कीट्स का ‘पेरेण्टल डार्कनेस’ और मुक्तिबोध का ‘अँधेरे में’
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ठीक से देखा जाए तो कविता का इतिहास व्यक्ति के केंद्रापसारी से केन्द्राभिसारी होते चले जाने का इतिहास है, उसके क्रमिक वैयक्तीयन का इतिहास. बाहर से भीतर आता हुआ व्यक्ति कभी भी अकेला नहीं आता, अलग-अलग स्रोतों से अर्जित अच्छे-बुरे अनुभव भी उसके पीछे दौड़ते हुए आते हैं. जीवन-जगत की विडम्बनाओं का समाधान दुनिया-जहान की अर्किंटाइपल स्मृतियों, अंतरंग संवादों, लिखित-अलिखित पुस्तकों में ढूँढता हुआ एक बहुश्रुत, बहुपठित, संवेदनशील चित्त हैमलेट की सी मनोदशा में सोचता ही रह जाता है : ‘टु बी और नॉट टु बी’.
मस्तिष्क में कौंधती कुछ स्मृतियों, कुछ अंतः पाठों के आलोक में समस्याओं का समाधान ढूँढने वह घर से निकलता है. यूटोपिया से दूरी के अहसास में वह डी-एस्टेबलाइज भी होता है, घर का रहता है, न घाट का. गहन दुविधा के क्षणों में बुद्धि के रंगमंच पर सारा कुछ पढ़ा-सुना, भोगा और सोचा हुआ एक साथ उसके भीतर जगते हैं. स्मृति के अलग-अलग कोनों में चुप खड़े बिम्ब लोक-नाट्य के अनगढ़ अभिनेताओं की तरह घुमड़ते हैं और आज्ञा-चक्र के चारों तरफ खड़े होकर ढोल-नगाड़ा-सा पीटने लगते हैं. तरह-तरह की अंतर्ध्वनियों से घिरे इसी दृश्य का मंचन ‘अँधेरे में’ नामक कविता करती है, ठीक वैसे जैसे न्यू वेव सिनेमा बर्गसां वाले ड्यूरे का कॉन्टिन्यूअम मंचित करता है.
अवचेतन का सतत् घूर्णन, उसका फ्लक्स मंचित करना आसान नहीं होता. सिनेमा में तो एक साथ कई कैमरे लगाकर, तरह-तरह से कोण बदलकर यह फ्लक्स पकड़ भी लिया जाता है, इस तरह कि टाइम और स्पेस, देश-काल के चुनिंदा क्षण एपिफनी शृंखला की तरह सातन्य में बहते नजर आएँ, पर यही काम जब कविता में मुक्तिबोध करते हैं या ‘यूलिसिस’ वाले लियोनार्ड ब्लूम के एकालाप में जेम्स ज्वाएस तो पाठक चौंक जाता है.
उल्कापातों का विवश घूर्णन, ज्वालामुखियों का बेचैन विस्फोट और बिजलियों की तड़प भीतर एक भव्य प्रलंयकर स्पेक्टेकल रचते हैं जहाँ बादलों में बिजली-सा एक कथासूत्र भी बीच-बीच में झिलमिलाता है. अपने ही भीतर बेचैन कदमों से टहल रहे कवि को दरवाजे पर साँकल बजती सुनाई देती है, तरह-तरह के डर-अपडर उसे घेर लेते हैं. मतिभ्रम के चलते कवि उठकर अपने ही भीतर की कुंडी नहीं खोल पाता, जैसे रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता में, वैसे यहाँ भी. फर्क यह है कि टैगोर के यहाँ साँकल खटकाने वाला रथासीन देव है, और मुक्तिबोध की कविता में पैदल ही गुह्य प्रदेशों की सैर करने वाला ‘रक्तालोकस्नात् पुरुष.’
‘पुरुष’ शब्द की उत्पति जिस ‘पुर’ शब्द से हुई है, उसका असल अर्थ होता है- नगर. नगर बनेगा तो एक पूरी कौम से बनेगा, वहाँ अलग-अलग दिशाओं से आए लोग बसे होंगे, उसकी अपनी बहुतल, बहुल अस्मिताओं की तरह जिन्हें लकां ‘मल्टिपल आइडेंडीज इन प्राग्रेस’ कहते हैं. आत्मा के गुप्तचर-भाव में जगह-जगह फिरता है यह ‘रक्तालोकस्नात् पुरुष” तरह तरह के लोगों से मिलता है जिसके विवरण में जाने की जरूरत नहीं, आप स्वयं समाधीत हैं. मुक्तिबोध की शब्दावली में परम्परा की खनिज गंध है और बीच-बीच में उसकी मिमिक्री भी : सत्चितवेदना, अष्टदल कमल आदि अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं. यही उनकी दुविधा का स्रोत है कि वे सर्वोच्छेदनवादी नहीं हो पाते.
यहाँ मैं सिर्फ इतना याद दिलाना जरूरी समझती हूँ कि जैसे टैगोर की कविता में औपनिषदिक दर्शन वह सूत्र है जिसमें सब दृश्यबंध गूँथे गये हैं, मुक्तिबोध के यहाँ वह सूत्र है न्याय वैशेषिक दर्शन जो किसी परमपुरुष की बात नहीं करता, सिर्फ यह स्थापित करता है कि हमारे अंतर्मन में हमारा परिवेश जिस तरह प्रतिच्छाचित होता है, हमारा परिवेश भी हमारे आत्मन के तेज से प्रभावित हो सकता है. खास बात यह है कि न्याय वैशेषिक दर्शन का परिपाक यहाँ बुद्ध, मार्क्स और गाँधी-दर्शन की उभयनिष्ठ प्रपत्तियों में होता है. ये प्रपत्तियाँ हैं समूह शक्ति और दीप से दीप जलाते चलने का अहोभाव:
“मिट्टी के लोंदो में किरणीली कण-कण गुण है
जनता के गुणों से ही सम्भव है भावी का उद्गम!”
कविता में गाँधी अंतर्मुखी चित्त को यों फटकार कर बाहर लाते हैं.
पर यहाँ बड़ी बात यह भी है कि रक्त क्रांति पर बात खत्म नहीं होती. कवि के और एक तरह से हम सबके भीतर है एक सिद्धांतवादी/आदर्शवादी मन/हमारा ऑल्टर ईगो जो कभी विक्षिप्त कहलाने वाले ‘धी’ की तरह लगातार बोलता है, कभी ‘अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति-सा मौन’ ही भटकता है. वह कहीं भी सर्वोच्छेनवादी नहीं है, इसलिए अतिवादी भी नहीं. रक्तक्रांति के बाद भी जब सब नई सुबह का जश्न मना रहे है, वह ‘ऐकला चलो भाव’ से किसी और सुबह की तलाश में बढ़ जाता है. आत्मा के आईने पर रोज धूल की एक परत चढ़ ही जाती है तो आत्मवीक्षण के जरिए उसे रोज झाड़ना जरूरी है.
कवि के लिए, उसके आल्टर ईगो केलिए वाकई, यह जिंदगी
‘इक मुसलसल सफर है
कि मंजिल पे पहुँचे तो मंजिल बढ़ा दी.’
उसे पता है कि ‘कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई’ का अललटप्पू भाव समस्याओं का एक क्षणिक समाधान करेगा. फ्रेंच क्रांति और रूसी क्रांति की महान त्रासदी है गवाह कि आत्म क्रांति, आचरणगत वैयक्तिक क्रांति के बगैर हर क्रांति प्रति-क्रांति में बदल जाने को लाचार है. यही तो अस्मिता आंदोलन भी कहते हैं; खासकर स्त्री आंदोलन कहता है कि हर पदानुक्रम की तरह पर्सनल पॉलिटिकल के बीच का पदानुक्रम भी तोड़कर वैयक्तिक आचरण में यह संकल्प लिया जाए कि जो व्यवहार हम दूसरों से नहीं चाहते, हम दूसरों से करें भी नहीं. कुँवरनारायण से शब्द उधार लेकर कहें तो ‘दूसरा कोई नहीं.’ क्रांति के आदर्श के सम्यक् निर्वहन के लिए जरूरी है क्षणिक आवेग पर विजय. यही आत्म क्रांति है- प्रज्ञापारमिताजन्य आत्मक्रांति और यह एक अनन्त सिलसिला है, एक अनन्त यात्रा.
हर वनस्पति औषधि बन सकने की सम्भावना से लहालोट है- उपनिषद कहते हैं. बुद्ध का अन्तिम सूत्र- पुण्डरीक सूत्र कहता है कि बुद्धत्व के बीज सब में हैं. उपनिषद और पुण्डरीक सूत्र जिस अडिग विश्वास से यह बात कहते हैं, मुक्तिबोध वैसे तो कह नहीं पाते, ‘मुझे भ्रम होता है’ का क्षेपक उन्हें लगाना पड़ता है. यही उनकी आधुनिकता का प्रमाण है पर परम्परा से भरपूर संवाद की ललक नहीं छूटती उनकी क्योंकि वे छद्म आधुनिकतावादी नहीं, सच्चे आधुनिक है. ‘मुझे भ्रम होता है’ का क्षेपक लगाकर ही सही, वे कह तो देते ही हैं कि ‘प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है….प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है…. प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीड़ा है.’
जब ऐसा है तो प्रतिपक्षी से भी गोली-बारूद की भाषा में क्यों बात की जाए. समूहशक्ति साधकर, फ्रेंच क्रांति द्वारा रेखांकित ‘फ्रेटरनिटी’ (भाईचारा) या स्त्री आंदोलन द्वारा रेखांकित बहनापा साधकर उसी भाषा में प्रतिपक्षी से संवाद क्यों न किया जाए जिसमें गोपियाँ ‘ज्ञानिनामअग्रगण्य’ ऊधव से संवाद करती हैं. कांता सम्मतभाव से उपदेश देनेवाला साहित्य यही तो करता है. इस संवाद के उपयुक्त भाषा मर्मस्पर्शी भाषा ही होगी, संवेदनात्मक ज्ञान की भाषा. इसे ही एलियट ‘द मेटाफिजिकल पोएट्स’ वाले अपने प्रसिद्ध आलेख में ‘फेल्ट कॉट’ या ‘यूनिफिकेशन ऑफ सेंसिबिलिटी’ की भाषा कहते हैं.
मेरे जानते ‘अँधेरे में’ नामक पूरी कविता प्रतिपक्षी से यह जटिल संवाद साध पाने की उपयुक्त भाषा या अभिव्यक्ति तलाशती ही गली-गली घूमती है. है तो भाषा या अभिव्यक्ति स्त्रीलिंग ही, पर शेक्सपियर के रोज़ेलिण्ड की तरह मुक्तिबोध की कविता में वह पुरुष भेष में घूमती है और उसे पाने की उसकी बैचेनी भी वैसी ही है जैसे प्रेमिका से मिलने की होती है-
“खोजता हूँ पठार…पहाड़…समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोई हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार,
आत्म सम्भवा.”
मुक्तिबोध का ‘अँधेरा’ इस अर्थ में न्यायविरत बाह्य जगत् का आर्किटाइपल प्रतीक ही नहीं; उपयुक्त अभिव्यक्ति तलाशती रचना-प्रक्रिया का धुँधलका भी है, अवचेतन का अँधेरा भी जहाँ कई पढ़े -सुने -देखे-गुने अंतःपाठ तैर रहे हैं- ‘सुमेरी बेबिलोनी जनकथाएँ, मधुर वैदिक ऋचाएँ, छंदस् मंत्र, थ्योरम. लंबी सूची तो उन्होंने ‘ब्रह्मराक्षस’ में ही दी हैं, इसके अलावा मार्क्स, ऐंगल्स, एम.एन रॉय, हेडेगर, सार्त्र, टॉलस्टोय, तिलक और गाँधी, कुछ जातीय स्मृतियाँ (शुनःशेप, अजीगर्त आदि), कुछ दैनिक खबरों में उभरे बुर्जुआ सत्तासीन और अपराधी. इनके सिवा पीपल के नीचे जगतसमीक्षा के साथ-साथ आत्म समीक्षा भी पैने शब्दों में किए जाती उनकी अपनी धी/बुद्धि.
इतने सारे अंतः पाठ और ‘इन्फॉरमेशन बाइट्स’ या ध्वनिपुंज एक साथ इनके चित्त की गुहा में गूँज रहे हैं. इनमें से कई एक-दूसरे के खिलाफ भी बहते हैं- जैसे तिलक और गाँधी, मार्क्स और टॉलस्टॉय, पर इनके बीच मैत्रीपूर्ण तनातनी है- फ्रेंडली कॉन्ट्राडिक्शन, ठीक वही फ्रेंडली कॉन्ट्राडिक्शन जो त्वरित न्याय और धैर्यवान करुणा में होता है, राजनीतिक क्रांति और आत्मक्रांति में. चाहे मैत्रीपूर्ण ही क्यों न हो, पर एक तनातनी तो इनमें है ही, एक खास तरह का ‘तुमुल कोलाहल कलह’ ये चित्त में पैदा करते हैं, एक कोरनोकोपियन सेंस ऑफ अबंडेंस, ‘उच्छल जलधि तरंग’ वाली बेचैन विपुलता. डीप सेरिब्रल हैमरेज में जैसे अकुलाकर रक्त बहता है, या प्रसव से ठीक पहले, गर्भ की थैली फट जाने पर पानी, कविता में बिम्ब एक रौ में बहते चले जाते हैं.
अद्भुतत्वरा में बहते हैं एक सिग्निफायर के पीछे कई सिग्निफायर. और जैसा कि पहले कहा, कई बार उनकी आंतरिक संगति बनती दिखाई नहीं देती, पर गौर से देखने पर वह विराजमान होती है, तभी तो अघट का निर्माण और मंचन बखूबी हो जाता है और इस कार्य में टोन-पिच-डिक्शन, वॉल्यूम, पेस, मूड, संबोधन, वाक्य संरचना, रजिस्टर, पंक्चुएशन मार्क आदि संलग्न हो जाते हैं यानी मल्टीसिस्टेमिक शिल्प के सभी अवयव अपनी भूमिका निभाते हैं.
कालिदास कहते हैं कि शिव और पार्वती का जोड़ा हैं शब्द और उसका निहितार्थ. मुक्तिबोध- जैसे बड़े कवियों के यहाँ अच्छे दम्पती की तरह जमकर लड़ते भी हैं शब्द और उसका निहितार्थ. इस प्रणय कलह से ही फूटता है व्यंजना का नद, स्थापित चट्टानें काटती हुई एक अजब रसधार बहती हैं जिसमें शायद नवों रसों का समावेशन है और तरह-तरह की ध्वनियों का भी.
अगर कहीं रेटरिक का इस्तेमाल भी है तो वह इतनी उच्चाशय रेटरिक है कि हमें सिसरो का ध्यान आता है जो रेटरिक का इस्तेमाल रोम की जनता को आश्वत करने के लिए उतना नहीं करते, जितना स्वयं को आश्वत करने में. अपना संबोध्य वे खुद भी हैं- जगतसमीक्षा के सामानांतर चलती है उनकी आत्मसमीक्षा. तभी उनकी भाषा में एक खास तरह का आवेग, एक विरल रॉ एनर्जी है जो भाषा के यांत्रिक प्रयोग से कभी नहीं जगती, यानी आवेदन, विज्ञापन, डिक्टेशन ,मेन्यू कार्ड, अखबार, कानून, वाणिज्य- व्यापारादि की स्मृतिहीन भाषा बोलकर. शब्दों के छिलकोइए हट जाते हैं मुक्तिबोध के यहाँ. ऐसा लगता है कि झाँवा पत्थर घिस-घिसकर भाषा के तलवों की बिवाई, उसकी डेड स्किन सेल हटाई गई है और ठोस यथार्थ के कल-पुर्जे भी ऐसे खोल दिए गये हैं कि यथार्थ भी यथार्थ के पार जाता दिखाई देता है, यानी फैंटेसी के झिलमिल प्रदेश में.
महास्वप्न या विजन भी है तो एक स्वप्न ही, इसीलिए दोनों की पटरी फैंटेसी से ठीक बैठ जाती है. मुक्तिबोध के यहाँ यथार्थ की मुँहलगी बेटी है फैंटेसी. यथार्थ से उसका नाता इतना गहरा है कि वह उसकी एक नहीं सुनती और सुनती भी है तो जाहिर नहीं होने देती कि सुन भी रही है. वह यथार्थ से भिड़ जाती है और उससे उसी सुर में बहस करती है जिस सुर में चम्पा त्रिलोचन से, मुनीज़ा फैज़ से, ‘काबुलीवाला’ भी नन्ही मिनी अपने लेखक- पिता से और स्वयं काबुलीवाला से भी (ये ही लड़कियाँ बड़ी होकर नई स्त्री बनेंगी)
फैंटेसी सब घेरेबंदियाँ काटने का, देश-काल की चौहद्दियाँ लाँघने का, यथास्थिति की जड़ता काटने का, ब्रेस्ट वाली एलियनेशन तकनीक से पाठक को अपने अनुभव में शामिल करने का अच्छा उपाय है. चौंकाकर, जगाकर, उथल-पुथल मचाकर दर्शक/पाठक/श्रोता के मन जो प्रश्नाकुलता जगाई जाती है, उसे स्पिनोज़ा ‘स्पिरिचुअल ऑटोमेशन’ कहते थे. कवि के दूसरे ऑल्टन इगो, रक्तालोकस्नात पुरुष की तरह ‘स्पिरिचुअल ऑटोमेशन’ से संपन्न कविता कुछ कहती नहीं, कुछ कर गुजरती है हमारे भीतर और हम एक तरफ खड़े यही सोचते रह जाते हैं कि आज जब मार्क्स भी गाँधी की तरह काँपते शरीर में अभिमूर्तित हो गये हैं, किसके हाथ जाएगा भविष्य शिशु? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दो वृद्धों की तरह दोनों एक-दूसरे का हाथ थामकर सड़क पार करें, करुणाशासित न्याय और न्यायशासित करुणा एक सिनर्जी बनाए और इस कार्य में स्त्री-दर्शन उनकी मदद करे जो दुनिया का सबसे संवादी, जनतांत्रिक दर्शन है- किसी भी अतिरेक से गुरेज करने वाला. स्त्रियों की नर्चरिंग इन्सटिंक्ट, उनकी अभिपालकवृत्ति वैसे भी झगड़े निपटाने का काम करती रही है. स्त्रियाँ इन दो वृद्ध दर्शनों के साथ मिलाकर भविष्य-शिशु का वारा- न्याय कर ही देंगी.
स्त्री-आंदोलन ‘ग्लोरियस रेवोल्यूशन’ के बाद का इकलौता आंदोलन है जिसने एक बूँद खून बहाए बिना सिर्फ मर्मभेदन और बेधक प्रश्नांकन के सहारे मनोवैज्ञानिक परिवर्तन घटित किए हैं, जगतसमीक्षा के समानांतर आत्मसमीक्षा की ताकत भरी है नवल पुरुष में, मुक्तिबोध जैसे सब संवेदनशील चित्तों में. इस कविता में विक्षिप्त कहाने वाले बुद्धिमान व्यक्ति में जो ज्वलंत धी है या पूर्ण अभिव्यक्ति की जो तलाश में निकली जो आत्मा है, वही अंतर्गुहा में चलनेवाले उस अनाम प्रेस की सरगना है, जहाँ ‘ख्यालों के पर्चे’ छपते हैं. ‘धी’, ‘अभिव्यक्ति’, ‘आत्मा’ सबका लिंग-निर्णय करके देखिए, सब सृष्टि की स्त्री-चेतना से स्पंदित फेमिनिन प्रिंसिपल हैं जिसे आज तक संसार चलाने का मौका नहीं मिला, शायद इसीलिए संरचनात्मक परिवर्तन के समानांतर आत्मगत परिवर्तन की जरूरत बनकर, स्वप्न में स्त्री रूप धारे सम्यक् अभिव्यक्ति प्रकट होती है. इसी को संवादात्मक भाषा की तलाश है, सम्यक् अभिव्यक्ति इसी भाषा से निकलेगी.
सशक्त क्रांति की सुबह अंधेरे में उजाले के छींटे पड़ जाते हैं, अँधेरे में बसे दुख में ज्योति का रस बस जाता है, पर ज्योति के भी कई शेड्स हैं जिसे मुक्तिबोध प्रत्येक वस्तु का ‘निज-निज आलोक’ कहते हैं, कहने का अर्थ यह है कि हर व्यक्ति-चेतना अलग से पहचानी जा सकती है. हर व्यक्ति के भीतर बुद्धत्व का ज्योति -बीज अपने ढंग से खिला है- कहीं अष्टदल, कहीं सहस्त्रदल कमल बनकर, इसलिए आत्मवीक्षण की जरूरत लगातार बनी हुई है, जगतसमीक्षा के समानांतर आत्मसमीक्षा भी लगातार चलती है. इसीलिए जो आत्मसम्भवा अभिव्यक्ति स्वप्न में कौंधती है, सुबह गायब भी हो जाती है कि यह संधान सनातन है, पूर्णता का सन्धान और इसकी सम्यक् अभिव्यक्ति के योग्य बन पाने की अंतर्यात्रा. यही वह क्षण है जब अँधेरे में जगी ध्वनियाँ- गंध में बदलने लगती हैं. जैसे कीट्स की कविता में साँझ उतर आने पर फूल अपनी अलग-अलग गंध से पहचाने जाते हैं, मुक्तिबोध के यहाँ भी रात्रि ध्वनि, संगत- संगीत के रूप में व्यक्त ध्वनियाँ, भागती चप्पल की चटचट, भूँकते कुत्ते, ऊँघते सियार, पीपल से झड़ते पत्ते की खास ध्वनि : सब ध्वनियाँ तरह-तरह के फूलों की गंध में बदल जाती हैं, जिसे मुक्तिबोध ‘भावी की गंध’ कहते हैं. ड्राफ्ट की फाइल ट्यूनिंग का क्षण, अभिव्यक्ति को ‘परम् अभिव्यक्ति’ में तराशने की कोशिश का क्षण शायद यही हो.
इसी बिन्दु पर यह अँधेरा दीए के ह्रदय का अँधेरा बनकर दमक जाता है, एन्लाइटोनमेण्ट के ह्रदय का अँधेरा, जिसे कीट्स ‘पेरेण्टल डार्कनेस’ कहते है. पेरेण्टल इस अर्थ में जिसमें मिट्टी के गर्भ का अँधियारा (चटकने को उद्यत) बीज के लिए ‘पेरेण्टल’ होता है. अगर थोड़ा चटक जाए यह बीज तो अँधेरा चितकबरा हो जाता है- उतना चितकबरा जितना सिम्बॉलिस्ट पेंटर ऑडिलॉन रेडन की पेण्टिंग का अँधेरा- शीत युद्ध के दौरान नवस्वतंत्र देश के राजनीतिक हलकों के दुचित्तेपन का अँधेरा और सृजनात्मक सेल्फ के अवचेतन का अँधेरा भी. जिस तरह पश्चिम में गैर- यथार्थवादी चित्रकार, सिम्बॉलिस्ट, सर रियलिस्टिक चित्रकार सोचते थे कि गैर- आधुनिक, प्राचीन सभ्यताओं की मिथकीय चेतना के चितकबरे अँधेरे से जुड़कर अपने अवचेतन के चितकबरे उजालों की थाह पाई जा सकती है, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर आदि भी सोचते थे कि अब जब सिद्ध कर गये हैं विश्वयुद्धों में या भारत-पाक बँटवारे में फलित त्रास, कि सभ्यताओं का संघर्ष प्रलयंकारी है और सभ्यता- संवाद ही एक उपाय बच गया है तो क्यों न हम भी दूर देशों के कला माध्यमों में जो प्रयोग घट रहे हैं, उनका अवतरण अपनी कविता में करें.
लो लाइटिंग में, लॉन्ग-शॉट, कट शॉट की टेलिस्कोपन तकनीक से उभारे गये बिम्ब कुल मिलाकर यही संकेत देते हैं कि उन्हें इंतजार किसी सार्थक संवाद का है. शब्द ही हैं कवि के कंधे पर लेटा शिशु ,सूरजमुखी के फूल और राइफल से छूटी हुई गोली. तड़ित्तरंगीय, तेजस्क्रिय शब्द ही हैं जिन्हें मुक्तिबोध ‘अँधेरे में’ के शुरुआती खण्ड में अवचेतन की अँधेरी गुफाओं में पड़े रेडियो ऐक्टिव रत्न की तरह भी देखते हैं. विचार, अनुभव- सब शब्दों में प्रकट रत्न ही तो हैं, मन की गुफा में रहस्यमय ढंग से दमकते हुए रत्न. यहीं वह प्रिंटिंग प्रेस या सर्जनात्मक सेल्फ भी है जहाँ ख्यालों के पर्चे छपते हैं. जैसा कि पहले कहा, इस प्रिंटिंग प्रेस की कर्ता- धर्ता स्त्रियाँ ही हैं- आत्मा सरगना है, आस्था सेक्रेटरी और जिसकी खोज में यह यात्रा शुरू हुई है- वह परम अभिव्यक्ति तो पुरुष वेष में घूमती स्त्री है ही.
इस तरह से देखें तो पूरी कविता एक सांगोपांग रूपक की तरह पढ़ी जा सकती है, पर यह रूपक ‘मैला आँचल’ वाले चेथरिया पीर के कपड़े की तरह तार-तार होकर जातीय स्मृति के पीपल पर टँगा है. दूसरे शब्दों में यह एक फटी हुई चिट्ठी है- ‘जेब से गिरती जो फटे हुए मन की!’ बहुलतावादी यह परमसंवादी पाठ कई तरह के अंतःपाठों से रलमल है, इसलिए सर्वोच्छेदनवाद का प्रबल प्रतिपक्ष, जगत समीक्षा के समानांतर आत्मसमीक्षा की जरूरत रेखांकित करने वाला एक जरुरी पाठ जिसकी मूल चेतना संवादोन्मुख स्त्री-चेतना से स्पन्दित है. इसकी शिल्पगत जटिलता एक चिंताकुल चित्त की जटिलता का आईना है, जिससे गहन संवाद का धैर्य चाहिए, वैसा ही धैर्य जो अमूमन स्त्रियाँ दिखाती हैं जब वे आपके मन की गिरह खोलने बैठती हैं- आपके अँधेरे क्षणों में.
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अनामिका कृतियाँ : पोस्ट एलिएट पोएट्री : अ वॉएज फ्रॉम कांफ्लिक्ट टु आइसोलेशन, डन क्रिटिसिज़्म डाउन दि एजेज, ट्रीटमेंट ऑव लव एंड डेथ इन पोस्ट वार अमेरिकन विमेन पोएट्स (आलोचना); स्त्रीत्व का मानचित्र, मन माँजने की ज़रूरत, पानी जो पत्थर पीता है, साझा चूल्हा, त्रिया चरित्रम् : उत्तरकांड, स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष (विमर्श); ग़लत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में, अनुष्टुप, कविता में औरत, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब-धान, टोकरी में दिगन्त : थेरी गाथा : 2014, पानी को सब याद था (कविता); प्रतिनायक (कहानी); एक ठो शहर था, एक थे शेक्सपियर, एक थे चार्ल्स डिकेंस (संस्मरण); आईनासाज़, अवान्तर कथा, दस द्वारे का पींजरा, तिनका तिनके पास (उपन्यास). अनुवाद : नागमंडल (गिरीश कारनाड), रिल्के की कविताएँ, एफ्रो-इंग्लिश पोएम्स, अटलांट के आर-पार (समकालीन अंग्रेजी कविता), कहती हैं औरतें (विश्व साहित्य की स्त्रीवादी कविताएँ) तथा द ग्रास इज़ सिंगिंग. सम्मान : साहित्य अकादेमी पुरस्कार, राजभाषा परिषद् पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, परम्परा सम्मान, साहित्य सेतु सम्मान, केदार सम्मान, शमशेर सम्मान, सावित्रीबाई फुले सम्मान, मुक्तिबोध सम्मान और महादेवी सम्मान आदि. anamikapoetry@gmail.com |
Congratulations, Anamika ji,for wrestling with the idea of drawing parallels between Muktibodh’s ‘Andhere Mein’ and Keats’s ‘Parental Darkness’ in this essay of yours while also grappling with various analogies drawn from various art forms.
And thanks to Arun Dev ji,for presenting it.
Warm regards
Deepak Sharma
इस टिप्पणी में लकां की उपस्थिति को देखते हुएः
https://chaturdik.blogspot.com/2024/12/blog-post.html?m=1
अनामिका जी के अधीत संसार की गहनता और वैविध्य में जैसे कविता खो गई है । अनामिका जी की उपस्थिति अधिक चटख है, कविता की उपस्थिति से अधिक। एक नये आयाम की ओर आकर्षित करने के लिए आप दोनों का आभार ।
The poem of Muktibodh certainly brings out Keats expression of parental darkness succinctly and both the poets express same ideas in different launages. But we may understand the verbal meanings but it’s inner meanings require much thinking Thanks