धूमिल की प्रासंगिकता यह है कि भाषा के खिलवाड़ को आज से वर्षों पहले वे पूरी गंभीरता से उभार रहे थे. आज भाषा का छद्म ही है जिस पर सत्ताएँ टिकी हैं और इस छद्म को कायम रखने के लिए अरबों रूपए खर्च कर जनता को दिग्भ्रमित किया जा रहा है. भाषा उसी रूप में लोगों तक पहुँच रही है जिस रूप में मनुष्यता की हत्या करने वाले चाह रहे हैं. भाषा की रात बताती है कि भाषा संप्रेषण का नहीं मुनाफे का माध्यम है-
चन्द चालाक लोगों ने
(जिनकी नरभक्षी जीभ ने
पसीने का स्वाद चख लिया है)
बहस के लिए
भूख की जगह
भाषा को रख दिया है.
भाषा की रात कविता एकदम ही आधुनिक अर्थच्छवियाँ प्रस्तुत करती है, व्याख्याओं के नए स्रोत खोलती है. समकालीन संदर्भों में इस पढ़ें तो यह दुष्प्रचार के उन माध्यमों पर एक प्रहार की तरह दिखाई देती है जिस पर सारा व्यापार टिका है, व्यवस्था खड़ी है. संचार माध्यमों के जरिए चेतना को संकुचित और अनुकूलित कर लोगों को वही दिखाया और सुनाया जा रहा जिससे लोगों को भेड़चाल में बाँधा जा सके और चेतना को इतना कुंद कर दिया जाए कि वे गुहान्धकार में भटकते रहें, वह भी कुछ इस तरह कि उन्हें पता भी न चले कि वे भटक रहे हैं. सब कुछ का एक ऐसा मिश्रण और घाल-मेल तैयार कर दिया गया है कि ऊब की प्रतिक्रिया क्रांति की ओर न हो, किसी परिवर्तनकामी चेतना की ओर न हो. देश के हालात से परेशान हैं तो पाकिस्तान के बदतर हालात के बारे में सुनिए, गुस्से में हैं तो अखबार और टी.वी. देखिए, मनोरंजन चाहिए तो बिग बॉस और नाग-नागिन के सीरियल देखिए, क्षोभ में हैं और कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है तो भजन सुनिए, बस वह काम मत करिए जिससे व्यवस्था के लुटेरों पर कोई आँच आए. आप इधर उलझे रहिए उधर वे देश का वारा-न्यारा करते रहें-
उन्होंने सुरक्षित कर दिए हैं
तुम्हारे सन्तोष के लिए
पड़ोसी देशों की
भुखमरी के किस्से
तुम्हारे गुस्से के लिए
अख़बार का
आठवाँ कालम
और तुम्हारी ऊब के लिए
वैष्णव जन तो तेणे कहिए की
नमकीन धुन. (भाषा की रात)
इस कविता की संरचना इस तरह गुंफित है कि हत्यारों की जुबान की पहचान हो जाती है. धूमिल जानते हैं कि इन हत्यारों के पास वही भाषा है जो हम सुनना चाहते हैं. वे हमारे सबसे निकटवर्ती भावनाओं को ऐसे लिबास में प्रस्तुत करेंगे कि बचना नामुमकिन हो जाएगा. यह अचनाक तो नहीं हुआ कि हमारे धार्मिक प्रतीक राजनीति की भाषा बन गए और हमारी इच्छाएँ विज्ञापनों की धुरी-
तुम्हारी ऊब का चेहरा पहनकर
हत्यारों ने
फिर उसी जुबान में
बोलना शुरू किया है
जिसमें तुम्हारे बचपन की
लोरियों की गन्ध है
और
जो तुम्हें बेहद पसन्द है. (भाषा की रात)
हत्या की राजनीति पर सवार होकर जो लोग सत्तानशीन हुए हैं, उनका उन्माद कुछ यूं है कि देश अब बस माध्यम है लक्ष्य नहीं, जनता बस सीढ़ी है उद्देश्य नहीं. सातवें दशक की इस कविता की निम्न पंक्तियों में स्वस्तिक की उपस्थिति फासीवादी राजनीति के प्रारंभिक चरणों का आभास दे देती है. आज के दौर में तो खैर यह पूरे परिवेश पर ही लागू की जा सकती है. फासीवादी उन्मादियों की नज़र में बस अपनी पहचान और श्रेष्ठताबोध ही सब कुछ है और उसे स्थापित करने के लिए मनुष्यता के सर्वाधिक मूल्यवान हासिल की भी बिना हिचक बलि दी जा सकती है, गाँधी की हत्या की जा सकती है, भीड़ को उन्मादी बनाया जा सकता है. फासीवादियों को भाड़े की भीड़ के अन्धे जुनून पर कतई, ऐतराज नहीं है और-
देश डूबता है तो डूबे
लोग ऊबते हैं तो ऊबें
जनता लट्टू हो
चाहे तटस्थ रहे
बहरहाल, वह सिर्फ यह चाहता है
कि उसका स्वस्तिक
स्वस्थ रहे.
भाषा की रात कविता का अगला पड़ाव है पटकथा. यह कविता कभी बड़बोलेपन का आरोप झेल चुकी है लेकिन आज तो लगता है कि जो इसमें कहा गया है, पानी उससे भी ऊपर जा चुका है. 1969 के एक आलेख में अशोक वाजपेयी को पटकथा कविता एक दिलचस्प असफलता लगती है. (यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि धूमिल के शिल्प और संवेदना पर अशोकजी ने बहुत सार्थक हस्तक्षेप सातवें दशक में ही कर दिया था और महत्वपूर्ण स्थापनाएँ दी थीं.) पटकथा उन्हें चालू मुहावरों में गिरफ्त और बड़बोलेपन से युक्त लगती है. वे लिखते हैं- जनता, संसद, संविधान और प्रजातंत्र जैसे शब्द और धारणाएं इधर की कविता में चालू मुहावरा बन गई हैं.[1] वे यह भी कहते हैं कि अतिव्याप्त कथनों से कविता भरी पड़ी है लेकिन उन्हें ठोस प्रासंगिता में गूंथकर सार्थक बनाने वाला चारित्रिक केन्द्र कविता में नहीं है. वे इस कविता में एक मोचीराम ढूंढते हैं- मोचीराम जैसा कोई स्पष्ट परिभाषित और ठोस चरित्र भी कविता के केंद्र में नहीं है जो उसे संभाल सके. बल्कि कवि की मैं सब कुछ जानता हूँ या आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ- जिसके आगे हर सचाई छोटी है की मुद्रा और उससे उपजने वाला पैगंबराना अंदाज विश्वास पैदा नहीं करते. उनसे कविता की आंतरिक सत्ता बिखरती है, और चूँकि पटकथा एक लंबी कविता है, पढ़ने में ऊब और कभी-कभी चिढ़ भी पैदा होती है.[2]
अशोक वाजपेयी की इन टिप्पणियों को पढ़ कर लगता है कि कितना अच्छा होता कि वे इन पंक्तियों में भी वही नाटकीयता ढूंढ लेते जिसे उन्होंने अपने उक्त लेख के आरंभ में रेखांकित किया है और उस आधार पर कवि के सामान्यीकरणों और ऐसे कथनों को समझने की कोशिश की है. यह खयाल भी दिमाग में आता है कि आज जनता, संसद, संविधान और प्रजातंत्र के साथ जो कुछ हो रहा है, और इन परिस्थितियों से अशोकजी की अपनी सामाजिक चेतना और काव्य-दृष्टि जितनी प्रभावित हुई है, वे पटकथा का पुनर्पाठ कैसे करते! आज के भारत की स्थितियों को देखते हुए चालिस-पचास साल बाद यह कविता, जो उस समय आलोचक को अतिव्याप्ति और अतिरंजना का शिकार लग रही थी, चालू मुहावरों में कैद लग रही थी, मेरी समझ से अब ठोस यथार्थ लगती. आज के पाठक को पटकथा की पंक्तियाँ अतिरंजना नहीं बल्कि परिस्थितियों का ठेठ बयान लगेंगी. यहीं धूमिल की सफलता है. एक भारतीय के रूप में जिन मूल्यों और अधिकारों के लिए वे इतने वर्ष पहले सचेत थे उन मूल्यों और अधिकारों की चिन्ता आज बौद्धिकों के मानस पर काबिज है. दुखद यह है कि वर्गीय सीमाओं में कैद अभिजात कविगणों की एक लंबी फेहरिस्त है जो मौका मिलते ही कविता की दुनिया को स्वायत्त बनाने में लग जाते हैं. और ये दोबारा तभी जागृत होते हैं जब उनकी अपनी यह स्वायत्तता इससे प्रभावित होने लगती है. जबकि धूमिल की कविता की दुनिया उनकी अपनी 16 गुणा 12 की दुनिया नहीं है बल्कि उन भारतवासियों की दुनिया है जिन्हें वे सच्चे मन से प्यार करते हैं. उन्हें सबके लिए हवा और धूप चाहिए-
बाहर हवा थी
धूप थी घास थी
मैंने कहा आज़ादी.
हवा, धूप या घास सेलेक्टिव आज़ादी के प्रतीक नहीं हैं जैसा कि आज दिखाई दे रहा है. ये फर्क नहीं करते. जीवन का संचार करते हैं बगैर भेदभाव. यही धूमिल की आकांक्षा है जो उन्हें पूँजीवादी जनतंत्र के वर्तमान ढांचे में पूरा होते नहीं दिखाई देती. आज़ादी का मतलब उनके लिए भारत-पाकिस्तान की सीमा नहीं थी. उन्होंने जिस आज़ादी का इंतजार किया था वह कुछ ऐसा था-
मैंने इन्तजार किया
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा
अब कोई छत बारिश में नहीं टपकेगी.
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह जमीन अपनी है
आसमान अपना है.
यह सब ठीक वैसे ही उन्हें चाहिए था जैसे कि सूर्य सबका है. लेकिन उन्होंने जब पाया कि जनतंत्र, त्याग, स्वतंत्रता, संस्कृति, शान्ति, मनुष्यता सब सिर्फ वादे थे, शब्द थे तब उनकी कविता का चेहरा बदल गया. पटकथा कविता बताती है कि यह स्थिति अचानक नहीं आई-
इस तरह जो था उसे मैंने जी भर कर प्यार किया
और जो नहीं था उसका इन्तज़ार किया.
इसके बाद धूमिल की कविता उस दिशा में गई जिसमें ऊब है, क्षोभ है. फिर उनके इस क्षोभ से कोई नहीं बचता. जब उन्होंने देखा कि
दूर दूर तक कोई मौसम नहीं है
लोग घरों के भीतर
नंगे हो गए हैं.
और यहाँ ऐसा जनतंत्र है
जिसमें जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
तब हिम्मत जवाब दे गई और कविता का चेहरा भी बदलता गया. फिर धूमिल अपने देश के बारे में कहते हैं कि
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-
नफरत है.
साजिश है.
अन्धेर है.
और जनता के बारे में कहते हैं कि जनता क्या है…
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती जाती हवा की जुबान में
हाँ…हाँ… करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है.
धूमिल की कविता और समकालीन हो जाती है जब वह यह संकेतित करती है कि हम उन स्थितियों में पहुँच गए हैं जहाँ प्रतिक्रियावाद, यथास्थितिवाद और कायरता का विस्तार करने वाले ही देशभक्ति का सर्टिफिकेट बाँटते फिर रहे हैं. वही लोग देशभक्ति का तमगा लगाए घूम रहे हैं जो इस धुँए और कुहासे के जिम्मेदार हैं. भूखा आदमी जिनके लिए एक परेशानी का सबब है और उसे हर तरह से मिटा देने पर जो आमादा हैं. ये लोग देशभक्ति को उनके बीच बेच रहे हैं जिनके पास और कोई चीज़ इतने सस्ते दरों पर खरीदने के लिए बची ही नहीं है-
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ सिर्फ वही आदमी देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है.
मूर्ख वह जो सत्ता के छलावे का शिकार हो चुका है, और गरीब वह जिसके पास अब और कोई चारा नहीं है. ऐसे में, धूमिल देखते हैं कि जो आज़ादी हमने सोची थी वह खो गई है. उसे धूमिल कहाँ ढूंढते हैं यह देखने लायक है-
टूटी हुई चीजों के ढेर में
मैं खोई हुई आज़ादी का अर्थ
ढूंढता रहा. …देश के इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक चेतना को
बार बार टेरता रहा
जो मुझे दोबारा जी सके
जो मुझे शान्ति दे और
मेरे भीतर बाहर का जहर
खुद पी सके.
धूमिल सत्ता के चरित्र को जिस तरह से उद्घाटित करते हैं वह काबिल-ए-गौर है. सत्ता नागरिकों से कैसे पेश आती है, किसे विज्ञापन के लिए इस्तेमाल करती है और किसे नारों के लिए, दुष्प्रचारों-अफवाहों का इस्तेमाल वह कैसे करती है, इसके निकट जाने वालों का चरित्र कैसा हो जाता है, देश और धर्म इसके लिए क्या हैं- यह सब पटकथा की पंक्तियों में जगह-जगह है. सत्ता ऐसी भाषा बोलती है जिसे सुनकर-
नागरिकता की गोधुलि में
घर लौटते हुए मुसाफिर
अपना रास्ता भटक जाते हैं. और उनकी सख्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
सबसे सटीक नारा है
वे खेतों में भूख और शहरों में
अफवाहों के पुलिन्दे फेंकते हैं
देश और धर्म और नैतिकता की दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की हाय पर सेंकते हैंवे जिसकी पीठ ठोंकते हैं-
उसके रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है.
नागरिकता, संविधान और चुनाव की आड़ में धीरे-धीरे जनसमुदाय के बड़े हिस्से की पीठ या तो झुक गई है या उसमें से रीढ़ की हड्डी गायब हो गई है. एक ऐसा तबका तैयार हो चुका है जो इन स्थितियों में भी पूरी सहूलियत से आँख बन्द करके जीवित है, जिस पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता. नागरिकता, संविधान और चुनाव जैसे शब्दों के आवरण में एक क्रूर तटस्थता ने जन्म ले लिया है और लोकतंत्र को मजबूत करने के दूसरे साधनों, संघर्षों, जनान्दलनों को पीछे धकेल दिया गया है. सब कुछ चुनाव पर आकर सिमट जाता है क्योंकि चुनाव कुर्सी पर आकर सिमट जाती है और कुर्सी सत्ता और ताकत पर. भारतवासियों को इस सहूलियत से बाहर निकालने का प्रयास करती है पटकथा. लोकतंत्र के वास्तविक अर्थों को अर्जित करना ही धूमिल का ध्येय है जब उनका हिन्दुस्तान अपने नागरिकों से खोखली भलमनसाहत और अदब से बाहर आने को कहता है-
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने
अदब से रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गई है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गई है.
धूमिल इन पंक्तियों से हमारे लोकतंत्र की सीमित होती जा रही समझ पर गहरा प्रहार करते हैं. चुनाव के उत्सव में और इस लोकतंत्र के छलावे में हिन्दुस्तान का हमने क्या कर दिया है यह धूमिल के इस काव्यांश में दिखाई देता है-
मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया-
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस. वे किसी आदमी
को हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे. उसे घसीट रहे थे.
चूम रहे थे. पीट रहे थे. गालियाँ दे रहे थे.
गले से लगा रहे थे. उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे. उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे.
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी. उसकी आँखें बन्द थीं.
उसका चेहरा खून और आंसू से तर था.
इस तरह धूमिल हमारे समय की उस क्रूर वास्तविकता तक हमें ले जाते हैं जिसे भीड़ की संस्कृति कहा जाता है. भीड़ के व्यवहार में मूल्यों के लिए कोई जगह नहीं होती. वह संस्कृति सिर्फ हिंसा से जुड़ी होती है. इस देश में उस संस्कृति को पिछले कुछ वर्षों में इस कदर प्रश्रय मिला है कि पटकथा पचास साल पुरानी कविता नहीं लगती. धूमिल इस भीड़ वाली मानसिकता को किसी घटना तक नहीं समेटते बल्कि यह दिखाते हैं कि धीरे-धीरे हमने पूरे देश को एक भीड़ में तब्दील कर दिया है और अब सभी इस देश को नोचने-खसोटने में शामिल हो चुके हैं. कवि, वैज्ञानिक, दार्शनिक, नेता, कलाकार आदि का लिबास पहनकर बस भुलावा ही दिया जा सकता है कि इस भीड़ में हम शामिल नहीं हैं. जो भी सत्ता के वैचारिक प्रवाह में बह रहा है और अपने पेशे का कोई तर्क नहीं गढ़ पा रहा- वे सब भीड़ में शामिल हैं. वे सभी कानून की भाषा बोलते हुए अपराधियों के संयुक्त परिवार के सदस्य हैं. धूमिल साफ कहते हैं कि-
नहीं- भीड़ के खिलाफ रुकना
एक खूनी विचार है क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
इस हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार है.
धूमिल समाजवाद जैसे शब्दों के दुरुपयोग की चर्चा करते हैं. स्थितियाँ अब बदल गई हैं. धूमिल की चिंताएं अब इतनी बड़ी हो गई हैं कि कुर्सी पर बैठे लोग सहज ही सेकुलर और समाजवाद जैसे शब्दों की मृत्यु चाह रहे हैं. बेझिझक इन शब्दों के खिलाफ बयान दिए जा रहे हैं और जो बयान दे रहे हैं सुरक्षा भी अब उन्हें ही मिल रही है. धूमिल चिंतित थे कि
समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है
लेकिन अब के हुक्मरानों ने उस मुहावरे को कबका छोड़ दिया है और कोशिश यह है कि इनके अर्थों को जनमानस की चेतना से भी मिटा दिया जाए. अब जब स्थितियाँ ऐसी हो गई हैं तो क्या अशोकजी अभी भी मानेंगे कि यह कविता बड़बोलेपन का शिकार है! इस कविता के आखिरी दो पृष्ठ संसदीय राजनीति के खोखलेपन की बखिया उधेड़ते हैं. राजनीति ऐसी हो गई है कि एक ईमानदार आदमी के पास घुट-घुट कर जीने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है. धूमिल इस देश के लिए कारागार का प्रतीक प्रयोग में लाते हैं-
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूंथता हुआ. घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की ही तरह आज भी
मेरा कारागार है.
समकालीन स्थितियों में एक देशद्रोही कवि कहे जाने के सारे तत्व धूमिल की कविता में मौजूद हैं.
संसद से सड़क तक की पहली कविता का शीर्षक है कविता, जिसकी पंक्तियाँ हैं कि
अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है.
धूमिल में यह बोध बहुत गहराई में पैठा हुआ है कि
कविता घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है.
विवशताता की ऐसी घनीभूत अनुभूति के साथ धूमिल कविताओं की दुनिया में प्रवेश करते हैं. जितना भीतर वे प्रवेश करते जाते हैं, यह असहायता, यह वेदना और इसके साथ ही सब कुछ को स्वीकार चुके समाज की खामोशी उनकी कविता को और अधिक बेंधती जाती है. लोगों के पालतू होते जाने की चिन्ता धूमिल को सताए जाती है. कहीं से भी वे वैसा बना दिए जाने से इंकार करना चाहते हैं. उनके नितांत अकेलेपन का यही कारण है. कुत्ता कविता में इस विडंबना की गहन अभिव्यक्ति है. पटकथा में नागरिकों की हालत तो हमने देख ही ली. शहर, शाम और एक बूढ़ाः मैं कविता भी नागरिक शब्द पर करारा प्रहार करती है. लेकिन प्रहार सिर्फ नागरिकों पर नहीं है, बल्कि अपने भीतर आए खोखलेपन से भी वे क्षुब्ध हैं. नागरिक होने के मायने बदल गए हैं अब. इसके लिए आपके भीतर सौम्यता होनी चाहिए, दुखी और परेशान भी आप जरूर दिखें, …लेकिन बस दिखें-
सिगरेट का आखिरी कश खींचकर
मैंने उसे राखदान में डाल दिया है
और अब, मैं एक शरीफ आदमी हूं
पूरी नागरिक सौम्यता के साथ.
इसी की आगे की पंक्तिया हैं-
यह मेरी जिन्दगी का लब्बोलुआब है
(हर अच्छे नागरिक की तरह
खतरे का सायरन बजते ही
मैंने अपनी खिड़की के पर्दे गिरा दिए हैं.
मुनासिब कार्रवाई कविता भी बताती है कि धूमिल निराशा हताशा के कवि नहीं हैं बल्कि क्षोभ, करुणा, और यथार्थ के कवि हैं. अपने आस-पास की दुनिया में मजलूमों के साथ हो रहे जुल्मों से परेशान हैं. कविता से उन्होंने उम्मीद नहीं खोई है. भीतर की रोशनी की चर्चा धूमिल की कविताओं में जगह-जगह इसीलिए है कि वे जितनी भी रोशनी बची है उसे जिलाए रखना चाहते हैं. अकारण नहीं है कि इस कविता में भी देश-द्रोह के प्रमाण है-
जिसमें थोड़ा सा भी विवेक है
वह जानता है कि आजकल
शहर कोतवाल की नीयत
और हथकड़ी का नंबर एक है.
इसी कविता में वे बहस का रुख बदलना चाहते हैं-
वक्त बहुत कम है.
इसलिए कविता पर बहस
शुरू करो
और शहर को अपनी ओर झुका लो
क्योंकि असली अपराधी का
नाम लेने के लिए
कविता, सिर्फ उतनी ही देर तक सुरक्षित है
जितनी देर, कीमा होने से पहले
कसाई के ठीहे और तनी हुई गंडास के बीच
बोटी सुरक्षित है. वे जानते हैं कि चीजें जिस दिशा में हैं विकृतियाँ बढ़ते देर नहीं लगेगी. लगी भी नहीं.
शीतांशु जी का विवेचन सचमुच बहुत गहरा और लगभग सर्वांगीण है। कविता को बुद्धिगम्य बनाने का काम ही शायद आलोचना का काम है। उससे परे अपना काम कविता ख़ुद ही करती है। उस ठौर पर कोई भी कविता ,किसी भी पाठक या आलोचक के लिए ,मात्र उतनी ही पहुंच पाती है जितनी ग्रहणशीलता उस व्यक्ति के भीतर हो।कविता या कला मात्र का यह अजीब विपर्यास है।ऐन वही तर्क,जो धूमिल की भावनात्मक और वैचारिक व्याकुलता को, और उसके फलस्वरूप एक लगभग आदर्श समाज एवं जीवन की परिकल्पना को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं–वे ही तर्क उन शक्तियों और व्यक्तियों को कितने नागवार लगेंगे,उनको, जिन्होंने जीवन-विश्व को “नरक”बना रखा है! कला विमर्श के भीतर से झलकने वाले कितने सारे ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी तरह के प्रतिपादन को, खंडन और मंडन को “सार्वभौम”होने ही नहीं देते! शशांक जी ने बहुत वस्तुनिष्ठता से धूमिल की केंद्रीयता आज के संदर्भ में पुष्ट की है।आशा करें कि अब जब हम धूमिल के पास जाएंगे, तो उनकी कविता से कुछ अधिक सम्रद्धि बटोर पाएंगे। हालांकि जिन्हें समता न्याय सहज भाईचारा सिरे से नापसंद है,वे…?
शीतांशु जी। टाइप की भूल क्षमा!
ऐसा लगता है जैसे बहुत सी कविताएं पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हों। सही समय पर जरूरी आलेख। शीतांशु जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं
अपनी रचनाओं में छिटपुट स्त्रीवादी विचारों को लेकर कबीर,तुलसी और धूमिल- तीनों कवियों की आलोचना होती रही है। पर इससे उनके समस्त रचना संसार और उनके अवदान को खारिज नहीं किया जा सकता।धूमिल के रचना लोक के केंद्र में एक गुस्साये हुए आदमी की अभावों से भरी जिंदगी की व्यथा है । आजादी के बाद एक उम्मीद से भरे हुए आदमी का लोकतंत्र से मोहभंग और उसके टूटे हुए सपनों का आक्रोश इन कविताओं में पूरे आवेग से फूटते देखा जा सकता है। यह नाराज़गी सबसे अधिक व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र से है। इसकी हीं पराकाष्ठा हमें घोर अनास्था के रूप में नक्सलवाड़ी आंदोलनों में दीखती है। लेकिन तब से आधी सदी बीतने के बाद भी धूमिल की कविताएँ आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक होती गयी हैं।जाहिर है, हालात बदतर होते गये हैं क्योंकि जिस शोषण की बुनियाद पर व्यवस्था टिकी है उसकी जड़ें और भी गहरी होती गयी हैं। इतने विस्तार से शीतांशु का यह आलेख हमें धूमिल को आज के संदर्भ में समझने की एक आलोचना दृष्टि देता है।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
धन्यवाद आप सभी को इन सारगर्भित टिप्पणियों के लिए।
धूमिल जी की कविताओं में स्त्री पक्ष को लेकर जो मलाल रहा, वह शीतांशु जी की समालोचना के बाद धूल गया है । आज के परिप्रेक्ष्य को धूमिल जी कविताओं के साथ पढ़ने को प्रेरित करता है यह आलेख ।