दोस्त के घर का उदास चिनारभाषा सिंह |
चोला माटी के राम एकर का भरोसा, हाय एकर का भरोसा
द्रोणा जैसे गुरु चले गए… रावण जस अभिमानी
इक दिन आई सबकी बारी…
चिनार के पेड़ों के झुटपुटे से होकर सरपट दौड़ता सफर. साथ में बजता यह छत्तीसगढ़ी लोकगीत. अन्याय के खिलाफ विरोध की धधकती कश्मीर की वादी में यह लोकगीत एक चुनौती सा कान में बज रहा था.
सात साल का समीर फुटबाल खेल रहा है. सरकारी स्कूल के आगे बड़े से मैदान में छोटे से फिरन को डाले हुए, दौड़ रहा है और लगातार कुछ दोहाराया जा रहा है. पास जाने पर सुनाई देते हैं दो बोल—आजादी, बोलो आजादी. ये सुनते हुए जब मैं अपना कैमरा आन करके उससे इसे दोहराने को कहती हूं तो वह आंखों से इनकार करते हुए चुप्पी साध लेता है. धीरे-धीरे खिसकते हुए वह मिडल स्कूल के बरामदे में चला जाता है, जहां स्कूली यूनिफॉर्म में बच्चे कैरम खेल रहे हैं. मेरा कैमरा उन पर घूमता है. वे एक साथ चिल्लाते हैं—आजादी, भारत से चाहिए आजादी, गो इंडिया गो बैक. किससे आजादी चाहिए, ये पूछने पर वे कहते हैं भारतीय सेना से. फिर हंसकर कहते हैं, किताबों से भी. सेना से क्यों आजादी चाहिए? वे फिर गुस्से में बोलते हैं, वह खून करती है, सड़कों पर दौड़ा-दौड़ कर मारती है, औरतों को उठा ले जाती है… हमसे नफरत करती है और हम भी उससे नफरत करते हैं… हम भी उन्हें पत्थर मारेंगे. ये कहते हुए कक्षा सात में पढ़ने वाला दानिश असरफ थूकता है और थूक को पैर से मसलता है… बाकी लड़के भी वैसा ही करते हैं…. इन बच्चों की उम्र 6 साल से 12-14 साल के बीच है. एक बार फिर नारा लगाकर सब खेलने में जुट जाते हैं.
कैमरा पल भर को हिलता है. बगल की दीवार पर जाता है. यहां एक शेर ऊर्दू में लिखा है- अपना तो काम है जलाते रहे चिराग, रास्ते में दुश्मन या दोस्त का घर मिले- साथ चल रही महजबीं इसे पढ़कर सुनाती हैं और कहती हैं कि ये इकबाल का है. बकरीद की तैयारी में पूरे जोश-खरोश के साथ जुटे कश्मीर में बिताए तीन दिन (15-17 नवंबर) पूरे परिवेश, कश्मीरियत की धधक के बारे में बहुत कुछ समझा गए. मेरी परिचित महजबीं ने कहा था कि बकरीद से तीन-चार दिन पहले आने पर ही हम आराम से घूम-फिर सकेंगे क्योंकि तभी सरकारी और हुर्रियत दोनों का कर्फ्यू नहीं रहेगा. हुर्रियत कैलेंडर को चेक करके ही महजबीन ने बताया था कि पिछले छह महीनों से हड़ताल-सरकारी कर्फ्यू से थोड़ी छूट मिलेगी और माहौल कमोबेश तनाव मुक्त होगा. वाकई ऐसा ही रहा.
यहां मैं बात कर रही हूं उस मिडिल स्कूल की जो कश्मीर के कुलगाम जिले के चावलगाम इलाके में है. यह कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से करीब 75-80 किलोमीटर दूर है. यहां एक छोटा सा शेख मोहल्ला है, जिसमें करीब 20 घर हैं. इसी मोहल्ले से सटा हुआ है यह स्कूल, जहां शेखों के बच्चे भी पढ़ते हैं. कश्मीर में सफाई कर्मियों को शेख या मोची या वातल कहा जाता है. परपंरागतरूप से इनका काम सफाई करना, मोचीगिरी करना ही है, यानी उत्तर भारत के वाल्मिकी और चमार जाति पर बर्बर जातिव्यवस्था द्वारा थोपे गए काम. कश्मीर जिस समय आजादी की मांग को लेकर सुलग रहा है, उस समय कश्मीर के उन मोहल्लों में जाना जो कभी इस राज्य की खबर में न रहे हो, ऐसे समुदाय से मिलना जो अपनी पीड़ा को पीड़ा मानने की मनः स्थिति में ही न रहे हो- बड़ा अलग ढंग का अनुभव रहा. कश्मीर की इस अनदेखी-अनसुनी दुनिया से मिलने की बेसाख्ता चाह मुझे आखिरकार उनके बीच ले ही आई. इसे सोच कर मैं राहत में थी.
इस शेख मोहल्ले में मैं महजबीं और सफाई कर्मचारी आंदोलन के विल्सन बेजवाडा के साथ गई थी. महजबीं कश्मीर की ही हैं और लंबे समय से महिला विकास और गायब हुए लोगों के परिवारों के साथ काउंसिलेंग का काम कर रही है. उनकी अपनी स्वंयसेवी संस्था है और पिछले दो सालों से वह इस वातल समुदाय में भी काम कर रही है. विल्सन राष्ट्रीय स्तर पर मैला मुक्ति के लिए सक्रिय हैं और कश्मीर में उन्होंने महजबीं के साथ काम शुरू किया है. लिहाजा शेख मोहल्ले में बातचीत एक भरोसे और बेतकल्लुफी के माहौल में शुरू हुई. दिक्कत ज़बान की थी, कमरे में मौजूद कम ही लोग पूरी हिंदी समझ सकते थे और कश्मीरी हममें से सिर्फ महजबीं को आती थी. दूसरे राज्यों की तरह यहां स्थिति नहीं थी. जितने लोग भी मिले उन्हें अपने काम से कोई खास दिक्कत न थी. दरअसल उनके जेहन में ये ख्याल ही शायद कभी नहीं आया था कि इस काम के अलावा भी कोई और काम हो सकता है उनके लिए. वहां के बुजुर्ग, जो पीर का भी काम करते हैं, ने कहा हम तो बेटी पुश्तों से यही करते आए हैं और इसके अलावा कुछ सोचा नहीं. कश्मीर में हर जगह ऐसे ही शौचालय हैं. हमारे घरों में भी यही है. घरों का साफ करने में दिक्कत नहीं होती. मिलिट्री कैम्पों के शुष्क शौचालयों को साफ करने में ज्यादा परेशानी होती है.
क्यों?
वहां दिन रात यही काम करना पड़ता है. प्राइवेट घरों में तो महीने में दो-तीन बार जाकर काम चल जाता है. औरतें भी करती हैं ? – नहीं. हमारे मोहल्ले में तो नहीं पर बाकी में करती हैं. इस मामले में भी कश्मीर देश के बाकी इलाकों से अलग था. बाकी हर जगह मैला ढोने में औऱतों को ही सौ फीसदी आरक्षण मिला हुआ है. कश्मीर जाकर ही पता चला कि वहां बड़े पैमाने पर शुष्क शौचालय हैं. शायद पूरे देश में सबसे ज्यादा, क्योंकि यहां सीवर बिछे ही नहीं है. शहरों में भी सेप्टिक टैंक हैं, जिनकी बड़े पैमाने पर सफाई हाथ से ही होती है. उन्हें साफ करने वाले, इंसानी मल को हाथों से साफ करने वाले शेष भारत की तरह ही अलग, मुख्य शहर या कस्बे से दूर मोहल्लों में रहते हैं, जिनकी शिनाख्त शहर के सबसे गंदे-बजबजाते हिस्से के रूप में होती है. इन्हें वातल, शेख या मोची मोहल्ला कहा जाता है. ये मोहल्ले वैसे ही गंदगी-गरीबी से अटे हुए हैं जैसे शेष भारत की दलित बस्तियां. बस आजादी का जज्बा यहां भी वैसे ही जगमगा रहा था जैसे कश्मीर के बाकी हिस्सों में. मल भरी जिंदगी से आजादी की आग अभी इन बस्तियों में नहीं सुलगी है. या शायद कांगडियों में सुलगने वाली मद्धम आग की तरह मौजूद रही हों, जो ऊपर से दिखाई नहीं दे रही थी.
शेख मोहल्ले के उस छोटे से घर में छोटा सा बैठकखाना था. पैबंद के साथ दरी बिछी थी, दीवार से पीठ टिकाने के लिए तकिया लगे थे और बैठते ही कोयला डली कांगडियां आ गई. तीन. और हम तीनों को दे दी गईं. ठंड ज्यादा थी और कमरे में धूप न आती थी, हल्की सी सिहरन लगी तो उन्होंने भांप लिया और घर का बेहतरीन कंबल जो पन्नी में पैक करके रखा गया था, हमें पैर में डालने के लिए खोलकर दे दिया गया. फिर एक-एक करके सबने अपनी आपबीती सुनानी शुरू की. कमरे में करीब 10 मैला साफ करने वाले और उनके परिवार की महिलाएं और उनके बच्चे थे. महिलाओं की दिलचस्पी मैला से मुक्ति से लेकर आजादी के सवाल पर देखते ही बन रही थी. सबसे पहले उनमें से एक महिला जिसका नाम फातिमा था, उन्हीं ने कहा कि इस काम के चलते हमारे बच्चों को स्कूलों में जलील होना पड़ता है, सब कहते है ये वातल के बच्चे है, मोची के बच्चे हैं,ये गंदे हैं, टच पाजिन का धंधा है.
कश्मीरी में मैला ढोने को टच पाजिन कहते हैं. इसके बाद कमरे में बैठे मर्दों ने भी खुली आवाज में बोलना शुरू किया. मोहम्मद जबार शेख ने बताया कि वह सिर्फ 8वीं तक ही पढ़े हैं क्योंकि उसके बाद वालिद के साथ टच पाजिन के काम में लगना पड़ा. बिलाल अहमद शेख के चार बच्चे हैं और उम्र करीब 22-23 है, लेकिन पढ़ने का मन उसका आज भी करता है. वह नौंवी तक पढ़ा है, आगे भी पढ़ने का मन था लेकिन पैसे का रोड़ा था, कोई जुगाड़ नहीं हुआ. पहले मजदूरी की क्योंकि मैला साफ करने में बेहद दिक्कत होती थी. वह भीगी आंखों और फटी आवाज में बताते हैं कि किस तरह जब पहले बाल्टी पकड़ी और शौचालय साफ किया तो आंखों के आगे किताबें घूमने लगी, सिर चकरा गया. उन्होंने 17 साल की उम्र में शुरू किया इसलिए बेहद दिक्कत हुई एडजेस्ट करने में. फिर धीरे-धीरे आदत पढ़ गई. इस समय रोज वह 4-5 घरों के शौचालय साफ करते हैं और बीच-बीच में मजदूरी करके घर का खर्चा चलाते हैं. वह साफ कहते हैं कि अगर उन्हें यह दिखाई दिया कि उनके बच्चों को भी यही काम करना है तो वे उन्हें ज्यादा पढ़ाएंगे नहीं, वरना उन्हें भी जिंदगी भर यही मलाल रहेगा कि किताबों से गुजरने के बाद भी वे टच पाजिन ही कर रहे हैं.
जहां हम बैठे थे वहां एक किनारे एक फोटो-गद्दी लगी हुई थी. पूछा तो पता चला कि पीर है. यानी बिलाल के पिता गुलाम हसन शेख पीर है. शेख समुदाय में भी पीर होने का खूब चलन बढ़ गया है. गुलाम कहते हैं दुख जो इतना बढ़ गया है, हमें पता ही नहीं होता सुबह का निकला बंदा शाम को बीबी बच्चों के पास लौटेगा कि नहीं. एक तरफ गंदगी का नरक तो दूसरी तरफ गोलियों का बोलबाला. ऐसे में पीर एक सहारा देता है. पता चला कि पिछले 10 सालों में पूरे कश्मीर के अलग-अलग समुदायों में पीर का चलन बहुत बढ़ गया. ये पीर गली-मोहल्ले, रिश्ते-नातों में तत्काल मानसिक राहत देने, सलाह देने का काम करते है. शेख मोहल्लों में तो ये कमोबेश पाए ही जाते हैं.
तभी शहजाद ने बताया कि मोहल्ले के बगल में ही राज्य के मत्स्य विभाग का कार्यालय है, जहां शुष्क शौचालय है. हम सब उधर चल निकले. विभाग के परिसर के एक किनारे बना हुआ है जिसे विभाग का गैर-अधिकारी वर्ग इस्तेमाल करता है. अधिकारियों के लिए फ्लश शौचालय है. यहां के शुष्क शौचालय दो तरह के होते हैं, एक में तो ढेर सारी राख डाल दी जाती है, जिसमें मल-मूत्र जब पड़ता है तो मिल जाता है, दूसरे में बाल्टी या टैंक बनी दिया जाता है, जिसे ये समुदाय निकाल कर अपनी बाल्टी या टीन में डालकर साफ करता है. ये शौचालय लकड़ी के बने होते हैं, थोड़ी सी ऊंचाई पर और मल नीचे इक्टठा होता है. शहजाद तैयार थे इसे साफ करके दिखाने को, वह अपने साथ बेलचा भी ले आए थे. लेकिन मन नहीं हुआ हममें से किसी का भी. शहजाद ने कहा आप फिक्र न करो मैडम, जैसे आपके लिए कलम पकड़ना, वैसे ही हमारे लिए बेलचा पकड़ना. सब हंस दिए. हंसी और ठहाके कश्मीर की जान है. गर्म नमक वाली चाय का बुलावा आ गया. सब घर की ओर मुड गए. यहां बातचीत का दूसरा दौर शुरू हुआ जो इस गंदे काम को छोड़ने के रास्ते पर था. लोगों को लग तो रहा था कि ये छोड़ना चाहिए पर ये भी कह रहे थे कि कश्मीर में इतने बड़े सवाल हैं, अत्याचार है, उसमें हमारी आवाज कहां सुनाई देगी. पर वे अपने बच्चों को इस नरक में नहीं डालना चाहते है, उन्हें इस जलालत से मुक्त रखने को वे कुछ भी के उनके सामने मैला से मुक्ति का सवाल पहली बार उठा था, जाहिर था इसे जज्ब करने के लिए उन्हें समय चाहिए था.
इसके बाद हम बढ़े शोपियां की तरफ. शोपियां- बहुत मन था इस शहर को देखने का महसूस करने का. यहां पिछले साल जून में आसिया जान और उसकी भाभी नीलोफर जान की सुरक्षा बलों ने सामुहिक बलात्कार करके हत्या कर दी थी. इस बात पर पूरे कश्मीर-पूरे शोपिया का बच्चा-बच्चा यकीन करता है, सुरक्षा बलों या सीबीआई के अलावा. इसके बाद से पूरी घाटी में आग लग गई थी. मेरा बहुत मन था उस परिवार से मिलने का, मजलिस के उन लोगों से मिलने का जिन्होंने बेखौफ ढंग से इंसाफ के लिए इतना लंबा संघर्ष चलाया. अभी भी चला ही रहे हैं क्योंकि हर कदम पर न्याय के नाम पर उनसे धोखा ही हुआ. इसमें मदद की श्रीनगर के मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज ने. उन्होंने शोपिया में इंसाफ की लड़ाई चला रही मजलिस मुशावरत के फयाज का नंबर दिया और मेरे लिए उनसे बात भी कर ली. पर इन लोगों से मुलाकात से पहले हमें शोपिया के वातल मोहल्ले में लोगों से मिलना था, जो हमारा देर से इंतजार कर रहे थे. चावलगाम से यहां पहुंचने में दो घंटे लग गए, सूरज ढल रहा था. चिनार के पेड़ और उदास दिख रहे थे. थक कर पक्षी लौट रहे थे, थोड़ी चहचहाट के साथ.
वातल मोहल्ले में ताहिर और शफीक बाहर ही मिल गए. यहां भी हम जिस कमरे में बैठे वह चावलगाम के घर सा ही था, बस थोड़ा सा बड़ा था औऱ दो मंजिला था. बैठकखाना पहली मंजिल पर था, उधर जाते हुए कूकर की सीटी से निकलने वाली खुशुबू से याद आया कि ओफ! भूख लगी है, कुछ खाया नहीं दिन में. एक पल को उस खुशबू से ही मैं टटोलने लगी कि क्या पक रहा है, कुछ लजीज है…. इतने में सामने बैठी लड़की, जिसका नाम सारा था, उसने कहा गोश्त पक रहा है. मैंने पूछा कश्मीरी, उसने कहा हां साग में. और हम हंसे और सीढ़ी चढ़ने लगे.
वहां पहले से लोग बैठे हुए थे, कांगड़ियां रखी हुई थी, कंबल भी. ताहिर ने बताया कि यहां से कई लोग सफाई कर्मचारी आंदोलन की मैला मुक्ति यात्रा में शिरकत कर चुके है. वे फॉर्म भी भर चुके है, लेकिन उन्हें उम्मीद कम थी कि इससे उन्हें मुक्ति मिल पाएगी. यहां भी उन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत इस बात से थी कि उनके बच्चों के साथ स्कूलों में भेदभाव होता है. टीचर भी कहते हैं, ये वातल के बच्चे हैं, मोची का बच्चा है, इसके साथ न बैठो. ये सुनकर लगता है कि हमारे बच्चों का क्या भविष्य है. क्या ये बच्चे कभी इस गाली से मुक्त हो पाएंगे. शायद नहीं. 40 वर्षीय शबीर ने बताया कि इस मोहल्ले के पास के सरकारी स्कूल को लोगों ने नाम ही दे दिया है वातल स्कूल और यहां बाकी समुदाय के बच्चे बहुत मजबूरी में ही पढ़ने आते हैं. इस मोहल्ले में कई लोग कमेटी (नगर पालिका) के कर्मचारी थे, कुछ स्थायी तो कुछ अस्थायी. अस्थायी को 3,000 रुपये महीने मिलता है तो स्थायी को 10-12 हजार तक. ज्यादातर अस्थायी हैं.
बातचीत के बीच में ही चाय आई और हम तीनों के लिए तीन प्लेट में बिस्कुट. कश्मीर में बेकरी का चलन खूब है. वैसे भी बकरीद की तैयारियों के दिन थे औऱ बाजार में लोग बेकरियों पर टूटे पड़े थे. तरह-तरह के बिस्कुट औऱ पेस्ट्री के साथ-साथ रोटियां भी बेकरी से लोग खूब खरीदते हैं. सामने प्लेट में रखे बिस्कुट भी इन्हीं तैयारियां का हिस्सा लग रहे थे. पांच तरह के बिस्कुट और हरेक को खाने का मन हो रहा था. ये चाय बिना नमक के थी. नीचे सीढ़ी चढ़ते हुए नजर समोवर पर पड़ी थी, जिसमें से भाप निकल रही थी. चाय पीकर जब नीचे शौचालय की ओर मैं और महजबीं उतरे तो फिर उसी पर नजर गई. पूछा तो पता चला कि इसमें कश्मीरी चाय है, नमक वाली. सारा ने कहा चखेंगी? इनकार कहां संभव था. हमने कहा जरूर. वह उसे गर्म करने लगी और हम बढ़े शौचालय की ओर, जो एक शुष्क शौचालय ही था. भीषण अनुभव रहा उसे इस्तेमाल करना. अब तक इस पर लिखा था, पर इस्तेमाल करने की नौबत नहीं आई थी. यहां कोई विकल्प ही नहीं था. इससे पहले जिन शौचालयों की फोटो ले रही थी, अब उसे ही इस्तेमाल करना. भयानक गंध औऱ गंदगी…उबकाई को मुश्किल से रोका…. उफ्फ… इसे इसे इस्तेमाल करना इतना यातनादायक है तो साफ करना नारकीय ही होगा…
बाहर सारा ने कहा हर घर का यही हाल है, हम इसे खुद ही साफ करते हैं, सरकार के पास इस पर ध्यान देने का समय ही कहां है. पहले वह बड़े मसले तो निपटा ले. फिर हंसी और बोली…हालांकि सोचो तो इस पर भी सोचना चाहिए, ये भी तो रोज का काम है…रोटी की चिंता पर बात होती है, पानी पर , बिजली पर, गोली चलने पर, आजादी पर…लेकिन इस पर नहीं. सबको शर्म आती है इस पर चर्चा करने पर…क्या ये हमारी जिंदगी का हिस्सा नहीं.
शोख सारा का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा था. मैंने ऐसे ही पूछा, तुम्हारी शादी तय हो गई… वह चौंकी कैसे जाना, मैंने मजाक में कहा तुम्हारे गाल पर लिखा है, औऱ वह शर्मा गई. हां. कहां..श्रीनगर के पास. सारा बोली सबसे पहले मैंने यह पता किया कि वहां टच पाजिन का काम तो नहीं है, तभी घर वालों को रिश्ते के लिए हां करने दी. मेरे शौहर टेलर हैं, गरीब हैं, पर ठीक है. ये गंदे काम से तो छुटकारा है. ये सुनाते-सुनाते उसने नमकीन गुलाबी चाय निकाल दी, कांच के गोल कटोरों में. बिल्कुल अलग स्वाद था, थोड़ा मुश्किल सा मेरे लिए, पर सारा तेज निगाह से देख रही थी कि मैं कितना पी रही हूं. लिहाजा छोड़ने का सवाल न उठा. उसके बाद उसने कश्मीरी गोश्त के लिए जिद की. मेरे लिए खाना मुश्किल था, पर महजबीं का शायद मन था. हां-ना में उसने निकाल दिया. खुशबू जबरदस्त थी, खाने के शौकीनों के लिए मुंह में पानी लाने वाली…पर थोड़ी देर पहले के अनुभव, उनकी बातें सब गड़बड़ हो रही थी. जबान साथ न दे रही थी, सो मैं थोड़ा सा चखकर, तारीफ कर सीढ़ी से बैठकी की ओर चल निकली. मुझे शोपियां की दूसरी तस्वीर भी देखनी थी, अंधेरा हो गया था, सो चिंता हो रही थी. ऊपर बातचीत इस मुकाम पर पहुंच गई थी कि हम गंदा काम छोड़ देंगे, बच्चों को याद नहीं रहेगा कि उनके वालिद ये काम करते थे….बस इसके बाद खुदाहाफिज कह हम रुखसत हुए. यहां ये फिर फयाज को फोन किया. वह नमाज अदा करने मस्जिद में घुसने ही वाले थे. उन्होंने ड्राइवर को रास्ता बताया और कहा कि हम फलां जगह उनका इंतजार करें.
रात तेजी से गहरा रही थी. कश्मीर में शाम ढलने के बाद मौसम और भारी लगने लगता है. चारों तरफ मंडराते सुरक्षा बलों की वर्दियां खौफ सा पैदा करती है. अचानक लगता है कि हम किसी बंदूक की रेंज में हैं, किसी ने हमें निशाने पर ले रखा है. फयाज देर से आए. ड्राइवर की चिंता बढ़ गई थी. ड्राइवर नौजवान था, नाम था जावेद. उसे पहले भी गुस्सा चढ़ा हुआ था. शायद एक वजह यह थी कि हम कश्मीर आकर किनसे मिल रहे हैं. गंदी बस्तियों में हमारी दिलचस्पी क्यों हैं, आजादी से हमे ज्यादा मतलब क्यों नहीं है. इस समय उसका गुस्सा औऱ चिंता जायज था, हमें यहां से लंबा सफर तय करना था…. वह तुरंत शोपियां से निकलना चाहता था, लेकिन मैं अड़ी थी कि बिना फयाज और नीलोफर के परिवार से मिले न जाऊंगी. खैर इसी खींचतान के बीच एक आदमी ने गाड़ी पर हौले से दस्तक दी. ये फयाज थे. उन्होंने सबसे पहले कहा, आपने बहुत देर कर दी, अंधेरा हो गया है. आप लोग रात में रुकेंगे. हमने मना किया तो उन्होंने कहा जल्दी करते हैं, ज्यादा देर करना आपकी हिफाजत के लिए ठीक नहीं, बहुत सिक्योरिटी फोर्स है यहां.
गाड़ी एक गली के सामने रुकी. अंधेरे में ही हम एक घर में दाखिल हुए, एक शख्स लालटेन की रोशनी में हमें ऊपर बैठकी तक छोड़कर वापस चले गए. लालटेन की रोशनी में एक अनजान घर में मोटी-मोटी सीढ़ियां चढ़ते हुए लगने लगा कि चारों ओर दर्द की आड़ी-तिरछी रेखाएं खिंची हुई हैं. फिर दाखिल हुए शकील अहमद अहंगर, जो के मारी गई आसिया जान (17 साल) के भाई और गर्भवती नीलोफर (22 साल) के शौहर थे. बैठते ही उन्होंने कहा अब कुछ बताने या बात करने का मन नहीं होता, आंखों के साथ-साथ आवाज भी सूख चली है. थोड़ा रुक कर उन्होंने कहा कि पुलिस-प्रशासन पर पहले ही भरोसा नहीं था, न्यायपालिका और सीबीआई से भी विश्वास उठ गया है. पिछले एक साल से, मई 2009 से हमने डेमोक्रेसी के सारे हिस्सों से न्याय की मांग की, आंदोलन को शांतिपूर्ण रखा—इस मामले में शोपियां में एक भी मौत नहीं हुई. जबकि पूरी वादी जल गई. 14 जानें गई. सीबीआई ने धोखा दिया, जम्मू-कश्मीर कोर्ट के चीफ जस्जिट का जो जज सही फैसला दे रहा था, उसका रातों-रात सिक्किम तबादला कर दिया गया. कहीं कुछ नहीं हुआ…(शकील की आवाज लड़खड़ाती है) अब आप बोलों क्या हम करें…किधर जाए…. आंखे भरने लगती हैं और वह उठकर चले जाते हैं.
कमरे में अचानक रोशनी कम लगने लगती है, शक्लें धुंधली. फयाज बोलते हैं कि मजलिस को शोपिया केस में इंसाफ के लिए बनाया गया. इस बात का खास ध्यान रखा गया कि इसका कोई भी मेंबर किसी दल-पार्टी से जुड़ा न हो. मजलिस के बारे में तफसील से बताते हैं फयाज- उसके निर्माण से लेकर आज तक के उसके सफर के बारे में. फयाज ने बताया कि मजलिस ने जानबूझकर सोचसमझ कर खुद को आजादी की मांग से अलग रखा. बस एक ही मांग- आसिया-नीलोफर को इंसाफ. हमने सीबीआई को भी मदद दी, सारा सहयोग दिया… हालांकि इसके लिए हमारी बहुत आलोचना हुई लेकिन हमने कहा हम इंसाफ चाहते हैं—-लेकिन फिर ठगे गए. अब किसी पर एतबार नहीं.
शकील अपने साढे तीन साल के बेटे के साथ वापस लौटते हैं जिसका नाम है सुजेन शकील. बातचीत का ट्रैक बदलता है. वह कहते हैं कि आज जब ये बच्चा गाता है आजादी भारत से चाहिए आजादी तो वह कुछ नहीं कहते. मैं उसे रोक भी नहीं पाता. फिर बच्चा मुस्कुरा कर बोलता है आजादी—. शकील अपने मोबाइल पर सुजेन का वीडियो दिखाते हैं जिसमें वह नाच-नाच कर यही गा रहा है,बीच-बीच में बोलता है…अम्मी को चाहिए आजादी. सामने आसिया और नीलोफर की फोटो रखी थी और उन्हें देखकर सुजेन कहता है…अम्मी! चोट सीधे दिल पर लगती है और किसी के पास कुछ कहने को नहीं रह जाता. सर्द शाम-रात की कंपकंपाहट तेज हो हड्डी में दौड़ती है. आंखें नम महसूस होती हैं.
देर हो गई थी. बहुत देर. बातें खत्म नहीं होने का नाम ले रही थी. वे बीच-बीच में कहते कि आप लोग यहीं रुक जाएं, सुबह चले जाइएगा. फिर बातों का दरिया बह निकला. शकील का दर्द फिर उमड़ा, पिछले दिनों भारत सरकार के वार्ताकार आए थे, दिलीप पडगावकर और राधा कुमार. हालांकि हम उनसे मिलना नहीं चाहते थे. फिर भी कश्मीर में घर आए मेहमान को सिर-आंखों पर रखा जाता है. दिलीप जी ने कहा कि उन्हें सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और चिदंबरम ने हमारे पास भेजा है, हमारे दर्द के बारे में जानने के लिए भेजा है. शोपियां की घटना के बारे में जानने के लिए. मेरी अम्मी ने जवाब दिया कि भारत के वजीरेआलम को इतना अरसा बीत गया अभी तक इस वारदात के बारे में पता ही नहीं चल पाया? जो इतने दिन बात आपको इसके बारे में जानने को भेजा है. खैर, फिर भी हमने बात की, सारे कागज, फोटो दिखाई. दिलीप हमारे बातें सुनते-सुनते रोने लगे. कहने लगे, जल्द से जल्द कुछ होना चाहिए, इतनी नाइंसाफी कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता.
बीच में टोंकते हुए फयाज ने कहा कि हम वार्ताकारों से नहीं मिले. हमें भारत सरकार पर भरोसा नहीं है. वार्ताकार धोखा देने के लिए नाए गए हैं. ये कहना कि कश्मीर के बारे में भारत सरकार को कुछ पता नहीं और वह इनके जरिए बताने की कोशिश कर रही है, सफेद झूठ है. ऐसा झूठ बोलने के लिए भी भारत सरकार को शर्मिंदा होना चाहिए. क्योंकि ये कदम उठाने के लिए भी उसे 104 बच्चों की मौतों का इंतजार करना पड़ा…
फिर शकील ने कहा कि दिलीप इतनी बातें बोल गए और हुआ क्या…शाम को टीवी पर खबर आई कि भारत सरकार के वार्ताकार शोपियां में उस परिवार से मिलकर आए जो डूब कर मरी थीं. यानी इस मुलाकात का मतलब यही निकाला गया कि ये दोनों औरतें डूब के मरी. जहां डूबने की बात सरकार कर रही है वहां कभी कमर तक पानी भी नहीं होता. लगा कि वाकई ये सरकार और उसके नुमाइंदे हमें ठगते हैं- सच्चे न हैं. हमसे मुलाकात का भी फायदा उठा जाते हैं. इतनी लंबी लड़ाई के बावजूद आज भी आलम यही है. …किससे हम न्याय की उम्मीद करें और क्यों करें…रास्ते भारत सरकार ने सारे बंद कर दिए हैं. अब आजादी के अलावा कोई दूसरी राह नहीं हमारे लिए. हमने अभी तक शोपियां के इंसाफ की लड़ाई को इससे बिल्कुल अलग रखा था…
फिर खुद को रोकते हुए कहा, अब आप निकले या फिर रुक जाएं. घर है यह और आप यहां महफूज हैं. रुकना संभव न था क्योंकि मेरे साथ और लोग भी थे. हालांकि मन अंदर-ही-अंदर कर रही था. हमारे सामने नीलोफर और आसियां की जो फोटो रखी हुई थीं उन्हें समेटते सिर्फ बड़ा हुए मैंने कहा, दूसरी बार. सीढ़ी उतरते हुए शकील ने कहा कि आप उस मेमोरियल पर जरूर निगाह डालकर जाएं जो हम नीलोफर और आसिया की याद में बना रहे हैं. साथ चल रहे एक लड़के को उन्होंने कहा कि हमें रास्ते से दिखा दें. रुखसती के समय, मैंने उनसे कहा हमें भारत में अपना दोस्त मानें. दुख-सुख साझा करना जरूरी है. अपनी खबरें हमें जरूर भेजें. इससे ज्यादा कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी मैं. जानती थी जो देख-सुन रही हूं उन्हें वैसे लिखना और लोगों तक पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है.
फयाज ने कहा, जी भारत की एक बहादुर बेटी पर हमें बहुत एतबार है. हमें ऐसे दोस्तों की सख्त जरूरत है. शुक्र है ऐसे अंधेरे वक्त में भी दोस्तों की तादाद बढ़ रही है. आप भी उनमें हैं ये हमें पता है. यह कहते हुए हमने हाथ मिलाया. भारत की बहादुर लड़की…उनका इशारा अरुंधति की ओर था. अब तक की कश्मीर यात्रा में मैंने देख लिया था कि आटो वाला-टैक्सी वाला, रेस्त्रां में बैरा, बेकरी वाला, यूथ ह़ॉस्टल हर जगह अरूंधति का चर्चा मौजूद था.
हम गाड़ी में बैठकर मेमोरियल की तरफ बढ़े. पास ही में था. वहां अभी सिर्फ बड़ा सा बोर्ड लगा था, जिसमें ऊपर लिखा था, इन मेमोरी आफ मार्टियर्स नीलोफर एंड आसिया. उसके नीचे लाल रंग में मोटा-मोटा लिखा था—वॉल आफ मेमोरी. इसके बाद यह अहद कि यह स्मारक हमारी उस प्रतिज्ञा का प्रतीक है कि हम अपनी उन मां-बहनों-बेटियों को कभी नहीं भूलेंगे जिन्हें अपनी इज्जत और जिंदगी से अत्याचारी निरकुंश जम्मू-कश्मीर के चलते हाथ धोना पड़ा. इसके बाद जम्मू-कश्मीर में महिलाओं के साथ बलात्कार या हत्या की 66 घटनाओं का जिक्र हैं. यहां शोपियां की मजलिस एक बड़ा स्मारक बनाने जा रही है.
घना अंधेरा चारों तरह फैल चुका था. कैमरे के फ्लैश से ही बोर्ड को देखा और फोटो ली. बड़ी टार्च या लालटेन की रोशनी अंधेरे को चीर नहीं पा रही थी. पूरे कश्मीर में मारक अंधेरा पसरा हुआ है. यहां से हमारे ड्राइवर ने पूरी तेजी से गाड़ी दौड़ा दी.
बाहर का अंधेरा हमारे भीतर पसर चुका था. कोई कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था. मेरे दिमाग में बड़ी उथल-पुथल मची हुई थी. एक तस्वीर-दूसरी पर गडमड हो रही थी. सड़क ठीक थी, ये भी सोचकर हैरानी हुई. ड्राइवर जावेद से पूछा तो उसने तल्ख रवैये में कहा, सेना के लिए सब कर सकती है सरकार. महजबीं को घर पहुंचना था. भूख कम से कम मुझे तो तेज लग आई थी, पर श्रीनगर तक सुरक्षित पहुंचना जरूरी था.
श्रीनगर पहुंचकर खाना खोजना भी कम दुरुह काम नहीं था. सारी दुकाने बंद हो गई थीं. एक आटोवाले ने मदद की और हमें मुगल दरबार रेस्त्रां पर पहुंचाया. रास्ते में सड़कों पर जितना सन्नाटा पसरा दिखाई दिया, उसे देखकर मैं पहले ही चिंतित हो गई थी. आखिर इस शहर-वहां पसरी अशांति के खौफ की परत मेरे जेहन में चढ़ी हुई थी. ठंड से कंपकपांती रात और अनिश्चिताता में गोते लगाते हुए मैंने आटो वाले से आग्रह किया कि वह हमें वापस भी छोड़ आए और ज्यादा पैसा ले ले. आटो वाले का नाम था जाकिर और उसने बिना कोई ना-नुकुर किए सहमति में सिर हिलाया. उतरते समय उसने जो बोला वह दिल को छू गया, मैडम आप हमारी मेहमान हैं आपकी हिफाजत हमारा फर्ज है. हमें इंडियन आर्मी से नफरत है, इंडियन से नहीं. आप आराम से खाए और होटल छोड़कर ही मैं घर जाऊंगा. होटल में साथ खाने के प्रस्ताव को जाकिर ने यह कह कर मना कर दिया कि कश्मीरी रात का खाना परिवार के साथ खाता है और वैसे भी बकरीद के समय घर पर खाने के समय इंतजार रहता है. कमोबेश यही अनुभव तीनों तीन के रहे.
अगले दिन सुबह जल्दी निकल गए कुपवाड़ा के लिए. श्रीनगर से 100 किलोमीटर है यह बार्डर का इलाका. रास्ते में बस दो चीजें नजर आती हैं या तो सेना-सेना के जवान खेत-खलिहानों में चक्कर काटते. सेब के बगीचों से अटा पड़ा है ये पूरा इलाका. इस समय वीरान पड़ा हुआ. कश्मीर में पतझड़ शुरू हो गया और सेबों को तोड़ने, भराई-लदाई का काम पूरा हो गया था. रास्ते में पड़ा सोपूर, जहां रहते हैं हुर्रियत के नेता –गिलानी. ड्राइवर जावेद ने बड़े जोश से बताया कि यहीं से गिलानी कश्मीर में अपना कैलेंडर चला रहे हैं. मन तो हुआ कि रुक कर लोगों से बतियाया जाए, पर ऐसी हजारों ख्वाहिशें– ख्वाहिशें ही बनी रहती हैं.
कुपवाड़ा में हम पहुंचे सलकूट के शेख मोहल्ला में. यहां हम छोटे से घर के बैठकखाने में दाखिल हुए, उस समय वहां करीब 15 लोग घुस-घुसकर बैठे हुए थे. ये देखकर बड़ी राहत मिली कि इनमें से करीब 7 महिलाए थीं. इनमें से कई अपने छोटे बच्चों को छातियों से लगाकर दूध पिला रही थीं. मेरा बहुत मन था कि कश्मीर में इस पेशे में लगी महिलाओं से मुलारात करने का. सबसे पहले रफीका ने बोलना शुरू किया, जिसका सात महीने का बच्चा तसल्ली से दूध पिए जा रहा था, सीने से लगकर. रफीका की उम्र करीब 30 साल थी और वह सरकारी सब-जिला अस्पताल में शुष्क शौचालय साफ कर रही है. उन्होंने बताया कि वहां काम बहुत ज्यादा होता है क्योंकि बहुत सारे लोग बीमार के साथ आते है. शुष्क शौचालय में मिट्टी डालकर वह टीन में उठाती हैं और पास के खेतों में डाल देती हैं. जब उन्होंने बताया कि इस काम के उन्हें सिर्फ सौ रुपये महीना मिलते हैं तो सहज विश्वास नहीं हुआ. इतना कम तो देश में शायद ही कहीं मिल रहा हो, मैला साफ करने का. रफीका ने बताया कि उसके मायके में भी यही काम होता था पर वह नहीं करती थी. कभी-कभी चोरी-छिपे मां के साथ करना पड़ता था, जब घर में आर्थिक संकट गहरा जाता था. शादी के बाद पहले उसके ससुर अस्पताल में ये काम करते थे. उनकी तबीयत खराब होने के बाद रफीका के टच पाजिन करने लगी. लेकिन इतने कम पैसे में क्यों वह काम कर रही हैं? इसका जवाब मुनीरा ने दिया. वह भी कुपवाडा के जिला अस्पताल में काम करती हैं, उन्होंने कहा, इस आस में कि एक दिन वे पक्की हो जाएंगी, सरकारी नौकर. फिर उन्हें अच्छा वेतन मिलेगा और जिंदगी बदल जाएगी. तब तक वे अस्पताल के अलावा निजी घरों में शुष्क शौचालय उठाने का काम करती हैं. यही हाल बाकी औरतों हाजरा-रजीया आदि का था. उन्होंने कहा कि बाकी कामों में तो उन्हें भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है, बस बच्चों की पढ़ाई में मुश्किल होती है क्योंकि सब उन्हें वातल के बच्चे कहते हैं.
इसी बीच मोहम्मद रमजान मोची जो पिछले 27 सालों से मल साफ करने का काम सरकारी सफाई कर्मी के तौर पर कर रहे हैं, बोल उठे, कश्मीर में इतने बड़े सवाल हैं, ये मुद्दा उनके आगे बेमानी लगता है. ये काम पुश्तों से चला आ रहा है, घर-घर में शुष्क शौचालय हैं, ऐसे में इसे खत्म करने की बात करना बेमानी है. उन्होंने बताया कि करीब 11 हजार रुपये मिलते हैं और अगर उनके बच्चों (यहां लड़के) को पढ़ाई के बाद काम नहीं मिला तो उन्हें इसमें कोई हर्ज नहीं आता कि वे भी टच पाजिन का काम करें. थोड़ा कुरेदने पर वह यह ये बोले कि बच्चों को वातल के बच्चे कहा जाना और शादी में उनके साथ बाकी लोगों का साथ न खाना-खाना अखरता है.
लोगों ने बताया कि वहां के जिलाधिकारी ने सफाईकर्मियों-वातलों के लिए घर बनाने के लिए जमीन आवंटित की थी, जिस पर बाकी अफसरों ने अडंगा लगा दिया. इन अफसरों की कहना था कि अगर ये लोग यहां बसेंगे तो गंध आएगी. जमीन आवंटन संबंधी सारे कागज उन्होंने दिखाए, जिससे उनका केस मजबूत दिखाई दे रहा था. इस समय मामला कोर्ट में है और उन्हें कम उम्मीद है न्याय मिलने की. इसकी वजह वह वही बताते हैं जो देश के गरीब तबके बताते हैं, कोर्ट में गरीबों को न्याय कहां मिलता है, इतने पैसे भी नहीं हैं हमारे पास. लेकिन अभी तक तो लड़ ही रहे हैं.
मुनीरा ने कहा चलिए हम आपको दिखाते हैं कि कैसे सफाई होती हैं. सब घरों में ऐसे ही शौचालय हैं. गरीब खुद ही साफ करते हैं जबकि पैसे वाले हमसे साफ कराते हैं. मुनीरा, अलताफ बानो, रफीका सब शक्ल सूरत से यहां कि यानी कश्मीर की नहीं लग रही थीं. मैंने पूछा आप कहां की हैं? वे हंसते हुए-थोड़ा झेंपते हुए बोली- बांगलादेश की. फिर संभली कहीं नहीं पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद कीं. वहां से यहां कैसे आ गईं? महजबीं ने कहा लंबी कहानी है इनकी, पर बड़ी तादाद में ये यहां हैं. गरीबी के चलते इनका ब्याह यहां हो जाता है और फिर एक के बाद एक आती रहती हैं यहां, एक कड़ी सी बन जाती हैं. चूंकि यहां वातल समुदाय गरीब है इसलिए उन्हें जल्दी ब्याह के लिए लड़कियां नहीं मिलती, इसलिए वे वहां से लड़कियां ले आते हैं. कइयों ने दो-दो बीबीयां रखीं हुई हैं. जैसे मुनीरा और अल्ताफ दोनों का ब्याह एक ही से हुआ और दोनों अपनी बेइंतहा गरीबी से बेतरह परेशान है.ये सब बतियाते-बतियाते हम बढ़ते हैं उन शुष्क शौचालयों की तरफ जिन्हें वे साफ करती हैं. बहुत मन नहीं होता लेकिन मुनीरा टोंकते हुए कहती है आपको हमारा काम देखने में भी मुश्किल होती है…फिर दिखाती हैं वह कि तरह से बजबजाते नरक से उसे रोज गुजरना पड़ता है.
वहां से बाहर निकलते हुए लोगों ने कहा कि हमें पास की नगर पालिका का सामुदायिक शुष्क शौचालय जरूर देखना चाहिए. वहां हमें लेकर चले अब्दुल रशीद शेख. उम्र 45 साल और पिछले 26 सालों से इंसान के मल को हाथों से साफ करने में लगे हुए. जिस तन्मयता से वह इस काम को कर रहे थे, वह देख कर ही गश आ रहा . बदबू और गंदगी के मारे वहां खड़ा होना मुश्किल था, सामुदायिक शुष्क शौचालय के पीछे सारा मल जमा होता है, जिसे वह बेलचे से उठाकर भरते हैं और पास के नाले में बहाते हैं. जितना वहां इंसानी मल था, उसे देखना ही इतना कष्टकारी था कि उसे साफ करना सबसे बर्बर विचार लगता. ऐसे में मेरे सामने ऐसा व्यक्ति था जो इस घिनौने काम के पक्ष में बोल रहा था. ऐसा कल्पना से भी परे था. उन्हें वहां से निकालने के लिए कई बार कहा पर वह वहीं से कहते रहे, ये काम अल्लाह को पंसद है, ये नदामत (धैर्य) का काम है. इसे करने में कोई दुख नहीं मुझे. सबसे पहले सफाई का काम होता है, फिर कोई और काम. हमारा तो ये पुश्तैनी काम है, अगर अल्लाह की मर्जी न होती तो कैसे कोई ये कर सकता. इसके बाद वह नाले पर आए और बड़े सलीके से उन्होंने अपने बेलचे को मिट्टी से रगड़-रगड़ कर साफ किया. रगड़ वह ऐसे रहे थे जैसे घर का बर्तन चमका रहे हों. फिर उसे पानी से धोया, वह भी बड़े सलीके से. चारों तरफ घूमा-घूमा कर देखते हुए कि कहीं भी कुछ गंदा न रह जाए. जूते भी धोए उसी पानी में और फिर कोहनी तक हाथ. ये उनका रोज का काम है.
ये सब जब उन्होंने कर लिया तब उनसे बहस की गई कि आखिर क्यों ये काम करना सही नहीं है. खाली एक बात उन्हें थोड़ा मानने वाली लगी कि अगर ये इतना असाब वाला काम है को फिर ये काम वहीं लोग क्यों पुश्तों से करते आ रहे हैं और क्यों बाकी लोग उन्हें नीची निगाह से देखते हैं. उनके पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं था कि उनके बच्चों के साथ लोग क्यों भेदभाव करते हैं. बस यहीं वह कमजोर कड़ी थी, जिसपर अब्दुल ने सिर हिलाया. फिर उनकी बातों का टोन बिल्कुल बदल गया. वह इस बजबजाते दलदल से बाहर निकलने की आस बांधने की कोशिश करने लगे. पीछे बहता नाला शायद आगे नदी से मिलने की राह खोजने लगा.
कुपवाडा से लौटते समय हम एक होटल में रुके. उसके बगल में बेकरी की दुकान पर भीड़ देखने लायक थी. वहीं कश्मीरी मीट याकिनी और मिर्ची कोरमा खाया. महजबीं ने बताया कि कश्मीर में मीट थोड़ा सख्त पकाते हैं, उत्तर भारत की तरह पूरा गलाया नहीं जाता. माहौल बड़ा जश्न वाला था, बड़ी तादाद में लड़के उस रेस्त्र में थे. जिस जोश से वे आपस में मिल रहे थे, ठहाके लगा रहे थे, वह बड़ा तसल्लीबख्श लग रहा था. महसूस ही नहीं हो रहा था कि ये वही समाज है जहां इतना जबर्दस्त तनाव है. हालांकि यहां बाजारों-रेस्त्रां में श्रीनगर की तुलना में महिलाएं कम थी. श्रीनगर में तो रोज ही कश्मीरी महिलाएं कहीं परिवार के साथ, कहीं अकेली या दुकेली खाना खाते नजर आती थे. होटल से बाहर निकलते ही महसूस हुई कि चारों तरफ सेना ही सेना है.
बकरीद के दिन की वापसी थी, सुबह डल पर समय बिताया. सब नमाज में थे, सब कुछ बंद था. चाय तक नहीं मिली थी, सुबह से. थोड़ा चलने के बाद आटो वाला सीधे ढल झील के एक किनारे एक पंजाबी ढाबा में ले गया. वहां झुंड में युवा कश्मीरी नमाज पढ़कर चाय पीने आ रहे थे. उनका एक-दूसरे से गर्मजोशी से गला मिलना-ठहाके लगाकर बात करना, फिल्मों-गानों का जिक्र होना, चाय पर चाय का आर्डर-समोसे-छोले के साथ—देखकर लगा ही नहीं कि ये वही कश्मीर है, जो बेतरह संवेदनशील दौर से गुजर रहा है. पंजाबी ढाबा के मालिक सुंदर ने बताया कि यहां भी इंसान बसते हैं मैडम, ये दिल से खुश रहते हैं इसलिए गम या जुल्म इन्हें बर्दाश्त नहीं होता. कश्मीर की वादी अपनी खुशमिजाजी के लिए ही जानी जाती रही है. डल का एक चक्कर लगाकर आने तक माहौल थोड़ा बदल रहा था, आटो वाले ने कहा आप लोग निकले तुरंत. गड़बड़ हो सकता है. जब आटो में बैठ गए तो बताया कि लाल चौक पर नमाज के बाद गड़बड़ हुई है, अंनतनाग में भी हो चुकी है, आप लोग अब निकलें. हिफाजत से रुखसत हो, तो हमारे लिए भी ठीक है.
लौटते समय कई तस्वीरें-खौलते सवाल गड्डमड्ड हो रहे थे– कश्मीर में लगी आजादी की आग, हजारों मर्दों के गायब होने के कभी न खत्म होने वाले बोझ से दबे घाटी के हजारों घर और इसी के बीच अदृश्य भारत के ये निवासी जो सैंकड़ों की तादाद में पुश्त-दर-पुश्त इंसानी मल को हाथों से ढो रहे हैं. कश्मीर की इन तमाम तस्वीरों से रिस रहा है दुख व क्रोध. गुस्से में जिस तरह से इस कश्मीर के गाल सुर्ख लाल होते हैं उसी तरह से खुशी में, ठहाकों में भी. बकरीद की तैयारी में कश्मीर जिस जोश-खरोश के साथ जुटा था, जिस पैमाने पर बाजारों में भीड़ थी, कुर्बानी के लिए जानवर खरीदे-हलाल किए जा रहे थे, बेकरी से बिस्कुट-रोटी-पेस्ट्री खरीदे जा रहे थे, वह कश्मीर के इतने दमन के बावजूद जिंदादिली को कायम रखने की कहानी कह रहा था.
पूरे कश्मीर में आजादी की आग की तपिश को किसी से भी बात करते हुए महसूस किया जा सकता है. हालांकि पत्थरबाजी, उग्र जुलूसों का दौर इन दिनों थोड़ा थमा हुआ था. फिर भी अलग-अलग उम्र और पेशों को पार करते हुए आजादी का तराना कश्मीर की वादी को गरम रखे हुए था. चाहे वह श्रीनगर के हवाईअड्डे पर स्नैक्स की दुकान पर चाय-कॉफी लेने में व्यस्त इमरोज हो या वहां से यूथ हॉस्टल लाने वाला टैक्सी ड्राइवर. श्रीनगर के हजरत बल के बाहर रात के 9 बजे बकरीद की तैयारियों में कमल की डंडियों की पकौड़ियां तल रहे परवेज-खालिद, सबका कमोबेश अंदाज यही था, मरना तो एक दिन है ही. श्रीनगर-चावलगाम-शोपियां-कुपवाडा के बीच फैले उदास चिनार के पेड़. केसर के खेत से लेकर सेब के बगीचे सब बियाबान उजाड़ से मानो ठंड सर्द मौसम के लिए खुद को तैयार कर चुके हैं. यूं तो आजादी के बाद से ही कश्मीर ऐसे शुष्क मौसमों का आदी रहा है. ऐसे मौसमों के बीच महजबीं ने जो गाना गुनगुनाया था, वह वादी के एक खुशगवार तोहफे की तरह दिल्ली तक साथ आया-
दिलबेरो मै दिलस क़स गनगलाई
बॉबलाय चान दिदार सियथ
आफताब रोय शीन जन गलई
वेगलाई चाने गर्मी से…
(दिलबर मेरे दिल में जो बैचेनी है, वह तुम्हारे दीदार से खत्म होती है. मेरा सूरज जैसा चेहरा बर्फ सा पिघलने लगता है तेरी गर्मी से…)
भाषा सिंह 1996 से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, नई दुनिया से होते हुए फिलहाल आउटलुक पत्रिका में. |