ग़ुलाम भारत में रेल, हिन्दी पत्रकारिता और स्त्री शिक्षा
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औपनिवेशिक भारत में रेल के आने से अनेक सामाजिक समस्याएँ भी आईं. गौर से देखा जाए तो भारतेन्दुयुगीन रचनाओं में रेल का जिक्र होने लगा था. ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ (1870) में लाला सर्वसुख लाल रेलवे के एक बाबू से जान-पहचान के चलते अपने पुत्र की नौकरी लगवा देता है. कार्तिकप्रसाद खत्री के ‘रेल का विकट खेल’ (1874) में रेलवे कर्मचारियों में व्याप्त भष्टाचार का दृश्यात्मक वर्णन है. ‘परीक्षा गुरु’ (1882) में रेल का प्रसंग हास्यात्मक ढंग से आता है. लाला मदनमोहन और उनके मित्र जब मुजरा सुनने में मशगूल थे, तभी ईस्ट इण्डियन रेलवे में कार्यरत बैजनाथ व उनके एक साथी शिंभूदयाल पंडित पुरुषोत्तमदास से रेल-संबंधी एक प्रश्न पूछते हैं. पुरुषोतम उलटा-पुलटा जवाब देता है. प्रकरण-23 में लाला श्रीनिवास दास ने जेम्सवाट के पुरुषार्थ का जिक्र किया है. इस उपन्यास में मदनमोहन का साला जगजीवन दास मेरठ से अपनी बहिन की विदाई के लिए दिल्ली आता है. बहन और भाई रेल से मेरठ जाते हैं.
1890-91 ई० में राधाचरण गोस्वामी ने एक पतला-सा उपन्यास ‘सौदामिनी’ नाम से लिखा. रेल के इर्दगिर्द बुने गये इस उपन्यास में घनश्याम और सौदामिनी के प्रेम का सजीव चित्रण है. ‘आदर्श हिन्दू’ (1914) उपन्यास के अनेक प्रकरणों में रेल में व्याप्त दुर्व्यवस्थाओं का आँखों देखा हाल दर्ज है.
यहाँ मेरा मूल मन्तव्य यह है कि जब स्त्रियों ने रेलगाड़ी में बैठकर यात्राएँ आरम्भ कीं तो उन्हें किस तरह के संकटों का सामना करना पड़ा?
पहले यह देखा लिया जाए कि तत्कालीन रेलवे एक्ट में स्त्रियों को क्या सुविधाएँ दी गईं?

अलीगढ़ के बाबू गंगाप्रसाद गुप्त कानून की पुस्तकें छापते और बेचा करते थे. सन् 1890 के रेलवे एक्ट को भी उन्होंने छापा. धारा 64 में कहा गया कि 1891 से प्रत्येक रेलगाड़ी में कम से कम एक कंपार्टमेंट महिलाओं के लिए सुरक्षित रखा जाए. अगर रेलगाड़ी पचास मील से अधिक दूर जाने वाली हो तो कंपार्टमेंट में पाखाना भी होना चाहिए.
धारा 95 में यह उल्लिखित है कि अगर रेलवे कंपनी धारा 64 के प्रतिकूल काम करती है तो उसे बीस रुपये तावान के रूप में देने पड़ेंगे. धारा 119 में यह कहा गया कि अगर कोई पुरुष महिला कंपार्टमेंट में प्रवेश करता है तो उस पर सौ रुपये का जुर्माना लगेगा.
धारा 119 पढ़ते हुए मुझे भारतेंदु की ‘वैद्यनाथ की यात्रा’ याद आई. काशी-नरेश के साथ यात्रा करते हुए एक जगह रेलगाड़ी ख़राब हो जाती है. जिस दूसरी गाड़ी में भारतेंदु बैठते हैं, उसका महिला कंपार्टमेंट खाली था. भारतेंदु ने गार्ड से कहा- ‘इसमें मुझे सोने दो.’ गार्ड मना कर देता है. रेल जब दानापुर पहुंचती है तो गार्ड चार अँगरेजों को लेडिज कंपार्टमेंट में बैठा देता है. इस पर तीस वर्षीय भारतेंदु लिखते हैं:
‘सचमुच अब तो तपस्या करके गोरी गोरी कोख से जन्म लें, तब संसार में सुख मिले.’
बहरहाल… रेलवे एक्ट में स्त्रियों के लिए इतना ही लिखा है. उनकी सुरक्षा आदि के संबंध में एक्ट मौन है.
अब रेलगाड़ी और रेलवे स्टेशनों की दुर्व्यवस्था तथा रेलवे कर्मचारियों के दुर्व्यवहारों का एक संक्षिप्त जाएजा लेना यहाँ उचित होगा.
इलाहाबाद के बेलवेडियर प्रेस से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘मनोरमा’ का अवलोकन करते हुए रोंगटे खड़े कर देने वाले समाचार मिलते हैं. जुलाई 1927 के अंक में एक समाचार छपा है कि हावड़ा स्टेशन पर ड्योढ़े दर्जे के वेटिंग रूम से सोलह वर्षीया पाला नामक संथाली लड़की जब बाहर निकल रही थी तो ‘एक पछाहा ने उसके ऊपर हमला किया.’ उसके शोर मचाने पर रेलवे इंस्पेक्टर पछाहे को गिरफ्तार कर गुण्डा हवालात में बंद कर देता है. अप्रैल 1929 की ‘मनोरमा’ में एक समाचार यों प्रकाशित है:
‘रतनपुर की एक ब्राह्मणी युवती गत माघी पूर्णिमा को मुंगेर स्नान करने गयी थी, पर लौटते समय रेलगाड़ी में दो मुसलमान गुंडों ने उसके साथ बलात्कार किया. बाद में एक क्रूमैन की दृष्टि पड़ी और स्त्री ने भी शोर मचाया. कई युवकों ने पहुँचकर उन गुण्डों को बहुत पीटा. बाद में हजरत जमालपुर स्टेशन की पुलिस के हवाले कर दिये गये.’
ग्राँट नामक एक रेलवे ड्राइवर के अश्लील करतूतों का समाचार अगस्त 1928 की ‘मनोरमा’ में प्रकाशित है. जुलाई 1928 की ‘मनोरमा’ के अनुसार पुरुलिया के रखाल डोम, हीरु और मोतीलाल मस्तो ने रामओझा नामक एक रेलवे कर्मचारी की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि ‘वह गाँव की लड़कियों का चरित्र नष्ट कर रहा था.’ ‘मनोरमा’ अगस्त 1927 अंक में एक समाचार छपा है: ‘सी.जी. डेंटन नामक रेलवे वार्ड फोरमैन एक लड़की को भगाने के अभियोग में कलकत्ते में गिरफ़्तार हुआ.’ ‘आदर्श हिन्दू’ उपन्यास में ‘प्रियंवदा से छेड़छाड़’ नामक एक प्रकरण ही है.
‘आज’ अखबार ने 17 अगस्त 1923 के अंक में छापा:
‘टुंडला से खबर आयौ कि फिरोजाबाद से आगरे जाने वाली एक हिन्दुस्तानी स्त्री पर दो टिकट कलेक्टरों ने अत्याचार किया. वे पकड़कर आगरे लाये गये. जिला मजिस्ट्रेट के सामने अभियुक्तों ने जूरी का विचार चाहा. मुकदमा 17 तक मुलतवी हुआ.’
मई 1932 के ‘चाँद’ में ‘दिलचस्प मुकदमें’ स्तंभ में ‘रेलवे कर्मचारी की काली करतूतें’ शीर्षक नोट छपा है. इसमें रेलवे क्वार्टरों में होने वाले व्यभिचारों का पर्दाफाश किया गया है.

जुलाई 1920 की ‘महिला दर्पण’ में ‘रेलों में स्त्रियों के सतीत्व पर हमला’ लेख की आरंभिक पंक्तियाँ देखिए: ‘अत्यंत खेद के साथ लिखना पड़ता है कि स्टेशन और रेलों में स्त्रियों के सतीत्व के सर्वनाश का समाचार नित्यशः बढ़ रहा है…. (समाचार) पढ़ खून खौल जाता है.’ आगे लिखा :
“21.2.1920 की रात के ट्रेन से एक स्त्री कहीं जाने के लिए अमुक स्टेशन आई. उसके टिकट माँगने पर स्टेशन मास्टर ने उसे टिकट नहीं दिया और रात भर अपने स्टेशन के पार्सल रूम में रखकर जबर्दस्ती उसके साथ अत्याचार किया. इसके बाद रजिष्ट्री आफिस में ले जाकर उनके अन्यान्य कर्मचारियों ने भी उस स्त्री के साथ पाशविक अत्याचार किया. इसी सप्ताह ‘प्रह्लाद’ संपादक ने भी हमारे पास बी. एन. डेबल्यू – रेलवे में एक राजपूत महिला और उसकी दासी के साथ दो गोरों के पाशविक अत्याचार करने की सूचना दी है. आज से एक डेढ़ मास पूर्व एक सज्जन ने एक और स्टेशन पर भी रेलवे कर्मचारियों द्वारा ऐसी ही एक घटना होने की खबर दी थी.”
पत्रिका सरकार से निवेदन करती है :
‘यदि सरकार रेलवे के कम्पनियों के लिये कोई विशेष प्रबन्ध करे जिससे रेल के कर्मचारी स्त्रियों पर अत्याचार नहीं कर सके, तभी स्त्रियों के अमूल्य धन सतीत्व धर्म की रक्षा होगी. सरकार और रेलवे कम्पनियों को शीघ्र इस ओर ध्यान देना चाहिए.’
हेमन्त कुमारी देवी चौधुरानी, प्रियम्बदा देवी जैसी विदुषियों का यह मानना था कि जब तक स्त्रियाँ सुशिक्षित नहीं होंगी तब तक वे रेल में सुरक्षित यात्रा नहीं कर सकतीं.
पंजाब प्रांत के एक गांव की सच्ची घटना का जिक्र हेमन्त कुमारी देवी चौधुरानी ‘स्त्री शिक्षा के अभाव से दुर्दशा’ लेख में करती हैं. यह लेख ‘महिला दर्पण’ (अगस्त 1920) में प्रकाशित है. यहाँ यह ध्यान दें कि रेल आने से लड़की की विदाई या बारात आने-जाने के लिए सुगम समझा जाने लगा था. ‘नवजीवन’ में बलरामपुर के रामगोपाल मिश्र की एक कहानी ‘पंडित जी की शुभ साअत’ (1911) नाम से मिलती है. इस कहानी में बारात रेल से जाती है.
तो… हेमन्त कुमारी देवी चौधुरानी लिखती हैं कि एक युवक अपनी नववधू को लेकर बारात के साथ रेल से अपने गांव जा रहा था. बाराती आराम करते हैं किन्तु वर बेचैन है. जनाना डिब्बा वर के डिब्बे से कुछ दूर है. अतः किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकती तो वर गाड़ी से उतरकर जनाना डिब्बे के सामने ‘घूँघट वाली, घूँघट वाली, घूँघट वाली दो-तीन बार पुकारता और ‘अनाड़ी-ग्राम्य–कन्या, जिसकी उम्र बारह तेरह वर्ष थी- आवाज सुनकर खिड़की के पास जा बैठती.’ उसके साथ एक बुढ़िया दासी भी थी परन्तु वह सो गई थी. क्रमशः रात होती है और सभी सो जाते हैं. एक धूर्त युवक, जो यह सब देख-सुन रहा था, आधी रात को- जब रेल एक छोटे स्टेशन पर खड़ी होती है- तो उस धूर्त ने भी ‘घूँघट वाली’ कहते हुए नववधू से बोला- ‘जल्दी उतरो नहीं तो गाड़ी चल देगी.’ नववधू गठरी लेकर उतर जाती है. वह निर्बोध कन्या अपने पति को पहचानती नहीं थी. वह धूर्त युवक उसे लेकर चम्पत हो जाता है.
अंत में हेमन्त लिखती हैं :
‘इससे क्या हम लोगों की आँखों पर से अज्ञानता का परदा नहीं हटेगा?… ज्ञानाभाव से हमारी देशी बहनों की यह दुर्दशा हो रही है.’
यह सिर्फ हेमन्त ही नहीं तत्कालीन समस्त प्रबुद्ध स्त्रियाँ इसे समझ रही थीं कि बिना शिक्षित हुए हमारा भला होने वाला नहीं.

‘स्वदेश- बान्धव’ (1916) का अध्ययन करते हुए मुझे रेल विषयक दो कहानियाँ मिलीं. एक वृन्दाप्रसाद शुक्ल की ‘रेलयात्रा’ और दूसरी प्रियम्वदा देवी की ‘अशिक्षिता और शिक्षिता’. यहाँ इन दोनों कहानियों के माध्यम से पुरुष और स्त्री नज़रिए को समझने का प्रयास किया जाएगा. आप देखेंगे- जहाँ वृन्दा प्रसाद शुक्ल रुढ़िवादी नज़र आते हैं, वहीं प्रियम्बदा देवी प्रगतिशील .

वृन्दाप्रसाद शुक्ल की कहानी’ रेलयात्रा’ एक ग्रामीण अहीर युवा दम्पती की कहानी है. युवक अपनी स्त्री को विदा करा कर ला रहा है. उसे रेल से अपने गाँव जाना है. दोनों समय से पहले स्टेशन पहुँचते हैं. स्त्री घूँघट करती है. कहानीकार ने घूँघट पर विशेष बल दिया है. युवक को पता चलता है कि रेल दो घण्टे विलम्ब है. दोनों बातचीत कर समय काटते हैं. बातचीत में घूंघट शामिल है. युवती की यह दूसरी रेलयात्रा है. “उसे अपरिचित स्त्री तथा पुरुषों में बैठने अथवा चलने-फिरने का अवसर कदाचित ही कभी पड़ा हो.” जब वह पहली बार रेलगाड़ी में बैठी थी तो उसके साथ पाँच स्त्रियाँ और थीं और “वह स्त्रियों के डिब्बे में बैठ गई थी. लेकिन इस बार वह हिचकती है कि वह अकेले जनाना डिब्बे में कैसे बैठेगी?”
बहरहाल, युवक टिकट लेने चला जाता है. युवती अकेली है. “जितना ही विलम्ब होता जाता था उतनी ही युवती के हृदय में व्याकुलता बढ़ती जाती थी. कोई 2 गुण्डे उसे धक्का देकर ही निकल जाते थे- कोई पास खड़े होकर गजल आदि की तान छोड़ने लगते थे. युवती का ध्यान किसी ओर को न गया. वह टिकट घर की ओर टकटकी लगाये देख रही थी.” युवक टिकट लेकर आता है. रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी होती है. गाड़ी फौजियों से भरी हुई है. जिस डिब्बे के सामने वे दोनों जाते, उत्तर मिलता जगह नहीं है. अचानक एक डिब्बा खुलता है और सिपाही कहता है- ‘इसमें जगह है चले आओ.’
युवती – ‘इसमें चढ़ चलो, जगह है.’
युवक – ‘इस में सब फौज वाले दिखाई पड़ते हैं.’
युवती – ‘कोई हिन्दू भइया ही बुला रहा है.’
गाड़ी सीटी देती है और दोनों उसी डिब्बे में चढ़ जाते हैं. “गड़गड़ करती हुई गाड़ी स्टेशन से छूटी. युवक को बेंच के नीचे स्थान दिया गया और युवती को उन्होंने बेंच पर बैठा लिया. गाड़ी छूटे 10 मिनट भी नहीं हुए कि एक दुष्ट सिपाही ने युवती के कपोल को अपने हाथ से स्पर्श कर दिया, दूसरे ने अमानुषता का परिचय देते हुए उस रमणी की छाती पर हाथ लगा दिया. युवती ने बड़ी शोकाकुल होकर अपने पति की ओर अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा– पति की भुजा भी फड़कने लगी और क्रोध के मारे उस के नेत्र लाल हो गये. परन्तु बेचारा विवश था– दो तीन सिपाहियों ने उसके उठते ही उसे खूब जोर से पकड़ कर बैठा रक्खा था. युवती का हृदय भर आया और वह खूब रोने लगी. दो चार मिनट को दुष्टों ने छेड़छाड़ बन्द कर दी परन्तु फिर बेचारी ‘पतिव्रता नवयुवती’ को छेड़ने लगे. इस समय वह बेचारी रोने के अतिरिक्त कुछ न कर सकी. स्मरण रखना चाहिए कि ये सैनिक कोई विजातीय या विदेशीय न थे – सब हिन्दू युवा ही थे…. आगे का स्टेशन आया, युवती हठात् गाड़ी से उत्तर पड़ी और युवक भी उतर पड़ा. युवक ने उसे स्त्रियों के डब्बे में बैठा दिया और स्वयं एक दूसरे डब्बे में घुसना चाहा. परन्तु लोगों ने घुसने न दिया. जैसे तैसे खुली खिड़की के सहारे खड़ा ही रहा वह दूसरे स्टेशन तक गया.”
अपने गंतव्य स्टेशन पर दोनों उतरते हैं. यहाँ से उनका घर अब तीन मील दूर है. अब कहानी का अन्त देखिए : “स्टेशन से बाहर निकल कर वही युवक और युवती चले जा रहे हैं. परन्तु अब उनमें वैसी आनन्द भरी बातें नहीं होतीं. युवक का मुखमण्डल क्रोध तथा लज्जा के कारण लाल हो रहा है. युवती की दशा तो बड़ी ही बुरी है. रोते 2 उसके नेत्र लाल हो गये. अश्रुधारा ने उसकी समस्त ओढ़नी भिगो दी है परन्तु उसका दुःख घटता ही नहीं है. कभी 2 युवक न रोने के लिए समझाता भी जाता है परन्तु अब युवती के पैर ससुराल जाने को नहीं बढ़ते. आगे की अपेक्षा पीछे पड़ते हैं मानो रेल गाड़ी में कुछ खो आई है. पाठकगण ! स्वयं अनुमान कर लीजिये, रमणी का क्या खो गया?
अस्तु, जैसे युवक का घर समीप आता गया तैसे ही तैसे युवती की मानसिक वेदना शोक और लज्जा के कारण उसे असह्य हो उठी. उसकी इच्छा घर जाने को न होती थी– उसकी इच्छा थी कि वह भाग कर पापमय संसार से कहीं बाहर चली जाए. गांव समीप आ गया. युवती का शरीर कांप गया, वह भागने के लिये पागल सी हो गयी. वह घर जाकर अब अपना अपवित्र मुख किसी को न दिखाना चाहती थी. एक दम भागी और युवक ने कहा – “ऐं! ऐं !! यह क्या?” सामने वाले कुएं में शब्द हुआ – “धड़ाम” . युवती संसार से विदा हो गई.”
यह समापन है कहानी का. निर्दोष युवती को मार डालते हैं शुक्लजी. कितना आसान है हम पुरुषों का किसी युवती को मार डालना. चूंकि पात्र जाति से अहीर हैं, अतः कहानीकार की घृणा भी इस कहानी में देखी जा सकती है. एक जगह ‘मूर्ख देहाती’ कहा है. कहानी का अंत कुछ और हो सकता था. कथा का अन्त कैसा होना चाहिए, इसे प्रियम्वदा देवी की कहानी से समझा जा सकता है.

प्रियम्वदा देवी की कहानी ‘अशिक्षिता और शिक्षिता’ वृन्दाप्रसाद शुक्ल की कहानी का प्रतिवाद करती है. दिल्ली से आगरा जाने वाली ट्रेन में दुर्गा देवी जनाने डिब्बे में सोई हुई है. रात के दस बजे हैं. “एक बनावटी टिकट कलेक्टर” दुर्गा देवी से टिकट दिखलाने के लिए कहता है. दुर्गा कहती है टिकट मेरे पास नहीं है, टिकट मेरे मालिक के पास है. एक बात और जनाने डिब्बे में यात्रा कर रही औरतें अपने गंतव्य स्टेशन पर उतर चुकी होती हैं. अतः दुर्गा देवी डिब्बे में अकेली है. फर्जी टिकट कलेक्टर कहता है कि आगरा तो निकल गया. दुर्गा रोने लगती है. कलेक्टर उसे ‘चालाक स्त्री’ कहते हुए हड़काता है और उसके पति का नाम पूछता है. दुर्गा कहती है कि मैं अपने पति का नाम कैसे ले सकती हूँ? वह इशारे से बताती है कि मेरे पति का नाम एक शहर पर है. दोनों के बीच एक लम्बा संवाद चलता है. संवाद दिलचस्प है. बुझौवल के बाद पता चलता है कि पति का नाम बनारसीदास है. दुर्गा कहती है कि मुझे मेरे पति के पास पहुँचा दो –
“टि.क. – [ मुस्करा कर] अच्छा पहुंचा दूंगा. परन्तु मुझे क्या मिलेगा?
स्त्री – मैं तुम्हें पाँच रुपये दूंगी.
टि.क. – हुश, मुझे रुपये नहीं चाहिये.
स्त्री – तो मेरा कोई जेवर ले लो.
इसके उत्तर में उस हिन्दू-कुल-कलंक कामातुर ने उस सुन्दरी का हाथ पकड़ना चाहा. वह स्त्री बहुत रोई और चिल्लाई, किन्तु उस दुष्ट ने उसका हाथ पकड़ ही लिया. किन्तु सौभाग्यवश आगरे का स्टेशन आ गया और गाड़ी खड़ी हो गई. वह लम्पट बनावटी टिकट कलेक्टर झटपट उस कम्पार्टमैंट से निकल कर भाग गया.”
उपर्युक्त घटना का जिक्र दुर्गा अपने पति से करती है. पति ‘नई रोशनी व नये ख्यालात’ का है. उस जमाने में पोंगापंथियों का दल ऐसे युवकों को पसंद नहीं करता था. पति कहता है कि ‘इसी से मैंने कहा था कि पढ़ लो.’
“दुर्गा. – पढ़ने से क्या होता है.
बनारसी. – पढ़ने से तुम्हारी अज्ञानता दूर हो जावेगी. जिस से तुम किसी की चाल में सहज ही न आ सकोगी. तुम में बुद्धि हो तो समझ लेतीं कि अभी आगरा नहीं निकला है. यह दुष्ट झूठ बकता है. भला मैं तुम्हें छोड़ कर कैसे चला जाता ?
दुर्गा. – रात में परपुरुष के सामने मैं तो घबड़ा गई थी.
बनारसी. – यदि पढ़ी लिखी होतीं तो इस प्रकार न घबड़ातीं और न डरतीं.
दुर्गा. – कैसे न घबड़ाती जब कि उसने मेरा हाथ ही पकड़ लिया.”
दोनों के बीच देर तक बहस होती है. अंततः –
“दुर्गा. – अच्छा, तो तुम नित्य ही पढ़ो 2 कहा करते हो, लो मैं आज से पढ़ना शुरु करूंगी. मैं देखूंगी कि पढ़ने से मुझ में कौन सी खास बात हो जावेगी.
बनारसी, – हां, हां, देख लेना कि तुम एक वर्ष में कैसी चतुर हो जाती हो.”
दरअसल औपनिवेशिक भारत में शिक्षा पर पुरुषों का ही आधिपत्य था. स्त्रियाँ समझ रही थीं कि जब तक पुरुष आगे न आयेंगे, हम शिक्षित न होंगी. सनातनी वृन्दाप्रसाद शुक्ल जहाँ युवती को मार डालते हैं, वहीं प्रियंवदा देवी दुर्गा को शिक्षित कर चतुर बनाने का काम करती हैं.
उपर्युक्त घटना के तीन वर्ष बाद. बनारसीदास आगरा कॉलेज में पढ़ने के साथ-साथ अपनी पत्नी को भी पढ़ाता रहा. दुर्गा थोड़ी-बहुत अँगरेज़ी भी जान जाती है. बनारसीदास बी. ए. पास कर इलाहाबाद में नौकरी करने लगता है. यहाँ ध्यान दें कि बनारसीदास के माता-पिता इस दुनिया में नहीं हैं और आगरा जैसे शहर में दुर्गादेवी अकेले ही रहती है.
एक दिन उसके पास इलाहाबाद से डाक्टर का पत्र आता है कि ‘बाबू बनारसीदास को हैजा हो गया है, और वे तुमको देखने के लिए छटपटा रहे हैं.’
पत्र पढ़कर दुर्गादेवी झटपट तैयार होकर अपनी नौकरानी के साथ स्टेशन पहुँचती है. वह आगरा से टूंडला जाती है. अब टूंडला स्टेशन से गाड़ी बदल कर इलाहाबाद जाने वाली गाड़ी में उसे बैठना है. वह शोकमग्न मुद्रा में प्लेटफार्म पर बैठी है. अब वह सुशिक्षिता है. उसमें हुए बदलावों को प्रियम्वदा देवी ने जिस ढंग से लिखा है, वह स्त्री विमर्शकारों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है –
“दुर्गादेवी का मुख खुला हुआ था. वह साधारण स्त्रियों की भांति लम्बा घूंघट काढ़ कर नहीं बैठी हुई थीं. इतने में ही एक स्टेशन बाबू उन के नवयौवनमय सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया. वह उनके निकट आ कर बोला, “इलाहाबाद जाने वाली गाड़ी दो घण्टे के बाद आवेगी. आप तब तक ठहरने वाले कमरे (Waiting Room) में ठहरें.”
दुर्गादेवी ने समझा वहाँ और भी अन्य भद्र महिलाएँ होंगी. अतः बाबू के साथ चल देती है. बाबू एक छोटे से कमरे में पहुंचता है और नौकरानी को बाहर बैठा देता है. दुर्गा उसके साथ कमरे में जाती है. वह देखती है कि कमरे में कोई नहीं है. बाबू दरवाजा बन्द कर देता है-
“दुर्गा देवी उस का दुष्ट विचार समझ कर संभल कर खड़ी हो गईं, वे न रोईं न चिल्लाईं, फिर निकट आकर बाबू ने कहा- ‘प्यारी क्यों घबड़ाती हो?’ दुर्गा देवी उसके हृद्गत भाव को समझकर उस समय आपे से बाहर हो गईं. उनके दोनों नेत्र लाल 2 हो रहे थे और वह दुष्ट बाबू नीची दृष्टि किये हुये अपनी कनपटी सहरा रहा था. उस कामातुर बाबू को जिस बात की स्वप्न में भी आशा न थी वही इस समय हुई. पीछे दुर्गादेवी पांच क़दम पीछे हट गईं. बाबू फिर साहस कर के दुर्गा देवी की ओर इस विचार से झपटा कि उन का मुख चुम्बन करे परन्तु बाबू का बढ़ना और दुर्गा देवी का अपना जूता उत्तार कर हाथ में ले लेना एक साथ ही हुआ. बाबू ने उन्हें पकड़ने को ज्योंही हाथ बढ़ाया कि दुर्गादेवी का जूता उस के मस्तक में लगा. किन्तु उस निर्लज्ज ने उस की कुछ भी परवाह न की और उसने दुर्गा देवी का दाहना हाथ पकड़ लिया. दुर्गादेवी ने बांये हाथ से उस की नाक पर एक ऐसा घूंसा लगाया कि वह व्याकुल होकर नीचे गिर गया. गिरने पर दुर्गादेवी ने उस की छाती पर दो-तीन लात जमाई, जिससे वह फर्श पर अचेत होकर गिर पड़ा. दुर्गादेवी कमरे की चटखनी खोल कर मुसाफिरखाने की साधारण स्त्रियों के पास अपनी दासी सहित जा बैठीं. थोड़ी देर में पूर्व की ओर जाने वाली गाड़ी के आने पर उस में वह जा बैठीं. फिर उस लम्पट बाबू का पता न लगा कि वह कहां गया और उस का क्या हुआ.”
दुर्गा देवी सकुशल इलाहाबाद पहुंचती है. बीमार पति की सेवा करती है. बनारसीदास स्वस्थ हो जाता है. दुर्गादेवी टूंडला वाली घटना बताती है. सुनकर बनारसी दास प्रसन्न होता है –
“बनारसीदास बोले- -“प्रिये! आज से तीन वर्ष पहले वाली बात याद है?”
दुर्गादेवी ने कहा – कौन सी ?
बना. – वही टिकट वाली.
दुर्गा. – (मुस्करा कर) हां, खूब याद है.
बना. – अब देखा कि पढ़ने से अज्ञानता दूर होकर कैसी चतुराई आ जाती है. यदि अब कोई तुम से हमारा नाम पूछे और उसको बताना आवश्यक हो तो तुम क्या कहोगी?
दुर्गा. – (हंसकर) बाबू बनारसीदास.”
कहानी का अंत करते हुए प्रियम्वदा लिखती हैं –
“बान्धव के पाठक तथा पाठिका समझीं कि शिक्षिता और अशिक्षिता स्त्रियों में क्या भेद है. शिक्षिता में आत्मरक्षा करने की योग्यता आ जाती है. वे किसी की चाल में नहीं आ सकतीं.”
यह है एक स्त्री रचनाकार का विवेक, हिम्मत और सोच. यह है शिक्षा की ताक़त.
अप्रैल और अगस्त 1928 की ‘मनोरमा’ में सागर की रहने वाली श्रीमती गिरजा देवी ने ‘रेल-यात्रा’ शीर्षक से संस्मरण लिखा है. गिरजा देवी इलाहाबाद के क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज की जब छात्रा थीं तो उन्हें इलाहाबाद से नागपुर की एक यात्रा करनी पड़ी थी. इस यात्रा के दौरान जब मध्य रात्रि रेल गोंदिया पहुँचती है तो एक अधेड़ पारसी व्यक्ति गिरजादेवी को तंग करता है. इसी स्टेशन पर दो टिकट कलेक्टरों ने भी उसे दबोचने का प्रयास किया था. शिक्षित होने के कारण उन बदमाशों को चकमा देने में वह सफल होती है.

स्त्रियों ने महसूस किया कि रेल से यात्रा करना बहुत जोखिम भरा है. अत: जब 12 नवंबर 1938 को मध्य प्रांतीय एसेम्बली की डिप्टी स्पीकर श्रीमती अनुसूया बाई काले की अध्यक्षता में ‘बिहार प्रान्तीय महिला–सम्मेलन’ हुआ तो दूसरे दिन की कार्रवाई के एक प्रस्ताव में कहा गया कि ‘यह सम्मेलन रेलवे अधिकारियों को सलाह देता है कि –
(1) रेलगाड़ियों के तीसरे और ड्योढ़े दर्जे के डिब्बों की खिड़कियों में लोहे के छड़ लगा दिये जाएं.
(2) महिलाओं के ड्योढ़े दर्जे के डिब्बों की भीतर सिटकनी अच्छी तरह लगा दी जाएं.
(3) प्रत्येक स्टेशन पर गाड़ी के पहुँचने पर महिला यात्रियों की सुविधा और हिफाजत के ख्याल से स्टेशन का नाम ज़ोर ज़ोर से पुकारकर सुना दिया जाएं.
(4) टिकट देखने के लिये भारतीय महिलाएँ नियुक्त की जाएं.
(महिला, दिसम्बर 1938)
आजाद भारत में भी महिलायें इस समस्या से निजात न पा सकीं. सितम्बर 1947 में बनारस से जब सुभद्रा कुमारी चौहान – कु० हरदेवी मलकानी ने ‘नारी’ नामक पत्र निकाला तो उसकी संपादकीय टिप्पणियों में एक टिप्पणी ‘आतताइयों से आत्मरक्षा तथा स्त्री सैनिक संगठन’ शीर्षक से लिखा :
“हरेक गाँव, नगर अथवा मुहल्ले की महिलाओं को स्त्री सैनिक संघ बनाने में योगदान देना चाहिए. ये महिला-सैनिक संघ महिलाओं को शरीर रक्षा के सब साधनों से अवगत करायें. महिलाएं भी तलवार, बन्दूक, छुरा व लाठी चलाने के प्रयोगों के सीखने को अग्रसर हों. साथ ही हम भारत सरकार से अपील करती हैं कि आतताइयों और गुंडों से रक्षा करने के लिए जनता को विशेषकर महिलाओं को छुरा, तलवार, बन्दूक आदि कोई अस्त्र रखने की आज्ञा दी जाए जिससे वे अपनी रक्षा विपत्ति से स्वयं कर सके. भारतीय सरकार से हमारी अपील तथा प्रार्थना है कि वे प्रत्येक नगर व ग्राम में महिला सैनिक संघ खुलवाने में अपना सहयोग दे. रेलों में स्त्रियों पर गुंडों के आक्रमण की कई घटनाएं सुनी व देखी गई हैं. अतः सरकार को रेलों के जनाने डिब्बों में सब प्रकार द्वारा सुविधाएं प्रदान करने तथा उनकी रक्षा के लिए पुलिस आदि का पूरा आयोजन हो.”
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने ‘इतिहास’ में नाटकों का विवेचन करते हुए एक मजेदार बात कहते हैं. आधुनिक हिन्दी नाटकों में मृत्यु, वध, आत्महत्या आदि जैसे दृश्य आने लगे थे. आचार्य शुक्ल परंपरा से छेड़छाड़ के विरुद्ध थे. उनकी दृष्टि में नाटक एक पवित्र विधा है. इसलिए उसमें कुरुचिपूर्ण दृश्यों से बचने की वे सलाह देते हैं. नीचे उद्धृत अंश को पढ़ने से ऐसा लगता है कि रेलवे स्टेशनों पर होने वाले कुकर्मों की उन्हें जानकारी थी :
“देश की परंपरागत सुरुचि की रक्षा के लिए कुछ व्यापार तो हमें आजकल भी वर्जित रखने चाहिए, जैसे चुंबन, आलिंगन . स्टेशन के प्लेटफार्म पर चुंबन, आलिंगन चाहे योरप की सभ्यता के भीतर हो, पर हमारी दृष्टि में जंगलीपन या पशुत्व है.”
हिन्दी नवजागरणकालीन साहित्य के विश्वसनीय अध्येता. अब तक तीन किताबें प्रकाशित. ‘वर्तमान साहित्य’ के नवजागरणकालीन स्त्री कविता का अतिथि संपादन. इन दिनों ‘जात पात तोड़क’ और ‘कलवार केसरी’ पर काम कर रहे हैं. ई-मेल : sujeetksingh16@gmail.com |
शुक्रिया सुजीत भाई यह लेख लिखने के लिए। ऐतिहासिक महत्ता वाला लेख।
धन्यवाद
बहुत महत्वपूर्ण। सुजित कुमार सिंह ने लिखा भी बहुत अच्छा है।
उन दिनों की कहानियों और रिपोर्ट की भाषा का भी कुछ विश्लेषण इसमें शामिल करते तो इसमें और भी गहराई आ सकती थी।
दिलचस्प है कि 1929 की खबर में साफ साफ बलात्कार शब्द इस्तेमाल हुआ है। कहानियों में सतीत्व हरण जैसी शब्दावली है।
कहानियों में स्त्री और पुरुष कहानीकारों के दृष्टिभेद को लेखक ने सही पकड़ा है। शिक्षा को ही स्त्री की विरोध शक्ति और चेतना का श्रेय देना कहां तक उचित है, इसे रहने देते हैं। उस ज़माने में स्त्रियों में शिक्षा के प्रसार के लिए यह ज़रूरी भी रहा होगा।
मुझे इससे पता चला कि उस ज़माने में भी अखबारनवीस बलात्कार को बलात्कार कह सकते थे, संपादकों ने इसे स्वीकार भी किया जबकि 1980 के दशक में हमें इस शब्द के प्रयोग के लिए काफी आलोचना झेलनी पड़ी और हिंदी के तो कथित प्रगतिशील अखबार भी इज्ज़त लूट ली गई जैसी शब्दावली का सहारा लेते थे।
लेखक को बधाई
स्त्री सुरक्षा के जुड़े महत्वपूर्ण मार्मिक प्रसंगों को बड़े ही दिलचस्प शैली में आपने लिखा है। साधुवाद
यह आलेख शोधपरक साहित्यिक पत्रकारिता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
स्त्री यात्रियों को रेलयात्रा के दौरान होने वाली तकलीफ़ें, जनाना डिब्बों की खूबियों-कमियों की बातें, शोहदों के उत्पात , सुरक्षा और सुविधाओं में सुधार के सुझाव , और इन सबके बावजूद स्त्री-पुरुष-परिवार में रेलयात्रा की सहज स्वीकार्यता … आलेख में कहानियों के जरिए स्पष्ट किया गया है कि नवजागरणकालीन भारतीय समाज वैचारिक दृष्टि से परिवर्तन के लिए स्वयं को तैयार कर रहा था।
दरअसल उस दौरान प्रैस के साथ-साथ रेल ने भी भारतीय समाज की अंदरूनी जड़ता को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसने जातिप्रथा के बंधनों को ढीला करने की जरूरत समझाई तो स्त्रियों की मोबिलिटी को भी संभव बनाया। यही वह तत्व है जिस कारण स्वयं स्त्रियों ने भी पर्दा प्रथा, अशिक्षा और परनिर्भरता के खिलाफ लड़ाई शुरु की। कहने की जरूरत नहीं कि शिक्षा के प्रसार के साथ स्त्रियों की स्थिति बेहतर ही नहीं हुई, बल्कि वे आत्मनिर्भर निर्णयसबल ‘मनुष्य‘ भी बनीं और स्वतंत्र भारत के लिए स्त्री-संवेदी समाज और संविधान बनाने की जरूरत को भी रेखांकित करने लगीं।
बेशक वैचारिक क्रांति धीमे-धीमे सतह पर आती है, लेकिन साहित्यिक कृतियों के जरिए जिस तरह अनायास उन आहटों का दस्तावेजीकरण कर दिया जाता है, उससे एक लंबे वक्फे के बावजूद अपनी विरासत को जानना संभव हो जाता है।
आलेख में लेखक ने उन तमाम कहानियों को लिया है जो उस समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एजेंडे -स्त्री शिक्षा – पर बल देती हैं, और स्थितियों का सरलीकरण करते हुए शिक्षित बनाम अशिक्षित स्त्री की बाइनरी बनाती हैं।लेकिन उर्दू लेखिका रशीद जहां ‘ दिल्ली की सैर‘ कहानी में जिस तरह पुरुष समाज के मिसेजिनिस्ट चरित्र को सामने लाती हैं, वह पितृसत्ता की बुनावट को भी स्पष्ट करता है और नैरेटर/नायिका के रूप में लाजवंती स्त्री की बजाय खुदमुख्तार स्त्री को भी सामने लाता है।
अच्छे लेख के लिए लेखक और समालोचन को बधाई।
पढ़ते हैं।रेल एक अचरज थी। यह लिखे में कई तरह से आई। उसके दूसरी तरफ धूसर हिंदुस्तानी खड़ा था।
दुलाई वाली कहानी में जनाना डब्बे का हाल है।तांगे इक्के पर भी पर्दा बांधा जाता था।
औद्योगीकरण की उठान सब जगह एक सी नहीं थी। औपनिवेशिक भारत में तो यह जीवन की सादा निहत्थी मासूमियत को हक्का बक्का करती दिखाई देती थी।
बहुत ही शोधपरक लेख लिखा है आप ने । इस शोधपरक लेख के माध्यम से आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व भारतीय रेलों से स्त्रियों की यात्रा, उस यात्रा में उनके साथ होने वाली असुविधा, छेड़-छाड़, बलात्कार का यथार्थ चित्रण यहाँ है । उस दौर में स्त्रियों की रेल यात्रा का एक बिम्ब आपने हमारे सामने रख दिया है । स्त्रियों के जीवन पर शिक्षा और अशिक्षा के प्रभाव को एक कहानी के माध्यम से बारीकी से बताया है । इस शानदार लेख के लिए आप को बहुत बहुत बधाई !