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Home » हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ

हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ

हरे प्रकाश उपाध्याय ने इधर अपना शिल्प बदला है. इन कविताओं को बड़े श्रोता वर्ग के बीच भी सुना और सुनाया जा सकता है. इसकी सम्बोधनपरकता इसे ख़ास बनाती है. भवानीप्रसाद मिश्र की कविता ‘जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ’, याद आती है जो अपनी धारदार व्यंग्यात्मक उतार-चढ़ाव में विचलित करती हुई अभी भी बांधे रखने की क्षमता रखती है. आमजीवन की यातना की दैनंदिनी इन प्रस्तुत कविताओं का आधार है.

by arun dev
August 28, 2024
in कविता
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हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ
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II हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ II

Painting: Salman Toor, Time After Time, 2018,

बहुत काम है

यह भी काम है
और वह भी काम है!

काम है
इतना काम है
कि सुबह काम है शाम काम है
पूरे दिन-दोपहर काम है
हर पल काम है
यहाँ तक कि शाम के बाद भी काम है
पूरी रात काम है
सपने में भी काम है

जागने का काम है
जगाने का काम है
तो सोना भी काम है

जगकर काम है
सोकर काम है
चलकर काम है
बैठकर काम है
काम है इतना काम है
कि ज़रा भी नहीं आराम है
ग़र आराम है तो भी काम है

काम के बाद भी कुछ काम है
काम के पहले भी कुछ काम है
काम से थका हुआ तन है
काम में डुबा हुआ मन है

जिनके पास काम नहीं
उनको भी काम है
जो काम कर चुके उनको भी काम है
जो काम कर रहे उनको तो बहुत काम है
अरे भाई सुनो तो- कुछ काम है
हर आदमी कह रहा- कुछ काम है
कुछ काम है
सही में यार-
किसी को किसी न किसी से कुछ काम है
जो जा रहा, उसे भी काम है
जो आ रहा- उसे भी काम है
जीते जी काम है
मरने के बाद भी काम है

यार यह दुनिया है
या काम का हमाम है
अरे कहिए महराज- क्या काम है
आपको हमसे क्या काम है
बगल से गुज़रता हर आदमी यही बोल रहा-
अभी नहीं! चलता हूँ राम-राम
अभी कुछ काम है!

ज़नाब! मुझे भी काम है
हाँ हाँ पाठक महराज! कविता के पाठक महराज!
मेरे दोस्त मेरे यार! सुनो सुनो
आपसे ही मुझे कुछ काम है
ऐसे कैसे मुझे अनसुना कर निकल सकते हैं
सुन लिया आपका बुदबुदाना-
यार आदमी यह बड़ा नाकाम है!
यही न कि यह आदमी बड़ा नाकाम है

पर याद रखिए
याद रखिए महराज! मेरे मालिक!
जो नाकाम है
उसको तो अभी बहुत काम है!
हाँ आप राजा हैं
खुला ग़र आपका दरवाज़ा है
तो आपसे मुझे काम है
बहुत काम है!

जबकि हर बार कह देते हो आप
खाली नहीं हूँ मैं
अभी मुझे एक ज़रूरी काम है!

 

तुम्हारी कविता में

यार! तुम्हारी कविता में
अब वो बात नहीं
दिन ही दिन है
ज़रा सी रात नहीं

यह है वह नहीं
वह है यह नहीं

यार! तुम्हारी कविता में
है पटना
मगर नहीं कोई दुर्घटना

पहले तुम लिखते थे
वैसे जैसे दिखते थे

आजकल तो गजब ही चलन तुम्हारा
गायब हो गया तुम्हारी कविता से
ज़िंदाबाद मुर्दाबाद का नारा
पहले चढ़ा रहता था कविता में
हर बात में तेरा पारा

यह बदलते थे वह बदलते थे
बदलने को तुम कितना मचलते थे
आग तुम्हारी कविता में
उतनी जितनी सविता में

आजकल ना जाने किस चाँद में रहते हो
मितर मर गया लगता बघवा
अब तुम उसकी माँद में रहते हो!

 

मेरी ग़ज़ल में सब कुछ

भाई साहब! मेरी ग़ज़ल में ये है
मेरी ग़ज़ल में वो है
भाई साहब!
इस दुनिया में होता जो-जो
मेरी ग़ज़ल में सब कुछ वो-वो

मेरी ग़ज़ल में पक्के नुक्ते
जो ना पढ़े वो भुक्ते
मेरी ग़ज़ल में उम्दा बहर
बज रहा अब उसका डंका
क्या गाँव क्या शहर

भाई साहब! एक-एक काफ़िया तौल कर लिखा है
काट दे कोई एक रदीफ़ माई का लाल
इस जग में मुझको नहीं दिखा है

एक-एक ग़ज़ल में लगे हैं बरसों
बोया तेल काटा सरसो
क्या लिखेंगे आज के लौंडे आज-कल-परसो

पर देखिए भाई साहब!
इस बेरहम ज़माने को
अदीबों के इस मयखाने को
सब पी रहे छक कर हाला
मेरा खाली का खाली रह गया प्याला
भाई साहब!

मेरे दीवान को चाट रहा दीमक शैतान
ऐसे-ऐसे पा रहे तमगे औ सम्मान
रह जाएंगे आप हैरान

भाई साहब! मुझ सा नहीं है कोई दूजा
पर मुझे ज़रा भी नहीं पूछती
साहित्य अकादेमी में जो बैठी पूजा!

 

खेत में एतवारू

खेत पर मिल गए आज एतवारू
दोनों, मरद और मेहरारू
हाड़ तोड़ कर मेहनत करते
कहते कैसा अंधा कुँआ है यह पेट
जो भी उपजाते
चढ़ जाता सब इसके ही भेंट

खाद बीज पानी
के प्रबंध में खाली रहती इनकी चेट
फसल उपजती तो घट जाती उसकी रेट
बोले भैया
मीठा-मीठा बोल के
हर गोवरमिंट करती हमलोगों का ही आखेट

खाकर सुर्ती
दिखा रहे एतवारू खेत में फुर्ती
सूरज दादा ऊपर से फेंक रहे हैं आग
जल रहे हैं एतवारू के भाग
हुई न सावन-भादो बरसा
बूंद-बूंद को खेत है तरसा

एतवारू के सिर पर चढ़ा है कर्जा
बिन कापी किताब ट्यूशन के
हो रहा बबुआ की पढ़ाई का हर्जा
हो गई है बिटिया भी सयानी
उसके घर-वर को लेकर चिंतित दोनों प्रानी

थोड़ी इधर-उधर की करके बात
मेड़ पर आ सीधी कर अपनी गात
गम में डूब लगे बताने एतवारू
रहती बीमार उनकी मेहरारू
बोले
भैया सपनों में भी अब सुख नहीं है
जीवन किसान का रस भरा ऊख नहीं है

अच्छा छोड़ो एतवारू
क्या पीते हो अब भी दारू
मुस्काकर बोले भैया यह ससुरी सरकार
है बहुत बेकार
जबसे बिहार में बंद है दारू
तबसे गरदन पे चढ़ने को थाना-पुलिस उतारू
साहेब सब पीते हैं
पैसेवाले भी पीते हैं
हम लोग भी थोड़ा-मोड़ा जब तब ले लेते हैं
पर शराब माफ़िया भैया खून चूस लेते हैं

ले ली मैंने भी ज़रा चुटकी एतवारू से
बोला सुनाके उनकी मेहरारू से
लाओ बना लें खेत में ही दो पेग एतवारू
लाया हूँ मिलेट्री से बढ़िया दारू
हँस रहे हैं बेचारे एतवारू
आँख तरेर देख रही हम दोनों को
उनकी मेहरारू!

 

यह जीवन जैसे

हींग हल्दी जीरा लहसुन
कभी ड्यूटी
कभी दुकान परचून

ड्यूटी है करोलबाग में
डेरा यमुना पार
मालिक देखता हमें बैठकर
सीसीटीवी में नौ से चार

आती पगार तीस-इकतीस को
उड़ जाती लगते बीस को
किराया बिजली राशन-पानी
भैया को लगता
बबुआ काट रहा दिल्ली में चानी

जैसे-तैसे कटते
महीने के अंतिम दस दिन
काम आ जाते बच्चों के गुल्लक
जिसमें रखते चिल्लर गिन

घरनी के हैं छोटे-छोटे अरमान
गुस्सा जाती है देख झोला भर सामान
पगार मिलने के दिन
जब थोड़ा पी लेता हूँ
ज़रा सा जी लेता हूँ
सो जाती है पगली चादर तान
उसके छोटे-छोटे अरमान

यार यह जीवन जैसे जंग हो
बताना भाई
अगर कोई सुविधाजनक ढंग हो!

 

आगरे से आया राजू

गोरखपुर में फेमस दुकान है चाय की
मऊ से आकर बस गये गोरख राय की
वही बरतन धोता आगरे से आया राजू
बैठ गया जाकर एक दिन उसके बाजू

बरतन धोता जाता था
क्या खूब सुरीला गाता था
उमर महज बारह की थी
मगर खैनी वह खाता था

खैनी खाकर बोला, भैया
दस साल की उमर रही
मर गई खांस-खांस कर मैया

बापू के बदन पे फटी बनियान थी
हम तीन भाई बड़े थे
बहन मेरी नादान थी

बापू कैसे पेट अब भरता सबका
गैया तो हमलोगों की बिक गई थी कबका
एक दिन मामू कलकता से
घर मेरे आ टपका
उसने ही किया हम सबका बेड़ा पार
लग गये सब अपने खित्ते
भले गया बिखर अपना परिवार

बड़का रहता एक साहेब के घर
चलकर अब बंगाल में
उससे छोटका काम करता असम के चाय बागान में
बहन की हो गई शादी
जीजा की चलता है ट्रक
देख रहे हैं भैया हम लोगों का लक

बापू की उमर छियालीस साल
पक गये हैं उसके सारे बाल
टूट गये हैं दांत सब
पिचके उसके गाल
आगरे में टेसन पे रिक्शा चलाता है
बाबूजी वह भी अच्छा कमाता है

मेरा तो देख ही रहे हैं हाल
राय ससुर आदमी है या बवाल
बाबूजी इधर आइये
कान में बोला, बाबूजी इसके ठीक नहीं हैं चाल
रात में मुझे भी जबरन पिलाता है
मुर्गा अपने हाथ से खिलाता है
बाबूजी लेकिन अपनी खटिया पर ही
अपनी खटिया पर ही
मुझे भी सारी रात सुलाता है!

हरे प्रकाश उपाध्याय
कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम. तीन किताबें- दो कविता संग्रह: ‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं’, तथा ‘नया रास्ता‘. एक उपन्यास- ‘बखेड़ापुर‘. अनियतकालीन पत्रिका ‘मंतव्य’ का संपादन

सम्पर्क: 
महाराजापुरम, केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास
पो- मानक नगर लखनऊ -226011
मोबाइल – 8756219902

 

Tags: 20242024 कविताहरे प्रकाश उपाध्याय
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Comments 27

  1. शिरीष कुमार मौर्य says:
    10 months ago

    अच्छी कविताएं। पहले के कुछ ज़रूरी तत्व बचाते हुए, हरे ने अपनी कहन बदली है। इस ओर एक आकाश खुला है उनके लिए। ख़ुद से बाहर आना, हर कवि के लिए ज़रूरी है, हरे अब पुरानी ज़मीन से कुछ दूर कुछ नयी ज़मीन पर खड़े हैं। मैं बहुत आशा से उनकी ओर देख रहा हूं।

    Reply
  2. सन्तोष कुमार द्विवेदी says:
    10 months ago

    पढ़ गया …..बहुत ही कमाल की कविताएं हैं । ये जन की कविताएं हैं । उनके मन की, जीवन की कविताएं हैं । ये उनके वश की कविताएं हैं । इन्हे वे पढ़, सुन कर रस ले सकते हैं । बहुत सुंदर

    Reply
  3. तेजी ग्रोवर says:
    10 months ago

    जिसे मैं ज़ीरो शिल्प कहती हूँ, इन कविताओं में वह तो टूटा ही है…और इसके लिए सर्वप्रथम कवि को स्नेह भेजती हूँ। अच्छे अच्छे कवि भी जीरो शिल्प की चपेट में आकर नष्ट होते देखे हैं मैंने।

    कविताओं को फिर पढ़ती हूँ। हिंदी कविता में विनोद का अभाव खलता है लेकिन इन्हें पढ़कर संतोष मिला।

    Reply
  4. कौशलेंद्र सिंह says:
    10 months ago

    ये कविताएँ ताज़ा हवा की तरह हैं। ये जन जन की कविता है।
    हरे भाई को तो बधाई है ही वो बहुत अच्छा लिखते हैं। अरुण सर को ख़ास बधाई ऐसी कविताएं पढ़वाने के लिए जो अब विरल हैं। कविताएं बेहद मार्मिक हैं और लिखावट चुटीली।

    Reply
  5. तरुण भटनागर says:
    10 months ago

    कहन की खूबसूरती और मौलिक, अपने तरीके की ढब वाली ये कवितायें बढ़िया हैं. हरे की कुछ नयी कवितायें सोशल मीडिया पर ही पढ़ीं. इनमें एक तरह के प्रवाह का बल है और ऐसी बेबाकी है कि उसका खासा प्रभाव है. थोडी अल्हदा बुनावट है, खासकर शब्दों के चयन और वाक्यों की तरतीब में. हरे भाई को इनके लिए मुबारकबाद.

    Reply
  6. मदन केशरी says:
    10 months ago

    “‘सारा लोहा उनका, अपनी केवल धार।” हरेप्रकाश की कविताओं में वह धार इतनी तीक्ष्ण है कि सीधे काटती है। रोज-रोज के दंडबैठक की तरह अभ्यास की हुई सिद्धहस्त काव्यकला से रिक्त ये कविताएँ सीधे-सीधे मुद्दे पर आती हैं और अपनी धारदार व्यंग्यात्मकता में हमारे आस-पास की कड़वी सच्चाइयों पर प्रहार करती हैं। अपनी वैचारिक तीव्रता में ये कविताएँ आम जीवन की उन यातनाओं और संघर्षों से हमें साक्षात्कार कराती हैं जिन्हें हम देखते तो हैं, मगर हरेप्रकाश की दृष्टि से नहीं।

    Reply
  7. आशीष सिंह says:
    10 months ago

    यह नये ढब और कहन की कविताएं हरे प्रकाश जी के पिछली कविताओं से आगे की हैं। ज्यादा सरोकारी , ज्यादा सहज यह जीवनानुभूति और तटस्थ स्थिति का अच्छा सहमेल है। महीने की बीस तारीख, से शुरू होने वाली कड़की हम जैसे तमाम निम्नमध्यवर्गीय लोगों की वास्तविक स्थिति है। तमाम कम्पनियों, दुकानों व दिहाड़ी कर जीवनयापन करने वाले लोगों की स्थिति आज के मंहगाई में कैसी बनती जा रही है यह कहने की जरूरत नहीं। लेकिन कविता जीवन की चुनौतियों, दुश्वारियों की बात करने के बावजूद जिजिविषा से भरी हुई है यह सबसे खूबसूरत बात है। कवि को बधाई

    Reply
  8. Seema Rai says:
    10 months ago

    सभी कवितायें एक से बढ़कर एक हैं 😊

    Reply
  9. श्याम बिहारी श्यामल says:
    10 months ago

    हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में नयापन भी है और पूर्वपरिचयपन भी. आपने सही महसूस किया है, लयात्मकता और बतकही-बतियाहट भवानी बाबू का स्मरण कराती है!
    लेकिन, यह भी तो है कि जीवन के जो चित्र और स्पंदन यहां हरे प्रकाश ने शब्दबद्ध किए हैं, वे हिन्दी कविता में इस त्वरा के साथ पहले कहां कहीं दिखे ! उल्लेखनीय प्रस्तुति के लिए बधाई!
    – श्याम बिहारी श्यामल, वाराणसी

    Reply
  10. विशाल श्रीवास्तव says:
    10 months ago

    ये हरे भाई की नये मिज़ाज की कविताएँ हैं और आपने उचित टिप्पणी की है कि इनकी एक व्यापक पहुँच संभव हो सकती है। इन खरी कविताओं की प्रस्तुति के लिए मित्र को और आपको बधाई!

    Reply
  11. रवि शंकर पाण्डेय says:
    10 months ago

    हरे प्रकाश जी का कवि कर्म अपनी तरह का अलग और एकदम अलहदा रचना कर्म है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए कथ्य और शिल्प में एक टटकापन
    और ताजगी का एहसास होता है। वे थोक में कविताएं नहीं लिखते बल्कि जो भी लिखते हैं वे बहुत सोच समझ कर अनुभव से संपन्न किन्तु सधी हुई कविताएं लिखते हैं।

    Reply
  12. Anonymous says:
    10 months ago

    हरे भाई की ‘नयी’ कविताएँ अपनी ताजगी और कठिन संघर्षों को भाषा में कह देने आदत के चलते पठनीय और झकझोर देने वाली हैं

    Reply
  13. Gopal Mathur says:
    10 months ago

    बेहतरीन कविताएं. एकदम ताज़ा, नई जमीन पर लिखी सुन्दर कविताएं. वे क्लिष्ट बिम्बोँ से परहेज़ करते हैं, पर सहजता से अपनी बात कहने में माहिर हैं. यह उनकी अपनी शिल्प है, जो गहरा प्रभाव छोड़ती है.
    – गोपाल माथुर

    Reply
  14. निलय उपाध्याय says:
    10 months ago

    वाह, सच है, हरे प्रकाश की ये कविताएं कविता का दृश्य बदलेंगी.

    Reply
  15. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    10 months ago

    हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में जो यह कुछ नए किस्म का या इधर चलन में कम दिखाई पड़ने वाला शिल्प हमें मिल रहा है, दरअसल यह रुके हुए कहन का फिर से प्रवाह जैसा है.
    मन के द्वंद, आदमी के संघर्ष या अभाव / कमी और शासन के गैर सरोकारी स्वभाव की अभिव्यक्ति को इन्होंने जो गीतात्मकता भी देने का जतन किया है, वह बोनस टाइप है.

    Reply
  16. नीरज नीर says:
    10 months ago

    निश्चय ही हरे प्रकाश जी कि इन कविताओं में पहले की तुलना कविताई ज़्यादा है, बेहतर लय है। विडम्बनाबोध और कटाक्ष तो है ही।

    Reply
  17. हीरालाल नागर says:
    10 months ago

    सब कुछ तो बदल गया। इस बदलाव का कारण क्या हो सकता है, इसको जानना ज़रूरी है। यह सही हे कि उनकी ये कविताएं पहले से ज्यादा यथार्थवादी, संयत और भेदभरी हैं। लेकिन हरे प्रकाशक उपाध्याय के पहले वाले काव्च रचना कर्म को एकदम खारिज नहीं किया जा सकता। ‘ खिलाड़ी दोस्त’ और अन्य कविताओं को कैसे नकारा जा सकता, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। अगर वास्तव कवि हरे प्रकाश ने नई ज़मींन पा ली है तो इसका भी एक आधार है।
    बहरहाल, हरे प्रकाश उपाध्याय को बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  18. सुनील अमर, अयोध्या says:
    10 months ago

    अच्छी कविताएँ हैं। कहने की नयी शैली आकर्षित करती है।

    Reply
  19. विनीता बाडमेरा says:
    9 months ago

    एक से बढ़कर एक कविताएं हैं।कवि का यह अनूठा ढंग इन कविताओं को खास बनाता है जहां व्यंग्य भी है और पीड़ा भी।
    कवि को खूब बधाई ।

    Reply
  20. Manoj Sharma says:
    8 months ago

    इन कविताओं में व्यंग्य बोध की तीव्रता है।राहेत्रिक का उपयोग इन्हें अंतस में उतार देता है।कविता पर कविता अलग से रेखांकित होती है। हरे,बेहद सजग कवि हैं और भाषा का प्रयोग व देसीपन की टटक उन्हें प्रासंगिक बनाती है।

    Reply
  21. Nirmal Gupta says:
    8 months ago

    हरेप्रकाश जी बतौर कवि अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आ कर दुर्लभ रच रहे हैँ. उनकी कवितायेँ सहज और गहरी हो चली हैँ. उन्होंने कविता का नया व्याकरण रचने की पहल की है.
    निर्मल

    Reply
  22. Ravi Yadav says:
    8 months ago

    इस शिल्प पर लगातार अच्छी कवितायें लिख रहें। हरे जी की कविताओं में अनछुआ सामाजिक हिस्सा, समाज के लोग केंद्र बन रहे। बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई।

    Reply
  23. रवींद्र नाथ राय says:
    8 months ago

    निश्चित हरे प्रकाश उपाध्याय ने अपनी कविताओं का शिल्प बदला है।
    समकालीन जीवन की विसंगतियों पर करारा प्रहार है। इन कविताओं में लयात्मकता और नवीनता दिखाई पड़ती है। यहाँ व्यंग्य और सहजता का संयोजन भी हुआ है। पहले की तुलना में कविताई पाठकों से अत्यधिक सम्प्रेसणीय हैं।

    Reply
  24. सुधा अरोड़ा says:
    8 months ago

    आप कविता की नई जमीन गढ़ रहे हैं। इसकी पहुंच दूर-दूर तक जाएगी। यही आमजन की भाषा है। अपना भविष्य खुद रचेगी ।
    कवि को स्नेह और दुआएं ।

    Reply
  25. राकेश ठाकुर says:
    8 months ago

    हरे प्रकाश जी मेरे प्रिय कवि है , हमेशा बेबाक होकर हरे-प्रकाश जी कविता कहते है । नवीन शैली में लिखी गई इनकी कविताएँ
    काबिले-तारीफ है । आम जन की भाषा का प्रयोग इनकी कविताओं को पुख्ता और संजीदा कर जाता है ।

    Reply
  26. जतिंदर औलख says:
    5 months ago

    कविताओं में व्यंग और लयबद्धता तो है ही। बल्कि शब्दों का सहज प्रवाह भी कविताओं की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं।

    Reply
  27. ललन चतुर्वेदी says:
    5 months ago

    हरे प्रकाश जी ने अभिनव प्रयोग किया है।उनकी कविताएं अब अलग से पहचानी जाने लगीं हैं।जन सरोकार से जुड़ी उनकी कविताओं का लंबा जीवन है।बनी – बधाई लीक को छोड़कर चलने वाले बहुत कम कवि होते हैं।इसके लिए साहस भी चाहिए।
    बहुत बधाई समालोचन!
    बहुत बधाई भाई हरे प्रकाश !
    कायम रहे यह पुख्ता विश्वास।

    Reply

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