पुत्री का प्रेमी |
इशिका के कमरे के दरवाज़े से हौले से निकलकर वह हमारे पास ड्राइंग-रूम के सोफे के दूसरे कोने पर अभी आकर बैठा है. हम दोनों टकटकी लगाकर कौतूहल से उसकी तरफ देख रहे हैं. सोफे पर पड़ते ही उसने आँखें मूंद ली हैं, गर्दन सोफे की सीट के पीछे की तरफ लुढ़का ली है. उसका चेहरा अजीब तरह से बे-रौनक और उजड़ा लग रहा है. किसी ध्यानावस्था में बंद उसकी आँखें, सांसों के तेज-तेज चलने से हिल-डुल सी रही हैं. उसके भीतर जरूर कोई घमासान मचा होगा जो सुना है उम्मीद, – नहीं, आखिरी उम्मीद, टूटने पर होता है. कभी बीच में वह उच्छवास लेता है- पता नहीं क्या कुछ बरामद करने की कोशिश में.
कुछ देर बाद मैंने उठकर उनके पास जाने की कोशिश की तो शिल्पा ने हाथ के इशारे से मुझे रोक दिया. कमरे के वातावरण में एक अजीब सन्नाटा पसर आया है जो हर पल और मनहूस होता जा रहा है. इसी दरम्यान इशिका ने अपने कमरे की सिटकनी लगा ली होगी क्योंकि सन्नाटे की निस्तब्धता में एक ररकती ‘टिच्च’ की आवाज़ ने खलल डाला है. उसके कमरे से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही है.
डेढ़ साल से ये दोनों, यानी इशिका और राघव संबंध में रहे हैं. पिछले हफ्ते-दस दिन में पता नहीं क्या हो गया कि… ये लोग कुछ बताते भी तो नहीं है.
“राघव!”
शिल्पा ने कुछ पलों बाद हल्के से इरादतन उसका नाम उचारा है.
उसने सुन लिया है फिर भी आँखें बंद ही रखी हैं. हल्की दाढ़ी की थोड़ी ओट के बावजूद चेहरे पर कुछ लकीरों ने झिलमिल हरकत की है.
“क्या हुआ बेटा?”
शिल्पा ने अपने चिंतातुर स्वर को इस बार वहीं बैठे जरा कसा भी है.
इस बार राघव ने हल्के से रिएक्ट किया है, हालांकि बे-आवाज़: निर्जीव देह को टहोका-सा देकर कमर सीधी की है.
आँखें भी खोली हैं. दोनों हथेलियां से उन्हें बेतरतीब मला है. एक उड़ती सी जम्हाई ली है.
“आँटी, आइ ट्राइड. बट फेल्ड… सो एडामेंट… गॉड.”
कहते हुए उसकी आवाज़ रोआँसे में दरक गई है.
“बेटा अभी तक तो सब ठीक चल रहा था. हम तो बल्कि सोच रहे थे कि… अभी ये अचानक और ऐसा क्या हो गया?”
चिंता जताते हुए मैंने उसे दिलासा देने की चेष्टा की है.
वह उसी तरह खामोश पड़ा है. शांत और खामोश.
खामोश से अधिक निचुड़ा और जर्जर.
उसकी आँखें सामने नहीं, कहीं भीतर देख रही हैं– थिर और डबडबाई… हार और हैरानी से बेढब, पस्त और मृतप्राय.
दो रोज पहले, शाम को घर लौटते ही इशिका ने सीधे हमारे कमरे में आकर- जब हम दोनों किसी आपसी हसबेमामूल मसले पर फिजूल सी जिरह कर रहे थे– अपने दो टूक निर्णय की सूचना दी थीः पापा, इट्स ओवर.
“क्या… क्या मतलब” मैं अकबकाते हुए चौंका.
उसे विषय बताना भी गैर जरूरी लगा.
शिल्पा फुर्ती से उठकर उसके पास गई और परवाह से सहलाकर पूछने लगीः “इशू बच्चे, क्या हुआ?”
“ममा प्लीज डोंट आस्क. इट्स ओवर, एण्ड फोर गुड.”
आवाज़ के तेवर में निर्णय की सख्ती गर्म रेत सी झर रही है.
कहकर उसने हमारे कमरे का दरवाज़ा धड़ाम से बंद कर दिया और अपने कमरे में जाकर अंदर से दरवाज़े की सिटकनी लगा ली. मैंने उठकर दरवाज़े पर अयाचित दस्तक दी और मनुहार से खैर-खबर लेनी चाही तो, भीतर से जवाबन उसकी सख्त चीख मुझ तक छनकर आईः “पापा, कैन यू प्लीज लेट मी बी…”
उस शाम वह खाना खाने भी बाहर नहीं निकली.
जवान लड़की देर तक अपना कमरा लॉक किये रखे, बात का जवाब न दे तो डर लगता है.
और यह आये दिन लगता है.
आजकल कितने केस हो रहे हैं, जरा-जरा सी बातों पर. फिजिशियन से ज्यादा काउंसलर जरूरी हो गये हैं. अब उनके भी प्रकार हो गए हैं… बिजनेस, स्टडीज, रेलेशनशिप्स या पता नहीं और क्या-क्या.
पता नहीं ये पीढ़ी हम से- या खुद से- चाहती क्या है.
डेढ़ साल पहले ये दोनों मिले थे. इशिका का रात को घर आना और देरी से होने लगा. वह फैशन डिजाइनर है. क्लाइंट मुताबिक चलना पड़ता है. देर रात पार्टियां-शोज होते रहते हैं. लेकिन जब यह आए दिन और कुछ ज्यादा होने लगा तो मुझे पूछना पड़ा. ठीक है कि मेन डोर की चाबी उसके पास भी रहती है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि हम घोड़े बेचकर सो जाएं. मैं तो सो भी जाता हूँ मगर शिल्पा की नींद तो उड़ी ही रहती.
राघव का घर आना पहले टोली के दूसरे नए-पुराने मित्रों के साथ हुआ. वह हम दोनों को ही बड़ा प्यारा-सा लगा. ठीक-सी कद-काठी और बोल-चाल में विनम्र. वही था जो ‘हाय अंकल, हाय आँटी’ के बजाय हमें अदब से ‘नमस्ते’ करता था. कुछ नियमित आवाजाही के बाद उसने अपने काम के बारे में भी बताया– रिमिक्स मेटीरियल- जिसे उसके दायरे में आर.एम.एम कहते हैं- की ट्रेडिंग का… मुंबई और दूसरे तमाम शहरों में लगातार हाई-राइजिज आ रही हैं. वो ऐसे ही नहीं खड़ी हो जाती हैं. उनके बनने में टेक्नोलॉजी का बड़ा सपोर्ट रहता है. बाहर से देखने में लोगों को क्रेन्स, बुल्डोजर, लोडर, कांक्रिट-मिक्शर और फोर्क-लिफ्ट ही नजर आते होंगे (यदि आते होंगे) लेकिन इतनी ऊंची और महंगी इमारतों का पुख्ता होना भी जरूरी है जो पुराने ढंग से नहीं हो सकता है. उसके लिए रीमिक्स मेटीरियल चाहिए जो इतनी बड़ी बिल्डिंग को मजबूती दे, उसे नमी-गर्मी के लपेटे से बचाए. ऐसे केमिकल्स तैयार करने के लिए लगातार रिसर्च होती है. इस मामले में जर्मनी और इजराइल बहुत आगे हैं. उनके साथ मिलकर हमारे यहाँ की कंपनियां सहयोग करती हैः संसाधन इनके, टेक्नोलॉजी और नो-हाऊ उनकी….
वह अपने व्यवसाय की पता नहीं किस-किस पगडंडी पर मुझे शौक से ले जाता दिखा. मैं तो किसी काम से उठ खड़ा हुआ मगर उसकी बातें- और वह- बड़े जेनुइन और जमीनी लगीं. फिर भी इशिका के पिछले संबंधों की छाया में मुझे अपना मुँह बंद रखना ही ठीक लगा. माता-पिता के फर्ज और गहराती चिंता के चलते आप कुछ पहल करने लगे तो इन दिनों उसके उलटे होने की संभावना बढ़ जाती है.
क्या पारिवारिक सत्ता-समीकरण का टायटैनिक किसी सुदूर, विपरीत छोर से जा टकराया है?
मगर इस दफा बात उसी ने चला दी- अपनी माँ के हवाले से:
ममा, आपको राघव कैसा लगता है?
मैं क्या कह सकती हूँ बेटा, तुम्हारा फ्रेंड है.
अरे, आप उससे मिलती तो हैं ना?
बेटा, मैं उससे कितनी देर मिलती हूँ? जब कभी वह घर आता है आप लोग स्विगी या यहाँ-वहाँ से ऑर्डर करा लेते हो और बाल्कनी में जाकर तो बैठ जाते हो. मैं इतनी देर में उसे कितना जान या पहचान लूंगी?
फिर भी ममा, एक आइडिया तो लग जाता है ना.
आइडिया गलत भी हो सकता है बेटा.
शिल्पा जानती है कि इशू अपनी राय को हमसे, फिलहाल अपनी माँ से, अनुमोदित- स्वीकारे देखना चाहती है.
कितना क्यूट है ना राघव!
हाँ. है तो.
आपने उसकी आइलैसिस देखीं?
हम्म, थोड़ी-बहुत.
कितनी चार्मिंग हैं ना… कर्ली-कर्ली.
लेकिन इंसान होना ज्यादा मायने रखता है.
इंसान का तो मैं आपको क्या बताऊं… ही इज सो कूल, सो डिफरेंट…
लेकिन तुम्हें प्यार करता है?
बहुत.
और तुम ?
ऑफ कोर्स ममा. लेकिन थोड़ी कंफ्यूज्ड हूँ, इसलिए आप से पूछ रही हूँ.
पापा से भी पूछ लेना.
पापा तो मना करने वाले हैं ही नहीं. उन्हें तो वह अच्छा लगता है. दोनों खूब बातें करते हैं. अपने बिजनेस का मुझसे ज्यादा उसने पापा को बता रखा होगा.
तुमने पूछा था?
सीधे नहीं, लेकिन बातों-बातों में.
लेकिन मेरी या पापा की राय से ज्यादा इम्पॉर्टेंट तुम्हारी अपनी राय है.
मम्मा, मुझे वह अच्छा लगता है. केयरिंग है मगर…
मगर क्या?
डर लगता है.
किस बात का?
ज्यादातर लड़के झूठ बोलते हैं, प्रिटेन्ड बहुत करते हैं आई मीन….
वह तो आजकल सब करते हैं बेबी… गर्ल्स क्या कम होंगी… तुम्हारी इतनी फ्रेंड्स हैं, ज्यादातर क्या हैं? तुम्हीं तो बताती हो. पूरा सोशल मीडिया आजकल इसका धंधा करता है.
ममा प्लीज, जो पूछा है उसे बताओ ना. डोन्ट डायग्रेस और स्प्रैड द नैट… आप हमेशा ये ही करती हो.
टेक योर कॉल… आई हैव नथिंग अगेंस्ट हिम… एज सच, ही सीम्स ए गुड पर्सन….
इशू चुप हो गई और कुछ सोचते हुए थोड़ी देर बाद अपने कमरे में चली गई. कोई आधे घंटे बाद जब एक बड़े गुलदस्ते के साथ राघव ने घर पर दस्तक दी तो हम समझ गए कि इशू ने क्या तय किया है.
इशिका इकतीस की हो चुकी है. इन दिनों लोग कहते हैं कि थर्टी इज न्यू ट्वंटी फाइव. पिछले नौ-दस बरसों से वह किसी न किसी संबंध में रहती आई है. कुछ तो कब आए कब गायब हो गये, याद करना मुश्किल है. लेकिन तीन ऐसे भी रहे जो कई-कई बरस चले. शुरू में मुझे उनका घर आना–जाना और देर तक एक दूसरे के साथ उलझे रहना अच्छा नहीं लगता था. वह मेरे बर्ताव में भी झलकता था. फिर जब इशू की सहेलियों की बातें सुनने को आतीं तो मेरा भी मन बदलने लगा. शिल्पा तक ने मुझे बताया कि बड़े क्या दूसरे शहरों में भी लड़के-लड़कियां का इस तरह मिलना-जुलना अब जमाने के चलन में आ गया है. इस तरह मिलने-जुलने से ही तो वे एक-दूसरे का समझेंगे. आगे चलकर पछताने से तो अच्छा है न कि जितना हो सके पहले से एक-दूसरे को जान-समझ लें. लेकिन मैं देख रहा हूँ कि इन संबंधों का एक अर्ध-चन्द्राकार ग्राफ होता है… पहले चीजें खूब हरी-भरी और चहकती चलती हैं, एक खुमारी की तरह दिन-रात साथ रहना, खाना-पीना, गिफ्ट्स, लैपटॉप पर शोज देखना, ट्रेवल, पार्टीज, सोशल मीडिया पर अपलोड्स और पता नहीं क्या-क्या. फिर चीजें ढलने लगती हैः जैसे उनकी मियाद हो गई हो. और ऐसे ढलती हैं कि सीधे शून्य पर… नहीं, शून्य से भी नीचे जाकर क्योंकि फिर एक लंबा और जिद्दी पोस्ट ब्रेक-अप ट्रॉमा आवारा ढिशुम-ढिशुम मचाता है… बात-बेबात झगड़े, ब्लास्ट से पहले टेंम्प्रेरी पैच-अप, कॉल-ब्लाकिंग, मीडिया क्लींसिग, काउंसलिंग.
सब्र तो किसी को होता नहीं है.
इनकी सारी आधुनिकता यहीं आकर सिमट जाती है. मुझे दुख इस बात का है कि ढलान की प्रक्रिया में हम माँ-बाप कहीं नहीं आते. वैसे ढलान क्या, कहीं भी नहीं आते.
इससे और डर लगता है क्योंकि सारे क्लेश, कलुषता और दर्द को वे श्मशानी चुप्पी में बंद कमरे के भीतर सहते हैं.
राघव का मामला अलग था. वह जब भी घर आता, अक्सर हमसे भी तमाम तरह की बातें कर लेता… हमारे पसंदीदा खाने, घूमने-फिरने के ठिकाने (और उन ठिकानों की खासियतें) देशी-विदेशी फिल्में. किताबों का शौक न उसे था न हमें. वह केवल इशू को है सो वह अपने हिसाब से किताबें गिफ्ट करता जिस पर इशिका उस पर कभी तंज कसती कि किताबें कपड़े-गहने नहीं होती हैं कि जो रंग-आकार ठीक लगे तो खरीद लो, दे दो. उन्हें पढ़े जाने की एक निजता, एक सतत अंतर्निहित तलाश और प्यास होती है. एक पुकार या सिलसिले से बंधी, एक परत के साथ दूसरी खुलती और जोड़ती. किताबें ‘ट्रेन्ड’ की जाने वाली शय नहीं होती हैं डियर.
“अंकल आपको पता है गाय कितने तरह की आवाज़ें करती है?
कॉलिज के दिनों के एक स्टडी टूर की बात करते हुए उसने खाने की मेज पर शिल्पा की बनाई अपनी मनपसंद स्ट्राबेरी स्मूदी को पीते हुए उसने बातों-बातों में पूछा.
हम दोनों ने मुँह बिचका दिए. उसने इसरार में अंदाजा लगाने की छूट दी तो शिल्पा ने ‘आठ’ कहा तो उसने खुलासे में कहाः पचपन. हम जाहिरन हैरत में पड़ गये. फिर उसने कुत्तों की आवाज़ के बारे में अंदाजा लगाने को कहा. हम चुप रहे तो उसने उत्तर में बताया ‘डेढ़ सौ’. उसने कबूल किया कि ये प्रमाणिक या गूगल आधारित जानकारी नहीं है. उसे यह अपने एक अध्यापक से मिली जिन्हें जीव-जंतुओं के जीवन की अनूठी बातों में बहुत रुचि थी. फुर्सत मिलने पर भरी कक्षा में वे छात्रों के बीच ऐसे रोचक प्रसंग जब-तब साझा किया करते थे. उन्हीं के साथ कुछ विद्यार्थियों ने असम के एक गाँव को गर्मियों के एक प्रोजेक्ट के लिए चुना था. वहाँ जाकर सबसे पहले यही लगा कि अपना देश कितना विशाल, अद्भुत और विचित्र हैः लोग, धरती, जंगल, हवा, पानी सब कितनी विविधता और सुंदरता लिए हुए हैं.
पूरब से पश्चिम इतना कुछ अलग होने के बाद भी सब कितना अपना-सा. वहाँ आसपास जंगलात थे मगर वह सब वन विभाग की निगरानी में नहीं था, वजह कुछ भी रही हो. गाँव के पास में खूब जंगल फैला था जिसमें हाथियों की खूब तादाद थी. गाँव के लोग हाथियों से परेशान थे क्योंकि हाथियों का झुंड जब-तब उनकी खड़ी फसल को नष्ट कर डालता. वे फितरतन आधा खाते, आधा रोंदते. पुलिस को शिकायत की तो पुलिस वाले सुनकर हंसते: कायदे-कानून सभ्यों के लिए है; जो जंगली है उसके लिए नहीं. इससे बचाव के लिए गाँव वालों ने अपना ही रास्ता निकाला- घात लगाने का. जंगल के जिस ओर से हाथी खेतों की तरफ आते, वहीं उन्होंने एक-दो बड़े गड्ढे खोद दिए और उन्हें बांस के सहारे घास से यूं ढँक दिया कि किसी को– या कम से कम हाथियों को- यह न लगे कि नीचे गड्ढा खोद रखा है. दो रोज पहले ऐसे ही एक गड्ढे में एक जबरिया हाथी गिर पड़ा था. मैं यह बात आपको हाथियों की आवाज़ों से प्रकार की बाबत बता रहा हूँ. हमारे टीचर जी के मुताबिक हाथी, मोटा-मोटी बीस-बाईस तरह की आवाज़ें करते हैं. गड्ढे में गिरा-फंसा हाथी जिस तरह दिन भर तरह-तरह से चिंघाड़ता था, वे सब आवाज़ें उन संभव बीस-बाईस में आती थीं.
कहते हैं बिना खाए या पिये हाथी एक सप्ताह जिंदा रह सकता है लेकिन वह हाथी पाँचवें दिन ही मर गया- हमारे सामने ही, क्योंकि हम लोग एक सप्ताह से वहीं थे. जिस दिन वह मरा, उसकी आवाज़ हमने तो क्या हमारे टीचर (जैसा उन्होंने बताया) ने भी नहीं सुनी थी… हताशा, बेबसी और भूख की घुली-मिली तड़प से पिघलता-रिसता ऐसा करुण रुदन जो धीमे-धीमे मंद होती कराहट में भी आत्मा को चीरता जाता था… जिस्म के पोर-पोर से रूंधकर, बाहर आने से पहले जो पहले उसकी छाती और कंठ में लिथड़ता था और फिर कानों के रास्ते हमारे दिलो-दिमाग में. मृत्यु का पूर्व-राग जैसा पता नहीं कुछ होता है या नहीं लेकिन उस विलंबित टेर में उसकी आसन्न उपस्थिति और मुक्त करने की कूवत पलछिन महसूस की जा सकती थी…
हम तो प्रोजेक्ट पूरा करके वहाँ से लौट आए. गाँव वालों ने पता नहीं बाद में उसका क्या किया, कैसे किया, पता नहीं.
खाने की मेज पर बैठे ऐसी बेतकल्लुफ़ बातें अक्सर होती रहती थीं
“हाऊ इन्टरेस्टिंग एण्ड टचिंग!”
इशिका ने आधी कहानी सुनकर ही अपनी राय पेश कर डाली.
“एक जीव की मृत्यु जिस लड़के के जेहन पर इस तरह अंकित हो, वह कुछ भी हो, बुरा तो नहीं हो सकता है.”
उस दिन राघव के जाने के बाद शिल्पा ने मुझसे उसका अपना आकलन पेश किया.
“वो तो ठीक है लेकिन जिस तरह का लाइफ स्टाइल तुम्हारी लाड़ली मेंटेन करती है, क्या वह उसे अफोर्ड कर लेगा?” मैंने आशंका जताई.
अपने पेशे में ठीक-ठाक आगे बढ़ते रहने के बावजूद, बात चलने पर कभी इशू ने फरमाया था कि ‘आई वुड लाइक माइ मैन टू टेक केयर ऑफ मी, टु पैमपर मी”.
“तुम दिन-रात पैसा-पैसा करते रहते हो, इसलिए सबको उसी नजर से देखते-तौलते हो. व्यक्ति का अच्छा इंसान होना जरूरी नहीं है? क्या पैसा कमाने के अलावा आदमी और कुछ नहीं होता? तुम जो पैसा कमाने में लगे रहते हो, स्टोर के अलावा स्टॉक्स में लगाने के साथ और दूसरे इन्वेस्टमेंट करते रहे हो, उससे ऐसा क्या कर लिया या बन गए? जो थे वही हो या कुछ और हो गए? ठीक है, पैसा भी जरूरी है लेकिन ये क्या बात हुई कि उसके सिवाय दूसरे में कुछ दिखे ही नहीं”.
मैंने जरा सा कुछ क्या कह दिया कि मैम साब ने मेरा सर्वस्व ही घेर दिया. मुझे मालूम था इस मामले में जिरह मेरे खिलाफ ही तय होती है. इशिका की चिंता आड़ ही रही होगी.
“अरे बाबा ये मेरी नहीं इशू की भी तो सोच है. राघव चाहे नहीं हो लेकिन अभी तक इसी के आसपास तो बात बिगड़ती रही है कि नहीं? मेरा क्या है, वह जो मर्जी करे. जिसे साथ जिंदगी निभानी है, उसकी बात मायने रखती है”.
“तुम और तुम्हारे जैसे तमाम लोग कितनी आसानी से अपनी सोच की संकीर्णता को अपने बच्चों की खुशी और भविष्य की आड़ से ओढ़ा देते हैं. तुम काम करते हो, बाहर दस तरह के लोगों से रोज मिलते हो फिर भी, है ना अजीब बात कि, वैसे के वैसे बने हुए हो”.
वह मानो पूरा चिट्ठा खोलने के मूड में है. मैं झेंपकर बात बदलता हूँ.
“यार ये समय मेरे-तुम्हारे ख्यालों के सही या गलत होने का नहीं है. तीन दिन से देख रहा हूँ, इशू गुमसुम और उदास रहती है. कुछ कह-बोल नहीं रही है. उधर राघव के मेरे पास कितने मिस्ड कॉल पड़े हैं. लंबे-लंबे मैसेज अलग करता है. परेशान है. रिरियाता है. पता नहीं क्या चाहता है. मुझे लगता है कि वह सही बच्चा है, उसका ख्याल रखेगा”.
“तुमने उससे क्या कहा?”
राघव के जिक्र से उसका मिजाज एकाएक बदला.
“मेरे कहने से क्या हो जाएगा? जब तुम्हारी लाडली ही हाथ नहीं रखने दे रही है. क्या उसने तुम्हें कुछ बताया कि किस बात पर बिगड़ी है?”
एक नैराश्य मेरे तालू से चिपकता चला आ रहा है.
“नहीं, मुझे भी नहीं. उम्र के साथ इसमें एक अजीब जिद्दीपन आता जा रहा है. अपने मामलों में सीक्रेटिव होने लगी है जबकि पहले ऐसा नहीं था. कहती है यह उसका निजी फैसला है और हमें इतना स्पेस तो उसे देना होगा… वर्ना वह मूव-आउट कर जाएगी…”
“मध्यवर्गीय परिवार के अंदर ये निजी स्पेस एक नई बला आ गई है. प्रोफेशनली ये जेनेरेशन जितना नए से नया और अच्छा कर रही है, निजी स्तर पर उतनी ही वलनरेबल और दिशाहीन है.
खैर, कल मिलने को हाँ कह दी है. बाहर ही कहीं…”
“अंकल, जब मैं स्कूल में था, आठवीं क्लास में, तभी मुझे लगने लगा- और बतला भी दिया गया- कि मैं दूसरों के मुकाबले ही नहीं, अपने आप में एक चैलेंज हूँ. लेकिन उससे क्या? हमारे यार-दोस्तों की पूरी टोली ही ऐसी थी. घर पर भी कोई माहौल नहीं था कि कुछ कर दिखाना है, आगे बढ़ना है. और होता भी क्यों जब हम सबको अपने बाप-दादाओं के जमे-जमाए धंधे- हम मारवाड़ी लोग जिस गादी कहते हैं- पर बैठना था. हम लोग स्कूल यूं ही, मतलब घूमने-फिरने की तरह जाते थे. जब गए गए, जब नहीं गए नहीं गए. वहाँ जाते थे क्योंकि छोटे थे, धंधे पर बैठने लायक नहीं थे. इम्तिहानों के टाइम पर थोड़ी टेंशन रहती थी लेकिन खींच-खांचकर पास हो जाते थे. स्कूल ही अपना रिजल्ट ठीक रखने के लिए लिबरल रहता होगा. कभी सपली आई तो खींच-खांचकर निकाल देते. ऐसे ही ग्रेजुएशन हो गया. उन्हीं दिनों मेरे भीतर कुछ हार्मोनल गड़बड़ियां हुईं. दिन भर घर में पड़ा रहता. खेलना-कूदना तो खैर पहले भी नहीं था लेकिन अब तो आलस्य घेरे रहता. यह कोई चारेक साल चला. इस पीरियड में मेरा वजन बीस किलो बढ़ गया होगा. छाती भारी रहती. घर वालों की फिर भी नहीं लगा कि डॉक्टर को दिखाएं. मुझे ही बाहर निकलने में शर्म आती. पहले जितने दोस्त थे, अब आधे रह गए. जिंदगी अपनी तरह से सबक सिखाने लगी. लेकिन मैं सदा का फिसड्डी, कब कुछ सीखने वाला था? सीखने की पड़ी ही नहीं थी. मेरी बहन भी ज्यादा नहीं पढ़ी थी. उसे छोटे बच्चों को पढ़ाने का शौक था. वह उनके लिए सोसाइटी में घर से ही एक लायब्रेरी चलाती थी. शादी के बाद बिजनेसमैन जीजाजी ने उसे बंद कर दिया. उसने लायब्रेरी बन्द कर दी. और कोई अफसोस भी नहीं!
मैं आपको अपनी कहानी बहुत छोटी करके ही बता रहा हूँ, इसलिए नहीं कि आप मुझे बेहतर समझेंगे बल्कि इसलिए कि आप तसल्ली से सुनते हैं. मुंबई में कोई किसी को सुनता कहाँ है? सारे पेरेंट्स की तरह मेरे पापा-मम्मी मुझे प्यार तो करते थे लेकिन उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि काम-धंधे के अलावा भी जीवन होता है. और न ही मैं सोच पाया. माहौल ही ऐसा रहा. इसकी मार मुझे तब बेतरह पड़ी जब पापा को भरी दोपहरी दिल का दौरा पड़ा. वे बच तो गए लेकिन कुछ करने लायक नहीं रह गए थे. मेरे दादा भी उसी दुकान पर बैठते थे. उन्हें भी दिल का दौरा पड़ा था. मम्मी ने उन्हें भी देखा था. वे तो बच भी नहीं पाए. और उन्होंने क्या किया? पुरानी चॉल से निकलकर पहले बड़ी चॉल और फिर एक फ्लैट! यानि सिर पर एक छत के लिए पूरा, बल्कि दो पूरे-पूरे जीवन. इसलिए मम्मी ने साफ कह दिया कि मैं चाहे कुछ करूं या ना करूं, शेयर बाजार की उस खानदानी कुर्सी पर नहीं बैठूंगा.
मैं क्या करने लायक था? कुछ नहीं. कुछ भी तो नहीं! कुछ करने लायक होने के ख्याल ने कभी तंग ही नहीं किया. जब मजबूरी हुई तो दिन में तारे दिखने लगे. मैंने इतनी तरह के फुटकर काम किए हैं कि बताने में शर्म लगती है. कभी किसी एजेन्सी की ग्राहक सर्वे टीम के लिये डेटा इकट्ठा करने का काम किया तो कभी सीधे सेल्समैनी. साऊथ मुंबई में घर होने का मतलब ये नहीं कि वहाँ सब की चांदी होती है. हमारे कितने अड़ोसी-पड़ोसी वाल्केश्वर का घर बेच-बाचकर मलाड-बोरीवली चले गए. मैंने तो चायनीज़ माल भी बेचा है. बाद में मैं एक बिल्डर के यहाँ जा चिपका- सेल्समैन की तरह. लेकिन बाप रे, मुंबई में प्रॉपर्टी बेचना कितना मुश्किल है! लोग इंक्वाइरी सौ करेंगे और कमिटमेंट जीरो. आठ महीने के बाद निकाल दिया गया. इस लाइन के गौरखधंधों की भी खबर लगी. लेकिन वहीं से बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन के लिए रीमिक्स मैटीरियल की खरीद-बेच का जरिया निकला, जो मुझे अपने लिए ठीक लगता है. बहुत ग्रोथ की गुंजाइश नहीं लेकिन शेयर बाजार की तरह पटखनी खाने की गुंजाइश भी नहीं है.
आपसे क्या क हूँ अंकल, इशिका जब से मेरी लाइफ में आई, मेरी लाइफ बदल गई. इसलिए भी कि उसने मुझे अपनी लाइफ के बारे में चेताया है- सीधे भी और अपने काम के जरिए. उसी ने दिखाया कि हमारे भीतर कहीं कुछ अपना और खास होता है. हमेशा. औरों से अलग. अपने आप तो वह कम ही निकलता है लेकिन उसकी एक नर्म बे आवाज़ आहट होती है. हमें उसे सुनने की जरूरत होती है. और उसका जीवन इसकी मिसाल है. कौन लड़की होगी जो एम.बी.ए. करने के बाद फैशन डिजाइनिंग का रास्ता पकड़े और वह भी पूरे अपने दम पर. जो उसने किया. यही तो एक बात मुझे जानदार, इंसपायरिंग लगी. फैशन डिजाइनिंग को अभी तक मैं बहुत फालतू मानता था. अब नहीं, क्योंकि जान गया हूँ कि इसका एसेंस क्या है. यह हमारे सामान्य में क्या जोड़ती है और उसे खास बना देती है. मैं अब तक खुद को भूले–भुलाए बैठा था. इशिका ने मुझे नींद से जगाया है…आई सिंपली अडोर हर”.
रेस्त्रां में अपनी एक डिश खाने के बाद वह अपने अतीत, संघर्ष और मानस का पता नहीं क्या-क्या बतलाने निकल पड़ा था.
क्या हम इसके लिए मिल रहे थे? मुझे मुद्दे की बात समझने की ललक थी जिसकी वजह से इशिका ने एकतरफा ढंग से उसे निकाल फेंका था. और एक वह था जो पता नहीं मुझे कहाँ-कहाँ घुमाए जा रहा था.
मेरा वह कौन था? कोई नहीं. जो था इशिका का या उसकी वजह से था. जब इशिका ही उससे कुछ वास्ता नहीं रखना चाहती है तो हम आप ही आप तस्वीर से बाहर हुए ना.
क्या वाकई ऐसा था?
जब वह अपनी पारिवारिक स्थितियाँ और सीमाएँ बता रहा था, क्या मैं अपने उन दिनों में घूमने नहीं निकल पड़ा था जब- शिल्पा के जीवन में आने के बहुत पहले, बी.फार्मा करने के बाद– धारावी में तब खोली अपनी केमिस्ट-शॉप के बारे में अपने संभावित रिश्ते वालों को विनम्र होकर बताया करता था, जिसे एकाध को छोड़ सभी हिकारत या बेगाने ढंग से सुनते थे. उनका कोर सवाल यही हुआ करता थाः महीने की आवक कितनी हो जाती है. दुकान परचूरन की हो या दवाइयों की, उनके लिए एक ही बात होती. सुनकर मुझे मितली आती. लड़की के लिए पति ढूंढने चले हैं या एटीएम मशीन. एक ने तो यह भी जानकारी दी की उस इलाके में तो बीमारियों से ज्यादा दंगे होते हैं. मैं कहने को होता कि साब उसमें तो बिक्री और बढ़ती है!.
मेरे पिता की नौकरी छूट चुकी थी. जब शिल्पा के पिता ने वह सब नहीं पूछा-कहा, जो किसी कांटे की नोंक-सा जब-तब उसे चुभता रहा था, तो बिना मिले-देखे शिल्पा के प्रति एक आकर्षण और सम्मान पनपने लगा था. या फिर बी.फार्मा करना ही कौन सी मेरी या घर वालों की पसंद थी? मेरे औसत, या उससे भी कम, होने के कारण जब इंजीनियरिंग और मेडिकल की लाइन बंद हो गईं तभी तो यह भागते भूत की लंगोट पकड़ी थी. उनकी बात तब मुझे खराब लगी थी लेकिन बात अपनी जगह सही है कि परचूरन और केमिस्ट की दुकान में, धंधे के लिहाज से कोई फर्क थोड़े है.
ये लड़की इतनी चुप्पा ढंग से पेश नहीं आती तो कितना अच्छा रहता. ये ही कुछ मुँह खोल दे तो मैं कुछ कर सकूं. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि यह अपनी रामकहानी सुनाने के लिए मिलने आया है या हमारे जरिए इशिका से अपनी पैरवी करने? कोई भूल सुधार करने का वादा करने!
पैरवी या भूल सुधार करने-कराने जैसी बात उसके आस-पास फटकती भी नहीं लग रही थी.
क्या दो दिनों में इसने खुद से या नए हालात से समझौता कर लिया? यही है इस पीढ़ी का भावनात्मक जुड़ाव… कि डेढ़ बरस की अंतरंगता, मेल-जोल और सार्वजनिक रूप से संग-साथ घूमने-फिरने के बाद किसी एक बात पर एक ने ‘डंप’ किया तो दूसरे ने उसे लपककर स्वीकार कर लिया! एक क्लिक में सारे आपसी मैसेज और कॉल हिस्ट्री सफाचट! स्मृति पालने-समेटने का झंझट कौन पाले! ‘मूव ऑन’ का जुमला तो पाला ही होता है.
मैं अपनी बुनियादी कशमकश में हिलोरे खाए जा रहा था कि मेरे मोबाइल पर इशिका का मैसेज फ्लेश हुआ. अशालीन होते हुए मैं उसे पढ़ने को आतुर हुआ. समय और संबंधों की निरंतर अस्थिरता झेलती जवान बच्ची का फोन या संदेश अक्सर एक धधका लिए रहता है.
“मुझे ममा से पता चला कि आप आज उससे मिलने वाले हैं. प्लीज डोंट एंटरटेन. प्लीज.”
छोटे से संदेश को पढ़ते हुए मैं शायद बार-बार और देर तक उसके मानी के साथ उसका आगा-पीछा सोचने लगा होऊंगा क्योंकि उसके बाद जब मैंने सामने राघव की तरफ नजर उठाई तो उसकी उन कर्ली पलकों के नीचे एक स्पष्ट जलाशय उतरता लग रहा था… एक झपक के साथ बूंदाकर होने को तत्पर.
‘इशू’ का नाम उसने मेज पर रखे मोबाइल पर मैसेज फ्लैश होते ही देख लिया था.
मैसेज पढ़ने में एकाग्र होने के बाद शायद मेरे हाव-भाव भी.
“थैंक यू अंकल, विल टेक योर लीव”
अपने को किसी तरह समेटते हुए उसने कुछ शब्द मेरी तरफ सरकाए.
कहने से ज्यादा मानो उठकर जाने की जल्दी सिर पर सवार थी.
मुड़ने के चार या पाँच कदम बाद उसके सीधे हाथ की हथेली को मैंने चेहरे की तरफ जाकर कुछ पोंछने के अंदाज में घूमते देखा.
कुछ देर वहीं रिक्त बैठे पता नहीं क्यों मुझे उसके बताए समर प्रोजेक्ट के किस्से का गड्ढे में गिरा वह बेबस हाथी कौंध उठा.
इसे किसने गिराया?
समाप्त
![]() ११ जनवरी १९६३ बुलन्दशहर (उ.प्र.) एम. ए., एम. फिल (अर्थशास्त्र) भविष्यदृष्टा’, ‘कारोबार’ और ‘दुश्मन मेमना’ कहानी संग्रह तथा स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा और उनकी कहानियों के हिन्दी अनुवाद आदि प्रकाशित. विजय वर्मा, इफको सम्मान, रमाकांत स्मृति कथा सम्मान, स्पंदन कथा सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति सम्मान आदि से सम्मानित. मुंबई में रहते हैं. |
एक अवकाश में, खाली जगह में छोड़ देने वाली कहानी। जो अनकहा रह गया। वही सबसे ज्यादा साथ रह गया। बहुत अच्छी कहानी के लिए ओमा जी को बहुत बधाई।
कहानी पढ़ ली। जल्दबाजी में टिप्पणी करना उचित प्रतीत नहीं होता। अरमानों का हाथी गड्ढा में गिर चुका है। कहानी के सभी पात्र परेशान हैं। मध्यवर्गीय समाज और मेट्रो कल्चर की दृश्यावली इस कहानी की जान हैं।एक बात यह भी कि कहानी में जो नहीं कही गई है,वही वास्तविक कहानी है।सजग पाठक अपने – अपने तरीके से कहानी बुन सकते हैं।यही इस कहानी की मजबूती है और सीमा भी।
एक शानदार कहानी से सुबह हुई…भाषा,प्रवाह, मनःस्थिति ..आँखों के साथ यात्रा करती है और अंत तो लाजवाब ही था
नगरीय युवाओं की दुनिया को संयम से सहने की कहानी इसे कह सकते हैं। वह दुनिया खुल नहीं पायी है। पुत्री का पक्ष ओझल है। कहानी में बस पिता और प्रेमी हैं, उनके अनुभव और उनका ही परिप्रेक्ष्य है।
लगाव का यह तीसरा कोण बहुत सुंदर बन पड़ा है। बदलते समय में युवा अन्यमनस्कता और द्वंद्वों को दर्ज करती उम्दा कहानी।
क्या कहानी है !! प्रवाह, भाषा की सटीकता, घटनाक्रम सब एक साथ एक लय में। एक पंक्ति फिजूल नहीं, एक शब्द फ़ाज़िल नहीं। ओपन एंड के साथ खत्म हुई एक परफेक्ट कहानी .
बदलते समय में नई पीढ़ी के अंत : जगत की गहरी पड़ताल करती हुई बहुत ही मार्मिक कहानी है।
यह कहानी रिश्तों की बदलती हुई परिभाषा की तलाश करती है । युवा पीढ़ी की खीझ, बेचैनी और विभ्रम को चिन्हित करती यह कहानी भय और आशंका से भरी हुई है जिसमें जीने के लिए पुरानी पीढ़ी अभिशप्त है।यह एक सशक्त कहानी है जो हमारे समय को रेखांकित करती है।
अच्छी लगी कहानी! बिल्कुल आज के जीवन की तरह चलती हुई. कोई उपदेश नहीं, कोई कृत्रिमता नहीं, कोई हल नहीं! हर तरह के लोग अपने अपने निष्कर्ष निकालने को स्वतंत्र! न तो बेटी ग़लत, न प्रेमी! थोड़ा सा टिल्ट बेचारे प्रेमी की ओर हाथी की तरह फंसा हुआ! मेरे लिए बेटी का असरशन सिर माथे पर😘ओमा जी को अच्छी रचना के लिए बधाई 💙
विषय सोचनीय और आधुनिक है। कहानी अच्छी पिरोयी गई है। संवाद कुछ अधिक लगे । अन्त साफ़ दिखा रहा है….प्रेमी में आधुनिकता कम और भावना ज़्यादा है। और कहानी का अन्त भावना को सर्वोपरि बता रही है।
ट्रेन में ही बैठे बैठे एक बार में ही पढ़ गया।
बहुत अच्छी कहानी है। कहानी के चार पात्र जिंदगी के चार कोनो की तरह हैं, किसी को भी खींचकर एक स्वतंत्र कहानी बनाई जा सकती है। लेकिन आपने इसका मोह नहीं पाला।
मैंने इसे राघव के नजरिए से पढ़ा। इसलिए मैं उसे ही ‘अपनी कहानी’ में expand कर रहा हूं। और उसकी यातना भी महसूस कर रहा हूं। अभी मैने ‘राघव’ की इस यातना पर एक उम्दा नायक भी देखा है। नाम याद नहीं आ रहा है। कहानी का कमाल इसी में है कि आपने उसकी यातना को अनकहा छोड़ दिया लेकिन पाठक के मन में उसकी आवाज बहुत तीखी चुभ रही है।
कितनी मर्मस्पर्शी कहानी है! एक साँस में पढ़ गया। कहानी की समाप्ति बहुत द्रावक- “इसे किसने गिराया?” एक हूक-सी उठी। लगा कि राघव का जीवन बिल्कुल अपना जीवन रहा हो। अत्यन्त भावपूर्ण।
‘समालोचन’ को धन्यवाद!
कहानी अच्छी है। समकालीन संदर्भ में ऐसी कहानी पठनीयता और कहानीपन के साथ लिखना आसान नहीं है।ओमा शर्मा को साधुवाद। बहुत दिनों बाद उत्तर पीढ़ी ने अच्छी कहानी लिखी है। माने अभी चूके नहीं हैं।
एक बंधी हुई लय में उलझे हुए मनोभावों की गुत्थियां सुलझाने की कोशिश करती ये कहानी ओमा शर्मा के अद्भुत कथा शिल्पी होने का नमूना है। महानगर के मध्यवर्गीय मूल्यों के द्वंद्व को बख़ूबी बयान करती ये कहानी उत्कृष्ट कहानियों में शुमार होगी, मुझे यक़ीन है।
ओमा शर्मा जी की कहानी पुत्री का प्रेमी पढ़ी कहानी हमारे आसपास के घरों की ही नहीं बल्कि हमारे घर की भी कहानी है।
हमारे विरल यथार्थ को ओमा जी ने अपनी सरल व समकालीन भाषा में रचा है। कहानी में आए कुछ अंग्रेजी शब्द भी कहानी के मर्म को हमारी भारतीय जीवन शैली को बखूबी व्यक्त करते हैं।
कहानी में गूथी एक कहानी आसाम की भी है जिसे पेश करते हुए ओमा जी ने अपनी कहानी का एक अहम हिस्सा बनाया है । महानगरों में पल और बढ़ रहे हमारे बच्चे ( हमारे युवा) हमे भी युवा चुनौतियों के बारे में सीधे सीधे ना सिर्फ़ बताते हैं बल्कि उस जीवन में भी दाख़िल करते हैं।
युवा मानुषिक चुनौतियों व युवाओं की आत्मनिर्भरता व आसानी से प्राप्त हुई स्वतंत्रता व उसके जोखिम ( जो शायद हमारी पीढ़ी को लगता है जो अभी ५०,६० वर्ष के हैं ) को भी एक अनिवार्य अंग की तरह इस कहानी में रखते हैं।
हमारी स्त्रियों की पेशेवर सफलता व उसकी चुनौतियों को भी इस कहानी ने चिह्नित किया है। जब तक हमारे बच्चे ( बेटी या बेटा ) आत्मनिर्भर हैं तब तक माता पिता एक तरह के संतोषी तेवर में रहते हैं, यह संतोषी तेवर मजबूरी व एक भय को भी व्यक्त करता है ।कहानी के नायक राघव को इशिता शायद इसीलिए चुनती है कि वह अपने काम में उतना सफल नहीं है और वह इशिता को वक्त दे पाता है ।इशिता का चुनाव आगे भी इसी तरह के लड़कों का होगा यह विचार कहानी पढ़ कर देर तक साथ बना रहता है।
कहानी का अंत उस हाथी की मृत्यु के बिम्ब से खत्म होता है, जिसके पास शब्द नहीं पर अनेकों तरह की ध्वनियाँ हैं ।कहानी के अंत में किसी भी तरह का आग्रह ओमा जी ने नहीं किया यह भी अच्छा है जिससे पाठक किसी भी तरह की ग्लानि से बच जाता है।
ओमा जी पहली कहानी पढ़ कर अच्छा लगा एक घर की निजी अंतरिकता में प्रवेश कर बतौर पाठक इस कहानी का हिस्सा बना। ओमा जी को बधाई ।
यह कहानी हमें अपने अतीत की तरफ खींच कर ले जाती है।इसके वर्तमान में हमारा अतीत झांकता है। हमारी पीढ़ी का भी अपने अभिभावकों से एक जटिल रिश्ता रहा है।एक ऐसा रिश्ता , जिसमें उन्हें डर था कि बच्चों की बात अगर न मानी जाए तो वें कुछ उल्टा सीधा न कर लें। दूसरी तरफ उनका आग्रह यह भी रहता था कि वे उनकी बातों का अनुसरण करें।आज़ादी का अर्थ दोनों के लिए भिन्न अर्थ लिए रहता।
लेकिन अब जब हम मां पिता बनते हैं तब यह सब आजादी एक बुरे सपने की तरह हमारी नींदें खराब करती रहती हैं।बच्चों का कमरे में बंद रहकर यह कहना कि आप समझ नहीं सकोगे अपमानजनक लगता है। और तब वर्तमान स्मृति बनकर कोंचता है।
हमने अपने समय में जो किया हम उसीके विरोध में खड़े दिखाई देते हैं।
यह जीवन की बड़ी सी गुत्थी है, जिसे सुलझाना हमेशा शेष रहेगा।
ओम शर्मा जी की कहानी इस गुत्थी को हमारे सामने रखती।हमारा आत्मसाक्षात्कार कराती है। हम खुद से मिलते हैं। यह कहानी हमारे भीतर साहस बंधाती है कि धरती गोल है और सब गोल गोल घूमता हुआ वापिस अपनी धुरी पर लौट आता है।
शुक्रिया इतनी अच्छी कहानी के लिए।
स्पष्ट है कि वाचक पिता बेटी की उस जीवन शैली को लेकर सहज नहीं है, जिसे वह ” आधुनिक ” जीवन शैली कहता है। इस जीवन शैली का सार उसकी दृष्टि में वे अस्थाई रिश्ते हैं, जो पैसे के सवाल पर अकस्मात यूं दम तोड़ देते हैं कि उनकी याद तक बचाई नहीं जाती। स्वाभाविक है कि उसकी सहानुभूति अपेक्षाकृत रूप से कम पैसेवाले प्रेमी के साथ है। कहानी का अंत इमोशनल और जजमेंटल है। बेटी को अपनी बात रखने का अवसर नहीं दिया गया है।
हर लेखक के अनुभवों और संवेदनशीलता की एक सीमा तो होती ही है और यह ज़रूरी नहीं कि वह किसी समस्या के सभी पहलुओं को उजागर करने में समर्थ हो । ओमा शर्मा की सफलता संवाद के लिए एक मंच उपलब्ध करवाने में निहित है जो हमारे समय के लिए आवश्यक हो गया है ।
मुझे यह कहानी आज की स्त्री के उस भय की लगी जिसमें युगों से उसने पितृसत्ता से हण्टरी अवचेतना पायी है – मारने की ,झुकने की , पीड़ाओं की ,चोट की . वह इसे तोड़ डालना चाहती है . वह “स्वयं” होना चाहती है , अपने निर्णयों की ख़ुद मुख़्तार. साथ ही उसे पुरुष का साथ भी प्रिय है . वह अपनी प्रकृति के ख़िलाफ़ नहीं है लेकिन उसका वही प्राचीन भय उसे बार बार प्रयोगों में उलझाता है . वह चाहकर भी विश्वास, प्रेम पर भरोसा नहीं कर पाती . उसका वह प्रेमी भी व्यक्ति नहीं एक ऐसी उम्मीद है जिस पर वह सतत क़ायम नहीं रह पाती और उससे जुड़े लोग भी इससे लहुलुहान होते हैं.
मुझे लगता है जल्दी ही ये स्थितियाँ भी बदलेंगी । स्त्री इस संस्था में , अपने पुरुष में मनुष्यता पाकर संभल जायेंगी . सदियों की वंचना इतनी जल्दी पीछा कहाँ छोड़ती हैं . बहुत किरचें टूटेंगी , चुभेगी भी . स्त्रियों ने घर , बच्चे , विवाह बचाने के लिए बहुत बहुत यत्न किए हैं ,अब वह अपने पुरुष से एकदम वैसी ही इच्छाएँ चाहे न चाहे , इन बातों की कद्र करने वाला समान मानसिक धरातल वाला प्राणी खोज रही है ! यह संज्ञान पुरुषों को जितनी जल्दी हो जाए , बेहतर .
बहुत महत्वपूर्ण कहानी ओमा शर्मा जी 🌹😊
आप सभी मित्र रचनाकारों, साथियों का दिल से शुक्रिया कि आपने कहानी को ना केवल ध्यान से पढ़ा बल्कि अपने मनोगत से मुझे और समालोचन को समृद्ध किया। यह बना रहे। मेरा श्रम सार्थक हुआ। पुनः आभार
कहानी का विषय एकदम अलग है। आमतौर पर पिता और प्रेमी के बीच इतनी समझदारी भरा और आत्मीय संबंध कम पढ़ने के लिए मिलता है। नयी पीढ़ी अपने भीतर के उज्जवल पक्ष को खोजना चाहती है पर नये दौर में उपजे द्वंद और जल्दबाजी का भी शिकार हो रही है। रिश्तों में सबकुछ खत्म करने की जल्दबाजी होती है।
एक अच्छी कहानी पढ़कर आज का दिन सार्थक हुआ।
ओमा शर्मा मेरे प्रिय कथाकार हैं। कहानी पढ़ते हुए अनायास ही दुश्मन मेमना याद आती रही। पिता की दृष्टि से बेटी के मन तक पहुँच बनाने की कोशिश करती यह कहानी दो पीढ़ियों के उस अंतराल की पड़ताल करती दिखाई पड़ती है जिसकी नींव दुश्मन मेमना में पड़ी थी। संवेदना के दो भिन्न बिंदुओं पर खड़ी दो पीढ़ियों के जीवन मूल्य, प्राथमिकताओं और संवेदनाओं के बीच का गझिन अंतर दिखाने में कहानी पूरी तरह सफल है। यहाँ जो अनकहा है दरअसल उसकी ही अनुगूंज सबसे अधिक मुखर है। अंत में गढ़े में गिरे हाथी का रूपक बहुत कारुणिक बन पड़ा है। ओमा जी को हार्दिक बधाई। शुक्रिया समालोचन।
हमारे समाज में निरंतर बढ़ती असंवेदनशीलता पर एक मार्मिक कहानी ! ओमा शर्मा ने हमें एक ज़बरदस्त ख़तरे के बारे में आगाह किया है ।
कहानीकार ने समय और समय के द्वंद को पकड़ने की कोशिश की है। संबंधों में उतार – चढ़ाव, बदलाव और कश्मकश को कहानी में कह देने की कला ओमा जानते हैं। उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग में चलने वाली ‘मॉडर्न हिंदी’ पर कथाकार की मजबूत पकड़ है। कहानी का अनकहा भी बहुत कुछ कह जाता है। नगर ही नहीं शहर और कस्बे का शायद ही कोई परिवार हो जो इस तरह के तनाव से मुक्त हो। इस दृष्टि से कहानी आज के सच से साक्षात्कार कराती है। कथाकार ओमा शर्मा को बधाई।
बहुत अच्छी कहानी। हमारी, आपकी, सबकी जिंदगी को समेटती हुई और उससे एकसार होती हुई। हम सब इसमें अपना और अपने समय का अक्स देख सकते हैं। इसे पढते हुये धीरेंद्र अस्थाना की बहुचर्चित कहानी ‘पिता’ की भी स्मृति हो आती है।
लेकिन कहानी का शीर्षक मुझे सपाट और ध्यानखींचू लगा। कुछ हद तक ‘पवन करण’ की कविता के शीर्षक की पुनरावृत्ति जैसा भी। लेखक की ही कहानी ‘ दुश्मन मेमना’ जितनी व्यंजनात्मकता इसके शीर्षक में नहीं है।
अपनी तमाम खूबियों के बावजूद इस कहानी को पढकर यह भी लगता है यह एक पुरूष के द्वारा, एक पुरूष (पात्र) को केंद्र में रखकर लिखी गयी कहानी है। यही इसकी शक्ति है और सीमा भी।
बहुत बेहतरीन और जेनरेशन गैप को पूरी तरह उभारती है कहानी कि आज के पैरेंट्स कितने बेबस हो गए हैं कि उनको बच्चों की जिंदगी में क्या हुआ, यह तो पता होता है, क्यों हुआ, इसका उत्तर नहीं मिलता।
अंतिम पंक्ति सोचने को विवश करती है। अच्छी कहानी के लिए धन्यवाद!
Rashmi Sharma पेरेंट्स को तो नहीं, औरों को पता चलता है। इस तरह बेटी को जज कर लेना आपकी नज़र में जायज़ हो सकता है।
मैं जज करने के खिलाफ नहीं हूं। इस पोस्ट मॉडर्न फलसफे से मेरी शिकायतें हैं। इसका यह मतलब नहीं कि आप स्त्री पक्ष को अनदेखा, अनसुना कर दें। कहानीकार पेरेंट नहीं है। वह जनक है जीवन के एक टुकड़े को ही पेश करे पर करे तो मुकम्मल। यह कहानी बताती क्या है? लड़की पैंपर होना चाहती है। और पैंपर सिर्फ पैसे से नहीं होते, रश्मि तुम भी जानती हो। ग़रीब घरों में भी कुछ लोग पैंपर होते हैं। घर आने पर पानी मिलना, चाय नाश्ता मिलना और कितना कुछ, बताने की ज़रूरत क्या है?
एक अनूठा विषय लिए यह कहानी अपने कथ्य के साथ साथ शिल्प के लिए भी याद रखी जाएगी। Genration Gap और वर्तमान समय की सोच ने आज के पेरेंट्स को मूक रहकर बच्चों के लाइफस्टाइल मे दर्शक मात्र बनाकर रख दिया है।
पिता को सूत्रधार बनाकर कहानी लिखी है सो बेटी के पुरुष मित्र का पक्ष अधिक मजबूती से दिखा है। यही अगर मां या स्त्री दृष्टि से लिखा जाता तो शायद कहानी नदी की धारा की तरह थोड़ी दिशा बदलती।
कहानी अपने आप मे अनकहा कहकर भी बहुत प्रश्न करती है। सोचने को मज़बूर करती इस कहानी के लेखक ओमा शर्मा जी को बधाई ।
शुक्रिया समालोचन
नये मध्यवर्ग की इस कहानी में बेटी इस सम्बन्ध के लिए माता पिता की राय तो लेती है लेकिन सम्बन्ध तोड़ते हुए उन्हें कुछ भी बताना नहीं चाहती. शीर्षक bland है. साथ ही अंग्रेज़ी में सोच कर हिन्दी लिखने में हुए अटपटे प्रयोग भी हैं जैसे सम्बन्ध में रहना और परवाह से सहलाना. कहानी अपने नयेपन की वजह से दिलचस्प है.
ओमा अक्सर अवचेतनात्मक भावों को बहुत करीने से अंडरटोन करके पारदर्शी तल पर मारक कहानी रचते हैं।
हम सब इस कहानी से रीलेट कर सकते हैं। एक बढ़िया कहानी के लिए बधाई।
कमाल की कहानी है और अंत तो स्तब्ध ही कर देता है। एकदम तराशी हुई अभिव्यक्ति, कुछ भी अतिरिक्त नहीं। जो बात बहुत अधिक प्रभावित करती है वह आज के युवा का सटीक व ज़मीनी रेखांकन। अक्सर ऐसे प्रयास अतिरेक या अवास्तविकता की ओर झुक जाते हैं, लेकिन यहाँ वह संतुलन पूरी तरह साधा गया है।
जो एक बात अनदेखी रह जा रही है वह यह कि यह कहानी दो पुरुष बनाम एक स्त्री की न होकर एक अंडरडॉग द्वारा दूसरे अंडरडॉग को पहचानने और संवेदना के स्तर पर जुड़ने की कहानी है। हर जगह से दुरदुराया गया आदमी प्रभुत्व और सत्ता का चेहरा पहचानता है भले ही वह एक स्त्री या अपनी बेटी का चेहरा ही क्यों न हो।
हर श्रेष्ठ कहानी को विमर्श के या समाजशास्त्र के औजार से समेट देने की जल्दी क्यों हो, जबकि कहानी में शिल्प का बहुत सुथरा प्रयोग न केवल इसे स्तरीय बल्कि पठनीय भी बनाता है, यह इस समय में दुर्लभ है।
यही सब झेलने के लिए अभिशप्त हैं ये पीढ़ी और इन्हें इसी तरह देखकर कुछ न कर पाने की विवशता ढोने वाले हम !!
ख़ैर, मैं सभी कॉमेंट्स पढ़ रहा हूँ और कहानी से इतर यह बात सोच रहा हूँ कि क्या मेरी पीढ़ी का समय इतना सरलीकृत है। हर तरह के कॉन्फ्लिक्ट्स है, कहीं कोई समाधान नहीं। हाँ, कथा की अपनी सीमाएं होती हैं, इसलिए जीवन उससे बड़ा होता है।
समस्या यह भी तो है कि आज के समय की व्याख्या भी तो हम सबके लिए भिन्न है। तब क्या आज के समय की होने को किसी कहानी की गुणवत्ता का उतना बड़ा मानक माना जाना चाहिए? क्योंकि संबंधों के स्तर पर सोचने पर यह कहना सर्वथा कहना अनुचित होगा कि ऐसे संबंध पहले नहीं थे। हाँ, संबंध किस तरह के आज उत्तर आधुनिकतावाद या लेट कैपिटलिज़्म से प्रभावित हो रहे हैं, वह अलग हो सकता है।
मुझे यह देखकर अच्छा लग रहा है कि इस कहानी पर बहस हो रही है। अमूमन तो तारीफ़ के पुल ही बाँधे जाते है।
आप सभी का पुनः आभार कि कहानी को कै स्तरों पर परखा, महसूस किया।
सभी प्रतिक्रियाएं सर आँखों पर।
मैं किंशुक की बात से सहमत हूँ. उसमें सिर्फ़ इतना जोड़ना है कि हमें पाठ और पाठ करने की दृष्टि पर भी पुनर्विचार करना चाहिए. इस कहानी की अपनी सीमाएँ हैं लेकिन पितृसत्तात्मक होना उनमें से एक नहीं है. यह बहुत पुराना स्थापित सत्य है कि-patriarchy has no gender. पितृसत्ता का कोई जेंडर नहीं होता. और कोई स्त्री , सिर्फ़ स्त्री होने के नाते ख़ुद पितृसत्तात्मक व्यवहार से बरी नहीं हो जाती. यह बात सही है कि लेखक पेरेंट नहीं होता – लेकिन लेखक यहाँ पेरेंट है भी नहीं…ध्यान से पढ़ें तो पाएंगे कि कहानी का नायक पेरेंट है – और यह कहानी उसके POV से लिखी गई है. और किसी भी कहानी का लेखक आपको खुश करने के लिए बाध्य नहीं है. लेखक आपकी so called flawed political correctness पर खरा उतरने के लिए बाध्य नहीं है. उसे अधिकार है , जिसके भी POV से वो कथा कह रहा हो, उस POV (point of view) से कथा कहे. हाथी का गड्ढे में गिरना एक मेटाफर है. Metaphors का प्रयोग दक्षिण और सेंट्रल एशिया में बहुत पुराना है . यहाँ वह एक टूटे प्रेम को दिखाता है. हमारे समय में सभी capitalism के मारे हैं. और किसी किरदार को कैपिटलिज्म में धँसा हुआ दिखाना इसलिए ग़लत नहीं हो जाता क्योंकि वह स्त्री है.
बस समस्या यह है कि उसका विलोम प्रस्तुत नहीं है. हालाँकि मैं मानती हूँ कि विलोम का अत्यंत नैतिक दवाब भी लेखक पर नहीं डाला जाना चाहिए. अगर कोई कथा किसी एक पक्ष की बात ही बहुत डूब गहराई से कई कई पन्नों में करे तो भी रचना में मूल्य पैदा हो सकता है. जैसे notes from underground का नायक सिर्फ़ अपनी कथा कहता है , सिर्फ़ अपना POV- लेकिन वह कथा इतनी गहराई से, इतने कोणों से और इतने मल्टीडायमेन्शनल तरह से कहता है कि कथा में मूल्य पैदा हो जाता है. इस कहानी की असली समस्या इसका पितृसत्तात्मक होना नहीं है. इसकी कमजोर बिंदु इसके किसी भी पात्र का गहराई में न जाना है. कम से कम पिता और पुत्री का किरदार को गहराई में नहीं ही गया है. सिर्फ आख़िरी हिस्से में राघव का किरदार कुछ हद तक ज़रा गहराई में जाता है …इसलिए राघव से पाठक का संबंध भी कुछ कुछ जुड़ता है. जब आख़िर में उसकी आँखों में आँसू आते हैं तो आप एक प्रेमी का नाज़ुक और ताज़ा टूटा हुआ दिल देख पाते हो
ओमा मेरे प्रिय कथाकार हैं. यह कहानी कई स्तरों पर बहुत अच्छी लगी, विषय को लेकर तो बहुत ही अच्छी. इसका समकालीन संदर्भ, इसकी आधुनिक भाषा, सटीक अभिव्यक्ति. पर कहीं न कहीं कुछ अधूरा छूट जाने का सा भाव भी सालता रहा मानो कुछ न कुछ होते-होते रह गया हो. मानो, अभी इसके बाद कुछ महत्वपूर्ण घटना चाहता हो, जिसे हमने अनकहा छोड़ दिया. [ वजह चाहे कुछ भी हो ]
बच्चों को नहीं समझाया जा सकता, मानती हूँ पर उसकी थाह लेने की कोशिश करते हुए पैरेंट्स भी नहीं दिखे. क्या हम बच्चों के भीतर उतरने में चूक जाते हैं, क्या हमें उनके सेल्फ़ कांफिडेंस और भारी-भरकम जॉब को देखकर उनसे डर लगता है और हम उन्हें अपनी पहुँच से बाहर पाते हैं? और ये अद्रश्य सा तार आख़िर होता कहाँ है?
शीर्षक और अच्छा हो सकता था. बेटी के जीवन के कान्फिल्क्ट्स भी दिखाए जा सकते थे, जिन्हें अनकहा छोड़ दिया गया. होना चाहिए कहानी में बहुत कुछ अनकहा क्योंकि वही देर तक गूंजता है. पर मुख्य बात कहना भी ज़रूरी है.
कहानी पैरेंट्स के महज़ दर्शक बन जाने की भी है पर इसका कोई क्षोभ दिखाई नहीं देता. कहानी में किसी के भीतर उतरना ज़रूरी होता है [मेरे हिसाब से] पुत्री के, प्रेमी के या खुद के ही. फिर भी ये कहानी बहुत कुछ कहती-समझाती है, उसके लिए साधुवाद.
यह कहानी पेरेंटिंग के लोकतांत्रिक स्वरूप का सुंदर उदाहरण है। कहानी जो मूल बात कहती है वह है आज के समय में प्रेम संबंधों में धैर्य और समझ की कमी का होना। बल्क में आज विदेशी रोमांटिक सिनेमा की पहुँच युवा पीढ़ी के पास है। वहाँ बात-बात पर , छोटे-छोटे इश्यूज होते हैं और ब्रेकअप। फिर पैचअप, कन्फ्यूज्ड इमोशनल गतिविधियों का एक पैकेज दिखता है। इन सबका असर भारत के शहरों में, कस्बों में रहने वाले युवाओं पर बहुत तेजी से हुआ है। एक समझ बनी है कि यदि किसी एक बात से आप असहमत हों तो रिश्ते से अलग हो जायें। जबकि यह स्वाभाविक बात है कि दो लोग एक तरह के नहीं होते। एक तरह की जीवन पद्धति भी नहीं हो सकती है। कॉमन-मिनिमम एग्रीमेन्ट के तहत ही रिश्ता चलता है। हमारी पीढ़ी जंकफूड और मैग्गी की तरह रिश्तों को चलाना चाहते हैं। ऊपर से उपभोक्तावाद का दवाब आपको शोऑफ़ करने का बहुत दवाब बनाता है। इन सबमें जो पिछड़ गया वह आज प्रेम के काबिल नहीं, बैकवर्ड है। कहानी बिना कथानक के केवल परिस्थितियों के विश्लेषण से मार्मिक प्रभाव डालती है। ‘हाथी’ का उदाहरण इस कहानी में बहुत सटीक उठाया गया है।
यह अगली पीढ़ी के अन्तर्द्वद्वों को परखने वाली कहानी है। ओमाजी ने कहानी पिता से कहलवाई है या लेखक से ? लेखक लड़की के पिता की भूमिका में है। पिता पेशे से व्यवसायी है। उसके अंदर चरित्रों को परखने की महीन भाषा है। यह भाषा, यह विश्लेषण एक मध्यवर्गीय व्यवसायी व्यक्ति का है या लेखक ओमा शर्मा का? मतलब यह कि लेखक कथावाचक पर हावी होता लगता है। ऐसा मुझे अपने प्रिय मित्र ओमा की एक और कहानी में भी लगा था।
बहुत सुंदर सार्थक कहानी
Omaji को हार्दिक बधाई 💐💐
एक अलग तरह की सुंदर कहानी । कहानी में आज के समय का दवंद उभरकर आया है । खास बात यह है कि लेखक ने इसे जनरेशन गैप के पुराने फॉर्मूले से बचाए रखा है । सबके अपने सही हैं । बेटी के प्रेमी से पिता का जुड़ाव रिश्तों से परे मानवीय संबंधों का अलहदा दृष्टिकोण है । कहानी का अंत मार्मिक है । गड्ढे में गिरे हाथी से जोड़ना अच्छा लगा । पाठक उसके दर्द के साथ खड़े होकर भी बेटी के विरुद्ध नहीं हो पाता है । यही जीवन है । एक अच्छी कहानी के लिए बधाई और पढ़वाने के लिए समालोचन का शुक्रिया
यह इधर लिखी गई है अत्यंत महत्वपूर्ण कहानी है। बल्कि मैं इसे एक “लैंड मार्क” कहानी इन अर्थों में कहूंगा की आज की युवा पीढ़ी के अंत : जगत को इतने मार्मिक ढंग से शायद ही इससे पहले कभी देखा गया हो । इसे उन अर्थों में पीढ़ियों के अंतराल की कहानी कहना भी शायद ठीक नहीं होगा।यहां तो कुछ अनिश्चितताओं का रेखांकन है। वे अनिश्चितताएं जहां एक युवा अपने वजूद की अजीब सी तलाश में बेचैनी से भरा हुआ है । और सारे पुराने प्रतिमान उसके लिए अर्थहीन हैं। और वह इसे संप्रेषित भी नहीं कर सकता। वह युवा पुत्री जो कहानी के पार्श्व में है वह इसी सच को तो उभार रही है। उसके चारों का वह धुंधलका इस कहानी का केंद्रीय सच लगा। कहानी पढ़ने के बाद कथाकार की यह बात देर तक भीतर गूंजती रही कि यह युवा पीढ़ी बाहर से जितनी “स्मार्ट” है , प्रोफेशनल है , परिणामोन्मुख है, भीतर से उतनी ही अधिक vulnerable है। एक अद्भुत कथ्य के संवेदनात्म
आज की युवा पीढी की ज्वलंत जद्दोजहद को मुखर करती शानदार कहानी है यह। कथ्य की रवानी में पता ही नहीं चलता कब समाप्त हो गई। पुत्री की जिदों से बाखबर पिता की सहानुभूति उसके प्रेमी के पक्ष में प्रकट करती कथा निष्पत्ति कहीं लैंगिक दुराग्रह का शिकार तो नहीं। कथावाचक पिता के बदले मां होती तो तब वह किसको इस संबंध विच्छेद का दोषी ठहराती? इस तरह की शंकायें जाहिरा तौर पर उभर रहीं हैं, बावजूद बिना किसी शिल्प व कारीगरी के सघन संवादों व कथ्य की नवीनता,प्रासंगिकता और बेधकता के कारण यह एक यादगार कहानी बन गई है।
प्रिय ओम शर्मा सर ,उत्तम कहानी ,आज के युवाओं का प्रेम क्या वाकई प्रेम है? जितनी तेजी से प्रेम का ग्राफ बढ़ता है उससे कहीं अधिक तेजी से नीचे भी आ जाता है,प्रेम के बीज अगर एक बार अंकुरित हो जाएं तो वह चाहे पुष्पित पल्लवित न हो पर अंकुरण होना ही बीज का स्वरूप बदलना तय हे जो मिटाया नहीं जा सकता
मगर इस कहानी में कथाकार ने आज के प्रेम का जो चित्र कहानी के माध्यम से दिखाया है ,उसमें सब कुछ है,उत्साह उमंग,प्रशंसा सब कुछ पल पल में बदलता है एक पल में एक बात चुभी, तुरंत मैसेज ब्रेकअप ,मेमोरी डीलिट, आशंकाओं के जंगल में भटकता प्रेम,,,,,,
सब कुछ है बस प्रेम ही नहीं है
राघव के पक्ष में जाती हमदर्दी लेकिन इशिका किन्त नदारद है,अपने अपने ढंग से पाठक भी कहानी के जंगल में रास्ता खोजता हुआ
अंत ,हृदय को प्रेम के दर्द की विभिन्न आवाजों से कचोटता हुआ ,
समसामयिक कहानी
साधुवाद सर
मुझे कहानी अच्छी लगी। कुछ आयाम जो कुछ पाठकों को मिसिंग लगे. उनके जुड़ने से कहानी बहुपरती हो जाती और यथार्थ को अधिक संश्लिष्ट ढंग से अभिव्यक्त करती।मगर ऐसे भी काफी पसंद आई। बड़ी ही सादगी से हमारे वर्तमान के एक टुकड़े से हमें मिलाती हुई। उसके प्रति संवेदित करते हुए।
यह एक संवादधर्मी कहानी है। संवाद के लिए आमंत्रित करती हुई कि अपने अपने अनुभव से इससे अर्थ निकालें ही नहीं इसमें अर्थ भरें भी। एक दूसरे से कटा अपने- अपने अंदर खुद अपने से भी छिपा जीवन जीने की यह जो नई ढब आई है इस उपभोक्तावादी,उग्र पूंजीवादी दौर में। यह अकेले व्यक्ति से सुलझने वाली नहीं है।
इशिता अपने अंदर कितना दर्द सहती होगी।इसकी फिक्र पिता को बनी रहती है पर उस तक पहुंचने की उनके पास कोई पगडंडी नहीं है।
हाथी की आवाज़हीन करुण आवाज इसलिए भी उनके भीतर खौफ पैदा कर रही है कि अगर हाथी की जगह हमारे अपने हों। आजकल बेआवाज ही सब कुछ होता है तो पांचवे दिन आने का पता भी कैसे चलेगा। इसी खौफ और इशिता के मूव ऑन होने के डर से माता पिता कुछ बोलते नहीं हैं। मगर इच्छा उनकी पूरी तरह उसे कंट्रोल करने की है। इसलिए तो पिता को निजी स्पेस होना बला लगता है। उनका वश चले तो पिछले समय जैसे पारंपरिक परिवार में बदल डालें इसे। मगर वश में ही नहीं उनके। उन्हें इस पीढ़ी पर भरोसा भी कम ही है।
”मध्यवर्गीय परिवार के अंदर ये निजी स्पेस एक नई बला आ गई है।”
जबकि इस कहानी में जब भी कहीं कोई गहरी विशिष्ट, व्यक्तित्वसंपन्नता अभिव्यक्त करने वाली बात हुई है तो वह इशिता के शब्दों में आई है।
“हमारे भीतर कहीं कुछ अपना और खास होता है. हमेशा. औरों से अलग. अपने आप तो वह कम ही निकलता है लेकिन उसकी एक नर्म बे आवाज़ आहट होती है. हमें उसे सुनने की जरूरत होती है.” इशिता ही है जिसके अंदर बेआवाज आहट सुनने की सलाहियत है।
खूब किताबें पढ़ने वाली वह कहती है – “उन्हें पढ़े जाने की एक निजता, एक सतत अंतर्निहित तलाश और प्यास होती है. एक पुकार या सिलसिले से बंधी, एक परत के साथ दूसरी खुलती और जोड़ती. किताबें ‘ट्रेन्ड’ की जाने वाली शय नहीं होती हैं डियर.”
ऐसा कोई सिलसिला वह संबंधों में भी खोजती होगी। विशिष्ट क्षणों की विशिष्ट अनुभूतियां दो विशिष्ट लोगों से बनी।।मगर क्या ऐसी कोई कोशिश राघव ने की होगी। या रिश्ता बनने के बाद के इत्मीनान में वह प्रेमिका के माता पिता के सान्निध्य की गुनगुनी धूप में ही बैठा रहता है। उन्हें जानने समझने में कोशिश जो नहीं लगती।
फिर भी इशिता दायित्व हीन और भटकी हुई समझी जा रही है। तीन दिन से उसका मुंह पूरा उतरा हुआ है उदास है फिर भी तीनों को लग रहा है उसे संबंध का मोल नहीं पता। जबकि उसे ही सबसे अधिक मोल पता है शायद इसलिए वह अपने पूरे व्यक्तित्व का राघव के पूरे व्यक्तित्व से संवाद चाहती होगी। उसके लिए सम्बंध कुछ पाने का जरिया नहीं होंगे जो मिलने साथ होने की पुलक झड़ जाने पर भी वह निभाती रहे।
वह खुदमुख्तार भी है।।अपने संबंधों से मिले दुख को खुद सह रही है । उसका पूरा दायित्व और पीड़ा और परिणाम खुद वहन कर रही है शांति और संयम से। किसी पर उसका बोझ नहीं डाल रही। किसी को दोष देने की प्रवृत्ति भी उसकी नहीं। स्वस्थ व्यक्तित्व के लक्षण और व्यक्ति को व्यक्ति समझने के सबसे अधिक इशिता और उसकी मां के दिखते हैं।
पिता की बातों में मध्यवर्गीय प्रौढ़ व्यक्ति जैसा दुचित्तापन है। वह दोनों तरफ की बातें बोलता है और अपने बोले की जिम्मेदारी नहीं लेता। उसकी पत्नी को भी लगता है कि वह बाहर जाकर दसियों लोग से मिलता है पर अब भी एकदम पुराना सा ही है। उसने खुद को बदला नहीं वैसे का वैसा है। वैसा मतलब दो चार गिने चुने इंडिकेटर से पूरे जीवन को नापने की कोशिश करने वाला।
और इनकी फ्रीक्वेंसी राघव से मैच होती है।।इसके चांस हैं कि राघव में वे सब प्रवृत्तियां होंगी जो पिता में हैं और वह अग्रगामिता और आधुनिकता और व्यक्तित्व संपन्नता नहीं है जिसकी दरकार स्वचेता इशिता को है। हालांकि न सुनने के बाद उसने अपने भीतर झांकना शुरू कर दिया है इसलिए वह जिस तरह अपने पूरे जीवन को सचेत ढंग से देख कर बता रहा है। कार्य – कारण श्रृंखला में अपना अतीत पिरोना उसने नया सीखा है शायद। वरना लक्ष्य मूवी के फर्स्ट हॉफ के ऋतिक रोशन जैसा लगता ।जिसे प्रीति जिंटा छोड़ देती है। फिर उसे लक्ष्य मिल जाता है तो वह पुराना जैसा नहीं रहता है और वे दुबारा मिल भी जाते हैं। अच्छा तो न आना हमेशा का आना है न जाना हमेशा का जाना। प्रेम की पात्रता अर्जित करते जाना है।
ऐसा प्रतीत होता है कि राघव के भीतर अपने को देखने वाली यह नई नई उगी आंख है।
पिता के शब्द
“एकतरफा ढंग से उसे निकाल फेंका था. और एक वह था जो पता नहीं मुझे कहाँ-कहाँ घुमाए जा रहा था.”
जबकि वह देख रहा है कि इशिता के भीतर कितना कुछ चल रहा है। फिर भी ’निकाल फेंका’ पत्थर जैसे शब्द इस्तेमाल करता है। जैसे रिश्ते दीवार में ठुकी कील होते हों। और फेंक कहां दिया है? यह वैसी भाषा है जिसमें वह अपेक्षा झांकती है जो आलोक धन्वा की कविता ’ भागी हुई लड़कियां’ में है कि रिश्ते के सामाजिक हक के हुक से सारे जीवन के अधिकार फांस लाएं।।
इशिता ने संबध विच्छेद क्यों किया यह तो नहीं पता मगर पिता की भाषा से यह अनुमान जरूर हुआ कि इशिता से राघव की शादी हो जाती तो तीनों एक तरफ होते और इशिता अलग छिटक जाती। परिवार में उसकी स्थिति कमजोर पड़ती। राघव को इशिता से ज्यादा उसके मम्मी पापा की चॉइस पता हैं। क्योंकि उन तक पहुंचना सहज है।। उनमें वैयक्तिक विशेषताएं कम हैं।
हां थोड़ा थोड़ा मां इशिता को समझ सकती है। मगर थोड़ा ही। किताबें भी सिर्फ इशिता पढ़ती है।
जाहिर है मेरे यह सब निष्कर्ष सिर्फ और सिर्फ पिता के संवाद पढ़ कर बने। न वाचक बीच में आया न बेटी के संवाद आए। यही इस कहानी की सबसे बड़ी ताकत है कि लेखक ने मध्यवर्गीय पुरुष के दोचित्तेपन को भाषा और भंगिमा में बखूबी पकड़ लिया है।
इशिता के बारे में कुछ न कह कर काफी कुछ कह जाना और जितना खुद की समझ से बाहर है उस पर मौन रखने का कहानीकार का संयम मुझे तो पसंद आया।
चिटकनी बंद होने की फांस एक पिता के कलेजे में कैसे गड़ती है। उस फांस में उनका पूरा व्यक्तित्व कराह रहा है। इस कहानी ने बताया। चिटकनी के उस पार कमरे में और स्त्री के भीतर क्या चलता है। वह कोई और किसी और कहानी में बता सकता है। गलत बताने और जबरन उस पर अपने विचार थोपने से अच्छा है उस संवेदना तक पहुंचने का इंतजार किया जाए, जिसे हम अभी नहीं समझ सकते या जिसे हम अभी नहीं कह सकते। भ्रामक सत्य कहने से अच्छा होता है मौन छोड़ देना। जिसकी गूंज सब अपने अपने ढंग से सुन लें।
ओमा जी की कहानी पर मेरी यह टिप्पणी। चूंकि देर हो चुकी है, इसलिए फ़ेसबुक पर नहीं डाल रहा।
…………
देर से पढ़ने का एक फ़ायदा यह हुआ कि कहानी के साथ उस पर आई टिप्पणियों से भी गुज़र गया।
ख़ैर, इस बात को अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह कहानी अभिभावक, उसमें भी मुख्यतः पिता के दृष्टिकोण से लिखी गई है। इसलिए, इसमें पिता (पुरुष) के नज़रिए की प्रमुखता कोई अचरज की बात नहीं है। ज़ाहिर है कि अगर यह कहानी इशिका, शिल्पा या राघव के नज़रिए से लिखी जाती तो इसके ब्योरों के साथ फ़ोकस भी बदल जाता।
दूसरी बात, किसी भी रचना की तरह यह कहानी भी एक सामाजिक-पीढ़ीगत परिवेश में अंतस्थ है। वाचक की एक निश्चित लोकेशन है जहां से वह बोल और देख रहा है। निश्चय ही उसके देखने में पितृसत्ता पहले से निहित है। लेकिन क्या यह कहानी मूलतः स्त्री-पुरुष संबंधों में पितृसत्ता की दख़लंदाज़ी पर केंद्रित है? मुझे नहीं लगता कि कोई भी कहानीकार ऐसे पहलुओं पर सायास होकर सोचता है और चीज़ों — घटना-क्रम को वैचारिक सहीपन के हिसाब से छांटता-तराशता है। शायद, समय और समाज का कोई भी चुनिंदा क्षण उसकी समग्र संरचना में धंसा होता है। वह अपने संचित प्रभावों के साथ हमारे सामने आता है।
लिहाज़ा, यह कहना कि आख़िर में वाचक राघव के पक्ष में सहानुभूति जुटाने लगता है या कि उसने इशिका को अपना पक्ष नहीं रखने दिया है, एक तरह का ठस्स सरलीकरण है। मसलन, अगर इस कहानी को इशिका के दृष्टिकोण से लिखा जाता तो क्या उसके अपने अंतर्विरोध सामने नहीं आते? अगर यह भी मान लिया जाए कि उसे राघव के किसी झूठ या अंतर्विरोध का पता लग गया है तो ख़ुद उसके इस अंतर्विरोध के बारे में क्या कहा जाए कि तमाम पढ़ाई लिखाई करने के बावजूद वह राघव की भौंहों के ‘कर्ली-कर्ली’पन पर मुग्ध हो जाती है, जबकि उसकी मां शिल्पा उसे चौकस करना चाहती है कि आदमी की सुंदरता नहीं, चरित्र महत्त्वपूर्ण होता है। इस क्रम में एक और बात, राघव न बुद्धजीवी है, न कलाकार — वह अपना सामान्य-सा व्यवसाय कर रहा है। आख़िर वह इशिका जैसी संवेदनशील और उन्नत चेतना से संपन्न लड़की के जीवन में कैसे आ गया है? इशिका पिछले कई वर्षों से एक इच्छित पुरुष की खोज कर रही है। इस पर कोई हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है। यह उसका हक़ है। लेकिन, कोई न कहानी तो इस राघव के साथ उन पुरुषों की भी होगी जो इस दौरान उसके जीवन में आए होंगे!— वे जो अपने पिता-पुरुषों के समय से अलग और अस्थिर समय में रास्ते खोज रहे होंगे।
इसलिए, कुल मिलाकर, मुझे लगता है कि इस कहानी को किसी एक पात्र की तरफ़ क्राॅप करने के बजाय उस पीढ़ी के अभिभावक की भावनात्मक प्रतिक्रिया के रूप में पढ़ा जाना चाहिए जो अपने जीवन के प्रौढ़ चरण में एक ऐसे समय में जा फंसा है जहां पिछली कोई आश्वस्ति साबुत नहीं बची और नया जो कुछ बन रहा है, वह इस क़दर खंडित है कि उसे जोड़ कर कोई एक बड़ी तस्वीर नहीं बनाई जा सकती। यह केवल पुराने ढर्रे के पीढ़ीगत अंतराल का मामला नहीं है जिसे केवल यह कहकर व्याख्यायित कर दिया जाए कि दो पीढ़ियों के बीच कोई न कोई तनाव तो होता ही है। ग़ौरतलब है कि पिछली सदी के नवें दशक के बाद मनुष्य और समाज का ऑपरेटिंग सिस्टम तात्त्विक रूप से बदल गया है। अब हम खंडित समय और खंडित छवियों में जीते हैं।
शायद, फ़िलहाल इस कहानी को कुछ इसी तरह पढ़ा जाना चाहिए।
बेआवाज सही आहट तो है
ओमा शर्मा जी की समालोचन में छपी कहानी ’पुत्री का प्रेमी’ पढ़ते ही जो विचार आए। उन्हें ऐसे ही बिना कोई तरतीब दिए लिख रही हूं।
मुझे कहानी अच्छी लगी। कुछ आयाम जो कुछ पाठकों को मिसिंग लगे. उनके जुड़ने से कहानी बहुपरती हो जाती और यथार्थ को अधिक संश्लिष्ट ढंग से अभिव्यक्त करती। मगर ऐसे भी काफी पसंद आई। बड़ी ही सादगी से हमारे वर्तमान के एक टुकड़े से हमें मिलाती हुई। उसके प्रति संवेदित करते हुए।
यह एक संवादधर्मी कहानी है। संवाद के लिए आमंत्रित करती हुई कि अपने – अपने अनुभवों के आलोक में इससे अर्थ निकालें। इतना ही नहीं इसमें अर्थ भरें भी। एक दूसरे से कटा अपने- अपने अंदर खुद अपने से भी छिपा जीवन जीने की यह जो नई ढब आई है इस उपभोक्तावादी,उग्र पूंजीवादी दौर में। यह अकेले व्यक्ति से सुलझने वाली नहीं है।
इशिता अपने अंदर कितना दर्द सहती होगी। इसकी फिक्र पिता को बनी रहती है पर उस तक पहुंचने की उनके पास कोई पगडंडी नहीं है। क्योंकि वक्त के साथ बदलाव लाने से ही अगली पीढ़ी के साथ रिलेट किया जा सकता है। वह भी एक सीमा तक।
हाथी की आवाज़हीन करुण आवाज इसलिए भी उनके भीतर खौफ पैदा कर रही है कि अगर हाथी की जगह हमारे अपने हों। आजकल बेआवाज ही सब कुछ होता है तो पांचवे दिन के आने का पता भी कैसे चलेगा? इस तरह के खौफ और इशिता के मूव ऑन होने के डर से माता पिता कुछ बोलते नहीं हैं। मगर इच्छा उनकी उसे कंट्रोल करने की है। इसलिए तो पिता को परिवारों में निजी स्पेस होना बला लगता है। उनका वश चले तो पिछले समय जैसे पारंपरिक परिवार में बदल डालें इसे। मगर वश में ही नहीं उनके। उन्हें इस पीढ़ी पर भरोसा भी कम ही है। उसे भटकी हुई लड़की समझते हैं।।
”मध्यवर्गीय परिवार के अंदर ये निजी स्पेस एक नई बला आ गई है।”
जबकि इस कहानी में जब भी कहीं कोई गहरी विशिष्ट, व्यक्तित्वसंपन्नता अभिव्यक्त करने वाली बात हुई है तो वह इशिता के शब्दों में आई है।
“हमारे भीतर कहीं कुछ अपना और खास होता है. हमेशा. औरों से अलग. अपने आप तो वह कम ही निकलता है लेकिन उसकी एक नर्म बे आवाज़ आहट होती है. हमें उसे सुनने की जरूरत होती है.”
इशिता ही है जिसके अंदर बेआवाज आहट सुनने की सलाहियत है।
खूब किताबें पढ़ने वाली वह कहती है – “उन्हें पढ़े जाने की एक निजता, एक सतत अंतर्निहित तलाश और प्यास होती है. एक पुकार या सिलसिले से बंधी, एक परत के साथ दूसरी खुलती और जोड़ती. किताबें ‘ट्रेन्ड’ की जाने वाली शय नहीं होती हैं डियर.”
ऐसा कोई सिलसिला वह संबंधों में भी खोजती होगी। विशिष्ट क्षणों की विशिष्ट अनुभूतियां दो विशिष्ट लोगों से बनी।।मगर क्या ऐसी कोई कोशिश राघव ने की होगी? कहीं ऐसा तो नहीं है कि रिश्ता बनने के बाद के इत्मीनान में वह प्रेमिका के माता पिता के सान्निध्य की गुनगुनी धूप में अधिक बैठा रहता है। उन्हें जानने समझने में कोशिश कम लगती है जितनी इशिता में लगती होगी।
फिर भी इशिता दायित्व हीन और भटकी हुई समझी जा रही है। तीन दिन से उसका मुंह उतरा हुआ है उदास है फिर भी कहा जा रहा है कि उसे संबंध का मोल नहीं पता। जबकि उसे ही सबसे अधिक मोल पता है शायद। इसलिए तो वह अपने पूरे व्यक्तित्व का राघव के पूरे व्यक्तित्व से संवाद चाहती होगी। उसके लिए सम्बंध कुछ पाने का जरिया संभवतः नहीं होंगे जो मुलाकातों और साथ होने की पुलक झड़ जाने पर भी वह निभाती रहे।
वह खुदमुख्तार भी है।।अपने संबंधों से मिले दुख को खुद सह रही है । उसका पूरा दायित्व और पीड़ा और परिणाम खुद वहन कर रही है शांति और संयम से। किसी पर उसका बोझ नहीं डाल रही है। किसी को दोष देने की प्रवृत्ति भी उसकी नहीं। स्वस्थ व्यक्तित्व के लक्षण और व्यक्ति को व्यक्ति समझने के सबसे अधिक तत्व इशिता और फिर उसकी मां के दिखते हैं।
पिता की बातों में मध्यवर्गीय प्रौढ़ व्यक्ति जैसा दुचित्तापन है। वह दोनों तरफ की बातें बोलता है और अपने बोले की जिम्मेदारी नहीं लेता। दूसरों की आड़ ले कर बोलता है। संवाद से बचता है। उसकी पत्नी को भी लगता है कि वह बाहर जाकर दसियों लोग से मिलता है पर अब भी एकदम पुराना सा ही है। उसने खुद को बदला नहीं वैसे का वैसा है। वैसा मतलब दो चार गिने चुने इंडिकेटर से पूरे जीवन को नापने की कोशिश करने वाला।
और इनकी फ्रीक्वेंसी राघव से मैच होती है।।इसके चांस हैं कि राघव में वे सब प्रवृत्तियां होंगी जो पिता में हैं और वह अग्रगामिता और आधुनिकता और व्यक्तित्व संपन्नता नहीं है जिसकी दरकार स्वचेता इशिता को है। हालांकि इशिता से ‘ न ’ सुनने के बाद उसने अपने भीतर झांकना शुरू कर दिया है इसलिए वह जिस तरह अपने पूरे जीवन को सचेत ढंग से देख कर बता रहा है। कार्य – कारण श्रृंखला में अपना अतीत पिरोना उसने नया सीखा है शायद। वरना लक्ष्य मूवी के फर्स्ट हॉफ के ऋतिक रोशन जैसा लगता । जिसके साथ संबंध से प्रीति जिंटा खुद को अलग कर लेती है। फिर उसे जीवन का लक्ष्य मिल जाता है और वह आर्मी में चला जाता है तो वह पुराना जैसा नहीं रहता है और वे दुबारा मिल भी जाते हैं। अच्छा तो है
न तो आना हमेशा का आना हो न जाना हमेशा का जाना। प्रेम की पात्रता अर्जित करते रहना चाहिए और फिर उस वक्त जैसा महसूस हो कर लिया जा सकता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि राघव के भीतर अपने को देखने वाली यह नई नई उगी आंख है। जिससे वह अपनी जिंदगी को देख रहा है।
पिता के शब्द
“एकतरफा ढंग से उसे निकाल फेंका था. और एक वह था जो पता नहीं मुझे कहाँ-कहाँ घुमाए जा रहा था.”
जबकि पिता तीन दिन से देख रहा है कि इशिता के भीतर कितना कुछ चल रहा है। फिर भी ’निकाल फेंका’ पत्थर जैसा शब्द इस्तेमाल करता है। जैसे रिश्ते दीवार में ठुकी कील होते हों। और फेंक कहां दिया है? यह वैसी भाषा है जिसमें वह अपेक्षा झांकती है जो आलोक धन्वा की कविता ’ भागी हुई लड़कियां’ में है कि रिश्ते के सामाजिक हक के हुक से सारे जीवन के अधिकार फांस लाएं।।
इशिता ने संबध विच्छेद क्यों किया यह तो नहीं पता ( वैसे भी नो को नो समझ कर उसी रूप में स्वीकार करना ही होता है । कारण बताओ का नोटिस जारी नहीं किया जाता) मगर पिता की भाषा से यह अनुमान जरूर लगता है कि इशिता से राघव की शादी हो जाती तो तीनों एक तरफ होते और इशिता अलग छिटक जाती। कुछ सालों बाद राघव और पिता की जोड़ी मां बेटी को दिग्भ्रमित या nagging करने वाली स्त्रियां समझते/ कहते। शादी के बाद वाली बातें न ही कहानी से percieve करके मैंने कही और न ही ऐसा कुछ इन तीनों पात्रों में से कोई सोच रहा है। यह मैंने बस हमारे समाज की soil की जो मेरी समझ है, उसके आधार पर अपना अनुमान बताया कि क्या होता।
कहानी से मगर यह संकेत मिलते हैं कि राघव को इशिता से ज्यादा उसके मम्मी पापा की चॉइस पता हैं। क्योंकि उन तक पहुंचना सहज है।। उनमें वैयक्तिक विशेषताएं कम हैं। और उसका पिता के साथ bond भी बनता है।उसकी यह संवेदनशीलता इशिता को भाती है कि जो एक प्राणी की मृत्यु को अब तक नहीं भूला वह खराब मनुष्य नहीं हो सकता। इससे पता चलता है वह व्यक्ति में मनुष्यता चाहती है। दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी की तरह उसे सिर्फ सुविधा और साधनों का निमित्त नहीं मानती।
हां मां थोड़ा बहुत इशिता को समझ सकती है। मगर थोड़ा ही। मां से ही उसे उन दोनों के मिलने की बात पता चलती है वरना उसे पता भी न चलता उस मुलाकात के बारे में ।। और वह विनम्र निवेदन ही करती है नहीं मिलने का। फट नहीं पड़ती गुस्से में।
जाहिर है मेरे यह सब निष्कर्ष पिता के संवाद पढ़ कर ही बने। न वाचक बीच में आया न बेटी के संवाद आए। यही इस कहानी की सबसे बड़ी ताकत है कि लेखक ने मध्यवर्गीय पुरुष के दोचित्तेपन को भाषा और भंगिमा में बखूबी पकड़ लिया है।
इशिता के बारे में कुछ न कह कर काफी कुछ कह जाना और जितना खुद की समझ से बाहर है उस पर मौन रखने का कहानीकार का निर्णय मुझे तो पसंद आया।
चिटकनी बंद होने की फांस एक पिता के कलेजे में कैसे गड़ती है। उस फांस में उनका पूरा व्यक्तित्व कराह रहा है। इस कहानी ने बताया। चिटकनी के उस पार कमरे में और स्त्री के भीतर क्या चलता है। वह कोई और किसी और कहानी में बता सकता है। गलत बताने और जबरन उस पर अपने विचार थोपने से अच्छा है उस संवेदना तक पहुंचने का इंतजार किया जाए, जिसे हम अभी नहीं समझ सकते या जिसे हम अभी नहीं कह सकते या नहीं कहना चाहते। भ्रामक सत्य कहने से अच्छा होता है मौन छोड़ देना। जिसकी गूंज सब अपने अपने ढंग से सुन लें।
इस बदलते समय में पुराने मूल्यों के साथ अपनी ज़िंदगी काट चुके मां-बाप अपने ही बच्चों के व्यवहार को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने और उस पर कुछ टिप्पणी करने को प्रेरित होते हैं । ओमा शर्मा की कहानी को भी मैं कुल मिलाकर ऐसी ही एक टिप्पणी के रूप में देखता हूं । यह सहज – स्वाभाविक है कि इस तरह की कोई टिप्पणी नई पीढ़ी को न तो कभी स्वीकार्य होगी और न ही वह उनके लिए किसी मतलब की होगी । ऐसी परिस्थिति में इस कहानी की सामग्री के प्रति संवेदनशील पाठक भी पुरानी पीढ़ी में ही मिल पाएंगे ।
कहानी का स्त्रीवादी पाठ
जैसी माँग की जा रही है, वैसे न कोई कविता पूरी लिखी जा सकती है न कहानी। साँस लेने की जगह जो बीच में छोड़ी जाती है, वही जगह रचना को विचारणीय बनाती हैं। वही खुला हुआ सिरा पाठक की कल्पना पाकर कहानी को अभिनव बना देता है। एकदम पूरे तो किस्से होते हैं।
इधर मैंने ओमा शर्मा जी की कहानी ‘ पुत्री का प्रेमी’ के कई पाठ पढ़े हैं, सब सुपाठ हैं कहानी को बिल्कुल अपनी तरह से अपनी दृष्टि से डिकोड करते हुए। उसे अपनी कहानी बना देते हुए।
जैसे, मुझे लगता है कि बेटी ने कम्पैटिबल न होने की वजह से प्रेमी से अलग होने का निर्णय लिया होगा तो एक और कवि ने कहा कि प्रेम में बार- बार असफल होने की हताशा ने उससे यह करवाया और समालोचन पर ही एक पाठ में लिखा था कि प्रेमी के झूठ से क्षुब्ध होकर बेटी उससे संबंध तोड़ लेती है जबकि कहानी यह सब कहीं नहीं कहती। आरम्भ में अवश्य एक जगह इशिका राघव को परखने के लिए ऐसे कुछ प्रश्न अपनी माँ से करती है।
ऐसे ही कुछ और भी समानांतर निष्कर्ष पढ़े मैंने जो कहानी में नहीं कहे गए हैं।
जैसे, मेरा पाठ यह कहता है कि प्रेमी किसी भी क़ीमत पर यह सम्बन्ध बचा लेना चाहता है और इसीलिए प्रेमिका के पिता से एक अन्तिम मुलाक़ात रखता है, अपनी पैरवी करवाने के लिए। जबकि कथाकार यह कहता है कि बिल्कुल नहीं। सम्बन्ध तोड़ने का निर्णय दोनों का बराबर है, वह बस एक बार मिलकर अपनी कृतज्ञता, सदाशयता प्रकट करना चाहता है। पैरवी कराने जैसा विचार तक नहीं उसके यहाँ।
लेकिन, यह भी कितनी अच्छी बात है कि एक ही कहानी को हम सब अपनी गढ़न के अनुसार पढ़ें। हर पाठक उसे पढ़कर कुछ कहने को उद्वेलित हो उठे।
दूसरे, किसी रचना के केंद्र में क्या असर्ट किया जा रहा है यह सबसे महत्वपूर्ण है। वह लड़की जिसकी बात यहाँ अनुपस्थित बताई जा रही है वह न केवल कहानी के केंद्र में है बल्कि पूरी कहानी पर छाई हुई है। उसके निर्णयों को चुनौती देना तो दूर, प्रश्नांकित करना तो दूर किसी को उन निर्णयों के आधार जानने का अधिकार भी नहीं। वह अपने निर्णयों को वैध व स्वीकार्य कहाने तक ही मातापिता की सहभागिता स्वीकार करती है, उसके आगे उनका दख़ल शून्य है।
इस लड़की या पीढ़ी के प्रति लेखक कहीं जजमेंटल होता नहीं दिखता है।
वह इतना ज़रूर चाहता है कि यदि कोई गुंज़ाइश हो तो यह रिश्ता बचा रहे, उनका प्रेम बना रहे। यह उसकी अपनी पीढ़ी का हॉलमार्क है, यानी सबकुछ बचा लेने की जद्दोजहद।
पिता का दिल यह कहते हुए कराहता है, “इससे और डर लगता है क्योंकि सारे क्लेश, कलुषता और दर्द को वे श्मशानी चुप्पी में बंद कमरे के भीतर सहते हैं.”
कहानी तो अपने कथानक में ही स्त्री दृष्टि के अभाव के आरोप का प्रतिकार करती है; किसी युवती के स्वतंत्र चेता होने का इससे बढ़िया प्रमाण और क्या हो सकता है कि अपने प्रेमी से अलग होने के अपने निर्णय को वह सौ फीसदी स्वयं लेती है, उसके लिए किसी वजह या जस्टिफिकेशन को ग़ैर जरूरी मानती है। ‘पिंक’ फिल्म के उस संवाद को याद करें: नो मीन्स नो!
यही वजह है कि मुझे लगता है, ज़्यादातर आलोचक कहानी के वृहत्तर समय-सन्दर्भों को अनदेखा कर रहे हैं।
बहरहाल, कहानी के ज़रिए बदलाव की बहुत सारी अंदरूनी सच्चाइयां उभर रही है। जैसे कि सम्बन्धों में स्थायित्व अब कोई मानक नहीं है। बुनियादी बात भीतर की कोई अशांति है जो स्वयं उस भोक्ता को भी स्पष्ट नहीं। इसमें अमूर्त तनावों के नए layers हैं। और यह जो धुंधलका है यह कला के सामने आज एक नई तरह की चुनौती है।
“पुत्री का प्रेमी” आधुनिक समय का विह्वल और विकसित कोरस है। माता पिता के मूक दर्शक में बदलने की कहानी में स्त्री जीवन की उन्मुक्तता,चुनाव, रिजेक्शन, थकान आदि को कहती है। वहीं पुरुष के सादापन को भी कहती है।
कहानी में दो स्त्रियां जो मां बेटी है और दो पुरुष जो एक पुत्री का पिता और दूसरा प्रेमी है। विकास की आंधी दौड़ में आज दो पुरुषों का धरातल ज्यादा डगमगाता दिख रहा है। वहीं पुत्री वस्तु की तरह व्यक्ति को “छोड़ने” की विधि सीख चुकी है। शिल्पा अपने को उतना ही खोलती है, जितना उसका पति समेट सके।
अधीर होते समय को संवेदनशील कहानी के लिए लेखक को बधाई।
ओमा शर्मा जी मेरे गृह नगर के और मेरे पसंदीदा लेखकों में एक है। उनकी यह कहानी पुत्री का प्रेम बच्चों के बदलने की कहानी तो है ही परंतु माता-पिता के बदलाव की कहानी भी है वरना इतना लोकतांत्रिक व्यवहार हमने कब देखा था अपने माता-पिता का जितना हम हो गए हैं। कहानी इतनी सुंदर तरीके से चली जाती है जैसे एक नदी का बहाव।
ओमा जी की दुश्मन मेमना कहानी दिमाग पर छप कर रह गई है जैसे फिर यह एक पुत्री का प्रेम कौन सी भूल जाने लायक है।
बहुत बधाई इस बेहतरीन कहानी के लिए ओमा जी।
कहानी अपने कहन में अनूठी है । पिता और पुत्री का प्रेमी दोनों के बीच की संवेदना को संवाद के जरिए जो पिरोने की कला है वो वाकई में अंत तक बांधे रखती है। पुत्री के प्रेमी को सुनना और उसके सम्बन्ध के जोड़ने के यदि कोई तार हो सकते हैं उस पर भी पिता की तरफ से पहल करना ,यह बहुत ही मार्मिक और हम मध्यवर्गीय और महानगरीय लोगों के लिए नया है ।।।किसके पास इतना समय है,,लेकिन पिता समय निकालता है ,,रिजल्ट चाहे जो भी हो । सबको कहने की ही पड़ी है,,सुनना कौन चाहता है ।पितृसत्ता के मजबूत आधार का स्तंभ यही है कि उसने कभी सुना नहीं ।।।यहां सुनना ही साहित्य का मानवतावादी पक्ष है ।
बहुत बधाई
No one paid attention to these sentences because they were separate from the main story.
“एक ने तो यह भी जानकारी दी कि उस इलाके में तो बीमारियों से ज्यादा दंगे होते हैं। मैं कहने को होता कि साब उसमें तो बिक्री और बढ़ती है!”
Unintentionally, the writer has pointed out the most unethical, unnatural, and anti-human tendency of capitalism. In this system, every activity is assessed not on the basis of its aesthetic or intrinsic value or social utility, but on its potential to extract profit.
In the modern healthcare system, with its large hospitals, highly qualified specialist doctors, pathology labs, and advanced machinery etc., a patient is not treated as a patient but merely as a customer. In reality, this system thrives on diseases and could never truly wish for illnesses to be eradicated from the root.
In such a scenario, it is not surprising that a chemist feels elated during riots, as they increase sales.
However, along with exposing the distortions of capitalism, these sentences also question the sensitivity of the narrator’s father in this story.
Good observations.
आपकी चर्चित कहानी “पुत्री का प्रेमी” आधुनिक मध्यवर्गीय समाज की त्रासदी है। संख्या में सबसे बड़ा होने के कारण मध्यवर्ग भूमंडलीकरण से सबसे अधिक प्रभावित है।बेरोजगारी,उपभोक्तावाद बाजारवाद,और ना जाने कितने वादों से घिरा,अपनी सभ्यता और संस्कृति से अनभिज्ञ हमारे देश का युवावर्ग क्यों आस्था हीन,अस्थिर और दिशाहीन है।वह प्रेम देना नहीं पाना चाहता है।विवाह जैसी जिम्मेदारियों से वह भागता दिख रहा है। लिव इन में रहने की संस्कृति के परिणाम भविष्य में घातक होंगे।
युवा अपने पारिवारिक कार्यों को छोटा समझ कर उनको छोड़ रहा है जिनमें वह सफल भी हो सकता है।बेरोजगारी का कारण यह भी है।
मध्य वर्गीय युवक युवतियों के असंतोष की यह कहानी संवेदनाओं को झकझोर कर छोड़ देती है। लेखक जितनी गहराई से राघव और इशू से जुड़ा है उतनी गहराई का उन दोनों में अभाव है।संबंधों को तराशना नई पीढ़ी नहीं चाहती बल्कि उन्हें छोड़ देना बेहतर समझती है।संवेदना के स्तर पर, प्रेम जैसे उनके भीतर जोर शोर से आता है वैसे ही चला भी जाता है।
पाठक को द्वंद में छोड़ देना कहानी का अंत है जिसे हाथी के रूपक से पूरा किया गया है।
यह कहानी रचने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
_मनु मोहन,गाजियाबाद( उ. प्र)
आपकी चर्चित कहानी “पुत्री का प्रेमी” आधुनिक मध्यवर्गीय समाज की त्रासदी है। संख्या में सबसे बड़ा होने के कारण मध्यवर्ग भूमंडलीकरण से सबसे अधिक प्रभावित है।बेरोजगारी,उपभोक्तावाद बाजारवाद,और ना जाने कितने वादों से घिरा,अपनी सभ्यता और संस्कृति से अनभिज्ञ हमारे देश का युवावर्ग क्यों आस्था हीन,अस्थिर और दिशाहीन है।वह प्रेम देना नहीं पाना चाहता है।विवाह जैसी जिम्मेदारियों से वह भागता दिख रहा है। लिव इन में रहने की संस्कृति के परिणाम भविष्य में घातक होंगे।
युवा अपने पारिवारिक कार्यों को छोटा समझ कर उनको छोड़ रहा है जिनमें वह सफल भी हो सकता है।बेरोजगारी का कारण यह भी है।
मध्य वर्गीय युवक युवतियों के असंतोष की यह कहानी संवेदनाओं को झकझोर कर छोड़ देती है। लेखक जितनी गहराई से राघव और इशू से जुड़ा है उतनी गहराई का उन दोनों में अभाव है।संबंधों को तराशना नई पीढ़ी नहीं चाहती बल्कि उन्हें छोड़ देना बेहतर समझती है।संवेदना के स्तर पर, प्रेम जैसे उनके भीतर जोर शोर से आता है वैसे ही चला भी जाता है।
पाठक को द्वंद में छोड़ देना कहानी का अंत है जिसे हाथी के रूपक से पूरा किया गया है।
यह कहानी रचने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
_मनु मोहन,गाजियाबाद( उ. प्र)
आपकी कहानी जीवन के गहरे और मार्मिक पहलुओं को उजागर करती है। आपकी लेखनी में एक अद्भुत प्रभावशालीता है, जो पाठकों को भावनात्मक रूप से जुड़ने के लिए मजबूर करती है। आपकी विचारशीलता, शब्दों का चयन और कहानी की गहराई वास्तव में सराहनीय है। इस अद्भुत कृति के लिए आपको ढेर सारी बधाई!”