राष्ट्र की अवधारणा, भारत का अतीत और भारतेन्दु हरिश्चन्द्रअरुण देव |
“अतीत भविष्य पर प्रकाश डालता है और भविष्य अतीत पर. यह तथ्य एक साथ इतिहास की व्याख्या भी है और उसका औचित्य भी निर्धारित करता है.”
ई. एच. कार (इतिहास क्या है?)
प्रारम्भिक हिन्दी-आलोचना के लिए यह संभव नहीं था कि वह इतिहास पर विचार करने के लिए हिन्दी में लिखने वाले किसी संभावित इतिहासकार की प्रतीक्षा करें. हिन्दी में इतिहास-लेखन हिन्दी की आलोचना के साथ नाभि-नाल-बद्ध है. हिन्दी के प्रारम्भिक मीमांसक इतिहास के प्रश्नों से जब-तब मुठभेड़ करते रहते थे.
हिन्दी के गद्य का विकास उपनिवेश से मुक्ति की चेतना के प्रसार के साथ-साथ हुआ. हिन्दी का गद्य ‘राष्ट्र-राज्य‘ की अवधारणा की निर्मिति से जुड़ा हुआ है. यह बात दूसरी भारतीय-भाषाओं के विषय में इतने विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती. इन भाषाओं के अपेक्षाकृत पुराने होने तथा इनके पास एक निश्चित जातीय-स्मृति के होने जैसे तथ्यों को उपरोक्त अवधारणा के पक्ष में रखा जा सकता है.
हिन्दी अगर स्वाधीनता का सपना अखिल भारतीय स्तर पर देखती थी तो यह उसके एक खास नक्षत्र में पैदा होने की कह लीजिए विवशता थी. स्वाधीनता की आकांक्षा का स्मृति से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है. भारत के साथ समस्या यह थी कि उसका ‘अतीत‘ भी, औपनिवेशिक-शासकों द्वारा इतिहास को समझ कर भविष्य पर नियन्त्रण करने, अपने होने को न्यायोचित ठहराने, तथा अपनी उपस्थिति को स्थायित्व प्रदान करने के क्रम में निर्मित हुआ था, पर भारतीयों द्वारा भारत के अतीत में रुचि लेने के अलग कारण थे. भारतीय इतिहासकार एक राष्ट्र के रूप में संलग्न होने की प्रक्रिया में अपने इतिहास को प्राचीन, गौरवशाली और श्रेष्ठ सिद्ध कर रहे थे. इसका एक आशय जहाँ साम्राज्यवाद विरोधी था वहीं मुसलमानों के साथ प्रतिद्वंद्विता करते हुए वे इससे अपने को सन्तुलित भी कर रहे थे.
औपनिवेशिक भारत में अतीत की व्याख्या या अतीत का निर्माण बहुत कुछ प्राच्यवादियों और ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा हुआ. उन्होंने जहाँ अतीत की अखिल भारतीय व्याख्या के द्वारा भारत को समझने का प्रयास किया वहीं इतिहास को एक निरन्तरता प्रदान कर राष्ट्रवाद और धार्मिक समूहों के एकीकरण का पथ भी प्रशस्त किया. प्राच्यवादी (Orientalist) प्राचीन-भारत से सम्मोहित थे. उन्होंने पूरब के इतिहास का रूमानीकरण कर दिया. उनके लेखन पर जहाँ तत्कालीन अंग्रेजी कविता के रोमांटिक आन्दोलन का प्रभाव है वहीं उस समय आकार ले रहे नस्लवादी रुझान से भी उनकी वैचारिक निकटता दिखती है. आर्यों और यूरोप के साझे-घर तथा संस्कृत और ग्रीक संस्कृतियों के समान उद्गम जैसे सिद्धान्तों ने कई तरह के भ्रमों का निर्माण किया. इसका उपयोग भारतीयों को पलायनवादी सिद्ध करने में किया गया. वर्तमान की समस्याएं जिनका मुख्य कारण औपनिवेशिक सत्ता थी, से ध्यान हटाकर प्राचीन भारत के यूटोपिया में उन्हें विचरण के लिए बाध्य किया गया.
इसे एक तथ्य की तरह दोहराया गया कि भारतीय मूलतःआध्यात्मिक होते हैं और सांसारिकता से उनका सरोकार बहुत ही सीमित हैं. प्राचीन-भारत की भौतिक प्रगति जो उस समय हो रहे औद्योगिक विकास में प्रेरणा का कार्य करती, को विवेचना की परिधि से बाहर कर दिया गया. स्वयं इस सिद्धान्त का खंडन भारतीय परम्परा में ही निहित है. चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष का ही सम्बन्ध आध्यात्मिकता से बनता है.[1] प्राच्यवादियों के साथ दिक्कत यह थी कि वे यूरोप में हो रहे औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नित्य घट रहे परिवर्तनों से अपने को जोड़ नहीं पा रहे थे. अपने स्वप्न-राज्य का विस्तार उन्होंने पूरब में किया.
उपयोगितावादियों (Utilitarian) ने शीघ्र ही यह भ्रम तोड़ दिया. ब्रिटिश दार्शनिकों का यह समूह यह मानता था कि भारत में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए ईश्वर ने उन्हें भेजा है. यहाँ सब कुछ अन्धकारमय है अतः पश्चिमी मानदण्डो पर खरी राजनीतिक व्यवस्था और मूल्यों की स्थापना उनका कर्तव्य है. इन में प्रमुख जेम्स मिल थे, जिन्होंने अपनी History of British India में जहाँ प्राचीन भारत की निन्दा की वही मध्यकालीन भारत के विषय में सहानुभूति पूर्वक विचार किया. उसने ही शासकों के धर्म को आधार बनाकर सर्वप्रथम इतिहास को हिन्दू-सभ्यता, मुस्लिम-सभ्यता और ब्रिटिश-सभ्यता में बांटकर देखने की परिपाटी चलायी . वह भूल गया कि जिसे वह हिन्दू-सभ्यता कहता है उमसे कई बौद्ध शासक भी हुये हैं तथा मुस्लिम-काल शरीअत से संचालित राज्य व्यवस्था नहीं थी.
बाद में राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने इतिहास को प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक में बांटकर पश्चिम सम्बन्धी समय की अवधारणा में पूरब के समय को समायोजित कर लिया. इससे इतिहास को देखने के पूर्ववर्ती साम्प्रदायिक दृष्टिकोण में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ. हरबंस मुखिया इस पर ठीक ही कहते हैं,
‘‘शासक की धार्मिक नीति के आधार पर मध्यकालीन भारतीय इतिहास का अध्ययन करना स्वीकार कर लेने के बाद साक्ष्य एक बड़ी हद तक साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के पक्ष में झुकते चले गए.” [2]
यह बंटवारा सिर्फ समय को समझने की सहूलियत नहीं प्रदान करता था अपितु इसमें मूल्यांकन सम्बन्धी पूर्वग्रह भी छुपे हुये थे. अतीत की व्याख्या में महान संस्कृति के संवाहक होने के भ्रम के साथ-ही-साथ द्रविड़ और आर्य के मूल निवासी होने के विवाद को भी हवा दी गयी जो अन्ततः अंग्रेजों के यहाँ होने के औचित्य को ही बल प्रदान करता था. मध्य तो मध्यकालीन ही था- इस काल को हिन्दू और मुस्लिम जैसे विरोधी युग्मों में बाँटकर उन्हें एक दूसरे के सामने खड़ा कर दिया गया. हिन्दी में लिखने वाले प्रारम्भिक मीमांसकों का लेखन कई बार तो लगता है- जैसे अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं अपितु मुसलमानों के विरोध में है. मुस्लिम-शासन और इस्लामिक-संस्कृति को प्रतिपक्ष के रूप में देखने की मानसिकता, प्रारम्भिक हिन्दी मीमांसकों की खास विशेषता है. यह अतीत की विविधता का सरलीकरण था[3].
बारबरा डेली मेटकाफॅ का यह कहना एक हद तक उचित ही लगता है कि औपनिवेशिक समुदाय अपने को कल्पित करने की प्रक्रिया में अपने विरोधियों को भी कल्पित कर रहा था[4]. दिलचस्प यह है कि यह कुछ हिन्दी-आलोचकों द्वारा बहुप्रशंसित 1857 के गदर के ठीक बाद का साहित्य था जिसमें बकौल उन्हीं आलोचकों के हिन्दू-मुस्लिम एकता की अच्छी मिसालें कायम की गयीं थीं. इस कथन में इतिहास के विकास-क्रम की नासमझी दर्शाता है. 1857 के आस-पास आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा से भारतीय परिचित ही नहीं थे. 1857 का गदर धार्मिक मुहावरों के साथ दमनकारी विदेशी विस्तारवाद के विरुद्ध लड़ा गया संघर्ष था जो एक खास क्षेत्र तक सीमित था. इस प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम के लिए जनमानस को बिलकुल ही तैयार नहीं किया गया था. यहाँ तक कि दोनों वर्गों के बुद्धिजीवी भी इस संघर्ष से सहानुभूति नहीं रखते थे.
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की 1857 सम्बन्धी उपेक्षा[5] तथा ग़ालिब द्वारा इसके विरोध[6] से यह स्पष्ट है.
ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा भारत की प्राचीन संस्कृति और इतिहास के सायास रुमानीकरण का फल यह हुआ कि हिन्दी मीमांसक अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए जब-तब उन्हें उद्धृत करने लगे. हिन्दी मीमांसकों के भारत की प्राचीन संस्कृति और इतिहास से कई तरह के सम्बन्ध बन रहे थे. एक तरफ जहाँ वे एक समूह के रुप में अपनी धार्मिक पहचान पाने के लिए इसका उपयोग कर रहे थे वहीं दूसरी तरफ एक भद्रवर्गीय आभिजात्य का भी निर्माण कर रहे थे. रंजीत गुहा ने औपनिवेशिक भारत में इतिहास-लेखन के पक्षों पर विचार करते हुए इसे मुख्यतः आभिजात्य-वर्ग का लेखन कहा है[7]. उनके अनुसार यह लेखन ब्रिटिश-शासन का वैचारिक-उत्पाद था. कहना न होगा कि हिन्दी के लेखक ‘इसी मध्यवर्गीय राष्ट्रीय आभिजात्य-वर्ग’ से थे. अतीत के अन्तर्विरोधों पर हिन्दी-मीमांसकों ने नहीं के बराबर विचार किया है. उनका इतिहास-लेखन अतीत के स्वप्न-लोक में सुबह की सैर जैसा था.
भारतेन्दु से पूर्व इतिहास के सम्बन्ध में दो महत्वपूर्ण प्रयास हुये. पहला प्रयास आगरा के पादरियों ने किया. उन्होंने 1833 में ‘स्कूल बुक सोसाइटी‘ (आगरा) की स्थापना की जिसमें 1837 में इंग्लैंड़ का इतिहास तथा 1839 में प्राचीन इतिहास (मार्शमैन) का अनुवाद ‘कथासार‘ नाम से प्रकाशित हुआ जिसके अनुवादक पं. रतनलाल थे. दूसरा महत्वपूर्ण प्रयास शिवप्रसाद सितारे हिन्द का था. उनके ‘इतिहासतिमिरनाशक‘ (पहला खंड़ 1864 तथा तीसरा और आखिरी 1873 में प्रकाशित) ने भारत के इतिहास को पूरे फलक पर रखा. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘हरिश्चन्द्र मैगज़ीन‘ में अंग्रेज़ी में इसकी समीक्षा ‘An Orthodox Hindoo of Kasi’ नाम से की थी. उन्होंने मध्यकाल को अन्धकार-युग मानने का विरोध किया.[8]
स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने निबन्ध ‘जातीय-संगीत‘ (मई,1879) में ऐसी पुस्तकों के निर्माण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया था जिसमें उन्हीं के शब्दों में-‘पूर्वज आर्यों की स्तुति-इसमें उनके शोर्य, औदार्य, सत्य, चातुर्य विद्यादि आदि का वर्णन‘ हो. औपनिवेशिक भारत के प्रारम्भिक हिन्दी मीमांसकों का अतीत के प्रति लगभग यही रवैया था. इसमें पूर्वज के बाद आया ‘आर्य‘ शब्द ख़ासे महत्व का है. पूर्वजों से यहाँ तात्पर्य अब तक चली आ रही परम्परा में अवस्थित उस निरन्तरता से नहीं था जिसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों थे, बल्कि यहाँ सचेत ढंग से हिन्दुओं को उसमें से अलगाकर उन्हें आर्यो की एक सायास निर्मित शुद्धतावादी ढांचें में व्यवस्थित कर लेना भर था.
भारतेन्दु का ऐसा मानना था कि उनके ऐसा करने का लक्ष्य-‘भारतवर्ष की उन्नति‘ करना है. निर्मित हो रहे भारतवर्ष से आर्यों के इस प्रस्तावित सम्बन्ध के प्रस्तोता वास्तव में अंग्रेज़ थे. वे जैसा चाहते थे- भारतेन्दु वैसा ही कर रहे थे. आर्य की अवधारणा भी खासी समस्या-मूलक थी. भारतेन्दु ने इसे निःसंकोच स्वीकार कर लिया था. आर्यों के आगमन के औपनिवेशिक सिद्धान्त के पीछे अंग्रेज़ों की यह धारणा कार्य कर रही थी कि पिछडे़ हुए भारत में सभी उच्च-संस्कृतियाँ बाहर से आयीं हैं तथा बाईबिल के उस दृष्टान्त से यह जुड़ गया था जिसमें यह माना गया था कि आदम और हौव्वा के पुत्र नूह[9] की संततियाँ जल-प्रलय के बाद इधर-उधर फैल गयीं. भारत के आर्य इन्हीं के संभावित वंश-बेल हैं.
1871 से 1880 के बीच लिखे गये ‘चरितावली‘ में भारतेन्दु ने प्राचीन भारत पर विचार किया है. यहाँ इतिहास लेखन की कोई क्रमबद्ध तैयारी नहीं है. उन्हीं के शब्दों में कहा जाये तो इसमें -‘पूर्वज आर्यों की स्तुति‘ भर है. इसमें शासन, धर्म, दर्शन और साहित्य से सम्बन्धित द्विज-पुरुषों की ‘चरितावली‘ है, कुछ विदेशी चरित्रों के यशोगान भी हैं. ‘विक्रम‘ के अंतर्गत भारतेन्दु ने बिल्हण के ‘विक्रमांक-चरित्र‘ को आधार बनाकर चालुक्य वंश के ‘विक्रमादित्य‘ का वर्णन किया है. इसमें विक्रमादित्य के विजयों का क्रम से वर्णन भी मिलता है, अन्त में भारतेन्दु लिखते हैं-
“कवि ने उस में जो सद्गुण लिखे हैं वह उस में रहें हों, पर अपने दो भाइयों को उसने जीता और बड़े भाई को उसने कैद करके आप गद्दी पर बैठा, इस से उसके चरित में हम को थोड़ा सन्देह होता है. क्योंकि जब उसके बड़े भाई के जीतने का कवि वर्णन करेगा, तो उस के दोष के छिपाने के वास्ते उस के उस भाई को बुरा लिखें, इस में क्या संदेह है..”
यहाँ भारतेन्दु इतिहास के साहित्य में बदलने की प्रक्रिया में उसमें लेखक द्वारा अपने मन्तव्य को औचित्य प्रदान की रणनीति पर ध्यान देते दिखाई देते हैं. भारतेन्दु इस प्रक्रिया को उलटते हुए, साहित्य से इतिहास की ओर जा रहे हैं. उनका यह कथन इतिहास की वस्तुनिष्ठता के निकट है. यह लेख वैसे भी विक्रमादित्य के विषय में उस समय के इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति के अनुसार महत्वपूर्ण तथ्यों को महत्व देता चलता है, जिसमें वंश और समय के निर्धारण के साथ-ही-साथ युद्धों और विजयों का भी वर्णन होता था.
‘कालिदास का जीवन चरित्र‘ बड़ा लेख है. इसमें एक अन्वेषक की तरह भारतेन्दु कालिदास पर उपलब्ध सामग्री का उपयोग करते हुए अतीत में उनकी स्थिति का पता लगाने का प्रयास करते हैं. उनसे सम्बन्धित किंवदंतियों का भी वर्णन है. ‘श्री रामानुज स्वामी का जीवनचरित्र‘, ‘श्रीशंकराचार्य‘, ‘महाकवि श्री जयदेव जी‘, ‘पुष्पंदताचार्य और महिम्न‘, ‘श्री वल्लभाचार्य‘, ‘सूरदास जी‘ आदि भी इसी प्रकार के है.
भारतेन्दु ने कश्मीर के कल्हण की राजतरंगिणी को आधार बनाकर ‘काश्मीर कुसुम‘ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जो 1884 में प्रकाशित हुयी. इसमें कश्मीर के राजाओं का क्रम से विवरण है तथा मुसलमानों द्वारा लिखे गये इतिहास से इसकी तुलना भी की गयी है. राजतरंगिणी को विवेचना के लिए चुनने के पीछे तर्क यह है कि हिन्दुओं के इतिहास रूपी आकाश में जो अंधेरा छाया हुआ है, उसमें- भारतेन्दु के ही शब्दों में
‘‘ऐसे अँधेरे में काश्मीर के राजाओं के इतिहास का एक तारा जो हम लोगों को दिखलाई पड़ता है उसी को हम कई सूर्य से बढ़कर समझते हैं.‘‘
इस छोटी सी भूमिका में भारतेन्दु मुसलमानों को तीन बार याद करते हैं-
‘‘यह सब तो था ही, अन्त में मुसलमानों ने आकर जो कुछ बचे बचाये ग्रन्थ थे जला दिए.”, ‘‘कश्मीर के बचे बचाये जितने ग्रन्थ थे सब दुष्टो ने जला दिए. आर्यों के मंदिर मूर्ति आदि में कारीगरी, कीर्तिस्तम्भस्तंभादिकों के लेख और पुस्तकों का इन दुष्टों के हाथ से समूल नाश हो गया. परशुराम जी ने राजाओं का शरीरमात्र नाश किया, किन्तु इन्होंने देह, बल, विद्या, धन, प्राण की कौन कहै कीर्तिस्तम्भ का भी नाश कर दिया.” तथा ‘‘गोनर्द से लेकर सहदेव तक पूर्व में सैंतीस सौ बरस के लगभग डेढ़ सौ हिन्दू राजाओं ने कश्मीर भोगा, फिर पूरे पाँच सौ बरस मुसलमानों ने इसका उत्पीड़न किया. (बीच में बागी होकर यद्यपि राजा सुखजीवन ने 8 बरस राज किया पर उसकी कोई गिनती नहीं) फिर नाममात्र को कश्मीर कृस्तानी राज्यभुक्त होकर आज चैंसठ वर्ष से फिर हिन्दुओं के अधिकार में आया है. अब ईश्वर सर्वदा इस को उपद्रवों से बचावैं.”
हम और वे का भेद यहाँ स्पष्ट है. मुसलमानों के विषय में जिस ‘स्टीरियोटाइप‘ छवि का निर्माण अंग्रेजों ने किया था, हिन्दी के मीमांसक उसे ही दुहरा रहे थे. मुसलमानों के आगमन से पूर्व भी यहाँ ग्रन्थ जलाये जाते थे और पूजास्थलों को अपवित्र किया जाता रहा था. इस सन्दर्भ में रिर्चड एम. ईटन. (Richard M. Eaton) का लेख ‘आधुनिक-पूर्व भारत में मन्दिरों का अपवित्रीकरण‘(Temple desecration in pre-modern India)[10] उल्लेखनीय है. इस लेख में मन्दिरों के अपवित्रीकरण से सम्बन्धित तथ्यों उनके कारणों तथा उस समय के धर्म और राजनीति से उनके सम्बन्ध पर विचार हुआ है.
औपनिवेशिक भारत में सर्वप्रथम सर हेनरी एम इलियट (Sir Henry M.Elliot) ने जान डाउसन (John Dowson) की सहायता से फारसी स्रोतों के आधार पर History of India as Told by its Own Historians, का प्रकाशन 1849 में किया. फारसी ग्रन्थों में अतिशयोक्ति पूर्ण शैली से मुस्लिम बादशाहों के विजयों का वर्णन होता था. औपनिवेशिक भारत में इन साक्ष्यों का हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों को नये ढंग से निर्मित करने में उपयोग किया गया. भारत के मध्यकाल के विषय में जिन विचारों को हिन्दी के मीमांसक बार-बार दुहराते थे, उनका स्रोत यहाँ है. भूमिका में इलियट लिखते हैं-
‘‘जनता दुर्दशा और हताशा की अटल गहराइयों में निमग्न हो चुकी थी. महत्वहीन सन्दर्भो में भी मुसलमानों से विवाद की स्थिति में हिन्दुओं की हत्या कर दी जाती थी. जुलूसों, पूजापाठ, तथा धार्मिक स्नानों पर व्यापक प्रतिबन्ध लगा दिया जाता था. अन्य असहिष्णुतापूर्ण कार्यवाही जैसे-मंदिरों के ध्वंस, हिन्दुओं का जबरन धर्मान्तरण और बलात् विवाह जैसे कृत्य भी होते थे. इसके लिए उत्तरदायी तानाशाहों की कामुकता और नशाखोरी की झाँकियाँ भी मिलती हैं.” [11]
यह भूमिका कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है. ईलियट सरकार के कई बड़े पदों पर कार्यरत थे. उनके विचार को ब्रिटिश-सरकार का भी विचार माना जा सकता है वैसे भी वे भारत के इतिहास पर एक इतिहासकार की तरह नहीं कम्पनी के एक अधिकारी की तरह विचार करते नजर आते हैं. आगे चलकर औपनिवेशिक भारत में जो इतिहास-लेखन प्रारम्भ हुआ ईलियट की भूमिका जैसे उसका ब्लू-प्रिन्ट हो.
‘इतिहासतिमिरनाशक‘ इसका सटीक उदाहरण है. ईलियट मुहम्मदी काल को हिन्दुओं से अलग मानकर देखते हैं. वह इस काल को सीधे-सीधे पराधीन हिन्दुओं और विजेता मुसलमानों के द्वन्द्व में देखते हैं और अपने अनुकूल परिणाम न पाकर चकित होते हैं. इस काल के हिन्दुओं द्वारा लिखे विवरणों में भी हिन्दुओं को काफिर तथा मुसलमानों को ईमानदार जैसे सम्बोधनों से पुकारा जाता था. हिन्दुओं के मारे जाने पर उनकी आत्माएं नरक में जाएं तथा मुसलमानों के लिए कि वे शहीद हो गये जैसे कथन भी मिलते हैं. इस्लाम की ज्योति ने संसार को प्रकाशित कर दिया जैसे भाव, तथा ग्रन्थ का प्रारम्भ ‘बिसमिल्लाह‘ से करना आदि उदाहरणों के उल्लेख से इलियट ने अपना आश्चर्य व्यक्त किया है. उसके अनुसार-
‘‘हिन्दू लेखकों में भी इसी प्रकार की कमियाँ हैं यह और भी खेद का विषय है क्योंकि हिन्दू जाति के लेखकों से हम यह आशा कर सकते हैं कि वह उस समय के हिन्दुओं की भावनाओं से, आशाओं से और विश्वासों से तथा भय और अभिलाषा से परिचित होंगे. परन्तु यह खेद की बात है कि वह जो कुछ लिखता है वह आदेशानुसार लिखता है या जैसे उसको लिखाया जाता है. इसके प्रत्येक वाक्य में अभिमानी और निरंकुश मुसलमान मालिक की चाटुता है. उसकी पुस्तक में उसके धर्म का, उसकी जाति का भी पता नहीं चलता.”
ईलियट मध्यकाल के उस इतिहास के प्रभाव का वर्तमान तक विस्तार करना चाहते हैं. उनके अनुसार- .
“इस समय भी जब आपको किसी का भय नहीं है तो भी अपने देश के इतिहास को प्रकट नहीं करता जो दीर्घकाल तक अत्याचार सहने के बाद और शान्ति का उपयोग करने पर किसी जाति के लेखक को करना चाहिए.”
ईलियट की इसलिए तारीफ करनी चाहिए कि उसने अपने या ब्रिटिश हितों को जिनका इस इतिहास से घनिष्ट सम्बन्ध है, छुपाया नहीं है. आगे के इतिहासकारों ने कार्यविधि तो यही चुनी पर अपने उद्देश्यों को सदैव छिपाये रखा. औपनिवेशिक भारत के इतिहास की सत्ता मूलक रणनीति के प्रमाण में ईलियट का कथन दृष्टांत है.
‘‘इन पुस्तकों के लिखने से भारतीय प्रजा को पता लगेगा कि हमारे शासन की कोमलता और न्यायप्रियता से उनको कैसे अपार लाभ प्राप्त हुआ है. इन ग्रन्थों के पढ़ने से हम मुस्लिम भारत के सम्बन्ध में जो बिना सोचे समझे बातें किया करते हैं, वे नहीं होंगी. इतिहास के कुछ ऐसे पात्र हैं जो अपने कामों की चमक के कारण प्रसिद्ध हैं. जब ऐसे पात्रों पर से चाटुता का पर्दा हट जायेगा और अलंकारिक भाषा से उन्हें मुक्त कर दिया जायेगा तो उनका वास्तविक रुप प्रकाश में आयेगा और मनुष्य जाति उनकी अवश्य निन्दा करेगी.”
ईलियट यहाँ मुसलमान शासकों के विषय में प्रचलित धनात्मक-अवधारणाओं का ध्वंस कर रहे हैं. उनका मानना है कि मुगलकाल में कुछ भी लोकोपयोगी नहीं हुआ था. प्रसिद्ध इमारतों को वह बादशाहों के व्यक्तिगत दम्भ का परिणाम मानते हैं, तथा सडकों और नहरों के बनने को झूठ. मुगल काल में जान माल के सुरक्षित होने के तथ्य को वह एक दूसरे दृष्टांत से काटते हैं. उनके अनुसार उस समय एक बादशाह के शासन काल में यह कहा जाता था कि सुनसान रास्ते से आप सोने से भरी थैली अगर किसी को दिखाते हैं तो भी किसी के पास इतना साहस नहीं होता था कि उसे छू ले पर उसी समय एक काफिला डेढ महीने इस लिए आगे नहीं बढ़ सका कि उसके पास रक्षार्थ लोगों की कमी थी. यहाँ दिलचस्प यह है कि ईलियट मुस्लिम बादशाहों के विषय में प्रचलित सकारात्मक विवरणों में तो अतिशयोक्ति की तलाश कर लेते हैं पर उनके नकारात्मक विवरणों को उसकी अतिशयोक्ति के साथ स्वीकार करते हैं. उनका लक्ष्य वर्तमान ब्रिटिश शासन को वैधता प्रदान करना है.
“इस समय बाबू लोग सरकार के शासन में पूर्ण स्वतन्त्रता का उपयोग कर रहे हैं और ऐसे राजनीतिक विशेषाधिकार का उपभोग करते हैं जो पराजित जातियों के भाग्य में कभी नहीं थे. जब ये लोग इन भारतीय इतिहासों को पढेंगे तो देश-भक्ति के गीत नहीं गायेंगे और अपने वर्तमान हीन दशा पर आंसू नहीं बहायेंगे. यदि ये बाबू लोग इन जिल्दों में डूबकी लगायेंगे तो इन जोरदार वक्ताओं को थोडे समय में ही पता लगेगा कि उस अन्धकार युग में जिसकी वापसी के लिए वे इतने उत्सुक हैं, इस प्रकार के हास्यास्पद विचार यदि प्रकट किये जाते तो सरकार उन्हें सुनकर चुप नहीं रहती ओर न उनके प्रति घृणा प्रकट करती. परन्तु उनके कंठ में या तो गला हुआ गर्म शीशा डाल दिया जाता या उनकी खाल खिंचवा ली जाती.”
भूमिका इन सद् इच्छाओं के साथ पूरी होती है-
“इन जिल्दों के अध्ययन से भ्रान्तियाँ दूर हो जायेंगी और यह प्रकट होगा कि नीति और जलवायु के कारण हम इस देश में स्थाई रुप से बसना नहीं चाहते और इसकी उन्नति में अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति नहीं करना चाहते हैं. भाषा,वर्ण धर्म, रीति- रिवाज और कानून हमारे और इस देश के भिन्न-भिन्न हैं. इसलिए शासक और प्रजा में स्वाभाविक सहानुभूति नहीं हो सकती, तथापि हमारे गत पचास वर्ष के शासन ने लोगों का इतना ठोस हित किया है उतना हमारे पहले के शासक इससे दस गुना समय में भी नहीं कर सके, चाहे उन्होंने इस देश को अपना लिया था..”
हिन्दी-मीमांसक जब जातीय-साहित्य की बात करता है तो उसका अर्थ मुसलमानों के सन्दर्भ में अपने को परिभाषित करने से होता हैं. मुसलमानों की जिस स्टीरियोटाइप छवि के निर्माण की बात ब्रिटिश कर रहे थे आगे चलकर वह उम्मीद से भी अधिक फलीभूत हुयी. भारतेन्दु के नाटक हो या उसके बाद हिन्दी कहानियों की नयी विधा, इसमें हम मुसलमानों की ऐसी ही छवि पाते हैं. हालांकि भारतेन्दु ने कुछ जगहों पर मुसलमानों और अंग्रेजों के शासन काल की तुलना का प्रयास भी किया है. और इस सन्दर्भ में अतिवाद का खंडन भी किया है. बादशाह दर्पण की भूमिका में वह लिखते हैं-
“क्या मुसल्मान क्या अँग्रेज़ भारतवर्ष को सभी ने जीता, किन्तु इनमें उनमें तब भी बड़ा प्रभेद हैं. मुसल्मानों के काल में शत सहस्त्र बड़े-बड़े दोष थे किन्तु दो गुण थे. प्रथम तो यह कि उन सबों ने अपना घर यहीं बनाया था इससे यहाँ की लक्ष्मी यहीं रहती थी. दूसरे बीच में जब कोई आग्रही मुसल्मान बादशाह उत्पन्न होते थे तो हिन्दुओं का रक्त भी उष्ण हो जाता था इससे वीरता का संस्कार भी शेष चला आता था. किसी ने सच कहा है कि मुसल्मानी राज्य हैज़े का रोग है और अँगरेजी क्षयी का. इनकी शासनप्रणाली में हम लोगों का धन और वीरता निःशेष होती जाती है. —- जो कुछ हो, मुसल्मानों की भाति उन्होंने हमारी आँखों के सामने हमारी देवमूर्तियाँ नहीं तोड़ी और स्त्रियों को बलात्कार से छीन नहीं लिया, न घास की भाँति सिर काटे और न जबरदस्ती मुँह में थूक कर मुसल्मान किये गये.–विशेषकर अँग्रेजों से हम लोगों को जैसी शुभ शिक्षा मिली है उसके हम इनके ऋणी हैं. भारत कृतघ्न नहीं है. यह सदा मुक्त कंठ से स्वीकार करेगा कि अँगरेजों ने मुसल्मानों के कठिन दन्ड से हमको छुडाया और यद्यपि अनेक प्रकार से हमारा धन ले गये किन्तु पेट भरने को भीख माँगने की विधा भी सिखा गये..”
मन्दिरों के अपवित्रिकरण और देव-मूर्तियों के ध्वंस का मसला औपनिवेशिक हिन्दी-मीमांसकों के लिए बहुत ही संवेदनशील था. हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते हुए 1929 में भक्ति-काल जैसे राष्ट्रीय-आन्दोलन के उत्स में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे एक महत्वपूर्ण कारक माना. मूर्ति-भंजन को इस्लाम का अनिवार्य सारतत्व मानने से ऐसे निष्कर्ष आये. इस मिथ के निर्माण में मध्यकालीन दरबारी इतिहासकारों का बडा हाथ था जो ऐसी किसी भी घटना को अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से इस्लाम के विस्तार से जोड़ देते थे. मुस्लिम शासकों ने भी जब-तब राजनीतिक कारणों से इसे इस्लाम से जोड़ा है. मुगल काल से पहले मन्दिरों के अपवित्रिकरण और देव-मूर्तियों के ध्वंस के ठेर सारे उदाहरण इतिहास में मिलते हैं.
कहा जाता है कि पल्लव राजा नरसिंह वर्मन प्रथम ने 642 ई में चालुक्यों की राजधानी वातापी से गणेश की प्रतिमा को लूटा था. आठवीं शताब्दी में बंगाली सैनिकों ने कश्मीर के शासक ललित्यादित्य के राज्य कुलदेवता विष्णुबैंकुंठ की मूर्ति का भंजन किया था. प्रारम्भिक दसवीं शताब्दी में कांगड़ा के शाही राजा को पराजित करने के बाद प्रतिहार राजा हेम्बरपाल वहाँ से विष्णुबैकुंठ की सोने की मूर्ति उठाकर ले आया था. दसवीं शताब्दी के मध्य में इसी मूर्ति को चन्देल के राजा यशोवर्मन ने पुन स्थगितकर खुजराहों के लक्ष्मण मंदिर में स्थापित किया. ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में चोल राजा प्रथम ने आस-पास के राजाओं से छीनी गयीं मूर्तियां को अपनी राजधानी में व्यवस्थित किया- जिसमें चालुक्यों की दुर्गा और गणेश की मूर्तियाँ, उड़ीसा के कलिंगों के भैरव,भैरवी तथा काली की मूर्तियाँ, चालुक्यों के नंदनन्दी तथा बंगाल के पालों से छीनी गयी शिव की मूतियाँ आदि थीं.
इसी शताब्दी में कश्मीर के शासक हर्ष ने मूर्ति-भंजन को व्यवस्थित और संस्थाबद्ध करते हुए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जिसे कल्हण ने राजतंरगिणी में देवतापटनायक (Devotapatanayak)[12] कहा है जिसका कार्य मन्दिरों को लूटना था. इस धन का उपयोग दूसरे कार्यों में होता था.
मध्यकाल में मन्दिर-अपवित्रीकरण का मसला धार्मिक कम राजनीतिक अधिक था. राजा जब किसी दूसरे राज्य पर विजय प्राप्त करते थे तब उस राज्य के मुख्य मन्दिर जो एक तरह से विजित राजा के कुल देवता का मन्दिर होता था, को क्षतिग्रस्त कर अपनी प्रभुता स्थापित करते थे. रिचर्ड एम एटन के अनुसार-
‘‘छठी शताब्दी ईसवी के बाद से शत्रु राजाओं द्वारा संरक्षित मूर्तियों पर आक्रमण भारत के राजनीतिक व्यवहार का अभिन्न अंग बन चुका था. इन मन्दिरों में उत्कीर्ण सघन मूर्ति पुंज राजाओं एवं देवताओं की पारस्परिक निर्भरता को तथा दैवीय एवं मानवीय राजत्व को प्रदर्शित करते थे तथा इस रूप में ये राजमन्दिर उत्कृष्ट रूप से राजनीतिक संस्थाएं थीं.” [13] कहना न होगा कि जन सामान्य इससे अछूता था और सामान्य लोगों के उपयोग में आने वाले मन्दिर भी इससे अछूते थे.
प्रारम्भिक हिन्दी मीमांसक इस दृष्टि से पिछडी हुयी मानसिकता का परिचय दे रहे थे. वे औपनिवेशिक षडयंत्र के आसान आखेट साबित हुये. इस इतिहास दृष्टि ने हिन्दू और मुसलमानों को आमने-सामने खडा कर दिया. मुहम्मद हबीब के अनुसार-
‘‘शान्तिप्रिय भारतीय मुसलमानों को, जो निस्संदेह हिन्दू वारिसों की सन्तान थे, बर्बर विदेशी के रूप में, मूर्तियों के भंजक के रूप में, गोमांस-भक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया तथा जिस देश का वह तीस-चालीस शताब्दियों तक वासी रहा था उसमें उसे सैन्य विजेता घोषित किया गया.” [14]
भारतेन्दु ने प्राचीनकाल पर व्यवस्थित ढंग से विचार न करके, उपलब्ध स्रोतों के आधार पर कुछ चुने हुए व्यक्तियों या प्रवृत्तियों पर ही विचार किया है. स्रोत भी प्राच्यवादियों के खोजें हुए हैं और प्रस्तुतीकरण की अवधारणा भी पश्चिमी ही है. इस तरह से वे पश्चिम द्वारा भारत के प्राचीन इतिहास के आधार पर बनायी जा रहे उस आम-धारणा (Common sense) के प्रसरण में सहायक बनकर रह जाते हैं, जिसने आगे चलकर मुसलमानों के बरक्स हिन्दुओं के बहुलतावादी ,उदार और अहिंसक होने को एक सत्य की तरह स्थापित कर दिया. मध्यकाल के उनके विवेचन से यह और अधिक स्पष्ट होता है.
भारतेन्दु की इतिहास-दृष्टि और प्रवृतियों को समझने के लिए तत्कालीन इतिहास लेखन ख़ासकर भारतीयों द्वारा किया जा रहा लेखन सहायक सिद्ध होगा. इस सन्दर्भ में भारतेन्दु के प्रतिद्वन्द्वी और उत्तर-भारत के सामाजिक जीवन में खासी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाले सर सैय्यद अहमद ख़ाँ पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा. प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. ख़लिक अहमद निज़ामी ने ‘आसारुस्सनादीद‘(1846), तारीख़े फ़िरोज़शाही‘(1862), ‘आईने-ऐ-अकबरी‘(1855) तथा ‘तुज़्केजहाँगीरी‘(1864) से मध्यकालीन वास्तुकला और इतिहास की शुरुआत मानते हैं[15]. इसके अतिरिक्त जामें-ए-जम (1840), सिलसिलतुलमुलूक (1852), तथा बिजनौर के इतिहास और उसके विद्रोह तथा गदर पर भी उनकी पुस्तकें हैं.
जामें जम (1840), अर्थात जमशेद नामक एक बादशाह का एक ऐसा प्याला जिससे वह संसार के किसी भी हिस्से या घटना को देख सकता था. सिलसिलेतुल मुलूक (1852) अर्थात बादशाहों का क्रम- इन दोनों पुस्तकों में दिल्ली पर शासन करने वाले बादशाहों के क्रम और उनके आत्मकथात्मक विवरण हैं. भारतेन्दु के ‘बादशाहदर्पण‘ (1884) और ‘कालचक्र‘(1884) से इनकी तुलना की जा सकती है. भारतेन्दु इन दोनों पुस्तकों से परिचित थे. ‘बादशाहदर्पण‘ (1884) की भूमिका में वह लिखते हैं-
‘‘मेरे प्रमातामह राय गिरधरलाल साहब, जो यवनी विद्या के बडे भारी पंडित और काशीस्थ दिल्ली के शहज़ादों के मुख्य दीवान थे, उन की इच्छा से दिल्ली के प्रसिद्ध विद्वान सैय्यद अहमद ने एक ऐसा चक्र बनाया था जिसमें तैमूर से लेकर शाहआलम तक सब बादशाहों के नाम आदि लिखे थे. उस फारसी ग्रन्थ से इस में बहुत सी बातें ली गई हैं, इस कारण तैमूर के पूर्व के बादशाहों का वर्णन इतना पूरा नहीं है जितना तैमूर के पीछे है. फिर मेरे मातामह राय खिरोधरलाल ने बहादुरशाह के काल के आरम्भ तक शेष वृत्त संग्रह किया.‘‘
ग़ौरतलब यह है कि ‘जामें जम‘ में तैमूर पर विस्तार से लिखा गया है.
‘आसारुस्सनादीद‘ में दिल्ली की पुरानी इमारतों तथा दिल्ली के सन्तों, विद्वानों, संगीतकारों, चिकित्सकों तथा सुलेखकों पर सूचनात्मक टिप्पणियाँ हैं. कहा जाता है कि दिल्ली की पुरानी इमारतों पर लिखने के लिए वह उनके खंड़हरों में भटकते थे और भित्ति-लेखों का संकलन करते थे. कुतुबमीनार पर खुदे लेख का पढ़ने के लिए उनका टोकरी में बैठकर लिफ्ट की तरह ऊपर जाना और उसे पढ़ना प्रसिद्ध ही है.
इस सन्दर्भ में भारतेन्दु द्वारा दानपत्रों, प्रशस्ति-पत्रों और पुरा-लेखों के आधार पर किये गये कार्यों का स्मरण होता है. उस समय क्षेत्र विशेष के विषय में इतिहास लेखन का चलन था.
सैय्यद अहमद ने 1885 में बिजनौर के सदर अमीन बनने पर उस जिले का इतिहास लिखा था. आगे चलकर मौलाना शिबली और मौलाना ज़काउल्लाह ने सर सैय्यद अहमद के इस कार्य को आगे बढ़ाया.
‘‘अपनी अच्छी चीजों को सुरक्षित रखो और दूसरे की अच्छी चीजों को स्वीकार करो[16].” के अपने मंत्र के बावजूद कहना न होगा कि सर सैय्यद ने मुख्यतः मुस्लिम-भावतन्त्र को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया. भारत के मुसलमान अपनी जडों की खोज में मुहम्मद साहब तक पहुँचे और अरब में इस्लाम के उदय से अपने इतिहास की शुरुआत मानी. इस तरह से मुसलमानों ने अपनी एक अलग पहचान निर्मित की जिसमें उनके पड़ोसी हिन्दुओं के इतिहास का बहुत कम साझा था. कहीं-कहीं तो पूरे भारतीय इतिहास को ही मुस्लिम चश्मे से देखा गया, इस सन्दर्भ में सर सैय्यद के ‘आसारुस्सनादीद‘ के पहले अध्याय में भारत के इतिहास की शुरुआत पर ध्यान देने की आवश्यकता है. सर सैय्यद, कुरान में आये पैगम्बर नूह के समय के उस सैलाब से जिसमें कि सारी पृथ्वी जलमग्न हो गयी थी और फिर अल्लाह की आज्ञा से प्रारम्भ हुये संसार से हिन्दुस्तान के इतिहास को जोडा है. वे सीम नामक किसी ऐतिहासिक व्यक्ति से भारतीयों को जोड़ कर देखते हैं.
‘‘हिन्द की औलाद जबके बसबब-ईखतला-दिन-सन (ई.सन के अन्तर के कारण) अपने असली हालात से बेखबर हो गयी तो उनमें से एक ने यह ख्याल बांधा कि हम सूरज की औलाद हैं और दूसरे ने कहा कि हम चाँद की औलाद हैं. या शायरों ने बसबब-मुबालिग़ा (अतिश्योक्ति के कारण) के उनके बाप दादाओं को चांद सूरज बना दिया और उन्होंने सच समझ चुनांचे अपने कुर्सीनामें में चांद सूरज को बजाए असली बाप के दाखिल करके अपने तईं सूरजवंशी और चन्द्रवंशी मुलक्कब किया.‘‘[17]
हिन्दी का इतिहास-लेखन भी अपनी तरह से इस पर प्रतिक्रिया कर रहा था.
1884 में छपे भारतेन्दु के ‘बादशाहदर्पण‘ की भूमिका औपनिवेशिक भारत में इतिहास के माध्यम से निर्मित हो रहे हिन्दुओं और मुसलमानों के अलग-अलग ब्लाकॅ की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालती है. यह एक हिन्दू द्वारा भारत के मध्यकाल को मुस्लिम काल का पर्याय मान कर किया गया मूल्यांकन है. यहाँ हम और वे का अन्तर स्पष्ट है. भूमिका में भारतेन्दु लिखते हैं-
“जब से यहाँ का स्वाधीनता सूर्य अस्त हुआ उसके पूर्व समय का उत्तम श्रृंखलाबद्व कोई इतिहास नहीं है. मुसलमान लेखकों ने जो इतिहास लिखे भी हैं उनमें आर्यकीर्ति का लोप कर दिया है. आशा है कि कोई माई का लाल ऐसा भी होगा जो बहुत सा परिश्रम स्वीकार कर के एक बार अपने ‘बाप दादों’ का पूरा इतिहास लिख कर उनकी कीर्ति चिरस्थायी करेगा..”
यहाँ प्रश्न इतिहास लेखन का न होकर पोजीशन लेने का है. लेखक मध्यकाल को आधुनिक अवधारणा से देखकर गलत निष्कर्ष निकाल रहा है. स्वाधीनता की अवधारणा अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट हो रहे उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के संदर्भ में परिभाषित होती है. मध्यकाल में इस स्वाधीनता का लोक के स्तर पर कोई अर्थ नहीं है. जहाँ तक आर्यकीर्ति के लोप का प्रश्न है- अगर मान भी लिया जाये कि मुसलमानों ने ऐसा किया तो भी भारतेन्दु के आग्रह पूर्वक इस प्रक्रिया को उलट देने के उनके आह्वान का कोई औचित्य नहीं बनता है. बाप-दादों की कीर्ति को स्थायी बनाने के लिए इतिहास की नहीं भारतेन्दु उनकी श्रेष्ठता को साबित करने वाले किसी स्मारिका की आवश्यकता पर जोर देते नज़र आते हैं. आगे भारतेन्दु लिखते हैं-
‘‘इस ग्रन्थ में तो केवल उन्हीं लोगों का चरित्र है जिन्होंने हम लेागों को गुलाम बनाना आरम्भ किया. इस में उन मस्त हाथियों के छोटे-छोटे चित्र हैं जिन्होंने भारत के लहलहाते हुए कमलवन को उजाड़ कर पैर से कुचल कर छिन्न-भिन्न कर दिया. मुहम्मद, महमूद, अलाउद्दीन, अकबर और औरंगजे़ब आदि इनमें मुख्य हैं. प्यारे भोले भाले हिन्दू भाइयों! अकबर का नाम सुनकर आप लोग चौंकिए मत. यह ऐसा बुद्धिमान शत्रु था कि उसकी बुद्धि-बल से आज तक आप लोग उस को मित्र समझते हैं. किन्तु ऐसा है नहीं. उस की नीति अंग्रेजों की भाँति गूढ़ थी. मूर्ख औरंगजे़ब उसको समझा नहीं, नहीं तो आज दिन हिन्दुस्तान मुसलमान होता. हिन्दू-मुसलमान में खाना पीना ब्याह शादी कभी चल गयी होती. अँगरेज़ों को भी जो बात नहीं सूझी वह इस को सूझी थी.”
दूसरी ओर मुस्लिम-साम्प्रदायिकता मध्यकाल को इस्लाम की श्रेष्ठता का प्रमाण मानती थी. हिन्दू और मुसलमानों के अलग-अलग अस्तित्व तथा उनके एक साथ न रह सकने की सम्भावना पर ज़ोर दिया गया. स्वयं सर सैय्यद ने जो कभी इन दोनों की एकता के कायल थे, दोनों की विभिन्नता को एक तथ्य की तरह स्थापित करने लगे. अलगाव को सांस्कृतिक स्तर पर स्थापित करने के लिए भारतीय मुसलमानों के उत्स को इस्लाम के आगमन से जोड़ने का असर अखिल भारतीय था. दिलचस्प यह है कि हिन्दी मीमांसकों ने भी इसे जस-का-तस स्वीकार कर लिया. भारतेंदु ‘मुसलमान-राज्यत्व का संक्षिप्त इतिहास‘ में शुरुआत मुहम्मद साहब के जन्म से करते हैं. लेख का समापन निम्न दोहे से होता है-
कनकपात्र रत नगजटित, फेंकत जौन उगार.
तिन की आजु समाधि पर, मूतत स्वान सियार..
जे सूरज सों बढि तपे, गरजे सिंह समान.
भुज बल बिक्रम पारि निज, जीत्यो सकल जहान.
तिन की आजु समाधि पै, बैठ्यो पूछत काक.
‘को‘हौ तुम अब ‘का‘ भए‘कहाँ‘ गए करि साक..
इस छोटे से लेख में भारतेन्दु औरंगजेब के राज्य के आरम्भ से मुस्लिम शासन के ह्रास की शुरूआत मानते हैं. कहना न होगा कि औरंगजेब की धार्मिक नीति को तत्कालीन हिन्दू पसन्द नहीं करते थे. दूसरी तरफ कुछ मुसलमानों ने इसी कारण से औरंगजेब की प्रशंसा और अकबर की निन्दा की. यह प्रवृत्ति आगे और बढ़ी. ऐसा माना जाने लगा कि अकबर की उदार नीति के कारण हिन्दुओं को जो अवकाश मिला आगे चलकर वह मुस्लिम वर्चस्व के लिए घातक सिद्व हुआ. संयोग से भारतेन्दु ने भी अकबर और औरंगजेब प्रकरण पर एक अलग शीर्षक के अन्तर्गत विचार किया है. इस लेख में भारतेन्दु औरंगजेब की तुलना में अकबर की महानता को प्रमाणित करने के लिए राजा रामदास कछवाहे के एक श्लोक को आधार बनाकर अपने मत को पुष्ट करते हैं. इस श्लोक [18] का भावार्थ उन्हीं के शब्दों में निम्न प्रकार से है-
“जो समुद्र से मेरू तक पृथ्वी को पालता है, जो मृत्यु से गऊओं की रक्षा करता है, जिस ने तीर्थ और व्यापार से कर छुड़ा दिए, जिस ने पुराण सुने, जो सूर्य का नाम जपता, जो योग धारण करता है और गंगाजल छोड़कर और पानी नहीं पीता उस जलालुद्दीन की जय., अंग वंग कलिंग सिलहट तिपुरा कामत (कामटी?) कामरूप अंध कर्णाटक लाट द्रविड महाराष्ट्र द्वारका चोल पांड़या भोट मारवाड उडीसा मलय खुरासान कंदहार जम्बू काशी ढाका बलख बदखशाँ और काबुल को जो शासन करता है., कलियुग की महिमा से घटते हुए वेद गऊ द्विज और धर्म की रक्षा को सगुण शरीर जिस ने धारण किया है उस अप्रमेय पुरुष अकबरशाह को हम नमस्कार करते है..”
भारतेन्दु के लिए ‘यह उसकी सब क्रिया हिन्दुओं को वश करने को एक महामोहानास्त्र थीं’ के अतिरिक्त ‘इसके विरूद्ध औरंगजेब से हिन्दुओं का जी कैसा दुखी था और उस समय राज्य की कैसी अवनति थी‘ की तुलना भी थी. अकबर के विषय में भारतेन्दु के विचार में परिवर्तन होता दिखता है. यह विचार उन्होंने 1872 से 1874 के बीच किसी समय प्रकट किये थे जबकि ‘बादशाह-दर्पण‘ 1884 में प्रकाशित हुआ था जिसमें अकबर की इस नीति के पीछे हिन्दुस्तान को मुसलमान बनाने की किसी साजिश का हाथ बताया गया था. भारतेन्दु धीरे-धीरे इतिहास के औपनिवेशिक-पाठ के प्रभाव में आते दिखते हैं.
‘बादशाह-दर्पण‘ में भी अकबर और औरंगजेब की तुलना है पर यहाँ अकबर हिन्दुओं का औरंगजेब से बढ़कर शातिर शत्रु दिखता है. यहां मध्यकाल की राजशाही पर किसी संदर्भ में की गयी व्याख्या और उसे तथाकथित मुस्लिम-काल की परम्परा में रखकर देखने की प्रक्रिया से र्निधारित हो रही व्याख्या में आया अन्तर भी दृष्टव्य है जिसकी ओर हरबंस मुखिया ने राष्ट्रवादी इतिहासकारों के सन्दर्भ में इशारा किया है. संदर्भ बदल जाने से वही तथ्य कैसे अपना पाठ बदल देते हैः इसका यह प्रकरण अच्छा उदाहरण है. ‘पुरावृत्त-संग्रह अर्थात इतिहास सम्बन्धी बात‘ के अन्तर्गत अकबर और औरंगजेब का द्वैत कैसे ‘बादशाहदर्पण अर्थात् हिन्दुस्तान के मुसलमान बादशाहों के समय और जन्म आदिक मुख्य बातों के वर्णन का चक्र‘ में आकर उलट जाता है.
भारतीय-इतिहास में मीमांसकों की रुचि का विस्तार और प्रदेशों तक भी था. बांग्ला में इस पर पर्याप्त लेखन मिलता है. हिन्दी-मीमांसकों के इतिहास-दर्शन से बांग्ला में हो रहे इतिहास-लेखन की तुलना इस लिए भी आवश्यक है जिससे यह पता चले कि अखिल भारतीय स्तर पर यह लेखन कहाँ था ? और इसकी प्रवृत्तियाँ राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट कैसे थीं? वास्तव में क्या हिन्दी के इतिहास-लेखन की प्रवृत्तियाँ राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे इतिहास लेखन का ही एक हिस्सा न थीं?
इस दृष्टि से बंकिम चन्द्र का 1872 में प्रकाशित ‘भारत कलंक‘ अर्थात ‘भारतवर्ष पराधीन क्यों है?‘ दृष्टव्य है. यह लेख भारतीयों के पराधीन होने के पीछे उनके स्त्रैण होने के यूरोपीय प्रचार के प्रति उत्तर में लिखा गया है. यहाँ हिन्दी मीमांसकों की ही तरह बंकिम चन्द्र के ‘भारत वर्ष‘ में ‘मुस्लिम-काल‘ बाहर है और भारतीयों का अर्थ हिन्दुओं से है. यहाँ भी मुस्लिम परजाति हैं और हिन्दुओं के पतन के कारण भी हैं-
‘‘आधुनिक हिन्दुओं के बलवीर्य की हालत अब चाहे जैसी हो, प्राचीन हिन्दुओं की अपेक्षा वह कम है, इसमें संदेह नहीं. सैकडों वर्षों की पराधीनता के कारण उस बल का ह्रास अवश्य हुआ है. प्राचीन भारतवर्षीय परजाति के हाथों विजित होने के पूर्व ज्यादा बलशाली थे, यह मानने के अनेक कारण हैं-दुर्बल होने के कारण वह पराधीन नहीं हुए थे.”
भारत के प्राचीन इतिहास के न होने तथा बाद के यवन तथा मुस्लिम इतिहासकारों के इतिहास में आये अतिशयोक्ति को स्वीकार करते हुए वह लिखते हैं-
‘‘अपेक्षाकृत मूढ और आत्मगौरव से भरे हुए मुसलमानों की बात तो दूर की है, सुशिक्षित,सत्यानिष्ठाभिमानी यूरोपीय इतिहासवेत्ता भी इस दोष के कलंक से इस हद तक कलंकित हैं कि उनकी रचनाओं का पाठ करते हुए कई बार घृणा तक उपजती है.”
बंकिम चन्द्र इतिहास पर बात करते हुए तार्किक दिखते हैं. अरबों के भारत-विजय, में लगे 300 वर्षों के प्रयास को वे एलफिंस्टन के इस तर्क में कि हिन्दुओं में अपने धर्म के प्रति दृढ़ प्रेम ही इस अपराजेयता का कारण था, घटाकर नहीं देखते हैं,उनके अनुसार ‘इसका कारण नैपुण्य और योद्धा शक्ति थी‘. धर्म के प्रति प्रेम को वह इस प्रेम से हल्का कर देते हैं- ‘तब क्यों हिन्दू सात सौ वर्षों से पराजित और पददलित हैं?’ हिन्दुओं के बलहीन होने के प्रचार के पीछे वह तीन कारणों हिन्दुओं का इत्तिवृत नहीं है‘, ‘आत्मरक्षा में संतुष्ठ थे‘ तथा ‘बहुत दिनों तक पराधीन रहे‘ को माना है. कहना न होगा कि औपनिवेशिक-काल में हिन्दुओं को लेकर इस तरह की उदारवादी छवि प्रस्तुत करने के राष्ट्रीय-प्रयास का यह एक हिस्सा था.
बंकिम चन्द्र ने हिन्दुओं की पराधीनता के पीछे-‘भारतवासी स्वभाव से ही स्वाधीनता की आकांक्षा से रहित हैं‘ तथा ‘हिन्दू समाज में एकता का अभाव‘ जैसे कारणों को माना है. ‘स्वातंत्र्य के प्रति अनास्था‘ के उत्तर की तलाश में बंकिम चन्द्र भौगोलिक कारकों को उत्तरदायी पाते हैं. उनके अनुसार भूमि की उर्वरा शक्ति और जलवायु ने किंचित प्रयास से ही जीवन को निर्वाह योग्य बना दिया था. आगे वह जाति-प्रतिष्ठा (Nationality) के लुप्त होने को भी इसके लिए उत्तरदायी ठहराते हैं. उनके अनुसार-
‘‘इतिहास में केवल दो बार हिन्दु समाज में जाति प्रतिष्ठा का उद्यम हुआ है. एक बार महाराष्ट्र में शिवाजी ने इस महामन्त्र का पाठ किया था. उनके सिंहनाद से महाराष्ट्र जागृत हुआ था. तब मराठों के बीच भ्रातृभाव का उदय था. इसी विस्मयकारी मंत्र के जोर से अविजित मुगल सामा्रज्य मराठियों तक विनष्ठ हुआ था. चिरजयी मुसलमान, हिन्दू द्वारा विजित हुआ था.”
आगे वह लिखते हैं-
‘‘दूसरी बार एंद्रजालिक रणजीत सिंह ने यह संभव किया था. जातीय बन्धन दृढ़ होने से पठानों के स्वदेश के कुछ हिस्से हिन्दुओं ने हस्तगत किये. सिंहनाद सुनकर, निर्भीक अंग्रेज भी कंपित हुये.”
जैसा कि स्पष्ट ही है यहाँ बंकिम चन्द्र और भारतेन्दु के प्राचीन भारत के सम्बन्ध में विचार लगभग एक जैसे हैं. जातीयता का आग्रह दोनों का एक जैसा है. भारत के मध्यकाल को दोनों एक ही तरह देखते हैं. इतिहास से हिन्दुओं के संदर्भ में दोनों की मांग एक जैसी है. अंग्रेज़ी-सभ्यता के दोनों एक स्तर पर समान समर्थक है. बंकिम चन्द्र लिखते हैं-
‘‘अंग्रेज़ों ने भारतवर्ष का परम उपकार किया है. अंग्रेज़ों ने हमें नई चीजें सिखाई हैं. जो हमें पहले कभी मालूम न था, न सुना था, न समझा था, उसे दिखाया, सुनाया और समझाया है, जिस पथ पर कभी हम चले नहीं थे, उस पथ पर किस तरह चलना चाहिए, यह हमें दिखा दिया है. इन सभी शिक्षाओं में से अनेक शिक्षाएँ अमूल्य हैं. ये सभी अमूल्य रत्न हमने अंग्रेज़ मनोचिकित्सक से प्राप्त किये हैं. इन में से दो को हमने इस प्रबन्ध में उल्लेख किया है-स्वातंत्र्य प्रियता और जाति प्रतिष्ठा का..”
मराठी के श्री विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे़ (1863-1926) का इतिहास-चिंतन इस दृष्टि से तुलनीय है. श्री राजवाडे़ वर्ण-व्यवस्था के समर्थन में जहां खड़े हैं, वहीं उनकी विवेचना भी वर्ण व्यवस्था को केन्द्र में रख कर चलती है. राजवाड़ें की यह मान्यता है कि
‘इतिहास लिखने की इंगलिश लोग में ज़रा भी पात्रता नहीं है- ख़ासतौर से हिन्दुस्तान और महाराष्ट्र के इतिहास लेखन के संदर्भ में’ पर आर्य-अनार्य के प्राच्यवादी अवधारणाओं को वे स्वीकार कर लेते हैं.
अमेरिकनों[i] द्वारा रेड़-इंडियनों के सफाये का वर्णन करते हुए वह आर्यों द्वारा अनार्यों पर क्रूरता न करने के पीछे वर्णव्यवस्था को ही कारण मानते हैं. यहां तक कि मुसलमानों के पतन के पीछे भी वह उनका जाति भेद को न मानने का कारण ही स्वीकार करते हैं. उनके अनुसार-
‘‘जिस समाज में कनिष्ठ संस्कृति के व्यक्तियों की संख्या श्रेष्ठ व्यक्तियों की संख्या से बेहिसाब अधिक होती है, उस समाज के आरोग्य-दायक शौचधर्म रसातल में पहुंच जाते हैं, सांसर्गिक रोगों का प्रादुर्भाव होता है, उपदंशादि आदि व्याधियों से ग्रस्त निम्न श्रेणी की सन्तति बिलबिलाती फिरती है, अराजकता का साम्राज्य फैल जाता है और सदाचार-संपन्नता तथा विद्याओं का लोप हो जाता है. एक ही वाक्य में कहें तो समाज में उच्च संस्कृति का लोप हो जाता है.”
आगे वह मुसलमानों पर विचार करते हुए लिखते हैं.
‘‘अल्जीरिया-मोरक्को से लेकर चीन तक फैले हुए मुसलमान समाज द्वारा व्याप्त नगर, ग्राम तथा गृह गन्दगी के घूरे हैं, ऐसा यात्रियों ने कहा है. प्रसिद्ध है कि भारतीय नगरों में स्थित मुसलमान बस्ती हिन्दू बस्ती की अपेक्षा अधिक गन्दी होती है. कानून को भंग कर दुर्बल दंगाखोरी के लिए सभी इस्लामी देश कुख्यात हैं. अनुमान किया जाता है कि संसार के समस्त देशों की अपेक्षा इस्लामी देशों में उपदंश का रोग अधिक मात्रा में पाया जाता है. ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में मुसलमान समाज ने पिछले पन्द्रह सौ वर्षों में एक भी ऐसा उल्लेखनीय व्यक्ति नहीं दिया जिसने अभिनव तथा अपूर्व शास्त्रीय आविष्कार किया हो.”
दूसरी ओर सर सैय्यद अहमद खां आर्यों के बाहर से आने के सिद्धान्त को भारतीयों द्वारा मिले व्यापक समर्थन [19]के उल्लेख के द्वारा अपने होने को न्यायोचित ठहराते हुए अपने वर्ग के हितों के लिए संघर्ष कर रहे थे. आगे चलकर इस सिद्धान्त के द्वारा वर्ण व्यवस्था में निहित असमानता को अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच की असमानता से जोड़ कर देखने के भी प्रयास हुए. 1857के गदर के बाद भारत के मीमांसक औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि के भले नागरिक साबित हुये.
इस दृष्टि से भारतेन्दु का इतिहास-लेखन अखिल भारतीय स्तर पर औपनिवेशिक इतिहास-लेखन का ही एक हिस्सा था जिसमें मिली-जुली प्रवृत्तियाँ कार्य कर रहीं थीं. मूलतः यह लेखन अपने वर्गीय हितों के लिए संघर्ष कर रहे मध्यवर्गीय भारतीय-आभिजात्य वर्ग की सांस्कृतिक-रणनीति से जुड़ा था जिसमें दुर्भाग्य से पश्चिम की सत्तामूलक-वैचारिक छवियाँ भी थीं. भारतेन्दु ने अपने इतिहास-लेखन से राष्ट्र के रुप में निर्मित हो रहे उस काल्पनिक समूह को वैधता प्रदान की जिसने आगे चलकर एक निश्चित शक्ल अख्तियार की.
औपनिवेशिक-भारत के संश्लिष्ट और बहुआयामी परिस्थितियों के बीच हिन्दी में हो रहे इस इतिहास-लेखन पर समकालीन विचार-सरणियों के सरलीकृत मानकों का उपयोग करते हुए, आसानी से हम इसके सांप्रदायिक, वर्णवादी, मर्दवादी और साम्राज्यवादी होने जैसे निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं. वर्तमान की समस्याओं या वर्तमान की दुर्घटनाओं के पीछे भूत की असावधानियों की खोज में भटकते अन्वेषक जिस प्रविधि का उपयोग कर रहे हैं उसके कुछ अपने खतरे हैं. मन की तरंग या ‘समय‘ के तकाज़े के अनुसार एक निष्कर्ष तैयार करने के बाद उसे सिद्ध करने के लिए चुन-चुन कर तथ्यों को इकट्ठा करते जाना और जो तथ्य अभिष्ठ सिद्धान्त के प्रतिकूल हो उन्हें भूल जाने के सयानेपन, (अगर उन्हें तोड़ने-मरोड़ने से काम नहीं बन पा रहा हो तब) की इस प्रविधि से अतिवादी निष्कर्षों तक पहुंचने की आशंका हमेशा बनी रहती है. ऐसे किसी एकांगी मूल्याधारित-निर्णय देने से बचने के लिए तत्कालीन-परिस्थितियों को ध्यान में रखना आवश्यक है. तथ्यों तथा प्रवृत्तियों को उनकी समग्रता में देखने की लोकतान्त्रिक प्रवृति का परिचय देना पहली अर्हता है. विश्लेषण से निष्कर्ष निकले यही श्रेयस्कर है.
भारतेन्दु जिस समाज में घटित हो रहे थे वह पतनशील सामन्ती-मूल्यों का समाज था. आधुनिकता के कुछ मूल्यों को यह समाज अपने ऐतिहासिक विकास-क्रम के कठिन आत्मसंघर्ष से प्राप्त न करके, औपनिवेशिक-शासन की अधकचरी नकल से प्राप्त कर रहा था. यह मूल्य विचार के स्तर पर ही अधिक प्रभावी थे. औपनिवेशिक-भारत के सुधारवादियों का द्वैत एक स्थापित तथ्य है. हिन्दी-मीमांसकों के साथ एक अतिरिक्त समस्या हिन्दी-विरोधी उस मुस्लिम प्रभु वर्ग के कारण भी पैदा हुयी, जो भारत की किसी भी परम्परा से न केवल अपने को जोड़ने से इन्कार करता था, अपितु जिसके ऊपर शासक होने का ‘हैंगओवर‘ अभी बाकी था.
वस्तुतः भारत का औपनिवेशिक लेखन स्वाधीनता की आकांक्षा के साथ-ही-साथ अस्मिताओं के घमासान का भी विवरण है. जिसमें सुधार और संकुचन की प्रवृतियाँ अपनी भूमिका की अदला-बदली करती रहती थीं. इस द्वैत से ही नई चेतना का प्रस्फुटन होना होता है जो किसी भी जागरण की पहली शर्त है.
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अरुण देव
devarun72@gmail.com
सन्दर्भ:
[1] Romila Thapar, Communalism and the writing of Ancient Indian History, Communalism and the writing of Indian History, People’s Publishing House N Delhi, October 1987 Page-14
[2] हरबंस मुखिया-मध्यकालीन भारतः नए आयाम,राजकमल प्रकाशन 1998 पृष्ठ-45
[3] The historical reconstruction was characterized also by an emptying out of all history-in terms of the specific variations of time, place, class, issue – from the political experience of the people, and the identification of religion, or the religious community, as the moving force of all Indian politics.^^
Gyanendra Pandey, The Construction of Communalism in Colonial North India, OUP, Delhi, 1994, Page 24
[4] In Fixing a moral standard of behavior, groups come to know not only what they were but what they were not. To imagine themselves, they had to imagine their opposite or opposites.
Barbara Daly Metcalf, Imagining Community Polemical Debates in Colonial India (Religious Controversy in British India, Edited- Kenneth W. Jones,) State University Of New York Press 1992 Page-235
[5] ‘‘कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जलबल नासी।
जिन भय सिर न हिलाइ सकत कहुँ भारतवासी।।‘‘
इस दोहे के अलावा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के साहित्य में 1857 से सम्बन्धित कुछ नहीं मिलता है।
[6] ग़ालिब ने दस्तम्बू में 1857 के गदर पर लिखा है-‘‘पूरे मुल्क में नमक़हराम ज़मींदारों और सिपाहियों ने आपस में गठबंधन कर लिया है, ताकि पूरी ताकत के साथ सरकार के विरुद्ध मोर्चा ले सकें। केवल खून की नदी ही उन्हें सन्तुष्ट कर सकती है। दूर और पास के सभी लोगों ने हिंसा पर कमर कस ली है। इस असीमित सेना और अनगिनत लडाकुओं ने ख़ुद को झाड़ू के बन्धन की भाँति इस तरह बन्धी बना लिया है कि हिन्दुस्तान में अब घास के एक तिनके-भर शान्ति की पुर्नस्थापना की कल्पना असम्भव है।‘‘ (दस्तम्बू,संपादन-अब्दुल बिस्मिल्लाह, संदर्भ प्रकाशन,दिल्ली-89 पृष्ठ-25)
[7] Ranajit Guha, On Some Aspects of the Historiography of Colonial India, Subaltern Studiesi –1, OUP Delhi, 1996
[8] इस पूरे प्रकरण पर सुधीर चन्द्र ने The Oppressive Present’ esa ^Defining the Nation’ तथा अभी हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक रस्साकशी में वीरभारत तलवार ने ‘इतिहासतिमिरनाशक की आलोचना‘ में इस पर प्रकाश डाला है।
[9] Noah, ओल्ड़ टेस्टामेन्ट में जल-प्रलय की घटना का वर्णन है। नूह आदम के नौंवी पीढ़ी (descent)में आते हैं और लेमेक (Lamech) के पुत्र थे। उनकी निद्रोष पवित्रता के कारण ईश्वर ने उन्हें जल-प्रलय के बाद मानव-जाति की निरन्तरतर को बनाये रखने के लिए चुना। नूह ने अपने विशाल नाव (ark) में पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी प्रजातियों के एक-एक जोडे़ को रखा।
माना जाता है कि उसके बाद पृथ्वी पर जो संततियाँ आयीं वे नूह के तीन पुत्रों- शेम (shem) हेम (ham)और जैपेथ (Japheth) से संबन्धित हैं।
[10] Richard M. Eaton, Temple desecration in pre-modern India] Frontline, December22, 2000
[11] [11]“The Common People must have been plunged into the lowest depths of wretchedness and despondency. The few glimpses we have, even among the short Extracts in this single volume, of Hindu slain for disputing with Mohammedans, of general prohibitions against processions, worship, and ablutions, and of other intolerant measures, of idols mutilated, of temples razed, of forcible conversions and marriages, of proscriptions and confiscations, of murders and massacres, and of the sensuality and drunkenness of the tyrants who enjoined them, show us that this picture is not overcharged.”
H.M. Elliot and John Dowson, trans.and eds.The History of Inadia as Told by its Own Historians,8 Vols(Allahabad: Kitab Mahal)1:xxi
[12] Communalism and the writing of Indian History, People’s Publishing House, New Delhi, 1987 Page-16
13 Richard M. Eaton,Temple desecration in pre-modern India] Frontline, December22, 2000 Page-64
14 K.A.Nizami,ed, Politics and Society during the Early Medieval Period: Collected Works of Professor Mohammad Habib( People’s Publishing House, New Delhi, 1974,1:4)
[15] The GLOWING LEGEND of SIR SYED A CENTENNIAL TRIBUTE, Edited by Syed Ziaurrahman, 1998, Non-Resident Students’Centre Aligarh Muslim University, Aligarh, Psge-211
[16] The GLOWING LEGEND of SIR SYED A CENTENNIAL TRIBUTE, Edited by Syed Ziaurrahman, 1998, Non-Resident Students’Centre Aligarh Muslim University, Aligarh, Psge-212
[17] आसारुस्सनादीद (उर्दू में) ,सर सैयद अहमद खान, उर्दू अकादमी दिल्ली,2000 पृष्ठ.24 , उर्दू में मौजूद इस लेख को पढने में जेएनयू में उर्दू के शोधार्थी असलम परवेज़ तथा जफ़र आग़ा से काफी मदद मिली।
[18] सतीश चन्द्र-मध्यकालीन भारत में इतिहास लेखन,धर्म और राज्य का स्वरुप: ग्रन्थ शिल्पी नई दिल्ली1999- पृष्ठ-31,इसमें सतीश चन्द्र ने आई0 एच0 कुरैशी के ‘The Muslim community of the Indo-Pakistan Sub-continent ‘ के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाले हैं।
‘‘आमेरोरासमुद्रादवति वसुमतीं यः प्रतापेन तावत्।
दूरे गाः पाति मृत्योरपि करममुचत्तीर्थवाणिज्य वृत्यों।|
अप्यश्रौषाीत् पुराण जपति च दिनकृन्नाम योगं विधत्ते।
गगाम्भोर्भिन्नमम्भो न च पिवति जयत्येषजल्लालुदीन्द्रः।।3।।
अंग-वंग-कलिंग-सिलिहट-तिपुरा-कामता-कामरूपा
नान्धं कर्णाट-लाट द्रविड-मरहट द्वारका -चोल-पाण्ड्यान।
भोटान्नं मारुवारोत्कलमलयखुरासानखान्धारजाम्बू।।
काशी-काश्मीर ढक्का बलक-बदखशा-काबिलान् यः प्रशास्ति।।4।।
कलियुगमहिमाऽ पचीयमानश्रु तिसुरभिद्विजधर्मरक्षणाच।
धृतसगुणतनं तमप्रमेयं पुरुषमकव्वरशाहमानतोस्मि।।5।।‘‘
[19] Writings and speeches of Sir Syed Ahmad Khan- compiled and edited by Shan Mohammad, Nachiketa Publications limited Bombay-1972 Page-159
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