कुमार अम्बुज की कुछ नई कविताएँ
1.
पराकाष्ठा
क्रूरता का चरम है
जब सब कुछ खँडहर हो जाता है
उजाड़ दिया जाता है सब कुछ
तो एक आदमी आकर कहता है
अब हम विजयी हुए.
2.
तारीख़
अन्याय बिना तारीख़ लगाए रोज़ होता है
न्याय के लिए लगाई जाती है तारीख़
तब पता चलता है
वह तारीख़ दरअसल
बचे-खुचे अन्याय के लिए लगाई गई थी.
3.
वजह
(कुरोसावा की फ़िल्म से गुज़रते हुए)
मुँह मत मोड़ो
यह ग़रीब की नहीं
ग़रीबी की दुर्गंध है
और ग़रीबी
सामाजिक नहीं
एक राजनीतिक मुश्किल है
अब सूँघो
यह ग़रीबी की नहीं
राजनीति की दुर्गंध है
मुँह मत मोड़ो.
4.
असाध्य
मेरे पास तुम्हारे लिए
सिर्फ़ मेरा यह प्रेम है
जो भटकता रहता है
रोज़मर्रा की गलियों में
जो शिकायत नहीं करता
कोई सबूत नहीं देता
बस, कभी-कभार
इधर-उधर की बात करता है
चहकता है फिर थक जाता है
और सुस्त पड़ा रहता है
प्रेम में ही.
5.
तकलीफ़
तुम्हें एक फूल का नाम देता हूँ
फिर उसे देखता हूँ झरते हुए.
6.
व्यवधान
तुम जब भी यहाँ आते हो
जैसे यह याद दिलाने के लिए
कि तुम अभी इसी संसार में हो
लेकिन हमारे लिए नहीं
तुम्हारे बिना रह सकने की
बनती जा रही हमारी आदत में
तुम्हारा आना एक व्यवधान है
कि अब फिर से शुरू करना होगा
तुम्हारे बिना रहना
तुम्हें देखकर ख़ुशी होती है
लेकिन वह याद दिलाती है
कि तुम हो और
हम अकेले हैं.

7.
ऋतुभंग
हर ऋतु मुझे पीड़ा देती है
मैं अपनी पीड़ा से पहचानता हूँ ऋतुएँ
पसीना ख़ून बारिश और ओस को
उनके गिरने के ढंग से समझ लेता हूँ
कि अभी जीवित हूँ किस ऋतु में
और किस में छूट सकते हैं प्राण
यह सब इतना अद्वैत है
कि लोग मुझे देखकर पुकार लेते हैं
ऋतुओं के नाम
मगर बदलता जा रहा है पर्यावरण
हो रहा है जीवन में ऋतुभंग
शिशिर के दुख मिलते हैं बसंत में
हेमंत के वर्षाकाल में
ग्रीष्म की पीड़ा का पसीना बहकर
मिल जाता है शरद की चाँदनी में
धीरे-धीरे बिला रहे हैं भरोसे के संकेत
ऋतुओं का यह कोई नया एल्गोरिदम.
8.
अफ़वाह
तुम साबित नहीं कर सकते अपना होना
न जन्म तारीख़ से, न अपनी परछाईं से
बताया जाएगा यह तारीख़ पंचांग में नहीं
और तुम्हारी परछाईं तो एक काटे जा चुके वृक्ष की है
तुम न अपनी हँसी से अपना होना सिद्ध कर सकते हो
न हिचकियों से और न अपने लगाए गुलमोहर से
न अपनी पेंटिंग या शहनाई से
न कविता से
आसमान की तरफ़ उँगली उठाने से क्या होगा
तुम्हें इसी धरती पर अपने घर का पता बताना है
तुम कैसे साबित करोगे अपना जन्म स्थान
वह तो कोई लाक्षागृह था द्वेषाग्नि में जल गया
वह डूब गया ख़ून के पोखर में
मर चुके अपने माता-पिता से भी तुम
कुछ प्रमाणित नहीं कर सकते
वे किसी ख़सरा खतौनी में किसी रजिस्टर में नहीं
वे किसी अवैध जगह में अलिखित लीज़ पर रहते थे
जैसे तुम इतने सारे रहते हो
तुम सोचते हो कि तुम चीख़कर कुछ जता सकते हो
लेकिन अगले दिन ख़बरों में प्रसारित होगा
वह एक टिटहरी की चीख़ थी
दुख में काँपती आवाज़ की गवाही
यों भी किसी राजकाज में मानी नहीं गई
तुम्हारे रहने चलने के जो निशान हैं
उनके ऊपर से दैत्याकार मशीन गुज़र जाएगी
उन पर नई सड़क नई इमारत बन जाएगी
तब भी अगर कोई बताएगा तुम थे इसी दुनिया में
तो कहा जाएगा यह अफ़वाह है
ग़लत इतिहास है
तुम बस इसी उम्मीद पर ज़ारी रख सकते हो अपना काम
कि भले जीवित रहते साबित न कर सको अपना होना
मगर तुम इस संसार में हमेशा एक सच्चे झूठ की तरह
एक अफ़वाह की तरह बने रहोगे.
9.
याचिका
श्रीमान! मुझे नशे की तरह लत है
किताब पढ़ते हुए सोने की
वरना हाज़मा ठीक नहीं रहता
और अच्छी तरह नींद नहीं आती
हालाँकि इससे दूसरे को कोई ख़तरा नहीं है
लेकिन इधर नया नियम आया है इसलिए आवेदन है
कि मुझे तीन-चार दिन में एक के हिसाब से
साल भर में सौ सवा सौ किताबें पढ़ने का लाइसेंस दिया जाए
और अब सड़सठ की उम्र में चार-पाँच हज़ार किताबों का
घर में होना गुनाह न माना जाए
चाहें तो सूची बनाकर दे सकता हूँ
इनमें से आप ही बता दें क़ानूनन
कौन-सी किताबें घर में रखना मुनासिब नहीं
लेकिन सहानुभूतिपर्वूक इस पर भी विचार किया जाए
कि जितनी मैं पढ़ चुका हूँ उनकी ज़ब्ती कैसे करेंगे श्रीमान
और मुक़दमा चलाने से पहले यह भी बताया जाए
कि वे कौन सी किताबें हैं
जो बाज़ार में मिल सकती हैं ऑनलाइन भी
जो देश प्रदेश के दूसरे हिस्सों में हो सकती हैं
मगर मेरे घर में नहीं
अलावा आसपास ऐसे लोग भी हैं
जो चलती-फिरती किताबों की तरह हैं
जिनसे मेरी रोज़ाना की मुलाक़ातें हैं
श्रुति परंपरा रही इसलिए कई कविताओं
कहानियों का सार-संक्षेप भी है स्मृति में
अगर यह स्वीकारोक्ति अपराध जैसी लगे
तो निवेदन है- दंडानुसार मुझे जहाँ भेजना चाहते हैं
वहाँ किताबें भी दी जाएँ ऊपर बताए हिसाब से
मगर आप ये कुछ ज़ब्तशुदा किताबें पढ़ेंगे
तो श्रीमान के संज्ञान में आ ही जाएगा
कि फ़ालतू नशे उतारने का यह ऐसा नशा है
कि इसे नशा कहना, बस एक मुहावरा है.
10.
सुखद आश्चर्य
टिकट प्रयागराज का था
लेकिन पहुँचकर देखा आसपास
ली गहरी साँस कि अरे,
यह तो है अपना इलाहाबाद
आजकल ऐसा कुछ हो सकता है बारम्बार
कि टिकट पर हो किसी अटपटी जगह का नाम
लेकिन आप पहुँच जाएँ मुग़लसराय
या अपने ही घर होशंगाबाद.
11.
एक पत्र
इधर हालात ऐसे हैं अगर किसी से पूछो
क्या आप कोई कट्टरपंथी हैं
तो वह संतोषपूर्वक गर्वीला कहता है कि हाँ हूँ
और इसके लिए मैंने बचपन से मेहनत की है
यही था मेरा सपना इसी पर दसवीं कक्षा में
लिखकर आया था निबंध
अगर किसी आरोपी से पूछो
क्या तुमने लोगों को मारा है
तो वह वीडियो दिखाता है कहता है- हाँ
लेकिन मारा नहीं वध किया है
और यह जितना साहस का काम है
उससे ज़्यादा आस्था का
इधर कोई नहीं कहता मैं कवि पत्रकार शिक्षक चित्रकार
लेखक या संगीतज्ञ बनना चाहता हूँ
सब गर्वीले कहते हैं कि स्नातक स्नातकोत्तर
पीएचडी करने के बाद वे बनना चाहते हैं आततायी
या चाहते हैं किसी उच्चतर आततायी की नौकरी
यही तरीक़ा है सुख से जीवन जीने का
यही रह गया है भरोसे का रोज़गार
जो ऐसा नहीं चाहते वे सब
नज़रबंद हैं या एकदम चुप
या यकायक लापता
अब इधर जिससे भी पूछो उसका नाम
तो वह पहले जाति बताता है
कहता है नाम में क्या रखा है
सारी पहचान सारी सुरक्षा सारी शक्ति
सारी एकता सिमट आई है जाति में
सारी आफ़त सारा प्रेम सारी घृणा
सारा झंझट जाति से है
इस तरफ़ जातिविहीन आदमी की कोई प्रजाति नहीं
यहाँ जिसकी कोई जाति नहीं वह पूरा नागरिक नहीं
अगर है तो इस महादेश के भूगोल में नहीं
स्मृति में नहीं, परंपरा में नहीं
उसका कोई भविष्य नहीं
बस वह कभी-कभार किसी नाशुक्रे के मक़्ते में है
तख़ल्लुस में है मगर पहचान-पत्र में नहीं.

12.
आरती
यह नदी थी हमारे बचपन की
अब संसार की सबसे लंबी सीवर लाइन है
समुद्र तक खिंची हुई और खुली
दो मील दूर से आती है इसमें से उठती दुर्गंध
हवा इधर की चल रही हो तो चार मील दूर से
इसमें पवित्र अपवित्र सब कुछ गिरता है
और इसके तल में जमा सभ्यता के
गाद में मिलकर गाद हो जाता है
चाँदनी इसमें गिरकर धुँधली पड़ जाती है
तारों की परछाइयाँ खो देती हैं चमक
बीच-बीच में घोषणाएँ याद दिलाती हैं
कीचड़ से कीचड़ साफ़ नहीं किया जा सकता
यह इसी तरह बनी रहती है
दुर्गंधमय और पूजनीय एक साथ
हमारे अवशिष्ट की मोक्षदायिनी
बह रही है
या सूख रही है
हे माँ!
13.
शृंखला
इस तरह तुम अकेले नहीं मर सकते
साथ में वह मरेगा जिसने तुम्हें मरते देखा
संदेहास्पद वह भी मरेगा जिसने तुम्हें मरते नहीं देखा
परिजन रिश्तेदार दोस्त जो दुख मनाएँगे मरेंगे
वे जो तुम्हारे मरते ही मर गए आधे-अधूरे पूरे मरेंगे
वे तारे टूटकर मरेंगे जिनके नीचे खुले में तुम मरे
सहकर्मी सहयात्री सहपाठी मरेंगे जो बता सकते हैं तुम कैसे मरे
पोस्टमार्टम करनेवाला मरेगा फोरेंसिक प्रमुख मरेगा
जाँच अधिकारी मरेगा गवाह वकील न्यायाधीश मरेगा
वे सब मरेंगे जो जानते हैं कि तुम क्यों मरे
गाँधी के तीनों बंदर मरेंगे कुछ यूट्यूबर फेसबुकिए मरेंगे
वीडियो बनाया जिसने वीडियो चढ़ाया जिसने शेयर किया मरेगा
इस युग में तुम यों ही अकेले नहीं मर सकते
जो लिखेगा मरेगा पत्रकार कथाकार कवि मरेगा
शख़्स जो पूछेगा कैसे मरा वह मरेगा
जो मोमबत्ती जलाएगा मरेगा
जिसने हेल्प नंबर डायल किया मरेगा
लड़की मरेगी जो उस वक़्त फ़ुटपाथ से गुज़र रही थी
पार्क में खेल रहा बच्चा और शूटर मरेगा
जिसने तुम्हें सबसे आख़िर में खाना परोसा वेटर मरेगा
दीवार पर लिखा तुम्हारा सुभाषित मरेगा
फिर तुम्हारी किताबें तुम्हारी साइकिल तुम्हारा मकान
तुम्हारी व्हील चेयर मरेगी और तुम्हारी डीपी मरेगी
वे झाड़ियाँ और फूल मरेंगे जिन पर तुम मरते समय गिर गए
ईमान मरेगा विधान मरेगा एक स्वप्न मरेगा
उपदेशक मरेगा समाज सुधारक वैज्ञानिक मरेगा
जो याचिका दायर करेगा मरेगा व्हिसल ब्लोअर मरेगा
जिसे तुमने और जिसने तुम्हें किया प्रेम मरेगा
और कोई इसलिए कि यह सब देखकर क्यों नहीं मरा
मरेगा.
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कुमार अम्बुज लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं. किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित. ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com |




अर्थपूर्ण कविताएं
तुम्हें एक फूल का नाम देता हूँ
फिर उसे देखता हूँ झरते हुए.
हमेशा की तरह बहुत अर्थपूर्ण और मारक कविताएं हैं। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ अंबुज जी को। समालोचन का आभार।
Very thoughtful poems that express the reality of the present time and the world.
हिन्दी बुद्धिजीवी डरे हुए हैं। और इस डर के माहौल में इस तरह की कविताएँ लिखी जा रही हैं, यह महत्वपूर्ण है। एक जमाने में हिन्दी लेखकों में दुचित्तापन पाया जाता था लेकिन समकालीन हिन्दी की दुनिया में कुमार अम्बुज जैसे कुछ थोड़े से लेखक हैं जो “ख़तरनाक ताक़त” से टकरा रहे हैं।
कविता मे प्रतिरोध की भीड़ में कुमार अंबुज सर आज के उन गिने चुने कवियों में हैं जिनके प्रतिरोध में कविता है।ये ऐसी कविताएं है जिनमें साफ विज़न, साहस और कला का सौंदर्य समन्वित है।
वर्तमान के सबसे अच्छे कवि है कुमार अम्बुज। नमन।
वाह बिना नींद आए पढ़ लीं । कुसुमाग्रज पुरस्कार मिलने की बधाई । किसी रोज़ नोबेल समिति को पता चलेगा ज़रूर । जानबूझ कर ज़रूर बाद में लिखा । नोबेल समिति की compass ने गुना का रुख़ नहीं किया । अन्यथा कुमार अंबुज को कभी का साहित्य में मिल जाता । कहीं यहाँ के केंद्रीय निज़ाम की दाढ़ी के सफ़ेद बाल बादल बनकर उनकी आँखों को ढक तो नहीं लिया ।
सुंगध रोके से नहीं रुकती । वे अपनी देरी के लिए पछताएँगे । सुन रहे हो ना नोबेल ।
करबद्ध निवेदन है कि यह पुरस्कार वगैरह की बात करके जाने-अनजाने अतिवाद न करें, प्रियवर।
आपका प्रेम पर्याप्त है।
ये ‘न्यू नाॅर्मल’ के शोर में दबा दी गई आवाज़ों, उसके द्वारा आमंत्रित भीड़ से बहिष्कृत लोगों और उसकी प्रायोजित प्रश्नावली से हटा दिए गए सवालों; सार्वजनिकता में कटौती और उसकी घटती तौल; ऊपर से आने वाले किसी फ़ैसले की घोषणा तक जीवित नागरिकता और रियायत के तौर पर जीती मनुष्यता की कविताएं हैं।
चूंकि ये उन सत्यों की भी कविताएं हैं जिन्हें दूर की कौड़ी कहकर ख़ारिज किया गया था, इसलिए, ये चालाक चुप्पियों, अनकहे समझौतों और आत्मरतियों के प्रतिरोध की कविताएं भी हैं।
कुमार अंबुज की ये कविताएं हमारे दौर की घायल नागरिकता और कातर मनुष्यता का हाथ थाम कर उनके अकेलेपन को दूर करती हैं।
आज इस अंक में अपने प्रिय कवि की कविताओं को पढ़ने का अनुभव मनुष्य होने के नाते कई ज़िम्मेदारियों के अनुभव होने की तरह रहा।
कृतज्ञता कुमार अंबुज जी के प्रति
ऐसी आँच भरी
विचार तपी
आत्मा को खंगालने वाली
और
मनुष्यता से तर कविताएं हमें देने के लिए।
प्रेम की कविताएं भी आपने इस संचयन में शामिल की, यह सुखद लगा। ऐसा होने से इस अंक की व्याप्ति और फैल गयी।
मुँह मत मोडो
कविता आविष्कारपरक लग रही है। राजनीति ज़िम्मेदार है ग़रीबी के लिए। यह सच्चाई कविता में आते ही नवीन आयाम प्रकट करती लग रही।
पराकाष्ठा कविता में
उस आदमी में पहले तो अशोक की ही स्मृति हुई। उसके बाद कितने ही तानाशाहों के चेहरे सामने आते गए।
तकलीफ़ और असाध्य जैसी प्रेम कविताएँ भी उसी कवि ने लिखी है जिसने एक पत्र और श्रृंखला लिखी है, यह देख कवि के अंतःकरण और उसकी व्याप्ति के असीम का पता चलता है।
ऋतुभङ्ग कविता बहुत नये ढंग से व्यक्त हुई है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ऋतुएँ बदल रही है। यह राजनीतिक नज़रिए से या सामाजिक नज़रिए से देखें तो यह warming मनुष्य के जीवन में भी घटित हो रही है। मनुष्य भी ऋतु का पर्याय है।। मनुष्य को ऋतु के नाम से पहचाना जा रहा कितनी अनोखी बात है।
याचिका कविता
व्यंग्य के लहज़े में बहुत कारुणिक एकालाप बन गयी है। कवि की फिल्हाल यह कल्पना है, मगर हालात ऐसे हैं कि इसे वास्तविक होते देर शायद न लगे। किताबों के बारे में बहुत नये ढंग से सोचा गया है। कितने चलते फिरते, जीते जागते व्यक्ति हैं जो स्वयं कई किताबों की तरह हैं, उनसे भी ख़तरा है। यहाँ तक पहुंचना कविता की पराकाष्ठा है।
सुखद आश्चर्य
कविता को पढ़कर ऐसा लगा कि उसने बात तो उठाई लेकिन पाठक की अपेक्षा कुछ अधिक की थी।
एक पत्र और श्रृंखला कविताएं आज के समय समाज का निर्भीकता से किया गया सच्चा चित्रण है।
आरती कविता
प्रकृति पर्यावरण की ओर संवेदित करती है।
साधुवाद कवि को। ज्वलंतता है सभी कविताओं में। अंबुज जी जानी पहचानी भोगी हुई अनुभूतियों को अपनी काव्य संवेदना से कुछ यूँ अभिव्यक्त कर देते हैं कि उसमें नयापन महसूस होता है, जो कभी आविष्कार की तरह भी लगता है।
कुमार अंबुज की कविताएँ मानव सभ्यता की सार्वभौमिक बेचैनी की कविताएँ हैं।
वे “साहित्यिक प्रतिरोध” के सबसे ऊँचे रूप का प्रतिनिधित्व करती हैं — जहाँ कविता शोर नहीं करती आज सच सामने रख देती हैं!!
पहले से ज़्यादा शार्प भाषा, बारीक़ इशारियत और यथार्थ को अधिक धारण कर सकने वाला काव्य-कौशल। रूप और यथार्थ के मीज़ान की तनी हुयी रस्सी पर नट-सन्तुलन जैसी कविताई।
वजह, असाध्य, ऋतुभंग, अफ़वाह, शृंखलाबद्ध सुखद आश्चर्य, आरती …… ठहर ठहर कर पढ़ा। कुछ कविताएं उनके अनुनाद उनकी गूंज तक पहुंचने की मांग करती हैं। राजनीतिक कथन पकड़ में आ जाता है, जब वह सामने रखा हो, संवेदना में कहीं झलमलाता हुआ मनुष्य मन दिखता भले देर में हो, दूर तक साथ रहता है। कविताओं को प्रतिरोध की कविता कह देना सरल है, पर प्रतिरोध जो भाषा में नहीं दिखता, अंतःकरण में कहीं चमकता है। मैं अपने समय के बड़े कवि की नई कविताओं के साथ हूं , यह भी एक बड़ा अहसास है। मैं इनमें वे कविताएं चुन पा रहा हूं, जिनका स्वर भले मद्धम लगे पर गूंज लम्बी है।
आपकी कविताओं को पढ़कर यह एहसास होता है की कविता में कविता की आत्मा जिंदा है जो समकालीन यथार्थवाद और मानवीय संवेदनाओं में व्यक्त होती हैं।
संक्षिप्त, संश्लिष्ट और बेधड़क कविताएं। अम्बुज जी को पढ़ना हमेशा ही समृद्ध होना है। उन्हें मेरा नमस्कार और समालोचन को धन्यवाद पहुंचे।
कुमार अंबुज की कविताएं हमेशा की तरह शानदार हैं।ये कविताएं अलग अलग भावभूमि की होकर भी समग्र रूप में समकालीन परिदृश्य के उन स्याह अंधेरों की तरफ इशारा करती हैं जो जबरन सामने लाकर रख दिया गया है।सारी चकाचौंध और सारा अंधकार एक साथ गड्ड-मड्ड है। कुछ कविताएं तो देर तक साथ रहने वाली हैं।
मार्मिक व्यंजनापूर्ण बहुत अच्छी कवितायें। कुमार अम्बुज ने इन कविताओं में अपने समकाल को रचा है।
क्रूरता का चरम है
जब सब कुछ खँडहर हो जाता है
उजाड़ दिया जाता है सब कुछ
तो एक आदमी आकर कहता है
अब हम विजयी हुए.
इस क्रूर समय में आपकी कविताएं मौजू हैं. ये कविता पढ़ते ही ग़ज़ा आँखों आँख झिलमिलाने लगा. विजय निश्चित रूप से क्रूरता का पर्याय ही है🌱 साफ़ सीधी समझ आने वाली कविताएं. बदलती ऋतुओं की पीड़ा बहुत स्पष्ट है जितना स्पष्ट है मौसमों के बदलने पीछे की कहानी. हमारे शहर इलाहाबाद नाम बदलने के बावजूद हमारे दिल में धड़कता है🌱इतनी अच्छी कविताएं, अंबुज जी को दिल से धन्यवाद!
सुंदर और रोकने वाली कविताएं। इनमें जो हिंसा दर्ज हुई है, वह तंत्र जनित तो है लेकिन उससे बाहर फैली हुई है। इसका डॉक्यूमेंटेशन, थ्योराइजेशन दोनों बहुत कठिन है। बारीकी का एहसास भी हमारे समय में कम है। इस लिहाज से इन कविताओं को बारंबार देखना चाहिए।
कुमार अंबुज समय के सबसे सचेतन कवियों में हैं। मानवीय संवेदनाओं , दैनिक जीवन की विह्वलताओं, वेदनाकुल ज़िंदगियों की करुण पुकार और राजनीतिक कुटिलताओं से उपजी विडंबनाओं को वे जिस निपुणता से काव्य में ढालते हैं, वह अद्वितीय है। न शब्द स्फीति और न भाव शैथिल्य। उनकी कविताएं जीवंतता की ऐसी प्रतिमूर्ति हैं, जिनमें असीम तन्मयता और निरलंकारिकता का विपुल सौंदर्यबोध है। हालांकि उन्हें प्रसिद्ध पुरस्कार मिला है; लेकिन मुझे लगता है कि हिन्दी संसार में कुछ ही कवि हैं, जो पुरस्कारों से ऊपर हैं। उनके कुमार अंबुज भी एक हैं।
ताजादम कविताओं में यह शक्ति है कि वे हमारे अंदर थमे विचारों में हलचल कर सकतीं हैं. इनके केंद्र में प्रतिरोध और प्रेम प्रकारांतर से उपस्थित है. हर रचना अपने प्रस्थान बिंदु से ही हमें अपने बहाव में साथ ले लेती है और वहां ले जाकर छोडती है जहाँ संवेदना का उत्स होता है. कुछ भी व्याख्या अधूरी लगती है. मुझे गूंगे को गुड़ का मुहावरा याद आ रहा है. अभी बस फिर और ज्यादा संग रहना चाहता हूँ इन कविताओं के पाठ के भीतर. मुझे संग रहने लेने दो ऐ समय,कुमार अंबुज के इस रचे संसार के.
अगर किसी आरोपी से पूछो
क्या तुमने लोगों को मारा है
तो वह वीडियो दिखाया है कहता है-हां
लेकिन मारा नहीं वध किया हैं
और यह जितना साहस का काम है
उससे ज्यादा आस्था का
ये अद्भुत पंक्तियां हैं कुमार अम्बुज की कविता एक पत्र की। कुमार अम्बुज की ये कविताएं बेहद बेचैन करने वाली, अत्यंत विचलित करने वाली हैं। इस क्रूर आपराधिक समय और समाज में वाकई हम कितने लाचार और बेबस है, इसका मार्मिक बयान करती ये कविताएं यह बताती हैं कि समकालीन कविता में कुमार अम्बुज का काव्य विषय, जादुई भाषा, ट्रीटमेंट क्यों बेहद महत्वपूर्ण, संवेदनशील और सबसे अलग है।
अपने समय और जीवन में धंसी कविताएं, उस विद्रूप सत्य का उत्खनन करती हैं जिन्हें वास्तव में सच नहीं होना चाहिए। सुन्दर धरती पर सबसे कुरूप षड़यंत्र रचे जाते हैं इंसानों के लिए, इंसानों के द्वारा।
अफ़वाहें जीना दूभर कर देती हैं एक वर्ग विशेष का। मनुष्यता को बेदख़ल करने की साज़िशों को कवि निरस्त या परास्त नहीं कर सकता लेकिन व्यक्त कर सकता है अपनी भाषा,भाव, विचार और संवेदना में।
कुमार अंबुज जी की कविताओं ने ये काम बख़ूबी किया है।
बधाई।
आभार अरुण जी।
सुंदर कविताएं हैं, प्रभाव में बेधक , चेतना को अलक्षित को देखने को निर्दिष्ट करती हुईं।
भय और हिंसा से भरे वातावरण में जीवन के पक्ष में खड़ी ये कविताएं बहुत कम आवाज़ करती हैं लेकिन जेहन में देर तक गूंजती है।
बहुत दिनों बाद देख रहा हूं बंधु कुमार अम्बुज की नयी कविताएं। वे छोटी कविताएं कम लिखते हैं, लेकिन यहां जो छोटी कविताएं प्रकाशित हैं वे मुझे बहुत प्रभावशाली लगीं।
इनमें कुछ नये जीवन संकेत हैं। उन्हें बधाई और शुभकामनाएं।
हीरालाल नागर
बहुत देर तक साथ रहेंगी ठहर जाएंगी कविताएं …
हमारे समय का दस्तावेज है यह कविताएं. बहुत अच्छी कविताएं. आभारी हूँ.
ये कविताएँ अद्भुत हैं. ये हमारे दौर के भय को सही समझने में मदद करती हैं. पूरे परिदृश्य में व्याप्त भय और खतरों के स्वरुप को ठीक से समझ पाना कितना कठिन होता जा रहा है!! कविताएं मांग करतीं हैं कि उन्हें समझा जाए.