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Home » योनि-सत्ता संवाद : संजय कुंदन

योनि-सत्ता संवाद : संजय कुंदन

28 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय भाषा सिंह वेब पोर्टल 'न्यूज़क्लिक' से जुड़ी हैं, और उनका अपना ‘बेबाक भाषा’ नामक यूट्यूब चैनल भी है. ‘अदृश्य भारत’ और ‘शाहीन बाग़ – लोकतंत्र की नई करवट’ उनकी दो प्रकाशित पुस्तकें हैं. उनका कविता संग्रह ‘योनि-सत्ता संवादः पलकों से चुनना वासना के मोती’ गुलमोहर किताब से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. बक़ौल भाषा सिंह, “राजनीतिक दृष्टि हर रचना का अनगूंज स्वर तय कर देती है.” इस संग्रह की चर्चा कर रहे हैं कवि संजय कुंदन.

by arun dev
May 29, 2025
in समीक्षा
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योनि-सत्ता संवाद : संजय कुंदन
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‘सदाबहार ही रहना तुम, नहीं बनना कोई और फूल’
संजय कुंदन

 

भाषा सिंह के कविता संग्रह का शीर्षक ‘योनि-सत्ता संवादः पलकों से चुनना वासना के मोती’ कविता की प्रचलित सौंदर्याभिरुचि को झटका देता है और इससे यही ख़्याल आता है कि यह एक स्त्री का सत्ता से संवाद है और वह सत्ता निश्चय ही पितृसत्ता होगी. हिंदी साहित्य में स्त्री कविता की जैसी पहचान बनी है, उसे देखते हुए भाषा सिंह की कविताओं के बारे में ऐसा सोचना स्वाभाविक ही है. लेकिन ज्यों-ज्यों हम कविताओं से गुज़रते जाते हैं, यह स्पष्ट होता जाता है कि यहाँ सत्ता का रूप वह नहीं है, जैसा आम तौर पर समकालीन स्त्री कविता में दिखता है. इस स्तर पर उनका स्वर अन्य स्त्री कवियों से अलग है. आख़िर वह कौन सी बात है, जो इस संग्रह को अलग करती है?

समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य पर नज़र डालें, तो क़रीब दो दशकों में स्त्री कविता की ज़मीन काफ़ी मज़बूत हुई है. एक बड़ी संख्या में स्त्री कवियों की सक्रियता नज़र आती है, जिन्होंने स्त्री जीवन के सुख-दुख और राग-विराग को व्यक्त करते हुए उस पितृसत्ता पर करारा प्रहार किया है, जिसने स्त्री को उसके बुनियादी अधिकारों से दूर किया और एक नागरिक के रूप में ही नहीं एक मनुष्य के रूप में उसकी स्वतंत्र पहचान छीनने के लिए तरह-तरह के प्रपंच किए. स्त्री कवियों की कविताएं उन प्रपंचों की पोल खोलती हैं. इन कवियों के लिए स्त्री की तमाम बंधनों से मुक्ति और उसकी अस्मिता महत्त्वपूर्ण है.

स्त्री की अस्मिता पर ज़ोर देने वाली ये कविताएं अस्मितामूलक विमर्श को विस्तार देती हैं. इस विमर्श में स्त्री की स्वतंत्र पहचान बेहद अहम है. यह विमर्श स्त्री-पुरुष समानता की बात करता है, पितृसत्ता को चुनौती देता है और उसे ध्वस्त करना चाहता है. सूत्र रूप में बात यही है. लेकिन इस विमर्श की सीमा यह है कि यह अपने समूह या समुदाय तक सीमित रहता है. इसे अपने समूह की मुक्ति तो चाहिए पर यह समग्र बदलाव की बात नहीं करता या दूसरे समूहों की मुक्ति से उदासीन रहता है. वह व्यवस्थागत बदलाव की चिंता नहीं करता. वह अपने शोषक को समाप्त करना चाहता है लेकिन उस वृहत्तर संरचना से नहीं लड़ना चाहता, जिसने उसके शोषक को पैदा किया, और उसे लगातार खाद-पानी दे रही है. इसे सरल शब्दों में कहा जाए तो किसी भी व्यवस्था में अगर किसी स्त्री को सशक्त होने के अवसर मिलें, तो उसे उस व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं, भले ही वह सिस्टम औरों का शोषण करता हो, समाज के लिए घातक हो. अनेक स्त्री कवियों की कविताओं में पितृसत्ता अकसर एक अमूर्त रूप ले लेती है. एक अमूर्त, अपरिभाषित और ऐसी अवधारणा लगने लगती है, जिसका यथार्थ से कोई संबंध नहीं. इसलिए पितृसत्ता विरोध एक सरलीकरण में बदल जाता है.

पितृसत्ता कोई इकहरी संरचना नहीं है. उसकी भी कई परतें हैं. वह कई तंतुओं के ज़रिए काम करती है. वह कई बार विभिन्न अस्मिताओं से सामंजस्य बना लेती है, उन्हें अपने भीतर थोड़ी-थोड़ी जगह देकर उन्हें कमज़ोर भी करती रहती है और भेदभाव तथा असमानता को बनाए रखती है. इस जटिल स्थिति को समझना ज़रूरी है.

यह कैसे संभव है कि एक रचनाकार शोषण और असमानता का विमर्श तो रचे, लेकिन अपने समय के प्रत्यक्ष दबावों से निर्लिप्त रहे, अपने समय की राजनीतिक स्थितियों से आंखें मूँदे रहे. अगर आप किसी सत्ता के ख़िलाफ़ हैं तो उससे लड़ने का आपका अजेंडा क्या है, आपके टूल्स क्या हैं, यह बात मायने रखती है. यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आप कहाँ किस ज़मीन से उसका विरोध कर रहे हैं. आप उसकी जगह किस वैकल्पिक व्यवस्था का स्वप्न देखते हैं? यहीं बात राजनीति की आती है. मुक्तिबोध इसीलिए पूछते थे कि पार्टनर, आपकी पॉलिटक्स क्या है?

यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि हमें राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, हम तो पितृसत्ता का अंत चाहते हैं. पितृसत्ता न तो राजनीति से निरपेक्ष है और न ही उसका खात्मा राजनीति से तटस्थ रहकर किया जा सकता है. यह कैसे हो सकता है कि स्त्री की स्वतंत्रता तो चाहिए लेकिन निर्धनता से मुक्ति का सवाल मायने नहीं रखता, एक कमज़ोर वर्ग के लिए (जिसमें स्त्री भी शामिल है) इंसाफ़ और गरिमापूर्ण जीवन का मसला महत्त्वपूर्ण नहीं लगता. अपनी सुरक्षा तो चाहिए लेकिन संवैधानिक मूल्यों और मानवाधिकारों की हिफ़ाज़त से कोई मतलब नहीं है. एक व्यापक और संपूर्ण सामाजिक परिवर्तन से ही स्त्री की मुक्ति भी संभव है. समाज और राजनीति के स्तर पर मज़बूत लोकतंत्र कायम होने से ही औरत की आज़ादी भी मुमकिन है. और अगर वह लोकतंत्र कम हो रहा है, तो उसे कमज़ोर करने वाली ताक़त की शिनाख़्त भी ज़रूरी है.

आज बहुत सी स्त्रियां ऐसी हैं, जो पितृसत्ता की विरोधी हैं, लेकिन ऐसी राजनीति के साथ हैं, जिसकी बुनियाद ही पितृसत्ता पर टिकी हुई है, जो मनुस्मृति जैसे स्त्री-विरोधी आख्यानों को ही अपना आदर्श मानती है. यह कैसा पितृसत्ता विरोध है? भाषा सिंह की कविताएं यहीं और स्त्री कवियों की कविताओं से अलग हैं. ये पंक्तियां देखेंः

56 इंच में मुंडी घुसाए
नरमुंडों की माला पहने
सत्ता पर काबिज़
लाशों और मरघट
में भी पॉजिटिव-पॉजिटिव
दिखाने
का नृशंस खेला खेलने को उतारू
हत्याओं पर सकारात्मक सोच
का भोंपू बजाते उतरे
खाकी कच्छाधारी-पैंटधारी
सबसे पहले
हिंदू राष्ट्र की मुहर
लगाएंगे
लाशों पर ही?

ये पंक्तियां एकदम खुली हुई हैं. इसमें कोई इशारा नहीं है, कुछ घुमा-फिराकर नहीं कहा गया है. साफ़ है कि भाषा सिंह किसके बारे में कह रही हैं. यह पिछले कुछ वर्षों से देश के सामाजिक-राजनीतिक तंत्र पर काबिज़ तत्त्वों पर सीधा निशाना है. हमारे देश का वर्तमान सत्ताधारी वर्ग हिंदू राष्ट्र कायम करने को अपना लक्ष्य मानता है, भले ही वह सीधे-सीधे यह बात नहीं कहता, अपने आनुषंगिक संगठनों से यह बात कहवाता है. हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना की बुनियाद में है-अधिनायकवादी शासन. यह शासन नागरिकों के जीवन के हर पहलू पर राज्य का नियंत्रण चाहता है. राज्य यह तय कर रहा है कि नागरिकों को क्या खाना है, क्या पहनना है, क्या पढ़ना-लिखना है, किस देवता की उपासना करनी है, किससे प्यार करना है, किससे शादी करनी है. आज एक उग्र बहुसंख्यकवाद हावी है और समाज तथा शासन के स्तर पर जनतंत्र असहाय है. एक तरफ़ अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अभियान चलाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ़ स्त्री, दलित-आदिवासियों पर हमले तेज़ हुए हैं. बलात्कारियों का सम्मान हो रहा है और वे धर्मरक्षक बने फिर रहे हैं. सरकार देश की पहचान को ही बदल देने पर आमादा है. उसके निशाने पर वह बहुरंगी भारत है, जिसमें विविध भाषा, संस्कृति और धर्म के लोग सदियों से मिलकर रहते आए हैं. वह इसकी जगह ऐसा एकरंगी भारत बनाना चाहती है, जिसमें एक दल, एक शासन, एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा हो. तो भाषा सिंह उस धर्मनिरपेक्ष-जनतांत्रिक राजनीति के साथ हैं, जो भारत के वैविध्य को सुरक्षित रखना चाहती है, जो सामाजिक न्याय की पक्षधर है. यह वह राजनीति है, जो विश्व स्तर पर साम्राज्यवाद और नस्लीय भेदभाव का विरोध करती है, जो हर मुल्क की आज़ादी और स्वायत्तता का सम्मान करती है. अपनी पक्षधरता को स्पष्ट करती हुई वह लिखती हैंः

जो तुम्हारे ज़ुल्म के ख़िलाफ़
खड़ी हूँ मैं ग़ाज़ा में
तुम्हारे बमों के गुबार के नीचे
ढूंढ रही हूँ अपनी गुम औलादों को

मैं खड़ी हूँ
दिल्ली-मेवात-भोपाल-गोरखपुर…में
तुम्हारे हत्यारे बुल्डोज़र के सामने
ढूंढ रही हूँ गुम हो रहे अपने संविधान को

मैं खड़ी हूँ pride parade में
सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पर
ढूंढ रही हूँ
तुम्हारी मक्कार सहानुभूति में
दफ़न हो रही न्याय की आस को

किश्वर नाहिद, सारा शगुफ़्ता, सीमोन द बोउवार, अलेक्जांद्रा कोलोन्ताई, रोज़ा लक्ज़मबर्ग पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख जैसी महिलाओं के नाम लेकर भी एक तरह से वह अपनी राजनीति को ही व्यक्त करती हैं. ये सारी महिलाएं पितृसत्ता से लड़ती रहीं. इन्होंने औरतों को उनके अधंकारमय जीवन से बाहर निकालने के लिए संघर्ष किया, तकलीफ़ें झेलीं. इनमें से कुछ महिलाओं ने एक शांतिपूर्ण और शोषणविहीन विश्व का स्वप्न देखा और साम्राज्यावादी ताक़तों से लड़ाई लड़ी.

भाषा सिंह इस मायने में भी अन्य स्त्री कवियों से अलग हैं कि उनमें केवल घर की चहारदीवारी में क़ैद या नौकरीपेशा मध्यवर्गीय स्त्री की छटपटाहट नहीं है, उनमें खेतों-कारखानों में काम करने वाली, सर पर मैला ढोने वाली औरतों की व्यथा भी है, जिसके लिए दो जून की रोटी भी मुहाल है और जिस पर हर पल शाब्दिक ही नहीं शारीरिक हिंसा का ख़तरा मंडराता रहता है. सर पर मैला ढोने वाली स्त्रियों का संघर्ष इस अमानवीय प्रथा से मुक्ति का है. तमाम विकास प्रक्रियाएं भी उन्हें इससे मुक्ति नहीं दिला रहीं. यह प्रथा, जो मानवीयता पर कलंक की तरह है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पर थोपी जा रही है, शायद इसलिए कि इसका संबंध समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग से है. जाहिर है, महिलाओं में भी जो परिवर्तन आया है, वह एक ख़ास तबक़े तक ही सीमित है. आज के नारी विमर्श के सरोकार सिर पर मैला ढोने को मजबूर महिलाओं तक नहीं पहुंचते. भाषा सिंह लिखती हैंः

वह बुढ़िया दादी
जिसके सफेद जट बाल चेहरे पर उसकी हंसी की तरह बिखरे हुए थे
पतले होंठ रंगे थे पान की लाली से
और जो पोती को निहारती थी
भविष्य के स्नेह में निगाहों को डुबो कर
वह ज़िंदा गवाह है
कैसे
पीढ़ियों से ढोयी जा रही
टोकरी को सरकाया जाता है
अगली पीढ़ी पर
मल के दलदल में डूबता हाथ कैसे
थामता है दूसरा हाथ

ऐसी महिलाओं के आक्रोश को इन शब्दों में व्यक्त किया गया हैः

तुम्हें मालूम नहीं
जिस दिन से मैं फेंकूंगी
तुम्हारी मल से भरी टोकरी
तुम्हारी सभ्यता की अट्टालिकाओं पर
ढह जाओगे
और फिर कहीं नज़र न आओगे.

एक कविता में भाषा सिंह ऐलान करती हैं- माहवारी मेरी जाति है. यह कहना पितृसत्ता को एक करारा जवाब है. आज तक माहवारी के नाम पर ही स्त्रियों को कमज़ोर बताया गया, उनके साथ अस्पृश्य जैसा व्यवहार किया जाता रहा. यह शर्म का विषय बना दिया गया, एक ऐसा मुद्दा जिस पर बात भी न की जाए. स्त्री शरीर से जुड़ी एक सहज प्राकृतिक क्रिया को ही स्त्री को बंधन में डालने वाले एक टूल की तरह इस्तेमाल किया गया. इसी के नाम पर उन पर कितनी बंदिशें लगाई गईं. कुछ मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा उसी से जुड़ा है. उसी प्रसंग में ‘हैप्पी टू ब्लीड’ जैसा आंदोलन सामने आया. यह महिलाओं का एक प्रतिरोध है कि जिसे शर्म का विषय बनाया गया हम उसे प्रकट करेंगी, इतना प्रकट करेंगी कि उसे लेकर तमाम झिझक, शर्म और बंदिशें ख़त्म हो जाएंगी. यह लाज या कमज़ोरी नहीं गर्व का विषय होगा. आखिर यह शुद्ध अशुद्ध का ढकोसला क्यों? जब यह एक सहज अनिवार्य प्राकृतिक प्रक्रिया है, यह जीवन निर्माण की प्रक्रिया है, तो इसे लेकर छिपाव-दुराव क्यों. बल्कि यह स्त्री की पहचान है. भाषा सिंह ने इसी भाव को अपनी इस कविता में स्वर दिया है. वह माहवारी को लेकर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के छुपे स्वार्थ का ख़ुलासा करती हुई कहती हैंः

दरअसल यह पिछले दरवाज़े
हमारी यौनिकता पर नियंत्रण करने की साज़िश है
इसके लिए
तुम निशाने पर लेते हो उस रक्त को
जिसके बिना इनसान का जन्म ही नहीं हो सकता
तुम मेरे प्रजनन अंग को
संचालित करना चाहते हो
ऑन-ऑफ
स्विच बटन की तरह

भाषा का कहना है कि माहवारी तो स्त्री की पहचान होनी चाहिए. यही उसकी जाति है. बाकी जातियों का कोई अर्थ नहीं है. स्त्री किसी भी समुदाय की हो, उसकी वास्तविक लड़ाई तो अपने शरीर पर, अपनी यौनिकता पर अपने अधिकार की है. माहवारी से जुड़े तमाम टैबू को ख़त्म करने की लड़ाई हर औरत को एक सूत्र में जोड़ने वाली हैः

पीरियड्स यानी माहवारी ही
हमारी एकता की डोर है
हमारे मिलन का बिंदु
ब्राह्मणी पितृसत्ता से लड़ने के लिए
मनुवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए
जाति ही मेरी माहवारी है
पीरियड्स ही मेरी जाति है.

यहाँ भाषा सिंह ने बहुत स्पष्ट शब्दों में जातियों में बंटी औरतों को रेखांकित भी किया है और यह बताया है कि उनकी पीड़ाएं दरअसल एक हैंः

अब हम एकजुट हैं
हमारा दायरा भी बड़ा हो गया है
पहली बार हमने ब्राह्मण औरत
ठाकुर औरत
बनिया औरत
दबंग जाति की हर औरत
को
ये एहसास कराया है
कि क्यों हमें भेदभाव से नफ़रत है

ज़ाहिर है पितृसत्ता ने स्त्रियों को कई स्तरों पर विभाजित रखा है. फासीवाद, जिसकी जड़ भी पितृसत्ता में होती है, स्त्रियों के एक वर्ग को अपने साथ रखना चाहता है. वह उन्हें अपने भीतर जगह देता है और यह भ्रम बनाए रखता है कि वह स्त्री-पुरुष समानता में उसका यक़ीन है. अकसर वह अपने दायरे की स्त्रियों का इस्तेमाल महिलाओं का हक़ छीनने में करता है. फासीवाद समर्थक स्त्रियां पितृसत्ता को ही ढोती रहती हैं. आम तौर पर फेमिनिज्‍म इस जटिल स्थिति पर बात नहीं करता. भाषा इसको रेखांकित करती हैंः

पितृसत्ता की मूंछों पर ताव देते हुए, उन्हें मरोड़ते हुए
तुम कितना मंद-मंद प्रमुदित होते हो
जब तुम्हारी मनुस्मृति ईरानी
दागती है गोले
हमारे माहवारी न्याय के मोर्चे पर

फासीवादी तंत्र सचमुच इतना शातिर है कि वह स्त्रियों द्वारा ही स्त्रियों के अधिकार पर हमले करवा देता है और एक बहुप्रचारित उक्ति को दोहराता है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है.

एक कविता में वह लिखती हैंः गढ़ना पड़ता है हर औरत को अपना प्रेमी. यह स्त्री जीवन के एक अहम पहलू को रेखांकित करने वाली पंक्ति है. स्त्री अपनी उपस्थिति से, अपने साहचर्य से पुरुष को बदलती आई है. वह अपने क़रीबी पुरुष या साथी के भीतर बदलाव लाती है. उसे ज़्यादा मानवीय, सहिष्णु और जनतांत्रिक बनाने की कोशिश करती है. ऐसा करते हुए स्त्रियों ने इस सभ्यता को अराजकता से निकाला है, करुणा और संवेदना जैसे मूल्यों के प्रसार को संभव बनाया है. तो यहाँ प्रेमी गढ़ने का आशय एक बेहतर दुनिया के निर्माण के स्वप्न से भी जुड़ा है.

ऐसा नहीं है कि इस संग्रह की कविताओं में बेबसी, पीड़ा, टकराहट, अंधेरा और कालिमा ही है. इनमें फूलों का सौंदर्य भी है. ये पंक्तियां देखिए-

सदाबहार ही रहना
तुम
नहीं बनना कोई और फूल
न गुलाब, न रजनीगंधा, न नरगिस
न बोला, न चंपा-चमेली, न गेंदा
लिली, ग्लैडियोलस, सूरजमुखी भी नहीं
गुड़हल है थोड़ा-थोड़ा सदाबहार सरीखा
लेकिन मेरे लिए तुम बस सदाबहार ही रहना
सहज-सरल, हर मौसम में खिल जाने वाला
गर्मी-सर्दी-बरसात-हर मौसम संग-संग झेलने वाला

यहाँ प्रकृति में भी जीवन को ही देखने कोशिश है. सदाबहार यहाँ एक प्रतीक के तौर पर आया है. हाल के दिनों में हिंदी कविता में प्रतीक कम हुए हैं. लेकिन भाषा सिंह के यहाँ एक फूल को प्रतीक बनाया गया है. सदाबहार यहाँ सादगी, सहजता, सरलता और दृढ़ता का प्रतीक है. यहाँ एक ऐसे साथी या प्रेमी की आकांक्षा है, जो चमक-दमक और आडंबर से मुक्त हो, जो सिर्फ सुख का साथी न हो, जो हर परिस्थिति में साथ निभाने वाला हो. एक तरह से यह साधारणत्व को स्थापित करने वाली और आमजन के प्रति विश्वास व्यक्त करने वाली कविता भी है. ज़ाहिर है, भाषा सिंह आमजन से ही परिवर्तन के लिए लड़ने की उम्मीद करती हैं.

भाषा सिंह कविता के स्थापत्य को संवारने या भाषा को कलात्मक रूप देने की चिंता नहीं करतीं. अपने भीतर की बेचैनी और आक्रोश को ज्यों का त्यों उतार देने पर उनका ज़ोर ज़्यादा है. इसलिए कुछ कविताएं स्फीति और अतिकथन का भी शिकार हो गई हैं. संभव है कुछ लोगों को कविताओं का ‘शोर’ परेशान करे, लेकिन जब स्थितियां इतनी भयावह हो गई हों और सत्ता असहमति की हर आवाज़ों को कुचल देने पर आमादा हों, तब एक प्रतिबद्ध कवि को अपनी बात पूरी ताक़त के साथ कहनी ही होगी.

योनि-सत्ता संवाद
पलकों से चुनना वासना के मोती
भाषा सिंह
प्रकाशकः गुलमोहर किताब, दिल्ली
मूल्यः 250 रुपये

 

संजय कुंदन
जन्म : 7 दिसम्बर, 1969प्रकाशित कृतियाँ : कागज के प्रदेश में, चुप्पी का शोर, योजनाओं का शहर, तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह), बॉस की पार्टी, श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह), टूटने के बाद, तीन ताल (उपन्यास), पत्रों में सेजाँ (अनुवाद).  पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, हेमन्त स्मृति सम्मान और विद्यापति पुरस्कार.  
Tags: 20252025 समीक्षाभाषा सिंहयोनि-सत्ता संवादसंजय कुंदन)
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Comments 2

  1. M P Haridev says:
    4 weeks ago

    वाक़ई बेबाक़ भाषा सिंह । पुस्तक का टाइटल चुनने में शर्म नहीं की । किस बात की शर्म । माहवारी क़ुदरती प्रक्रिया है । औरत बच्चे को जन्म देने से पहले ही अकेली जूझती है । संजय कुंदन ने लिखी पंक्ति याद नहीं । काग़ज़ पर लिखता तो उद्धृत करता ।
    पितृसत्ता से झगड़ना पुराना मुद्दा है । मगर महिला हार नहीं मानती ।
    शायद संजय जी ने लिखा कि स्त्री अपने भीतर पितृसत्ता को जगह देती है । बारीक़ सच लिखा । पुरुष काम पर गया है तब भी उसके भय की छाया घर में फैली रहती है ।
    बहुसंख्यक समाज अर्थात् हिन्दुत्व का खेला जारी है । मई २०१४ से पहले न के बराबर नृशंस था । अब हर रोज़ खाद-पानी मिलता है ।
    ये जनाब मूर्तियों और महिलाओं के सामने अपनी कमर ९० अंश तक मोड़कर कोहनियों [हमारी बोली में कोहनी के लिए अड़क शब्द है] से आगे तक जोड़कर प्रणाम करता है । इतनी बेशर्मी । देश में और देश के बाहर गांधी की मूर्ति पर फूल चढ़ाना शग़ल है ।

    Reply
  2. रवि रंजन says:
    4 weeks ago

    ‘अदृश्य भारत’ सरीखी बेहद महत्त्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका भाषा सिंह के कविता संग्रह की समीक्षा मूल कृति को पढ़ने के लिए प्रेरित करती है. बावजूद इसके इस आलेख में कही गयी एक बात बहसतलब है कि “आज बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी हैं, जो पितृसत्ता की विरोधी हैं, लेकिन ऐसी राजनीति के साथ हैं, जिसकी बुनियाद पितृसत्ता पर टिकी हुई है , जो मनुस्मृति जैसे स्त्री-विरोधी आख्यानों को ही अपना आदर्श मानती है. यह कैसा पितृसत्ता का विरोध है ?” सवाल उठता है कि कविता को अपना ‘व्यक्तित्व बनाने’ और ‘चरित्र चमकाने’ वाली कुछ अवसरवादी तुक्कड़ों को छोडकर क्या हिन्दी में ऐसी कोई उल्लेखनीय स्त्री-कवि है जो मनुस्मृति जैसे स्त्री-विरोधी आख्यानों को आदर्श मानती है. शायद नहीं. आधुनिक काल में पुरानी पीढ़ी से लेकर नयी पीढ़ी तक के उल्लेखनीय स्त्री एवं पुरुष कवियों पर नज़र दौड़ाने पर मुझे ऐसा कोई कवि दिखाई नहीं पड़ता जो मनुवाद को आदर्श मानता हो. जो कवि समय-समय पर सत्ता के करीब रहे हैं ,वे भी नहीं.

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