| फ़्रांचेस्का ओर्सिनी : शब्दों के गणराज्य का रुपहला बिंब
त्रिभुवन |
दीपावली प्रकाश का एक शृंखला पर्व है और यह हर वर्ष केवल एक त्योहार बनकर नहीं आता; एक प्राचीन सभ्यता की पुनर्पुष्टि की तरह प्रवेश करता है. अंधकार चाहे जितना घनेरा और वनैला क्यों न हो, वह न तो स्थायी है, न सर्वशक्तिमान. लेकिन इस वर्ष उसी आलोक पर्व की दहलीज़ पर दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक विचित्र अंधकार उतर आया.
पहले इस तरह के समाचार अविश्वसनीय लगते थे. लेकिन अब जब ख़बर आई कि हिन्दी की सुप्रसिद्ध अध्येता, साहित्य की विदुषी और लंदन के एसओएएस की प्रोफ़ेसर एमेरिटा फ़्रांचेस्का ओर्सिनी को भारत में प्रवेश से रोक दिया गया और तत्काल निर्वासन कर दिया गया तो यह बेचैन करने वाली जानकारी थी. उन्हें पाँच वर्षों का वैध ई-वीज़ा प्राप्त था. यह कोई साधारण प्रशासनिक त्रुटि नहीं है. यह एक नैतिक मेटाफ़र है. रोशनियों के रथ की एक साधिका को छाया के संरक्षकों का इस तरह रोक देना कई प्रश्नों को जन्म देता है.
यह वही विदुषी हैं, जिन्होंने भारत की भाषा को उस तरह पढ़ा, जैसे चरक-सुश्रुतकालीन कोई वैद्य नाड़ी देखता है. धीरे-धीरे, आदर के साथ और तन्मय होकर और उस नाड़ी के हर स्पंदन में निहित अर्थ की खोज करते हुए. उनकी कालजयी कृति “दॅ हिन्दी पब्लिक स्फेयर (1920–1940): लैंग्वेज ऐंड लिटरेचर इन दॅ एज ऑव नेशनलिज्म” केवल साहित्यिक ग्रंथ नहीं, आधुनिक भारत के बहुभाषिक आत्मबोध की जीवनी है.
यह कितनी अद्भुत बात है कि इस देश में जहाँ इस देश के आलोचकों, भाषाविदों और राजनेताओं को यहाँ की देशज भाषाओं में आपसी संघर्ष दिखता है, ओर्सिनी ने संवाद की लोकतांत्रिक परंपरा को देखा. हमारे आलोचकों, भाषाओं के इतिहासकारों और सांस्कृतिक व्याख्याकारों ने जहाँ इन भाषाओं के साहित्य में विचारधाराओं का द्वंद्वों को तलाश करने की कोशिश की, ऑर्सिनी ने उनमें एक तरह का संगीत खोज लिया. और ऐसी विदुषी को भारत प्रवेश से रोका जाता है तो यह हैरान और हत्प्रभ ही नहीं करता, यह कुछ सोचने पर भी बाध्य करता है.
फ़्रांचेस्का ओर्सिनी को रोक देना केवल एक यात्री को रोक देना भर नहीं है. यह एक सदी पुराने विमर्श का ठहर जाना है. भारत की आत्मा के बहुलतावाद और विवेकशीलतावाद का अस्थायी रूप से मौन हो जाना है. और ख़ासकर ऐसे समय, जब हम भारत के अतीत की डूबी हुई गौरवगाथाओं को तलाशने के लिए जाने कहाँ-कहाँ भटक रहे हैं. हम क्यों भूल जाते हैं कि अतीत के भारत के माथे पर ओर्सिनी जैसे विदेशियों की उड़ाई वह धूल ही है, जिससे भारत का माथा दमक उठता है. इस धूल में घुले और धुले शब्द ही यात्राएँ बन जाते है और वे यात्राएँ ही दर्शन का रूप ले लेती हैं.
फ़्रांचेस्का ओर्सिनी की कहानी केवल आज की नहीं है. वह उस लम्बी परंपरा का नवीन अध्याय हैं, जहाँ भारत ने सदियों से यात्रियों, दार्शनिकों और खोजियों को आकर्षित किया. कभी उनके लिए भूगोल, कभी आत्मा, कभी भाषा और कभी मौन का विषय बनकर. ओर्सिनी उन्हीं यात्रियों की उस रेखा में खड़ी हैं, जहाँ “आगमन” केवल यात्रा नहीं, अन्वेषण का आचरण था.
भारत में प्रवेश पर रोकी गई यह इटैलियन विदुषी उसी भूमि में प्रवेश चाह रही थीं, जहाँ एक समय मेगस्थनीज़, फाह्यान, ह्वेनसांग, अल-बिरूनी, मार्को पोलो और अब्बे डुबोइस जैसे विदेशी यात्रियों ने कदम रखे थे. कभी राजाओं के दूत बनकर, कभी जिज्ञासु शिष्यों की तरह. उनका प्रवेश वीज़ा से नहीं, जिज्ञासा से हुआ था; उनका उद्देश्य विजय नहीं, विवेक था. वही विवेक जिसे लेकर फ़्रांचेस्का ओर्सिनी ने भारत और हिन्दी से अपना रिश्ता गूंथा है. उनकी क़िताबें महंगी हैं; लेकिन कोई गंभीर पाठक किसी तरह उन्हें गंभीरता से पढ़ ले तो वह अपने आपको कुछ अलग ही पाता है.
भारत का पहला परिप्रेक्ष्य
ईसा से 290 साल पहले यूनानी इतिहासकार, भारतवेत्ता, राजदूत मेगस्थनीज़ ने जब मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में प्रवेश किया तो वह केवल एक राजनयिक नही था. वह एक प्रश्नकर्ता था. उसकी पुस्तक “इंडिका” भारत का पहला बाहरी दृष्टिकोण बनी, जिसमें उसने गंगा की उपजाऊ भूमि, गणराज्यों की सभ्यता और दार्शनिकों के जीवन का ऐसा चित्र खींचा, जो इतिहास से अधिक साहित्य जैसा लगता है. मेगस्थनीज़ के लिए भारत एक भूगोल नहीं, दर्शन का एक परिदृश्य था. ऐसा परिदृश्य, जहाँ आचरण, विचार और सौंदर्य का संगम था. वह लिखता है,
“भारतीयों में सत्य की खोज ईश्वर से बड़ी है.”
शायद यह वही वाक्य है, जिसकी गूँज आज ओर्सिनी के अध्ययन में भी सुनाई देती है; क्योंकि उन्होंने भी सत्य को सत्ता से बड़ा माना. यह अलग बात है कि यह सत्य सत्ता से अधिक साहित्य और संवेदना के संसार से गुंथा हुआ है.
शांति के तीर्थयात्री
पाँचवीं और सातवीं शताब्दी में चीन से दो यात्राएँ शुरू हुईं. फाह्यान और ह्वेनसांग की. ये दोनों यात्राएँ बौद्ध ग्रंथों और भारत की आत्मा की खोज में पगडंडियों की तरह आईं; लेकिन इन्होंने समय के वक्ष पर एक राजमार्ग जैसे फुटप्रिंट छोड़े. फाह्यान ने साल 399 ये 412 के बीच यात्रा की तो भारत को केवल धर्म की भूमि नहीं, दया और विनम्रता की भूमि कहा. उसके यात्रा-वृत्तांतों में भारत एक ऐसा स्थान है, जहाँ
“सड़कें उपदेशों से आच्छादित हैं और हवा में करुणा की गंध घुली हुई है. उसमें कोई हत्यारा भी सांस ले तो उसका पथरीला हृदय किसी पुष्प सा कोमल हो जाए.”
ह्वेनसांग जब साल 629 के आसपास नालंदा पहुँचा तो उसने लिखा, “यहाँ मस्तिष्क और आत्मा एक साथ शिक्षा लेते हैं.” वह भी एक विद्यार्थी ही था. जैसे आज फ़्रांचेस्का ओर्सिनी हिन्दी की नालंदा में प्रवेश चाहती थीं. पर अब क्या कहें. हमने वह विश्वविद्यालय तो मिटा दिया और अब उन विद्यार्थियों के लिए द्वार बंद कर दिए, जो उसकी राख में अर्थ खोजते हैं. और ऐसे किसी विश्वविद्यालय से जब अमर्त्यसेन जैसी वैश्विक प्रतिभा को अलग किया गया तो लगा था कि यह निर्णय लेने वाले ने उनके सिर्फ़ अख़बारी बयान पढ़े हैं, उनकी अद्वितीय पुस्तकें नहीं. पुस्तकें ही नहीं, सिर्फ़ भारतीय इतिहास के अध्ययन के संदर्भ में उनकी “अतीत का वर्तमान” को ही ठीक से पढ़ लिया होता तो भारतीय मनीषा के प्रति उनकी विचारद्ष्टि सांगोपांग आत्मसात हो जाती.
प्रश्न का महात्म्य
आजकल सरकारें प्रश्नों से बहुत विचलित हो जाती हैं. लेकिन साल 1017 में अल-बिरूनी भारत आया तो उसके पास जाने कितने ही प्रश्न थे. वह तुर्की के ख्वारिज्म से था. वह एक यात्री भर नहीं था, वह था एक खगोलशास्त्री, गणितज्ञ, भाषाविद और दार्शनिक. उसने भारत आकर पहले संस्कृत सीखी, वैदिक संस्कृत को जानने की कोशिश की, वेदाध्ययन का प्रयास किया; लेकिन वह लोकसमाज के भीतर इतना पैठ गया कि उसने लोकमनीषा को आत्मसात ही कर लिया. और इसयी का परिणाम था “तहक़ीक़ मा लिल-हिन्द”. वह ग्रंथ, जिसे आज तक भारत पर सबसे सूक्ष्म और वस्तुनिष्ठ अध्ययन माना जाता है. उसने भारत से विभिन्न विद्याएँ सीखकर ही सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं, जो विज्ञान के विकास का भी आधार बनीं. वह भारत में 13 साल रहा था और उस समय देश पर किसी इस्लामिक सुलतान, मुगलिया बादशाह या किसी विदेशी वंश का शासन नहीं था. वह ऐसा भारत था, जिसमें ब्राह्मणों का आधिपत्य था और शासक क्षत्रिय हों या अन्य, उनकी बातों को पूरी तरह सुनते और मानते थे. अल-बिरूनी ने लिखा,
“मैं भारत आया सत्य के लिए, न विवाद के लिए.”
यह एक पंक्ति केवल उसके लिए नहीं, हर उस व्यक्ति के लिए है, जो इस देश में अध्ययन की नीयत से आता है; फिर चाहे वह ग्यारहवीं सदी का अरब हो या इक्कीसवीं सदी की इटालियन. ओर्सिनी के मन में भी वही जिज्ञासा थी. भारत को अंदर से समझने की. उसने भी संस्कृत और हिन्दी के सूत्रों को सीखा, पर उसकी दृष्टि पवित्रतावाद की नहीं, पारदर्शिता की थी. वह न तो इटैलियन का प्रभुत्व हिन्दी पर चाहती थी और न ही यूरोपियन संस्कृति का वर्चस्व हिन्दी लोक पर स्थापित करने का दुराग्रह या पूर्वग्रह लेकर आई थी. लेकिन हम उनके कामकाज की तुलना करें तो यह साफ़ दिखता है कि अल-बिरूनी के बाद यदि किसी विदेशी अध्येता ने भारतीय भाषाई संस्कृति को उतनी ही निष्ठा से देखा, तो वह ओर्सिनी हैं.
चमत्कार और व्यापार के बीच
तेरहवीं शताब्दी में मार्को पोलो आया. वह 1292 में चीन से लौटते हुए भारत के कोरोमंडल तट पर पहुंचा था और उसने पांड्य साम्राज्य का दौरा किया. वह साल भर भारत में रहा था. वह व्यापारी था, लेकिन उसकी दृष्टि व्यापारी भर की नहीं थी. उसने भारत के रंगों, मसालों और मंदिरों का वर्णन उस तरह किया, जैसे कोई कवि बाजार में अर्थ खोजने निकल पड़ा हो. उसके लिए भारत चमत्कारों की भूमि नहीं, मानवता की प्रयोगशाला थी. ओर्सिनी भी कुछ वैसी ही यात्री हैं. वे न तो राजनीतिक प्रचारक हैं, न धार्मिक दूत. वे उस मानव प्रयोगशाला की भाषिक धड़कन सुनती हैं. उनके अध्ययन में भारत विदेशी नहीं, विनम्र रूप से अपना लगता है.
निरीक्षण की नैतिकता
अठारहवीं शताब्दी में एक फ्रांसीसी पादरी अब्बे डुबोइस दक्षिण भारत आया. उसने 1792 में भारत में प्रवेश किया और आजीवन इस देश के ग्राम्य जीवन, जाति-व्यवस्था और धर्म के बारे में लिखा, “हिन्दू मैनर्स, कस्टम्स ऐंड सेरेमॅनीज़”. भले उसकी दृष्टि में पूर्वग्रह था, पर उसका श्रम असंदिग्ध था. वह भारत को समझना चाहता था. भले अपनी मान्यताओं के दर्पण में. लेकिन ओर्सिनी का अंतर यही है कि वह समझने के लिए आईं, न्याय करने के लिए नहीं.
उन्होंने हिन्दी के लोक-गायकों, पत्रिकाओं और जनपदों को उस सादगी से पढ़ा, जैसे कोई माली पौधों के फूलों भर को नहीं देखता, वह उसके तने और उसकी जड़ों और उसके आसपास की आबोहवा को देखता है.
वैदुष्य का पुनरागमन
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में जब शीत युद्ध ने विचारों की सीमाएँ खड़ी कर दीं, तब भी कुछ लोग उन दीवारों के पार देखने निकले. भाषा और संस्कृति की राह से. भारत से राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वानों ने विदेशी भाषाओं और संस्कृतियों को आत्मसात करने का प्रयास किया. इसी परंपरा में ओर्सिनी हैं. वे मेगस्थनीज़ और अल-बिरूनी की ही नहीं, राहुल सांकृत्यायन की भी वैचारिक वंशज हैं, पर उनकी दिशा पुस्तकालयों और जनपथों के बीच है. उनका अध्ययन केवल विश्वविद्यालयों की बात नहीं; वह लोक की स्मृति, नारी के स्वर और भाषा की परतों को एक साथ रखता है. उन्होंने दिखाया कि हिन्दी केवल साहित्य नहीं, एक सामाजिक श्वास-प्रश्वास है. एक “रिपब्लिक ऑफ़ वर्ड्स”, जहाँ हर नागरिक का नाम उसका शब्द है.
रूपक की पुनर्रचना
आज जब उन्हें दिल्ली में प्रवेश से रोका गया तो यह केवल एक यात्री का निष्कासन नहीं था. यह एक रूपक था. जैसे इतिहास हमें देख रहा हो और कह रहा हो, “तुमने मुझे पढ़ने वालों से डरना कब शुरू किया?” मेगस्थनीज़ बिना वीज़ा के आया था; फाह्यान को किसी मंत्रालय की अनुमति की ज़रूरत नहीं पड़ी; अल-बिरूनी ने संस्कृत पंडितों से सीखने के लिए किसी इमिग्रेशन कार्ड की ज़रूरत नहीं समझी. और न ही किसी पंडित ने उन्हें संस्कृत अध्ययन करवाने से इन्कार किया. उन पंडितों ने, जिन्हें हम आज म्लेच्छों के प्रति घृणास्पद दिखाते और दर्शाते अघाते नहीं हैं. और आज उसी भारत भूमि पर एक भाषा-शोधक से पूछताछ होती है कि उसका उद्देश्य क्या है. क्या यह वही भारत है, जहाँ कहा गया था, “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” यानी “सभी दिशाओं से श्रेष्ठ विचार हमारे पास आएँ”?
उस परंपरा की नई द्युति
ओर्सिनी ने कोई राजवंश नहीं देखा, पर भाषा के गणराज्य को देखा. उनके लिए हिन्दी किसी राष्ट्र की नहीं, मनुष्य और मनुष्यता की भाषा है, जिसे कोई सीमाशुल्क अधिकारी या कोई प्रवर्जन मंत्रालय परिभाषित नहीं कर सकता. उन्होंने साबित किया कि भारत को समझने के लिए यहाँ जन्म लेना पर्याप्त नहीं; यहाँ के शब्दों को सुनना ज़रूरी है. भारत की आत्मा की अनुगूंज को आत्मसात करने की आवश्यकता है. उनकी आँखों में विश्ववारा की सी बारीकी है और उनकी तर्कशक्ति में रोमशा की सी दृढ़ता. वे शची पॉलोमी की तरह कहती हैं; “सौंदर्य विवरण में बसता है.” और मंत्रद्रष्टा घोषा की तरह जोड़ती हैं, “सत्य किसी शासन से नहीं डरता, केवल सत्ता सत्य से डरती है.”
यात्रियों की परंपरा और आज का दर्पण
भारत सदियों तक उस दर्पण की तरह रहा, जिसमें बाहर से आने वाले अपने चेहरे में मानवता का अर्थ खोजते थे. आज वही दर्पण धुँधला पड़ गया है. प्रकाश के अभाव से नहीं, संकीर्णता के धुएँ से. जिस तरह मनुष्य की आँखों पर प्रकाश अधिक आता है, उसकी आँख की पुतली अधिक सिकुड़ती जाती है. कोई देश अपने सबसे प्रेमपूर्ण आलोचकों से जब डरने लगे तो समझ लेना चाहिए कि वहाँ भाषा पर नहीं, भय पर शासन है. लेकिन फ़्रांचेस्का ओर्सिनी तो आलोचक भी नहीं. वह तो ऐसे सूत्रों की खोजकर्ता हैं, जो हमारी भाषिक सत्ता के भीतर का प्रकाश खोज खोजकर लाती हैं. भारत के अतीत को देखें और वेदों से निकलती भाषिक यात्रा के फुटप्रिंट्स देखें तो साफ़ हो जाता है कि भाषा भाषा जीवंत भी रहती है और जीवित भी. वह किसी मुहर से नहीं रुकती. वह मेगस्थनीज़ की कलम से बहकर आती है, अल-बिरूनी की स्याही से गुजरती है और ओर्सिनी जैसी विदुषियों की आँखों में पुनर्जन्म लेती है.
समय की धूल को चीरती रोशनी
हवाई अड्डे की उस रात में जब फ़्रांचेस्का ओर्सिनी को विमान तक ले जाया जा रहा था, शायद उन्होंने खिड़की से दिल्ली की रोशनी देखी होगी. जैसे मेगस्थनीज़ ने पाटलिपुत्र की, जैसे फाह्यान ने श्रावस्ती की, जैसे अल-बिरूनी ने कन्नौज की. यह दृश्य अब एक प्रतिमा है. एक यात्री जा रही है, पर उसकी आँखों में वह दीया अब भी जल रहा है, जो हमें याद दिलाता है कि भारत की बौद्धिक राहों को बंद नहीं किया जा सकता; क्योंकि भारत केवल ज़ुग़राफ़िया नहीं, एक दीर्घ वाक्य है, जो अब भी लिखा जा रहा है. और उस वाक्य की सबसे नई पंक्ति फ़्रांचेस्का ओर्सिनी का नाम है. वह रोशनी, जिसे हम शायद एक बार फिर, अंधेरे में पहचानने की कोशिश करेंगे.
हिन्दी : खिड़कियों वाला घर
फ़्रांचेस्का ओर्सिनी ने कुछ ही दिन पहले कहा था,
“यह सब एक रूपक से शुरू होता है. इतना नाज़ुक कि छूते ही टूट सकता है.”
हिन्दी को एक रूपक का रूप देते हुए उन्होंने जो समझाया और जिस तरह समझाया, वह विलक्षण था. बीबीसी हिन्दी की पूर्व प्रमुख अचला शर्मा के साथ सिने इंक के एक संवाद में उन्होंने जो कहा, वह अब एक सांस्कृतिक सूत्र बन चुका है :
“भाषा एक खिड़की है; जितनी ज़्यादा खिड़कियाँ किसी घर में हों, वह उतना ही सुंदर और रहने योग्य होता है.”
यह वाक्य शैक्षणिक नहीं, नैतिक था. उनके लिए भाषा सीमा नहीं, वेंटिलेशन थी. वह हवा जो मनुष्यता को भीतर से जीवित रखती है. उन्होंने हिन्दी को ऐसा वृहत्तर घर कहा, जिसकी खिड़कियाँ उर्दू, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी और अवधी की ओर खुलती हैं. वह घर, जहाँ विविधता का संगीत किसी एक स्वर में नहीं, बहुवचन में गूँजता है. तो प्रश्न उठता है कि क्या उनके इसी बहुलतावादी नज़रिए से कोई शिकायत है या कुछ और है. कुछ और है तो उसे स्पष्ट करना चाहिए.
इटली के एक शांत नगर में जन्मी वह युवती हिन्दी से आकस्मिक रूप से मिली. जैसे कोई पतंगा अचानक किसी सम्मोहक दीये की चुंबकीय लौ पर ठहर जाए. और फ़्रांचेस्का ओर्सिनी भी हिन्दी की सम्मोहक लौ पर टिक गई. उसने स्कूल में ही हिन्दी पढ़ना शुरू कर दिया और यह सब आकस्मिक रूप से हुआ. वह कॉलेज में गई तो उसने तमाम तरह की कठिनाइयों और शिक्षकों के असहयोग के बावजूद हिन्दी का अध्ययन जारी रखा. वह चार दशकों से बनारस के पांडुलिपि-संग्रहों, इलाहाबाद के गलियारों और लंदन के अभिलेखागारों में विचरती रही हैं. अगर प्रकाश का कोई लेखन-रूप होता तो वह ओर्सिनी की पांडुलिपियों के हाशियों पर झुकी हुई उनकी लिखावट जैसा ही संभव था.
श्रवण का अनूठा शिल्प
बीबीसी हिन्दी की पूर्व प्रमुख अचला शर्मा के साथ उनका संवाद केवल इंटरव्यू नहीं, श्रवण का शिल्प था. अचला ने उस वार्तालाप को विरामों से सजाया ताकि विचार अपनी गरिमा में उतर सकें. पिछले कुछ समय में मैंने एक हिन्दी की एक वेबसाइट पर सौ इंटरव्यू बख़ूबी सुने हैं. कुछ तो कई-कई बार रिवाइंड करके. लेकिन अचला शर्मा के साथ उस एक घंटे में ओर्सिनी ने फणीश्वरनाथ रेणु, कृष्णा सोबती, एआर खातून और नीलेश रघुवंशी सहित कितने ही साहित्यकारों और साहित्यिक कृतियों पर जिस गहराई से बात की, वह किसी अकादमिक भाषण से कहीं आगे थी. उन्होंने कहा, “सोबती नोबेल की पात्र थीं.” वह प्रशंसा नहीं, न्याय का स्थगित निर्णय था. उनकी दृष्टि में “शहर से दस किलोमीटर” केवल एक कथा नहीं, भारत के असंतुलन का काव्यात्मक दृष्टिबोध था, एक ऐसा संवेदनबिंदु, जहाँ थकी हुई साइकिल, पहाड़ी की चढ़ाई और शहर की बेरुख़ी मिलकर आज के समाज का ज़ुग़राफ़िया बनाती हैं.
हिन्दी की ध्वनियों में सभ्यता
ओर्सिनी को पढ़ना किसी भाषा को माइक्रोस्कोप के नीचे देखने जैसा है. हर शब्द में एक काँपती हुई विद्युत-रेखा है. जैसे नाबोकोव को तितली के पंखों में ब्रह्मांड दिखता था, वैसे ही उन्हें हिन्दी की ध्वनियों में सभ्यता की परतें दिखती हैं. वे बड़े दार्शनिक निष्कर्षों पर नहीं, छोटे-छोटे विवरणों पर विश्वास करती हैं. किसी शब्द की ध्वनि की दिशा, किसी मुहावरे का सामाजिक वंश, किसी कवि की सांस में इतिहास का तापमान. उनका अध्ययन विश्लेषण नहीं, स्वप्न है; वे साहित्य को डिसेक्ट नहीं करतीं, उसे जीती हैं. ओर्सिनी की भाषा में सौंदर्य और सटीकता, करुणा और विवेक—सब एक साथ उपस्थित हैं. और यही संयोजन उन्हें वह विशिष्टता देता है, जहाँ विवेक कभी कविता को नहीं दबाता और कविता कभी तर्क से भागती नहीं.
निर्वासन का व्याकरण
कोई सत्ता जब स्वतंत्र मस्तिष्क से डरने लगती है, वह उसे विदेशी कह देती है. भाषाई स्वतंत्रता सबसे सूक्ष्म विद्रोह है; क्योंकि वह हमें सत्ताओं की आधिकारिक वाणी से परे देखने की क्षमता देती है. दिल्ली हवाई अड्डे की घटना केवल वीज़ा या प्रोटोकॉल का मामला नहीं; यह दृष्टि का मामला है. उस दृष्टि का, जो समाज अपने अध्येताओं से भय खाने लगे, वह पहले ही अपनी अंतरात्मा का संपादन शुरू कर चुका है. और जब भाषा की सीमाएँ प्रशासन तय करने लगे तब संस्कृति अपने ही व्याकरण से निर्वासित हो जाती है. ओर्सिनी का निष्कासन इसलिए केवल प्रशासनिक नहीं, प्रतीकात्मक है. यह हमारी चेतना और अपनी समृद्ध भाषिक अस्मिता की सिकुड़ती हुई वाक्यरचना का प्रतीक है.
स्त्रियों का वह नक्षत्रमंडल
फ़्रांचेस्का ओर्सिनी ऐसी अकेली विदुषी नहीं हैं, जो हिन्दी से प्रेम करती हैं. हिन्दी का संवेदन स्थल वह केंद्र है, जहाँ हर दीप्त शब्द भाषा की एक जीवंत आत्मा बन जाता है. यह विदुषी स्त्रियों का एक पूरा नक्षत्रमंडल है. हिन्दी से प्रेम की यह कहानी केवल फ़्रांचेस्का ओर्सिनी की नहीं है. उनके चारों ओर एक नक्षत्रमंडल फैला हुआ है. उन स्त्रियों का, जिन्होंने भौगोलिक सीमाओं से बहुत दूर जाकर हिन्दी को अपनी आत्मा का घर बना लिया. इन सबके बीच ओर्सिनी वह ध्रुवतारा हैं, जिसकी चमक से पूरा आकाश दीप्त होता है.
डेज़ी रॉकवेल वर्मोंट में बैठी हिन्दी की सबसे संवेदनशील अनुवादक हैं. उन्होंने गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि को जब टूम ऑव सैंड के रूप में रूपांतरित किया तो हिन्दी के शब्दों ने अंग़रेज़ी में एक नया प्राण पा लिया. वह अनुवाद नहीं, पुनर्जन्म था. जैसे किसी मरुभूमि में अचानक एक आबशार फूट पड़े. डेज़ी ने हमें सिखाया कि भाषा का अर्थ सीमाओं से नहीं, संवेदना से तय होता है.
एनी मोंटो (पेरिस) ने हिन्दी की व्याकरणिक गहराइयों में उतरते हुए, “रेत समाधि” का फ्रांसीसी रूप दिया. इतना जीवंत कि शब्दों में पेरिस की धूप और बनारस का धुआँ साथ चलने लगे. उन्होंने दिखाया कि व्याकरण भी कविता हो सकता है.
मारिओला ऑफ्रेडी (वेनिस) धूमिल की ज्वालामुखीय भाषा पर काम करने वाली विदुषी हैं. उन्होंने हिन्दी कविता की वह नस पकड़ी, जहाँ शब्द राजनीति से नहीं, पीड़ा से जन्म लेते हैं. वेनिस के जलमार्गों से लेकर बनारस की गलियों तक उनके अध्ययन ने यह साबित किया कि विद्रोह भी एक कलात्मक सौंदर्य रखता है.
क्योको निवा (टोक्यो) छंदों की शिल्पकार हैं. हिन्दी और बांग्ला की लयात्मकता को जोड़ने वाला सेतु. वे दिखाती हैं कि भाषा की गिनती अक्षरों में नहीं, उसकी साँसों में होती है. उन्होंने हिन्दी को जापान के संगीत में मिलाया और सिद्ध किया कि कविता किसी राष्ट्र की नहीं, सम्पूर्ण मानवता की भाषा है.
राचेल ड्वायर (लंदन) ने हिन्दी सिनेमा को साहित्य का विस्तार माना. उनके अध्ययन में “शोले” और “सलाम बॉम्बे” केवल फ़िल्में नहीं, सांस्कृतिक ग्रंथ बन जाती हैं. उन्होंने सिखाया कि सिनेमा भी भाषा की एक लंबी कविता है, जो समाज के स्वप्न और संत्रास को साथ बुनती है.
एलिसन बुश (कोलंबिया विश्वविद्यालय) ने मुगल दरबार की रीति-कविता को आधुनिकता की आँख से देखा. उनके लिए दरबार सत्ता का नहीं, सौंदर्य और राजनीति के संगम का मंच था, जहाँ शब्द तलवार की धार जितने तीखे और रेशम जितने कोमल हो सकते हैं. उनके लेखन में इतिहास का धूलभरा ग्रंथ अचानक जीवित हो उठता है, जैसे पुराने पन्ने से इत्र की गंध उठे.
मोनिका होर्स्टमैन (हाइडेलबर्ग) ने भक्ति, योग और इतिहास के बीच छिपे सम्बन्धों को रेशा-रेशा खोला. उनके लिए कबीर और दादू दयाल किसी धर्म की आवाज़ नहीं, समाज के आत्मालोक की प्रतिध्वनि हैं. वे यह मानती हैं कि भक्ति-साहित्य भारत का पहला लोकतंत्र था. शब्दों का जनपथ.
उल्रिके स्टार्क (शिकागो) हिन्दी के मुद्रण और पुस्तकीय इतिहास की पुरातत्वविद हैं. उन्होंने दिखाया कि कैसे उन्नीसवीं सदी की छपाई मशीनों ने हिन्दी के विचारों को आकार दिया. उनके अध्ययन से पता चलता है कि साहित्य केवल लिखा नहीं जाता, छापा भी जाता है. और वही छपाई इतिहास का रूप ले लेती है.
डागमार मर्कोवा (प्राग) ने मध्य यूरोप और भारत के बीच हिन्दी का पुल बनाया. उनके शब्दों में हिन्दी कोई “पौरवात्य” भाषा नहीं, विश्व की वह सुरावली है ,जो इतिहास के बीच भी गुनगुनाने जाने के एहसासों में जीवंत रहती है.
मैडलेन बियार्डो (फ्रांस) ने भारतीय दर्शन और हिन्दी के संगम में उतरकर दिखाया कि आध्यात्म केवल मठों में नहीं, शब्दों में भी जन्म लेता है. उनके अध्ययन में हिन्दी कविताएँ उपनिषदों की तरह दीप्त होती हैं.
और वेंडी डॉनिगर वह विदुषी हैं, जिनके लिए मिथक विद्या नहीं, आत्मचिंतन का दर्पण है. उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और धर्मग्रंथों को इस तरह पढ़ा कि उनमें छिपा मानव का स्वभाव उजागर हो गया.
इन सबके बीच फ़्रांचेस्का ओर्सिनी का स्थान एक संगीत-संचालक का है. वे इस नक्षत्रमंडल में उस नाद सौंदर्य की तरह उपस्थित हैं, जो सबको खींचता, जोड़ता और मोहित करता है. उनके बिना यह पूरा समूह अधूरा है. उन्होंने हमें यह सिखाया कि भाषा केवल शब्दों का ताना-बाना नहीं, एक नैतिक कार्य भी है. दुनिया को एक साथ समझने का प्रयास.
इन विदेशी विदुषियों के पास न कोई जातीय दावे हैं, न कोई राजनीतिक एजेंडा. वे किसी झंडे की नहीं, किसी विचार की प्रतिनिधि नहीं हैं. उन्होंने हिन्दी को अपना धर्म बना लिया. बिना मंदिर के, बिना ग्रंथ के, केवल प्रेम और अध्ययन से. उन्होंने दिखाया कि जब भाषा का अध्ययन ईमानदारी से किया जाए तो वह राजनीति का नहीं, मानवता के विस्तार की अंत:सलिला बन जाती है.
और इस नक्षत्रमंडल की सबसे उजली किरण ओर्सिनी हैं, जो हिन्दी के अंधकार में अपने छोटे से दीपक की लौ से अर्थ की दीवारों पर रोशनी फैलाती हैं. वे कहती हैं: “भाषा कोई सरहद नहीं, एक खुलती हुई खिड़की है.” लेकिन यह कितना त्रासद है कि आज उसी देश ने, जिसकी भाषा की वे साधक हैं, उन्हें अपने दरवाज़े पर रोक दिया. यह कोई साधारण प्रशासनिक निर्णय नहीं; यह एक गहरा प्रतीक है. जैसे किसी घर में खिड़की खुलने वाली हो और कोई भीतर से परदा गिरा दे.
यह अवसाद केंद्रित और नैराश्य में डूबे किसी उपन्यास के दृश्य जैसा लगता है, जिसमें रोशनी को भीतर आने से डरने वाली सभ्यता अपनी ही आँखों को अंधा कर लेती है. और जैसा कि नोम चॉम्स्की ने लिखा था,
“जब कोई सत्ता स्वतंत्र बुद्धि से डरने लगती है, तब वह केवल सरकार नहीं रहती, वह एक चर्च बन जाती है.”
क्या हम भी उसी तरफ जा रहे हैं.
यह निर्णय हमें याद दिलाता है कि हिन्दी का वास्तविक सौंदर्य उसके असहमत स्वरों, उसके बहुवचन और उसके खुले द्वारों में है. फ़्रांचेस्का ओर्सिनी उन खुले द्वारों की प्रतीक हैं. एक ऐसी लौ, जो किसी सीमाशुल्क अधिकारी की मुहर से बुझाई नहीं जा सकती. उनकी रोशनी अब वर्मोंट, पेरिस, वेनिस, टोक्यो, लंदन, शिकागो, प्राग और दिल्ली के बीच एक अमूर्त पुल की तरह फैली हुई है. हर दीपक, हर स्त्री, हर भाषा — अब उसी घर की खिड़की बन चुकी है.
और जब आज दीवाली की रात रोशनी फैल रही है तो यह जान लेना चाहिए कि किसी हवाई अड्डे पर ठुकराई गई विदुषी का दीप भी उसी उजाले में जल रहा है. वह जो हमें याद दिलाता है कि भाषा को रोका नहीं जा सकता; क्योंकि भाषा स्वयं ही प्रकाश है. इन सबमें ओर्सिनी वह केंद्र हैं, एक संगीत-संचालक, जिनके संकेत से यह पूरा नक्षत्र समस्वर होता है. उन्होंने हमें बताया कि भाषा का अध्ययन ज्ञान नहीं, नैतिक कर्म है—दुनिया को एक साथ समझने का साहस.
अंधकार का विरोधाभास
आज जब दीपावली की रात हर आँगन में दीप जल रहे हैं, ओर्सिनी नाम का यह मोहक दीप निर्वासित है. यह दृश्य किसी दुःस्वप्न जैसा है. हिन्दी के प्रकाश की साधिका को वही देश रोक दे, जिसकी भाषा वह आजीवन संवारती रही. उनकी पुस्तकों के पन्ने भारत की पुस्तकालयों में मौन पड़े हैं और हवाई अड्डे की रोशनी के बीच उनका नाम किसी फाइल की छाया में खो गया है. जिस देश ने कभी किसी डच, कभी फ्रांसीसी, कभी फ़ारसी, कभी अरबी और कभी किसी अन्य भाषा को अपनाया, वही आज एक इटालियन विदुषी की हिन्दी से सशंकित है. यह वही क्षण है, जिसकी ओर चॉम्स्की इशारा करते हैं, भाषाएँ साम्राज्य से नहीं, काग़ज़ी भय से मरती हैं.
हिन्दी का वह घर
फिर भी हिन्दी का घर जीवित है. रेणु की मिट्टी अब भी बोलती है; सोबती की भाषा अब भी बहस करती है; खातून की नदी अब भी बहती है; रघुवंशी की साइकिल अब भी उस चढ़ाई पर डटी है. हाँ, दीवारों में दरारें हैं—शुद्धतावाद और विचारधाराओं की. लेकिन हर बीम पर एक दीप टँगा है. कहीं रॉकवेल का अनुवाद और कहीं मोंटो का व्याकरण, कहीं ऑफ्रेडी की कविता और कहीं निवा की लय. कहीं ड्वायर का सिनेमा और कहीं बुश का इतिहास. कहीं होर्स्टमैन की भक्ति तो कहीं स्टार्क की छपाई. कहीं मर्कोवा का पुल तो कहीं बियार्डो का दर्शन. कहीं डॉनिगर के मिथक तो कहीं इन सबसे ऊपर ओर्सिनी की सम्मोहक लौ.
हम सबने एक रात पहले देखा है कि हर दीप एक कोना उजाला करता है. हर खिड़की इस घर को न केवल रहने योग्य, सुंदर भी बना देती है. बाहर धूल और शोर है; भीतर अब भी विचार की ठंडी हवा बह रही है. शायद यही फ़्रांचेस्का ओर्सिनी के जीवन का सबसे बड़ा सन्देश है कि अध्ययन भी आस्था है और शब्दों में अब भी सत्य को बचाने की क्षमता है.
उन्होंने कहा था, “मेरा दिल इलाहाबाद में है.” आज वह दिल हवा में तैर रहा है. वह निर्वासित ज़रूरी हैं, लेकिन पराजित नहीं.
यह दृश्य विडंबना से भरा है. राज्य अपनी सीमाओं की रक्षा करता है और भाषा की आत्मा चुपचाप उन सीमाओं को पार कर जाती है.दीपावली की रात जब दीये जल रहे हैं तो कल्पना कीजिए एक लौ उड़ रही है. दिल्ली से लंदन, बनारस से वेनिस, इलाहाबाद से ऑक्सफ़र्ड—सब जगह एक ही फुसफुसाहट के साथ कि “हिन्दी अभी जीवित और जीवंत है; वह शब्दों का गणराज्य है.” और उस गणराज्य में फ़्रांचेस्का ओर्सिनी सदा नागरिक भी रहेंगी और स्थापत्यकार भी. वह रोशनी, जिसे हमने क्षणभर के लिए बुझाने की कोशिश की थी, वह एक मदिरिल सपना बनकर अंगड़ाई लेता हुआ हिन्दी के इस गणतंत्र के पानी में रुपहले बिंब सा थरथराता है.
शब्दों के गणराज्य में फ़्रांचेस्का ओर्सिनी सदा नागरिक भी रहेंगी और स्थापत्यकार भी. वह जो शब्दों की दीवारों में रोशनी के रास्ते बनाती है. जिस लौ को हमने एक क्षण के लिए बुझाने की कोशिश की थी,
वह अब लौट आई है; मदहोश और उजली. जैसे किसी पुरानी स्मृति की झील में थरथराता हुआ चाँद. वह रोशनी अब केवल प्रकाश नहीं,
एक सपना है—धीरे-धीरे खुलती पलक का. जहाँ हर प्रतिबिंब में भाषा अपना चेहरा देखती है. वह हिन्दी के गणराज्य के जल में रुपहली लहर बनकर थरथराती है, मानो कोई गायक अपनी सबसे ऊँची सुर में पहुँच कर भी मौन हो गया हो, और उस मौन में अर्थ झिलमिला उठा हो.
ओर्सिनी को भले वापस डिपोर्ट कर दिया गया हो, लेकिन वह अब भी वहीं हैं. दीवारों के पीछे नहीं, हवा में; किसी शासन के दस्तावेज़ में नहीं, भाषा की रगों में, जो शब्दों को फिर से साँस देते हैं. वे हमें याद दिलाती हैं कि भाषा केवल उच्चारण नहीं, वह संगीत है, और जब कोई उसे रोकने की कोशिश करता है, तो वह और गहराई से गूँजने लगती है. क्योंकि कुछ रोशनियाँ बुझती नहीं, वे बस स्वप्न बन जाती हैं और उस स्वप्न में हिन्दी की झील पर अब भी एक रुपहला प्रतिबिम्ब थरथरा रहा है, जो वह जो कहता है:
“मैं लौटी नहीं हूँ—मैं यहीं थी. यही रहूंगी. भाषा के इसी गणराज्य में. मेरी देह को लौटाया गया है. मेरी चेतना और मेरे स्वर यहीं बनारस, दिल्ली और प्रयागराज के पानी में ताल देते रहेंगे.”
भाषा सत्ता के घड़ियाल के जबड़ों में फंसी व्यवस्था की बत्तख नहीं है कि उसकी केंकें कोई न सुने. भाषा ने जाने कितने अंधेरों की सुरंगों को पार किया है और जाने कितने रक्तस्नात प्रांतरों से होकर वह गुजरी है.
भाषा एक बहुत छोटे से गाँव में भी रहती है और वह महानगर की वासिनी भी है. फ़्रांचेस्का ओर्सिनी जैसी विदुषियां भाषा की इसी अद्भुत और विशाल नदी के किनारे रहती हैं. भाषा एक पुराना घर है. इस घर की कोई उम्र नहीं है. उसमें बस मुस्कुराते लोग और उसे देखकर डाह करती राजसत्ताएँ हैं. भाषा एक सुबह की तरह है. वह जब आँखें खोलती है तो भाषा के गणराज्य का हृदय गीतों से भर उठता है. भाषा की वर्णमाला के अक्षर तितली की तरह गोल-गोल घूमते हैं और अपने गणराज्य के निवासियों को कभी हंसाते, कभी रुलाते और कभी बेचैन करते हैं. भाषा को न ज़मीन चाहिए और न धूप. उसे चाहिए थोड़ी सी बारिश और कुछ फूल, जिन पर अक्षरों की तितलियाँ बैठें, नए शब्दों को जन्म दें और भाषा की एक नई ऋतु का निर्माण करें. हमारे जीवन में भाषा समय की तरह बहती है, लेकिन उसकी लय हर बार अलग होती है.
फ़्रांचेस्का ओर्सिनी को वापस भेज दिया गया है, क्योंकि राजसत्ताएँ बेसिरपैर के वायवीय दु:स्वप्न के बवंडर में जीती हैं. इसके लोग देखते हैं, सुनते हैं और सूंघते हैं; लेकिन समझ नहीं पाते. भाषाएँ हर दिन झूले पर झूलती चली जाती हूँ और अपने गणराज्य को समृद्ध करती रहती हैं. वे जाती हैं, लौटती हैं और फिर से शुरू करती हैं. अगर हम हिन्दी भाषा, साहित्य और उपनिवेशोत्तर भारत के सांस्कृतिक जनलोक की गहराइयों तक जाएँ तो साफ़ हो जाएगा कि भाषा के गणतंत्र में यही लौटना “दॅ हिन्दी पब्लिक स्फेयर (1920-1940)” को जन्म देता है और यही लौटना हिन्दी जनवाचन और राष्ट्रीयता के दौर का गहन विश्लेषण करता है. यही लौटना “प्रिंट ऐंड प्लेज़र” लेकर आता है और उन्नीसवीं सदी के मुद्रण और पठन-संस्कृति का इतिहास प्रस्तुत करता है. यह लौटना “टेलिंग ऐंड टेक्स्ट्स” मौखिक परंपराओं और लिखित साहित्य के परस्पर संवाद को समझाता है. और यही लौटना “आफ़्टर तिमुर लेफ़्ट” मध्यकालीन भारत की बहुभाषिक साहित्यिक चेतना की खोज लेकर आता है. फ़्रांचेस्का ओर्सिनी का समग्र काम दिखाता है कि हिन्दी केवल भाषा नहीं; एक लोकतांत्रिक सांस्कृतिक ब्रह्मांड है. और इस ब्रह्मांड की आकाशगंगा की सबसे द्युतिमान सितारे को हम अलग करते हैं तो समझ सकते हैं कि हम क्या कर रहे हैं.
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thetribhuvan@gmail.com |

भारत–पाक सीमा के एक गाँव में जन्मे त्रिभुवन जयपुर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. वे हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में एडजंक्ट प्रोफेसर रह चुके हैं. उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं, “कुछ इस तरह आना,” “शूद्र: एक लंबी कविता,” और “राष्ट्रवाद के नवपरिप्रेक्ष्य .” त्रिभुवन अपने सूक्ष्म राजनीतिक विश्लेषण, संयमित भाषा और गहन पठनशीलता के लिए जाने जाते हैं. जयपुर में रहते हैं.


आलेख को मैंने अपनी गंभीरता से
शब्द शब्द पढ़ा है।
यह लेखन बहुत भावुक हो किया है । अशांत आक्रोश भीतर लिए ।जो भी आंदोलित है।
कहीं शब्द बात के कंठ नहीं खोल पाए,वे उद्वेलित है।
रिपिटेशन अधिक होने से आलेख की अर्थ यात्रा में अव्यवस्था सी आ जाती है।
अधिक विशेषण और प्रशंसा गौरवगाथा को बाधित करती है, यहां आलेख लेखक चर्चा में आ जाता है।
प्रशंसा में अंधेरा होता है।
वह विषय कथ्य विषय वस्तु
और लेखक पर भी गिरता है।
विचार बाधाओं का फंक्शन नहीं है। रुकता नहीं । युक्तियों से।
बहुत अच्छा लिखा है।
ज़बरदस्त!
सांस्कृतिक आदान-प्रदान के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और प्रतिरोध की स्पष्ट लेकिन शिष्ट नैतिकता से चमकता लेख।
इतने कम समय में, ढेर सारी सूचनाओं को इस क्षिप्र सजगता से प्रोसेस करना आसान काम नहीं रहा होगा।
पैरा दर पैरा दमकते वाक्यों और इस देश की वैचारिक-सांस्कृतिक निर्मिति पर फेंकी गई एकरूपता की काली स्याही को धोते उनके इस शब्द-सत्याग्रह के लिए त्रिभुवन जी का शुक्रिया।
ख़ैर, ओर्सिनी का काम हिंदी के सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बन चुका है— उस पर सत्ता क्या और कितना प्रतिबंध लगा लेगी!
विदुषी फ्रेंचेस्का ऑरसिनि को भारत आने से रोकना महान भारतीय संस्कृति और परंपरा का अपमान है।ऑरसिनि के लेखन ने हमें स्वयं अपनी ही परंपरा और साहित्य वृत्त को समझने की नयी दृष्टि दी है।आरंभ से ही उन सरीखे विदेशी विद्वानों का बहुत बड़ा योगदान हिन्दी और भारतीय सृजन तथा सभ्यता को प्रकाशमान करने में रहा है।उनके प्रति हम नतशिर हैं।उनके लिए दरवाजे बंद करने का मतलब खुद अपनी आत्मा पर सीकड़ लगाना है।यह गर्हित हिंसा है।
यह अलग तरह का सौभाग्य है कि उन्हें रोक दिया गया। उनपर बात हो रही है , अधिक लोग विचार जान रहे हैं, मात्र उनके ही नहीं, बहुत से अन्य नाम आलेख में आए हैं, जिन्हें मेरे जैसे आम पाठक ने बिना कोई संज्ञान लिए पढ़कर निकल जाने दिया होगा। अहा, उनके आचार विचार मुझ तक आ पहुँचे हैं।
विचार किसी दरवाजे से नहीं आते, खिड़कियाँ नहीं लाँघते, उनके लिए बंद झरोखों की अधखुली संध चाहिए होती है, वह उन संध से रिस आते हैं।
मैं सत्ता का आभारी हूँ, मेरा आभार वहाँ तक पहुँचे – रिसता टपकता सीलन की तरह – पहुँच ही जाएगा – बहुत आभार – हे सत्ता आभार।
त्रिभुवन जी का यह लेख वाकई पढ़ने लायक है. भारत किस रसातल में जा रहा है, और किस उद्धत ढंग से उसका यह प्रमाण है कि ऐसी विदुषी को जो हिन्दी भाषा में सुन्दर और सराहनीय काम कर रही है, उसे देश में आने से रोक दिया जा रहा है. यह बौद्धिकता का भी दमन, एक स्त्री बौधिक का दमन!
त्रिभुवन जी
मैंने लेख आज सुबह ही पढ़ा। मैं फ़्रैंचेस्का को भेज दूँगी।
अचंभित हूँ कि आपने एक रात में इतना सुविचारित और सार्थक लेख कैसे लिख लिया। आपकी लेखनी और भाषा को सलाम।
सस्नेह
🙏🙏🙏
विशद।
विचारोत्तेजक।
ऐतिहासिकता में जाकर देखता आलेख, आज की मुश्किलों को समक्ष कर देता है। पठनीय। इतनी चीज़ें, इतने संदर्भ। त्रिभुवन जी सजग, जुझारू और संकल्पित लेखक हैं। यह लेख एक साक्ष्य है।
फ्रेंचेस्का ऑर्सिनी और भारतीय मुक्त प्रज्ञा दृष्टि पर यह विस्तार से लिखा गया लेख है. पब्लिक स्फीयर (लोकवृत)की चर्चा भारतीय जनमानस में उनकी किताब आने के बाद ही चली. यायावरों के भारतीय ज्ञान –मीमांसा में अवदान को भी यह लेख रेखांकित करता है. फ्रेंचेस्का के लेखन पर भी एक समग्र लेख आए.ऐसी उम्मीद रहेगी. इसमें अन्य संदर्भ और फैलाव ज्यादा हैं.
फ्रेंचेस्का की किताब ’द हिंदी पब्लिक स्फीयर 1920–40’का बहुत सुंदर अनुवाद कवि –अनुवादक नीलाभ ने किया है.