रवि याज्ञिक रंग-निर्देशक थे और उन्होंने उत्पल दत्त के नाटकों ‘छायानट’ और ‘टीनेर तलवार’ की, अपनी नाट्य संस्था ‘लिटिल थियेटर ग्रुप’ की ओर से रंगमंच पर अनेक प्रस्तुतियाँ की थीं. अपने घर के छोटे से ड्राइंगरूम में वह उदास और उद्विग्न बैठे थे. उन्होंने रंगमंच के शौकीन इंजीनियर, डॉक्टर आदि विभिन्न पेशों से जुड़े कलाकारों की एक मण्डली बना रखी थी. यह मण्डली संध्या काल में या अवकाश के दिन प्रस्तुत किये जा रहे नाटक के रिहर्सल के लिये, एक खाली प्लाट में, जिसे उन्होंने किराये पर ले लिया था, एकत्रित होती. वहाँ उन्होंने एक अस्थायी मंच का निर्माण करा लिया था. दो दिन पहले प्लॉट के मालिक ने बिना कोई नोटिस या सूचना दिये वहाँ आग लगवा दी थी. उनका वह मंच अन्य उपकरणों के साथ स्वाहा हो गया था. दुखी रवि याज्ञिक हमें साथ ले उस प्लॉट पर गये जहाँ जला हुआ लकड़ी का भग्न और खण्डित मंच अपनी दुर्दशा बयान कर रहा था. हमेशा की तरह आज भी रवि याज्ञिक मंच पर पैर रखने से पहले धरती का स्पर्श करने और उसकी मिट्टी को माथे पर लगाते नमन करना न भूले.
उसी शाम रवि याज्ञिक के साथ उत्पल दत्त के घर जाने का कार्यक्रम बना. रविवार होने के अलावा कई बांग्ला फिल्मों की शूटिंग में व्यस्त होने से उनके बम्बई से घर आने की संभावना भी प्रबल थी. उत्पल दत्त के आने का कार्यक्रम स्थगित हो गया था. हमें निराशा हुई. दक्षिणी कलकत्ता के मध्यम वर्गीय साधारण घर की बैठक में उनकी पत्नी बड़ी किनारे वाली सादी सूती धोती पहने, धोबी को कपड़े गिनवाती हुई, डायरी में नोट करती, बांग्ला में उसे कुछ निर्देश दे रही थीं. चाय-बिस्किट-मूड़ी का नाश्ता कर हम वापिस लौटे. एक बार अपने बहुत अच्छे मित्र और सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार जितेन्द्र भाटिया से उत्पल दत्त पर चर्चा के दौरान मुझे यह जानकर सुखद विस्मय हुआ कि जितेन्द्र की हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान उत्पल उनके अंग्रेजी के अध्यापक हुआ करते थे और प्रायः कक्षा में बेतकल्लुफ़ सिगार सुलगा लिये करते थे. उन्होंने उत्पल दत्त से सम्बन्धित कई दिलचस्प किस्से भी सुनाये.
विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय का पैतृक गाँव ‘घोष पाड़ा’ अच्छा-खासा कस्बा बन गया था. लोकल ट्रेन से उनके यहाँ तक पहुँचने में तकरीबन डेढ़-दो घण्टे लगे. मैं संदिग्ध था कि बिना किसी अता-पता के उनके घर कैसे पहुँच पायेंगे. प्रियदर्शी पूर्णतया निश्चिन्त था. ‘‘तुम्हें बांग्ला समाज और संस्कृति का पता नहीं. विभूति बाबू जन-जन में व्याप्त हैं.’’
ऐसा ही हुआ. जिस पहले रिक्शे वाले से हमने विभूति बाबू के घर चलने को कहा उसने बिना किसी पूछताछ के हमें रिक्शा में बैठाया और अपना रिक्शा सीधे विभूति बाबू के घर के गेट के सामने रोका.
प्रांगण में विभूति बाबू की मूर्ति लगी थी. बांग्ला के इस कालजयी रचनाकार को हमने विनम्र प्रणाम किया. विभूति बाबू के पुत्र तारादास बंद्योपाध्याय से भेट हुई. वह भी बाल कहानियां लिखते थे जो खासी लोकप्रिय हो रही थीं. उनका सहज, आडम्बरहीन और विनम्र व्यक्तित्व विभूति बाबू की झलक दे रहा था. अपने लेटर पेड पर उन्होंने तत्काल हमें विभूति बाबू के कई प्रसिद्ध उपन्यास- ‘इच्छामति’, ‘आदर्श हिन्दू होटल’, ‘अशनि संकेत’ आदि के अनुवाद और प्रकाशन के अधिकार सौंप दिये.
प्रियदर्शी प्रकाश अपने सभी मित्रों- अवधनारायण सिंह, सकलदीप सिंह, शलभ श्रीराम सिंह, शम्भुनाथ, अक्षय उपाध्याय, अलख नारायण, कपिल आर्य से एक-एक कर मुलाकात करा रहे थे. सभी का आत्मीय और सहज व्यवहार मुझे अभिभूत कर गया. प्रियदर्शी ने स्वयं के लिये एक सामान्य-सी धर्मशाला में कमरे की व्यवस्था कर ली थी और मेरी सुविधा का ख्याल करते हुए, मुझे अपने मित्रों के हवाले कर दिया था. अक्षय उपाध्याय और शम्भुनाथ में मुझे अपने साथ टिकाने के पहले नौंक-झौंक हुई फिर परस्पर हाथापाई की नौबत तक आ गयी. कुछ रातें अक्षय उपाध्याय के बड़ा बाजार स्थित सुविधाप्रद बड़े घर में, एक रात शलभ श्रीराम सिंह के साथ शहर से दूर एक गाँव के उस घर में, जहाँ आसपास के गरीब घरों की लड़कियाँ अपने विवाह का दहेज इकट्ठा करने की जरूरत के चलते, देह व्यापार के लिये आया करती थीं.
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से कलकत्ता हिन्दी पढ़ाने के लिये आने वाले अध्यापकों की अच्छी-खासी तादाद थी. प्रायः वे बचत करने के उद्देश्य से दो-दो तीन-तीन के समूह में सोनागाछी (एशिया के सबसे बड़े रेड लाईट एरिया के रूप में जाने जाने के लिये विख्यात) के भीतर से गुजरने वाले उन क्षेत्रों में किराये के कमरे या घर लेकर रहते थे, जिनका किराया अन्य क्षेत्रों की तुलना में काफी सस्ता हुआ करता था. कपिल आये बेहद आग्रह के साथ रात्रि निवास के लिये अपने घर लिवा लाए. उनका कमरा ‘दुर्गाचरण मित्र स्ट्रीट’ पर था जिसका रास्ता सोनागाछी से होकर जाता था. ‘दुर्गाचरण मित्र स्ट्रीट’ को रिक्शेवाले एवं अन्य स्थानीय व्यक्ति ‘मधुबाला गली’ के नाम से भी पुकारा करते.
हुस्न के उस बाजार की तंग गलियों से गुजरते हुए, जिसके दोनों तरफ के घरों के चबूतरों पर चटख और शोख पोशाक पहने, और गहरे पाउडर-लिपस्टिक फाउण्डेशन से सजी लड़कियाँ मौन-क्रियाओं के इशारे करती, ग्राहकों को लुभा रही थीं, उनके बीच भद्र घरों की लड़कियाँ और महिलायें हाथ रिक्शाओं में सिर झुकाये निःशब्द गुजर रही थीं. उनके लिए अपने घर आने-जाने की अनिवार्यता इसी मार्ग से जुड़ी थी. कपिल आर्य के साथ पैदल चलते हुए हम दुर्गाचरण मित्र स्ट्रीट के उस घर तक आए जो इस गली का आखिरी मकान था. गली आगे बंद थी. सही अर्थ में इसे ‘बंद गली का आखिरी मकान’ (धर्मवीर भारती की एक सुप्रसिद्ध कहानी) कहा जा सकता था.
कपिल आर्य का कमरा ऊपरी मंजिल पर था. जीना जीर्ण-शीर्ण और दीवार पर हाथ लगते ही चूना और प्लास्टर भर-भर करता गिरने लगता. माचिस की रोशनी में रास्ता दिखाते कपिल ने कमरे का ताला खोला. कपिल रात्रि का भोजन सुबह बनाकर रख जाते थे. उन्होंने स्टोव जलाकर भोजन गरम किया. कपिल के अत्यधिक आग्रह के चलते मैंने तो भरपेट खाया लेकिन उस रात कपिल निश्चित अधपेट रह गए होंगे. कमरे में सिर्फ एक चारपाई थी जिस पर रात्रि-शयन के लिए मैंने कब्जा जमाया और कपिल जमीन पर चादर बिछा इत्मीनान से गहरी नींद में डूब गए. पूरी रात मेरी नींद में दूर से थप-थप और तबले के स्वर गूंजते रहे.
पहली बार मिलने के बावजूद शलभ श्रीराम सिंह जिस गर्मजोशी से आलिंगन बद्ध होकर मिले, लगा कि हम बरसों पुराने मित्र हैं जो एक अंतराल बाद मिल रहे हैं. शलभ श्रीराम सिंह वामपंथी सरोकारों से जुड़े थे और देशभर के वामपंथी आन्दोलनों में उनके ‘प्रयाण गीतों’ को तरजीह दी जाती थी.
‘‘आज रात का डिनर मेरी ओर से तुम्हारे कलकत्ता आने की खुशी में’’, कहने के साथ शलभ श्रीराम सिंह मेरा हाथ पकड़ प्रियदर्शी के साथ पार्क स्ट्रीट के एक महँगे बार में ले आए. हम दो-दो पेग ले चुके थे. कई व्यंजनों का आदेश दे शलभ बाथरूम की ओर चले गये.
प्रियदर्शी देर से व्यग्र और अनमना सा प्रतीत हो रहा था. शलभ के उठते ही वह फुसफुसाया, ‘‘जितना खा-पी सकते हो खा-पी लो. बिल आने के बाद बार के वेटर हमारी धुनाई करते सड़क पर फेंक रहे होंगे.’’ मैंने अचरज से उसकी ओर देखा. निश्चय ही वह शलभ श्रीराम सिंह के व्यक्तित्व से भली-भाँति परीचित था, इसी से आशंकित भी. प्रियदर्शी की चेतावनी के बाद शलभ श्रीराम सिंह के बार-बार आग्रह के बावजूद कितना भोजन गले के नीचे उतरता?
वेटर को बिल बनाने का आदेश दे शलभ बार के मेन्यू को अपने झोले के हवाले करता हँसा, ‘‘इसे शौक कहो या बुरी लत. मैं जब भी ऐसे महँगे बार में जाता हूँ, उसका मेन्यू अपने साथ ले आता हूँ.’’ शलभ उठकर काउण्टर तक गए और वहाँ से कोई फोन किया और इत्मीनान से आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए.
अधिक से अधिक पांच-सात मिनट बीते होंगे. एक लंबी, गौरवर्णा युवती आँखों पर फेशनेबल फ्रेम का बड़ा चश्मा पहने नमूदार हुई. एक नजर शलभ की ओर देखती अपना पर्स खोल बिल का भुगतान कर, उसी तरह फुर्ती से सीढ़ियाँ उतर गई.
‘खलासी टोला’ को सातवें-आठवें दशक की हिन्दी का कॉफी हाऊस (पहले ‘रीगल’ सिनेमा के पास, बाद में मोहन सिंह प्लेस की छत पर) समझा जा सकता था. फ़र्क सिर्फ इतना था कि दिल्ली के कॉफी हाउस में कॉफी पीते हुए लेखकों का जमवाड़ा होता, वहीं ‘खलासी टोला’ में देसी शराब यानी ठर्रा कुल्हड़ों में मिलता. बाँस की खपच्चियों से घिरा एक विशाल खुला मैदान. मूंगफली, प्याज और हरी मिर्च से महमहाते उबले चने, मूड़ी आदि बेचते किशोर बच्चों की टोलियाँ. इतना विशाल और खुला देसी शराब घर देश में कहीं और न होगा.
शाम होते-होते लेखकों का जमावड़ा पहले सेन्ट्रल एवेन्यू स्थित कॉफी हाउस में होता, फिर एक-दो घण्टे बाद लेखकों का एक बड़ा हिस्सा ‘खलासी टोला’ का रुख अख्तियार करता. रंगमंच और फिल्मी दुनिया से जुड़ी बड़ी शख्सियतें भी प्रायः यहाँ दिखाई दे जातीं. बांग्ला और हिन्दी भाषी सभी यहाँ पाये जाते. एक प्रकार से कलकत्ता की सांस्कृतिक हलचलों के रूप में भी इसे देखा जा सकता था.
यहीं मेरी सबसे पहली भेंट बांग्ला के उस समय के सबसे तेजस्वी रचनाकार समझे जाने वाले शक्ति चट्टोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय और सुविमल बसाक से हुई. अक्षय उपाध्याय ने जैसे ही मेरा शक्ति चट्टोपाध्याय से परिचय कराया, शक्ति चट्टोपाध्याय ने ‘‘यू हिन्दी राइटर… हिन्दी राइटर…’’ बड़बड़ाते गुस्से से मेरी कमीज का कालर पकड़ लिया और मुझे धकियाने पर उतारू हो गए. शक्ति नशे में बुरी तरह धुत थे. बमुश्किल मित्रों के बीचबचाव करते मेरी उनके हाथों से मुक्ति हुई. यहीं पहली बार दूर खड़े ऋत्विक घटक को देखा- लगातार बीड़ी फूंकते हुए- कृशकाय, गहरा साँवला रंग, धोती और कुर्ता पहने, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, पैरों में रबड़ की चप्पलें- भीड़ से घिरे हुए. दूसरी बार उन्हें निकट से देखा नेत्रासिंह रावत के साथ रीगल सिनेमा के समीप ‘इंडियन कॉफी हाऊस’ के बाहर रेलिंग से टिके अक्टूबर 1977 में, पहले की तरह बतियाते हुए, निरन्तर बीड़ी धौंकते हुए. ठीक वैसी ही वेशभूषा और पैरों में रबड़ की चप्पलें. नेत्रासिंह रावत से उनका यहीं मिलना तय हुआ था और नेत्रासिंह रावत ने मुझे भी अपने साथ ले लिया था.
‘‘दादा, आपसे एक बात पूछने की इच्छा बरसों से बनी है. ‘मेघे ढाका तारा’ के एक दृश्य के बारे में. ऊपरी मंजिल की रेलिंग से टिकी बड़ी बहन जब यह पाती है कि जिसे वह मन ही मन अत्यधिक चाहती है, वह उसकी छोटी बहन के साथ प्रेमालाप में निमग्न है- जब वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरती है तो पार्श्व संगीत से शरीर का रोम-रोम सिहर उठता है. दादा, वहाँ आपने किस वाद्य का स्तेमाल किया है?’’ नेत्रासिंह रावत ने पूछा.
‘‘चाबुक के हवा में फटकारने से उत्पन्न हुए स्वर का…’’ ऋत्विक घटक का यह उत्तर मुझे आज भी स्मरण है.
नेत्रासिंह रावत वार्तालाप करते शचिन देव बर्मन पर चले आए. उन्होंने फिल्म ‘बंदिनी’ में शचिन देव बर्मन के स्वयं के संगीत के साथ गाये यादगार गीत ‘ओ रे माँझी … अबकी बार ले चल पार… ले चल पार’ की प्रशंसा की, तो ऋत्विक घटक तनिक रोष से बोले, ‘‘हिन्दी फिल्मों ने शचिन की प्रतिभा का सत्यानाश कर दिया… बाजारू बना दिया. असली शचिन देखना हो, तो उसके बांग्ला में गाये गीतों और संगीत को देखो.’’ …फिर यकायक उन्होने उसी गीत को जो उन्होंने बांग्ला में गाया था, की पंक्तियाँ गुनगुनाते, आसपास के ट्रैफिक के शोर से बेखबर, गहरा आलाप भरा.
प्रियदर्शी प्रकाश को इतना प्रफुल्लित, स्वछंद और बातूनी पहली बार देखा. कलकत्ता उसकी धड़कनों में बसता था. यहाँ उसकी एक पहचान थी और उसकी तमाम बेहूदगियों, झूठों और मक्कारियों को दरकिनार करती मित्रों की आत्मीय दुनिया भी, जहाँ उसके सारे गुनाह माफ थे. …लेकिन यहाँ भूख थी, बेरोजगारी थी, पारिवारिक आर्थिक संकट और तनाव थे, विशेषकर उस व्यक्ति के लिये, जिसने लिखने-पढ़ने के अलावा आजीविका के लिये कोई अन्य मार्ग तलाशा ही न था. इतने बरस दिल्ली में रहने के बावजूद न बेदिल दिल्ली ने उसे अपनाया था और न दिल्ली को उसने. इस समय वह दिल्ली को भूल कलकत्ता में रमा था. हर शाम मुझे साथ लिए ‘खलासी टोला’ चला आता जहाँ तमाम दोस्त बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे होंगे. देर रात मुझे किसी मित्र के हवाले कर स्वयं अपनी उस सस्ती धर्मशाला में पनाह लेने चला जाता. देखते-देखते एक सप्ताह कब गुजर गया पता ही नहीं चला. वापसी का दिन नजदीक आ रहा था और अभी तक ‘हिन्दी बुक सेन्टर’ द्वारा दिए दायित्व की ओर वह कुछ नहीं कर पाया था. पास के पैसे फुरर्र होते जा रहे थे तो वह कुछ चिन्तित नजर आया.
‘‘अब कुछ करना होगा वरना ‘हिन्दी बुक सेन्टर’ मेरा जीना हराम कर देगा. तनख्वाह वैसे ही पूरी नहीं पड़ती अब उसमें कटौती अलग शुरू हो जायेगी’’, वह मुझे पहली बार फिक्रमंद नजर आया.
सबेरे-सबेरे प्रियदर्शी मुझे साथ लिए शलभ श्रीराम सिंह के घर पहुँचा. दस बरस बाद उसका दूसरा कविता संग्रह ‘अतिरिक्त पुरुष’ आया था, (जिसे उसने स्वयं प्रकाशित किया था) उसकी कोई प्रति घर में उपलब्ध नहीं थी. बाइण्डर के यहाँ से अभी उसने किताब उठायी नहीं थी.
‘‘मैं उसी ओर जा रहा हूँ. तुम एक पर्ची लिख दो. मैं रास्ते में बाइण्डर से ले लूँगा…’’ प्रियदर्शी ने कहा.
शलभ श्रीराम सिंह ने बाइण्डर को दो प्रतियाँ देने के निर्देश की पर्ची प्रियदर्शी को पकड़ा दी
बाइण्डर की दूकान में प्रवेश करने से पूर्व उसने दो की संख्या के आगे पाँच लिखा और बाइण्डर से पच्चीस प्रतियों का बण्डल बँधवा लिया.
‘‘शलभ को पता चलेगा तो वह नाराज होगा,’’ मैंने प्रियदर्शी से चिंतित स्वर में कहा, ‘‘अरे… बिल्कुल नहीं. उल्टे वह हँस देगा और दोस्तों को रस ले-लेकर बतायेगा कि कैसे प्रियदर्शी उसे चकमा दे गया.’’ प्रियदर्शी पूरी तरह सहज और निर्विकार था.
कन्हैयालाल सेठिया संपन्न मारवाड़ी व्यवसायी थे जो राजस्थान से आकर कलकत्ता बसे थे. राजस्थानी और हिन्दी में कविताएँ लिखा करते. राजस्थानी में प्रकाशित उनकी कविताएँ केन्द्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त कर चुकी थीं. अपने कविता संग्रह स्वयं प्रकाशित करते और मिलने-जुलने वालों को उदारतापूर्वक वितरित भी करते. दोपहर के समय जब हम उनके बंगले पर पहुँचे, वह बरामदे में से जुड़ी जंजीरों के सहारे सोफेनुमा झूले पर धीरे-धीरे झूलते हुए विश्राम कर रहे थे. उनका सेवक सबसे पहले स्वादिष्ट शर्बत लाया, फिर नाश्ते का सामान, फिर उनकी सद्यः प्रकाशित किताब की दो प्रतियाँ. सेठियाजी ने हस्ताक्षर कर किताबें हमें भेंट स्वरूप प्रदान की.
‘‘भाईजी, आपकी पहचान और कविताएँ कलकत्ता में ही सिमट कर रह जाती हैं, राजधानी के साहित्यिक-संसार को भी तो इसकी जानकारी होनी चाहिए. मैं दिल्ली के प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में इनकी समीक्षा की व्यवस्था करवाता हूँ. आप कविता-संग्रह की 25-30 प्रतियाँ मुझे सौंपने का कष्ट करें,’’
प्रियदर्शी ने विनम्रता और गम्भीरता से सेठिया जी से निवेदन किया.
सेठिया जी का सेवक उनकी किताब की पच्चीस-तीस प्रतियों का पैकेट प्रियदर्शी के पास रख गया
देखते-देखते सप्ताह कब बीत गया पता भी नहीं चला. रवानगी की तारीख आ गयी. ‘‘तुम प्लेटफार्म पर कम्पार्टमेंट के बाहर मेरी प्रतीक्षा करना, मैं कुछ जरूरी काम निपटा अभी कुछ देर में स्टेशन पहुँचता हूँ,’’ कहते हुए प्रियदर्शी ने आरक्षित टिकट, सामान और कुछ रुपये मुझे पकड़ा कर, रिक्शे में बैठा स्टेशन के लिये रवाना कर दिया.
ट्रेन छूटने में कुछ ही मिनट शेष रहें होंगे. मैं कम्पार्टमेंट के बाहर खड़ा व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा करने लगा. दूर-दूर तक उसका कोई चिन्ह मुझे दिखाई नहीं दे रहा था. ट्रेन की रवानगी की सीटी बज चुकी थी. ट्रेन ने खिसकना शुरु किया. उस समय वह हाँफता-भागता आया और अपने बैग को कम्पार्टमेंट में धकेल सीधा वाश बेसिन की ओर भागा. मैं खिन्न और गुस्से में भरा उसकी ओर देखता रहा वह अपनी सीट पर आकर बैठ गया. आसनसोल आने तक हमारे बीच कोई संवाद नहीं हुआ. वह सिर झुकाये एकदम चुप बैठा रहा. आसनसोल के आगे ट्रेन चली ही थी कि उसका मौन टूटा, ‘‘चप्पल उठाओ… जब तक मन करे मेरी पिटायी करते रहो. मैं इसी लायक हूँ… कलकत्ता मुझसे हमेशा के लिये छूट गया है,’’ कहते-कहते उसका रुद्ध गला आँसुओं में डूब गया.
‘प्रियदर्शी प्रकाश के बहाने कलकत्ता की याद’ पढ़ा। पढ़ कर कुछ समय तक हतप्रभ होकर सोचता रहा कि संस्मरण इतनी अद्भुत स्मरण शक्ति और बारीक दृष्टि से कैसे लिखे जाते होंगे? ऐसा आपका हर संस्मरण पढ़ते समय अनुभव किया फिर चाहे वह बाबा नागार्जुन पर था या लक्ष्मीधर मालवीय अथवा अमितेश्वर पर।
संस्मरण पढ़ते समय पाठक स्वयं उस चरित्र से जुड़ जाता है। यह ध्यान ही नहीं रहता कि वह सब हमें लेखक बता रहा है। लगता है, सब कुछ हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है। यह आपकी क़लम की बहुत बड़ी विशेषता है। इस क़लम को संभाल कर रखिएगा।
प्रियदर्शी प्रकाश की कहानियां उस दौर में हम भी पढ़ते थे लेकिन यह कल्पना नहीं की थी कि उनके जीवन में ऐसे विकट उतार-चढ़ाव रहे होंगे। एक व्यक्ति का पूरा जीवन आपने जीवंत कर दिया।
-देवेन्द्र मेवाड़ी, शहर दिल्ली से
कैसे कैसे लोगों ने यह पतवार थामी है! सबको सलाम!!
यह तो अद्भुत है।कलकत्ता का होने
के नाते कुछ अधिक सराह सका।
छेदीलाल गुप्त से अच्छा परिचय था।मानिक मेरे आत्मीय मित्र है।मेरा पहला कविता संग्रह ‘कविता संभव ‘उन्होंने ही प्रकाशित किया।प्रियदर्शी प्रकाश का प्रेम मुझे भी मिला।मै भी हिन्दी बुक सेन्टर जाया करता था।पर उनके बारे मे यह सब नही जानता था।
अशोक जी को बधाई।
मेरे बड़े भाई रामनारायण शुक्ल की
कहानियाँ तीन खंडों मे छापी ।अब अनुपलब्ध।संभावना से ।मेरा भी
संग्रह छायाओं और अन्य कहानियां।
वे सच्चे साहित्य व्यसनी हैं।
यादों से घिर गया हूं।
शुभकामनाएं।
दिल नहीं भरा…
अशोक की नज़र,कथ्य पर पकड़ और तरल निर्वाह का जवाब नहीं।अपुन पुराने आशिक़ हैं और कभी नाउम्मीद नहीं हुए।
बहुत अद्भुत। पढ़ते हुए ऐसा लग रहा था जैसे कोई फ़िल्म देख रहा हूं और लगभग सभी पात्रों से परिचित हूं। सौभाग्य से संस्मरण में आये बहुत से नामों से परिचय है और साथ ही बहुत से सवालों के अनायास ही जबाब भी मिल गए। आपका तो कैसे शुक्रिया करें अरुण जी। खुश कित्ता सर जी।
एक सांस में पढ़ गया. जीवन के विविध रंगों के बीच नियति मनुष्य के लिए कैसी कैसी कहानियां रचती है.
यादगार संस्मरण
यह भी इतिहास लेखन है।महत्वपूर्ण ।
साहित्य का समाज हर लेखक और पाठक और साहित्यसहचर से मिल कर बनता है।
Kitna itihas hamaaree jankari ke bahar rah gaya…
आत्मीय संस्मरण। यह सिर्फ एक महानगर नहीं देश का दिल भी है। यह शहर खींचता है अपने मानवीय गंध और स्पर्श से जो अन्यत्र (महानगरों में) महसूस नहीं होते। वहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक हलचलों और उस माहौल में बुर्जुआ मानसिकता के प्रति हिकारत भरी दृष्टि इस शहर को एक अलग पहचान देती है।यहाँ आम आदमी की कद्र है।पैसे की धाक कम है।थोड़ी बहुत मनुष्यता यहाँ अब भी बची है। इन सबका एहसास इससे गुजरते हुए हआ। यह एक उपलब्धि रही।सभी को शुभकामनाएँ !
यह एक ऐसा संस्मरण है जो अभिभूत करता है, झकझोरता है और परेशान भी करता है। इसके केंद्र में सिर्फ एक शख्सियत नहीं, एक पूरी पीढ़ी है जो प्रियदर्शी प्रकाश की ही तरह अपने दुस्वप्नों, संघर्षों और महत्वाकांक्षाओं से जूझ रही थी। मुझे यह बात खास तौर पर पसंद आई कि अशोक ने इसे नैतिक चौखटों से बाहर रखा है। अफसोस कि प्रियदर्शी प्रकाश साहित्य की दुनिया में अपने लिए वह जगह नहीं बना सका जो उसके आसपास के लेखक बना पाए।
बहुत सुंदर एवम मार्मिक संस्मरण । गजब का आदमी है प्रियदर्शी प्रकाश ।अशोक अग्रवाल भी । इतना सुंदर संस्मरण ,इतना डूबकर लिखा हुआ बहुत कम पढ़ने को मिलता है।बधाई अशोक अग्रवाल और ’समालोचन’ को।
प्रियदर्शी के बहाने अशोक जी ने कोलकाता और वहाँ के हिन्दी बांग्ला साहित्यकारों का जीवंत परिचय प्रस्तुत कर दिया है। यह सातवें आठवें दशक का सांस्कृतिक इतिहास है जिसे उस समय के संस्कृति कर्मी निष्ठा पूर्वक बना रहे थे। इसे हमारी आंखों के सामने पुनःसृजित करने के लिए अशोक भाई और समालोचन बधाई के पात्र हैं। – – हरिमोहन शर्मा
अशोक जी ने जिस तरह लेखकों के निजी जीवन में आनेवाली अनेकानेक समस्याओं का जीवंत चित्रण किया है,वह काबिले तारीफ है।
इस दिलचस्प सर्जनात्मक संस्मरण के लिए उन्हें साधुवाद।
झकझोर कर परेशान करने वाला संस्मरण। सचमुच। अशोक अग्रवाल जी ने, अरुण देव द्वारा सही अर्थ में चिह्नित , साहित्य, हिंदी साहित्य के तलघर की कैसी तस्वीर खींची है!अशोक जी की क़लम वाकई अनोखी है, ज्यादातर रुलाने वाली।
Only a professional swimmer can take you deep inside to let you feel the treasure hidden there. Likewise Ashok is such a skilled writer, through whom you can travel and enjoy virtually only by reading his brilliant memoirs on writers, places and things. His style and he himself always induces others to read and write, I know that being his local friend.
कलकत्ते का जीवंत चेहरा ,स्मृतियाँ ,लेखकीय जीवन की विडंबनाएँ -सब कुछ आँखों के सामने- जिसका माध्यम बनी है अशोक अग्रवाल की सहज भाषा .संस्मरण कला का बेहतरीन नमूना .साधुवाद अशोक जी और समालोचन !
अशोक अग्रवाल के संस्मरण सचमुच एक भूली बिसरी किन्तु बेहद जीवंत और दिलचस्प जीवन शैली की सुगंध लिए हुए हैं।जिन दिनों के कलकत्ते की याद उन्होंने की है,वे सचमुच वैसे ही थे।शलभ,कपिल तो मेरे दोस्तों में थे ही,कपिल से अभी कल ही बात हुई,छेदीलाल जी,सकलदीपसिंहआदि तो जा चुके हैं।चौंसठ से सत्तर बहत्तर तक मेरी भी यही दुनिया थी।उन्यासी के बाद शलभ मेरे पास आकर विदिशा रहने लगा और तिरानबे तक रहा।फिर हम दोनों अलग रहनेलगे।था वह वैसे ही जैसा अशोक ने लिखा है।अशोक ने सब कुछ तरोताज़ा और जीवंत करके परोस दिया है।