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Home » कविता क्या है? की चौ-पाई : वागीश शुक्ल

कविता क्या है? की चौ-पाई : वागीश शुक्ल

यह जानकर विस्मय होता है कि नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 1893 में बाबू श्यामसुंदर दास ने शिवकुमार सिंह और रामनारायण मिश्र के साथ मिलकर उस समय की, जब वे केवल हाई स्कूल के छात्र थे. हिंदी की पांडुलिपियों की खोज़, संशोधन, प्रकाशन और साहित्य के निर्माण की दिशा में इस संस्था ने जो कार्य किया है, वह अद्भुत और ऐतिहासिक है. और हिंदी के लिए निर्णायक भी. आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखा गया ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, जो आज साहित्येतिहास में केंद्रीय महत्व रखता है, मूलतः सभा द्वारा प्रकाशित ‘शब्दसागर’ की भूमिका थी. यही नहीं, ‘सरस्वती’ जैसी पत्रिका, जिसने महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्रतिष्ठित किया, उसके पहले दो वर्षों के संपादक बाबू श्यामसुंदर दास ही थे. इसका संपादन काशी से किया जाता था. पहला अंक पहली जनवरी 1900 को प्रकाशित हुआ, जिसके मुखपृष्ठ पर भारतेन्दु हरिश्चंद्र का चित्र था. पत्रिका का नामकरण भरतमुनि के एक श्लोक ‘सरस्वती श्रुति महती न हीयताम्’ के आधार पर किया गया था. समयाभाव के कारण 1902 के अंत में बाबू श्यामसुंदर दास ने सरस्वती के संपादन से स्वयं को अलग कर लिया. जनवरी 1903 से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने संपादन संभाला. 1903 से 1904 तक वे झांसी से और फिर 1904 से 1920 तक कानपुर के जुही मोहल्ले से इसका संपादन करते रहे. इस दौरान उन्होंने दो वर्षों का अवकाश भी लिया. कुल 15 वर्षों तक उन्होंने सरस्वती का संपादन किया. हिंदी का मानकीकरण उनके संपादन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है, किंतु उनका बड़ा योगदान हिंदी को आधुनिक विचारों से जोड़ना और नए लेखकों को तैयार करना था, जो एक संपादक करता है. नागरी प्रचारिणी सभा की महत्ता और असल कथा पांडुलिपियों की खोज़ और प्रकाशन की है, इस खोज़-कथा और इनकी अंतर-कथाओं को सामने आना चाहिये. भारत ख़ासकर हिंदी समाज एक ‘संस्था-भंजक समाज’ है. हिंदी की लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक संस्थाएँ आज अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही हैं. उनके भवन ही नहीं, उनकी कार्यशक्ति भी जर्जर हो चुकी है. न उनमें आधुनिक चेतना है, न साहस, और न ही सौंदर्यबोध. वे अपनी पूर्व प्रकाशित पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन तो छोड़िये संरक्षण तक नहीं कर पा रही हैं. ऐसे में नागरी प्रचारिणी सभा की सक्रियता एक सुखद संकेत देती है. आचार्य शुक्ल के प्रसिद्ध निबंध ‘कविता क्या है’ के अनेक प्रारूप प्राप्त होते हैं. इन प्रारूपों को एक जिल्द में प्रकाशित कर सभा ने सराहनीय कार्य किया है. इसके महत्व पर मर्मज्ञ विद्वान वागीश शुक्ल का यह आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
July 29, 2025
in समीक्षा
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कविता क्या है? की चौ-पाई : वागीश शुक्ल
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कविता क्या है? की चौ-पाई
वागीश शुक्ल

 

हिन्दी साहित्य के दिक्-काल मेँ इधर कुछ दिन पहले एक सुखद घटना घटी— नागरी प्रचारिणी सभा की प्राण-प्रतिष्ठा हुई. इसे एक युगान्तरकारी करवट से कम आँकना ग़लत है क्योंकि जो दो-एक किताबें इस संस्था ने हाल ही मेँ छापी हैँ, उनमें उन तमाम मूल्यों का पुनःस्थापन हुआ है जिनके लिए हम उन्नीसवीं सदी के अन्त से ले कर बीसवीं सदी के मध्य तक छपी किताबों की ओर ललक और कृतज्ञता से देखते हैँ. इन प्रकाशनोँ को ‘प्रामाणिक संस्करण’ कहना एक सार्थक हस्तक्षेप भी है.

वर्तमान समय मेँ प्रकाशक की भूमिका एक डाकिये की है—लेखक से पांडुलिपि ले कर कम्पोज़र तक पहुँचाना, कम्पोज़र से ले कर प्रिन्टर तक पहुँचाना, प्रिन्टर से बाइन्डर तक पहुँचाना, बाइन्डर से बुक-सेलर तक पहुँचाना. प्रूफ़-रीडिंग एक लुप्त कला है और अगर कहीँ बची है तो एक मजबूरी का पेशा है— किसको आज यक़ीन होगा कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ही नहीं, नामवर सिंह भी अपने संपादन मेँ निकलने वाली पत्रिकाओं को बाज़ार मेँ तभी उतरने देते थे जब वे स्वयं सन्तुष्ट हो जाँय. निर्णयसागर प्रेस, गुजराती प्रिन्टिंग प्रेस के सुनहरे दिन कब के बीत चुके लेकिन टाइप-राइटर आने के पहले का प्रेस और कम्प्यूटर आने के पहले की प्रूफ़-रीडिंग भी अब म्यूज़ियम की चीज़ेँ हो गयी हैँ.

ऐसे मेँ वर्तनी और छपाई के प्रति सभा का यह आग्रह प्रीतिकर है और हम सब को व्योमेश शुक्ल का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इस ओर भी हिन्दी साहित्य-जगत् का ध्यान आकृष्ट किया. मैँ उनके संपादन मेँ छपी एक किताब ‘कविता क्या है?’ के प्रामाणिक संस्करण पर बात करूँगा लेकिन शुरुआत मेँ कुछ और कहना ज़रूरी लगता है.

 

2

नागरी प्रचारिणी सभा का नाम ‘नागरी प्रचारिणी’ क्योँ रखा गया था, इस विषय मेँ हमारी भाषा ‘हिन्दी’ की एक ख़ास समझ है क्योँकि कुछ दिन बाद इसके अनुकरण पर बनी दो संस्थाओँ के नाम हैँ— ‘हिन्दी’ साहित्य सम्मेलन और ‘हिन्दुस्तानी’ अकाडेमी. जो लोग ‘नागरी’ कहते थे वे यह मानते थे कि हमारी भाषा वही है जिसे फ़ारसी लिपि मेँ लिख कर ‘उर्दू’ बताया जाता है और इस प्रकार उसका सांस्कृतिक स्वरूप परिवर्तित किया जाता है. इस समझ के पीछे एक ठोस कारण है.

भाषा-वैज्ञानिक ‘हिन्दी’ और ‘उर्दू’ मेँ कोई अन्तर नहीं कर सकते और प्रो केलकर ने अपने अँगरेज़ी मेँ लिखे किताबचे मेँ ‘हिर्दू’ (=Hirdu) नाम इस्तेमाल किया है. ‘एक भाषा, दो लिपियाँ’ को ले कर कई किताबें हैँ. किन्तु जिनको इन भाषाओँ से काम पड़ता है वे जानते हैँ  कि फ़र्क़ है, और वह ‘हिन्दू-मुसलमान’ का नहीँ है जैसा राजनीतिक आग्रहों के चलते बताया-समझाया जाता है.

मैँ एक उदाहरण देता हूँ. पाकिस्तानी गायिका मुन्नी बेगम की गायी एक ग़ज़ल है जिसका पहला शेर नागरी मेँ योँ लिखा जायगा :

तुम्हारे शह्र का मौसिम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे ॥

आगे क़ाफ़िये मेँ ‘पता न लगे’ आदि आते हैँ  इसलिए भी यह साफ़ है कि पहली पंक्ति मेँ ‘सुहाना’ को ‘सुहान’ पढ़ना पड़ेगा. जो लोग ‘हिन्दी ग़ज़ल’ लिखते हैँ वे ऐसा कभी न करेँगे. फिर क्या इस ग़ज़ल मेँ शब्द को तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल किया गया है ? नहीँ, उर्दू लिपि मेँ लिखने पर इस शेर मेँ कोई गड़बड़ी नहीं है.

मैंने उर्दू साहित्य को नागरी मेँ लिखने की समस्याओं पर एक किताब लिखी है जिसे महात्मा गाँधी अंतर-राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा ने वाणी प्रकाशन से छपवाया. इसमेँ चर्चा विस्तार से है किन्तु यहाँ फ़िलहाल इतना कि उर्दू लिपि फ़ारसी लिपि का विस्तार है और फ़ारसी लिपि अरबी लिपि का जो एक व्यञ्जन-धर्मी (=Consonantal) लिपि है, अर्थात् इसका कोई अक्षर ‘स्वर’ की सूचना नहीँ देता और ‘मात्रा’ लगाने की कोई व्यवस्था नहीँ है. इसलिए फ़ारसी भाषा लिखने के लिए भी फ़ारसी लिपि उपयुक्त नहीँ है और उसके कई मूल उच्चारण ईरान की अपेक्षा भारत मेँ ही सुरक्षित बच सके हैँ— जैसे ‘दोस्त’ शब्द ईरान मेँ ‘दूस्त’ पढ़ा जाता है. तो चर्चाधीन शेर मेँ ‘सुहाना’ का भी अंतिमाक्षर ‘छोटी हे’ है जिसको यहाँ ‘आ’ के रूप मेँ पढ़ रहे हैँ और ‘न’ का भी अंतिमाक्षर ‘छोटी हे’ है जिसको यहाँ सिर्फ़ ‘अ’ के रूप मेँ पढ़ रहे हैँ लेकिन क़ाफ़िये मेँ कोई ख़राबी नहीँ है जो नागरी मेँ लिखते ही गड़बड़ लगता है.

इस व्यञ्जन-धर्मिता के चलते उर्दू मेँ लिखने पर बहुत से भारतीय शब्द भिन्न प्रकार से लिखे-पढ़े जाते हैँ— जैसे ‘मालवीय’ किसी भी प्रकार उर्दू मेँ नहीँ  लिखा जा सकता और इसी कारण से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलगीत मेँ उसके संस्थापक मालवीय जी का उल्लेख ‘मालवी’ के रूप मेँ आया है. इसी तरह ‘वाजपेयी’ को उर्दू मेँ ‘बाजपाई’ लिखते-बोलते हैँ क्योँकि उर्दू मेँ आप ‘वाजपेयी’ किसी प्रकार नहीँ लिख सकते. ‘प्रकट’ की जगह ‘परगट’ भी उर्दू लिपि के ही कारण है.

तो ‘नागरी’ का आग्रह यह था कि हिन्दी के भारतीय शब्द वैसे ही लिखे जाँय जैसे वे पढ़े जाते हैँ और इसके लिए उर्दू लिपि अनुपयुक्त थी— उसे नागरी लिपि मेँ ही लिखना आवश्यक था. नागरी प्रचारिणी सभा के संस्थापकोँ मेँ से प्रत्येक उर्दू लिपि से अच्छी तरह परिचित था क्योँकि तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था मेँ उर्दू लिपि ही स्वीकार्य थी और वे यह भी नहीँ चाहते थे कि ‘देव-नागरी’ शब्द का प्रयोग किया जाय क्योँकि इससे ऐसा प्रतीत होता कि ‘देव-भाषा’ संस्कृत के प्रति उनका कोई विशेष आग्रह है—वैसे भी एक ‘धर्म-नागरी’ लिपि कुछ जगहोँ पर प्रचलित रही है जो समय के साथ विलुप्त हो गयी.

उर्दू लिपि से दूरी बनाने के कारण ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ मेँ कुछ रीतिकालीन कवियों द्वारा प्रयुक्त ‘ख़ुशबोय’ से अरुचि प्रकट की है जब कि ‘बू’ को फ़ारसी-उर्दू मेँ ‘बूय’ भी लिखते-बोलते हैँ, और इस प्रकार ‘ख़ुश-बूय’ एकदम शुद्ध वर्तनी है जिसे ‘ख़ुशबोय’ पढ़ना बिल्कुल सम्भव है.

‘हिन्दी’ का अर्थ ‘भारतीय’ होता है और मीर तथा ग़ालिब अपने ‘उर्दू’ काव्य को फ़ारसी से भिन्नता जताने के लिए ‘हिन्दी’ का ही काव्य बताते थे— ‘हिन्दी’ से तेलगू, गुजराती आदि सभी का ग्रहण होता था. इसलिए भी ‘हिन्दी’ कहने से बात नहीँ बनती थी और ‘हिन्दुस्तानी’ एक सर्वथा राजनीतिक छल है. जिन तीन संस्थाओँ का मैँने ऊपर उल्लेख किया, उनमेँ से केवल नागरी प्रचारिणी सभा का ही नाम अतिव्याप्ति और अव्याप्ति जैसे दोषोँ से मुक्त है. किन्तु नामकरण से अलग, इन सभी संस्थाओँ ने ऐतिहासिक महत्त्व के काम किये हैँ—जैसे हिन्दुस्तानी अकाडेमी ने ही हठपूर्वक अपनी पत्रिका को ‘तिमाही’ बताया जब कि संस्था से जुड़े उर्दू वाले चाहते थे कि उसे ‘सिह-माही’ कहा जाय—‘सिह = तीन’. समय के साथ ये संस्थाएँ मृतप्राय हो चलीँ और प्रो सत्यप्रकाश मिश्र के समय मेँ प्रयागराज वाली संस्थाओँ मेँ जो सुगबुगाहट आयी थी, वह भी समाप्त है.

समय के साथ संस्थाएँ और योजनाएँ मुरझा जाती हैँ. यह हमेशा वित्तीय अ-पोषण के नाते ही नहीँ होता, कल्पना के सूखने के नाते भी होता है—हमारी आँखोँ के सामने इसके कई नमूने हैँ.

नागरी प्रचारिणी सभा का सर्वनाश इसका सबसे करुण उदाहरण था और इसीलिए उसका पुनः सक्रिय होना हर्ष-सञ्चार का कारण है.

 

3

कविता क्या है ? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का एक महत्त्वाकांक्षी निबन्ध है जिसे उन्होँने अपने जीवनकाल मेँ कुल चार बार परिष्कारोँ के साथ छापा. अब इसके चारोँ रूप चर्चाधीन पुस्तक मेँ एक साथ प्रकाशित हैँ. इनमेँ जो परिवर्तन आये हैँ उनमेँ से अनेक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के परवर्ती भाषिक व्यवहार और चिन्तन पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा दिये गये सम्पादकीय निर्देशोँ के प्रभाव को बताते हैँलेकिन हम फ़िलहाल एक छोटी सी बात से शुरू करते हैँ  जिसका उल्लेख व्योमेश ने अपनी भूमिका मेँ किया है. वे लिखते हैँ—

शुक्लजी का वाक्य इस प्रकार है : “जिस ने लोभ के आगे क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि सब को दबा दिया है…”

द्विवेदी जी उक्त वाक्य मेँ दो संशोधन करते हैँ—‘आगे’ के स्थान पर ‘वशीभूत हो कर’ और ‘सब’ के स्थान पर ‘मनोविकारोँ’— और वाक्य ऐसा बन जाता है—“जिस ने लोभ के वशीभूत हो कर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि मनोविकारोँ को दबा दिया है…”

यह दिसम्बर 1908 का वाक़िया है. शुक्लजी ने इस शब्द को अपने वाङ्मय मेँ सम्मिलित कर लिया और तुरन्त मनोविकारों को बीच मेँ रख कर 1914 से ‘मनोविकारोँ का विकाश’ शीर्षक कालजयी निबन्ध-माला की रचना आरम्भ की.

मेरी जानकारी के अनुसार ‘मनोविकारोँ का विकाश’ पहली बार ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ के जुलाई 1912 वाले अङ्क मेँ छपा था किन्तु यह महत्त्वपूर्ण नहीँ है— महत्त्वपूर्ण है वह पादटिप्पन जो व्योमेश ने ‘विकाश’ पर दिया है—“तब ‘विकास’ ऐसे ही लिखा जाता था— ‘विकाश’ ”. वस्तुतः ‘विकाश’ एक स्वतन्त्र शब्द है जो उदाहरण के लिए महाकवि भारवि के ‘किरातार्जुनीयम्’ (15-52) मेँ चार बार प्रयुक्त हुआ है और जिसके कई अर्थोँ मेँ एक ‘विस्तार’ भी है जिसे ‘विकास’ का समानार्थी मानते हुए शुक्लजी ने यहाँ इस्तेमाल किया—हालाँकि आगे चल कर उन्होँने भी ‘विकास’ ही लिखा है.

आचार्य द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के ‘विकाश’ को परिवर्तित नहीँ किया तो इसका कारण है. तत्कालीन हिन्दी लेखक संस्कृत से शब्द लेने के प्रति उत्साही थे और उनका एक आग्रह उच्चारण और लेखन मेँ सामञ्जस्य बिठाने का भी था जिसके चलते हमेँ उस समय की हिन्दी मेँ ‘सक्ता’ और ‘कर्ना’ जैसी वर्तनियाँ दीखती हैँ. ‘मानक’ हिन्दी अभी बन रही थी—वह व्रज के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पायी थी, उर्दू वर्तनी का भी संस्कार वर्तमान था, और संस्कृत की शब्द-सम्पदा के प्रति लालसा भी थी.

 

4

जिस वाक्य का उल्लेख अपनी भूमिका मेँ व्योमेश ने किया है वह चौथे और अन्तिम प्रारूप तक आते-आते इस प्रकार हो गया है— किसी अर्थपिशाच कृपण को देखिए जिसने केवल अर्थलोभ के वशीभूत हो कर क्रोध, दया, श्रद्धा, भक्ति, आत्माभिमान आदि भावोँ को ‘मनोविकार’ की जगह ‘भाव’ का चुनाव करने के पीछे आचार्य शुक्ल का कारण यह है कि वे अपनी इस विचार-यात्रा को भारतीय काव्यशास्त्र के रस-सिद्धान्त से समंजस करना चाहते थे जिसमें ‘भाव’ एक पारिभाषिक शब्द है. इसका परिपाक उनकी पुस्तक ‘रस-मीमांसा’ मेँ आया है जिसे उनके सुयोग्य शिष्य आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के सम्पादन मेँ नागरी प्रचारिणी सभा ने उनके देहान्त के बाद प्रकाशित किया.

‘भाव’ की जगह ‘चित्तवृत्ति’ रख देने से यही केन्द्रीयता उनके ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ मेँ भी पायी जायेगी. इस विचार-यात्रा पर बात करना इस आलेख का उद्देश्य नहीँ है अतः केवल इस पुस्तक के बहाने सम्पादन और प्रकाशन मेँ श्रम, सावधानी, ज़िम्मेदारी और सुरुचि की वापसी के लिए धन्यवाद कहने के साथ यहाँ बात ख़त्म करते हैँ और आचार्य शुक्ल के चिन्तन के ‘विकाश’ को क्रमबद्ध रूप मेँ एक साथ उसके पीछे की कई बातोँ के साथ— जो परिशिष्टोँ मेँ मौजूद हैँ— सामने लाने के लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हैँ.

व्योमेश के ही संपादन मेँ आचार्य शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ का भी ‘प्रामाणिक संस्करण’ प्रकाशित हुआ है. इस कालजयी ग्रन्थ को— जिसकी जगह हिन्दी साहित्य का कोई दूसरा इतिहास अभी तक नहीँ ले सका है—अपने प्रामाणिक रूप मेँ फिर सामने लाने के लिए भी हमेँ नागरी प्रचारिणी सभा के इस नवजागरण का आभारी होना चाहिए.

हमेँ आशा करनी चाहिए कि नागरी प्रचारिणी सभा की जो बहुत-सी अनमोल थातियाँ विलुप्तप्राय हैँ उनके प्रामाणिक संस्करण शीघ्र आयेंगे, ‘पृथ्वीराज रासो’ से ले कर ‘परमाल रासो’ तक के प्रामाणिक संस्करण फिर सामने होँगे और हिन्दी साहित्य मेँ इस जानकारी का प्रसार होगा कि वह केवल ‘समकालीन’ नहीँ है, उसकी एक समृद्ध सम्पदा है जिसके पीछे हज़ार साल की ज़िन्दगी है.

(‘कविता क्या है ?’ नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा व्योमेश शुक्ल के सम्पादन में प्रकाशित, 2025, को पढ़ने के बाद लिखा गया.)

वागीश शुक्ल

हिन्दी
, संस्कृत, फारसी और अँग्रेज़ी वाङ्मय के गहरे और गम्भीर अध्येता, आलोचक और अनुवादक वागीश शुक्ल (जन्म : १९४६, उत्तर प्रदेश) भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली से सेवा-निवृत्त होकर इन दिनों बस्ती (उत्तर प्रदेश) में रह रहें हैं. साहित्य के मूलभूत प्रश्नों पर आधारित वैचारिक निबन्धों का संग्रह ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं’ तथा निराला की सुदीर्घ कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की टीका ‘छन्द-छन्द पर कुमकुम’ प्रकाशित. गालिब के लगभग पूरे साहित्य की विस्तृत टीका पर कार्य जारी. अभी-अभी चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म शीर्षक से आलेखों का संग्रह प्रकाशित.

wagishs@yahoo.com
Tags: आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीआचार्य रामचंद्र शुक्लकविता क्या हैनागरी प्रचारिणी सभावागीश शुक्लव्योमेश शुक्ल
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Comments 7

  1. Om nishchal says:
    2 months ago

    जानकारी भरा लेख । बहुत-बहुत बधाई।

    Reply
  2. रवि रंजन says:
    2 months ago

    उदारमना शुक्ल जी के इस ज्ञानवर्धक आलेख से नागरी प्रचारिणी सभा के युवा प्रधानमंत्री को प्रेरणा मिलेगी.
    साधुवाद.

    Reply
  3. MANJEET CHATURVEDI says:
    2 months ago

    वागीश जी ने भ्रम दूर किये हैं। सभा के ‘नवजागरण’ के लिये उनकी और हम सबकी दृष्टि में व्योमेश ही उत्तरदायी हैं।

    Reply
  4. हिमांश धर द्विवेदी says:
    2 months ago

    समृद्धकारी आलेख!🙏

    Reply
  5. Prof Garima Srivastava says:
    2 months ago

    वागीश जी और समालोचन का बहुत आभार इतने समृद्ध आलेख के लिए.मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि वागीश जी, व्योमेश जी और अरुण देव सरीखे सुधीजन पुरानी , खो चुकी , अल्पज्ञात पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन और शोध की ओर ध्यान दे रहे हैं.फ़ारसी उर्दू और नागरी के परस्परिक संबंध को दर्शाने वाला यह लेख सबके लिए उपयोगी है.वागीश जी से अनुरोध है कि वे इसे शृंखलाबद्ध करें.

    Reply
  6. Abhipsa Pant says:
    2 months ago

    इस लेख को पढ़ना जैसे अखिल भारतीय इतिहास विश्वविद्यालय की अति-शास्त्रीय कक्षा के अंतिम पंक्ति पर बैठे उस विद्यार्थी का अनुभव है, जो शुरू से अंत तक किसी क्लिष्ट भाषण में फँसकर सोचता है—कब यह समाप्त होगा!

    Reply
  7. राज कुमार तिवारी says:
    1 month ago

    बहुत अच्छा आलेख पढ़कर अद्भुत अनुभूति और शान्ति की प्राप्ति हुई।एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई – श्रद्धेय श्री वागीश शुक्ल जी ने अनुनासिक का प्रयोग जैसे-हैँ, मेँ आदि का किया है, जबकि यह प्रचलन में नहीं है।इस पर कुछ प्रकाश चाहता हूँ।सादर।

    Reply

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