बादलों के देस में बाबुषा की ग्यारह नयी कविताएँ |
१.
माँ कामाख्या देवी मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए
माँ !
कठिनाई हो रही है यह मानने में कि उस
निरीह आँखों वाले छाग की बलि से
तुम्हें तृप्ति मिलेगी
किस पुरोहित के स्वप्न में आकर तुमने
पूजा का यह अमानुषिक ढंग बताया?
किस तांत्रिक का चिमटा पकड़कर
उपासना की यह हत्यारी विधि सिखाई?
किस साधक के कानों में यह ख़ूनी मंतर फूँका?
तुम माँ हो या क्या हो?
मैंने सुना
तुम्हारे मंदिर में मादा की नहीं
केवल नर-पशुओं की बलि होती है
क्या यह सच है? या एक संकेत भर!
क्या तुम यह चाहती थी कि नर में
पशुता के भाव की बलि हो;
और उन्होंने समझा नर-पशुओं की बलि हो ?
पंडित-पुरोहितों को ठीक से समझाओ, माँ!
उनकी भाषा में नहीं; रक्त की स्याही से लिखे संदेश में नहीं
शक्ति के उद्घोष की तरह नहीं
समझाओ उन्हें पानी की भाषा में
दूध की भाषा में
काली की तरह नहीं
उस साधारण स्त्री की भाषा में समझाओ;
जो अपने बच्चे के घुटने छिल जाने पर रो पड़ती है!
२.
शिलाँग की स्त्रियों के लिए
देर तक देखती रही
उन्हें मैं उद्देश्यपूर्वक देखती रही
कि कम-अज़-कम एक स्त्री तो ऐसी दिखे जिसकी
चाल धीमी हो
सुस्त हो
चींटियों की तरह चलती हुई स्त्रियाँ
छोटे-छोटे क़दमों से बड़ी-बड़ी मंज़िलें तय करतीं
व्यस्त और मोहक स्त्रियाँ
अधुनातन और पारम्परिक पोशाकों को धारण किए हुए
बच्ची और बूढ़ी स्त्रियाँ
स्कूल और दफ़्तर जाती स्त्रियाँ
लाल चा बनाती और वाइन बेचती स्त्रियाँ
वे कभी धीमी नहीं पड़तीं
क्या वे थकती नहीं ?
क्यों वे रुकती नहीं ?
टपरे के बाहर जो ख़ासी आदमी सुस्ताते हुए
बीड़ी पी रहा है दैनिकता के दुःखों से दूर
क्या वह चल सकता है इतनी तेज़ी से ?
क्या वह बिना रुके काम कर सकता है ?
या वह बिना रुके आराम कर सकता है ?
टपरे के अंदर जाडो बनाती स्त्री को फ़र्क़ नहीं पड़ता
कि वह आदमी काम करता है
या सुस्ताता है
इन स्त्रियों के पैरों में पहिये लगे हैं
ख़त्म ही नहीं होता इनका ईंधन
इनकी अँगुलियों के पोरों पर घूमती है पृथ्वी
इन स्त्रियों को आती होगी गहरी नींद
ये स्वप्न में दौड़ती फिरती होंगी
पहाड़ी ढलानों पर
भोर की पहली किरण धरती पर उतरने के पहले उठकर
चल देतीं ये आलू के खेतों की ओर
निराई-गुड़ाई करते हुए
आलुओं के साथ संगीत उगाती हैं जीवन का
इन स्त्रियों को ज़रा भी फ़ुर्सत नहीं है रोने की
ये अपना सारा पानी मेघों को दे देती हैं
३.
सेक्रेड फ़ॉरेस्ट, मॉफ़लाँग के बूढ़े पेड़ों के लिए
काठ के शव पर जी उठता काठ का संसार
काठ के पुतले तन जाते
गिर पड़ते, उठ जाते, चल पड़ते, रुक जाते
काठ में धू-धू कर जल जाते
घर के पट खोलती हूँ
खुल जाता एक जीवित जंगल
जंगल की धरती पर धरते ही पाँव
घर का दरवाज़ा खुलता है
एक अर्थ में हिंसा है कविता
और कवि कठफोड़वा
पर कविता ज़रूरत भी है
ज्यों पेड़ों के छीजन से बनी दवा
काग़ज़ की नाव उतर जाती है
कविता के गहरे पानी में
हाथों में घूमते शब्द चप्पू-से
उमर की नदी पार लग जाती है
दूर तक दौड़ पड़ता साँसों का घोड़ा
थक कर सुस्ताने ठहर जाता
छूट जाता पीछे अख़बार वाले का हिसाब
दवाई की पर्चियाँ और घर का
घनघनाता फ़ोन
छूट जाते पीछे भोर के पंछी
साँझ की सैर के साथी
अंकसूची, प्रमाण-पत्र, तमग़े
छूट जाते आँखों के चाव अधूरे
कामना के घाव बिना भरे
छूट जाते
क़दम-क़दम पर पीछे छूट जाने की आदत छूट जाती
छूट जाता प्रेमी का छूटना; नींद का
टूटना छूट जाता
मित्र साथ चलते कुछ दूर तलक
एक दीया जलता कुछ देर तलक
देहरी के पीछे छूट जाते जन्मों के साथी
साथ के इत्र में गमकते
बिलखते
छूट जाती पीछे मन की मोहक माया
राह में कड़ी धूप मिलती है
घर के द्वार से लेकर
जीवन के बाहर ले जाने वाले द्वार तलक
एक पेड़ के तने की नरम छाया साथ चलती है

४.
एक कली दो पत्तियाँ
(भूपेन हज़ारिका के लिए)
भूपेन दा,
तुम्हारी आवाज़ मीठी नहीं लगती
कानों में रस नहीं घोलती
गहरी नींद में नहीं ले जाती
तुम्हारी खुरदुरी आवाज़ विचारों पर चलती है
तेज़ दराँती की तरह
जो यहाँ-वहाँ उग आए
झाड़-झंखाड़ को उखाड़ फेंकती है
बरसों के बेरहम रतजगे निचोड़ने पर
दिशाहीन यात्राओं को समय के छन्ने से छानने पर
‘कुछ न मिलने’ जैसी जो चीज़ हासिल होती है
तुम्हारी आवाज़ उसका ठीक-ठीक तर्जुमा करती है
जैसे चाह के घने जंगल से बाहर ले जाती
कोई पगडंडी
समझ नहीं आती थी तुम्हारी भाषा
फिर भी कितने रतजगे और यात्राएँ
तुम्हारी आवाज़ की अँगुली पकड़े चलते रहे हैं
एक बार तुम मेरी भाषा में आए और ठहर गए
मैं तुम्हारी भाषा तक चली गई
और ठहरी रह गई
जिस दुनिया में धर्म-जाति-विचार और मान्यताएँ
आदमी को आदमी से तोड़ने पर आमादा हैं
तुम मुझसे जुड़े अपनी धुन के भरोसे
तुम्हारे साथ और तुम्हारे बाद
मेरे घर आए दुनिया भर से मेहमान
होज़े कबेशज़ से एस्टास टोन तक
हबीब कोएटे से जोशुआ तक
मुंशी ख़ान आए, शंकर-शंभू आए
रेशमा, नाहिद, फ़रीदा आईं
आबिदा, नुसरत, साबरी आए
आलम-आरिफ़ लोहार आए
फ़रीद-अबू और मीशा आए
करुणेश, नज़रुल, लालन आए
एल्टन, एम जे, ब्रायन आए
व्हिटनी, जॉर्ज और रॉनन आए
परवीना आईं, शकीरा आईं
पार्वती, अनुष्का, नोरा आईं
एक पूरी दुनिया मेरे घर आई
प्लास्टिक की एक दूसरी दुनिया
जो रह-रहकर टूटने के कगार पर पहुँच जाती है;
जिसके बरक्स मेरे पास ऐसी दुनिया है
जो ज़रा-सी धुन के गोंद से जोड़ देती है;
जुड़ जाती है
तुम मेरी दुनिया के पहले नागरिकों में से एक हो, भूपेन दा
इस अटूट दुनिया के ऐन बीचोबीच खिलता
मेरा हृदय एक कली है और आती-जाती
हरी साँसें दो पत्तियाँ
क्या रतनपुर बाग़ीचे की लक्ष्मी ने तुम्हें बताया
तुमसे मिलने मैं आई थी?
५.
नाम में भला क्या रक्खा है !
(दुनिया भर की सरहदों के नाम )
चेरापूँजी को अब सोहरा कहा जाता है
जैसे मौना को बाबुषा
अंग्रेज़ी के एक पुरखे नाटककार व सॉनेट्कार ने
बहुत पहले ही कह दिया कि नाम में
भला क्या रक्खा है ?
सोहरा कहने से चेरापूँजी की आत्मा नहीं बदलती
वहाँ की मिट्टी में अब भी वही गीलापन है
वैसी ही सुगन्ध
बाबुषा को कुछ लोग पहचानने लगे हैं
इससे ‘मौना’ का सार नहीं बदलता
अब भी वह पहले-सी एकाकी है
वैसी ही भीतर से चुप्प !
नर्मदा और डावकी के पानी का रंग अलग है
पर एक-सी फ़ितरत
पानी, जो लहर बन बहता है
सैलाब बन डुबोता है
जीवन बन प्राण संजोता है
जगहें, लोग, नदियाँ, पहाड़, देश, महाद्वीप, ग्रह-उपग्रह
यहाँ तक कि आकाशगंगाएँ –
नाम के बहुत आगे मौन की सुदूर तलहटी में
अपने अस्तित्व का भेद खोलते हैं
जहाँ सोहरा या चेरापूँजी; बाबुषा या मौना
पाताल या आकाश; दिन या रात
एक-दूजे में इस तरह घुलमिल जाते हैं
जैसे डावकी के पानी में धुँधला जाती है
भारत और बांग्लादेश की सीमा
६.
चेरापूँजी के ठंडे-मीठे पानी के लिए
इतना रसयुक्त मानो अमरित !
हर घूँट में गंगोत्री के जल का स्मरण हुआ
जहाँ प्यास और पानी के स्वाद में होड़ लग गई थी
क्या है अधिक मीठा
गंगोत्री से याद आए भोजवासा के वन
मन के अंतरतम कोनों-अतरों में उड़ते हुए भोज-पात
नींद में बारिश और हरे-हरे स्वप्न
पीली तितलियों के पंख पर सवार
इतने निर्भार!
भोजवासा से सुख की स्मृतियों में हलचल हुई
वृक्ष साक्षी हैं उस मोद भरे मन के जो
मयूर बन थिरकता था; मृगनाथ- सा बहकता
कस्तूरी की गंध से गमकता था
सुख के पीछे दुःख के दिन चले आए थामे हुए हाथों में हाथ
ज्यों संसार में चलते हैं सारे विलोम साथ
अमावस की रातों में आँखों के पानी की झालर से
दुनिया को रोशन करता हुआ दुःख
दिखता है कम
रखता रूखे पठारों को नम
दुःख की धौंकनी से जलता है जीवन का चूल्हा
दुःख की आग में सिंकती है प्रीत की रोटी
दुःख के निवालों से प्राण खींचते हैं जीने का बल
एक श्वास प्रेम का और दूजा स्मृति का
जीवन का ध्यान लगा
जीवन से मृत्यु का स्मरण हुआ
मृत्यु को कब मैंने जीवन का प्रतिलोम माना ?
वह तो विस्तार है एक आयाम से
दूजे आयाम का
मृत्यु से जागा सुमिरन तत्त्व का
आकाश का, अदृश्यता
और एकत्व का
पानी के एक घूँट में उतर आए
सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु
और ध्यान
समय कम बचा है
याद आया;
एक घूँट पानी से सत्य
याद आया !

७.
इतना बहुत !
(लैटलम घाटी में )
उत्तराखंड की लगभग अज्ञात-सी एक घाटी में
अरसे पहले तुमने मेरा नाम पुकारा था
गूँज बनकर तुम तक मैं लौटी थी
लैटलम कैन्यन में जी किया
मैं भी तुम्हारा नाम पुकारूँ
और गूँज बनकर मुझ पर
तुम बरसो
पर
एकाएक रुक गई
प्रेम में होड़ ठीक नहीं !
तुमने उस घाटी में जो बचपने-सा किया
नेह के भाव में वह वयस्कता है
मैं भी वही करती तो संभवतः प्रतिक्रिया होती
उत्तर होता; बराबरी की कुचेष्टा होती
प्रेम में प्रतियोगिता होती
तुमने एक अज्ञात घाटी को मेरा नाम सौंपा
प्रकृति ने लौटाया मुझे मेरा अस्तित्व
तुम्हारी आवाज़ की छुअन से सिहरे मेरे स्वप्न
और नींद टूटी
इतना बहुत !
८.
लिकाई का स्मारक : नोह-का-लिकाई प्रपात
(नोह-का-लिकाई प्रपात के बाबत एक लोककथा मशहूर है. सोहरा के निकट रंगजिरतेह गाँव में लिकाई नाम की एक विधवा औरत रहती थी, जिसकी एक छोटी बेटी थी. वह कभी खेतों में काम करती, कभी सुपारी तोड़ कर लाती; बाज़ार में बेचती, तो कभी लोहा-लंगड़ ढोती. इस तरह मेहनत-मज़दूरी करके लिकाई बच्ची को पालती थी. लोग कहते हैं कि बाद में उसने सामाजिक दबाव में दूसरा विवाह किया. लेकिन दूसरा पति उसकी बेटी से ईर्ष्या करता था क्योंकि लिकाई का ध्यान बेटी पर अधिक था.
एक दिन जब लिकाई काम पर गई हुई थी, तब पति ने बेटी को मारकर उसका मांस पकाया. जब लिकाई घर लौटी, तो उसने वही खाना खा लिया. बाद में उसे सुपारियों के पास बच्ची की कटी अँगुली मिली. यह देखकर वह क्षोभ व क्रोध से पागल हो गई और गाँव के नीचे वाले झरने से छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली.
इस घटना के बाद झरने को ‘नोह-का-लिकाई’ कहा जाने लगा यानी ‘लिकाई की छलांग का स्थान.’)
काँच-सा साफ़ वह झरना
एक मायावी पर्दा है; जिसके पीछे से झाँकती
रूह कंपकंपा देने वाली त्रासदी
पानी की प्रचंड कलकल के पीछे दब जाती हैं
एक औरत की चीखें
मैं सोचने लगी
लिकाई ने क्या सोचा होगा छलाँग लगाने के पहले ?
जो सोच पाती, तो शायद छलाँग न लगाती
उसे सोच-समझ कर करना था दूजा ब्याह
सोच ही पाती, तो समझ को समाज के पास
गिरवी न रख आती
उसकी छलाँग ने एक क़िस्सा दिया टूरिस्ट-गाइड को
उसे बेटी नहीं
कोई कहता है लिकाई लोहा उठाने का काम करती थी
मैं सोचती हूँ भला कैसे वह फूल-सी बच्ची की ज़िम्मेदारी
अकेले न उठा पाई; कोई कहता है वह सुपारी तोड़कर
बाज़ार में बेचती थी, मैं सोच में पड़ी
भला क्यों वह पुरुष के साथ की बेड़ी न तोड़ पाई ?
उसे सोच की छलाँग लगानी थी दूजे ब्याह के पहले
उसने झरने में छलांग लगा दी
९.
महाबाहु ब्रह्मपुत्र के लिए
नदियाँ जानती हैं
कुछ भी शाश्वत नहीं इस संसार में
फिर भी वे सींचती हैं मनुष्यों के स्वप्न और
इच्छाओं को अपनी करुणा के जल से
मनुष्य अमर होने की चाह पालता है
और एक दिन मर जाता है
नदियाँ बहती रहती हैं; जैसे समय या स्मृति
प्रतिक्षण बहते हुए नश्वरता की
साँसों में जीवंत
जिसने यह कहा कि तुम एक नदी में दोबारा नहीं उतर सकते; क्या वह जान पाया कि दुनिया कि किसी भी नदी में उतरें,
हम एक ही नदी में उतरते हैं
जब किसी नदी के क्रोध के कारण
पृथ्वी एक बार फिर से प्रलय में डूब जाएगी
एक नदी की करुणा से जन्मेगी
कोई सभ्यता दोबारा
जो कल थी नदी; आज वह नहीं
नदी बहती है सतत् मृत्यु के द्वीपों के बीच से
क्षण के गर्भ से जन्मते हुए
अविराम !
१०.
तमसो मा ज्योतिर्गमय
(मावलिनांग की एक पुलिया पर बैठे इरशाद ख़ान ‘सिकन्दर’ को सोचते हुए.)
जिन्हें तोड़ते हैं समाज, जाति, धर्म,
मान्यताएँ और विचार
मृत्यु वहाँ चुपचाप एक पुल बन जाती है
अंतिम विदा लेने वाले की याद में
दो वैचारिक शत्रु भी रो लेते संग-संग सिर जोड़ के
मृत्यु एक बड़ा आँगन बन जाती है
आओ !
हम रोएँ
और जय करें सत्य की
महाकरुणा है जो जीवन की –
जय करें उस मृत्यु की !
मृत्यु –
जो धो देती है ईर्ष्या और लोभ,
छुड़ा देती दुःख की बेड़ियाँ,
रिक्त कर देती हृदय का बोझ
हर लेती है अंधकारमय वृत्तियाँ
मृत्यु –
जो हमें और अधिक मनुष्य बना देती है
आओ !
जय करें उस मृत्यु की
देखें प्रकाश की ओर
जिस दिशा में वह हमें ले जाती है
शांत, निर्विकार और मुक्त !
११.
सोहरा में एक शवयात्रा को देखते हुए
हर दिन देखती हूँ मृत्यु का सौंदर्य
हर दिन मरती हूँ
हर साँस में
रोती हूँ
दुःख के कटोरे में भरे
सुख के जल को पीते हुए
गिर जाएगी कटोरी
जल बिखर जाएगा
मृत्यु से बुझेगी प्यास जन्मों की
एक और जन्म के साथ फिर से
जन्मेगी मृत्यु
वह मेरा पहला शिशुवत् रोना
जन्म के आनंद का नहीं;
मृत्यु के जन्मने का होगा !
पहला कविता-संग्रह ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ 2014, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा नवलेखन ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत. गद्य-कविता संग्रह ‘बावन चिट्ठियाँ’ 2018 रज़ा पुस्तक माला के अंतर्गत राजकमल से प्रकाशित तथा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित. ‘भाप के घर में शीशे की लड़की’, ‘उस लड़की का नाम ब्रह्मलता है’, उपन्यास लौ रुख़ पब्लिकेशन्स, से और ‘तट से नहीं पानी से बँधती है नाव’ – हिन्द युग्म से प्रकाशित. अनेक कविताएँ मराठी, बांग्ला, तेलुगू, पंजाबी, गुजराती, उर्दू, नेपाली, स्पैनिश, फ्रेंच तथा अंग्रेज़ी में अनूदित. सम्प्रति: |
बेहतरीन कविताएँ हैं। कवयित्री और समालोचन दोनों को बधाई!
नई स्त्री-भाषा को रचती महत्वपूर्ण कविताएँ जहाँ स्वप्नदर्शिता और हार्दिकता की देहरी से गुज़रकर प्रतिरोध अपना एक सृजनात्मक संसार रचता है।
“क्या तुम यह चाहती थी कि नर में
पशुता के भाव की बलि हो;”
और उस क्षण याद आता है, एक नर जो देवी के चरणों में पड़ा है, और देवी जीभ निकाल लेतीं हैं। कई बार सोचता हूँ, केवल शिव ही यह कर सकते थे। उसके लिए क्या कुछ बलि चढ़ा दिया होगा शिव ने।
अच्छी कविताएं।
बाबुषा की कविताएं प्रेम और जीवन की कविताएं हैं। मृत्यु में पुनर्जन्म देखना या प्रेम में होड़ ठीक नहीं कहना। यह केवल बाबुषा ही लिख सकती है। युवा पीढ़ी के पास एक वजह है बाबुषा के पास आने की – प्रेम। प्रेम के लिए ये बच्चे वारिस शाह के पास जाते हैं। केवल युवा पीढ़ी की ही कवि नहीं हैं, हम वृद्धों की भी प्रिय कवि हैं। यलाली यलाली याला, यलयाला रे के बीच यह लड़की मन कुन्तो मौला, फ़ा अली-उन मौला है।
बाबुषा कोहली की कविताएं अदभुत हैं। इन सभी कविताओं का असर देर तक बना रहता है।