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Home » आत्मालोचन की ज़मीन पर: ब्रज नंदन किशोर

आत्मालोचन की ज़मीन पर: ब्रज नंदन किशोर

दया शंकर शरण (10 सितम्बर, 1959: सीवान) अरसे से कविताएँ लिखते रहें हैं. इस वर्ष रुद्रादित्य प्रकाशन से उनका कविता संग्रह- ‘किराये का मकान’ छप कर आया है जिसकी चर्चा कर रहें हैं- ब्रज नंदन किशोर. दया शंकर शरण पाठक भी बहुत सतर्क हैं. मन से पढ़ते हैं और सारगर्भित लिखते हैं. इधर लगातार उनकी टिप्पणियाँ समाने आ रहीं हैं.

by arun dev
July 8, 2022
in समीक्षा
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आत्मालोचन की ज़मीन पर: ब्रज नंदन किशोर
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आत्मालोचन की ज़मीन पर

ब्रज नंदन किशोर

दया शंकर मुकुल. यह नाम मेरे स्मृति पटल पर दीर्घ काल से अंकित है. इधर इन्होंने मुकुल को छोड़ दिया है. अब वे दया शंकर शरण हैं. ‘अद्यतन’ से वे दसेक साल जुड़े रहे बल्कि कहें कि वे हमारे बीच के एक संपूर्ण कवि रहे हैं.  कम शब्दों में संकेतगर्भित, कलात्मक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति या अन्य सदस्य कवियों की कविताओं पर संक्षिप्त टिप्पणी उनकी विशेषता हुआ करती थी.

इन पच्चीस वर्षों में मुकुल जी ने ‘अद्यतन’ के सभी सदस्यों की अपेक्षा लंबी दूरी तय की है, यह इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए जाना जा सकता है. इनकी कविता में यथार्थ का खुरदुरापन बढ़ा है, अभिव्यक्ति में विस्मयकारी सौष्ठव आया है. सांकेतिकता बढ़ी है,  इन सबके साथ ही  जीवन-यथार्थ से उनके साक्षात्कार का स्वभाव बदला है, अब जीवन से इनकी टकराहटें निपट सैद्धान्तिक नहीं रह गईं हैं और न भावुक संवेदनशील ही. इस संग्रह में समकालीन जीवन के जितने रूप हैं, जीवन-स्वप्न की जितनी छवियाँ हैं, उदासियों के जितने जीवन-भरे रंग हैं और संबंधों से भरपूर गार्हस्थ्य जीवन के जितने चित्ताकर्षक चित्र हैं, इतने एकसाथ सामान्यता: एक संग्रह में नहीं मिलते.

इस संग्रह की कविताओं में कथा-शैली के प्रयोग को पहले देखें. पहली ही कविता है, ‘किराये का मकान’. इसमें कथानायक अपनी पहचान व उसके साहचर्य के रास्ते अचेतन के अमूर्त, किंतु सशक्त होकर जमे, अतीत के शेष में स्वयं को ढूंढ रहा है. समय, परिवेश व स्मृतियों की इस मिली जुली दास्तान में उलझे आदमी की यहाँ थोड़ी उदास करती, किंतु जीवन से भरपूर, छवि है. परिवेश में इतना गूँथा हुआ कि पृथकता में उसे नहीं देखा जा सकता.

‘वह मेरी दूसरी माँ बनती गई’, बड़ी बहन की पुण्य तिथि पर लिखी गई. रूप-विन्यास कथा का ही है, किंतु बड़े सलीके से चार टुकड़े कवि ने चुन लिये हैं. बड़ी बहन के अंतस् की छवि गढ़ने में कवि ने शब्दों से अधिक तकनीक से काम लिया है. प्रथम अंश में स्थितियों के प्रति विद्रोह और दूसरे में ममता का अगाध सागर, वैसे ही लहराते नील नभ में जैसे एक पक्षी अपने नवजात के साथ नभ में क्रीड़ा करता है. बड़ी बहन और भाई के प्रेम का अविस्मरणीय चित्र !

“वीणा के तारों ने पहली बार मेरा साथ देना शुरू किया
यह एक अलग दुनिया थी संभावनाओं की अनेक खिड़कियों से भरी”

पारिवारिक रिश्ते का यह वह इंद्रधनुषी रंग है जिसमें जीवन के अनंत रूप-सौंदर्य भरे पड़े हैं. पहली बार वह वीणा के कोमल तारों का कंपन महसूस होता है, और उसका अपना स्व जन्म लेता है. कविता के अंत में कवि ऋषियों की भाँति बाँहें ऊपर उठाकर प्रार्थना करता है–

“ओ सहस्र कोटि देवताओं !
देखना उन्हें कोई असुविधा न हो”

कवि ने एक चित्रकार की भाँति इस कविता में जीवन के रंग भरे हैं; विद्रोह और क्षोभ, फिर अनंत नील में उड़ान, फिर वीणा के सुप्त तारों का कंपन और फिर प्रार्थना में भावजगत का उत्ताल अर्पण देवताओं को. कथा और काव्य का आकर्षक संश्लेषण. इस क्रम में संकलन की ‘एक मित्र से मुलाकात’, ‘एक आपबीती’ और ‘फाँस’  जैसी रचनाएँ भी देखीं जा सकतीं हैं. तीनों रचनाएँ कथा तत्त्व का अवलंब लेकर बढ़ती हैं, लेकिन आवश्यकतानुसार. इसके सहारे कविता के लिए वातावरण या देशकाल निर्मित करता है कवि.  ‘एक आपबीती’  कविता को देखें-

“कोई पड़ोस में क़रीबी हो तो ज़रूर बुला लेंगे
यही फर्क है शहर देहात में
दुर्घटना की पहली रात तकलीफ़ बढ़ती है
इस बात का खयाल रखेंगे
अच्छा, चलते हैं खुदा हाफिज़ !”

यहाँ गाँव की सामाजिकता और शहर के एकाकी जीवन की संवेदनशून्यता पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी है इस कविता में. कविता के संवाद से यह खबर भी मिलती है कि इनसे पूर्व भी कुछ मोटरसाइकलें वहाँ से गुजरीं थीं पर रुकी नहीं, धीमी हुईं और फिर तेजी से निकल गईं. फिर एक पंक्ति है-

“वैसे भी, आजकल कोई किसी के लिए नहीं रुकता”

यह पूरा संवाद संदेह, शंका और अविश्वास से भरे देशकाल की निर्लिप्त खबर देता है, बिना किसी भावुक हस्तक्षेप के. बहुत बारीक-सी और कसी हुई बुनावट है रचना की. कम शब्दों में और सघन. कवि कोई टिप्पणी नहीं करता, सब पाठकों पर छोड़ देता है. सभ्यता जिसे हम कहते हैं, कई अन्तर्निहित असभ्यताओं और अनिश्चयों को भी जन्म देती है अपने साथ. एक सभ्य संसार असंख्य विभाजक दीवारों से पटा होता है. मनुष्य का अस्तित्व इनसे लहूलुहान हुए बिना संभव नहीं. ‘एक मित्र से मुलाकात’ कविता में कवि अपने समय का रेखाचित्र यूँ खींचता है जैसे कोई चिंतामग्न व्यक्ति रेत पर लकीरें खींचता है. यहाँ मित्रों के माध्यम से एक ही वक्त और समाज की कई बदरंग तस्वीरें हैं. सब एक ही समय में. यह छवि एक समाज की है जो स्याही-सी भविष्य के सादा पृष्ठों पर फैल जाना चाहती है, कहीं रुकना या सूखना उसकी नियति नहीं दिखती.

इस क्रम में ‘फाँस’ और ‘विजयमल’ की चर्चा जरूरी है. ‘फाँस’ सपने देखती एक ऐसी स्त्री की कथा है जो ढाबा की आय से अपने बच्चों को अँग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का सपना देखती है. पर जिस रास्ते पर उसे जाना पड़ता है उस पर मंजिल तो नहीं उसकी त्रासद मृत्यु होती है. यहाँ कवि उस स्त्री को नहीं सपने देखती असंख्य स्त्रियों को देखता है–

“इस पृथ्वी पर कई कहावतों को जन्म उसके जैसी स्त्रियों ने ही दिया होगा
वह जिस पानी में रहती थी वहाँ कई मगरमच्छ थे”.

यहाँ यथार्थ अपने वीभत्स रूप में मौजूद है. कविता का अंत भी त्रासद आत्मालोचन से होता है. वह जैसे खुद को कटघरे में पाता है, यह जानते हुए भी कि वह दुनिया नहीं बदल सकता.

इस कड़ी की एक और उल्लेखनीय रचना ‘विजयमल’ है– एक अछूत की कथा कहती. रूढ़ि, परंपरा और संवेदना के अंतर्द्वंद्व और विरोध पर रौशनी डालती यह रचना धर्म, संस्कृति और समाज में संवेदनशीलता पर विजयी होती रूढ़ परंपराओं को चिह्नित करती है. यहाँ जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘विराम चिह्न’ फिर याद आती है. बार-बार हारती संवेदना, बार-बार जीतता व्यवहार-विवेक–साफ जल के तल में आज भी उतना ही है शैवाल; और सभ्य समाज में पाँत से उच्छेद का अचिह्नित भय. रूढ़ियों के समक्ष नतमस्तक सभ्यता के मूल्यबोध. जीवन और रिश्तों का एक स्वाभाविक संबंध होता है, लेकिन अलग-अलग लोगों के लिए उन्हें याद करने की वजह भी अलग-अलग होती है. संग्रह में माँ,पिता, बेटियाँ, पत्नी आदि को लेकर रचनाएँ संग्रहित हैं.

कवि का अपने विषय के अंकन का अंदाज थोड़ा अपारंपरिक है. पिता को याद करते हुए उनके मृत्यु-भय को रेखांकित करते हुए कवि पाता है कि जीवन के जद्दोजहद से भी उन्हें कम घबराहट नहीं थी. कवि उनके भजन व उन श्लोकों को याद करता है जिनमें जीवन की अनश्वरता अंकित हुआ करती थी. उनके जाने के बाद कवि की उदासियों में ही पिता अवतरित होते हैं. यहाँ आत्मलीन किंतु आत्मीय स्पर्श और ऊष्मा से भरपूर है उनका स्मरित रूप. यही उपस्थिति साँझ की लंबी होती छाया-सी कवि के साथ पीछे छूट जाती है. यहाँ कवि के भीतर पसरे शून्य में बचे रहते हैं स्पर्श और मौन संप्रेषित होती थपकियों की लोरी. माँ को याद करना भी अलग है, पिता को याद करने से भिन्न. माँ को अपनी देह से गहरा लगाव था. वह घंटो आईने में खुद को निहारती थी. हिन्दी कविता में इतनी पवित्रता और निस्संगता से माँ को कम ही, शायद नहीं ही, कवियों ने देखा है. माँ-पिता के दांपत्य की अनेक निर्लेप झलक भी दिख जाती है यहाँ. केवल चित्रण के माध्यम से भाव को पंक्तियों में भरना कवि की अपनी शैली है. माँ को लेकर यह जिज्ञासा कि “क्या उसने पुनर्जन्म लिया होगा कहीं” उसके अपनी उस देह को छोड़ने से उपजी है जिसे घंटों कितने कोणों से आत्मरत निहारती थी. यह जिज्ञासा स्मरण को घनीभूत करती है. कवि के भीतर के उस शून्य को चित्रित करती है जिसकी गहन उदासी में ये छवियाँ कैद हैं. पिता की भाँति माँ को लेकर कुछ अधिक ही करुण पुकार में कविता समाप्त होती है. माँ की स्मृति का गाढ़ापन उसकी मृत्यु को भी अवास्तविक बना देता है. वह जैसे बाँहें पकड़कर पूछता है–

“तुम इतनी निष्ठुर कब से हुई माँ!
कि तुम्हें तनिक भी सुध नहीं कि मैं दो दिनों से तप रहा हूँ बुखार में !”

बेटियों को लेकर भी कई रचनाएँ हैं–’बेटियाँ’, ‘क्या बात है’, ‘मेरी तीन बेटियाँ’,’ओ मेरी प्यारी बिटिया’.इनमें उनके अनेक आत्मीय चित्र अंकित हैं. उन चित्रों में नाटकीयता का सौन्दर्य तो है ही और पिता के लगाव और उदार ममत्व के विस्तार की झलक भी है–

“बस कभी-कभी ये याद आती हैं
किसी उमस भरे मौसम में
या खाने की थाली में जब कोई स्वाद न हो”

उमस भरे मौसम में और बे स्वाद थाली होने पर बेटी की याद में जो सहजता और ताजगी है, वैसी ही ताजगी इन पंक्तियों में है–

“माँ एक बात और कहती थी
ये जंगली फूलों की तरह कहीं खिल जाती हैं.”

बेटियों के बहाने सामान्य स्त्री-जीवन का यह कठोर यथार्थ है.

सीधे जीवन संगिनी को न संबोधित होकर भी उसको ही संबोधित कुछ प्यारी कविताएँ इस संग्रह में हैं–’किसी सर्द मौसम में’, ‘तुम्हारे जाने के बाद’, ‘प्रतीक्षा’, ‘सुंदर होने के लिए’ और ‘तुम्हारे साथ’. इनमें कहीं वह जीवन-स्रोत-सी हैं–

“जैसे सब कुछ खत्म होने पर भी
धरती में रहती है इतनी आग
कि नदियाँ कभी बर्फ नहीं होतीं”

संग्रह की मुखर राजनीतिक कविताओं में कुछ सपाट कविताएँ भी हैं.

“लोकतंत्र से गायब था लोक सिर्फ दिखाने के दाँत भर रह गये थे
देश आकड़ों में बहुत खुशहाल और समृद्ध था.”

सपाटबयानी भी कविता हो सकती है. यहाँ भी है. पर जुमले और मुहावरे वही हैं. बासन अधिक घीसने से मुलम्मा उतर जाता है. व्यंजना का स्फोट नहीं है.

कुछ कविताएँ अपने समय के जन-संचार और मीडिया पर केंद्रित हैं जो व्यवस्था से एक-म-एक हो चुके हैं. अब उनके बयानों में सिर्फ सनसनी है या फिर फूहड़ विसंगति. किसी समय देश में आंतरिक असुरक्षा की डुगडुगी बजाकर सत्ता सशक्त हुई थी, आज वह दूसरी शक्ल अख़्तियार कर चुकी है. ‘प्रधान’ कविता को देखा जा सकता है. इन राजनीतिक कविताओं को पढ़ते हुए संग्रह में संकलित ‘उसका बयान’ का अर्थ खुलने लगता है, जहाँ कविता और सब्र खो चुकी औरत का बयान कवि को एक सा लगता है–

“कविता भी कभी-कभी बयान देने पर अड़ जाती है
तमाम आलोचकों को धत्ता बताते जैसे एक औरत के सब्र की बाँध टूटने लगे भरभराकर”

राजनीतिक कविताओं के चरित्र और उत्स पर यह उल्लेखनीय कविता है. ‘विरोध में खड़ी स्त्री’ से ‘बयान देती कविता’ की तुलना एक भाषा-प्रयोग ही नहीं काव्य-संसार के गहरे सत्य का उद्घाटन है. इस कड़ी की दो और उल्लेखनीय रचनाएँ हैं ‘इस वक्त’ और ‘कोरोना काल’. दोनों को एक साथ देखना अपेक्षित है. मुखर प्रतिरोध की रचनाओं से अलग इन रचनाओं की भूमि अधिक फैली और गहरी है–

“इस वक्त लकड़ी को दीमक खा रही है
और आदमी को चिंता
इस वक्त एक पेट में आग है
और एक जीभ में स्वाद”

समय की इस भयावहता के साथ ही मनुष्य जाति की नृशंसता और संवेदनशून्यता इसे और गहरा देती है. इन सबसे पृथक जमीन पर खड़ी कुछ कविताएँ हैं, जिनमें ‘कामगार बच्चे’, ‘दंगे’, ‘उस गली से गुजरते वक्त’ और ‘थोड़े समय के लिए’ की चर्चा अपेक्षित है. जीवन-स्वप्न और श्रम के अवमूल्यन पर ‘कामगर बच्चे’ एक सशक्त रचना है. कवि ने जिन उपमाओं से उन चित्रों में रंग भरा है वे अलंकृति से कहीं अधिक अर्थ और भाव को गहराने वाली है–

“जैसे कोई बाज एक नन्ही चिड़िया को दबोच ले”

आगे की पंक्तियाँ हैं-

“वे जा रहे हैं मुंह अँधेरे अपनी नींद से बेदखल कंकरीट के जंगलों की तरफ
इस बात से बेखबर कि एक क्रूर सभ्यता की लपलपाती जीभ उनकी प्रतीक्षा में है”

एक तिलिस्म-सा कवि ने रचा है, लेकिन यह सचमुच का संसार है. जैसे परीकथाओं में राक्षस छोटे बच्चों को फलों की तरह निगल जाते थे. समय बदला है, चरित्र नहीं. इस संदर्भ में एक बात और कि कविता से कविता जन्म लेती है. राजेश जोशी की कविता- ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ का प्रभाव इस कविता पर देखा जा सकता है. इसे अनुकृति नहीं बल्कि संवेदना का बहुआयामी विस्तार कहा जाना उचित है.

‘उस गली से गुजरते वक्त’ और ‘दंगे’ दोनों एक ही विषय पर रचे गये हैं. पहले में परिचित गलियों में संदेह और दहशत है. आदमी और आदमी के बीच की ये दीवारें सभ्य हो रही दुनिया की पहचान हैं. आने वाले समय में धर्म, जाति, राष्ट्र या ऐसे अनेक शब्द काम में लाये जाते रहेंगे कि मनुष्य अपनी सभ्यता के सभी दावों के बावजूद अपना आदिम अर्थ न खो दे.

संग्रह में यद्यपि घर/मकान को लेकर कई कविताएँ हैं और कुछ की पीछे चर्चा भी हुई है, किंतु ‘घर की बात’ और ‘मेरा घर’ कवि की स्मृतियों से लबालब भरा घर है-

“यह घर स्मृतियों का मकबरा है
हर कमरे से आती है स्मृति-गंध”

अंत में दो रचनाओं की बात करूँगा– एक ‘बातें अब भी गूँजती हैं’ और दूसरी ‘तुम्हारे शब्द’ की. पहली अपने गुरु की स्मृति में है. दीवार पर चढ़ती तरोई की हरी लत्तर की तरह उनकी स्मृति कवि के भीतर रची बसी है. दूसरी कविता मार्क्स के प्रति एक श्रद्धांजलि है. कवि के पूरे रचना-संसार में अनुस्यूत जीवन-दृष्टि और कालबोध में इस कविता की छाप देखना कठिन नहीं है. वस्तुतः मार्क्स हर उस बिंदु पर कवि के साथ मिल जाते हैं जहाँ वह धारा के विपरीत दरारों व दरकती जमीनों से नव अंकुर के पक्ष में खड़ा होता है–

“तुम्हारे शब्द अँधेरे की परतों को भेद
रोज-ब-रोज उगते और लहूलुहान होते हैं”

मार्क्स को याद करती इन पंक्तियों में यह देखना आसान होगा कि कवि के लिए मार्क्सवाद केवल एक राजनीतिक विचारपुंज नहीं, मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में लहूलुहान होकर भी बार-बार खड़ा होते जीवन-दर्शन का प्रकाश-स्तंभ है. वस्तुतः यह पूरा संग्रह आत्मालोचन की ज़मीन पर खड़ा है और हमसे वही माँग भी करता है. समकालीन जीवन-छवियों से साक्षात्कार कराती इन रचनाओं से गुजरने का एक आत्मीय सुख है. कवि को बधाई !

किराये का मकान
दया शंकर शरण
संस्करण-2022, मूल्य- 175 रूपये
रुद्रादित्य प्रकाशन, प्रयागराज (उत्तर-प्रदेश)

ब्रज नंदन किशोर
8409540436

Tags: 20222022 समीक्षादया शंकर शरण
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Comments 5

  1. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा आलेख। दया शंकर शरण जी को हार्दिक बधाई।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    3 years ago

    दया शंकर शरण के कविता संग्रह किराये का मकान पर ब्रज नंदन किशोर द्वारा लिखी गयी समीक्षा ने कविताओं को समझने की नयी दृष्टि दी है । बिना भावुक हुए नि:संग होकर लिखा है । कम-स-कम मुझ जैसे भावुक इन्सान को सँभलकर लिखने की सीख मिली है ।
    बेटी, पिता और माँ लिये लिखी गयी कविताओं की समीक्षा स्वर्णाक्षर हैं । ब्रज नंदन जी ने तीन पंक्तियों में कुछ इस प्रकार लिखा है कि इतना ख़ालीपन होने के बाद भी पृथ्वी पर ऊष्मा बची हुई है जिस कारण नदियों का जल नहीं जम सकता । आस-पड़ोस की ख़बर है । लिखी गयीं इतनी बातें मुझे याद नहीं रह पाती कि ज़्यादा कुछ लिख सकूँ । बस इतना ही कि अभिभूत हूँ । कवि और समीक्षक को बधाई ।
    अंत में प्रोफ़ेसर अरुण देव जी को स्नेह ।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    3 years ago

    शरण जी के बारे में आपकी टिप्पणी अचूक है। समालोचन के लगभग हरेक अंक पर वे अपनी टिप्पणी दर्ज करते हैं जो पठनीय होती है।

    Reply
  4. नेहल शाह says:
    3 years ago

    शरण जी का आकाश व्यापक और साफ है और किशोर जी का धरातल वृहद जिससे समीक्षा पढ़ने में बहुत ही रुचिकर लगी। कवि एवं समीक्षक को अनेक बधाई।

    समालोचन को साधुवाद!💐

    Reply
  5. कौशलेन्द्र says:
    3 years ago

    बहुत प्रतीक्षा थी दयाशंकर शरण सर की कविताओं पर इस आलेख की। सर बहुत सुंदर लिखते हैं, उनके पास अच्छा ज्ञान है साहित्य से संबंधित विषयों का, और अक्सर उनकी टिप्पणियों से हम लोगों तक पहुंचता रहता है। नए रचनाकारों को उचित मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन भी उनकी क़लम से मिलता रहता है। उनकी कविताओं में सुंदरता होने के साथ साथ अच्छे और विविध विषयों का चुनाव भी दिखता है।
    बहुत अच्छा आलेख ,एक अच्छे संग्रह पर। सर को बहुत बधाई🙏🙏

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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