साकार उपस्थित किया, इसका साक्षी बनना जीवंत अनुभव बना।

    अमृता जी की चयनित रचनाओं की भी भविष्य में ‘समालोचन’ में प्रस्तुति संभव हो तो नए पाठकों को लाभ होगा।

    अशोक जी को प्रभावशाली अभिव्यक्ति की बधाई! आवश्यक प्रस्तुति के लिए ‘समालोचन’ का आभार!

    अमृता जी की स्मृतियों को असंख्य नमन! 🌺🙏

    Reply
  8. तेजी ग्रोवर says:
    1 month ago

    मैं चाहे जब
    नुक्कड़ के
    मुक्तेश्वर महादेव के मंदिर में चली जाती
    अंदर आंगन के
    विशाल पीपल वृक्ष की परिक्रमा करती
    उछलकर घंटा बजाती
    और शिवलिंग पर चढ़े
    सबसे सुंदर फूल
    और अर्पित पेड़े को लेकर
    भाग आती.

    अमृता जी की कविता से जो अनभिज्ञ रहेगा वह अपनी काव्य यात्रा सम्पन्न कैसे करेगा?

    Rustam Singh ने उनकी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद अशोक वाजपेयी और स्वयं द्वारा संपादित पत्रिका HINDI: LANGUAGE DISCOURSE WRITING में छापे थे। अमृता जी को उन दिनों पढ़ने वाले दोस्त मौजूद थे, अब भी हैं।

    Reply
  9. रुस्तम सिंह says:
    1 month ago

    श्री अशोक अग्रवाल हिन्दी के बड़े लेखकों में हैं। ख़ास तौर पर संस्मरण विधा में उनका कोई सानी नहीं। उनकी भाषा, उनकी शैली, जिस तरहं वे स्मृतियों को रखते हैं, पिरोते हैं, यह सब मुझे प्रिय है। काफ़ी समय से कविता के अलावा मैंने हिन्दी लेखन को पढ़ना बन्द कर दिया था। लेकिन श्री अशोक अग्रवाल ने मेरी रुचि को फिर से जगा दिया है।

    यह भी कह दूँ कि जब मैं हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित अँग्रेज़ी पत्रिका Hindi: Language, Discourse, Writing का संस्थापक सम्पादक था तो मैने 2000 के आसपास अमृता भारती की कविताओं के अँग्रेज़ी अनुवाद करवाये थे और प्रकाशित किये थे।

    Reply
  10. Garima srivastava says:
    1 month ago

    अशोक अग्रवाल जी से सीखने को बहुत कुछ है।बेहद मर्यादित शब्द चयन के साथ अंतरंग अनुभवों को चित्रित करना ऐसे कि पाठक एक गहरी अवसन्नता में चला जाये,ऐसा संस्मरण लिखना जो पूरे साहित्यिक समाज पर एक बेधक टिप्पणी के रूप में,प्रश्नचिह्न के रूप में हम सबके सामने खड़ा हो।चाहकर भी हम इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकते कि क्यों अतिशय प्रतिभाशाली लोग अपने एकांत की परिणति में अभिशप्त आत्माओं जैसे इस वायु मंडल में तैरा करते हैं,उनके लिए कोई हाथ नहीं उठता,उनकी पुकार सुनने के लिए कोई कान नहीं होता।मशहूर प्रकाशकों के लिए वे लाभ का सौदा नहीं। सगे -संबंधी भी उनसे किनारा कर लेते हैं और वे रह जाते हैं पुस्तकालयों की रैक में सजे किसी अगली पीढ़ी के इंतज़ार में।

    Reply
  11. साधना अग्रवाल says:
    1 month ago

    अशोक जी को हार्दिक बधाई कि उन्होंने अमृता भारती को इस तरह याद किया है। राजकमल जी वाला प्रसंग अद्भुत है। भविष्य में अमृता जी पर शोध करने के लिए भरपूर मात्रा में उन्होंने सूत्र दे दिए हैं। बेहतरीन संस्मरण।

    Reply
  12. Matacharan Mishra says:
    1 month ago

    अमृता भारती पर एक मुकम्मल संस्मरण जो सिर्फ इतनी आत्मीयता से अशोक अग्रवाल जी ही लिख सकते थे, प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय की पश्यन्ती में मुझे भी प्रकाशित होने का सुअवसर मुझे भी हासिल हुआ था ,वे पश्यन्ती में प्रणव जी के साथ रही हैं, प्रणव अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे , उनके उपन्यास और काली माटी की कविताएं अभी भी याद हैं, हिंदी संसार और उसके संस्कार हीन प्रकाशक प्रणव और अमृता को क्यों याद करें उन्हें मोटी थैलियों वाले अफसरों और किताबों की तिजारत करते लोगों की जरूरत रहती है,,,,,

    Reply
  13. नरेश गोस्वामी says:
    1 month ago

    पढ़कर अवसन्न हूं कि यह जीवन कहां से शुरू होता है, और कहां चला जाता है! अमृता जी का निर्जन कितना दुर्निवार रहा होगा— जैसे वे स्थायित्व नहीं, हमेशा एक अनागत एकांत की खोज में रहती थीं। कैसा रहा होगा वह मन जिसे एक समय के बाद पिछला एकांत भी जनाकीर्ण महसूस होने लगता था!
    अशोक अग्रवाल जी इस संस्मरण में अमृता जी के उचाट जीवन को दूरस्थ सलंग्नता से देखते हैं।
    मुझे लगता है कि इधर के संस्मरणों में वे बड़े ही सहज ढंग से कुछ नए प्रयोग भी कर रहे हैं। मसलन, ‘वन्याधिकारी…’ नामक पिछले संस्मरण में वे एक अज्ञात और अदृश्य दर्शक की तरह निरंतर मौजूद थे लेकिन इस बार उनकी उपस्थिति न्यूनतम है।
    इस बार अशोक जी स्मृति का दिया जलाकर वापस लौट आएं हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि संस्मरण के केंद्र में या तो ख़ुद अमृता जी हैं या फिर उनके जीवन का अनकहा!
    यह दूसरे के जीवन को उसकी आंतरिकता, स्वायत्तता और समग्र निजता में देखने की दृष्टि है।

    Reply
  14. राजाराम भादू says:
    1 month ago

    मुझे उनके इस संस्मरण की उत्कट प्रतीक्षा थी। अमृता भारती मेरे जेहन में एक अटका हुआ नाम था। इसे समुचित रोशनी अशोक जी के संदर्भों से ही मिली थी। उनके संस्मरण में व्यक्ति के व्यवहार का ही चित्रण नहीं होता, बल्कि उसके सोच और अंतरंग की दीप्तियां भी होती हैं जिन्हें संवेरना दुर्लभ क्षमता है। अपनी तरह के सृजक व्यक्तित्वों को लेकर अशोक जी में एक अदम्य आकर्षण रहा है। उन्होंने अपने जीवन क्रम को बाधित कर उनका साहचर्य हासिल किया है। उन्हें समझा है और उनकी विशिष्टता तथा सनकों के बावजूद उनसे अपने रिश्ते निभाये हैं।
    अब हमें अपनी तरह की उन प्रतिभाओं से अशोक जी के संस्मरणों के जरिए ऐसा परिचय मिल रहा है कि हम उन्हें उनकी सम्पूर्णता में समझ पा रहे हैं। कहते हैं, किसी के संपर्क- क्षेत्र से खुद उसके बारे में भी जाना जा सकता है। इस तरह अशोक जी के संस्मरण उनके बारे में भी काफी कुछ बताते हैं। इस श्रृंखला के लिए श्रेय समालोचन को भी जाता है।

    Reply
  15. रूप सिंह चन्देल says:
    1 month ago

    आत्मीय आभार अशोक जी, अमृता जी पर संस्मरण पढ़वाने के लिए। हिन्दी साहित्य की यह विडंबना है कि अमृता जी जैसी रचनाकार की मौन साधना पर लोग चुप्पी साध लेते हैं। बहुत जीवंत संस्मरण। आपने संस्मरण विधा को समृद्ध किया है। सं-साथ जल्दी ही मंगाऊंगा।

    Reply
  16. तेजी ग्रोवर says:
    1 month ago

    अमृता जी के जीवन और सृजन को आलोकित करने वाली यह तहरीर विलक्षण है।

    विस्मृति के अथाह समुद्र में अपना पूरा अस्तित्व झोंककर स्मृति के नाम पर जो संस्मरणकार को मिलता है उसी से पता चलता है वह किस गहराई का बाशिंदा है। फिर भी वह प्रकाश वृत्त को क्षण भर भी अपने ऊपर टिकने नहीं देता। जो दिखता है वह है सम्बन्ध का पूरी शिद्दत से निर्वाह करने की सामर्थ्य… जो दिखता है वह है करुणा में डूबी हुई एक ऐसी दृष्टि जो दुर्लभ है

    अमृता जी एकांतप्रिय भले ही रही हों, लेकिन उनके भीतर सखा-सहोदरों को नेह देने की अपार सामर्थ्य थी। उनकी कविता उनके जीवन की वैसी ही एकान्तिक छवि प्रस्तुत करती है जैसी एमिली डिकिन्सन की कविता।

    बहुत दुख हुआ जानकर बड़े प्रकाशकों के लिए वे धन कमाने का साधन न बन पायीं!!!😢.अशोक जी के परिवार ने संसाधनों के अभाव में भी उनकी कृतियों का आदर किया, उन्हें छापा।

    अब समय आ गया है कि अमृता जी का जो कुछ भी आउट ऑफ प्रिंट है उसे सबके सहयोग से दोबारा छाप दिया जाए। किसी ईमानदार प्रकाशक से यह काम बिना सहयोग के न हो पायेगा।

    हिंदी की युवा पीढ़ी को अमृता जी के सृजन से वंचित नहीं रहना चाहिए।

    इस संस्मरण के अन्त में जो अशोक जी ने लिखा है, वह वे मुझे पहले से बता चुके थे। पता नहीं इस बात को इतनी कलात्मक युक्ति से वे अन्त तक बयान करने से ख़ुद को कैसे रोक पाए।

    Reply
  17. हरिमोहन शर्मा says:
    1 month ago

    अमृता जी का नाम भर सुना था। कभी उन्हें पढ़ने जानने का अवसर नहीं मिला ।उनके जीवन और उनकी रचना-धर्मिता को बेबाक व निस्पृह ढंग से साकार करने के लिए अशोक जी और समालोचन का शुक्रिया ।–

    Reply
  18. हीरालाल नागर says:
    1 month ago

    अमृता भारती पर अग्रज अशोक अग्रवाल जी का यह संस्मरण यों पढ़ता गया कि मैं इनके सभी पात्रों को अच्छी तरह जानता हूं। इनमें से किसी से भी मिलने का अवसर नहीं मिला -प्रणव बंद्योपाध्याय को छोड़कर। उन दिनों जब पढ़ने का शौक चर्राया हुआ था। पहृल और अन्य
    पत्रिकाओं के साथ पश्यंती भी नियमित आती थी और पढ़ता था। तब से मैं अमृता भारती और प्रभात कुमार मित्तल को जानता था। उन दिनों एक बार जब दिल्ली आना हुआ तो प्रणव बंद्योपाध्याय से मिला और दूसरे व्यक्ति थे-गीतकार मधुर शास्त्री। बहरहाल, अमृता भारती पर यह आलेख मुझे इसलिए भी अच्छा लगा कि लेखक ने बड़ी ही आत्मीयता के साथ एक स्त्री के प्रेम, संत्रास, घुटन के साथ उसकी आत्म जीविता जिजीविषा को परखने में महत्वपूर्ण काम किया है। अमृता जी के व्यक्तित्व में साधारण कवि और लेखक का मानस अवस्थित
    नहीं था। इस कारण उनको समझ पाना भी साधारण नहीं था। जो हो, अमृता जी के न रहने पर अशोक अग्रवाल जी के लेख में उनके विचार के वंदनवार गहनता में आकर्षित करते हैं।
    संभावना प्रकाशन से उन पर कोई किताब आ भी सकती है-ऐसा मैं सोचता हूं।

    हीरालाल नागर

    ।

    Reply
  19. Jeeteshwari Sahu says:
    1 month ago

    अशोक अग्रवाल जी ने अमृता भारती पर लिखे अपने इस अविस्मरणीय संस्मरण में यह सच लिखा है कि सन् 2000 के बाद की पीढ़ी के लोग अमृता भारती को नहीं जानते हैं। मुझे अपनी अज्ञानता और हिंदी की इस महान कवि की किसी भी रचना को अब तक नहीं पढ़ने का बहुत दुख है। अशोक जी से निश्चय ही यह ग्रहण करने वाली बात है कि वे हर रिश्तों का कितना अधिक सम्मान करते हैं और उनकी स्वतंत्रता का भी कितना खयाल रखते हैं। अमृता भारती के जीवन और रचनाओं से आज परिचित होकर मैंने बहुत कुछ अपने जीवन को भी उनकी दृष्टि से देखने की कोशिश की। अशोक जी आपके लिखे इस संस्मरण पर मैं क्या टिप्पणी करूं। आपने हमारे समय में अमृता भारती को याद कर जो टिप्पणी की है वह हिंदी साहित्य में किसी अमूल्य धरोहर से कम नहीं हैं। एक स्त्री का जीवन, एक कवि का जीवन, अमृता भारती स्त्री और वह भी विदुषी जिन्हें कभी न किसी वस्तु को संजो कर रखने की आवश्यकता होती थी और न एक जगह टिकने की। यह जीवन को जीने की और अपनी रचनाओं में खुद को एक अलग ढंग से प्रस्तुत करने की उनकी अपनी खासियत थी जो उन्हें अपने समकालीन कवियों, लेखकों से अलग करती हैं। आप अपने हर संस्मरण में ऐसा जादू करते हैं कि उसके सम्मोहन से बाहर आना बहुत मुश्किल होता है। आपकी भाषा एक शांत मद्धिम गति से चलने वाली नदी की तरह है जो अपने बहाव में पाठक को भी साथ लेकर चलती हैं। अमृता भारती पर लिखा अशोक अग्रवाल जी का यह संस्मरण मेरे लिए संगीत के किसी ऐसे राग की तरह है जिसकी धुन अब हमेशा मुझे सुनाई देती रहेगी। अशोक अग्रवाल जी ने अमृता भारती के जीवन और उनकी रचनाओं को जिस समग्रता में याद किया है वह हम युवा पीढ़ी को भी यह सीख देती है कि हमें अपने समय के बड़े लेखकों के साथ कैसे रहना चाहिए और उन्हें कैसे अपनी स्मृति में सदा-सदा के लिए कैद कर लेना चाहिए।
    इस अद्भुत एवं स्मरणीय संस्मरण के लिए अशोक जी को बहुत बधाई पहुंचे।
    साथ ही इस दुर्लभ सामग्री को हम पाठकों तक उपलब्ध करवाने के लिए समालोचन और अरुण देव सर को बहुत बधाई।

    Reply
  20. Oma Sharma says:
    1 month ago

    जीवन की तमाम हिंसा के समानांतर कला को समर्पित एक विरल जीवन को जिस तरह अशोक जी ने पूरे सम्मान, अनुभव की बारीकियों और उसकी मार्मिकता से हम सबके लिए संजीव कर दिया है, वास्तव में एक लोकगीत सा है जो हर रोज तो नहीं ही लिखा जाता और ना अमृता भारती जैसा जीवन जिया जा सकता होगा। इसे यहां पढ़वाने के लिए अशोक जी और समालोचन का बहुत आभार

    Reply
  21. Anonymous says:
    1 month ago

    अमृता भारती जी के जीवन को अशोक अग्रवाल जी की लेखनी के माध्यम से देखना, एक अनूठे व्यक्तित्व से साक्षात्कार करने के समान है।
    इतना तो तय है कि अमृता भारती जी ने अपना जीवन अपने हिसाब से जिया। उनकी भीतरी छटपटाहट,यायावरी करने को बाध्य करती रही।
    बुद्धिजीविता और आध्यात्मिकता का संगम, जीवन का अन्वेषण करवाता रहा। अन्वेषक की भूमिका में पूर्ण संतुष्टि का अभाव तो होना ही था। मुझे लगता है उनकी जीवन यात्रा में प्रमुखत:स्वयं की ही खोज थी। एकांतवास वही पसंद करता है जिसे अपनी संगति सुहाती हो।
    आयु के पच्चयासी साल कम नहीं होते ये उनकी उपलब्धि में ही गिने जाएंगे।

    ख़ुदेजा

    Reply
  22. Gairola Geeta says:
    1 month ago

    सच कहूं तो मैंने अमृता जी का नाम कभी नहीं सुना. था. इसलिए सारा संस्मरण बिना रुके पढ गई. अशोक जी कितनी सहजता से गंभीर बात कह जाते है ये अद्भुत है. अमृता जी के बारे में जानने समझने के लिए अशोक जी का आभार

    Reply
    • भगवान सिंह। b says:
      1 month ago

      यह स्मृति लेख एक औपचारिक मुस्कुराहट के साथ आरंभ होता है और क्रमशः एक ऐसी मूर्छना में बदलता जाता है जो निरंतर गहन होती हुई आप को अभिभूत किए रहती। पाठक सीधे सादे कथन को पढ़ते हुए उसके शब्दों के अर्थ के समानांतर उनके भीतर दूर तक ध्वनित होता हुआ एक नाद भी सुनता है जिसका अर्थ उसकी समझ में नहीं आता फिर भी इसके जादू से वह बाहर निकल नहीं पाता। अमृता जी के लेखन में उनके जीवन में उनके आंतरिक एकांत में ऐसी उथल-पुथल और शांति की तलाश है जो कभी डरावने सन्नाटे में बदल जाती है कभी आशा की कांपती किरण में। जागृत स्वप्न की यह व्यग्र करने वाली अवस्था जिससे आप बाहर निकलना भी चाहें तो निकल नहीं पाते। अशोक अग्रवाल ने जिस तन्-मय-ता से अमृता को समझा है, और उनके मनोभावों के लिए भाषा तैयार की है, जिस धैर्य से उनके व्यक्तित्व के विविध आसनों को उजागर किया है वह केवल उनके ही शबस की बात है। जिस विवेक से उनकी कविता और गद्य के अंशों का चयन किया है वह उनके स्वास्थ्य को देखते हुए विस्मित करता है – “दार्शनिक अर्थ में यह प्रत्यभिज्ञा है– एक ऐसा स्मरण जो भूत और भविष्य के साथ बिना किसी पूर्वापर के जुड़ा है. जिस तरह सुदूर अतीत के अंतरालों में कोई एक घटना अचानक हमारे वर्तमान पर आरेखित हो जाती है और हमें कुछ याद आ जाता है…” । अशोक अग्रवाल ने अनेक अर्ध विस्मृत जीवन्त प्रतिभाओं को केंद्रीयता प्रदान की है, आवश्यकता किसी ऐसी प्रतिभा की है जो स्वयं अशोक अग्रवाल को वह केंद्रीयता प्रदान कर सके जिसके वह लंबे अरसे से अधिकारी हैं।

      Reply
  23. कुमार अम्बुज says:
    1 month ago

    यह संस्मरण जैसे औपन्यासिक जीवन पर एक लंबी कविता है। टूटी हुई, बिखरी हुई लेकिन मुकम्मल। संयम और प्रवाह का संतुलन।
    अविस्मरणीय।

    इसे प्रकाश में ला सकने के लिए
    अशोक जी को धन्यवाद।
    अरुण देव को भी।

    Reply
  24. सत्य नारायण says:
    1 month ago

    सन्न हूं पढ़कर।एक ऐसी बेचैन आत्मा जो हमेशा एक ऐसी ठौर के लिए भटकती रही जो उसका अपना एकांत हो ।
    किस संलग्नता से लिखते हैं आप ।अभिभूत हूं।आपकी स्मृति आपका तटस्थता से लिखना । ऐसी भाषा कि पढ़ने वाले को भीतर तक चीरती चली जाती है।
    हर बार कुछ नया ।
    आपकी लेखनी को सलाम ।

    Reply
  25. भगवान सिंह says:
    1 month ago

    अपनी अज्ञता और पिछले कुछ दिनों से अनिद्राजन्य थकान और अन्यमनस्कता के कारण इस संस्मरण लेख को इतने विलंब से खोज और पढ़ पाया. कह नहीं सकता कितना अपराधी और लज्जित अनुभव करता हूँ।

    मैं समझता था अशोक अग्रवाल पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हैं। वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं यह भी इस क्रम में ही जाना। इसके बाद भी इतने धैर्य से इतनी अनासक्त और गहन अंतर्दृष्टि से पाठक के हृदय को मथने वाले नाद-संगीत की भाषा में उन्होंने यह लेख लिखा है कि विस्मय होता है। पढ़ने के क्रम में सहज मुस्कान से आरंभ एक उदासी पैदा होती है जो घनी होती हुई अपनी गिरफ्त में लेती अर्धमूर्छित करती जाती है . “विस्मृति साथ नहीं देती– स्मृति आहत करती है.” अमृता जी की यह पंक्ति पूरे लेख में अंतर्ध्वनि की तरह गूंजती रहती है। उनकी अपनी अंतर्वेदना को वैसी ही भाषा में उकेर पाने की क्षमता किसी अन्य लेखन में नहीं दीखती। अमृता जी जैसी अनुभूति से स्वयं गुजरे बिना ऐसा लेख संभव नहीं जो अमृता जी के साथ ही लेखक की तन्-मय-ता को मूर्त कर सके।

    Reply
  26. विजय कुमार says:
    1 month ago

    एक समय की बहुचर्चित कवयित्री अमृता भारती पर अभी अशोक अग्रवाल के लिखे संस्मरण ने अभिभूत कर दिया । इस संस्मरण पर अद्वितीय विशेषण जोड़ना भी अपर्याप्त होगा । उनके जीवन को पढ़ना एक शोकांतिका भी नहीं क्योंकि अथाह शोक और एक दुर्दम्य जिजीविषा का द्वैत तो उस व्यक्तित्व के जीवन में कदम कदम पर रहा होगा । आज की युवा पीढ़ी ने तो इस कवयित्री का नाम भी शायद नहीं सुना होगा लेकिन अशोक अग्रवाल के संस्मरण को वह पढ़ेगी तो शायद उसे समझ में आएगा कि साहित्य में वह कैसा दौर रहा होगा। साठ के दशक के अंतिम वर्षों में मुझ जैसे लोग जब साहित्य की दुनिया में आँखें खोल रहे थे तब अमृता भारती का व्यक्तित्व हम लोगो के लिए सचमुच एक जीती जागती किंवदंती की तरह था । वे इस शहर में कुछ वर्षों तक रहीं ।बंबई में सांताक्रुज (ईस्ट) में जवाहरलाल नेहरू रोड पर रूप टॉकीज के सामने की एक इमारत में रहती थीं । उनके बारे में अपने कुछ वरिष्ठ कवि मित्रों से बहुत से किस्से सुने पर उनसे कभी मिलने का साहस नहीं हुआ। एक ऐसी शख्सियत जिसे आप ने कभी देखा भी नहीं होता पर एक उदास रहस्यमय तस्वीर की तरह से वह हर सुने गए किस्से में उपस्थित रहती है। जिसका लगभग एक आभा मंडल सा बन जाता है। यह लगभग एक असाधारण सी बात है। जिनसे भले ही आप प्रत्यक्ष रूप से कभी न मिलें हो उसके व्यक्तित्व की एक कौंध हमेशा महसूस की जाती है। जीवन समाप्त हो जाते हैं , आधी अधूरी कथाएं बची रहती हैं , विश्रृंखलित किस्सों के बीच छूटे हुए अंतरालों में आप भटकते रह जाते हैं, और अनुभव करते हैं उस कसक, अकेलेपन , पवित्र रहस्यमयता और गहन व्यथा के संसार की अनगढ़ता को जो समय के बीत जाने के बाद भी शेष रहती है , कभी समाप्त नहीं होती। यह किसी के भौतिक जीवन से अधिक कुछ है।पीढ़ियां आती और और जाती हैं , तेज रफ्तार, सफलताओं, उपलब्धियों के नित नूतन और क्षणभंगुर तमाशे , अर्थहीन शोर शराबे और विस्मृति के इस अजब- गजब संसार में वह एक अनोखा राग कहीं बचा रहता है । ऐसे संस्मरण को पढ़ते हुए लगता है कुछ भी बीता नहीं, समय आज भी कहीं स्थिर है। अशोक अग्रवाल की यह बहुत बड़ी खूबी है कि जब किसी व्यक्तित्व पर भी संस्मरण लिख रहे होते हैं तो वहां सिर्फ सूचनाएं, जानकारियां या स्थूल घटनाएं नहीं होतीं , वे उस पूरे एक वातावरण को बुन देते हैं जिसमें व्यक्तित्व से जुड़ी हुई तमाम बातें जैसे प्रिज्म से गुजरती हुई मद्धम प्रकाश किरणों की तरह हो जाती हैं।सही और गलत के निर्णय से अधिक महत्व उसे व्यक्ति के जीवन से जुड़े हुए वे संदर्भ होते हैं जिनकी व्याख्याओं का एक अनंत सिलसिला हो सकता है । इस नायाब संस्मरण को लिखने के लिए हिंदी जगत अशोक अग्रवाल जी का ऋणी रहेगा ।

    Reply
  27. Anup SETHI says:
    1 month ago

    अमृता भारती के बारे में आपने एक तटस्थ संलग्नता से लिखा है। बल्कि उन्हें हमारे सामने प्रकट किया है। मैं उन्हें अरविंदो के काव्य अनुवादक के रूप में जानता भर था। पर उस काव्यात्मा के कयी पक्ष थे। और अशोक की स्मृति के क्या कहने! संवाद तक याद हैं। और ग़ज़ब का संपादन संतुलन। आभार। अरुण जी का भी आभार।

    Reply
  28. Piyush Thakkar says:
    1 month ago

    अमृता भारती जी को पढते आया था. खास तो संभावना प्रकाशनने उनके काव्यसंग्रह उपल्ब्ध करवा कर बहुत बड़ा काम किया है. श्री अरविंद दर्शन में जिज्ञासा होने के कारण अमृता जी का लेखन व्यक्तित्व आकर्षित करता था. लेकिन कभी ज्यादा परिचय बनाने का अवसर मिला नहीं था. अशोक जी के मार्मिक आलेख से यह संभव हुआ. अगर श्री अरविंद दर्शन के संदर्भ में अमृता जी के जीवन-लेखन को थोड़ा विस्तार से लिखते तो उनके जीवन-काव्य को समझने का अवकाश मिलता. अशोक जी के लेखन कौशल से यह अपेक्षा और दृढ हुई.

    बहुत धन्यवाद.

    Reply
  29. प्रेमपाल शर्मा says:
    1 month ago

    बहुत सुंदर!50 वर्ष की इतनी स्मृतियों को समेटना सहजन और शब्द देना आसान नहीं है !अशोक अग्रवाल जी अपने समय के सभी लेखकों के बीच एक पुल की तरह है।संभावना प्रकाशन इसीलिए सबके जेहन में एक विशेष स्थान रखता है। स्वास्थ्य लडखडाने के बावजूद भी कितना विस्तार और धैर्य से लिखा है अमृता भारती पर! अंतिम दिनों में रिश्तेदारों और सभी का धीरे-धीरे छूट जाना शायद दुनिया भर में या हमारे समाज में जीवन की तरह ही स्वाभाविक बनता जा रहा है.इसे स्वीकार करने में ही भलाई है ।बहुत-बहुत बधाई

    Reply
  30. देवेंद्र मेवाड़ी says:
    4 weeks ago

    पढ़ने के बाद से सकते में हूं अशोक जी। अमृता जी के जीवन मर्म को समझने की कोशिश कर रहा हूं।
    आपका लेखन मुझे सम्मोहित और प्रेरित करता है। हैरान रह जाता हूं आपको पढ़ कर कि आप दृश्य-अदृश्य सब कुछ कितनी बारीकी से बयां कर देते हैं। आपके पास सूक्ष्म के साथ-साथ परा-दृष्टि भी है।
    टिप्पणी आज ही लिखूंगा।
    आपका स्नेह मुझे जगाता है।
    सप्रेम।

    बैंगलुरू
    25.5.205

    Reply
  31. देवेंद्र मेवाड़ी says:
    4 weeks ago

    अमृता भारती पर अशोक जी का मार्मिक संस्मरण पढ़ कर जैसे भाव-लोक में कहीं खो गया मैं। दो दिन से उनके ही जीवन के बारे में सोचता रहा हूं। अमृता भारती का पूरा जीवन बहुत विस्मित करता है जिसमें स्थायित्व नहीं निरंतरता है।

    लेखक ने संस्मरण कुछ इस तरह लिखा है कि पढ़ते हुए हम हर वक्त हर दृश्य में स्वयं उपस्थित होकर घटना को घटित होते हुए देख रहे होते हैं।

    मुंबई के एकांत में जी रही कवि-कलाकार अमृता के अपार्टमेंट का दरवाजा खोलते ही अजनबी को देख कर जो रूखापन और निस्पृहता का रंग उभरता है, वह सुबह तक आत्मीयता में भीगने लगता है। परिचय गहराता है और संस्मरण में उन्हें देखते-देखते मुझे वह रिचर्ड बाख की सागर पाखी जोनाथन लिविंगस्टन सीगल लगने लगती हैं जो हर बार अचानक नई उड़ान भर रही है, धरती से किसी नए धरातल की ओर। लिखती हैं वह- “जीवन की रफ्तार इस अर्थ में काफी तेज रही कि कभी रुकना नहीं हुआ, पड़ावों पर, वस्तुओं और व्यक्तियों के अंदर।”

    नए धरातलों की तलाश में अपनी उड़ानों के दौरान उन्होंने अनुभव किया -“आदमी के प्रेम में मैंने बहुत सी निचाइयों को पार किया है, लेकिन अब ईश्वर नायक हुआ तो मुझे उन शिखरों को सहना पड़ा जो मेरा दर्प हर अगले क्षण पहले से अधिक ऊंचा कर देता था।”

    यह नजीबाबाद से वाराणसी, वहां से मुंबई, मुंबई से गणेशपुरी आश्रम, वहां से हापुड़, राधापुरी, हापुड़ से दिल्ली के श्रीअरविंद आश्रम, बेंगलुरु, वहां से श्रीमां की संगत में पुडुचेरी और फिर प्राण पखेरू की उड़ान अनजान अनंत लोक की ओर। संस्मरण लेखक की एक-एक चीज और घटना की अद्भुत स्मृति पर आश्चर्य होता है। वह बाह्य और अंतरजगत दोनों को समान रूप से देखते हुए अपने स्मृति कोषों में संजो लेते हैं। व्यवहार और घटनाओं का इतना सूक्ष्म वर्णन तभी संभव भी है।

    संस्मरण में राजकमल चौधरी से संबंधित एक मार्मिक घटना का भी उल्लेख किया गया है। संयोग से उसी दौर में मैं भी राजकमल चौधरी को पत्र लिखा करता था। उन्होंने ‘मुक्ति प्रसंग’ की एक प्रति मुझे भी भेजी थी और जैसा अशोक जी ने लिखा है, उसका मूल्य केवल दो रुपए था जिसे मनीआर्डर से भेजना था। ‘मुक्ति प्रसंग’ की वह प्रति आज भी मेरे पास है।
    अशोक जी के संस्मरण मुझे सम्मोहित करते हैं। उन्होंने इस विधा को जीवंत करने के साथ-साथ अपने शिल्प से इसे नया रूप भी दे दिया है।

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