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समालोचन

Home » कौशलेन्द्र की कविताएँ

कौशलेन्द्र की कविताएँ

सूर्य जब कलाओं में उदित होता है, लगता है जैसे पहली बार उसे हम देख रहे हैं. कविता निकट में रंग भरकर नवीन कर देती है. जीवन घिसा और बदरंग न लगकर सुंदर और सुखद लगने लगता है. कौशलेन्द्र की कविताओं में प्रकृति खूब है. इधर उन्होंने अपने को लगातार समुन्नत किया है. उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
December 11, 2024
in कविता
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कौशलेन्द्र की कविताएँ
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कौशलेन्द्र की कविताएँ

 

रास्तों की आज़माइश

 

नदियों के बाँध
दर्रों के बीच की गहरी खाई
दूर दूर तक फैले कोहसारों के साए
सात समंदरों-सी बेपनाह दूरी

ठहरे हुए सन्नाटों में एक हूक-सी उठती है
दूर तक फ़िज़ाओं में
बारूद की बू के टीले हैं
सूरज से किरणों के नुकीले नुक़ूश
रेत पर उभरे हैं
पलकों की कोरों में कितने दरिया
हैं

ये गोशों गोशों में कैसी सहमी हवा है
उफ़क़ से उठता धुआं है
सरहदों ने शायद आग उगली है
फिर कोई आबाद जिस्म जला है.

 

 

धूप के समंदर

गेहूँ के खेतों में पकी स्वर्ण बालियां लहलहा रहीं
कटाई के कुछ मास बाद धान के छौने रोपे जायेंगे
दूर दूर तक उमड़ते खेतों में
एक लक़ीर छाँव की मयस्सर नहीं
कहीं दूरी पर खड़ा निर्बल शाख़ों वाला
एक कृशकाय वृक्ष
अपने होने की व्यथा में जल रहा है
फ़सल दर फ़सल दुःख पिरोता चल रहा है
कहाँ गई वो अमराई
चितवन कदंब पाकड़ गूलर
वो अमलतास, पलाश, मालती के झूमर
ये गाछ
इनसे बने बाग़ीचे बाग़

चहूँ ओर भरे पूरे खेतों को देखकर
एक वीराना सा उठता है भीतर
भूख है या अज़ाब
कुछ समय पश्चात
ये विशाल धरा एक खेत होगी
चिड़ियों के घोंसले होंगे
न गिलहरियों के कोटर
गिद्धों के बैठने को सूखा ठूंठ भी नहीं

आकाश में पानी उड़ेगा
धरती पर धूप
धूप के रेतीले समंदर होंगे
दूर दूर

मनुष्य की धरती में छाँव
एक अनवरत प्यास है.

 

Art Work : Ruby Chishti : Stratigraphy of Cloth, 2023

 

रंगों का रसायन

दूर तक रंगों की चादर
साँझ सिंदूरी गुलाल-सी बिखरती
आकाश सुरमई कुछ नीला
रश्मियों की बौछार
धरा कहीं हरी
कहीं मटियाली

रंगों का रसायन भी अजब है
वे सात रंगों की रोशनी से रिसते हैं
जगह जगह छूट जाते हैं
इस बेरंग दुनिया पर
रंगीन पैबंद की तरह.

 

 

पहाड़

धरा के मोह से ऊपर

चीड़ देवदार
विराटता की पताका फहराते
मेघ समूहों को थामे
लहरते हैं

दूर दूर तक घाटियों के विस्तार में
प्रकृति से अभय  लिए
वनप्रान्तर ऊँघते हैं.

 

जल रेखा

लोगों ने कहा
बड़ी ज़ोर की बरसात हुई

यहाँ बूँद न गिरी !

सड़क पर गीले सूखे का इस तरह बंटवारा था
जैसे रेख खींच दी हो किसी ने

गिरती हुई बूंदें तनिक भी न छिटकीं

पानी बँटकर बरसेगा
फुहारें घर का पता पूछेंगी
मेघ उड़ेलेंगे उतना ही
जितनी बुझाई है तुमने
प्यास
जेठ के मारों की

नीर जितना संजोया है
पलकों की कोरों में
इस सूखे मरुथल से

लोगों की हथेलियों में जन्मेगी अब जलरेखा.

 

साँझ का गुलमोहर

साँझ के भीने उजास में
एक छाया
खिले गुलमोहर की
मुंडेर पर पतंग-सी तिरती

लौटते पक्षियों के
ऊँघते समवेत स्वर
उबासी लेते फूल
आज की विदा में हाथ हिलाते
क्षितिज की ओर

उनींदा अनमना शिथिल
औंधे मुँह
डूबता है सूरज
मेरे आँगन में रोज़

दिन एक निःश्वास छोड़ता
अस्त होता है.

 

 

नम्बर

कितने नम्बर छूट जाते हैं
स्मृति में
ओटीपी भरते कहीं कुछ ट्रैक करते
कोई बोल के लिखा देता है हथेली पर
आपाधापी में
पसीने से मिट जाते हैं उनके हिस्से
कितनी बार
काग़ज़ों में हाशिए से झांकते हैं
या कभी चीज़ों पर पड़ी गर्द में
उंगलियों से उकेरे
छीजते रहते हैं
समय की धूल फाँकते

नम्बरों के बोझ तले जीवन
सरकता है
चारों ओर इन्हीं के
मेले हैं
सब कुछ नपा गिना है,
असीमित की सीमा में
अनगिनत भी एक गिनती है

भूलने याद रखने के क्रम में
अंकों से लदा मन
अक्सर लिखता मिटाता है

मन की दराज़ में
ढूंढ़ता है कभी कभी
बरसों पहले
गुम हुआ कोई नम्बर.

 

कौशलेन्द्र
फतेहपुर, उत्तर प्रदेश
MD (chest medicine)
दो पुस्तकें, भीनी उजेर (कविता), मोड़ दर मोड़ (संस्मरण) प्रकाशित

कंसलटेंट चेस्ट फिजीशियन
9235633456
Tags: 20242024 कविताकौशलेन्द्र
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Comments 6

  1. आशुतोष दुबे says:
    5 months ago

    सुन्दर कविताएं। कवि में प्रेक्षण और अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता बढ़ रही है। कौशलेंद्र की कविताओं में विकास के इस सोपान को लक्षित करना सुखद है।

    Reply
    • Mahendra Kumar Awasthi says:
      5 months ago

      अनुपम… 👌👌 विचारों की सुनियोजित अभिव्यक्ति🙏
      जहां एक ओर “धूप के समंदर” में जीवन की अनुभूतियां सजीवित ही रही हैं, वहीं “रंगों के रसायन” में प्रकृति में प्रकाश की प्रभावी उपस्थिति के विभिन्न आयाम संजोए गए हैं, “जल रेखा” में जल की जवानी शक्ति की महत्ता व उसकी अति एवं अभावजनित सुख-दुख से प्रभावी जनजीवन की पुकार झलक रही है…. डॉ कौशलेंद्र जी की कविताओं में प्रकृति व जीवन के समस्त रंग उपस्थित हैं। डॉ साब का हार्दिक अभिनंदन🙏

      Reply
  2. M P Haridev says:
    5 months ago

    ख़ूब लिखा है । पहली कविता से आकर्षण आरंभ हो गया । नंबर कविता ग़ज़ब की है । “अनगिनत भी एक नंबर है” । शायद इसी कविता में पहले बंटवारा लिखा और बाद में बँटवारा । समालोचन को बधाई कि इस पत्रिका ने नुक़्ते लगाना आरंभ कर दिया । मेरी दृष्टि में यदि व्यंजन के साथ इसके संदर्भ में स्वर लगाना आरंभ कर दिया जाये तो सोने में सुहागा । जब तक स्वर्ण अपनी मौलिक अवस्था में है उसमें तब तक राग नहीं पिरोया जा सकता जब तक आभूषण न बनें । आभूषणों का वैविध्य स्वर्ण को रागों की ख़ुशबू से भर देगा ।
    शब्द लिखने में एकरूप बनाये रखें । उदाहरण के लिये यहाँ की एक कविता में नंबर और कुछ बाद में नम्बर लिखा । म हलंत लिखते हैं तब विशेषकर चवर्ग में लिखे जाने वाले किसी व्यंजन में गीता प्रेस, गोरखपुर का अनुसरण करना पड़ेगा । प्रतिगामी है ।
    मैंने सुना है कि कीबोर्ड में ल का दूसरा रूप [क्योंकि कीबोर्ड लेआउट में नहीं है] लिखने का विकल्प नहीं आया ।
    पुनः डॉ कौशलेंद्र सिंह जी का स्वागत है कि कविताओं को पढ़ने के लिये समालोचन को चुना या समालोचन ने कौशलेंद्र जी को । सहयोग बना रहे । समालोचन से महाराष्ट्र में अधिक प्रयोग किया जाता शब्द विनंती है कि नुक़्तों को बढ़ावा दें ।
    पिछले बीस-तीस वर्षों से नुक़्तों का उपयोग बंद हो गया । नयी पीढ़ी ज्यादा का शुद्ध रूप नहीं जान पायी । फिर तो समय, हवा, घटना के गुज़र जाने को गुज़र जाना समझ लिया जायेगा । गुजरात और गुज़रते में फ़र्क़ नहीं किया जा सकेगा ।
    शायद नीलम जैन की कविता है-आलू नहीं मिलाया जा सकेगा किसी सब्ज़ी के साथ ।

    Reply
  3. kusum singh says:
    5 months ago

    Very Nice and beautifully written poems.

    Reply
  4. प्रिया वर्मा says:
    5 months ago

    वर्तमान परिदृश्य में प्रकृति के माध्यम से गहन छानबीन करती और बारीक चिंताओं को पंक्तिबद्ध करती हुई कविताएं। पढ़कर बहुत देर तक मन को मथती रहीं कुछ पंक्तियाँ।

    Reply
  5. Sawai Singh Shekhawat says:
    5 months ago

    अच्छी और आत्मीय कविताएँ जो एक ओर प्रकृति के परिदृश्यों
    का जायज़ा लेती हैं तो दूसरे छोर पर उनके विनष्ट होने की कारकों की भी खोज-ख़बर लेती

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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