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समालोचन

Home » शार्ल बोदलेअर: मदन पाल सिंह

शार्ल बोदलेअर: मदन पाल सिंह

शार्ल बोदलेअर (9 अप्रैल,1821 – 31 अगस्त,1867) फ्रेंच कविता में आधुनिकता के प्रवर्तकों में से एक माने जाते हैं, प्रतीकवाद आंदोलन से वह जुड़े हुए थे. उनकी गद्य कविताओं का संकलन ‘Le Spleen de Paris’ (1869) मरणोपरांत प्रकाशित हो सका था. ये कुछ कविताएँ इसी संकलन से हैं , फ्रेंच से हिंदी में इनका अनुवाद मदन पाल सिंह ने किया है.

by arun dev
November 18, 2021
in अनुवाद
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शार्ल बोदलेअर: मदन पाल सिंह
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शार्ल बोदलेअर की कविताएँ
अनुवाद: मदन पाल सिंह

Le désir de peindre
चित्र बनाने की कामना

 

यह शायद आदमी ही है, जो दुखी है. लेकिन वहीं एक सुखी कलाकार भी है, जिसका हृदय कला को व्यक्त करने के लिए विदीर्ण हुआ जा रहा है. मैं उसका चित्र बनाने के लिए बेताब हूँ, जो बहुत मुश्किल से मुझे दिखायी देती है और फिर बहुत जल्दी ग़ायब भी हो जाती है, जैसे लम्बे समय से अदृश्य, पछतावे से भरी कोई चीज़ यात्रा के पीछे से रात्रि में विलीन हो जाये. वह सुन्दर है, और सुन्दर से ज़्यादा; कहूँ तो वह चकित करने वाली है. अँधेरे में उससे प्रेरणा निःसृत होती है. और वह जो कुछ भी, जिसके लिए भी प्रेरित करती है वह रात्रिकालीन और गहन है. उसकी आँखें दो गहरे विवर हैं जहाँ रहस्य अस्पष्ट रूप से चमकता है और उसकी दृष्टि दामिनी की तरह रोशन होती है. दरअसल, यह घटना गहन तम में एक ज्योतिमय विस्फोट है. अगर कोई एक काले नक्षत्र की कल्पना कर सकता है, जो प्रकाश और ख़ुशी देता है तो मैं इसकी तुलना एक स्याह सूर्य से करूँगा. लेकिन यह अधिक आसानी से चन्द्रमा के बारे में सोचती है. चन्द्रमा इस पर निस्सन्देह अपने दुर्जेय प्रभाव के चिन्ह छोड़ता है. यह रूमानी काव्य का सफ़ेद चाँद नहीं, जो एक ठिठुरती दुल्हन की तरह दिखता है. बल्कि यह तो भयावह और मादक चन्द्रमा है, जो एक तूफ़ानी रात की गहराई में ठहरा हुआ है और रात भागते हुए बादलों से घिरी है. यह शान्तिपूर्ण और विवेकपूर्ण चन्द्रमा नहीं है जो पवित्र पुरुषों की नींद में आ जाया करता है. बल्कि यह तो वह चन्द्रमा है जिसे आकाश से खींचकर विदीर्ण कर दिया गया था. यह पराजित और विद्रोही चन्द्रमा है. इसे थेसाली की जादूगरनियों ने घास पर नृत्य करने के लिए मजबूर किया था.

उसके छोटे से मस्तिष्क में ज़िद्दी इच्छा और शिकार के प्रति प्रेम का वास होता है. उस दौरान उस परेशान चेहरे पर नीचे, जहाँ फड़कते हुए नथुने अज्ञात व असम्भव को सूँघते रहते हैं, वही मुख अकथनीय रूप से खुलकर हँसने लगता है. और यह मुख लाल, सफ़ेद और आनन्ददायक है. यह हँसी ज्वालामुखी युक्त धरा में एक ख़ूबसूरत फूल खिलने का एक चमत्कार भरा स्वप्न बुनती है.

यहाँ ऐसी औरतें हैं जो ख़ुद उन्हें जीतने की इच्छा और उनके साथ आनन्द करने की इच्छा को भी प्रेरित करती हैं. लेकिन यह घटना उनकी नज़रों के नीचे धीरे-धीरे मरने की चाह भी पैदा करती है.

सन्दर्भ
(1) यहाँ, फ्रांसीसी साहित्य में गद्य-गीत या गद्य में कविता के प्रस्तोता और आविष्कारक आलोइसिउस बेरत्रों का स्मरण स्वाभाविक तौर पर होने लगता है. इस रचना में बेरत्रों के सच्चे उत्तराधिकारी की तरह आधुनिक कविता के अग्रगामी बोदलेअर अपने चरम पर दिखायी देते हैं. रचना में कामना, कला और स्त्री एकरूप होने लगते हैं, जिनसे पार पाना एक समस्या ही है. इसके अनेकार्थ मौजूद हैं.
(2) वैसे भी चंद्र ग्रहण के दौरान चाँद की स्थिति विचित्र हो जाती है और एक विरोधाभास उत्पन्न हो जाता है. यहाँ यूनानी मिथक कथाओं का एक प्रसंग भी है. माना जाता है कि Thessalie की जादूगरनियाँ बड़ी कारसाज़ थीं. यह भूभाग यूनान के उत्तर-पश्चिम में स्थित है.

 

Le port
बन्दरगाह

एक बन्दरगाह जीवन के संघर्ष में थकी हुई आत्मा के लिए एक आकर्षक प्रवास है. आकाश का विस्तार, बादलों का बनता-बिगड़ता रूप यानी उनकी वास्तुकला, समुद्र के बदलते हुए रंग, प्रकाश-स्तम्भ की जगमगाहट- ये सब एक ऐसा अद्भुत बहुआयामी चमत्कार सृजित करते हैं जो आँखों को कभी भी बिना थकाये आनन्द से भर देता है. जहाज़ों के पतले, सुघड़ आकार, उलझाव भरे हुए रस्से, पाल इत्यादियो में महातरंग लयबद्ध दोलन कर अपनी छवि बिखेर रही हैं. और इनसे आत्मा में ताल और सौन्दर्य के आस्वाद को बनाये रखने हेतु सेवा ली जा रही है. फिर, इन सबसे ऊपर, उन लोगों के लिए एक प्रकार का रहस्यमय और अभिजातपूर्ण सुख है, जिनके पास अब चिन्तन करने की कोई उत्सुकता या महत्त्वाकांक्षा नहीं है . वे इस दौरान जहाज की ऊँची चौकी से अनुवीक्षण करते हुए लेटे रहते हैं या तटबंध पर झुकने जैसे कितने ही कार्य करते रहते हैं. इस बीच नौकाएँ आती-जाती रहती हैं. और इनमें से जो भी कोई इच्छाशक्ति रखता है, एक यात्रा की कामना या फिर अपने आप को इन दृश्यों से समृद्ध करता है, वह कला पथ पर अग्रसर है.

 

सन्दर्भ
बन्दरगाह स्थानों को जोड़ने का साधन है तो विलग करने का भी. यह पुल की ही तरह है. और बेशक यह मृत्यु का भी प्रतीक, उसका पर्याय है, जिससे होकर महान् यात्रा का पथ प्रशस्त होता है. मालार्मे की ही तरह यहाँ आकाश की असाध्यता भी है. लेकिन अन्ततः तमाम विभ्रम और दुखों के साथ आत्मा सौन्दर्य के मन्दिर की आराधिका है. जहाँ इसे कला के माध्यम से भी प्राप्त किया जा सकता है. बेल्जियम भ्रमण के दौरान लिखे गये इस गद्य गीत द्वारा, मदिरा और मादक द्रव्य से घिरे कवि की उस दौरान रही मानसिक स्थिति से भी परिचय होता है.

Portrait by Gustave Courbet, 1848

Le confiteor de l’artiste
कलाकार की स्वीकारोक्ति

पतझड़ की ऋतु के दौरान दिनों का अन्त कितना भयावह व तीख़ा होता है! उफ़! यह तीख़ापन दर्द की हद तक पहुँच जाता है. क्योंकि कुछ मनभावन संवेदनाओं की अनियमितता उनकी तीव्रता को अलग नहीं करती है. तथा असीम-अनन्त सत्ता की तुलना में और कोई दूसरा भेदने वाला बिन्दु नहीं है.

आकाश और समुद्र की असीमता में अपनी दृष्टि को सराबोर करना भी एक बहुत बड़ी ख़ुशी है! एकान्त, मौन, नीलाकाश की अतुलनीय शुद्धता! अनन्त क्षितिज पर डगमगाती एक छोटी-सी पाल नौका, जो अपनी लघुता और अपने अलगाव के कारण मेरे अपरिवर्तनीय अस्तित्व, प्रफुल्लित, उद्दाम भाव के नीरस माधुर्य का अनुकरण करती है. ये सभी चीज़ें मेरे माध्यम से सोचती हैं या मैं उनके माध्यम से अपनी सोच को विस्तार देता हूँ (क्योंकि मन की लहर की भव्यता में ‘मैं’ और मेरा ‘मैं’ तेजी से विलीन हो जाते हैं!). मैं कहता हूँ की वे सोचती हैं, हालाँकि ऐसा वे संगीतमय और सुरम्य रूप से, बिना व्यग्य के, बिना तर्क के, बिना किसी काट-छांट के करती हैं .

चाहे ये विचार मेरे अन्तर से निसृत हो रहे हों या कलाओं से बाहर आ रहे हों लेकिन वे जल्द ही बहुत तीव्र हो जायेंगे. उथल-पुथल में ऊर्जा, बेचैनी और सकारात्मक पीड़ा पैदा करती है. मेरी नसें भी केवल तनावपूर्ण और दर्दनाक कंपन देती हैं.

और अब आकाश की गहराई मुझे कष्ट देती है. इसकी स्पष्टता मुझे चिढ़ाती है. समुद्र की बेरुख़ी और दृश्यों की अपरिवर्त्यता मेरे अन्दर घृणा व प्रतिकार उत्पन्न करती है. मुझे विद्रोही बना देती है. …आह! क्या हमें अनन्त काल तक पीड़ित रहना चाहिये, या सुन्दरता से सदा के लिए विमुक्त हो जाना चाहिए? प्रकृति, तुम निर्दयी जादूगरनी और सदा विजयी होने वाली प्रतिद्वन्द्वी हो. मुझे अकेला छोड़ दो! मेरी इच्छाओं और मेरे गर्व को फुसलाकर ऊपर उठाना बन्द करो! सौन्दर्य का अध्ययन एक द्वन्द्व है और इसमें कलाकार पराजित होने से पहले ही भयभीत होकर चिल्लाता है.

सन्दर्भ
कला और सौन्दर्य के सम्बन्ध व उनके अन्वेषण में एक कलाकार उनकी अस्पष्टता और अनन्तता से किस तरह आक्रान्त हो सकता है. कलावादियों की रचनाओं में इस आत्मसंघर्ष को देखा जा सकता है. ईश्वर विहीन इस रचना में प्रकृति ही यहाँ कवि की प्रतिद्वन्द्वी बन जाती है. कवि ने एक ऐसे चितेरे के रूप में अपनी मनःस्थिति को स्वीकार किया है, जो सुंदरता को तीव्रता से महसूस करते हुए इससे सामंजस्य महसूस करता है. हालाँकि वह इसे शब्दों में समझाने और इसका वर्णन करने का प्रबंधन नहीं कर सकती. यह एक विफलता की अभिव्यक्ति है, एक आदर्श दुनिया की सुंदरता का अनुवाद करने में भाषा की विफलता. ऐसे में एक ख़ास उदासी भरी तिक्तता कला के आदर्श का अतिक्रमण करने लगती है.

 

Un plaisant
एक मसखरा

यह नये साल का धूम-धड़ाके वाला मौक़ा था. मिट्टी और बर्फ़ हज़ारों गाड़ियों द्वारा पार किये जाने के कारण छितराई हुई थी. टॉफी और खिलौने चमक रहे थे. लालच से भरी इच्छा, धनलोलुपता और निराशा के झुण्डों की भिनभिनाहट व्याप्त थी. बड़े शहर का आधिकारिक प्रलाप ऐसा था कि जैसे वह किसी एकान्तवासी, त्यागी मस्तिष्क की पूर्ण दृढ़ता को भी विचलित करने के लिए पर्याप्त हो. इस ऊधम और हलचल के बीच में, सांटे से लैस उजड्ड गँवार द्वारा परेशान किये गये एक गधे ने दुलकी चाल से दौड़ना शुरू कर दिया.

जैसे ही गधा फुटपाथ के कोने पर मुड़ने ही वाला था कि तभी वहाँ नफ़ासत से भरे एक सज्जन प्रकट हुए. दस्ताने पहने हुए चिकने-चुपड़े महाशय बिलकुल नये लकदक कपड़ों में भिंचे दिखे. उनकी टाई क्रूरता की हद तक खिंची हुई थी. वह तेज़ी से इस बेचारे जानवर के सामने नतमस्तक होकर झुके और अपना हैट उतारते हुए बोले : ‘‘मैं आपके अच्छे स्वास्थ्य और सुखी जीवन की कामना करता हूँ.“ उसके बाद वह बेहूदी आत्मसन्तुष्टि का भाव लिए जो भी उनके साथ थे उनकी तरफ़ मुड़ गये. ऐसा लगा जैसे कि वह अपने सन्तोष की स्वीकृति के लिए उनसे प्रार्थना कर रहे हों. गर्दभ ने इस शानदार जोकर को नहीं देखा और उसने उमंग के साथ अपनी ज़िम्मेदारी और फ़र्ज़ की आवाज़ पर भागना जारी रखा.

मुझे अचानक इस शानदार मूर्ख के ख़िलाफ़ एक प्रचण्ड रोष ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया. यह जड़बुद्धि मुझे फ्रांस की सम्पूर्ण आत्मा का केन्द्र-बिन्दु लगा.

सन्दर्भ
त्योहार और मेले कुछ लोगों के लिए बहुत कुछ लाते हैं. और बहुतों के लिए कुछ भी नहीं. आधुनिक वस्त्रों यानी समकालिक व्यक्तिगत मान्यताओं, आधुनिक समाज की अमानवीयता में भिंचा हुआ और अपनी मूर्खता में गर्वित आदमी ग़ुलाम गधे के प्रति सहानुभूति रखने की अपेक्षा उसका मज़ाक़ उड़ा रहा है. अन्ततः लेखक इस विचार को आधुनिक फ्रांस की प्रतिनिधि भावना के रूप में पाता है. यहाँ गधा कौन हैं ? कहने की जरूरत नहीं. मजे की बात यह कि गधा नए दौर के इस आधुनिक सज्जन पर ध्यान नहीं देता . इस रचना के अतिरिक्त बोदलेअर के एक अन्य संकलन Mon cœur mis à nu (मेरा अनावृत रखा ह्रदय ) में इसी तरह की राजनैतिक-सामाजिक आलोचना के अनेक अक़्स देखे जा सकते हैं.

 

Le fou et la Vénus
मूर्ख और वीनस

कितना ख़ूबसूरत दिन है! विशाल उद्यान सूरज की चिलचिलाती किरणों के नीचे बेसुध हो रहा है, जैसे प्रेम की सत्ता के नीचे युवा आहें भरते हुए प्रलाप करते हैं. चीज़ों का सार्वभौमिक परमानन्द किसी भी शोर द्वारा व्यक्त नहीं हो रहा है. मानव त्यौहारों से बहुत अलग झील, जलप्रपात इत्यादि सब शान्त हैं. इस तरह यह एक मौन भरा आनन्दोत्सव है.

ऐसा लगता है कि एक तेज रोशनी वस्तुओं को अधिक-से-अधिक चमकाने का कारण बनती है. उत्साहित फूल अपने रंगों की ऊर्जा लिए आकाश की आभा के साथ प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा से जलते हैं और गर्मी सुगंध को दृश्यमान बनाते हुए, उन्हें धुएँ की तरह तारों की ओर बढ़ा देती है.

हालाँकि, इस सार्वभौमिक आनन्द में मैंने एक शोकग्रस्त प्राणी को देखा.

इनमें से एक कृत्रिम पागल यानी विदूषक (उन स्वयंसेवी विदूषकों में से एक जिन पर मनोव्यथा व उदासी से घिरने पर राजाओं और दरबारियों को हँसाने का जिम्मा होता है.) सींग और घण्टियों से सज्जित होकर एक चमकदार और हास्यास्पद पोशाक में बाहर निकला. फिर देवी के आसन के सामने खड़ा होकर अजर-अमर वीनस को आँसुओं से भरी आँखों से देखने लगा. इस तरह वह शोकग्रस्त प्राणी वृहत्काय वीनस के बुत के चरणों में पाया गया.

और उसकी आँखें कह रही थीं : ‘‘मैं मनुष्यों में सबसे अन्तिम, तुच्छ और सबसे ज़्यादा एकान्तिक हूँ. मैं प्यार और मित्रता से वंचित हूँ और मैं जानवरों से भी ज़्यादा गिरा हुआ, पतित हूँ. हालाँकि, मैं भी अमित, अविनाशी सौन्दर्य को समझने और महसूस करने के लिए बना हूँ. आह देवी! मेरी उदासी और मेरे पागलपन पर दया करो!’’

लेकिन कठोर वीनस अपनी संगमरमर की आँखों के साथ कहीं दूर देख रही है. और क्या देख रही हैं? यह मुझे नहीं मालूम.

सन्दर्भ
इस रचना के अनेक अर्थ लगाये जाते रहे हैं. सामान्यतः सौंदर्य, कला, स्त्री, प्रेम के सम्मुख कलावन्त दयनीय, दुःख में डूबे या असहाय हो सकते हैं. साथ ही कवि का कार्य
कविता के प्रकटन में ही नहीं बल्कि इसके विपरीत विफलता को व्यक्त करने में भी सन्निहित है. एक बात यह भी है कि क्या मूर्ख कला का आस्वादन कर सकता हैं !

संभावना प्रकाशन से प्रकाशित. मोब- 70 174 37 410

मदन पाल सिंह
जन्म : 1  जनवरी, 1975. तहसील गढ़मुक्तेश्वर (उत्तर प्रदेश ) के  किसान परिवार में. भारत और फ़्रांस में शिक्षित. कुछ वर्ष चाकरी और अब खेती-किसानी तथा पूर्णकालिक लेखन. एक उपन्यास त्रयी का लेखन, जिसका प्रथम भाग ‘हरामी’ के नाम से प्रकाशित. दूसरे और तीसरे भाग क्रमशः ‘गली सैंत कैथरीन’ और ‘डाकिन’ के नाम से. मध्यकाल से समकालीन फ़्रेंच काव्य को समेटे छब्बीस पुस्तकों की श्रृंखला- ‘फ़्रांसिसी कवि एवं कविता’, जिसके अंतर्गत बोदलेअर, वेरलेन, रैंबो, मालार्मे इत्यादि पर पुस्तके प्रकाशित. फ़िलहाल, उपन्यास, जीवनी, समालोचना और अनुवाद पर कार्यरत.

Tags: Le Spleen de Parisफ्रेंच कवितामदन पाल सिंहशार्ल बोदलेअर
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Comments 7

  1. S. B. Singh says:
    4 years ago

    अभी बस दो गद्य कविताएँ पढ़ी हैं और अभिभूत हूँ। अनुवाद इतना प्रवाहमान और जीवंत है कि मूल रचना का सा लगता है। प्रस्तुत करने का आभार।

    Reply
  2. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    बोदलेयर की इन कविताओं का हिंदी में आना स्वागतेय है।
    गद्य का वैभव जिन कवियों ने कविता में प्रतिष्ठित और पंचतत्वीय बनाया, उनमें बोदलेयर अग्रणी हैं। कविता का वह एक नया प्रस्थान है। एक मानक है। चुनौती भी है: आज तक। ये अनुवाद अच्छे हैं।

    Reply
  3. Vanshi Maheshwari says:
    4 years ago

    जीवन की विराट संपदा

    जीवन की विराट संपदा इन कविताओं में गहराई से समाई हैं.
    बिम्बों का ऐसा अद्भुत नियोजन संयोजन , अबाध गति और उस गति में ठहर जाना,रुकना, चल पड़ना फिर वही अनुक्रम, रहस्यमयी छवियों की अनवरता और उस तिलस्म में छायायें छायांकित हो जाना,“जिनके पास अब चिन्तन करने की कोई उत्सुकता या महत्त्वाकांक्षा नहीं है .”

    ऋतुओं की संवेदनशीलता और अनंत के पार की सत्ता वाली तीव्रता बिन्दु में निहित है.
    सृष्टि का आलोड़न और मानवीय सराोकारों की जुम्बिश,’कलाकार की स्वीकारोक्ति’ है.
    प्रकृति के बहुआयामी, बहुविध, बहुरंगी चित्रों का संकलन जीवन में तीव्रगति से व्याप्त होकर भी पृथक है- “क्या हमें अनन्त काल तक पीड़ित रहना चाहिये, या सुन्दरता से सदा के लिए विमुक्त हो जाना चाहिए ?”

    मसखरा एक में अनेक प्रलापों की भिनभिनाहटों को संयोजित करके “ शानदार मूर्ख के ख़िलाफ़ एक प्रचण्ड रोष “ व्यक्त करता है .

    मूर्ख और वीनस कविता में मनुष्यों से अलग-थलग त्यौहारों में जो नैसर्गिकता एक मौन भरा आनन्दोत्सव है.
    कविता की अंतिम पंक्ति को उद्धृत करना चाहूँगा :—
    “लेकिन कठोर वीनस अपनी संगमरमर की आँखों के साथ कहीं दूर देख रही है. और क्या देख रही हैं? यह मुझे नहीं मालूम.”

    ये कविताएँ अनूदित हैं,
    शायद नहीं .
    यही कला कविता को कविता से जोड़ने-मिलाने,संपृक्त करने में अपनी कौशल्यता को सीमाओं के पार समय की विराट संपदा में गझिन होकर मुखरित हो जाती हैं.

    मदन जी ने इन कविताओं की धमनियों में अनुवाद की धड़कनेों का आभास या प्रतीति का अहसास नहीं होने दिया. इस कौशल की कुशलता सुस्पष्ट देखी जा सकती है.
    अरुण जी व मदन जी के प्रति आभार .

    वंशी माहेश्वरी.

    Reply
  4. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    19वीं सदी के जिन प्रतीकवादी फ्रांसीसी कवियों ने हिंदी कवियों को गहराई से प्रभावित किया उनमें रैंबो के अलावा बोदलेअर का नाम निसंकोच लिया जा सकता है। अज्ञेयजी से लेकर नई कविता के अनेक प्रमुख कवि इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे। मदनपाल सिंह ने इन कवियों की श्रेष्ठ रचनाएं हिंदी में प्रस्तुत कर महत्वपूर्ण कार्य किया है।

    Reply
  5. देवेन्द्र मोहन says:
    4 years ago

    मदन पाल सिंह की ये किताब ‘प्रतीक और कविता’ बेहतरीन बनी है। सारी कविताओं के उम्दा अनुवाद । चूंकि अनुवाद सीधे फ्रेंच से किये गए हैं तीसरी भाषा का व्यवधान है ही नहीं। अंग्रेज़ी से अनुवाद करने वालों का भाषा ज्ञान या तो निम्न स्तर का होता है या बिलकुल कमज़ोर – वे elementary English से भी नावाक़िफ़ होते हैं। या फिर पाठक को जैसे तैसे लपेटने के फ़िराक़ में होते हैं। यह रवायत बेहद अस्वस्थ रूप लेती जा रही है। मेरे पास कई ऐसे उदाहरण हैं। रूस के एक भारी समसामयिक कवि की एक लंबी कविता की तो पहले स्टांज़ा से ही दिल्ली की भाषा में पूरी तरह ‘रेड़’ मार दी गई है। मदन पाल फ्रांस में रहे हैं, फ्रेंच जानते हैं इसलिए गडबड करने का गौरव जाहिर है उन्हें निश्चित रूप से प्राप्त नहीं हुआ होगा। इसलिए भी इस उपक्रम के लिए बधाई के पात्र हैं।

    Reply
  6. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बोदलेयर का विश्वास था कि पाप स्वभाविक है और पुण्य कृत्रिम। पाप मनुष्य से आप से आप हो जाता है लेकिन पुण्य उसे सोच समझकर करना पड़ता है। सार्त्र का कहना है कि बोदलेयर ने पाप का मार्ग पाप का आनंद भोगने के लिए नहीं चुना था बल्कि इसलिए कि वे हमेशा अपने को अपराधी महसूस करें और पश्चाताप का दंश भोगते रहें। बहुत अच्छा अनुवाद।

    Reply
  7. M P Haridev says:
    4 years ago

    मैंने टिप्पणी की थी । चाय पीते हुए फ़ोन की स्क्रीन ग़ायब हो गयी तो टिप्पणी भी लुप्त हो गयी । प्राणी जगत के बारे में मुझे मालूम नहीं है, लेकिन मनुष्य सुखों और दुखों को महसूस करता है । शार्द बोदलेयर से पहले या बाद में शायद ही किसी ने कल्पना की हो कि हमारी आँखें दो विवर हैं । गद्यात्मक कवि चन्द्रमा के प्रेम में पड़ गये हैं । मुझे एक शायर की दो पंक्तियाँ याद आ गयी हैं ।
    “दिन का सूरज जम जायेगा पत्थर बन जाएँगी रातें
    लेकिन अपने शेर को सुनकर लोग करेंगे प्यार की बातें”
    बीते हुए कल श्री गुरु तेग़ बहादुर महाविद्यालय दिल्ली के सेवानिवृत्त अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर, लेखक और फुटबॉल पर कमेंट्री करने वाले नोवी कपाड़िया की मृत्यु हो गयी । वे केवल 67
    वर्ष के थे और लाइलाज बीमारी से पीड़ित थे । पिछले 31 महीनों से दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें पेन्शन नहीं दी थी । वे अपनी कमेंट्री में anecdotes का इस्तेमाल करते और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे । आपको उनकी पेन्शन के बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय से जद्दोजहद करनी चाहिए । आपने बन्दरगाह देखे होंगे । मैंने केवल चित्रों में देखे हैं । हाँ मैंने युवावस्था में capstan नाम के सिगरेट की डिब्बी देखी है । चन्द्रमा के मोह में पड़कर कलाकारों ने चित्र बनाये होंगे जिन्हें लोग शताब्दियों तक देखेंगे । अनुवादक मदन जी ने सांटे का ज़िक्र किया । इसमें गधे की पीड़ा भी शामिल है । और कोई है जो गधे के स्वास्थ्य की कामना करता है । आनन्दमय प्रसंग है । सार्वभौमिक आनन्द की व्याख्या नहीं की जा सकती । सुख और दुख आसमान में आ गयी बदलियों जैसे हैं-आते हैं; जाते हैं । बस यहीं तक ।

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