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समालोचन

Home » भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और जवाहरलाल नेहरू : शुभनीत कौशिक

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और जवाहरलाल नेहरू : शुभनीत कौशिक

आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि है. वे लगभग 16 साल, 9 महीने और 12 दिन तक इस देश के प्रधान रहे. उनके कार्यकाल में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईआईएमएस), राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी), भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान (एनआईडी), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी), केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई), केंद्रीय विद्यालय संगठन, भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र और वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना हुई और उनका विस्तार हुआ. कहने की आवश्यकता नहीं कि ये संस्थान आज देश की प्रगति की नींव हैं. नेहरू जी ने वैज्ञानिक चेतना, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के महत्व को बहुत पहले समझ लिया था. इस आलेख में युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के निर्माण में नेहरू की भूमिका और तकनीकी शिक्षा के प्रति उनकी दूरदर्शिता को रेखांकित किया है. उनकी स्मृति को नमन करते हुए यह आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
May 27, 2025
in विज्ञान
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भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और जवाहरलाल नेहरू :	 शुभनीत कौशिक
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भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और जवाहरलाल नेहरू
शुभनीत कौशिक

आधुनिक भारत में तकनीकी शिक्षा का विधिवत आरम्भ वैसे तो उन्नीसवीं सदी में ही हो चुका था. जब 1847 में रुड़की में टॉमसन कॉलेज ऑफ़ सिविल इंजीनियरिंग की स्थापना हुई. इस कॉलेज में सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा के साथ ही ओवरसियर और ड्राफ़्ट्समैन का कोर्स भी कराया जाता था. औपनिवेशिक काल में स्थापित हुए रुड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज जैसे संस्थानों की अपनी सीमाएँ थीं, उनकी पाठ्यचर्या का विकास अंग्रेज़ी राज की ज़रूरतों के मुताबिक़ हुआ था. इसलिए जब बीसवीं सदी के चौथे-पाँचवें दशक में हिंदुस्तान ने आज़ादी की दहलीज़ पर कदम रखना शुरू किया तो आज़ाद हिंदुस्तान की ज़रूरतों के मुताबिक़ उच्च तकनीकी संस्थानों की ज़रूरत भी महसूस की जाने लगी. उस समय इस दिशा में दो महत्त्वपूर्ण प्रयास हुए. एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय योजना समिति द्वारा और दूसरा ब्रिटिश भारत की सरकार द्वारा गठित समिति द्वारा. ग़ौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय योजना समिति के अध्यक्ष थे.

एक पराधीन देश के राष्ट्रवादी नेतृत्व ने देश के तमाम क्षेत्रों के विशेषज्ञों के साथ मिलकर किस तरह आज़ादी मिलने से पहले ही देश के नवनिर्माण की योजना का विस्तृत खाका तैयार किया और कितनी गहराई से उसमें देश और उसके निवासियों से जुड़े तमाम मुद्दों पर विचार किया गया (जोकि हमें राष्ट्रीय योजना समिति की रिपोर्टों के रूप में दिखाई पड़ता है), वह उपनिवेशवादविरोधी आंदोलन के वैश्विक इतिहास का एक अद्वितीय अध्याय है.

 

तकनीकी शिक्षा का सवाल और राष्ट्रीय योजना समिति

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अक्तूबर 1938 में ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ के गठन की घोषणा की. नेताजी सुभाष चंद्र बोस उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे. 19 अक्तूबर 1938 को ख़ुद सुभाष चंद्र बोस ने जवाहरलाल नेहरू को खत लिखकर उन्हें राष्ट्रीय योजना समिति का अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा. बाद में, सुभाष चंद्र बोस की मंशा के अनुरूप जवाहरलाल नेहरू योजना समिति के अध्यक्ष बने.[1]

इस राष्ट्रीय योजना समिति के महासचिव थे– अर्थशास्त्री के.टी. शाह, जो आगे चलकर संविधान सभा के सदस्य भी रहे थे. समिति के अन्य सदस्य थे : पुरुषोत्तम ठाकुरदास, वालचंद हीराचंद, डॉ. मेघनाद साहा, डॉ. राधाकमल मुखर्जी, ए.डी. श्राफ, जे.सी. घोष, ए.के. साहा, डॉ. नज़ीर अहमद, डॉ. वी.एस. दुबे, अंबालाल साराभाई, एन.एम. जोशी, शुएब कुरैशी, लक्ष्मीबाई राजवाड़े, अब्दुर्रहमान सिद्दीकी, गुलजारीलाल नन्दा और विजयलक्ष्मी पंडित. इस समिति ने 1939 के आरम्भ में काम करना शुरू किया. मगर उसी दौरान द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत, 1940 में व्यक्तिगत सत्यगग्रह के दौरान नेहरू की गिरफ़्तारी और फिर अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के शुरू होने और राष्ट्रवादी नेतृत्व की एक झटके में हुई गिरफ़्तारी से समिति की कार्यवाही बाधित हो गई. आख़िरकार 1945 में जब नेहरू समेत अन्य राष्ट्रीय नेता रिहा हुए, तब समिति ने अपना काम फिर से करना शुरू किया. इस बीच परिस्थितियाँ काफ़ी बदल चुकी थीं. इसलिए नए सवालों और बिंदुओ पर भी विचार करना राष्ट्रीय योजना समिति के लिए ज़रूरी हो गया. आख़िरकार आज़ादी के बाद 1948 में जाकर इन समितियों की रिपोर्टें अंतिम रूप से छप सकीं.

‘राष्ट्रीय योजना समिति’ के अंतर्गत 29 उप-समितियां थीं, जिनकी रिपोर्टों में आज़ाद हिंदुस्तान के विकास और पुनर्निर्माण की योजना का एक विस्तृत खाका तैयार किया गया. ये उप-समितियां आठ समूहों में रखी गई थीं. ध्यान देने की बात है कि शिक्षा के महत्त्व को समझते हुए शिक्षा को अलग समूह में रखा गया था, जिसमें सामान्य और तकनीकी शिक्षा दोनों पर ही विचार किया गया था. जिस वक्त हिंदुस्तान में दस में से नौ लोग निरक्षर थे, उस समय शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के सवाल को लेकर इस उप-समिति ने जितनी गहराई से काम किया, वह सचमुच क़ाबिलेतारीफ़ था.

सामान्य शिक्षा से जुड़ी उप-समिति की अध्यक्षता दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन कर रहे थे और इसके सचिव थे ई.डबल्यू. आर्यनायकम. वहीं तकनीकी शिक्षा से जुड़ी समिति के अध्यक्ष थे भौतिकविज्ञानी डॉ. मेघनाद साहा और सचिव थे डॉ. एच.एल. रॉय. शिक्षा से जुड़ी इन दोनों उप-समितियों की रिपोर्ट एक ही जिल्द में प्रकाशित हुई थी.

तकनीकी शिक्षा से जुड़ी समिति के अन्य सदस्य थे : डॉ. ए.एच. पंड्या, डॉ. बीरबल साहनी, डॉ. जे.सी. घोष, डॉ. नज़ीर अहमद, डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर, डॉ. एन.आर. धर आदि. तकनीकी शिक्षा और शिक्षण संस्थाओं से जुड़ी जानकारियाँ और आँकड़े इकट्ठा करने के क्रम में समिति को अनेक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा. अधिकांश सरकारी संस्थाओं और विभागों ने समिति द्वारा तैयार की गई प्रश्नावली का या तो जवाब ही नहीं दिया या दिया भी तो आधा-अधूरा! 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों के इस्तीफ़े के बाद सरकारी संस्थानों के असहयोग का यह रवैया अधिक प्रकट होकर सामने आया. फिर भी समिति के सदस्यों ने बड़ी मेहनत से तकनीकी शिक्षा से जुड़ी रिपोर्ट तैयार की. इसके लिए शिक्षा सम्बन्धी पुरानी रिपोर्टों का हवाला तो लिया ही गया. यूरोप और अमेरिका की शिक्षण संस्थाओं में तकनीकी शिक्षा को लेकर चल रहे प्रयोगों और उनसे जुड़े अनुभवों से भी सीख हासिल करने और उसे अमल में लाने की कोशिश की गई.

अकारण नहीं कि उप-समिति की रिपोर्ट में ज़ाकिर हुसैन समिति की रिपोर्ट, औद्योगिक कमीशन की रिपोर्ट (टी.एच. हॉलैंड कमेटी), तकनीकी शिक्षा रिपोर्ट (एबट एवं वुड), बंगाल में तकनीकी शिक्षा को लेकर जॉन सार्जेंट के मेमोरेंडम का हवाला मिलता है. यही नहीं जे.डी. बर्नाल, डी.सी. जैक्सन और बीट्रिस किंग द्वारा क्रमशः विज्ञान के सामाजिक स्वरूप, अमेरिका और सोवियत रूस में शिक्षा विशेषकर तकनीकी शिक्षा को लेकर लिखी गई किताबों का संदर्भ भी इस रिपोर्ट में मिलता है.[2]

रिपोर्ट में विश्वविद्यालय स्तर पर तकनीकी शिक्षा पर ज़ोर देने के साथ ही उन्हें प्रयोगशालाओं से युक्त बनाने और उनमें काम करने के लिए ज़रूरी तादाद में प्रशिक्षित और कुशल हाथों की मौजूदगी के साथ ही उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों और मशीनों से लैस करने पर भी बल दिया गया. इसके साथ ही, इंजीनियरिंग संस्थानों में शोध के अभाव को इंगित करते हुए वहाँ भी वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देने का सुझाव दिया गया. यही नहीं आज़ाद भारत के निर्माण में पॉलीटेक्निक संस्थानों की ज़रूरत को भी रेखांकित किया गया. रिपोर्ट में तकनीकी शिक्षा के इदारों और उद्योगों के बीच बन गई फाँक को मिटाने और इन इदारों से जुड़े लोगों के मन में परस्परता का भाव जगाने की बात भी कही गई.[3]

 

सरकार समिति की रिपोर्ट (1945)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उक्त प्रयास के अलावा ब्रिटिश भारत की सरकार भी भारत में उच्च तकनीकी संस्थानों की स्थापना को लेकर विचार कर रही थी. चालीस के दशक में आर्देशिर दलाल ने इस दिशा में सरकार का ध्यान खींचा. इसी क्रम में वाइसराय की कार्यकारिणी के सदस्य जोगेंद्र सिंह (शिक्षा, स्वास्थ्य एवं कृषि विभाग) ने भारत में उच्च तकनीकी संस्थाओं की स्थापना के संदर्भ में विचार करने के लिए एक समिति गठित की. जिसकी अध्यक्षता एन.आर. सरकार कर रहे थे. एन.आर. सरकार आगे चलकर ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ़ टेक्निकल एजुकेशन के अध्यक्ष भी रहे थे.

एन.आर. सरकार की अध्यक्षता वाली इस समिति में कुल 22 सदस्य थे. उल्लेखनीय है कि इस समिति के कुछ सदस्य राष्ट्रीय योजना समिति की तकनीकी शिक्षा वाली समिति के सदस्य भी रहे थे. मसलन, डॉ. ए.एच. पंड्या, डॉ. जे.सी. घोष, डॉ. नज़ीर अहमद और डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर. समिति में सैन्य इंजीनियरिंग विभाग, डाक एवं तार विभाग, श्रम विभाग, रेलवे बोर्ड, नागरिक उड्डयन, उद्योग एवं आपूर्ति विभाग के प्रतिनिधियों के साथ ही भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार जॉन सार्जेंट भी शामिल थे. यही नहीं समिति में उद्योग जगत के प्रतिनिधि और विश्वविद्यालयों व तकनीकी संस्थाओं के शिक्षक भी शामिल थे.

समिति को जिन मुद्दों पर विचार करना था, वे थे : युद्धोत्तर काल में भारत में औद्योगिक विकास और तकनीकी रूप से दक्ष पेशेवर लोगों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उच्च तकनीकी संस्थाओं की स्थापना पर विचार करना और सुझाव देना. इसी से जुड़ा सवाल था कि क्या हिंदुस्तान में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी की तर्ज़ पर एक केंद्रीय संस्था बनाई जानी चाहिए या क्षेत्रीय आधार पर ऐसे कई उच्च तकनीकी संस्थान खोले जाने चाहिए. इसके साथ ही समिति को इन संस्थानों के आकार और उद्देश्य, उनकी अवस्थिति, प्रबंधन, शिक्षकों की योग्यता और उनकी नियुक्ति व सेवा सम्बन्धी प्रावधान, भवन निर्माण और लागत सम्बन्धी सवालों पर भी विचार करना था.

समिति ने 1945 में दी गई अपनी रिपोर्ट में हिंदुस्तान के आकार और विविधता को देखते हुए देश में एकमात्र केंद्रीय संस्थान की बजाय कम से कम चार उच्च तकनीकी संस्थान बनाने का सुझाव दिया. ये संस्थान देश में उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम में स्थापित किए जाने थे. समिति ने जगहों के बारे में भी सुझाव देते हुए उत्तर भारत में कानपुर, पश्चिम में बम्बई और पूर्व में कलकत्ता के आस-पास ये संस्थान बनाने के सुझाव दिए. अपने सुझाव देते हुए समिति ने आम जनता, उद्योग और शिक्षा के बीच समुचित सम्बन्ध विकसित करने पर ज़ोर दिया.

इन उच्च तकनीकी संस्थाओं में स्नातक स्तर की पढ़ाई के साथ-साथ परास्नातक और शोध को बढ़ावा देने पर भी समिति ने बल दिया. इन संस्थानों में पढ़ने वाले स्नातकों के लिए अकादमिक गुणवत्ता का मानक निर्धारित करते हुए समिति ने मानचेस्टर यूनिवर्सिटी के बी.एस-सी. (टेक.) और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी की बी.एस. की डिग्री को समकक्ष रखा. स्नातक और परास्नातक के छात्रों का अनुपात 2:1 रखने का सुझाव भी समिति ने दिया.[4] आज़ादी के बाद भारत में प्रौद्योगिकी संस्थानों के निर्माण की दिशा में सरकार समिति की यह रिपोर्ट महत्त्वपूर्ण साबित हुई.

Prime Minister Pt. Jawaharlal Nehru with Homi Bhabha and others viewing the model of TIFR

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर

सरकार कमेटी की सिफ़ारिशों के अनुरूप भारत के पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना पश्चिम बंगाल में खड़गपुर के पास हिजली में मई 1950 में हुई. डॉ. बिधान चन्द्र राय के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार ने क़रीब चौदह सौ एकड़ ज़मीन प्रौद्योगिकी संस्थान बनाने के लिए भारत सरकार को सौंपी थी. ऐतिहासिक तथ्य यह है कि यह ज़मीन ‘हिजली डिटेंशन कैम्प’ के नाम से कुख्यात वही जगह थी, जहाँ कभी अंग्रेज़ी राज ने भारतीय राजबंदियों को गिरफ़्तार कर क़ैद में रखा था.

जवाहरलाल नेहरू ने 3 मार्च 1952 को आईआईटी, खड़गपुर के मुख्य भवन की आधारशिला रखी. उसी दिन नेहरू को खड़गपुर के नागरिकों द्वारा एक स्वागत पत्र दिया गया और रेलवे श्रमिकों के प्रतिनिधियों ने भी नेहरू से मुलाक़ात कर अपनी आवास सम्बन्धी समस्या से उन्हें अवगत कराया. नेहरू ने श्रमिकों के आवास की बुरी स्थिति पर अपना असंतोष प्रकट करते हुए रेलवे मंत्री और वित्त मंत्री को पत्र लिखा, साथ ही पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चंद्र रॉय को भी इस बारे में लिखा. इस संदर्भ में नेहरू ने आईआईटी, खड़गपुर में उस वक़्त अध्यापन कर रहे आस्ट्रिया के प्रो. आंटन ब्रेनर की मदद लेने के लिए भी लिखा. ब्रेनर स्थापत्यकार थे और उन्होंने जर्मनी और आस्ट्रिया में किफ़ायती घरों को बनाने की परियोजनाएँ सफलतापूर्वक पूरी की थीं.[5] इसकी जानकारी नेहरू को थी और वे आंटन ब्रेनर से प्रभावित भी थे. खड़गपुर की अपनी इस यात्रा का ज़िक्र उन्होंने 16 मार्च 1952 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में भी किया है.[6]

रसायनविद डॉ. जे.सी. घोष आईआईटी, खड़गपुर के पहले निदेशक बने. उनके बाद वर्ष 1954 में डॉ. एस.आर. सेनगुप्त संस्थान के दूसरे निदेशक बने.[7] 21 अप्रैल 1956 को नेहरू ने आईआईटी, खड़गपुर के पहले दीक्षांत समारोह को सम्बोधित किया. इस अवसर पर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चन्द्र रॉय भी मौजूद थे, जो आईआईटी, खड़गपुर गवर्निंग बोर्ड के अध्यक्ष भी थे. आईआईटी, खड़गपुर से इंजीनियरिंग की उपाधि पाने वाले लगभग डेढ़ सौ छात्रों को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने उनसे आज़ाद हिंदुस्तान के वर्तमान और भविष्य को गढ़ने का आह्वान किया. नेहरू ने छात्रों को याद दिलाया कि उनका यह संस्थान ‘हिजली डिटेंशन कैम्प’ की जगह पर खड़ा है, जहाँ कभी राजबंदियों को रखा गया था. उन्होंने इस संस्थान को भारत की ज़रूरतों, भविष्य के भारत के निर्माण और बदलते हुए भारत के एक प्रतीक के रूप में देखा.

नेहरू ने वेतन या नौकरी से परे छात्रों के चरित्र, दिमाग़ी मज़बूती, उद्देश्य की दृढ़ता और जीवन के लक्ष्यों को स्पष्ट रखने पर ज़ोर दिया. उन्होंने नए हिंदुस्तान की ज़रूरतों के मुताबिक़ गैर मामूली प्रयासों, सृजनात्मकता और व्यावहारिकता पर ज़ोर दिया. यही नहीं उन्होंने संकीर्ण राष्ट्रवाद से बचने के लिए भी छात्रों से कहा. देश की मुश्किलों और कठिनाइयों के लिए किसी बाहरी कारक को ज़िम्मेदार ठहराने की बजाय नेहरू ने अपनी कमज़ोरियों और सीमाओं को पहचानने और उन्हें दूर करने की बात कही. एकता और परस्पर सहयोग की भावना पर बल देते हुए नेहरू छात्रों से निर्भय बनने के लिए भी कहा. देश में औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ घटित हो रही परमाणु क्रांति का उल्लेख करते हुए नेहरू ने महात्मा गांधी की याद दिलाई और साधन व साध्य की शुचिता पर ज़ोर दिया.

नेहरू ने छात्रों से पूरे उत्साह और साहस के साथ देशनिर्माण के काम में हिस्सा लेते हुए उस ऐतिहासिक प्रक्रिया में भागीदार होने का आह्वान किया. देश में भावनात्मक एकता पर बल देते हुए नेहरू ने भाषा, धर्म, जाति और प्रांत की सीमाओं और पूर्वग्रहों से ऊपर उठने के लिए भी कहा. आज़ाद हिंदुस्तान में इंजीनियरों और वैज्ञानिकों की बढ़ती भूमिका को रेखांकित करने के साथ ही उन्होंने छात्रों से एशिया और अफ़्रीका के दूसरे देशों में नव-निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने का आह्वान किया.[8] उसी दौरान आईआईटी, खड़गपुर एक्ट 1956 को पारित कर संसद ने इस संस्थान को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान का दर्जा दिया. यह क़ानून अप्रैल 1957 में प्रभावी हुआ.

इसी क्रम में जवाहरलाल नेहरू की पहल पर संसद में 4 मार्च 1958 को देश में वैज्ञानिक नीति को लेकर एक प्रस्ताव (साइंटिफिक पॉलिसी रेजोल्यूशन) पारित किया गया. इसी नीति में कहा गया कि भारत सरकार देश में विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए हरसंभव क़दम उठाएगी. इस नीति के अन्य प्रमुख बिंदु थे : देश में उत्कृष्ट अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन देना और राष्ट्र को सशक्त बनाने में उनकी भूमिका का संज्ञान लेना. देश में विज्ञान, शिक्षा, कृषि, उद्योग, रक्षा जैसे अहम क्षेत्रों की ज़रूरतों के मुताबिक़ लोगों को दक्ष बनाने के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रशिक्षण के लिए ज़रूरी कार्यक्रम बनाना. वैज्ञानिक अनुसंधान में रत प्रतिभावान लोगों को प्रोत्साहन देना और उनके अनुसंधान व शोध को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी अकादमिक स्वतंत्रता का माहौल पैदा करना. वैज्ञानिक अनुसंधान और विज्ञान के व्यावहारिक इस्तेमाल के ज़रिए देश के आम लोगों के हित में काम करना और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वैज्ञानिकों को सभी ज़रूरी सुविधाएँ मुहैया कराना. साथ ही, नीतियों के निर्माण में वैज्ञानिकों की भागीदारी सुनिश्चित करना. कहना न होगा कि 1958 में बनी इस नीति ने देश में वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई थी. इसी क्रम में खड़गपुर के बाद बम्बई, कानपुर, मद्रास और दिल्ली में भी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना हुई.

 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बम्बई

बम्बई के निकट पवई स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना 1958 में सरकार कमेटी के सिफ़ारिशों के अनुरूप हुई. आईआईटी, बॉम्बे को यूनेस्को और सोवियत रूस द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान करने के साथ-साथ विशेषज्ञ, उपकरण और फ़ेलोशिप भी मुहैया कराई गई. 10 मार्च 1959 को नेहरू ने पवई में आईआईटी, बॉम्बे की आधारशिला रखी. इस अवसर पर राज्यपाल श्रीप्रकाश और कस्तूरभाई लालजी भी उपस्थित थे. इस मौक़े पर दिए अपने भाषण में नेहरू ने भारत में उच्च तकनीकी संस्थानों की ज़रूरत पर ज़ोर दिया ताकि युवाओं को प्रशिक्षित किया जा सके. इसे उन्होंने हिंदुस्तान के वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए ही ज़रूरी बताया.

इससे एक दिन पूर्व नेहरू ट्रॉम्बे स्थित आणविक ऊर्जा केंद्र और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च भी गए थे. जाहिर है उन्होंने इन दोनों संस्थानों का उल्लेख भी अपने भाषण में किया और इन्हें भविष्य के हिंदुस्तान और भविष्य की दुनिया में अहम भूमिका अदा करने वाले संस्थानों के रूप में देखा. नेहरू ने आईआईटी जैसे संस्थानों की स्थापना में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की महत्ता को भी रेखांकित किया. इस क्रम में उन्होंने आईआईटी बॉम्बे की स्थापना में सहयोग के लिए सोवियत रूस और यूनेस्को को धन्यवाद दिया. सोवियत रूस की सहायता का उल्लेख करते हुए नेहरू ने भिलाई इस्पात संयंत्र की भी चर्चा की, जो सोवियत रूस के सहयोग से स्थापित हुआ था. उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर सोवियत रूस के प्रतिनिधि एन.ए. मुखितदिनोव भी मौजूद थे.

नेहरू ने आईआईटी जैसे संस्थानों को नए हिंदुस्तान के सपने को यथार्थ में बदलने वाले संस्थानों के रूप में देखा, जो हिंदुस्तान का मुस्तकबिल गढ़ेंगे. उन्होंने युवाओं से बड़े ख़्वाब देखने और उन ख़्वाबों को हक़ीक़त में बदलने के लिए हरसंभव प्रयास करने का आह्वान किया. उन्होंने एक समृद्ध और विविधता से भरे हुए भारत की संकल्पना वहाँ मौजूद लोगों के सामने रखी. नेहरू ने कहा कि इस नए हिंदुस्तान में लाखों लोगों की ज़िंदगी, उनकी साँसें, उनकी मेहनत, उनका दर्द और उनकी ख़ुशी समाहित होगी.[9] आगे चलकर वर्ष 1961 में संसद द्वारा एक क़ानून पारित कर आईआईटी बॉम्बे को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान का दर्जा दिया गया.

 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास

जुलाई 1956 में जब जवाहरलाल नेहरू पश्चिमी जर्मनी के आधिकारिक दौरे पर थे, उस वक़्त फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ़ जर्मनी ने भारत में एक उच्च तकनीकी संस्थान की स्थापना में सहयोग करने का आश्वासन दिया. इसी क्रम में तीन साल बाद 1959 में बॉन (जर्मनी) में भारत-जर्मनी के बीच एक समझौता हुआ. इस समझौते के अंतर्गत जर्मनी ने जर्मन प्रोफ़ेसरों को भारत में सेवा देने तथा भारतीय प्रोफ़ेसरों को प्रशिक्षण देने, वैज्ञानिक उपकरणों की आपूर्ति तथा मद्रास में बन रही आईआईटी में प्रयोगशालाएँ बनाने का वादा किया.

वर्ष 1959 में विज्ञान एवं संस्कृति मंत्री प्रो. हुमायूँ कबीर ने आईआईटी मद्रास का उद्घाटन किया. डॉ. बी. सेनगुप्ता आईआईटी मद्रास के पहले निदेशक बनाए गए. वर्ष 1961 में ही आईआईटी मद्रास को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान का दर्जा दिया गया. वर्ष 1962 में फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ़ जर्मनी के राष्ट्रपति डॉ. हेनरिच लुबके हिंदुस्तान आए और उसी समय भारत और जर्मनी के बीच ‘इंडो-जर्मन टेक्निकल असिस्टेंस प्रोग्राम’ को लेकर समझौता हुआ. जिसके अंतर्गत जर्मनी ने आईआईटी मद्रास को वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए ज़रूरी उपकरण, प्रशिक्षण के लिए विशेषज्ञ उपलब्ध कराए.

 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर

इसी क्रम में आईआईटी कानपुर की स्थापना 1959 में हुई. डॉ. पी.के. केलकर आईआईटी कानपुर के पहले निदेशक नियुक्त हुए. तेज़ी से बदलती हुई दुनिया में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे निरंतर बदलावों के साथ तालमेल बिठाने की दृष्टि से जवाहरलाल नेहरू की पहल पर आईआईटी कानपुर के लिए ‘कानपुर इंडो-अमेरिकन प्रोग्राम’ शुरू हुआ. इस प्रोग्राम की रूपरेखा बनाने और उसे दिशा देने में नवम्बर 1961 में अमेरिकी विशेषज्ञों के साथ दिल्ली में नेहरू की एक बैठक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इस महत्त्वपूर्ण बैठक में ई.ए. पियर्सन (कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कली), एस. ब्रुक्स (एजुकेशन डिवेलपमेंट सेंटर, मैसाचुसेट्स), आर.एस. ग्रीन (ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी), एन.सी. डॉल (एमआईटी), ए.एच. बेनेड (केस इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी) और भारत के संयुक्त शिक्षा सलाहकार जी.के. चन्द्रमणि मौजूद थे.[10]

वर्ष 1962 से 1972 तक चले इस प्रोग्राम के अंतर्गत आईआईटी कानपुर को अमेरिका के प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी संस्थानों और विश्वविद्यालयों जैसे कैलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, कार्नेगी इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, केस इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी, परड्यु यूनिवर्सिटी, कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी (बर्कली), मिशिगन यूनिवर्सिटी से तकनीकी और अकादमिक सहायता प्राप्त हुई.

 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली

आईआईटी दिल्ली की स्थापना 1961 में हुई. पचास के दशक में भारत सरकार ने ब्रिटिश सरकार से दिल्ली में एक प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने के लिए सहयोग हेतु वार्ता शुरू की. आख़िरकार ब्रिटिश सरकार ने इसके लिए अपनी सहमति दी और यह तय हुआ कि उसके सहयोग से दिल्ली में आरम्भ में एक ‘कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी’ खोला जाएगा. इस तरह ब्रिटिश सरकार और फ़ेडरेशन ऑफ़ ब्रिटिश इंडस्ट्रीज के सहयोग से दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज ट्रस्ट बनाया गया. हौज़ खास (दिल्ली) में प्रिंस फ़िलिप (ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा) ने जनवरी 1959 में इस कॉलेज की अधारशिला रखी. इसके दो साल बाद वर्ष 1961 में पहली बार छात्रों का दाख़िला इस इंजीनियरिंग कॉलेज में हुआ. अगस्त 1961 में प्रो. हुमायूँ कबीर ने कॉलेज का औपचारिक उद्घाटन किया. तब यह कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था. इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी एक्ट 1961 के अंतर्गत इस कॉलेज को आईआईटी दिल्ली के रूप में मान्यता मिली. साथ ही 1963 में संसद द्वारा क़ानून पारित कर आईआईटी दिल्ली को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान का दर्जा दिया गया.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब दुनिया दो गुटों में बँट गई, तब नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की राह दुनिया के नव-स्वाधीन राष्ट्रों को दिखाई. विज्ञान और प्रौद्योगिकी ही नहीं शिक्षा, चिकित्सा से लेकर तमाम क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भावना को बढ़ावा मिले ताकि उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुए देश तरक्की की राह पर चल सकें, इस नीति के नेहरू हामी थे. यह नेहरू का विजन था. यह नेहरू की बड़ी कूटनीतिक सफलता ही कही जाएगी कि वे दो गुटों में बंटी हुई दुनिया के दौर में भी भारत में उच्च तकनीकी संस्थानों की स्थापना के लिए सोवियत रूस, यूनेस्को, पश्चिम जर्मनी, अमेरिका और इंग्लैंड का सहयोग हासिल कर सके थे. वह भी भारत की संप्रभुता पर कोई आँच आए दिए बिना. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों को नेहरू ने नए हिंदुस्तान का भविष्य गढ़ने वाले संस्थान के रूप में देखा, जहाँ से प्रशिक्षित होकर निकले हुए छात्र हिंदुस्तान के निर्माण में भागीदार होंगे. प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना के साथ ही वैज्ञानिक नीति से जुड़ा प्रस्ताव संसद में लाकर नेहरू ने वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देने और देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार को लेकर अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट रूप से जाहिर की थी.

सन्दर्भ
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[1] राष्ट्रीय योजना समिति और योजना निर्माण से जुड़े नेहरू के विचारों के ऐतिहासिक विश्लेषण के लिए देखें, बिद्युत चक्रवर्ती, ‘जवाहरलाल नेहरू एंड प्लानिंग, 1938-41 : इंडिया एट द क्रॉसरोड्स’, मॉडर्न एशियन स्टडीज़, खंड 26, अंक 2, मई 1992, पृ. 275-287.
[2] जे.डी. बर्नाल, द सोशल फ़ंक्शन ऑफ़ साइंस (लंदन : जॉर्ज रूटलेज एंड संस, 1939).
[3] नैशनल प्लानिंग कमेटी (रिपोर्ट ऑफ़ सब-कमेटीज़) : जनरल एजुकेशन एंड टेक्निकल एजुकेशन एंड डिवेलपमेंटल रिसर्च (बम्बई : वोरा एंड कं., 1948), पृ. 155.
[4] डिवेलपमेंट ऑफ़ हायर टेक्निकल इंस्टीट्यूशंस इन इंडिया (रिपोर्ट ऑफ़ सरकार कमेटी), मार्च 1948, पुनर्मुद्रित (शिमला : गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया प्रेस, 1951), पृ. 6.
[5] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू (यहाँ के बाद सेलेक्टेड वर्क्स), द्वितीय सीरीज़, खंड 17 (नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, 1995), पृ. 258-260.
[6] वही, पृ. 617-618
[7] रिपोर्ट ऑफ़ द रिव्यूइंग कमेटी ऑफ़ द इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, खड़गपुर (नई दिल्ली : भारत सरकार, 1959), पृ. 4.
[8] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 32, पृ. 32-38.
[9] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 47, पृ. 410-415.
[10] कानपुर इंडो-अमेरिकन प्रोग्राम की गतिविधियों की विस्तृत जानकारी के लिए देखें, कानपुर इंडो-अमेरिकन प्रोग्राम (1962-1972) : फ़ाइनल रिपोर्ट (मैसाचुसेट्स : एजुकेशन डिवेलपमेंट सेंटर).

 


युवा इतिहासकारों में उल्लेखनीय शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.

जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत: राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन किया है. पत्र पत्रिकाओं में हिंदी-अंग्रेजी में लेख  आदि प्रकाशित हैं.

ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com

 

Tags: जवाहरलाल नेहरूशुभनीत कौशिक
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Comments 4

  1. Anonymous says:
    4 weeks ago

    More Informative.

    Reply
  2. जयश्री पुरवार says:
    4 weeks ago

    आज समालोचन में प्रकाशित शुभनीत कौशिक का आलेख महत्व पूर्ण है । जनप्रिय नेता नेहरू जी समाजवादी प्रजातंत्र पर विश्वास रखते थे । उन्होंने आजाद भारत में कुटीर उद्योगों के साथ ही बड़े उद्योगों की स्थापना पर बल दिया । योजना आयोग द्वारा पंचवर्षीय योजनाएँ लागू की । उन्होंने कई लोक उद्योगों की स्थापना की जो देश कि आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण थे। आई आई टी , आई आई एम , निट , आदि के अलावा एल आई सी , ओ एन जी सी , डी आर डी ओ, सी एस आई आर जैसे औद्योगिक एवं शोध संस्थाओं की भी स्थापना की जिनका उल्लेख कौशिक जी ने किया ।
    इसके अलावा कई सार्वजनिक उपक्रम जैसे बोकारो स्टील प्लांट , भाखड़ा नंगल बांध , रिहंद बांध आदि की नींव रखी । इतना ही नहीं इन सभी लोक उद्योगों पर नियंत्रण के लिए संसदीय लोक उपक्रम समिति का भी गठन किया गया । उन्होंने देश के लोक उद्योगों को आधुनिक “लोकतंत्र के मंदिर “की संज्ञा दी । एक विकसित और आधुनिक भारत के सूत्रधार नेहरू जी अपने इन अतुलनीय योगदान के लिए हमेशा याद किए जाएँगे ।आभार सहित ।

    Reply
  3. रवि रंजन says:
    4 weeks ago

    आज़ाद भारत में आई. आई.टी और अन्य विज्ञान एवं तकनीकी उच्च शिक्षा संस्थानों को लेकर लिखित यह आलेख पठनीय है.
    इसके साथ ही साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी आदि की स्थापना में भी नेहरू जी का योगदान रहा है.

    Reply
  4. पद्मसंभवा says:
    4 weeks ago

    हिन्दी में ज्ञानोत्पादन के दुर्भिक्ष और संदर्भ-च्युत थियरी-थेथरई के माहौल में यह आलेख बधाई का पात्र है. शुभनीत जी सूचनाप्रद लेख अच्छे लिखते हैं, जो कि इतिहास में सबसे ज़रूरी है. हाँलांकि मेरी दिलचस्पी इसमें अधिक होती कि आईआईटी के लिए नेहरू की धारणा क्या थी? तकनीक और उपनिवेशवाद के गठजोड़ और स्वातंत्र्योत्तर तकनीकी आत्मनिर्भरता की अनिवार्य बाध्यता को वे कैसे देखते थे? अंतिम पैराग्राफ का इशारा नये आलेख की दिशा है. और, यह तो ख़ैर अब निर्विवाद है कि आईआईटी में अधिकतर काम स्तरहीन होता है और उन्होंने भारत का धन खाया है या समाज को लौटाया है, स्पष्ट नहीं होता. आजकल आईआईटी के बीटेक के बच्चों से ख़ाली दिमाग़ किसी के नहीं.

    Reply

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