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समालोचन

Home » प्रभा नर्सिंग होम : जयशंकर

प्रभा नर्सिंग होम : जयशंकर

वरिष्ठ कथाकार जयशंकर कथा-साहित्य के साथ-साथ कथेतर गद्य में भी अपने आत्मान्वेषी और संवेदनशील लेखन के लिए जाने जाते हैं, जहाँ स्मृति, अवसान और समय का बोध एक-दूसरे में घुलमिल जाता है. वे समय की हलचलों के थिर जाने के बाद उभरने वाले यथार्थ के लेखक हैं. उनकी नई कहानी ‘प्रभा नर्सिंग होम’ प्रस्तुत है.

by arun dev
November 1, 2025
in कथा
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प्रभा नर्सिंग होम : जयशंकर
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प्रभा नर्सिंग होम

जयशंकर

राधा को अपने स्कूल से नर्सिंग होम तक पैदल चलकर आने में दस मिनट भी नहीं लगते हैं. बीच में सकरी-सी सड़क है. उस सड़क के दोनों तरफ सप्तपर्णी के पेड़ों की कतार. इन दिनों में सप्तपर्णी के पेड़ों पर फूल हैं. पेड़ों के नीचे हवाओं से गिरे हुए फूल भी.

प्रभा नर्सिंग होम पीली और आधी दीवारों से घिरे हुए कम्पाउन्ड के बीचोंबीच खड़ा हुआ है. एक छोटी-सी लेन के किनारे. लेन के उस तरफ कुछ पुराने बंगले हैं. एक अमरोलीवाला का सफेद बंगला. एक अनिता थाम्पसन का लाल दीवारों का छोटा-सा बंगला.

यह नर्सिंग होम पुराना है. कभी डॉक्टर बेड़ेकर की माँ का “सूतिका गृह” कहलाता था. वहाँ काम कर रही आनंदीबाई राधा की बुआ थी. अपने बचपन के दिनों में ही राध अपनी बुआ का टिफिन पहुंचाने इस नर्सिंग रूम में रोज ही जाया करती थी.

इन दिनों उसकी आई वहाँ पर भर्ती है. पिछले एकाध महीने से. आई की याददाश्त गड़बड़ाने लगी है. वह बहुत ज्यादा भूलने-भटकने लगी है.

“क्या अब आई की याददाश्त लौटेगी ही नहीं” राधा पूछती है.

“यह कहना मुश्किल है.”

“इन दिनों चिड़िया से भी कम खाने लगी है.”

“खा तो रही है… इस उम्र में यह भी कोई छोटी बात नहीं है.”

“समझ में नहीं आ रहा कि कुछ ही दिनों में हमारा सब कुछ बदल गया… कल तक आई बच्चों को पढ़ा रही थी.”

“तुमने गौतम बुद्ध की जिंदगी का यह किस्सा सुना ही होगा….”

राधा चुप हो गयी. इस वक्त वह डॉक्टर बेड़ेकर की समझ और सनक से दूर ही रहना चाह रही थी. उन्हें नर्सिंग होम में भर्ती हुए दूसरे मरीजों को देखना भी था. शाम ढल रही थी. ताराबाई आती ही होगी. राधा स्कूल से सीधे आ गयी थी. कुछ देर के लिए घर जाना चाहेगी. तब तक ताराबाई आई के पास रहेगी.

उनकी आई पिछले एक महिने से प्रभा नर्सिंग होम में भर्ती है. आई सिनाइल डिमेंशिया की शिकार हो चुकी है. सत्तर की उम्र को छू रही है. यह मार्च है. पिछले नवम्बर में इन दोनों बच्चों ने अपनी आई का जन्मदिन मनाया था. उनका बेटा उपहार में उनके लिए लक्ष्मीबाई तिलक की आत्मकथा ले आया था, जिसे मिसेज रानाडे नर्सिंग होम में आने के पहले तक धीरे-धीरे पढ़ती रही थी.

प्रभा नर्सिंग होम चर्च स्क्वॉयर के करीब है. पड़ौस में शहर का मशहूर हसन गैरेज. कारों की मरम्मत के लिए जानी जाती एक जगह. मिसेज रानाडे की याददाश्त के गड़बड़ाने का एकदम शुरुआती अनुमान हसन गैरेज के मालिक मुस्तफा अंकल को ही हुआ था. वे बरसों से मिसेज रानाडे को सुबह की सैर के वक्त मिलते रहे थे.

“मुझे दो-तीन दिनों से ऐसा लग रहा है कि वे मुझे पहचान नहीं रही हैं.”

“देखती हूँ अंकल… ताराबाई से भी पूछती हूँ” राधा ने कहा था.

“उन्होंने मुझे नहीं पहचाना…. वे मेरे सामने से किसी अजनबी की तरह चली गयीं दो-तीन बार….”

उसी शाम ताराबाई ने भी कन्फर्म किया था कि उसकी आई काफी कुछ भूलने लगी है. यह मकर संक्रांत के आसपास की बात होगी. अब मार्च की हवाओं के चलने के दिन हैं. मिसेज रानाडे सिनाइल डिमेंशिया की तकलीफों को लिए हुए प्रभा नर्सिंग होम में रह रही हैं.

राधा यहीं एक प्रायमरी स्कूल में पढ़ाती है. रवि यहाँ से सत्तर किलोमीटर की दूरी पर स्थित सेंट्रल स्कूल में. भूगोल पढ़ाता है. ये दोनों ही अविवाहित हैं. इनकी बड़ी बहन कोल्हापुर में अपने भरे-पूरे परिवार में रहती है. सर्दियों में इनकी आई कोल्हापुर में रही थी. रिटारयर हो जाने के बाद से वे हर साल अपना थोड़ा-सा वक्त अपनी बड़ी बेटी के यहाँ बीताती आयी हैं.

“उनकी जिंदगी आसान नहीं रही” रवि कहता है.

“उनका शरीर तो ठीक ही रहा है.”

“मन थक जाता है… तुम बहुत ही छोटी थी… आई को अपने स्कूल में देर-देर तक काम करना पड़ता था… वह अकेली काम कर रही थी… स्कूल में ही उनको हार्ट अटैक आया था.”

“तुम्हें बाबा का चेहरा याद है?”

“बहुत ही धुंधला-सा… उनके मरने के वक्त मैं आठ बरस का था.”

“अक्का भी छोटी ही रही होगी?”

“वह दस की थी… प्रायमरी के आखरी साल में.”

रवि और राधा बीच-बीच में अपने परिवार के बारे में, उसके अतीत को लेकर अकसर बात कर लिया करते थे. नर्सिंग होम के चारों तरफ पुराने और बड़े-बड़े छायादार पेड़ खड़े हुए हैं. उनके नीचे बेंचें रहती हैं. प्रभा नर्सिंग होम इनके घर से आधे किलोमीटर की दूरी पर खड़ा होगा. डॉक्टर बेडेकर की माँ भी डॉक्टर रही. अभी वे जीवित हैं लेकिन नर्सिंग होम के ऊपरी हिस्से के घर में रहती हैं. डॉक्टर की पत्नी के मरीज नर्सिंग होम में एडमिट रहते हैं. ज्यादातर गर्भवती औरतें. बारह बिस्तरों के नर्सिंग होम में बच्चों के रोने की आवाजें, युवा औरतों के सिसकने, कराहने की आवाजें बनी रहती हैं.

“तुम्हारा जन्म इसी नर्सिंग होम में हुआ था” मिसेज रानाडे कहती हैं.

“आई तुम दस बार यह बता चुकी हो” रवि मुस्कुराते हुए कहता है.

“आजकल बहुत ज्यादा भूलने लगी हूँ… पता नहीं मेरे साथ क्या हो रहा है.”

“सब ठीक हो जायेगा… जल्दी ही ठीक हो जायेगा” राधा कहती है.

शाम के ढलने का वक्त है. गली में नीम अंधेरा छाया हुआ है. अनिता थाम्पसन के घर से जैज के किसी रिकार्ड के स्वर उभर रहे हैं. बरसों पहले का कोई अश्वेत गायक का स्वर.

“तू बहुत कमजोर था… मुझे अस्पताल में दस-बारह दिन रहना पड़ा था.”

इनकी आई को उनकी पचास बरस पहले की जिंदगी साफ-साफ याद आ जाती है. उस जिंदगी का एक-एक डिटेल. दिन या रात का पहर तक. मौसम का मिजाज भी. पर अभी-अभी घटा हुआ भूल जाती है. अपने चाय पिये जाने को. बालों को कंघी करने को.

“कोई बीमारी है या कुदरत का कोई खेल… जादू-सा महसूस होता है” राधा कहती है.

“सावनेर में एक बड़ा ओझा रहता है… मिनटों में मरीज खड़ा हो जाता है” ताराबाई सुझाती है.

ताराबाई इनके घर से जुड़ी ही रही. चालीस से ज्यादा बरस होने को आये हैं. बहुत-बहुत पहले इनके घर के कम्पाउंड में मंगला गौरी पूजा के दिन फूल लेने आयी थी. तब मिसेज रानाडे प्रायमरी स्कूल में पढ़ाती थीं. जान-पहचान हो गयी. ताराबाई सुबह-शाम चपाती बनाने के लिए आने लगी. धीरे-धीरे घर की रसोई सम्हालने का काम उनके जिम्मे आता गया. उनका अपना घर-परिवार इनके इलाके ही था. वैसे ये लोग ग्रामीण इलाके से आये थे.

“तब यहाँ इतने घर नहीं थे… फ्लैट तो शायद एक भी नहीं” ताराबाई बताती है.

“विक्टोरियन स्टाइल के बंगले बहुत थे… एक-एक कर हर बंगला टूटता गया… अब वहीं फ्लैट्स खड़े हुए हैं” राधा कहती है.

नर्सिंग होम के परिसर में पीपल का भी बरसों पुराना पेड़ खड़ा है. उसके चबूतरे पर देवी की आधी-अधूरी पत्थर की प्रतिमा खड़ी रहती है. वहीं एक झूला भी खड़ा रहता है. राधा बचपन से इस झूले को देखती आयी है. इन दिनों में झूले पर बैठना भी हुआ है. आई जब नींद में रहती है तब वह वार्ड से निकलकर यहाँ आ जाती है. बैग में कोई किताब रहती ही है. कभी पढ़ती है और कभी आते-जाते राहगीरों को, अस्पताली हलचलों को देखती रहती है.

राधा को अपने चालीस बरस के जीवन का कितना कुछ याद आता रहता है. आई का जीवन. अपने बड़े भाई की जिंदगी. अपना पहला और आखरी प्रेम. उसके प्रेम का एक साल का भी इतिहास नहीं रहा. पर जितना उनका साथ रहा. उसका एक-एक दिन, हर दिन राधा के लिए अब तक यादगार बना हुआ है. वह लड़का एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया था. छब्बीस बरस का रहा होगा. मिशनरी के स्कूल में स्पोर्ट टीचर था. जीवित रहता तो छह महिनों के बाद राधा से उसकी शादी होनी थी. उन दोनों की सगाई हो चुकी थी.

राधा को किसने नहीं समझाया? लेकिन वह नहीं मानी तो नहीं ही मानी. उसी स्कूल में पढ़ाती रही जिस स्कूल के गलियारों में अपने प्रेमी से मुलाकातों को जीती रही थी. रवि चार बरस बड़ा है. छोटी बहन ने अकेले रहने का फैसला किया और उसके अपने कदम विवाह के लिए डगमगाने लगे. धीरे-धीरे वह भी विवाह की उम्र को खोता चला गया. अब वह चवालीस के आसपास होगा. दोनों भाई-बहन मित्रों की तरह साथ-साथ बने रहते हैं. देर-देर तक बातचीत और बहस करते रहते हैं.

“जिंदगी गुजरती चली जाती है…. कहीं भी, कभी भी रुकने का नाम नहीं लेती है” रवि सोचता रहता है.

अस्पताली गलियारे में अपनी आई के बिस्तर के करीब बैठा रहता है. आई नींद में. नर्स पूरे वार्ड में घूमती हुई. कभी कोई नवजात बच्चा रोने लगता है. कोई डिलीवरी के लिए लाया जाता है. कोई डिलीवरी के बाद अपने घर लौटती रहती है. आई की नींद टूटती-बिखरती रहती है. वार्ड में ताजुद्दीन बाबा की बड़ी-सी तस्वीर टंगी है. वहाँ फूलमाला चढ़ायी जाती है. अगरबत्ती जलती रहती है.

“सब कुछ उसके हाथ में है” अधेड़ उम्र की नर्स कहती रहती है. डॉक्टरनी की अपनी अलग-सी मेज है. अलग-सा कमरा. वहाँ पर एक कोने में साईंबाबा की तस्वीर टंगी रहती है.

मिसेज रानाडे अपने विवाह के बाद इस शहर में आयी थीं. पति पब्लिक लाइब्रेरी में ग्रंथपाल थे. लाइब्रेरी के पड़ौस में ही उनका मकान. पहले किराये का रहा. बाद में इन लोगों ने खरीद लिया. दोनों बच्चों का जन्म इसी इलाके में हुआ. डॉक्टर की माँ  के नर्सिंग होम में. तब तक मिसेज रानाडे ने स्कूल पढ़ाना शुरू नहीं किया था. राधा के होने के चार बरसों के बाद, उसके पिता की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी. उनकी ही खाली जगह पर मिसेज रानाडे को पहले लाइब्रेरियन और ट्रेनिंग होने के बाद अध्यापन का काम सौंपा गया था. वह अठ्ठावन बरस की उम्र में रिटायर हुई थीं.

“उन बरसों का दीदी का जीवन बहुत ज्यादा कठिन रहा” ताराबाई बताती है.

“हम दोनों की देखभाल कौन करता था?” राधा पूछती है.

“तुम्हारी नानी यहीं रहने लगी थी… तुम्हारी बुआ ने भी बहुत सम्हाला था.”

“और तुमने भी तो हमारी कम सहायता नहीं की है.”

“मैं सुबह-शाम खाना बनाने आया करती थी… मेरे भी घर में मेरे दो-दो बच्चे बड़े हो रहे थे” ताराबाई अधूरा सच व्यक्त किया करती थी. उसने इन दोनों को भी अपने ही बच्चों की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया था. ताराबाई ने जब इनके घर में काम करना शुरू किया था तब वे अपने दाम्पत्य जीवन की शुरुआत कर रही थी. अब वे बूढ़ी हो रही है. चार लोगों की दादी और नानी है. भंडारा के आसपास के ग्रामीण और गोंड लोगों के इलाके से शादी के बाद इस शहर में आयी थी.

रवि और राधा ने ताराबाई से आदिवासियों के इलाके के न जाने कितने-कितने गाने और किस्से सुने हैं. कभी वे इन दोनों को अपने गांव भी ले गयी थी. राधा को वहाँ की लम्बी-चौड़ी नदी, वहाँ के पुराने शिव मंदिर की सीढियों की याद आती रहती है. रवि ने तभी बरसों पुराने तालाबों को पहली बार देखा था.

“आदिवासियों की जीवन-जगत की अपनी गहरी समझ रही है” रवि सोचता रहता है.

बाद के दिनों में बस्तर की यात्राएं करते हुए रवि को और-और समझ में आया था कि आदिवासियों की अपनी सभ्यता और संस्कृति कुछ कम विकसित नहीं थी. उनका अपना ज्ञान-विज्ञान था, अपनी कला और संगीत. यही भी रहा होगा कि रवि ने कभी अपने स्कूल में छात्रों के बीच तीजनबाई के पंडवानी गायन का प्रोग्राम करवाया था. रवि ही नहीं कस्बे और स्कूल के लोगों ने पंडवानी के जादू और जीवन को देर तक अपने साथ पाया था.

राधा समय काटने के लिए जासूसी और मनोरंजक अंग्रेजी उपन्यासों को पढ़ती रही है. इस इलाके की सर्कुलेटिंग लाइब्रेरी से, अपने स्कूल की लाइब्रेरी से अगाथा क्रिस्थी, डिफोन मॉरियर की किताबें लेती रहती है. रवि की दिलचस्पी गंभीर किताबों में रहती है. वह कम पढ़ता है लेकिन अच्छी और गंभीर किताबें. वेस्टर्न बुक डेपो और कोहिनूर एजेन्सी से वह अपने लिए किताबें और कैसेट्स खरीदता आया है. उसकी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में दिलचस्पी रहती आयी है.

“वह बचपन से ही ऐसा रहा है” मिसेज रानाडे को लगता है.

“और मैं?” राधा पूछती है.

“तुम्हारे अंदर कभी भी गंभीरता नहीं रही…. तुम अधीर बनी रहती हो.”

“वह बेटा है न आपका?”

“मैंने कभी भी ऐसा नहीं सोचा है.”

“तुम्हें अपने बारे में गलतफहमी है.”

“हो सकती है.”

माँ  और बेटी के बीच लड़का और लड़की के बीच का, समाज का यह भेदभाव, हमेशा से बहस का विषय रहता आया है. राधा को लगता रहा है कि उसकी माँ  ने अपने बेटे पर जितना ध्यान दिया है, उसका आधा भी अपनी बेटी पर नहीं. राधा को लगता रहता है कि उसकी आई को अपने बेटे का अकेलापन नजर आता रहता है लेकिन बेटी का नहीं.

नर्सिंग होम के परिसर में बीतते हुए अपने समय के बीच राधा को कितना कुछ याद आता रहता है. उसकी आई ज्यादातर सोती रहती है. उनकी एक दवाई नींद की भी है. डॉक्टर बेड़ेकर से खूब-खूब बातचीत हो सकती है लेकिन वह उनकी समझ, उनकी सनक से दूर रहना चाहती है. उनसे भी. उनकी निगाहों से भी.

“मृत्यु सिर्फ एक मजाक है” डॉक्टर ने कहा था और अपनी ही बात पर हंसने लगे थे. यह अच्छा रहा कि वार्ड के भीतर उनकी यह बात अंग्रेजी में आयी थी. वहीं सात-आठ पलंगों पर कुछ गर्भवती, कुछ हाल ही माँ  बनी लड़कियां थीं.

“वे बरसों अकेले रहे… मिलटरी अस्पताल में थे” मिसेज रानाडे कहतीं.

“इससे क्यो कोई झक्की हो जाता है… तुम कुछ भी कहो लेकिन मुझे उनकी निगाहों में खोट नजर आता है.”

“तुम उनके बाग में क्यों नहीं बैठती” रवि कहता है.

“वहाँ खूब मच्छर रहते हैं… उस दीवार के पीछे ही स्कूल का टायलेट है.”

“ मुझे क्या हमेशा यहाँ रहना है?” आई पूछती है.

“ताराबाई रात में रह जाती.”

“उसे यहाँ नींद नहीं आती है… शाम तक तो रहती है बेचारी… उसका अपना भी तो घर है… वह हमारी सगी तो नहीं है.”

“हमारा अपना कोई सगा है तो ताराबाई ही है… वह न होती तब हमारा यह संकट बहुत बड़ा हो जाता था.”

राधा को आई की बात समझ में आती है. वह कम से कम दिन में स्कूल तो चही ही जाती है. रवि सिर्फ दो दिनों के लिए आ पाता है. आई का ब्लडप्रेशर कंट्रोल में नहीं आ रहा है. डिमेंशिया की तकलीफें बढ़ नहीं रही है. इंसोमेनिया चला गया है. मिसेज बेड़ेकर का कहना है कि राधा अपने घर में सो सकती है लेकिन उसका मन नहीं मानता. वह आई के बिना शायद ही कभी सोयी होगी. अपने स्कूली दिनों में स्काउट के कैंपों में जाती थी और रात-रात भर जागती रहती थी.

“और जब एक दिन आई नहीं रहेगी” ताराबाई समझाती है.

“तब और बात रहेगी.”

“मुझे भी यह डॉक्टर अच्छा नहीं लगता है… बुरी तरह घूरता रहता है.”

“क्यों तुम्हारे साथ कोई हरकत…” राधा चौंकती है.

“नहीं… नहीं… मुझ बुढिया के साथ क्या करेगा… लेकिन उसकी निगाहें बुरी हैं.”

“रवि को मत कहना… वह मेरे लिए परेशान हो जायेगा.”

“दीदी को अब ज्यादा दिन नहीं रखेंगे… अब वह पहले से अच्छी है.”

“कौन कह रहा था?”

“डॉक्टरनी… कह चुकी है.”

“कब कह रही थी?”

“डॉक्टरनी तो दो-तीन बार कह चुकी है… कल भी बाहर से आये डॉक्टर को बता रही थी.”

आई के लिए एक मनोचिकित्सक बीच-बीच में आते रहे हैं. प्रभाकर भावे. उन्होंने ही राधा और रवि को उनकी आई की बीमारी के बारे में विस्तार से समझाया था. उनके पास हमेशा ही किसी न किसी को रखने का सुझाव दिया था. कभी भी अकेले नहीं छोड़ने का भी.

“यहाँ कुछ दिन रहने दें… चहल-पहल बनी रहती है… शायद उनकी याददाश्त लौट भी सकती है.”

“पर डॉक्टर बेड़ेकर कह रहे हैं कि अब आई की याददाश्त लौटना मुश्किल है.”

“मैं ऐसा नहीं सोचता….”

यह डॉक्टर युवा है. बाहर से पढ़कर आये हैं. उम्मीद नहीं छोड़ने का सुझाव देते हैं.

“आदमी उम्मीद ही छोड़ देगा तो उसके पास क्या बचेगा?” भावे कहते हैं.

“लेकिन विज्ञान भी तो सच कहता है” रवि पूछता है.

“आदमी के सच को कोई नहीं जानता है… विज्ञान भी धर्म की तरह ही बेबस है… आदमी को किसने जाना है?”

डॉक्टर भावे यह सब बेड़ेकर सर की कैबिन में समझा रहे थे. डॉक्टर बेड़ेकर बाहर रहे होंगे. उनकी मेज पर दवाइयों के विज्ञापन पड़े थे. मेडिकल बुलेटिन, दवाइयों के नमूने और टाइम्स ऑफ इंडिया के अंक. दीवार पर ग्रीक चिकित्सक की संगमरमर की प्रतिमा थी और पड़ौस में उनके फ्रेम किये गये सर्टिफिकेट्स, उपलब्धियां और उनकी तस्वीरें. एक तस्वीर में डॉ. बेड़ेकर अफ्रीका के जंगल में खड़े हुए थे.

“बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं है…” भावे समझा रहे थे.

“लेकिन बीमारियां तो बुढ़ापे के कारण ही बाहर आती हैं?” रवि का सवाल था.

“इन सबका गहरा रिश्ता हमारे मन से रहता है….”

डॉक्टर भावे की बातों से राधा का खयाल अपने मन की तरफ जाने लगा था. राधा का मन, जो इन दिनों में तरह-तरह के खयालों से बेचैन बना हुआ है. उसने किसी से भी इस बात को साझा नहीं किया है कि नर्सिंग होम के बिस्तर पर आधी रात को उसने किसी की उंगलियो को अपने हाथ पर पाया था. वह बुरी तरह डर गयी थी. वह समझ नहीं पा रही है कि ऐसा सचमुच में हुआ था या उसका अपना कोई स्वप्न था. इन दिनों में वह कुछ भयावह स्वप्नों को देखती रही है. आधी रात में उसकी नींद टूट जाती है. वार्ड में सब कोई सोते रहते हैं. सिर्फ पंखों के चलने की आवाजें रहती है. बीच-बीच में बाहर घूमते गोरखा की.

हर दिन राधा सोचती है कि वह उस रात की सच्ची-झूठी घटना को अपने भाई से साझा करेगी लेकिन बाद में उसे अपने भाई का, अपनी आई का खयाल आ जाता है कि उन दोनों पर इस बात का कैसा असर रहेगा?

“तुम कुछ दिनों की छुट्टियां क्यों नहीं ले लेती?” रवि कहता है.

“अगले माह मैट्रिक की परीक्षाएं होंगी.”

“तुम्हारी नींद नहीं हो पा रही है.”

“आई को ज्यादा दिन नहीं रखेंगे.”

“क्या पता… ऐसे ब्लड प्रेशर के चलते घर कैसे जायेगी?”

“ हम घर में भी एक नर्स रख सकते हैं… बुआ से कहेंगे.”

“यह अच्छा रहेगा… मैं कल डॉक्टर से बात करूंगा… वे भी मान जायेंगे.”

पर डॉक्टर तैयार नहीं हुए थे. उन्हें किसी भी तरह की रिस्क लेने से मना करने लगे. उनको समझ में नहीं आ रहा था कि उनको नर्सिंग होम में क्या तकलीफ हो रही थी? घर पास में था. उनके अध्यापक होने, राधा के अध्यापक होने से डॉक्टर की फीस को बिल में जुड़ना भी नहीं था. वार्ड भी जनरल ही था. दवाइयों का खर्च भी बहुत कम हो रहा था. तीन-तीन डॉक्टर मरीज की देखभाल कर रहे हैं.

मिसेज रानाडे फरवरी की शुरुआत में नर्सिंग होम में एडमिट हुई थीं. अब मार्च चल रहा है. कुछ ही दिनों में इस बार की बसंत ऋतु चली जायेगी. शाम के समय तेज हवाएं चलने लगी हैं. चौराहे पर धूल के गुबार उठते रहते हैं. कभी-कभार हल्की-सी बूंदाबांदी हो जाती है. राधा नर्सिंग होम की खिड़की से मौसम के बदलने की आहटों को सुनती रहती है. रवि वीक एंड में लौटता है और कस्बाती लैंडस्केप में मौसम के बदलावों से बाहर आते डिटेल्स का सुनाता रहता है. मार्च का मौसम किसके मन को मोहित नहीं कर देता है?

“धीरे-धीरे गर्मियों का मौसम बहुत ज्यादा क्रूर होता जा रहा है” रवि कहता है.

“हम लोग नेचर को कितना ज्यादा छेड़ भी रहे हैं” राधा कहती है.

राधा के मुंह से छेड़ना शब्द बाहर आता है और उसे अपने साथ घटी उस रात की याद आ जाती है. क्या उसके हाथ पर सरकती हुई उंगलियां सच बात थी या उसका कोई स्वप्न? बाद में वार्ड का परदा भी हिलता नजर आया था. उसने किसी के कदमों की आहट भी सुनी थी. कहीं वे डॉक्टर बेड़ेकर की उंगलियां तो नहीं थीं? राधा के मन में आया था कि वह रवि से यह सब बता दे तो उसे थोड़ी-सी तसल्ली मिलेगी. आखिर अपने दुस्वप्न के साथ वह कब तक बनी रहेगी? रवि से जरूर कोई सान्त्वना मिलेगी और उसके मन का बोझ कुछ कम होगा. वह रात में निश्चिंत होकर आई के करीब सो सकेगी. पर कुछ पल भी नहीं बीते और उसे लगा कि यह सब इन दिनों की बेचैनियों से बाहर आता हुआ भ्रम ही होगा. कोई कैसे औरतों के अस्पताल में इस तरह घुस सकता है? डॉक्टर तो बिल्कुल भी नहीं.

मार्च की शाम के इस वक्त दोनों भाई-बहन वार्ड के सामने की लकड़ी की बेंचों पर आमने-सामने बैठे हैं. उनके करीब की मेज पर अस्पताल में आने वाले मरीजों के नाम और पते के लिए रजिस्टर रखा है. दीवार पर नवजात बच्चों की तस्वीरें. गर्भवती स्त्रियों के लिए सावधानियां बताता हुआ चार्ट. बाहर की छोटी-सी सड़क पर नीम अन्धेरा फैल रहा है. गर्मियों के लौटने के दिन. अनिता थाम्सन के घर से बाहर आते रिकार्ड के स्वर.

“यह सब भी बीत ही जायेगा” रवि कह रहा है.

“इस दुनिया में न जाने क्या-क्या नहीं बीत गया है…” राधा कह रही है. वह आने वाले दिनों के इम्तहानों के बारे में बता रही है. आने वाले दिनों की अपनी जिम्मेदारियों के बारे में. रवि सुन रहा है. वार्ड के भीतर उनकी माँ  सो रही है. बीच-बीच में किसी बच्चे का रोना सुनायी देता है. मरीजों और उनको मिलने आये उनके रिश्तेदारों की बातों और हंसने की आवाजें भी. ताराबाई उनकी आई को सेब खिला रही है. शनिवार का दिन है. कल भी रवि यहाँ रहेगा. राधा दिन भर अपने आधे-अधूरे काम करेगी. दुपहर को अच्छी और गहरी नींद लेगी. कल उसे नर्सिंग होम में नहीं आना है. कल का दिन ताराबाई की छुट्टी का भी दिन रहेगा. रात में ही ताराबाई को सोने के लिए आना पड़ेगा.

प्रभा नर्सिंग होम के पुराने पेड़ों पर मार्च का अन्धेरा उतर आया है. मार्च के दिनों की शाम के अन्धेरे का अपना अलग-सा जादू होता है, उस अन्धेरे का अपना कोई रहस्य, जिसे कोई जानता भी होगा और कोई नहीं भी जानता होगा. यह सब रवि के मन में आ रहा है. राधा का अपना मन शांत है. रवि पास में होता है, आई और ताराबाई साथ-साथ हो जाते हैं तो राधा को अपने वे शांत दिन याद आने लगते हैं, जब उनका समय, प्रभा नर्सिंग होम में नहीं, अपने मकान के भीतर और बाहर बीतता रहता था. वे इन सबके अस्पताल के बाहर के दिन रहे थे और तब तक मिसेज रानाडे इस नर्सिंग होम में भर्ती नहीं हुई थीं.

जयशंकर
25 दिसंबर 1959
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रचनाएँ : शोकगीत, भारत भवन भोपाल (1990), मरुस्थल, राजकमल प्रकाशन (1998), लाल दीवारों का मकान, कवि प्रकाशन (1998), बारिश, ईश्वर और मृत्यु, वाणी प्रकाशन (2004), चेम्बर म्यूज़िक, वाणी प्रकाशन (2012), इमिज़िंग द अदर (कथा ग्रुप) में कहानी का अंग्रेज़ी अनुवाद, प्रतिनिधि कहानियाँ (2019), गोधूलि की इबारतें (कथेतर गद्य) आधार प्रकाशन (2020), बचपन की बारिश, आधार प्रकाशन (2021), सर्दियों का नीला आकाश, राजकमल प्रकाशन (2022), कुछ दरवाज़े कुछ दस्तकें ( कथेतर गद्य) आधार प्रकाशन (2023), पूर्व-राग: एक पाठक की नोटबुक (कथेतर गद्य), आधार प्रकाशन 2025.    कुछ कहानियों के मराठी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, अंग्रेज़ी और पोलिश में अनुवाद प्रकाशित. सम्मान : ‘मरुस्थल’ पर विजय वर्मा सम्मान, ‘बारिश, ईश्वर और मृत्यु’ पर श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार, आधार सम्मान (2025) प्राप्त. फ़िल्म सोसायटी मूवमेंट से सम्बद्ध______________________
jayshankar58@gmail.com/ मोबाइल : 94256-7017
Tags: जयशंकर
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इबारतें: जयशंकर
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इबारतें: जयशंकर

Comments 17

  1. भूपिंदर कुमार says:
    2 weeks ago

    जयशंकर अपने खास अंदाज में कथानक पेश करते हैं। बीमारी, मृत्यु, नायिका के साथ छेड़खानी, आफवाह आदि शहरों और कस्बों के समाज का ऐसा जीवंत हिस्सा रहा है जिसे लेकर वे बहुत सघनता से प्लाॅट का निर्माण करते हैं। उनकी कहानियों में निर्मल वर्मा, चेखव, अज्ञेय और मोपांसा का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
    जयशंकर की दृष्टि बहुत बारीक और समावेशी है।
    इसी कहानी में चिकित्सीय विमर्श बहुत प्रभावशाली लगता है। मृत्यु महज मजाक है और ” बुढापा कोई रोग नहीं है ” आदि वाक्य हमारे दिमाग में कौंध जाती है।
    जयशंकर कई मसलों पर हमारा ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करते हैं। चिकित्सा विज्ञान की मान्यताओं के ऊपर हमारा भरोसा अभी भी कितना कम है और झाड़ फूंक अभी भी हमें आशा प्रदान करता है।
    जयशंकर कई मायनों में सामाजिक यथार्थ को लेकर प्रेमचंद की तरह लगते हैं।
    बहुत महीन कहानी का ताना-बाना बुनने की कोशिश में उन्हें वक्त तो लगता है। पर जब उनकी कहानी आती है तो हमें गहरे अहसास के साथ रूचिकर लगती है और सामाजिक चुनौती पेश करती है।
    समालोचन को इस कहानी उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद।
    जयशंकर जी को साधुवाद।

    Reply
  2. Aditya Shukla says:
    2 weeks ago

    कितनी सहज और मार्मिक कहानी है। लेकिन अपनी तमाम सरलता में जटिल ताने-बाने की कहानी। एक ओर कहानी चलती है और बीच-बीच में एक फुसफुसाहट आती है। किसी फ़िल्म के दृश्य की मानिंद। यह सब कितनी आसानी से आपस में मिल गया है। एकदम एफ़र्टलेस! छोटी-सी इस कहानी में एक पूरी दुनिया समाई हुई है – जो हमारे सामने बहुत ही precision से खुलती है। कहानी पढ़ने का सुख मिला।

    Reply
  3. अशोक अग्रवाल says:
    2 weeks ago

    जयशंकर की संवेदनशील अनुभूतियों को समेटती हुई एक और महत्वपूर्ण कहानी। बधाई उनको।

    Reply
  4. विनीता बाडमेरा says:
    2 weeks ago

    जयशंकर जी के लिखे को पढ़ने का अपना सुख है। इस कहानी के पढ़ने का सुख भी गूंगे का गुड़ जैसा है। अस्पताल में भर्ती मरीज और मरीज के परिजनों के बीच संवाद जिंदगी की बहुत सच्ची तस्वीर दिखाते हैं। कोमल संवेदनाओं के चित्र उकेरती कहानी के लिए जयशंकर जी को साधुवाद।

    Reply
  5. रूबल says:
    2 weeks ago

    जयशंकर जी की कहानियों के टाइम फ्रेम पर हमेशा से ही एक fluidity रहती है।कब वर्तमान अतीत में प्रविष्ट होता है ,कब भविष्य में ,पता ही नहीं चलता।इसकी यही fluidity उनकी कहानियों की सबसे बड़ी ताकत भी कही जा सकती है।

    एक बात और कि मुझे हमेशा से लगता है कि हम समाज से उन सब्जेक्ट्स के असर को ग्रहण करते हैं जो हमारे अंदर पहले से मौजूद होते हैं।जयशंकर जी समाज की उस गतिकी को पकड़ने का प्रयास करते हैं जो शायद वे स्वयं महसूस करते रहे हैं।

    किसी का स्वयं को भूल जाना ,उसके साथ के लोगों का उस भूलने को अपने अंदर महसूस करना ,उससे लड़ना ,उस पर दया करना ,उससे ऊब जाना शायद यह सब लेखक भीतर से महसूस करते हैं।

    शायद यह उनका इस तरह का डर ही है कि अगर एक दिन मैं सब कुछ भूल गया तो क्या होगा,कैसे होगा।यह उनकी अनुभूति ,उनके भीतर का सच है जो किसी बाहरी आर्टिफिशियल तौर पर अर्जित नहीं किया गया है।शायद यही कारण है कि यह इतना दबाव और ताक़त के साथ पाठकों के मन पर चोट करता है कि उससे निकलना बेहद मुश्किल है।
    शुक्रिया।

    Reply
  6. Oma Sharma says:
    2 weeks ago

    जयशंकर की कहानियों का अपना अनूठा संसार है, जो अपने समय की विद्रूपताओं, उलझनों और शोर से काफी कुछ मुक्त रहता है। लेकिन एक बात निश्चित तौर पर उनकी कहानियों में मिलती है: कथा चरित्रों के आपसी संबंधों का ताना-बाना जो कहीं कथा की आंतरिक लय में बुना रहता है। जयशंकर की कहानी उन संबंधों के अतीत और वर्तमान को समानांतर लेकर चलती रहती है, जैसे इस कहानी में मैसेज रानाडे की बीमारी के बहाने उस नर्सिंग होम के बारे में उतना नहीं कहा गया है- जैसा शीर्षक प्रतीति देता है – जितना मैसेज रानाडे और रवि और राधा के समानांतर जीवन के बारे में, या फिर ताराबाई की उपस्थिति। बहुत छोटी-छोटी चीजों को लेकर जयशंकर एक कलाकृति बना देते हैं जो उनकी खास पहचान भी है।

    Reply
  7. बजरंग बिश्नोई says:
    2 weeks ago

    जयशंकर ज जिस तरह कालखण्ड फेंटते हुये चलते है, वह अद्भुत है वर्तमान भूत से अलग होने पहले ही भविष्य को धकेलने लगता है। कभी समय एक दूसरे में लगता है घुल रहा है। उनकी लगभग सभी कहानियों में यह पाया जाता है।। समय और परिवेश के ब्योरे लमबी उदासी और उदखसीनता से बचने हैतेरी हैं। भूगोल भले महाराष्ट्र मध्यप्रदेश के हों लेकिन धुंध और यादों का पास में चुपचाप खड़े रहना निर्मल वर्मा की तरह पहाड़ों से उतर आया लगता है।
    प्रभानर्सिंग होम तो समालोचन पर पढ़ रहे हैं विस्मृति रोग पर लेकिन जयशंकर की अधिकांश कहानियाँ में याददाश्त के अजीब अजीब पेंच आसमान में पतंगों के मेले में होते रहते हैं
    जिनको पाठक नंगी आंखों से देख नहीं पाते हैं।
    बहरहाल यह जयशंकर की सिग्नेचर शैली की कहानी है।

    Reply
  8. विजय कुमार says:
    2 weeks ago

    यह बात तो स्वीकार करनी होगी कि जयशंकर जी ने छोटी-छोटी हलचलों और दृश्यांकनों के माध्यम से खामोशी के संगीत को सुनने वाली भाषा को रचा है।

    Reply
  9. Dr.Sunil Kumar says:
    2 weeks ago

    आदमी उम्मीद ही छोड़ देगा तो उसके पास क्या बचेगा? बहुत ही दार्शनिक पंक्ति। बहुत ही बेहतरीन कहानी है प्रभा नर्सिंग होम जो मरीज और उसके अपनों की मानसिक स्थिति का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है।

    Reply
  10. प्रदीप कुमार शुक्ल says:
    2 weeks ago

    जयशंकर जी की अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए समालोचन का धन्यवाद। संवेदनशील कहानी का ताना बाना काफी बड़ा है पर पहले ही वाक्य में सप्तवर्णी को मार्च में फूलते हुए बताया गया है जबकि यह अक्तूबर-नवंबर में फूलती है। आखिरी पैराग्राफ़ से पहले एक जगह माँ को सोता हुआ बताया गया है फिर अगले ही वाकई में ताराबाई उन्हे सेब खिला रही हैं। बाकी प्रभा नर्सिंग होम में घिर आए अंधेरे को महसूस किया जा सकता है।

    हालाँकि इसे छिद्रान्वेषण कहते हैं पर अब तो लिख ही दिया है। लेखक से माफी सहित।

    Reply
  11. M P Haridev says:
    2 weeks ago

    जयशंकर साहब का लिखा पहली दफ़ा पढ़ा । रुचिकर है । धीरे-धीरे भेद खुलते हैं । रवि, राधा और ताराबाई । पाठक जानते हैं कि महाराष्ट्र में माँ के लिए आई शब्द है । सूतक गृह और ग्रंथपाल पहली बार पढ़े ।
    संसार रहस्यों की तरह है । प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन और अनुभव । व्यक्तित्व और व्यवहार में फ़र्क़ । बड़ी कहानी में छोटे कथानक जुड़ते हैं । मुझे पहले के पात्र याद नहीं रहते । कई दफ़ा Dementia से गुज़रने का ख़याल आता है । मन झटकता हूँ । स्वयं को डाँटते हुए । कि एक ज़िम्मेदारी पैरेंट्स दे गए थे । उन्हें सँभालने का सामर्थ्य बना रहे ।

    Reply
  12. M P Haridev says:
    2 weeks ago

    सप्तपर्णी पेड़ की पहचान नहीं । यह भी सच कि पिछले ३५ वर्षों में दो-चार बार एक दोस्त के खेत में गया था । गाँव का नाम इनके दादा जी बारू राम के नाम पर । यहाँ बारूपुरा राजकीय प्राथमिक विद्यालय है । दोस्त राधे श्याम और इसके भाई महेंद्र का परिवार खेत में बने घर में रहते हैं । इनके पापा की उम्र तिरानवे साल । नाम आखे राम । अर्थात् जिसे राम कहे वही संसार । राम से राम लू ।
    हाँसी-१२५०३३ के मंदिर में दयानंद कॉलेज हिसार में हिन्दी के प्रोफेसर राम विचार व्याख्यान देने आते थे । मूलतः पंजाब के । तब मेरी आयु कम थी । हरियाणा अलग राज्य नहीं था । संयोग से कि समालोचन का अंक १ नवंबर को प्रकाशित हुआ ।

    Reply
  13. प्रिया वर्मा says:
    2 weeks ago

    जयशंकर जी की इस कहानी में प्रभा नर्सिंग होम इसका शीर्षक भी है और मुख्य पात्र भी। स्मृति और यथार्थ के दो छोरों पर बंधे हुए इस सेतु पर कहानी के कुछ पात्र इधर से उधर आवाजाही कर रहे दिखलाई देते हैं। इन के इस जीवन खंड में अस्पताल की जीवनचर्या के कुछ दिन बीतते हैं। एक अस्पताल जहाँ जन्म भी होते हैं और मृत्यु भी। साथ ही साथ मृत्यु के धागे पर चलते हुए मरीज़ की, उसके अपनों की , मनःस्थिति भी। बहन और भाई का जीवन दुख का साझा समझ आता है तो स्मृति भंग से टकराता हुआ एक बुढ़ापा भी पाठक की संवेदना के तंतु झंकझोरता नज़र आता है। डिटेलिंग में कहानी किसी शोक भरे गीत की धुन की तरह धीमे – धीमे बहती हुई एक स्त्री देह के स्मृति दंश को दर्ज करती है। मृत्यु का भय और बीमार की तीमारदारी के बीच राधा, रवि और ताराबाई के बोले, सुने संवादों के ढांचे पर कहानी किसी सफ़ेद पर्दे की तरह तनी हुई है जिस पर भारतीय परिवेश पर आधारित कोई यूरोपीय फिल्म अपने सबसे गहरे अवसाद के दिनों के दृश्य में आगे बढ़ती हुई दिखाई देती है। कहानी के दोनों छोर खुले हैं। और कहानी कहीं भी न आरंभ होती है, न समाप्त। सम्पन्न होने पर पाठक की जिज्ञासा इसी कहानी के अगले सिरे को बुनने तक चली जाती है कि आगे क्या हुआ होगा? अनमनेपन से जूझती हुई उदासी को चित्रित कर अतीत को सजीव करती हुई कहानी जिसमें पात्र वर्तमान में बातें करने की बजाय, किसी समयांतर में हुई बातों के ध्यान में चलते हुए जीते चले जाते हैं।

    Reply
  14. deepak sharma says:
    2 weeks ago

    एक वीअनेट vignette की तर्ज़ पर लिखी हुई यह प्रवाहमान कहानी अपने साथ लाई राधा और रवि की मां, मिसेज़ रानाडे तथा ताराबाई की सजीव छवियां हमारे पास छोड़ जाती है। साथ ही प्रभा नर्सिंग होम के परिवेश का एक जीवंत शब्दचित्र। बिना किसी अतिरेक के।
    इस सफलता के लिए बधाई, जयशंकर जी।
    इसे यहां लाने के लिए धन्यवाद, अरुण देब जी।

    Reply
  15. प्रज्ञा विश्नोई says:
    2 weeks ago

    जयशंकर जी की अन्य कहानियों की भांति यह कहानी भी कभी भी जीवन का अतिक्रमण नहीं करती। कहानी का प्रवाह उतना ही प्राकृतिक एवं subtle रहता है जैसे हमें श्वास का भान नहीं होता। परन्तु यह कहानी जयशंकर जी की अन्य कहानियों से भिन्न भी है। सर्वप्रथम तो स्त्री की सीमाओं के अतिक्रमण का इतना रियलिस्टिक चित्रण साहित्य में विरले ही देखने मिलता है। स्त्री के सिक्स्थ सेंस को बढ़ चढ़कर दिखाने और उसके प्रतिकार न करने को साहस की कमी से जोड़ने में एक बहुत महत्वपूर्ण बिंदु पीछे रह जाता है। अनेकों बार प्रतिकार इसलिए भी नहीं किया जाता क्योंकि पीड़ित के मस्तिष्क में सत्य और वहम के बीच अंतर करना ही अत्यंत दुष्कर हो जाता है। Gaslighting के विषय में बहुत कम ही ध्यान दिया जाता है, जबकि घरेलू हिंसा, यौन हिंसा आदि को सहन करने के पीछे पीड़ित में साहस की कमी से अधिक सत्य, और ‘कहीं यह कल्पना/वहम तो नहीं?’ के पीछे की धुंध होती है। जयशंकर जी किरदारों को लिखते नहीं, वरन् उनकी कलम किरदार के आत्म के महीन से महीन रेशे को आत्मसात कर लेती थी। कई किरदारों के जीवन एक साथ कहानी में सांस लेते हैं परंतु कहीं भी exposition अथवा डिटेल्स हावी नहीं हुए हैं। कहानी में एक साथ बहुत कुछ चलता है पर उसका भार कहीं भी नहीं दिखता वरन् कहानी को उन्मुक्त सांस लेने देने के लिए पर्याप्त स्पेस दी गई है। जयशंकर जी की कहानियाँ न केवल हिंदी साहित्य अपितु भारतीय एवं विश्व साहित्य में भी एसेंशियल रीडिंग का दर्ज़ा रखती हैं।

    Reply
  16. Ravindra Joglekar says:
    2 weeks ago

    पूरी कहानी में जो मौन पीड़ा का वातावरण धीर धीरे उभर कर राधा के मन का बोलता हुआ बयान बनता हुआ कहानी पर छा जाता है वह बहुत प्रभावी लगा।पुराने पेड़,बंगला,खुद नर्सिंग होम,डिमेंशिया के बीच कहानी स्मृतियों के धुंधले पन और नई स्मृतियों के दबाव(राधा के हाथ को छुआ जाना) के बीच एक तनाव पर टिकी यह कहानी आगे चलती है। श्रीमती रानाडे धीरे धीरे रवि और राधा से दूर होती चली जा रही हैं जिसे राधा समझती है और नियंत्रित करने की कोशिश में निकट भविष्य की त्रासदी के लिए खुद तैयार भी हो रही हैं। इन सूक्ष्म ब्यौरों ने कहानी के नरेटिव को प्रवाहमान बनाया है। साथ ही स्मृति के अमूर्त चित्रों ने कहानी में समय के प्रवाह के प्रति आपकी गहरी संवेदनात्मकता(जिससे मैं “जयशंकर जी की डायरी “पूर्व राग” से और भी परिचित हुआ हूं)की उपस्थिति को बहुत तीव्र रूप से महसूस करवाया हैं।
    ऐसी कहानियां पढ़कर मन साहित्य के महत्व को आत्मसात कर पता है।हम अस्तित्वगत रूप से समय,स्मृति और काल प्रवाह के बीच एक घटना मात्र रहते है और उसे महत्वपूर्ण मानना हमारी चेतना की मजबूरी है या कंडीशनिंग यह कहना अपने आप में एक मुश्किल निर्णय है।

    Reply
  17. डॉ० समीउद्दीन ख़ाँ "शादाब" says:
    2 days ago

    जयशंकर जी की यह कहानी पढ़ कर ‘निर्मल वर्मा’ की “परिंदे” जैसा एहसास हुआ ।
    संवेदना को छूने वाली कहानी। ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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