मुझे खुद पर खीज आती है, मैंने यह बेढंगा सवाल पूछा ही क्यों? लेकिन मेरे भीतर पालथी लगाकर बैठे जिज्ञासु किस्म के इंटरव्यूकार को कोई खेद नहीं. उलटे उसे हल्का सा संतोष मिला कि चलो, इसी बहाने नंदन जी के भीतरी व्यक्तित्व के एक ऐसे गुमनाम अँधेरे कोने तक मैं चला गया, जहाँ तक वैसे शायद मेरी आवाजाही होनी मुश्किल थी!
यों अच्छा यह भी लग रहा था कि ऐसे अप्रिय और लगभग बदतमीजी वाले सवाल को भी नंदन जी झेल गए और बगैर ज्यादा असहज हुए झेल गए. इससे नंदन जी के ‘गुरुत्वाकर्षण’ के प्रभाव को मैंने खुद पर कहीं ज्यादा महसूस किया.
ऐसा ही एक संजीदा प्रसंग और छिड़ा अज्ञेय जी को लेकर. मैंने नंदन जी से पूछा, “क्या आप कुछ कनफेस करेंगे?…या कि क्या कुछ ऐसे लोग हैं, जिनका आपने जाने या अनजाने दिल दुखाया हो और बाद में इसका गहरा पछतावा रहा हो?”
इसी सिलसिले में अज्ञेय जी का जिक्र आया था. नंदन जी ने बताया कि उनकी एक बुरी आदत है कि जिसे वे बेहद चाहते हैं, वे उसके बारे में भी जान लेना चाहते हैं कि वह व्यक्ति उन्हें उसी भाव से चाह रहा है या नहीं? अज्ञेय जी से उनकी निकटता थी और अकसर फोन पर लंबी बातचीत होती थी. जाहिर है, ज्यादातर फोन नंदन जी ही करते थे. पर एक दिन अपनी इसी ‘दुष्ट’ इच्छा से प्रेरित होकर उन्होंने खुद फोन न करने का निश्चय किया. और ऐसा एक नहीं, कई दिनों तक चला.
खुद नंदन जी के लिए ये बहुत भारी दिन थे. एक-एक दिन बहुत मुश्किल से कट रहा था. अंदर खासी उथल-पुथल मची हुई थी. पर वे जबरन अपने को रोके हुए थे.
फिर कई दिनों बाद अचानक एक दिन अज्ञेय जी का फोन आया, “नंदन जी हैं?”
“हाँ, भाई जी, मैं बोल रहा हूँ” नंदन जी ने कहा. और अज्ञेय जी ने फोन करने का एक छोटा सा बहाना यह निकाला कि “नंदन जी, असल में मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस शब्द को आपके यहाँ क्या कहते हैं…?” और फिर बोले, “मुझे चिंता हुई, आपका स्वास्थ्य तो ठीक है न!”
इस पर नंदन जी को पछतावा हुआ—इतना गहरा पछतावा कि वे जीवन भर उसे भूल नहीं पाए.
“प्रकाश, अपनी इस भूल के लिए मैं आज तक खुद को माफ नहीं कर पाया कि मैंने अज्ञेय जी जैसे आदमी की परीक्षा लेनी चाही थी, कि कहीं मेरा उनके प्रति प्रेम इकतरफा ही तो नहीं! इस चीज के लिए मैं आज तक खुद को माफ नहीं कर पाया….”
कहते-कहते नंदन जी का गला रुँध जाता है. फिर एकाएक वे भावनाओं की तेज बाढ़ में बह जाते हैं और उनका सारा चेहरा आँसुओं से भीग जाता है.
इसके बाद दो-तीन मिनट कुछ ऐसे गीले, व्यग्र और उदास थे कि मैं चुपचाप हक्का-बक्का सा उनकी ओर देख रहा था. इसके अलावा न कुछ सोच पा रहा था, न कुछ पूछ पा रहा था. आखिर नंदन जी ने रूमाल निकालकर आँखें पोंछी और खुद ही जैसे भीतर का पूरा जोर लगाकर उस हालत से उबरते हुए कहा, “अच्छा प्रकाश, पूछो…आगे पूछो.”
एक इंटरव्यूकार के रूप में मेरी बड़ी चाहत थी कि उस इंटरव्यू में नंदन जी के व्यक्तित्व के अलग-अलग शेड्स और मूड्स शामिल हों. तो सामने जो था, वह भी तो उनके व्यक्तित्व का एक असाधारण पहलू ही था न! मैं जिसे अपनी स्मृति के कैमरे की आँख में कैद कर लेने की कल्पना तक नहीं कर सकता था. मगर फिर मैं इस कदर असहज क्यों था? सचमुच इंटरव्यू को आगे बढ़ाना फिर उस दिन मेरे लिए संभव नहीं रहा. जल्दी से अपने सवालों को समेटकर चला आया.
हाँ, जब नंदन जी के व्यक्तित्व के अलग-अलग शेड्स की बात चली तो उनकी रूमानियत, जिसे कभी-कभी उनकी तबीयत की रंगीनी भी कह और समझ लिया जाता है—का जिक्र भला कैसे न होता? और यह प्रसंग भी एक तरह से नंदन जी ने ही छेड़ा था. मेरे एक सवाल के जवाब में. उनका कहना था कि अगर सुंदरता बुरी चीज नहीं है, तो भला सुंदर को सुंदर कहना कैसे बुरा हो सकता है? लिहाजा किसी सुंदर औरत को सुंदर कहने में उन्हें कभी परेशानी नहीं हुई. हालत यह कि एक दफे मुंबई में वे गाड़ी में जा रहे थे. रास्ते में उन्हें एक औरत दिखाई थी—असाधारण रूप से सुंदर. उन्होंने फौरन गाड़ी रुकवाई और गाड़ी से उतरकर उस औरत के पास यह कहने के लिए गए कि “आप असाधारण रूप से सुंदर हैं.” और उसके बाद अपनी गाड़ी में आए, बैठे और चल दिए.
शायद इसी रंगीन तबीयत के कारण नंदन जी प्रेम के किस्से या फिर अफवाहें ही निरंतर हवा में फैलती रही हैं. लेकिन कब यहाँ रुक जाना चाहिए, यह तय करने में शायद उन्हें कभी कोई परेशानी नहीं हुई. इसका बहुत कुछ श्रेय उनकी पत्नी को भी जाता है, जिनसे वे बेपनाह प्रेम करते थे.
बातचीत की रौ में बहते हुए उन्होंने बताया था कि जिस दिन उनकी पत्नी खुश न रहे या जिस दिन उनकी पत्नी का प्रेम उन्हें हासिल न हो, उस दिन को जीने की वे कतई इच्छा नहीं रखते. उनकी पत्नी ही है जो उन्हें सँभालती है, समझती है और उनकी इतनी परवाह करती है.
फिर बातों-बातों में उन्होंने बताया कि, “यहीं, जहाँ आप बैठे हैं—हिंदी की एक प्रसिद्ध कथा लेखिका बैठी थी. और उसने आँखों में गहरा विश्वास भरकर मुझसे पूछा था, ‘अच्छा नंदन, तुम दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार किसे करते हो?’ उसे भ्रम था कि शायद उसका नाम मेरी जुबान से निकलेगा. पर मेरा जवाब था कि अपनी पत्नी को, जिसके बगैर मैं एक दिन भी जीने की इच्छा नहीं रखता.”
बाद में अनौपचारिक बतकही में नंदन जी ने उस कथा लेखिका का नाम भी बताया था. पर मैं नहीं समझता, कि मुझे इसका जिक्र करना चाहिए.
हम लोगों ने नंदन जी को लगभग भुला ही दिया है ।अच्छा लगा कि ’समालोचन’ ने प्रकाश मनु के बहाने उन्हें याद किया ।बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
मनु भाई, नंदन जी पर आपका संस्मरण पूरा पढ़ डाला। आप जब भी लिखते हो एक पूरा दौर आंखों से गुज़र जाता है। नंदन जी से मुझे इसलिए ज्यादा लगाव था कि उन्होंने पराग में मुझे लगातार छापा। उनके कई चिट्ठियां मेरे पास थें पर वह सारी निधि दिल्ली में ही नष्ट हो गई। यह अफसोस मुझे रहेगा। पराग से मेरी एक बाल कविता ” हुई छुट्टियां अब पहाड़ों पर जाएं,झरनों की कलकल के संग गुनगुनाएं, धरती को छाया दिए जो खड़ा है, चलो उस गगन से निगाहें मिलाएं ” को स्वीकृत करते हुए लिखा था – आजकल तुमपर गीतों की बहार आ गई है।।। फिर उन्होंने दरियागंज वाले आफिस में भी बुलाया था जहां संयोग वश मेरी मुलाकात स्व. योगराज थानी और स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हो गई थी। योगराज थानी खेल संपादक थे इसलिए उनसे तो नही सर्वेश्वर जी से मिलके बहुत ही खुशी हुई थी। पर सबकुछ वक़्त की धार में बह गया। मनु भाई, आपके उम्दा संस्मरण की बात कर रहा था, अपने पे आ गया।मेरा तो जो कुछ है वह कुल मिलाकर आपका ही है। बस,अब सिर में दर्द हो रहा है फिर नार्मल हुआ, संपर्क करूँगा। एक अलग काम भी शुरू करने को था फोकस ऑन चिल्ड्रन child issues पर पत्रिका है छोटी सी, पर अस्वस्थता के कारण आगे टाल दी एकदो महीने को। फिलहाल मैडिटेशन में लग गया हूँ। नंदन जी पर संस्मरण दोबारा पढूंगा मन नहीं भरा। सादर, रमेश
ग़ालिब छूटी शराब में रविन्द्र कालिया ने अपने संस्मरण में धर्मयुग के दमघोंटू माहौल और बतौर संपादक भारती जी के आतंक पर भी बहुत कुछ लिखा है। मसलन,अन्य पत्रिकाओ के स्टाफ धर्मयुग के दफ़्तर को कैंसर वार्ड कहा करते थे। उसी प्रसंग में एक बार भारती जी ने कालिया जी से कहा कि मैनेजमेंट नंदन जी के कार्य से खुश नहीं है। अगर एक प्रतिवेदन तैयार करो कि मातहतों से उनका व्यवहार अच्छा नहीं ,सबको षड़यंत्र के लिए उकसाते हैं एवं अयोग्य हैं, तो मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ ।लेकिन कालिया जी इसके लिए तैयार नहीं हुए।उन्होंने लिखा है कि नंदन जी में और कोई ऐब भले ही रहा हो पर ये आरोप निराधार थे। मुझे लगता है कि नंदन जी अत्यंत गरीबी से आये थे और पत्रकारिता ही उनकी रोजी-रोटी थी इसलिए उनमें एक असुरक्षा की भावना थी। उनका तेवर कभी विद्रोही नहीं रहा।