
भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ लता मंगेशकर
कुमार गन्धर्व
बरसों पहले की बात है. मैं बीमार था. उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा. स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं. यह स्वर सीधे मेरे कलेजे से जा भिड़ा. मैं तो हैरान हो गया. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्वर किसका है. मैं तन्मयता से सुनता ही रहा. गाना समाप्त होते ही गायिका का नाम घोषित किया गया- लता मंगेशकर. नाम सुनते ही मैं चकित हो गया. मन-ही-मन एक संगति पाने का भी अनुभव हुआ. सुप्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी एक दूसरा स्वरूप लिए उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज़ में सुनने का अनुभव हुआ.
मुझे लगता है ‘बरसात’ के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था. तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ. लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना ज़माना था. परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई. कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दीख पड़ते हैं. जैसे प्रसिद्ध सितारिये विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत ही आगे चले गए.
मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं. लता के कारण चित्रपट संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, यही नहीं लोगों का शास्त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्टिकोण भी एकदम बदला है. छोटी बात कहूँगा. पहले भी घर-घर छोटे बच्चे गाया करते थे पर उस गाने में और आजकल घरों में सुनाई देने वाले बच्चों के गाने में बड़ा अंतर हो गया है. आजकल के नन्हे- मुन्ने भी स्वर में गुनगुनाते हैं. क्या लता इस जादू का कारण नहीं है? कोकिला का स्वर निरंतर कानों में पड़ने लगे तो कोई भी सुनने वाला उसका अनुकरण करने का प्रयत्न करेगा. ये स्वाभाविक ही है. चित्रपट संगीत के कारण सुंदर स्वर मालिकाएँ[1] लोगों के कानों पर पड़ रही हैं. संगीत के विविध प्रकारों से उनका परिचय हो रहा है. उनका स्वर-ज्ञान बढ़ रहा है. सुरीलापन क्या है, इसकी समझ भी उन्हें होती जा रही है. तरह-तरह की लय के भी प्रकार उन्हें सुनाई पड़ने लगे हैं और आकारयुक्त लय के साथ उनकी जान-पहचान होती जा रही है. साधारण प्रकार के लोगों को भी उसकी सूक्ष्मता समझ में आने लगी है. इन सबका श्रेय लता को ही है. इस प्रकार उसने नयी पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया है और सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में बड़ा हाथ बँटाया है. संगीत की लोकप्रियता, उसका प्रसार और अभिरुचि के विकास का श्रेय लता को ही देना पड़ेगा.
सामान्य श्रोता को अगर आज लता की ध्वनिमुद्रिका[2] और शास्त्रीय गायकी[3] की ध्वनिमुद्रिका सुनाई जाए तो वह लता की ध्वनिमुद्रिका ही पसंद करेगा. गाना कौन से राग में गाया गया और ताल कौन-सा था, यह शास्त्रीय ब्योरा इस आदमी को सहसा मालूम नहीं रहता. उसे इससे कोई मतलब नहीं कि राग मालकोस[4] था और ताल त्रिताल[5]. उसे तो चाहिए वह मिठास, जो उसे मस्त कर दे, जिसका वह अनुभव कर सके और यह स्वाभाविक ही है. क्योंकि जिस प्रकार मनुष्यता हो तो वह मनुष्य है, वैसे ही ‘गानपन’[6] हो तो वह संगीत है. और लता का कोई भी गाना लीजिए तो उसमें शत-प्रतिशत यह ‘गानपन’ मौजूद मिलेगा.
लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह ‘गानपन’ ही है. लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता. उसके पहले की पार्श्व गायिका नूरजहाँ भी एक अच्छी गायिका थी, इसमें संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दीखता था. लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है. ऐसा दीखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है. हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया. मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता.
लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार. उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक दूसरे में मिल जाते हैं. यह बात पैदा करना बड़ा कठिन है, परंतु लता के साथ यह बात अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है.
ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे खुद यह बात नहीं पटती. मेरा अपना मत है कि लता ने करुण रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है. बजाए इसके, मुग्ध शृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय[7] के गाने लता ने बड़ी उत्कटता से गाए हैं. मेरी दृष्टि से उसके गायन में एक और कमी है, तथापि यह कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना. लता का गाना सामान्यतः ऊँची पट्टी[8] में रहता है. गाने में संगीत दिग्दर्शक उसे अधिकाधिक ऊँची पट्टी में गवाते हैं और उसे अकारण ही चिलवाते हैं.
एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शास्त्रीय संगीत में लता का स्थान कौन-सा है. मेरे मत से यह प्रश्न खुद ही प्रयोजनहीन है. उसका कारण यह है कि शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में तुलना हो ही नहीं सकती. जहाँ गंभीरता शास्त्रीय संगीत का स्थायीभाव है वहीं जलदलय[9] और चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है. चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है. चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग किया जाता है. उसकी लयकारी बिलकुल अलग होती है, आसान होती है. यहाँ गीत और आघात को ज्यादा महत्व दिया जाता है. सुलभता और लोच[10] को अग्र स्थान दिया जाता है, तथापि चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और वह लता के पास निःसंशय है. तीन-साढे़ तीन मिनट के गाए हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध खानदानी शास्त्रीय गायक की तीन-साढ़े तीन घंटे की महफ़िल, इन दोनों का कलात्मक और आनंदात्मक मूल्य एक ही है, ऐसा मैं मानता हूँ.
किसी उत्तम लेखक का कोई विस्तृत लेख जीवन के रहस्य का विशद् रूप में वर्णन करता है तो वही रहस्य छोटे से सुभाषित का या नन्ही-सी कहावत में सुंदरता और परिपूर्णता से प्रकट हुआ भी दृष्टिगोचर होता है. उसी प्रकार तीन घंटों की रंगदार महफ़िल का सारा रस लता की तीन मिनट की ध्वनिमुद्रिका में आस्वादित किया जा सकता है. उसका एक-एक गाना एक संपूर्ण कलाकृति होता है. स्वर, लय, शब्दार्थ का वहाँ त्रिवेणी संगम होता है और महफ़िल की बेहोशी उसमें समाई रहती है. वैसे देखा जाए तो शास्त्रीय संगीत क्या और चित्रपट संगीत क्या, अंत में रसिक को आनंद देने की सामर्थ्य किस गाने में कितना है, इस पर उसका महत्व ठहराना उचित है. मैं तो कहूँगा कि शास्त्रीय संगीत भी रंजक न हो, तो बिलकुल ही नीरस ठहरेगा. अनाकर्षक प्रतीत होगा और उसमें कुछ कमी-सी प्रतीत होगी.
गाने में जो गानपन प्राप्त होता है, वह केवल शास्त्रीय बैठक के पक्केपन की वजह से ताल सुर के निर्दोष ज्ञान के कारण नहीं. गाने की सारी मिठास, सारी ताकत उसकी रंजकता प्राचीन वाद्ययंत्र पर मुख्यतः अवलंबित रहती है और रंजकता का मर्म रसिक वर्ग के समक्ष कैसे प्रस्तुत किया जाए, किस रीति से उसकी बैठक बिठाई जाए और श्रोताओं से कैसे सुसंवाद साधा जाए, इसमें समाविष्ट है. किसी मनुष्य का अस्थिपंजर और एक प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा उसी मनुष्य का तैलचित्र[11], इन दोनों में जो अंतर होगा वही गायन के शास्त्रीय ज्ञान और उसकी स्वरों द्वारा की गई सुसंगत अभिव्यक्ति में होगा. संगीत के क्षेत्र में लता का स्थान अव्वल दर्जे के खानदानी गायक के समान ही मानना पडे़गा. क्या लता तीन घंटों की महफ़िल जमा सकती है, ऐसा संशय व्यक्त करने वालों से मुझे भी एक प्रश्न पूछना है, क्या कोई पहली श्रेणी का गायक तीन मिनट की अवधि में चित्रपट का कोई गाना उसकी इतनी कुशलता और रसोत्कटता से गा सकेगा? नहीं, यही उस प्रश्न का उत्तर उन्हें देना पड़ेगा? खानदानी गवैयों का ऐसा भी दावा है कि चित्रपट संगीत के कारण लोगों की अभिरुचि बिगड़ गई है. चित्रपट संगीत ने लोगों के ‘कान बिगाड़ दिए’ ऐसा आरोप लगाया जाता है. पर मैं समझता हूँ कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान खराब नहीं किए हैं, उलटे सुधार दिए हैं. ये विचार पहले ही व्यक्त किए हैं और उनकी पुनरुक्ति नहीं करूँगा.
सच बात तो यह है कि हमारे शास्त्रीय गायक बड़ी आत्म संतुष्ट वृत्ति के हैं. संगीत के क्षेत्र में उन्होंने अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है. शास्त्रीयता के कर्मकांड को उन्होंने आवश्यकता से अधिक महत्व दे रखा है. मगर चित्रपट संगीत द्वारा लोगों की अभिजात्य संगीत से जान-पहचान होने लगी है. उनकी चिकित्सक और चौकस वृत्ति अब बढ़ती जा रही है. केवल शास्त्रीयता और नीरस गाना उन्हें नहीं चाहिए, उन्हें तो सुरीला और भावपूर्ण गाना चाहिए. और यह क्रांति चित्रपट संगीत ही लाया है. चित्रपट संगीत समाज की संगीत विषयक अभिरुचि में प्रभावशाली मोड़ लाया है. चित्रपट संगीत की लचकदारी उसका एक और सामर्थ्य है, ऐसा मुझे लगता है. उस संगीत की मान्यताएँ, मर्यादाएँ, झंझटें सब कुछ निराली हैं.
चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है. यहाँ नवनिर्मित की बहुत गुंजाइश है. जैसा शास्त्रीय रागदारी का चित्रपट संगीत दिग्दर्शकों ने उपयोग किया, उसी प्रकार राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली, प्रदेश के लोकगीतों के भंडार को भी उन्होंने खूब लूटा है, यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए. धूप का कौतुक करने वाले पंजाबी लोकगीत, रूक्ष और निर्जल राजस्थान में पर्जन्य[12] की याद दिलाने वाले गीत पहाड़ों की घाटियों, खोरों में प्रतिध्वनित होने वाले पहाड़ी गीत, ऋतु चक्र समझाने वाले और खेती के विविध कामों का हिसाब लेने वाले कृषिगीत और ब्रजभूमि में समाविष्ट सहज मधुर गीतों का अतिशय मार्मिक व रसानुकूल उपयोग चित्रपट क्षेत्र के प्रभावी संगीत दिग्दर्शकों ने किया है और आगे भी करते रहेंगे. थोड़े में कहूँ तो संगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण है. वहाँ अब तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्रांत है तथापि बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं. फलस्वरूप चित्रपट संगीत दिनों दिन अधिकाधिक विकसित होता जा रहा है.
ऐसे इस चित्रपट संगीत क्षेत्र की लता अनभिषिक्त[13] सम्राज्ञी है. और भी कई पार्श्व गायक-गायिकाएँ हैं, पर लता की लोकप्रियता इन सभी से कहीं अधिक है. उसकी लोकप्रियता के शिखर का स्थान अचल है. बीते अनेक वर्षों से वह गाती आ रही है और फिर भी उसकी लोकप्रियता अबाधित है. लगभग आधी शताब्दी तक जन-मन पर सतत प्रभुत्व रखना आसान नहीं है. ज्यादा क्या कहूँ, एक राग भी हमेशा टिका नहीं रहता. भारत के कोने-कोने में लता का गाना जा पहुँचे, यही नहीं परदेस में भी उसका गाना सुनकर लोग पागल हो उठें, यह क्या चमत्कार नहीं है? और यह चमत्कार हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं.
ऐसा कलाकार शताब्दियों में शायद एक ही पैदा होता है. ऐसा कलाकार आज हम सभी के बीच है, उसे अपनी आँखों के सामने घूमता- फिरता देख पा रहे हैं.
कितना बड़ा है हमारा भाग्य!
(लता की गायकी के 25 वर्ष पूर्ण होने पर कुमार गन्धर्व ने ‘अभिजात कलावती’ नाम से मराठी में यह लेख लिख था जिसे धर्मयुग में हिंदी में छापा गया था.)
सन्दर्भ
[1] स्वरों के क्रमबद्ध समूह. स्वर मालिका में बोल (शब्द) नहीं होते.
[2] स्वरलिपि.
[3] जिसमें गायन को कुछ निर्धारित नियमों के अंदर ही गाया-बजाया जाता है. खयाल, ध्रुपद, धमार आदि शास्त्रीय गायकी के अंतर्गत आते हैं.
[4] भैरवी थाट का राग, जिसमें रे और प वर्जित हैं. इसमें सारे स्वर कोमल लगते हैं. यह गंभीर प्रकृति का लोकप्रिय राग है.
[5] यह सोलह मात्राओं का ताल है. इसमें चार-चार मात्राओं के चार विभाग होते हैं.
[6] गाने का ऐसा अंदाज़ जो एक आम आदमी को भी भाव विभोर कर दे.
[7] लय तीन प्रकार की होती है, १- विलंबित लय (धीमी) २-मध्यलय (बीच की) ३- द्रुतलय (तेज़) मध्यलय से दुगुनी और विलंबित लय से चौगुनी तेज़ लय द्रुत लय कहलाती है.
[8] ऊँचे (तार सप्तक के) स्वरों का प्रयोग
[9] द्रुत लय (तेज़)
[10] स्वरों का बारीक मनोरंजक प्रयोग
[11] जिस चित्र में तैलीय रंगों का प्रयोग किया जाता है.
[12] बादल
[13] बेताज़



वर्षा गीत ने मुझे भिगो दिया । खूब लिखा है खोपकर जी । कहने को लोग वसंत को सर्वश्रेष्ठ मौसम मानते है लेकिन जो लोग मूल सृजन में यकीन करते है ,उनका मत वर्षा के पक्ष में पड़ेगा । कुमार में लोक और शास्त्र का आसव अपने गायन में प्रस्तुत किया है । मैंने कबीर को देखा सुना नही है लेकिन कुमार गंधर्व कबीर के पदों का गायन करते है तो यह शिकायत दूर हो जाती है ।
संगीत की समझ न रखने वाली मुझ जैसों को जो गीतवर्षा सुनने को विकल कर दे उसके लेखक, अरुण खोपकर, को मुझ जैसे अज्ञानी की बधाई का भी क्या अर्थ है? कुमार गंधर्व को सुनती तो रही हूं पर उनकी मौलिकता अब कुछ कुछ समझ में आई।
यह विस्तृत आलेख अपूर्व और अद्भुत तरीक़े से लिखा गया है।
गहरी समझ के साथ। उसके संगीत के साथ। इसे पढ़ना एक संगीत सभा से साक्षात होना है।
मुझ जैसा अनाड़ी भी पढ़ते हुए रस से सराबोर हो गया। बधाई। खोपकर जी के साथ-साथ आप सब को।
मैने गीतवर्षा सुनी। Aldous Huxley का उपन्यास point counterpoint याद आ गया। उसमें एक नास्तिक को एक पात्र यह कह कर घर बुलाता है कि उसे वह ईश्वर के होने का सबूत देगा। जब वह पहुंचता है तो उसका मित्र, जो एक संगीतज्ञ होता है, उसे कोई संगीत सुनाता है। Huxley ने उस संगीत का ऐसा वर्णन किया है कि वह सुनाई देने लगता है। अभिभूत नास्तिक स्तंभित और आत्मविस्मृत सुनता ही रह जाता है। उसे लगता है कि ईश्वर के निकट पहुंच गया है। उपन्यास पढ़े तीस बरस से ऊपर हो गए लेकिन यह प्रसंग मुझे याद है। अंत का प्रसंग है। हो सकता है कि कोई बारीकी मुझसे छूट रही हो। Huxley तो बाद विवाद के महारथी थे और यह उपन्यास उनकी दार्शनिक सोच का बेहतरीन नमूना है।
मुझे ईश्वर के दर्शन तो नहीं हुए, उपासना का भी मन नहीं किया, लेकिन आत्मविस्मृति महसूस हुई।
आपका और अरुण खोपकर का शुक्रिया
कुमार गंधर्व पर इससे पहले इससे अच्छा नहीं पढ़ा था
गीतवर्षा के माध्यम से कुमार गन्धर्व की गायकी पर इस सुविस्तारित आलेख के लिए अरुण खोपकर जी को साधुवाद।