लाल लुंगी बानू मुश्ताक अनुवाद: शहादत और अक्षत जैन |

गर्मी की छुट्टियों में माँओं को जो तकलीफ़ें झेलनी पड़ती हैं, उनका कोई अंत नहीं है. सारे बच्चे घर में इकट्ठे हो जाते हैं. अगर वे टीवी के सामने न हों तो कभी आंगन के अमरूद के पेड़ पर चढ़े होते हैं या कंपाउंड की दीवार पर बैठे होते हैं. और अगर कोई गिरकर हाथ-पैर तुड़वा बैठे तो? पर कभी सिर्फ़ वही थोड़ी होता है, नहीं नहीं, उसके साथ-साथ होता है रोना, हंसना, चीख़ना-चिल्लाना और किसी दूसरी ही दुनिया के हज़ारों साल पुराने इंसाफ़ पर आधारित सज़ाओं का सिलसिला. इसीलिए गर्मी की छुट्टी शुरू होते ही रज़िया का सिर-दर्द बढ़ने लगता. कनपटियों की नसें फड़कने लगतीं, दिमाग़ तप जाता, गर्दन की रगें ऐसे हो जातीं मानो किसी भी लम्हे फट जाएँ गी. वे एक के बाद आते, अपनी-अपनी शिकायतों को लेकर, और शिकायतों के बीच ढेर सारा चीखना-चिल्लाना और रोना-धोना. और उनके खेल … अब्बाबा … तलवारों और मशीनगनों की लड़ाइयाँ, बम धमाके…
रज़िया ने तंग आकर सोचा, ‘बस बहुत हो गया’. वह हॉल में पड़े दीवान पर लेट गई, सिर पर कसकर कपड़ा बांध लिया. वह किसी तरह के शोर को बर्दाश्त करने लायक़ नहीं बची थी. टीवी चल रहा था, लेकिन आवाज़ कम रखी गई थी. बच्चों को सख़्ती से चेतावनी दी जा चुकी थी. आख़िरकार पैर फैलाकर अभी वह ज़रा सुस्ताने ही लगी थी कि उनमें से एक चिल्लाया: ‘दोडम्मा! दोडम्मा, वह नोच रही है!’ रज़िया ग़ुस्से से उछल पड़ी और दिल ही दिल में सबको कोसने लगी.
रज़िया सोच रही थी, “छह बच्चे पहले से यहाँ हैं. हर देवर के दो-दो… तीन-तीन… सब छुट्टियों में चले आए हैं. और मेरी छोटी बहनों के बच्चे भी आ गए… या अल्लाह, मैं क्या करूं?’ उसी वक़्त उसका शौहर लतीफ़ अहमद कमरे में दाख़िल हुआ. उसने बीवी का हाल देखा तो चौंक गया. उसे मालूम था कि रज़िया को बच्चों से एलर्जी है. पहले वह माइग्रेन और फिर अपने शोर के साथ बच्चे उसमें नमक मिर्च-छिड़क देते. उसने अपनी लाचारगी में नज़र बचाकर कमरे का जायज़ा लिया एक, दो, तीन, चार… पूरे अठारह बच्चे, सभी तीन से बारह साल के बीच.
रज़िया कुछ कहती इससे पहले और लतीफ़ अहमद के बच्चों को डांटते वक़्त (‘अरे सब ख़ामोशी से बैठ जाओ, जो शोर मचाएगा उसे कुछ नहीं मिलेगा’) हुसैन उसके पीछे से आमों की टोकरी लिए कमरे के अंदर आ गया. जब चीख़ते-चिल्लाते बच्चे आमों पर झपट पड़े तो सहमने की बारी लतीफ़ अहमद की थी. अपनी बीवी को बेबसी से देखते हुए वह बाथरूम की ओर चल दिया. दर्द बर्दाश्त से बाहर हो जाने ने कारण रज़िया ने एक-दो क़रीबी बच्चों को दबोचकर थप्पड़ मार दिये. अपने सामने गर्मी की छुट्टी के लगातार टॉर्चर को देखकर उसने आख़िर में फ़ैसला किया कि कुछ बच्चों को बेड रेस्ट पर भेजना ही पड़ेगा. हल निकला कि उनकी खतना करवाया जाए.
रज़िया के हिसाब से अठारह बच्चों में से आठ लड़कियाँ थीं, वो बच गईं. बाक़ी दस में से चार सम उम्र के थे: आठ, छह और चार. वो भी बच गए. बाक़ी बचे छह लड़के जिन पर खतना फ़र्ज़ हो गया. लतीफ़ अहमद ने भी बिना किसी सवाल के इन छह का खतना कराने के लिए अपनी रजामंदी दे दी.
जिला केंद्र में बसे इस परिवार का इलाके के अमीर ख़ानदानों में शुमार होता था. हालाँकि लतीफ़ अहमद के चार छोटे भाई सरकारी नौकरी में थे और अलग-अलग जगहों पर रहते थे, लेकिन सबसे बड़ा होने के नाते ख़ानदान के सभी प्रोग्राम लतीफ़ अहमद के घर में ही होते थे. रज़िया इन प्रोग्रामों की मेज़बान होने के नाते खर्च करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी. वह इसको अपना कर्तव्य समझती थी. उसको इस बात से भी ख़ुशी हुई कि जिन छह लड़कों का खतना करवाना था, उनमें से दो उसकी छोटी बहनों के बेटे थे.
रज़िया की निगरानी में तैयारियाँ शुरू हुईं. कई मीटर लाल कपड़ा ख़रीदा गया. बच्चे भी दोडम्मा के साथ शौक़ से काम में लग गये. रज़िया ने कपड़े को नापकर काटा और लुंगी तैयार की. लड़कियों के पास बहुत सारा काम था— लुंगियों पर सिक्विन टांकना और उन्हें रंगना— लेकिन छह लड़कों के लिए लुंगी बनाने में पूरा थान नहीं लगा. कपड़ा काफी बच गया. जब वह सोचने लगी कि इस बचे हुए कपड़े का क्या किया जाए, तो हल अचानक सामने आ गया: ‘अरे, हमारी रसोइया अमीना का बेटा आरिफ है— और हमारे मजदूर का बेटा फरीद भी— क्यों न कुछ और ग़रीब बच्चों का खतना करवा दिया जाए?’ उसने सोचा… और तुरंत इस विचार को अमल में भी ले आई.
शहर में पाँच मस्जिदे थीं: जामा मस्जिद, मस्जिद-ए-नूर और अन्य. जुमा की नमाज़ के बाद सभी मस्जिदों के सेक्रेटरी हज़रात ने माइक संभाला और यह ऐलान किया:
‘अल्लाह की राह में नज़्र के तौर पर लतीफ़ अहमद साहब ने आइन्दा जुमा ज़ोहर के बाद इज्तिमाई सुन्नत-ए-इब्राहीमी का इंतिज़ाम किया है. ख़ाहिशमंद वालदैन से गुज़ारिश है कि शिरकत के लिए पहले से रजिस्ट्रेशन करवा लें.’
वे बोलचाल की ज़बान में ‘खतना’ कह सकते थे. मगर माइक और स्टेज से किए जाने वाले ऐलान की ज़बान औपचारिक होनी चाहिए, इसलिए सेक्रेटरी हज़रात ने ऐसा नहीं कहा. बल्कि इसे पैगंबर हज़रत इब्राहीम की याद में निभाई जाने वाली एक रस्मी तक़रीब कहा. बहरहाल दोनों का अंजाम वही होना था. जश्न की एक तरकीब जिसमें बच्चे शरीक तो खुशी से होते हैं मगर बाद में चीख़ने-चिल्लाने लगते हैं.
सब कुछ रज़िया की सोच के मुताबिक हुआ. बहुत से ग़रीब लोग आए और अपने बच्चों का नाम लिखवाया. रज़िया एक के बाद एक लुंगियाँ तैयार करती गई. ख़ानदान के बच्चों को ज़री, सितारों और नगीनों से सजी हुई लुंगियाँ मिलीं, जबकि बाक़ी बच्चों को सादे कपड़े की. रज़िया के बेटे समद की लुंगी पर तो इतने चमकदार सितारे चस्पां थे कि उसके कपड़े का असल रंग तक छिप गया था. गेहूँ और खोपरे की बोरियाँ मंगवाई गईं. घर के बच्चों के लिए गाय के दूध से बना ख़ालिस घी, बादाम, किशमिश और खजूर खरीदे गए.
बच्चों में एक अजीब-सी बेचैनी थी, लेकिन माहौल में त्यौहार जैसी ख़ुशी थी. हर तरफ़ गहमागहमी थी. पलक झपकते ही जुमा का दिन भी आ गया. ज़ोहर की नमाज़ के बाद लतीफ़ अहमद जल्दी से दोपहर का खाना खाकर मस्जिद के पास वाले अहाते में पहुंचे. वहाँ पहले ही भीड़ जमा हो चुकी थी. जिन बच्चों का खतना होना था और उनके माँ-बाप क़तार में खड़े थे. नौजवान रज़ाकारों की फ़ौज सफ़ेद शलवार क़मीज़ और सिर पर सफ़ेद टोपी या पगड़ी पहने मौजूद थी. सबने नमाज़ से पहले ग़ुस्ल किया था, आँखों में सुरमा और जिस्म पर ख़ुशबू लगाई हुई थी, जिससे फ़िज़ा ख़ुशबूदार हो रही थी.
पास ही के मदरसे के अंदर खतने की रस्म को किए जाने का इंतज़ाम किया गया था. उस दिन की सबसे ख़ास शख़्सियत था पहलवान जैसे क़द वाला इब्राहीम. पहनी हुई सफ़ेद मलमल की चमकती हुई क़मीज़ में उसकी बाजुएँ तनकर बाहर आ रही थीं. खतना करना उसका ख़ानदानी पेशा था. बाक़ी वक़्त में वह हजामत का काम करता था. वह मदरसे के बड़े हॉल के एक कोने में अपनी तैयारियों में व्यस्त था. सबसे पहले उसने पीतल का बिंडिगे मटका उल्टा करके रख दिया. इस मटके को वह इस तक़रीब के लिए लाया था. रजिया ने अमीना से उस मटके को इमली के पानी से दो-दो बार रगड़कर साफ़ करवाया था, जिससे वह चमक उठे. उसके सामने फर्श पर बारीक छनी हुई राख से भरी एक प्लेट रखी हुई थी.
इब्राहीम ने हर चीज़ की अच्छे से जांच-पड़ताल की, जब तक कि वह मुतमईन नहीं हो गया. वह बहुत तजुर्बेकार था. कहा जाता था कि जब वह चाकू चलाता था, तो खतना बिल्कुल सही होता था और बिना किसी संक्रमण के भर भी जाता था— इतनी मशहूरी थी उसके हाथों के शिफा की. मदरसे के हाल के एक कोने में कुछ नौजवान एक बड़ा जामखाना बिछा रहे थे और उसकी सिलवटें ठीक कर रहे थे. इब्राहीम ने एक बार फिर सब कुछ गौर से देखा और धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ. उसने अपनी जेब से एक शेविंग वाली चाकू निकाला, उसे अपनी बाईं हथेली पर फिराया और कहा, ‘एक-एक करके अंदर लाओ.’
उसके बगल में अब्बास नाम का एक रज़ाकार खड़ा था. वह कुछ बेचैन-सा नज़र आ रहा था. आख़िरकार वह खुद को रोक नहीं पाया और बोल पड़ा:
“अगर आप ये छुरी मुझे दे दें, तो मैं इसे गर्म पानी में उबालकर वापस ले आऊँगा. थोड़ा डेटॉल डाल दें तो संक्रमण की गुंजाइश भी नहीं रहेगी, मेरा ख़याल है.”
इब्राहीम ने आँख के कोने से अब्बास को देखा और समझ गया कि यह दिमाग कॉलेज की सीढ़ियाँ चढ़ चुका है. उसने अब्बास को वैसी ही हिकारत भरी नज़र से देखा जैसी कीड़े-मकोड़ों के लिए रखी जाती है, और फिर तंज़ से पूछा, ‘क्यों?’ ‘ताकि… सेप्टिक का कोई ख़तरा न हो,’ अब्बास झेंपते हुए बोल ही रहा था लेकिन इब्राहीम ने अभी खिल्ली पूरी तरह उड़ाई नहीं थी— उसने बेरहमी से पूछा, ‘कभी हुआ है तुझे सेप्टिक?’
अब्बास के दोस्तों ने चारों तरफ़ से “ही ही ही” करके हँसना शुरू कर दिया. अब्बास चिढ़कर बोला— ‘तुम लोग कितने गंवार हो’ — और वहाँ से हट गया. इब्राहीम ने विजयी मुस्कान के साथ फिर आवाज़ दी: ‘सब लोग, एक-एक करके आओ.’
बाहर खड़े रज़ाकारों ने लड़कों को अपनी चड्डियाँ उतारने को कहा. कतार में सबसे आगे आरिफ था. वह काफ़ी बड़ी उम्र का था, लगभग तेरह साल का. आमतौर पर लड़कों का नौ साल की उम्र से पहले ही खतना हो जाना चाहिए. लेकिन उसकी माँ अमीना के पास यह रस्म कराने के लिए पैसे नहीं थे. उसे अपनी शलवार उतारते और कमीज़ को ऊपर खींचते देख आस-पास खड़े लोग हँसने लगे. अपनी हँसी को दबाने की कोशिश करते एक आदमी ने आरिफ की पीठ पर हल्का-सा धक्का देकर उसे अंदर धकेल दिया.
लगभग चार-छह लोगों ने उसे पकड़ लिया और पीतल के बिंडिगे के ऊपर बैठा दिया. वह असमंजस में था. इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, पीछे से आए दो मजबूत हाथों ने उसकी टांगों को पकड़ा और उसकी दोनों जांघों को अलग कर दिया. वह दहशत से चीखने लगा तो दो लोगों ने उसके बाएँ और दाएँ हाथ कसकर पकड़ लिये. उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था; वह भागना चाहता था. लेकिन उसे पकड़कर रखने वाले लोग उससे ज़्यादा होशियार और ताकतवर थे. उन्होंने उसे इतना मजबूती से पकड़ा हुआ था कि वह हिल भी नहीं सकता था. उसने पूरी ताकत से खुद को छुड़ाने की कोशिश की, मगर नाकाम रहा. वह इतनी ज़ोर-ज़ोर से चीखने-चिल्लाने लगा कि जैसे उसका गला फट जाएगा:
‘छोड़ दो, मुझे जाने दो, ऐयो… अम्मा… अल्लाह!’ जवाब में एक साथ तीन-चार आवाज़े आईं, मानो इसी का इंतज़ार कर रही हों, बोलीं, ‘ऐय, ऐसे नहीं चिल्लाना चाहिए, दीन, दीन बोलो.’ सांसों की उखड़-पुखड़ के बीच आरिफ़ ने ज़ोर-ज़ोर से दोहराया, ‘दीन-दीन-अल्लाह-अल्लाह-अम्मा-ऐयो…’
जब ये तमाम तमाशा चल रहा था, इब्राहीम ने पूरी तसल्ली के साथ एक बेहद पतली बांस की फांटी उठाकर आरिफ़ के लिंग पर इस तरह से लगायी कि केवल चमड़ी ही उस बांस की क्लिप के आगे रहे. तभी एक आदमी ने आरिफ़ का चेहरा एक तरफ मोड़ा और धीरे से फुसफुसाया,
‘बोल रे, बोल बेटा. बोल दीन. जल्दी बोल, जल्दी.’
दीन के कई मतलब होते हैं, आस्था, यक़ीन, धर्म, इत्यादि, लेकिन इनमें से किसी को भी जाने बिना, आरिफ़ ने जैसे अपनी पूरी आवाज़ फाड़ते हुए चीख मारी. दीन! दीन! उसकी जीभ सूख गई; पीठ से पसीना बहने लगा; जिस्म में गर्मी बढ़ गई; डर से उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ गए. उसने आख़िरी बार खुद को छुड़ाने की नाकाम कोशिश की.
‘क्यों लड़के?’ रज़ाकारों में से एक ने उसके पैर पकड़ते हुए कहा. ‘मुझे जाने दो, मुझे जाने दो, मुझे पेशाब करना है,’ उसने उनसे इल्तिज़ा की. बदले में जवाब मिला, ‘थोड़ी देर रुक, फिर तू जा सकते हो.’ उन्होंने उसे और कसकर पकड़ लिया. उसी लम्हें इब्राहिम ने अपनी पीठ पीछे पकड़ा उस्तरा निकाला और बांस की क्लिप से बाहर निकले आरिफ के शिशन के हिस्से पर उसे घुमा दिया. पलक झपकते ही चमड़ी सामने राख से भरी प्लेट में जा गिरी. घाव से खून बहने लगा. इब्राहिम ने प्लेट से कुछ राख ली और उसे आहिस्ता से घाव पर छिड़क दिया. टपकता खून राख में मिल गया और उसका प्रवाह कम होने लगा. आरिफ का चेहरा पीला पड़ गया. वह पसीने से लथपथ था. उसके मुँह से अभी भी रुक-रुक कर हल्की-हल्की चीखें निकल रही थीं. दो नौजवानों ने उसे उठाया, बिना किसी लिहाज़ के हाल के एक कोने में ले जाकर ज़मीन पर लिटा दिया.
फर्श पर लगी ठंडी प्लास्टरिंग ने उसकी पीठ को कुछ राहत दी. फिर भी जलन महसूस हो रही थी… कुछ नौजवानों एक और लड़के को पकड़ लाए. अब्बास आरिफ के पास चला आया. उसने एक कटोरे से उसके मुँह में थोड़ा पानी डाला और पंखा झलने लगा. तभी एक और आवाज़ गूंजी, ‘दीन, दीन!’ आरिफ अभी अपना पेट पकड़े दर्द से तड़प रहा था और उतनी देर में वे एक और लड़के को उसके पास ले आए और उसे भी वहीं चटाई पर लिटा दिया.
‘दीन! दीन!’ बारी-बारी से चीखने की आवाज़ें आती रही. नन्हें शरीर दर्द से यहाँ-वहाँ छटपटा रहे थे. तेज़ दर्द होने के कारण आरिफ की तो आँखें ही बंद हुई जा रही थीं. नींद उसे अपने आगोश में लिए जा रही थी, मगर जैसे ही वह अचानक से आ रही थी, वैसे ही चली भी जा रही थी. उसे पता भी नहीं चलता कि वह जाग गया है. वह ऐसे ही नीम-बेहोशी में सोता-जागता गहरी नींद के करीब पहुंच रहा था कि किसी ने उसे आहिस्ता से सहलाना शुरू किया. हालांकि उसे अभी भी दर्द हो रहा था, लेकिन अब वह असहनीय नहीं रहा था. उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं. उसके सामने अब्बास खड़ा था, उसके चेहरे पर हमदर्दी थी. उसने उससे पूछा, ‘आरिफ, क्या तुम चल सकते हो? उधर देखो, तुम्हारी अम्मी आई हैं.’
वह लेटे-लेटे ही उस ओर देखने की कोशिश करने लगा. उसकी माँ फटा-पुराना बुर्का पहने हुई थी, जिसमें जगह-जगह छेद थे. ऐसे में वह न तो उन मर्दों के सामने आ सकती थी और न ही अपने बेटे को उस हालत में अकेला छोड़ सकती थी. वह दरवाज़े के दूसरी तरफ़ खड़ी अंदर झांक रही थी. अपनी अम्मी के उस बदरंग बुर्के को देखकर आरिफ को मानो एक नई ताकत का अहसास हुआ. अब्बास ने आरिफ को खड़ा होने में मदद की और वे धीरे-धीरे चलते हुए उनकी माँ के पास पहुंच गए.
आरिफ जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचा, वहीं स्टूल पर बैठे लतीफ अहमद ने उसके हाथ में एक थैला थमा दिया. दर्द में शिद्दत होने के बावजूद आरिफ ने थैला खोलकर देखा. थैले में गेहूं और खोपरा के दो टुकड़े रखे थे. एक पैकेट चीनी, एक पैकेट मक्खन… उसके मुँह में पानी भर आया. एक लड़का जो अंदर जाने वाला था, दरवाजे पर ही पसर गया और रोने लगा. यह देखकर आरिफ हीरो की तरह सीधा खड़ा हो गया, उसने लड़के की तरफ देखा और चिल्लाया, ‘अरे, सुभान, डरो मत. बस दीन कहना है… . कुछ नहीं होगा.’ इस मामले में उसने अब कुछ सीनियरिटी हासिल कर ली थी. वह लंगड़ाता हुआ बाहर निकल आया. अमीना ने उसके हाथ से थैला लिया और उसे बाहर बरामदे में बैठा दिया. वह पैर फैलाकर सावधानी से बैठ गया, इस बात का ख्याल रखते हुए कि लुंगी घाव को न छु जाए.
कतार में खड़े एक लड़के ने उससे ऊंची आवाज में पूछा, ‘ओए आरिफ, दर्द हो रहा है?’ चेहरे पर दर्द की शिकन को भी छिपाते हुए आरिफ ने जवाब में कहा, ‘नहीं, बिलकुल भी नहीं, कानो, ज़रा भी दर्द नहीं हो रहा.’
करीब ही खड़े एक दाढ़ी वाले अधेड़ उम्र के आदमी ने उसकी बात सुनी और उसे पचास रुपए का नोट देते हुए कहा, ‘शाबाश, बेटा, यह लो, कुछ खा-पी लेना.’ कतार में खड़े सभी लड़के हसद से उसकी ओर देखने लगे. अंदर से चीखें सुनाई दे रही थीं. ‘दीन… दीन… अय्यो…अल्लाह…’ एक और लड़का अंदर पहुंच गया.
लड़के एक-एक करके अंदर जाते और लाल लुंगी पहने हुए बाहर निकलते. तभी वह आ पहुंची. वह बहुत दुबली-पतली थी, उसकी गहरी आँखें उसके चेहरे पर मानो जमी हुई थीं. उसकी कमर इतनी पतली थी कि जैसे हो ही ना. फिर भी हैरानी की बात थी कि उसने एक बच्चे को गोद में उठा रखा था. फटी हुई साड़ी के नीचे उसका पैबंद लगा ब्लाउज छिपा हुआ था. दूसरे हाथ से वह छह-सात साल के एक बच्चे को पकड़े घसीट रही थी. बच्चा उसकी पकड़ से छूटने के लिए छटपटा रहा था, मगर उसकी पकड़ बहुत मजबूत थी. बच्चे की चीखें दिल दहला देने वाली थीं. महिला ने अपनी फटी हुई साड़ी को थोड़ा ऊपर खींचने की कोशिश की, और इस कोशिश में वह कुछ और फट गई. बहुत धीमी आवाज़ में, जिसे वह ख़ुद भी मुश्किल से सुन पाई, उसने पुकारा — ‘भैया!’ लतीफ़ साहब, जो किसी से बातचीत में मशगूल थे, पलटकर देखने लगे और पूछा, ‘क्या हुआ, माँ?’
लड़का और ज़ोर से रोने लगा. उसने कहा, ‘इसकी भी सुन्नत करवा दो भैया.’ ‘नहीं, नहीं, मुझे नहीं करवानी,’ लड़का चिल्लाया और भागने लगा. माँ ने उसकी बांह कसकर पकड़ ली. सिर पर रखा उसका आंचल खिसक गया. उसका सूखा हुआ पेट, उसकी उभरी हुई गले की हड्डियाँ, गहरी धंसी आँखें, पैबंद लगा ब्लाउज, इन सबको देखकर लतीफ़ का मन दुख से भर गया. उसने नज़रें नीची कर लीं और लड़के को डांटते हुए कहा, ‘अरे, चुपचाप खड़ा रह. क्या तू दीन का हिस्सा नहीं बनेगा? जब तक खतना नहीं करवाएगा, तू इस्लाम में दाखिल नहीं हो पाएगा. क्या तू ऐसे ही रहेगा?’ लड़के ने सिसकते हुए सच उगल दिया: ‘मैंने खतना करवा लिया है.’
माँ ने फौरन झल्लाकर कहा, ‘लेकिन भैया, यह सही से नहीं हुआ है, इसे फिर से किए जाने की ज़रूरत है.’ लतीफ़ अहमद को लगा भी कि कुछ गड़बड़ है, मगर वह निश्चित नहीं था. उसने पास खड़े एक नौजवान को बुलाया. ‘अरे, समी, इसे पकड़ो और देखो क्या हुआ है.’ मज़े लेने के लिए ताक में बैठे कुछ शरारती लड़कों ने एकाएक लड़के को उठा लिया. उनमें से एक ने लड़के की निक्कर नीचे खींच दी. ढीली होने के कारण निक्कर फौरन नीचे खिसक गई. सबकी आँखों और होठों पर हँसी ठहरी हुई थी, और सब उत्सुकता से देख रहे थे.
‘ख़तना ठीक से हो गया है.’ यह सुनते ही सारे लड़के वह हँसी छोड़ बैठे, जिसे अब तक बड़ी मुश्किल से दबाए हुए थे. एक आदमी भड़क गया और तीखे अंदाज़ में बोला, ‘अपने मियाँ को भी ले आ. उसका भी ख़तना कर देते हैं— गेहूं और नारियल दे देंगे तुम्हें.’ इस पर एक और हँसी की लहर दौड़ गई.
जैसे ही उसका हाथ छूटा, लड़के ने जल्दी से अपनी निक्कर ऊपर खींची और वहाँ से गायब हो गया. उसकी माँ ने फटा-पुराना आंचल अपने सिर पर खींचा और पैरों को घसीटते हुए वहाँ से चली गई. उनमें से एक आदमी ने नफरत से थूकते हुए कहा, ‘थू! दुनिया में कैसे कैसे लोग हैं… किसी भी हद तक गिर सकते हैं.’
उसके जाने के कुछ देर बाद लतीफ़ अहमद को बेचैनी-सी होने लगी. चारों ओर जब इतनी गरीबी और दुख है तो क्या इस तरह बेहिस होना सही है? बार-बार उस औरत का अक्स उसकी आँखों के सामने तैर जाता था. ‘उफ्फ, मुझे उसे खाली हाथ नहीं जाने देना चाहिए था.’ वह बेचैन हो उठा. उसने इधर-उधर देखा, मगर जिस तरह वह अचानक से आई थी, उसी तरह अचानक से गायब भी हो गई थी.
कतार आगे बढ़ती जा रही थी. लाल लुंगियाँ बाहर निकलती जा रही थी. लतीफ अहमद ने बेसब्री से घड़ी देखी. शाम के पाँच बज चुके थे. सुप्रसिद्ध स्थानीय सर्जन डॉ. प्रकाश ने उसे छह बजे तक अपने घर से बच्चों को खतना करवाने के लिए लाने को कहा था. अब वे बच्चे क्या कर रहे होंगे?
रजिया ने सुबह ही सबको नहलाया था. अपने बड़े बेटे समद को कुछ ज़्यादा ही दुलार के साथ. वह पिछले छह साल से, यानी जब समद पाँच साल का हुआ था, अपने शौहर से कहती आ रही थी कि ‘बच्चे का खतना करवा दें, वह बहुत दुबला हो गया है.’ उसे उम्मीद थी कि कम से कम खतना के बाद उसका वजन कुछ तो बढ़ जाएगा. मगर लतीफ अहमद में इतनी हिम्मत नहीं थी और वह इसे टालने के लिए कोई न कोई बहाना बना देता था. आखिरकार वह वक्त आ ही गया था. मगर वह अभी भी कुछ बेचैन था.
रज़िया के देवर इस रस्म के लिए आए थे. उसकी बहनें भी दूर-दूर से सफ़र करके घर पहुँची थीं. घर मेहमानों से भरा हुआ था; सभी बच्चों ने नए कपड़े पहने थे; जिन लड़कों का ख़तना होना था, वे इतराते हुए इधर-उधर घूम रहे थे. जहाँ एक तरफ सारे नौजवान और बुज़ुर्ग मर्द मस्जिद में सामूहिक ख़तना के लिए जमा थे, वहीं दूसरी तरफ़ शहर की ज़्यादातर जवान लड़कियाँ और बड़ी उम्र की औरतें लतीफ़ अहमद के घर पर इकट्ठा थीं.
दोपहर के खाने के बाद उन्होंने शेरवानी, नेहरू जैकेट और ज़री की टोपी पहने बच्चों को एक कतार में बैठाया. उनके गले में पैरों तक लटकती लंबी मालाएँ डाली गईं. उनकी कलाइयों में चमेली के फूल पहनाए गए. सभी करीबी रिश्तेदार और यार-दोस्त आए हुए थे. उन्होंने बच्चों को दुलारा. प्यार किया. किसी ने उनकी उंगलियों में सोने की अंगूठियाँ पहनाईं, तो किसी ने उन्हें सोने की चैंन तोहफ़े में दी. इस मौके पर उनको मिलने वाले पाँच-सौ, और सौ-सौ के नोटों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती थी. जो भी आया, उसने ही बच्चों के सिर पर उंगलिया बजाकर बुरी नजर उतारने की रस्म निभाई. लोगों में पान, केले, कर्जी-काई और भी कई तरह के खाने की चीज़ें तक़सीम की गई. किसी को एक-दूसरे से बात करने की फुर्सत तक नहीं थी. घर में अफरातफरी का मौहाल था, हर तरफ भाग-दौड़ मची हुई थी.
वह लतीफ़ अहमद के सामने खड़ी हुई थी. खड़े-खड़े थक जाने के कारण उसने किसी से कुर्सी मंगवाई और सामूहिक खतना समारोह की देखरेख के लिए उस पर बैठ गया. जम्हाई लेने के लिए जब उसने अपना मुँह ऊपर उठाया तभी वह उसके सामने आ खड़ी हुई. वह दुबली-पतली थी, मगर छाती भरी हुई; उसने एक पुराना कुर्ता पहन रखा था और सिर पर पुराना-धुराना दुपट्टा बांध रखा था. उसके चेहरे पर पीलापन था. उसने हाथों में कुछ पकड़ा हुआ था और कपड़े की एक गठरी को अपनी छाती से लगाए हुए थी.
‘भैया! इसकी भी सुन्नत करवा दो.’ लतीफ अहमद ने कपड़े में लिपटी उस एक महीने की नन्ही-सी जान को घूरा और फिर उसकी माँ की तरफ देखने लगा. वह डर गया कि कहीं आस-पास खड़े नौजवान उसके पास न चले आए और बेरहमी भरे शब्द न कहने लगें. बिना एक शब्द कहे उसने जेब से सौ रुपए का नोट निकाला और उसके हाथ में रख दिया. उसे लगा जैसे समद को लिए हुए रजिया उसके सामने खड़ी है. इसके बाद वह औरत एक मिनट भी वहाँ खड़ी नहीं रही. वह बिना पीछे देखे वहाँ से तेजी से चली गई. लतीफ़ साहब को फिर लगने लगा कि उन्हें पहले आई औरत को भी कुछ पैसे देने चाहिए थे. लेकिन फिर… एक और औरत… एक और… एक और… वे आती रहेंगी… इसका अंत कहाँ है? आखिरी लड़के का खतना हो जाने और सबको घर भेज देने के बाद लतीफ अहमद को इत्मीनान महसूस हुआ. अब उसे बस घर के बच्चों का ख्याल रखना था.
उसके घर पहुँचते-पहुँचते सभी बच्चे सर्जन के पास जाने के लिए तैयार हो चुके थे. डॉ. प्रकाश ने लतीफ अहमद से कहा था:
‘आप छह बजे तक आ जाइए. बच्चों को थोड़ा एनेस्थीसिया देकर बिना दर्द के ऑपरेशन करवा दीजिए. अगर बच्चे रात को सो जाएँ गे, तो सुबह उठकर तरोताजा महसूस करेंगे.’
इस तरह शाम को पूरा परिवार डॉ. प्रकाश के बच्चों के अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर के सामने इकट्ठा हो गया. बिना किसी परेशानी के ऑपरेशन हो गया, हालांकि कुछ बच्चे रोए और डरे भी.
घर आने के बाद बच्चों को पंखे के नीचे नरम गद्दों पर सुला दिया गया. उनकी ख़िदमत के लिए बहुत से लोग मौजूद थे. बीच-बीच में दर्द से कराहते एक-दो बच्चों को छोड़कर और कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी. पूरा घर हँसी-ठट्टे, शोर-गुल और जश्न की खुशी से भरा हुआ था. हर आधे घंटे में बच्चों को उठाया जाता, दूध और दर्द निवारक गोलियों मिलकर बादाम का पेस्ट दिया जाता और फिर से लिटा दिया जाता. अगले दिन ज़्यादातर बच्चे ठीक हो गए थे. उनके ट्रीटमेंट में मदद करने के लिए भरपूर मात्रा में बढ़िया खाना उपलब्ध था. दूध, घी, बादाम, खजूर… हर चीज़ खाने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा थी.
सामूहिक खतना के पाँचवें दिन सामने के आंगन से बहुत शोर आ रहा था. रजिया सीढ़ियों से उतरी और बाहर झांककर देखा तो हैरान रह गई कि बावर्चिन अमीना का बेटा आरिफ अमरूद के पेड़ पर चढ़कर कच्चे और अधपके फल तोड़ रहा था. दो नौकर उसे नीचे उतरने के लिए कह रहे थे. उसकी माँ पेड़ के नीचे खड़ी थी. वह बारी-बारी से नौकरों से और अपने बेटे से इल्तिज़ा कर रही थी. खूब अमरूद खाने के बाद आरिफ आराम से नीचे उतरा. नीचे उतरते ही नौकरों ने उसे पकड़ लिया. वे उसे रजिया के पास ले गए. वहाँ उसने लापरवाही से अपनी कमीज़ की जेब से एक और अमरूद निकाला और उसे खाने लगा. रजिया ने नौकरों से उसे छोड़ देने को कहा और हैरान होकर पूछा, ‘क्या तुम्हारा घाव ठीक हो गया?’
‘हम्म, हाँ, चिक्कम्मा,’ उसने जवाब दिया और बिना किसी शर्म या झिझक के अपनी लुंगी ऊपर उठा दी. रजिया को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ. उसके घाव पर पट्टी भी नहीं थी. कोई मवाद या इंफेक्शन भी नहीं था. घाव ठीक हो गया था! जबकि उसका बेटा समद अभी तक अपने पैर भी सही से नहीं फैला पा रहा था. वह जितने भी एँटीबायोटिक ले रहा था, उसके बाद भी घाव संक्रमित हो गया था. अभी सुबह ही जब उसने उसे नहलाना था तो वह एक कदम भी नहीं चल पाया था. उन्हें उसे गोद में उठाकर बाथरूम में रखे स्टूल पर बैठाना पड़ा था. उन्होंने घाव को ढकने के लिए एक स्टेरलाइज़्ड स्टील कप का इस्तेमाल किया ताकि वह गीला न हो जाए और फिर उसे नहलाया था. उसके बाद वह थक गया था. उसने उसके शरीर को नरमी से पोंछा था. डॉ. प्रकाश के यहाँ से एक नर्स बुलाई गई थी, जिसने घाव पर नई पट्टी बांधी थी और उसे एक इंजेक्शन भी दिया था. और एक तरफ़ ये लड़का था जो बंदरों की तरह पेड़ पर लपक रहा था. उस वक्त वह खुद को यह पूछने से नहीं रोक पाई: ‘आरिफ, तुम कौन-सी दवा, कौन-सी गोलियाँ ले रहे हो?’
‘मैंने कोई दवा नहीं ली है, चिक्कम्मा. उस दिन जो राख उन्होंने ताज़ा घाव पर लगाई थी, बस वही…’
दरअसल रज़िया को नहीं पता था कि इन गरीब बच्चों का खतना कैसे किया जाता है. उनके जख्मों पर राख छिड़के जाने की बात सुनकर वह परेशान हो गई थी. यह सोचते हुए कि अगर इन बेचारे बच्चों में से कोई मर गया तो क्या होगा, वह अंदर आ गई. ऊपर सो रहे सभी बच्चों को देखने के बाद वह अपने बेटे के पास गई. समद भी सो रहा था. उसके बगल में मेज पर फल, कई तरह की मिठाइयाँ, बिस्किट के पैकेट और मेवे रखे हुए थे. उसने सामने के आंगन में झाँका. उसने सोचा कि अगर आरिफ दिख जाए तो उसे बुलाकर कम से कम बिस्किट का एक पैकेट तो दे ही देगी. लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दिया. उसने अपने बेटे के ऊपर एक हल्का कम्बल डाला, नीचे आई और रसोई में बन रहे खाने को देखने चली गई.
खतना किए हुए बच्चों के लिए चिकन सूप बनाना था. घर आए मेहमानों के लिए पुलाव और कोरमा बनना था. रसोई में आए हुए उसे दस मिनट भी नहीं हुए थे कि उसे बेचैनी होने लगी. अमीना तेज़ी से काम कर रही थी. जबकि रज़िया को लग रहा था कि अगर वह वहाँ मौजूद नहीं रही तो खाना वक्त पर तैयार नहीं हो सकेगा, फिर भी उसका वहाँ रुकने का मन नहीं कर रहा था. चिकन को छोड़ कर वह ऊपर की ओर भागी. उसने दरवाज़ा बंद कर लिया ताकि समद की नींद में खलल न पड़े. मगर बाद में उसने जब दरवाज़ा खोला तो उसके मुँह से दिल दहला देने वाली चीख निकली. ऐसा लगा जैसे उसकी आँखों पर काला पर्दा पड़ गया हो. रिश्तेदार उसकी चीख सुनकर अपने कमरों से बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि रज़िया बेहोश पड़ी है और समद खून से लथपथ फर्श पर पड़ा है. वह जाग गया था और अपनी अम्मी को देखने के लिए बिस्तर से नीचे उतर आया था. दरवाजे के पास पहुंचने तक वह बेहोश हो चुका था. उसका सिर दीवार से टकरा गया था और उससे भी खून बह रहा था. ऑपरेशन से बना कच्चा घाव भी खुल गया था और उसमें से खून टपक रहा था. आखिर में उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा.
ग्यारहवें दिन लतीफ़ अहमद के परिवार के बच्चों को रस्म के तौर पर नहलाया गया. उसी दिन समद भी अस्पताल से वापस आया था. उस शाम घर में एक बड़ी दावत दी गई थी. पूरे शहर को बुलाया गया था; कई बकरे काटे गए थे. दावत की बड़ी तैयारियाँ की गई थीं. घर के सामने और छत पर शामियाना लगाया गया था. घर के पीछे से बिरयानी की खुशबू आ रही थी. खूब जश्न मनाया जा रहा था. समद अभी भी बहुत कमज़ोर था. रज़िया ने उसे एक पल के लिए भी अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने दिया था. उसने समद का सिर अपनी गोद में रखा हुआ था और जिस बिस्तर पर वह बैठी थी, वहीं से सबसे बातें कर रही थी.
बैठे-बैठे ही उसने देखा कि कोई ड्राइंग रूम के कोने से गुज़र रहा है. उसने आवाज़ लगाई, ‘अरे, कौन है? इधर आओ.’ गुज़रने वाले ने आवाज़ सुनकर वापस आते हुए कहा, ‘मैं हूँ, चिक्कम्मा, मैं.’ रजिया ने गौर से देखा- आरिफ! हालांकि उसने फटी कॉलर वाली घिसी-पिटी कमीज़ पहन रखी थी, पर उसके चेहरे पर सेहत की चमक थी. उसने लाल लुंगी उतारकर पतलून पहन ली थी. इसका मतलब था कि उसका घाव पूरी तरह भर गया था. उसने पलटकर समद की तरफ़ देखा. उसकी आँखें आंसुओं से भर गईं. वह मन ही मन बुड़बुड़ाई, ‘ख़र कू खुदा का यार, ग़रीब कू परवरदिगार’ – अगर अमीरों की मदद करने के लिए लोग हैं तो ग़रीबों के पास ख़ुदा है.
उसकी नज़र आरिफ़ की पैंट पर गई. वह पुरानी पैंट घुटनों पर से फटी हुई थी. रजिया को ख़ामोश अपने ख़्यालों में खोया देखकर आरिफ जाने के लिए मुड़ा. जब वह मुड़ा तो उसने देखा कि उसकी पैंट और शर्ट के निचले हिस्से में दो बड़े-बड़े छेद हैं. वह हैरान रह गई.
‘रुको आरिफ,’ उसने उठते हुए कहा. उसने अलमारी खोली और करीने से तह किए हुए समद के कपड़ों के ढेर पर नज़र डाली. उसे
तोहफ़े में मिले लगभग दस-बारह जोड़ी कपड़े अभी भी पैकेट बंद रखे हुए थे. उसने समद के साइज़ से बड़े एक जोड़ी कपड़ों को आरिफ़ को देते हुए कहा, ‘ये लो. जाकर ये कपड़े पहन लो. जब तुम खाना खाने आओ तो ये कपड़े पहनकर आना, ठीक है?’
आरिफ की आँखें चमक उठीं. शुक्रिया से ज़्यादा, उसके चेहरे पर अक़ीदत का अहसास था. उसने आहिस्ता से नए कपड़ों के उस पैकेट पर हाथ फिराया और उसे देखकर रजिया मुसकुरा दी. समद उठकर उसके कंधे पर सिर रखकर बैठ गया. आरिफ उन दोनों को देखता रहा और रजिया के दिए कपड़ों को कसकर सीने से लगाए धीरे-धीरे दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगा.
_____________________
संपर्क- 786shahadatkhan@Gmail.com |
|
अनुवाद अत्यंत प्रवाहपूर्ण है. अनुवादक द्वय को बधाई. समालोचन को बहुत धन्यवाद. बस दो दिन पहले मैंने दीपा भस्थी का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ना समाप्त किया था और सोच रहा था, कितने दुःख की बात है ये कहानियाँ हिंदी में उपलब्ध नहीं हैं.
इस कहानी में भी कुछ शब्दों को लेकर खो गया था. एक था दोडम्मा. स्पष्टतः ‘aunty’ के लिए प्रयुक्त हुआ है. पता नहीं चलता – चाचा की पत्नी, माँ की बहन, पिता की बहन …. खोजने पर दोडम्मा का अर्थ मिला था – स्थानीय ग्राम देवी! दूसरा था अंग्रेजी में Sequin. यह ऑक्सफ़र्ड शब्दकोश में है. इस अनुवाद में उसके बदले ‘सिक्चिन’ मिला. यह किसी कोश में नहीं मिलता. इसी तरह बिंडिगे का अर्थ हिंदी / अंग्रेजी किसी कोश में नहीं मिला. और अंत में चिक्कम्मा का. पर इन चीजों से कहानी के मर्म को छू सकने में कोई व्यवधान नहीं होता.
(एक और बात दिखी, दीपा जी ने लतीफ़ अहमद के छः अनुजों को सरकारी नौकरी में बताया है, इस अनुवाद में चार को.)
यह कहानी मुस्लिम समुदाय में प्रचलित ‘ख़तना’ की प्रक्रिया से जुड़े कर्मकांडीय प्रसंगों के साथ ही मुसलमानों में ग़रीबी की इंतिहा भी बयान करती है.रचना की बुनावट में पठनीयता है. लेखिका, अनुवादक द्वय एवं सम्पादक को साधुवाद.
लेखिका की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि अपने समाज की इस प्रथा को उन्होंने तमाशा कहा और एक पढ़े – लिखे लड़के द्वारा डेटॉल और स्टरलाइज्ड चाकू की बात की l
कहानी एक भिन्न धर्म की महिला की गरीबी का बयान कर रही है कि जरा से गेहूं के लिए और धर्म भी बच्चों का खतना करा सकते हैं l
कहानी में तंज है l
तीन साइलेंट मैसेज हैं l
अधिक बच्चे
खतना
और दूसरे धर्म की गरीबी l
बानू मुश्ताक की बाकी कहानियां भी पढ़ना चाहेंगे l
इस कहानी को पढ़कर अजीब सी बेचैनी हो गई है। यह कूपमण्डूकता को बढ़ावा देती कहानी है। ऐसी कहानियां पुरस्कृत हो रही हैं तब क्या ही उम्मीद बची है।
कहानी एकबारगी पढ़ने वाले को सिर्फ सुन्नत प्रथा, उसकी बुराइयां या समर्थन करती प्रतीत होगी। मैंने इसमें मुस्लिम स्त्रियों की वर्गीय चेतना को भी महसूस किया। रज़िया की सामाजिक हैसियत उस गरीब महिला से अलग है, जो सौ के नोट के लिए अपने बच्चे को कभी मस्जिद तो कभी लतीफ़ के घर ले जाने को बाध्य है!
कहानी मार्मिक है और अनुवाद बेहतरीन। इस चयन के लिए संपादक का आभार।
मैंने एक ही क्रम मे पुरी कहानी पढ़ डाली।कहानी का फ्लो बहुत बढ़ियां है।अनुवादक द्वय को धन्यवाद!
पुरी कहानी मे सुन्नत की परम्परा और उसकी तकनीकी पर गहराई तक जानकारी है।
सुन्नत की पारम्परिक और आधुनिक तरीके का तुलनात्मक विश्लेषण मे डा. प्रकाश द्वारा किया आपरेशन और मौलवी का बांस के कैंच से किया खतना को बेहतर बताया ।उस पर राख रगड़ने के बाद ठीक होना और कोई संक्रमण न होना।
आधुनिक तरीके से किए सुन्नत को कष्टकारी और संक्रमण के आसार बताये।इसमे पाखंड को आगे कर दिया।जो उचित नहीं लगा।वैसे लेखिका ने इस समाज की सच्ची घटना उद्धृत की।
मैं इसको पढ़ते,आगे बढ़ते हुए जिज्ञासु था कि इस प्रथा के विरोध या रोकने पर कुछ मिलेगा।लेकिन अन्तत: निराश हुआ।
इसे उपलब्ध कराने के लिए तहे दिल से शुक्रिया!
बहुत ही अच्छी कहानी।अनुवादक द्वय को त्वरित रुप से बेहतरीन अनुवाद उपलब्ध कराने के लिए आभार।’ समालोचन ‘ के प्रति भी आभार। समालोचन द्वारा पाठकों को अच्छे और स्तरीय साहित्य से परिचित कराया जा रहा है।
मुझे यह कहानी बड़ी अच्छी लगी। जो rawness या कहे बिल्कुल ज़मीन से उठकर आता तत्त्व है इसमें बिना विचारधारा और मूल्यनिर्णय के, वह इसे एक साहित्यिक आयाम प्रदान करता है।
यहाँ लेखक अपनी कहानी कहना चाहती है लोग उसे कैसे ग्रहण करेंगे, उसके क्या अर्थ लगायेंगे, उसके क्या राजनीतिक निहितार्थ निकालेंगे इससे कम से कम लिखते समय कोई मतलब नहीं रखती- यह innocence of text ही भावी समय का साहित्य बनेगा।
अब जबकि दुनिया की हर चीज़ पर अर्थों की तहें ही तहें जमी हुई है, किसी चीज़ का अर्थ वह नहीं जो कि था या होना चाहिए, उस अर्थ की खोज ही साहित्य होगा। बानू मुश्ताक़ शायद उसी तरह की कहानीकार है।
बढ़िया कहानी.बानू साहसी कहानीकार हैं जिनके भीतर कथा कहन की नैसर्गिक प्रतिभा है.एक ही बैठक में पढ़ी जाने वाली कहानी.अनुवादक द्वय का आभार
जब से बानु मुश्ताक़ को अंतराष्ट्रीय बुकर मिला है, दो बात स्पष्ट हुई हैं: पहला, यह पुरस्कार वाकई कहन और कथन के लिए ही दिया जाता है भले भी हमारे दिमाग़ में भरी रेत उस किताब को पढ़ने समझने ही न दे और दूसरा, हम भारतीय साहित्य को कितना कम जानते हैं।
जमीन से उठकर आती यह कहानी वाद-विवाद वाले क्रांतिकारियों और पर-धर्म-सुधारवादियों को पसंद न आए मगर यह बिना लाग लपेट बहुत कुछ कह जाती है। लेखिका अपनी राय जरा भी नहीं कहती थोपती, कथानक खुद अपना अर्थ देता है। बानू साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि हैं। खेद कि मुझे उनके बारे में एक तीसरे देश द्वारा दिये गए पुरस्कार के बाद पता चला।
रौंगटे खड़े हो गए पर ऐसा नहीं लगता जैसे “राख” को उपयुक्त ठहराया हो। राख का प्रयोग लोक में होता रहा है पर वर्तमान में ख़तरनाक है। अनुवाद बढ़िया ” अचानक से ” प्रयुक्ति खटकती है। ‘से’ अनावश्यक है।
Thanks for translation
I have gone through English .
This is a good translation.
अनुवादक द्वय और संपादक को धन्यवाद। कुप्रथा को सामने लाना ही कहानी कार का मुख्य उद्देश्य है लेकिन इसी बहाने गरीबी और बेबसी को भी महसूस किया जा सकता है। उम्मीद है कि बानू की और भी कहानियां अनूदित होकर पढ़ने को मिलेंगी।
खतना किया जाना सुने कई वर्ष हो गए । गुरु तेग़ बहादुर ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दिया था । उसमें प्रसंग है कि तेग़ बहादुर ने बलिदान न दिया होता तो सुन्नत होती सबकी । इसे संदर्भ के रूप में समझें ।
इस्लाम में उनकी अपनी मान्यताएँ हैं । बानू मुश्ताक़ ने निर्लेप रहते हुए सुन्नत के कई या सभी पहलुओं को छुआ है । एक युवक ने डेटॉल एंटीसेप्टिक इस्तेमाल करने की सलाह का उल्लेख करना मैडम मुश्ताक़ की प्रगतिशील सोच का परिचय दिया है । अमीरों के लिए डॉक्टर और ग़रीबों के लिए ईश्वर आधार हैं ।
फटेहाल साड़ी और बुर्क़ा पहनना समाज की वस्तुस्थिति का संकेत देता है । एक टिप्पणीकार ने दोड़म्मा या दोडन्मा सहित एक और शब्द का अनुवाद किया है । शोहरत साहब ने अर्थ लिखने थे ।
हम जिस परिवेश में पले बढ़े और रहते हैं यहाँ हिन्दू बहुल इलाक़ा है । इसलिए समालोचन ने मुझ जैसे पाठकों को वाक़िफ़ कराया । शुक्रिया ।
एक जगह लाल कपड़े का संदर्भ देते हुए लिखा है-कपड़ा काफ़ी बचा है । पशोपेश में हूँ । सोचता रहा हूँ कि काफ़ी कपड़ा बचा है । यद्यपि यहाँ किए गए उल्लेख से सहमत हूँ पर असमंजस में भी ।
इब्राहिम महोदय ने-‘हर चीज़ को अच्छे से’ लिखकर बात पूरी की । अनपढ़ से लेकर चिकित्सकों, चित्रकारों से होते हुए फ़िल्मों के पटकथा लेखक भी अच्छे से लिखकर कहलवाते हैं । मेरी सम्मति से कुछ कमी है । जैसा प्रसंग हो उसके अनुसार अच्छे तरीक़े से या अच्छी तरह से लिखना चाहिए था ।
आख़िर इस कहानी से क्या संदेश मिल रहा है। बाकि अनुवाद बेहतर लगा। एकदम सबकुछ समझ और महसूस कर पाए। धन्यवाद।
कहानी ऐसी ही होनी चाहिए न कि आज की पत्रकारिता की तरह कि पाठक की समझ के पहले अपने विचारों को उड़ेल देना। अगर लिखी है तो पढ़ने दीजिए पाठक को वो ख़ुद ख़त्म करके सोचेगा पर आजकल भीड़ लगी है कुछ इस तरह से लिखें की जहां लेखक लिखने के बाद उस दर्शन को लिखने लगता है जो उसी विश्वास होता है कि पाठक तक शायद नहीं पहुँचेगा। और जानबूझकर ऐसी पंक्तियाँ डाल देना जिस से सोशल मीडिया पोस्ट बनाई जा सके। कहीं से लगा ही नहीं कि अनुवाद पढ़ रहे हैं और इसके लिए अनुवादकों का आभार।
इतनी साधारण सी लगने वाली कहतीं में न जाने कितनी परतें काम कर रहीं थीं जैसे Bong Joon Ho की Parasite देखकर लगा था।
बानू मुश्ताक़ जी की सभी कहानियों का हिन्दी में अनुवाद हो पाये ऐसा मन है
बानू मुश्ताक़ की कहानी ‘लाल लुंगी’ पढ़कर विस्मित हूँ। इतनी मासूमियत से अपने समय, समाज और धार्मिक रवायतों पर पैनी नज़र! और ग़ज़ब का बेखौफ़ भाव यह कि आप सत्ता-व्यवस्था के गढ़ पर ढेले भी फेंक रहे हैं और घूमती सर्चलाइट की तरह अंधेरे कोनों को रोशन कर निरापद आगे भी बढ़ रहे हैं!
एक नए आस्वाद की कहानी है यह।
परंपरागत ढंग से साहित्य पढ़ने की आदत यहाँ काम नहीं आती। काम में लाने की कोशिश की तो अब्बास द्वारा सामूहिक ख़तने के दौरान सेप्टिक की आशंका मात्र से मन बल्लियों उछल पड़ा कि रशीद जहाँ की कहानी ‘आसिफ़जहां की बहू’ की तरह यह कहानी भी अब कठमुल्ला सोच के बरक्स हेल्थ, साइंस, जहालत जैसे मुद्दों को उठाएगी।…पर नहीं। फिर ग़रीब स्त्रियों का अपनी गोद के बच्चे और ख़तना कराए गए बच्चे को लेकर इस उम्मीद में हाज़िर होना कि ख़तने के बहाने पेट भरने को ख़ैरात तो मिलेगी … मन कसैला हुआ पर पाठकीय अभ्यास के कारण संतुष्ट भी हुआ कि हां, अब कहानी का मर्म समझ में आ रहा है। यह वर्ग-संघर्ष की ओर जाने की तैयारी में है। लेकिन हर बार कहानी फिसलकर अपनी राह पर बढ़ती गई जैसे खिड़की से छन कर आती जाड़े की धूप हरचंद कोशिश के बावजूद मुट्ठी में नहीं समाती।
कहानी पानी की तरह अपनी राह बनाती बढ़ रही है – मिट्टी की गमक को उठाती और समतल दिखने वाली ज़मीन में पड़े उन छोटे-छोटे गड्ढों की ओर इशारा करती जहाँ ज़रा-सा पानी बहाव के बावजूद ठहर गया है। वे गड्ढे किसने बनाए हैं? क्यों हम सबकी स्वीकृति/सहानुभूति/अनदेखी की वजह से अभी भी क़ायम हैं? कहानी कैमरे की आँख की तरह बहुत कुछ जाना-बूझा, देखा-स्वीकारा फ़ोकस लाती है और सवालिया निशान की तरह सामने खड़ी हो जाती है कि छोटी-छोटी किरचों-दरकनों की अनदेखी क्यों?
बहरहाल समय को साँस की धुन में बसा लेने के कारण बानू मुश्ताक़ को सम्मानित किया ही जाना चाहिए था। उन्हें मुबारकबाद।
मुबारकबाद समालोचन को भी और अनुवादक-द्वय को भी। बेहतरीन से ख़बर बनाए रखने के लिए।
Banu name has to me remembered by all , Her books has to be introduced in all educational and university level .i always think about her inner mind about women in all aspects of life . She is great, Her name has to be proposed to one of the govt Kannada school in Hassan.
बहुत अच्छी और मार्मिक कहानी है ।एक अनजानी दुनिया को करीब से देखना सुखद है।
बेहतरीन अनुवाद के लिए दोनों अनुवादक को बधाई और धन्यवाद।
कहानी में कहीं बकरे और मुर्गे भी हैं। कहानी में खतना के दौरान हुए छोटे से ज़ख्म को लेकर तो काफ़ी चीख-चिल्लाहट है, लेकिन बकरे और मुर्गे ऐसे आते हैं जैसे कि वे बस कटने और पकने और खाये जाने के लिए ही हैं। अधिकतर “साहित्य” में वे इसी तरह आते हैं। अधिकतर “साहित्य” को केवल मनुष्य समाज की ही चिन्ता है।
Uzma Kalam
कहानी अन्त में सिर्फ यही मैसेज देती है “जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है।” यह मुस्लिम परिवारो में बोली जाने वाली बहुत common line है। storyline focusing only on poverty. खतना की प्रक्रिया की डिटेलिंग की गई है। जो आम तौर पर किसी को भी attract करेगी। लेकिन जिस तरह से इस प्रक्रिया का celebration हैं । ऐसा कभी देखा और सुना नहीं । हो सकता South में ऐसा हो। यह प्रक्रिया बहुत सस्ती होती है और घर के लोगो की मौजूदगी में हो जाती है। आज कल लोग सर्जन से कराते है। लेकिन नाई के द्वारा किये गये को बहुत से पैसे वाले लोग भी prefer करते हैं क्योंकि वह जल्दी ठीक होता है। हाँ खेलते कूदते बच्चो को इस जंजाल में फँसाने में दिल हर माँ बाप का दुखता है। लेकिन कुल मिलाकर इतनी धूमधाम नहीं देखी। यह रस्म एक किरकिरी की तरह ही है। लेकिन कहानी में सिर्फ़ गरीबी को उकेरने की कोशिश हुई है। but focus इस प्रक्रिया पर ज़्यादा आयेगा।
मैं इस बात सहमत नहीं हूं कि उत्तर भारत में इस तरह की रस्म नहीं की जाती। हमारे यहां पश्चिमी यूपी में खतना, जिसे सुन्नत भी कहते हैं, कराने के वक्त किया जाना फंक्शन किसी भव्य समारोह से कम नहीं होता। लोग करीबी रिश्तेदारों के साथ-साथ यार-दोस्तों, आस-पड़ोस और अन्य लोगों भी आमंत्रित करते हैं। जिस बच्चे की सुन्नत होती है, उसके ननिहाल वाले उसके लिए अच्छे-खासे तोहफे लाते हैं। बाकी लोग भी उसे तोहफे में कुछ न कुछ देते हैं। अधिकतर पैसे। खाना भी अच्छा ही होता है। ज़र्दा बिरयानी और नान कोरमा। मैं इस तरह के बहुत से समारोह में शामिल हुआ हूं।
“‘लाल लुंगी’ एक ऐसे अनुष्ठान को ‘तमाशा’ कहने का साहस रखती है, जो सामूहिक सहमति से पवित्र बना दिया गया है। परन्तु इसी साहस के बीच, राख से की गई देह की सहज चिकित्सा को ‘बेहतर’ ठहराना लेखिका के भीतर गहरे बैठे सांस्कृतिक विश्वासों और लोकचिकित्सा के प्रति आदर का संकेत भी है। यह विरोधाभास दरअसल एक गवाही है—कि परंपरा का अस्वीकार भी पूरी तरह असंदिग्ध नहीं होता। कहानी इस द्वंद्व के साथ खड़ी है—जैसे तमाशा देखते हुए भी हम उसमें शामिल रहते हैं।”
शीर्षक ‘लाल लुंगी’ एक गहरे प्रतीक की तरह उभरता है—रक्त, अनुष्ठान और सांस्कृतिक विरासत की स्मृतियों से रंगा हुआ। यह लुंगी केवल एक वस्त्र नहीं, एक दृश्य है—जो पीढ़ियों से चले आ रहे अनुभवों, रीति-रिवाज़ों और उनके असर को समेटे हुए है। यह उस पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने की भी झलक देती है जहाँ परंपरा के साथ व्यक्ति का निजी अनुभव भी जुड़ा होता है, कभी सहज, कभी असहज।
अनुवादकों का काम उम्दा है पर
लतीफ अहमद के छह और चार अनुजों वाली बात हैरत पैदा करती है, जो Sachchidanand Ji ने लिखी है।
एक जिज्ञासा पूरी हुई, समालोचन को धन्यवाद।
ग़रीब और अमीर दोनों तबक़ों के रस्मो-रिवाज को तफ़सील से बयान किया गया है और उनके दरमियान मौजूद फ़र्क़ की तरफ़ भी निहायत लतीफ़ अंदाज़ में इशारा किया गया है। चूँकि ऐसी रस्में मज़हब, संस्कृति और सामाजिक पहचान से जुड़ी होती हैं, इसलिए इन पर सवाल उठाना बज़ाहिर आसान नहीं होता। यही वजह है कि ज़रूरी है हम इन रस्मों को जज़्बात या तास्सुब से हट कर समझने की कोशिश करें और यही वो काम है जो यह कहानी निहायत ख़ूबी से अंजाम देती है।
लेखिका की तवज्जो ज़्यादातर तबक़ाती फ़र्क़ को उजागर करने पर मरकूज़ है, जहाँ एक ही रस्म की अदायगी के अंदाज़ में भी अमीरी और ग़रीबी की लकीर नुमायां हो जाती है। हमारे ख़ानदान में आम तौर पर इस रस्म को इज्तिमाई (सामूहिक) सतह पर अंजाम नहीं दिया जाता बल्कि ख़ामोशी और राज़दारी के साथ, गोया रस्म को छुपाते हुए, अदा किया जाता है यहाँ तक कि क़रीबियों को भी ख़बर नहीं होती। चाहे रस्म कितने ही धूम- धाम से ही क्यूँ ना हो, ये बात ज़रूर है कि बच्चे के वालिदैन दादा दादी नाना नानी दिल ही दिल में बेहद डरे और परेशान हो रहे होते हैं ये सोचकर की बच्चा किस क़दर डरा हुआ होगा।ख़ैर! कहानी की बात करें तो कहानी ग़रीबी पर ज़ियादा तवज्जह देती नज़र आती है।
इतने फौरी तौर पर कहानी पढ़ाने के लिए समालोचन और अरुण देव साहेब का बहुत शुक्रिया!🌸
चाह रही थी कि ‘ लाल लुंगी ‘ पढ़ने को मिले।
‘समालोचन ‘ का आभार।
नरगिस फ़ातिमा जी ने बहुत सधी हुई, समीक्षात्मक टिप्पणी की है।मैं भी कहानी पढ़कर यही सोच रही थी कि यह कहानी समाज में एक ही जाति – धर्म के लोगों में वर्ग वैष्मय को दर्शाती है।
एक तरफ जश्न और आधुनिक चिकित्सा पद्धति दूसरी तरफ़ पारम्परिक,पुरातन तरीका और अभाव ग्रस्त जीवन।
जिजिविषा ,जीवटता उस वर्ग के बालक में अधिक है जो निर्धन है, उपेक्षित है, हाशिए पर है।
इस सच को कहानी में कह देने के लिए बानू मुश्ताक का शुक्रिया। प्रवाहमयी अनुवाद है। याद रहने वाली कहानी।
बड़ी सहजता से कहानी आगे बढ़ती है और देखे हुए सच से रूबरू कराती है। कहानी के कई पाठ हैं। वर्ग भेद,गरीबी आदि। बहुत से लोग इसे कूपमण्डूकता को बढ़ावा देना भी बता रहे। आखिर राख का इस्तेमाल करने वाले जल्दी चंगे जो हो गये। उन्हें कोई सेप्टिक इंफेक्शन नहीं हुआ। बताती चलूं मै गोरखपुर के बांसगांव की हूं । शायद सदियों से वहां श्रीनेत्र ठाकुरों में एक परंपरा है। दशहरे की नवमी तिथि पर सारे पुरुष,फिर वो नवजात ही क्यों न हो वहां के दुर्गा मंदिर में बलि दिलवाते हैं। जिनके जनेऊ हो चुके होते उन्हें नौ जगह कट लगाये जाते और बाकि को सिर्फ माथे पर। किसी किसी को तो इतना खून बहता है कि उनकी धोती,गमछा आदि तर हो जाते खून से। बेर के पत्ते से खून पोछकर देवी को अर्पित कर वहीं से राख लेकर कट वाली जगह पर मल ली जाती। मैने बचपन से अपने परिवार के पुरूषों को बड़ी श्रद्धा और उत्साह से इस अनुष्ठान को करते देखा हैं। दूर दराज के शहरों में रहने वाले भी इस दिन इस कोशिश में रहते हैं कि गांव पहुँच ही जाएं। बहरहाल ये तो आस्था की बात थी। वैसे भी पहले जमाने में (मेरी याददाश्त में है वो जमाना)लोग राख से बर्तन मांजते थे। शौच के बाद राख से ही हाथ धुलते थे और पत्तेदार सब्जियों पर बतौर कीटनाशक राख का छिड़काव करते थे।
बानू मुश्ताक की कहानियों से बहुत पहले से वाकिफ़ हूँ। अपने समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के चित्रण में वे इतनी पारंगत हैं कि अपनी सहज सादा नैरेशन के बावजूद प्रभावित करती हैं। इनकी कहानियों की विषय-वस्तु में एक ऐसा पैनापन व्याप्त रहता है जो इनके समाज की विडंबनाओं और वंचनाओं पर सूक्ष्म प्रहार करता है।
मैसूर से (अब सिंगापोर) मेरी एक मित्र लवलीन जौली के द्वारा सीधे कन्नड़ से हिन्दी में अनूदित उनकी दो कहानियाँ कुछ साल पहले हमने ‘भाषा’ पत्रिका (केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली) में छापी थीं। बाद में ज्ञानपीठ ने भी लवलीन जी के उस अनूदित कहानी संग्रह को प्रकाशित किया। निश्चय ही बानू मुश्ताक की वे कहानियाँ ‘लुंगी’ पर भारी हैं।
बानू मुश्ताक को उनके इस विशिष्ट कथा-कहन के लिए साधुवाद। अनुवादकों का धन्यवाद। समालोचन को सामयिक और गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।
खतना सफाई के लिए किया जाता है । पहले बगैर एनेस्थीसिया के किया जाता था । अब हॉस्पिटल में आराम से हो जाता है । मुस्लिम और यहूदियों के लिए ये ये compulsory है । अंग्रेजी में इसे circumcision कहते हैं । ये कोई बुरी प्रथा नहीं है । Google में जाकर circumscisson के फायदे आप देख सकते हैं
अभी-अभी बानू मुश्कात जी की कहानी ‘लाल लुंगी’ का अनुवाद पढ़ी हूँ ,मन अजीब कशमकश में उलझा हुआ है। एक ही सांस में पूरी कहानी पढ़ डाली। अनुवाद ने कहानी की आत्मा को पूरी तरह बचाए रखा है। धन्यवाद समालोचना को भी।
समालोचन समकालीन हिंदी संसार में सबसे विश्वसनीय और सजग पत्रिका है।बानू मुश्ताक़ की लाल लूंगी बहुत ही मार्मिक कहानी लगी। कहानी मुस्लिम समाज में अशराफ वर्ग और पसमांदा के बीच माली हालत के अंतर को मार्मिक रूप से बयान करती है। कहानी में खतने के जलसे को बहुत ही जीवंत ढंग से उकेरा है। गरीब लड़के आरीफ और अशराफ वर्ग के समद के खतने के जरिए यह बताया गया है कि दोनों की सुन्नत संबधी आस्था में अंतर आ जाता है। आरीफ का घाव केवल राख से भर जाता है जबकी समद को एंटिबायोटिक्स दवाएं भी नकारा साबित होती है। खतने के बाद आरीफ का अहले सुन्नत का दम भरना और दूसरे लड़कों को होंसला देना बहुत मनोवैज्ञानिक लगता है। पहलवान इब्राहिम हज्जाम की खतने की तैयारियों का बारीकी से चित्र खींचा गया है। खून , चीख, आस्था, ठिठोली करते लड़कों का मंजर को देखकर महाकवि अकबर इलाहाबादी का शेर याद आ जाता है।
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
मुसलमानी में ताक़त ख़ून ही बहने से आती है
अकबर इलाहाबादी
बहुत दिलचस्प कहानी है और इसका अनुवाद इतना शानदार है कि यह हिंदी की ही कहानी लगती है. इसलिए अनुवादक द्वय को बहुत बहुत बधाई.
मैंने पहली बार बानु मुशताक को पढ़ा है कहानी बड़ी सेहज और सरलता से पात्रों के इर्द गिर्द घूमती है खतना परम्परा का जिक्र कहानी का आकर्षक है आरिफ का घाव राख से भर जाना गरीबी की हक़ीक़त बयान करता है
इंटर नेशनल बुकर विजेता भारतीय लेखिका बानू मुश्ताक जी को पढ़ने की गहरी चाह पैदा हो गयी थी। सोच रहा था समालोचन पर ही उनका लिखा सर्वप्रथम पढ़ने को मिले और यह हुआ भी लाल लुंगी का अनुवाद प्रकाशित हुआ। हार्दिक आभार समालोचन को।
कहानी में ज़रूर ही वह पक्ष विचार के स्तर पर विज्ञान सम्मत नहीं लगता जब ख़तना की रस्म के लिए बिना सुरक्षा वाली देसी विधि के पक्ष में कहानी जाती हुई लगती है।
पर बिना किसी विज्ञान या विचार प्रतिबद्धता के जीवन में बहुत कुछ होता है, जिसे रूढ़ि कहते हैं, परंपरा या रिवाज की शक्ल में। वह सही हो गलत हो हम सभी कुछ न कुछ ऐसा ढोते हैं। उसी सच्चाई को, उसी सत्य अनुभूति को बिना किसी लेखकीय आदर्श स्थापना के लेखिका ने सहज रूप से कह दिया है। इस कहानी के मार्फत मुस्लिम समाज की रस्मों धारणाओं के बारे में जानने को मिला। गरीबी का मार्मिक चित्रण हुआ है। यह कहानी किसी बदलाव की ओर इशारा भले न करती हो पर वस्तु स्थिति दिखाना भी एक दायित्व होता है जो पाठक के भीतर वह विवेक पैदा कर दे, जिसकी अपेक्षा हम कहानी से पाले रखते हैं। बधाई बानू जी को और अनुवादक साथियों को शुक्रिया बहुत
कहानी अपने संकेत में परम्परा गत तरीके से किये गए सुन्नत का समर्थन करती है और डॉक्टर के द्वारा किये सुन्नत का विरोध. जबकि इस कुप्रथा का विरोध किया जाना था.फिर इसे अच्छी कहानी कैसे माना जाए?
कुप्रथा हो गई क्योंकि मुसलमानों से जुड़ी है। कोई भी यूरोलॉजिस्ट आपको बता देगा कि खतना कराना सेहत के नज़रिए से कितना अच्छा है।
बानू मुश्ताक की यह कहानी देश के एक बड़े वर्ग के समकालीन समाज के सच को ज्यों का त्यों हमारे सामने रख देती है, कहानीकार की ओर से बिना किसी टिप्पणी, बिना किसी उपदेश के। कहानी ने हमें कहां छुआ यह हमारी संवेदना पर निर्भर है। यह सिर्फ मुस्लिम समाज का सच नहीं है, बल्कि पूरे देश का है। गरीबी और अंधविश्वास हर वर्ग में एक जैसा है। कहानी चूंकि किसी विमर्श के खांचे में नहीं फिट होती इसलिए हो सकता है कुछ लोगों को न अच्छी लगे। लेकिन कहानी पढ़ते समय जो बेचैनी होती है और पढ़ने के बाद जो मनःस्थिति होती है, वही इसकी उपलब्धि है। अब शायद जटिलता के प्रति आग्रह इतना अधिक है कि बानू की कहानियां लोगों को सपाट लग सकती हैं। अनुवाद अच्छा है। युवा अनुवादकों को शुभकामनाएं।
कथाकार का दायित्व है कि समकालीन समाज के सच को पाठकों के सामने रखे, जिसे कथाकार के नाते बानू मुश्ताक जी ने पूरी शिद्दत से निभाया है।। हर समाज की अपनी-अपनी रस्में होती हैं, रिवाज होते हैं, जिससे दूसरा समाज पूरी तरह से परिचित नहीं होता।। लेकिन गरीबी-अमीरी हर समाज का जीता-जागता सच है।। बानू मुश्ताक जी की यह कहानी सार्वभौमिक है, गरीबी की लाचारी को सामने लाती है।। लेखिका को पुरस्कार के लिए बधाई और अनुवादकों को भी धन्यवाद कि उनके कारण बानू जी की यह पहली कहानी पढ़ने को मिली।।
निश्चित रूप से कहानी अपने आप को पढ़वा ले जाने में सक्षम है। मुस्लिम समाज की एक प्रथा का भी बखूबी चित्रण किया गया है। खतना को इस्लाम के लिए जरूरी माना गया है। लेकिन इस मान्यता का संकेत भर दिया गया है। विस्तार होता तो बेहतर होता। खतना की प्रक्रिया और गरीब परिवारों में उसको लेकर कुछ प्राप्त करने की लालसा बेचैन करती है। भीतर ही भीतर बहुत जोर से प्रश्न उठाती है कि इसी समाज में यह प्रथा अनिवार्य क्यों है?। कहानी में इसका न कोई जवाब है और न ही प्रतिरोध। शायद इसलिए कि उस समाज ने भी इसे पूरी तरह स्वीकृत किया हुआ हो। वहीं प्रतिरोध नहीं तो कहानी में क्यों? आधुनिक डॉक्टर तक दवा तो देता है लेकिन इस प्रथा का प्रतिरोध नहीं करता। मुझे तो यह कहानी काफी अजीब और अधूरी लगी है। और मजबूर भी।
विरोध किस चीज़ का? और आप विरोध कराना क्यों चाहते हैं? क्या आप हिंदू धर्म में नामकरण और इस तरह की अन्य प्रथाओं को खत्म करवा सकते हैं? या ईसाइयत में बपतिस्मा को? नहीं ना। फिर, लेखिका ने बताया है कि यह प्रथा पैगंबर इब्राहिम के समय से चली आ रही है। यहूदियों और मुसलमानों में खतना करवाना अनिवार्य है। यहूदियों का पता नहीं, लेकिन मुसलमान में इसे सुन्नत करते हैं। यानी पैगंबर मुहम्मद का तरीका। पैगंबर का खतना हुआ था तो हर मुसलमान उसे करवाता है। और अगर इस प्रथा से धार्मिक नज़रिया हटा भी दिया जाए और इसके इतिहास में जाया जाए तो शायद आपको पता चले कि यह प्रथा मिस्र में प्रचलित था। वहां इसे पुरुषों के शिशन को बीमारी और गंदगी से बचाने के लिए ईजाद किया गया था। पैगंबर मूसा द्वारा आज़ादी करवाये जाने और यरुशलम में बसाये जाने से पहले एक समय में चूंकि यहूदी गुलाम के रूप में मिस्र में रहे थे तो हो सकता है कि यह प्रथा उन्होंने वहां से ली हो। मगर पैगंबर इब्राहिम का समय मिस्र के फराओं से भी पहले का है तो यह भी हो सकता है कि उनके ज़रिये यह प्रथा मिस्र में पहुंची हो और फिर वहां से अन्य समुदायों में। ख़ैर, यह ज़रूरी नहीं कि हर चीज़ का विरोध किया जाए। बहुत-सी चीज़ें ऐसे ही भी होती हैं, यूं ही। जो मामूली लगने के बावजूद अपनी जगह काफी अहम होती हैं।
कहानी तो अपने आप में उम्दा है ही, अनुवाद भी बेहतरीन है। ऐसी प्रथाओं को जानने समझने में मददगार होने के साथ साथ कहानी वर्गीय अंतर को समझने में भी भूमिका निभाती है। आभार, पढ़ाने के लिए।
बेहतरीन अनुवाद।
बानू मुश्ताक द्वारा मुस्लिम समाज की सुन्नत प्रथा को चित्रित करती कहानी मन को विचलित करती है…..कहानी का संदेश भ्रामक है पर शिल्प जरूर अच्छा है
पहली बार पढ़ा सम्मानित लेखिका को।
अनुवाद में मूल का स्वाद है। ग़ज़ब का फ्लो।
प्रेमचंद वाली किस्सागोई ।ऐसी सादगी आसान नहीं।
दृश्यात्मकता भी खूब।
उस्तरे से किए गए ख़तने और राख -चिकित्सा के महिमा-मंडन ने निराश किया।
बुकर पुरस्कार विजेता बानू मुश्ताक की कहानी ‘लाल लूंगी’ पढ़ी। शहादत और अक्षत जैन ने बढ़िया, त्रुटिरहित और भावपूर्ण अनुवाद किया है। कहानी में जिस तारतम्यता और सहजता से विषय वस्तु की डिटेल मौजूद है, वह बानू की गहन कथाकारिता का बेहतर उदाहरण है। मुस्लिम समाज की अनिवार्य रस्म ‘खतना’ जिसे औपचारिक रूप से सुन्नत-ए-इब्राहीमी कहा जाता है, पर केंद्रित कहानी अन्य स्थितियों को भी बखूबी चित्रित करती है, जैसे..अधिक बच्चे, तबकाई फर्क, परंपरा और आधुनिकता आदि। अमीर खानदान के लतीफ अहमद की उदारता, उनकी बीवी रजिया की उदारता को अच्छी बानगी है पूरी कहानी में। सुन्नत की पारंपरिक और आधुनिक प्रक्रिया की कशमकश भी है। पारंपरिक तरीके से खतना करने में माहिर इब्राहीम के गुमान को पुश करती अब्बास की एंटीसेप्टिक के प्रयोग की पेशकश प्रक्रियागत बदलाव चाहने वालों की ओर इशारा करती है। हालांकि अपनी बातों की दुलत्ती से इब्राहीम उसे सार्वजनिक हंसी का पात्र बना देता है। बदलाव की वैयक्तिक इच्छा को लीक पर चलने वाले समूह की हिकारत सहनी पड़ती है। सुन्नत-ए-इब्राहीमी का सामूहिक इंतेजाम करने वाले लतीफ अहमद खुद अपने घर के बच्चों की सुन्नत डॉ. प्रकाश की क्लीनिक पर करवाते हैं। यह फर्क आया है कहानी के मुताबिक। अच्छी बात यह भी है कि असद के घाव ठीक होने के बाद आयोजित जश्न में हर तबके को बुलावा दिया जाता है। इसके पहले सुन्नत प्रक्रिया के पारंपरिक आयोजन में शामिल होकर आर्थिक लाभ पाने की ललक गरीबी की उस इंतिहा को भी दर्शाती है जो पेट के लिए लिहाज को भी दांव लगाने पर मजबूर होती है। समाज से गरीबी दूर करना एकल प्रयास से संभव नहीं है, लेकिन कुछ लोगों की मदद से चेहरों पर मुस्कान लाई जा सकती है। जश्न-ए-सुन्नत में शामिल होने के लिए गरीब आरिफ को आलमारी में रखे कपड़े देकर रजिया इसकी बानगी पेश करती है। कुल मिलाकर कहानी पठनीय, विचारणीय और प्रशंसनीय है।
लेकिन……
लेकिन कुछ सवाल हैं जो खड़े होते हैं।
1. बच्चों के घावों के भरने में फर्क से साफ है कि सुन्नत के पारंपरिक तरीके को तवज्जो दी गई है। इब्राहिम द्वारा संपन्न किए गए सामूहिक खतने वाले बच्चों के घाव जल्दी भर जाते हैं, जबकि डॉ. प्रकाश के ऑपरेशन से घाव में संक्रमण हो जाता है। खतने के बाद राख छिड़कने से आरिफ का घाव चार दिन में ठीक हो जाता है और वह पेड़ पर चढ़कर फल खाने लगता है। ऑपरेशन प्रकिया से असद को ठीक होने में 11 दिन लग जाते हैं। संक्रमण घाव पर राख डालने से होगा या एंटीसेप्टिक के प्रयोग से?
2. सुन्नत जरूरी क्यों? सेहतजन्य बेहतरी के लिए या इस्लामिक अनिवार्यता को हूबहू स्वीकारने के लिए। दुनिया में अगर करोड़ों लोग बगैर खतने के स्वस्थ जीवन जी रहे हैं तो पहली वजह खारिज हो जाती है। रह जाती है दूसरी वजह जो कहती है कि खतने के बगैर मुस्लिम नहीं। तो यह मामला सीधे सीधे धार्मिक है जो इससे छूट देने को कतई राजी नहीं। इतनी दयालु और उदार होकर भी रजिया अपने बच्चे को इस कष्टकारी और सिहराने वाली रस्म से बचाने की कोशिश क्यों नहीं करती? किसका डर है? कैसी ममता है? ….एक भी बच्चे को लेखिका इस प्रक्रिया से बचा ले जाती तो कहानी बड़ी लकीर खींच सकती थी।
3. इस कहानी को पढ़ते हुए हरि मृदुल की कहानी ‘अर्जन्या’ याद आई जो बछड़े के बधियाकरण का दिल दहलाने वाला वर्णन करती है। बछड़ों के बधियाकरण में विकल्प होता है। जिन्हें बैल बनाना होता है, उन बछड़ों का बधिया किया जाता है। लेकिन प्रजनन करने के लिए कुछ को इससे मुक्त रखा जाता है। बैल वह जो मालिक के मुताबिक चलता है। बंधी-बंधाई लीक ही उसका जीवन होता है। सांढ़ वह जो उन्मुक्त होते हुए भी वंशवृद्धि के लिए आवश्यक होता है।
4. अभी पहलगाम की घटना में खतने का खतरा सामने आया। बगैर खतने वाले मारे गए। यदि मुस्लिम समाज में बिना खतना वाले लोगों की एक प्रतिशत भी संभावना होती तो पहलगाम के कातिल हिचकते। उनके मन में एक आशंका जरूर होती कि शायद सामने वाला समान धर्म का ही हो। इस संभावना को सच में बदलने का कोई प्रयास लेखिका की ओर से नहीं किया गया है।
बावजूद इसके….
परिवर्तनकारी न होते हुए भी कहानी अच्छी है।
आई हुई बहुत सी टिप्पणियों से यह स्पष्ट होता है कि आम भारतीय को दूसरे धर्म में सभी सुधार चाहिए – अपना दहेज जिंदाबाद उनका मेहर बुरा, या इसके विपरीत। दोनों के पास पक्ष विपक्ष के तर्क हैं, मैं सम्मान करता हूँ।
मगर सुधार हम समाज में अपने अंदर से होने चाहिए वरना कानून बना कर तो दहेज जैसी साधारण चीज भी खत्म नहीं हुआ। जबकि यह आम चलन के रूप में स्वीकार्य भी नहीं है।
भारतीय हिन्दू समाज यहूदियों का बड़ा आदर है, मगर खतना उसी परंपरा का हिस्सा है यह कल्पना करना हिंदुओं के लिए कठिन है। यह बात, काफी हद तक, कोशर और हलाल खाने को लेकर भी है। शायद खतना के ऊपर किसी हिब्रू कहानी के अनुवाद की दरकार है।
एक बात और साड़ी भारत में सभी धर्मों के लोग पहनते है। और इस कहानी में स्पष्ट है कि साड़ी पहनकर आने वाली महिला के पुत्र का खतना पहले से हो चुका है, मगर कई पाठकों ने उसे मात्र साड़ी के आधार पर गैर-मुस्लिम मान लिया है। हम अपना तेरा करने में अधिक जल्दबाज़ है।
बहुत ही अच्छी कहानी लगी। कुछ लोगों को परेशानी है कि ऐसा नहीं होता है उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह एक कहानी है जिसमें छूट ली जा सकती है।
बहुत अच्छी कहानी। पढ़कर लगा कि जैसे किसी बंद दुनिया के किवाड़ खुल गए। अनुवाद की भी तारीफ़ करना चाहिए।
सबसे पहले तो बानू मुश्ताक की यह कहानी पढ़ाने के लिए समालोचन का धन्यवाद किया जाना चाहिए। शहादत और अक्षत ने भी कहानी का बहुत अच्छा अनुवाद किया है।
बानू मुश्ताक की यह कहानी कई बंद किवाड़ों को खोलती हुई दिखती है। एक बंद दुनिया के कुछ जाहिर-छिपे नजारे यहां पर दिखाई देती हैं। मुझे कहानी बेहद पसंद आई। सुन्नत कराने की रस्म इस कहानी के मूल कहन में है। लेकिन, मेरा मानना है कि यह कहानी जिस बात पर सबसे ज्यादा चोट करती है वह है एक वर्गीय समाज। दीन-धर्म की आड़ में चलने वाले वर्गीय कार्य-व्यापार को बहुत ही सूक्ष्मता से यह कहानी उजागर करती है।
कुछ लोगों का कहना है कि यह सुन्नत कराने के आधुनिक तरीके के बरख्श पुराने तरीके की वकालत करती है। मेरी नजर में ऐसा नहीं है। बानू मुश्ताक ने मिडिल क्लास द्वारा हर जगह मसीहाई लेने की प्रवृत्ति पर चोट किया है। एक संपन्न परिवार अपने बच्चों के लिए तो एक सर्जन के जरिए सुन्नत कराने की व्यवस्था कराता है। लेकिन, लगे हाथ वह चाहता है कि पूरे मुहल्ले के गरीब बच्चों की सुन्नत भी करा दे। ताकि, पूरे मोहल्ले में उसकी साख बन जाए। गरीबों के लिए वह पुराने तरीके की व्यवस्था करता है। लेकिन, अपने बच्चों को लेकर वह पूरी तरह से सावधान है।
यह कुछ ऐसा ही है कि करोड़पति लोग कांवड़ यात्रा के शिविर लगाते दिखते हैं लेकिन उनके खुद के बच्चे कांवड़ यात्रा में शामिल नहीं होते। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो सड़क पर भंडारा लगाते हैं लेकिन खुद वो भंडारा नहीं खाते। फ्रिज में रखी मिठाइयों में जब भुकुड़ी लगने लगती है तो उसे कामवाली को दे देते हैं।
अफसोस की बात यह है कि यह सबकुछ दीन-धर्म की आड़ में चलता है। परोपकार की आड़ में यह वर्गीय भेदभाव और हिकारत मौजूद होती है। बानू मुश्ताक ने इसे बहुत ही बारीकी से कहा है।
सर्जन से सुन्नत कराने के बावजूद मिडिल क्लास घर के बच्चे को इंफेक्शन हो गया और सुन्नत करके केवल राख मल देने के बावजूद गरीब घर के बच्चे को इंफेक्शन नहीं हुआ। घर की मालिकिन इस बात को लेकर चिंतित है। दुनिया भर के अभाव और गरीबी झेलने वाले बच्चों के अंदर प्रतिरोधक भी ज्यादा मजबूत होते हैं। इसी प्रतिरोधी तंत्र से उस मालिकिन को ईर्ष्या है। लेकिन, इसका यह अर्थ नहीं है कि आगे वह अपने किसी बच्चे की सुन्नत किसी जर्राह के जरिए उस्तुरे से कराने वाली है और घाव पर राख मल देने के तरीके से वह सहमत है और इसे भविष्य में आजमाने वाली है।
कहानी में मौजूद इस वर्गीय दृष्टिकोण को अगर आप अनदेखा करेंगे तो मुझे लगता है कि इसके वास्तविक मर्म से चूक जाएंगे।
सादर