‘जायसी’
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‘नयी कविता’ के कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही की ‘जायसी’ नामक पुस्तक उनकी सबसे अधिक लोकप्रिय रचना है. इसका कारण है, जायसी को नए ढंग से पढ़ने की वह दृष्टि जो आचार्य शुक्ल आदि से टकराते हुए आलोचना का भिन्न धरातल निर्मित करती है. रूढ़ हो चुके जायसी संबंधी विमर्श को यह कृति बदलने और नया अर्थ देने में सफल होती है. आज अकादमिक दुनिया का कोई छात्र-अध्यापक साही की इस कृति से गुजरे बिना जायसी संबंधी अपनी समझ को अद्यतन नहीं मानता. किसी भी आलोचक की यह बड़ी उपलब्धि है. इसे जायसी संबंधी चिंतन का ‘पैरॅडाइम शिफ्ट’ कहा जा सकता है.
‘नयी कविता’ के किसी भी आलोचक के पास ‘रचनात्मक आलोचना’ की ‘जायसी’ सरीखी पुस्तक नहीं है. साही का जायसी जैसे मध्यकालीन कवि को आधुनिक ज़मीन पर खड़ा करने का यह प्रयास इतना रचनात्मक और नया है कि जायसी पढ़ने-पढ़ानेवाले किसी भी अध्येता के लिए यह एक ज़रूरी संदर्भ है. रामचंद्र शुक्ल के बाद जायसी पर बहुत कुछ लिखा गया. दर्जनों शोध हुए, आलोचना की पुस्तकें आईं, लेकिन शुक्ल जी के बाद जायसी की आलोचना की जो ज़रूरी पुस्तक बनी वह साही की ‘जायसी’ ही है. एक मध्यकालीन कवि की सर्जनात्मक प्रतिमा को प्रकाशित करने वाली यह कृति रचनात्मक आलोचना का श्रेष्ठ उदाहरण बनती है. इसके लिए साही कई वर्षों तक ‘जायसीमय’ बने रहे, यह उनके साथी और कवि जगदीश गुप्त कहते हैं.
साही मानते थे कि ‘अच्छे साहित्य के अस्वादन के लिए विचारधारा से सहमत होना ज़रूरी नहीं है.’ अपनी इसी मान्यता के आधार पर वे जायसी के व्यक्तित्व पर सूफीमत की पड़ी हुई चादर को हटाते हैं और उन्हें ‘हिंदी का पहला विधिवत कवि’ घोषित करते हैं. साही का सारा आलोचनात्मक प्रयत्न जायसी की सर्जनात्मक प्रतिभा की ख़ोज है. वे उन्हें ‘सूफी’ नहीं, ‘कवि’ मानते हैं. जायसी मध्यकालीन कविता में संभवतः अकेले हैं जो अपने को ‘कवि’ कहते हैं- ‘मुहम्मद कवि जो प्रेम का’. अपने को ‘कवि’ मानने का दावा उस काल में प्रायः कोई नहीं करता, सभी अपने को संत-भक्त ही मानते हैं. तुलसीदास ने तो साफ़ कहा: ‘कवित विवेक एक नहीं मोरे’.
साही मध्यकाल के उस जायसी की खोज करते हैं जो अपने को सूफी नहीं ‘कवि’ कहता है. उनका कथन है:
“यह कहना कि पद्मावत एक सूफी ग्रंथ है, एक बात है. यह कहना कि पद्मावत में सूफीमत या सूफी मतों के तत्त्व हैं और वे तत्त्व कथा के प्रधान अंश हैं, दूसरी बात है.”
इन दोनों प्रचलित धारणाओं से अलग एक तीसरी क्षीण धारा की भी चर्चा वे करते हैं. वह तीसरी क्षीण धारा कहती है कि ‘पद्मावत के सूफी तत्वों को प्रधानता नहीं देनी चाहिए.’ साही तीसरी धारणा के साथ हैं. (पृ. 49-50) वे मानते हैं:
“जायसी के व्यक्तित्व और उनकी कृति पद्मावत के चारों ओर सूफीवाद का इतना मलबा इकठ्ठा हो गया है कि कवि और उसकी कविता का साक्षात्कार करने के लिए सूफीवाद की इस लगभग बद्धमूल धारणाओं की कुछ विस्तार से उधेड़-बुन ज़रूरी है.” (पृ. 49)
आगे उन्होंने विस्तार से हिंदुस्तान में सूफीमत और उसके प्रचारकों की भूमिका की पड़ताल की है, इस्लाम के प्रचार-प्रसार में सूफ़ियों की भूमिका का ज़िक्र किया है. कई स्रोतों के हवाले से उन्होंने बताया है कि हिंदुस्तान में सूफीमत का जो प्रचलित नैरेटिव है, वह ग़लत है, सही तस्वीर दूसरी है. इस प्रसंग में उन्होंने खुसरो और जायसी की मनोभूमि की भी यात्रा की है. सूफी खुसरो के दो रूप हैं. एक क्रूरतापूर्वक इस्लाम के प्रचार पर ख़ुश होने वाला और दूसरा प्रेम के गीत गाने वाला. अमीर खुसरो के इस्लाम की जीत पर ख़ुशी के कई उदाहरण उन्होंने ने दिए हैं. एक प्रसंग गुजरात के पट्टन विजय के उपरांत सोमनाथ मंदिर के ध्वंस पर लिखे गए खुसरो के वृतांत का है, जो इस प्रकार है:
“इस प्रकार सोमनाथ के मंदिर को मक्का की ओर झुकाया गया और जिस प्रकार पहले मंदिर ने सिर नवाया और बाद में समुद्र में जा गिरा, आप कह सकते हैं कि पहले उसने नमाज़ पढ़ी और बाद में स्नान किया. ….ऐसा दारुलकुफ्र, अर्थात कुफ्र का देश जो काफिरों का तीर्थ था, अब इस्लाम का मदीना हो गया ….. कुफ्र के इस पुराने देश में अज़ान की आवाज़ इतनी ऊँची उठी कि बगदाद और मदीना तक सुनाई पड़ने लगी …… इस्लाम की तलवार ने देश को उसी तरह शुद्ध कर दिया जिस तरह सूरज पृथ्वी को शुद्ध कर देता है.” (पृ. 54)
इस तरह की और कई घटनाओं का वर्णन साही ने किया है. वे एक जगह यह लिखते हैं:
“अमीर खुसरो ने रणथम्भौर की विजय का भी उल्लेख किया है. इस वर्णन का मुहावरा भी इसी तरह कट्टर साम्प्रदायिक काफ़िर हिन्दू बनाम पवित्र इस्लाम का है. रणथम्भौर में किला टूटने के समय जौहर हुआ था. चूँकि जौहर का ज़िक्र जायसी ने पद्मावत के अंत में चित्तौड़ के संबंध में किया है, अतः खुसरो के वर्णन का कुछ अंश तुलनीय है.”
खुसरो के वर्णन का जो अंश साही ने प्रस्तुत किया है उससे पता चलता है कि वह कितना प्रसन्न है. उसकी प्रसन्नता का राज़ यह है कि रणथम्भौर
“ईश्वर की मर्ज़ी से दारुल-कुफ्र से दारुल-इस्लाम बन गया.”
वहीं “चित्तौड़ किले के टूटने और जौहर का उल्लेख जायसी ने पद्मावत के अंत में इस दोहे से किया है:
जौहर भई इस्तिरी पुरुख भये संग्राम I
पातसाही गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम I”
जौहर की दोनों घटनाओं- रणथम्भौर और चित्तौड़- पर खुसरो और जायसी के अंतर को स्पष्ट करते हुए साही ने लिखा है,
‘जायसी के दोहे में अमीर खुसरो के शेर की स्मृति है लेकिन दोनों की मनःस्थिति में भारी अंतर है. खुसरो काफिरों के खून से धुलकर पृथ्वी को पाक होता देखता है और उल्लसित होकर इस साम्राज्यवादी सत्ता-संघर्ष को इस्लाम की विजय मानता है. जौहर करती हुयीं स्त्रियों के अनार की तरह कठोर स्तन ही उसे दीखते हैं. इसके विपरीत, जायसी उड़ती हुई दो मुट्ठी राख की तरह इस पृथ्वी विजय को झूठा देखते हैं और उनकी आवाज़ में ट्रेजेडी,व्यंग्य और एक गहरे विषाद का समिश्रण है जो जायसी के इस्लाम और अलाउददीन में गंभीर अंतर की अनुभूति प्रस्तुत करता है.” (पृ. 55)
साही ने इसी के साथ खुसरो की ‘खून का स्वाद लेनेवाली शैली’ के और भी उदाहरण प्रस्तुत किए हैं.
साही मुसलमान और मुसलमान में फर्क करते हैं- अमीर खुसरो और जायसी उनकी नज़र में एक ही तरह के मुसलमान नहीं हैं. समाजवादी नेता और विचारक राममनोहर लोहिया भी सभी मुसलमानों को एक ही मानने के विरोधी थे. वे महमूद गजनी, गोरी, अलाउद्दीन, बाबर आदि को ‘लुटेरा’ कहते थे, जब कि वे शेरशाह, जायसी और अकबर जैसे मुसलमानों को अपना ‘पूर्वज’ मानते थे. अमीर खुसरो और जायसी का जो अंतर साही प्रस्तुत करते हैं, उसमें लोहिया के चिंतन का प्रभाव स्पष्ट है.
निष्कर्ष यह कि साही सूफी मत और सूफियों की भूमिका भारत में वैसी नहीं मानते जैसी बाहर के हवाले से कही जाती है. जायसी जैसे कवि को सूफी मानने वाली प्रचलित धारणा, जिससे हिंदी आलोचना आक्रांत है, का वे खंडन करते हैं और उस कवि को पढ़ने पर जोर देते हैं जो ‘ट्रेजेडी, व्यंग्य और गहरे विषाद’ का बेजोड़ कवि है. इसी के साथ साही ने उस रूपक को भी प्रक्षिप्त घोषित किया है जिसके आधार पर ग्रियर्सन और शुक्ल जी समेत अधिकांश आलोचकों ने ‘पद्मावत’ को सूफी काव्य परंपरा में रख कर देखा है और जायसी को सूफी कवि मान लिया है. साही के जायसी संबंधी विमर्श में अधिक जोर इस प्रचलित धारणा के खंडन पर है. वे लिखते हैं:
“ ………… सूफीवादी धारणा की शुरुआत ग्रियर्सन ने की. इस वक्तव्य को थोड़ा संशोधित करके और पीछे ले जाना होगा. सूफीवाद के चौखटे में कसने का प्रयास करनेवाला शायद पहला आदमी वह नामालूम व्यक्ति था जिसने पद्मावत में वह प्रसिद्ध क्षेपक जोड़ा जिसके अनुसार चित्तौड़ तन है, राजा मन है, नागमती दुनिया धंधा है, आदि-आदि. इस क्षेपक के अनुसार पद्मावत की पूरी कथा या बड़े पैमाने पर अन्योक्ति हो गयी और यह क्षेपक उस रूपक की कुंजी. इस क्षेपक को प्रामाणिक पाठ मानने की विवशता ग्रियर्सन और शुक्लजी, दोनों के सामने थी. उनके दृष्टि-भ्रम में इस क्षेपक की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थी. एक तरफ़ वे यह भी देखते हैं कि कुंजी पूरी तरह कथा में बैठती नहीं थी, दूसरी तरफ़ वे कुंजी क्षेपक को अनदेखा भी नहीं कर सकते थे.” (पृ. 49)
हालाँकि शुक्लजी ने ‘जायसी ग्रंथावली’ के उपसंहार में इस क्षेपक को रखा है, लेकिन इसके प्रभाव से वे भी बचे नहीं है. वह क्षेपक है:
तन चितउर, मन राजा कीन्हा I हिय-सिंघल, बुधि-पद्मिन चीन्हा II
गुरु सुआ जेई पंथ देखावा Iबिन गुरु जगत को निर्गुण पावा? II
नागमती यह दुनिया-धंधा I बाँचा सोह न एहि चित धंधा I
राघव दूत सोइ सैतानू I माया अलाउदीं सुलतानू II
प्रेम-कथा यहि भाँति बिचारहु I बूझि लेहु जौ बूझै पारहु II
बहरहाल, साही ने इस क्षेपक को, जो पूरे पद्मावत की कथा को रूपक में बदल देता है, बाद के किसी नामालूम से व्यक्ति का जोड़ा हुआ बताते हैं. इसके लिए पाठालोचन के विशेषज्ञ डॉ. माताप्रसाद गुप्त के शोध को उन्होंने आधार बनाया है, और इसे पूरी तरह प्रक्षिप्त करार दिया है. पद्मावत की कथा में सूफियों द्वारा की गयी छेड़छाड़ के उन्होंने और उदाहरण दिए हैं.
जायसी के कवि पक्ष के वैशिष्ट्य को उजागर करने के लिए उन्हें साही तसव्वुफ़ से मुक्त करते हैं जो स्वयं में एक विचारधारा है, और वह जायसी जैसे भाव-प्रवण कवि को समझने में बाधक है. तसव्वुफ़ वाली धारणा से जायसी को मुक्त करते हुए उन्होंने ने लिखा है:
“… जायसी ने अपनी संवेदना का सर्जनात्मक रूप प्रदान करने के लिए उस युग में परंपरा अथवा रूढ़ि , लोकमानस अथवा काव्यशास्त्र, दर्शन अथवा योग, संस्कृत अथवा फ़ारसी के बहुत सारे उपलब्ध उपादानों का उपयोग किया है. इन विविध और कभी-कभी असंगत उपादानों को उन्होंने अपनी जिस भावात्मक भट्टी में गला कर एक किया है, वह उनकी निजी सम्पति है. इन तमाम उपादानों में अन्य मुहावरों की तरह तसव्वुफ़ का मुहावरा भी आ गया है. लेकिन तसव्वुफ़ का यह प्रयोग केवल विशिष्ट संदर्भ में भावना को गहराई देने के लिए उसी तरह हुआ है जिस तरह युक्ति की अन्य विशेषताओं का. इस प्रकार तसव्वुफ़ का एक तत्त्व भी नहीं ठहरता, केवल उपलब्ध काव्यात्मक मुहावरे का एक प्रयोग ही है.” (पृ. 48-49)
इस तरह सूफीवाद, क्षेपक के रूप में आए उस रूपक और तसव्वुफ़ की जो चादर जायसी के कवि-व्यक्तित्व को ढके हुए है, उसे हटाकर वे जायसी को निखालिस कविता की ज़मीन पर खड़ा करते हैं. वे जायसी के उस कवि रूप पर हमारा ध्यान खींचते है, जिसका मुख्य ध्येय मनुष्य है: “जायसी का प्रस्थान बिन्दु न ईश्वर है, न कोई नया अध्यात्म. उनकी चिंता का मुख्य ध्येय मनुष्य है- मनुष्य जैसा कि सामान्य ज़िन्दगी में ‘उठता-बैठता है, सीखता है, प्रेम करता है गृहस्थी चलाता है, युद्ध में वीरता या कायरता दिखाता है, राज्य स्थापित करता है, छल-कपट, बेईमानी और कमीनापन करता है… और इस सबके बाद अपनी गहरी अपर्याप्रता की गहरी त्रासदी से ग्रस्त हो जाता है. अपनी मूल प्रकृति में पद्मावत एक त्रासदी है.” साही के अनुसार इसके केंद्र में ‘ट्रेजिक विज़न’ है. जायसी ने कोई सम्प्रदाय नहीं बनाया, कोई पंथ नहीं चलाया, कोई बाबागिरी नहीं की, जायसी के सामने हिन्दू-मुसलमान अलग-अलग नहीं हैं. साही के शब्दों मे:
“अपने युग से जायसी ने जो बौद्धिक उन्मेष खोज निकाला, वह अनोखा था. उनकी समीक्षा का विषय धर्मं नहीं, मनुष्य है.” (पृ. 60)
‘जायसी की समीक्षा का विषय धर्म नहीं, मनुष्य है’- यह साही की जायसी विषयक आलोचना का केंद्रीय बिंदु है. यही कारण है की साही के अनुसार जायसी पैदा भले हुए हों मध्यकाल में, कवि वे बीसवीं शताब्दी के यानी आधुनिक काल के हैं. मध्यकाल और आधुनिक काल की जो मुख्य विभाजक रेखा है, उसे आधार बनाते हुए साही को जायसी के पद्मावत में आधुनिकता के तत्त्व मिलते हैं. मध्यकालीन बोध में आस्था केंद्रीय तत्त्व है. ईश्वर, राजा, वर्ण व्यस्था, स्त्री-पुरुष में भेद आदि में आस्था मध्यकालीन कविता का मुख्य स्वर है. जब तर्कशीलता और मनुष्य के महत्त्व का स्वीकार साहित्य में केंद्रीय विषय बनते हैं और ईश्वर को विस्थापित करके मनुष्य केन्द्रीयता प्राप्त करता है तब साहित्य में आधुनिकता की शुरुआत होती है. साही मध्यकाल से निकालकर जब पद्मावत के जायसी को आधुनिक काल में खड़ा करते हैं, तब उनके सामने यही कसौटी है. इसीलिए शुक्ल जी के प्रति तमाम सम्मान के बावजूद उनसे उनकी शिकायत है कि वे जायसी को तुलसीदास के बगल में बिठा देते हैं. अपने प्रसिद्ध निबंध ‘लघुमानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ में वे कहते हैं कि सहित्य में विषय सहज मनुष्य है और साहित्य का काम हर युग में उसको परिभाषित करना है. उनका कहना है कि मनुष्य की हर परिभाषा मूलतः: ‘सहज मनुष्य की परिभाषा है’. इसी के साथ वे यह भी कहते हैं:
“बारम्बार मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की ज़िम्मेदारी है.”
मध्यकालीन कवियों में साही जायसी को ‘आत्म-सजग’ कवि मानते हैं. आत्मसजगता आधुनिक कविता का गुण है. जायसी की ‘आत्मसजगता’ को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा है:
“जायसी केवल कवि नहीं हैं, वे आत्म-सजग कवि हैं. अपने कवि का गुणी होने का उन्हें पूरा भरोसा, बल्कि गर्व है. अपने कवि और गुणी होने का ज़िक्र पद्मावत में जायसी ने प्रारंभ, मध्य और अंत में बार-बार प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किया है. “अपने कवि के बारे में जायसी गर्व करते हैं और जिस दोहे में गर्व करते हैं उसे साही ज़ोर दे कर पाठक को याद दिलाते है”:
मुहम्मद कवि जो प्रेम का ना तन रकत ना माँसु I
जेइं मुँह देखा तेइं हंसा सुना तो आए आँसु II
ऐसा ‘आत्म-सजग’ स्वर सिर्फ जायसी का है. उन्हें किसी मतवाद के दायरे में देखना उनके महत्त्व को काम करना है. उन्हें मनुष्यता और कविता के धरातल पर देखने की ज़रूरत है. इसीलिए साही उनके सूफी मत का अनुयायी होने वाली धारणा का ज़ोरदार खंडन करते हैं. वे जायसी में ‘स्वाधीन चिंतन’ के साथ ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ के लक्षण देखते हैं. उनके शब्द हैं:
“जायसी में स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के लक्षण मिलते हैं जो गद्दियों और सिलसिलों की मीठी या सरकारी नीतियों से अलग है. इस अर्थ में जायसी सूफी हैं तो कुजात सूफी हैं.”
‘कुजात सूफी’ पद ध्यान देने लायक है. राममनोहर लोहिया ने गांधीवादियों की तीन कोटियाँ बनाई थीं- सरकारी गांधीवादी, मठी गांधीवादी और कुजात गांधीवादी. लोहिया स्वयं अपने को ‘कुजात गांधीवादी’ कहते थे. कुजात गांधीवादी वह हुआ जो गाँधी के कर्मकांड से भिन्न अपने स्वाधीन चिंतन के साथ काम करता है. जायसी इसी अर्थ में ‘कुजात सूफी’ हैं, जिसके यहाँ जो प्रेम तत्त्व है वह किसी भी मतवाद के आग्रह से मुक्त है, वह मनुष्य मात्र का प्रेम है. पद्मावत में किसी मतवाद से इनकार करते हुए साही लिखते हैं:
“साहित्य में किसी विचारधारा या दार्शनिक सिद्धांत का वहन करना एक बात है और अपने युग की सम्पूर्ण चिन्तनशीलता में उलझी हुई अनुभूति को आत्मसात करना दूसरी बात है.” (पृ. 62)
जायसी अपने युग के दर्शन और उपासना पद्धतियों से परिचित हैं, लेकिन उनका सारा ज़ोर अपने युग की सम्पूर्ण चिन्तनशीलता की पहचान है जो उनकी कविता का केंद्रीय भाव है. वे लिखते हैं: “ अपने सम्पूर्ण प्रसार में यह चिन्तनशीलता पूरी कथा में तरल विषाद-दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, किन्तु अवसाद नहीं है; हल्का वैराग्य है, लेकिन गहरी संसक्ति भी है; तटस्थता है, लेकिन सपष्ट नैतिक विवेक भी है. यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरता.” (पृ. 63)
साही पद्मावत में ‘उस सुगंध’ को देखते हैं जो सब मत मतान्तरों के ऊपर है. वह ‘सुगंध’ विषाद, जागरूकता और सूक्ष्म नैतिक विवेक से परिपूरित है. वे अपने इस कवि-विवेक के कारण न सिर्फ सूफी कहलाने वाले कवियों के बीच, बल्कि अपने युग के ऐसे पंथ निरपेक्ष कवि हैं, जिसकी कविता मानुष सत्य की कविता है. यह सत्य उस ट्रेजेडी में है जो पद्मावत का केंद्रीय भाव है. पुरुष लड़ाई में मारे जाते हैं और स्त्रियाँ जौहर करती है, तब अलाउद्दीन की मनःस्थिति को जायसी ने पढ़ते हुए कहा है:
छार उठाइ लीन्हि एक मूँठी I दीन्हि उड़ाय पिरिथिमी झूठी II
साही पद्मावत पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं: “पद्मावत की कथा केवल अलाउद्दीन, रतनसेन और पद्मिनी की व्यक्तिगत ट्रेजेडी नहीं है- जिन शर्तों पर जायसी का समाज उलट-पुलट रहा है, उनके चलते समूची पृथ्वी के झूठी पड़ जाने की ट्रेजेडी है.” (पृ. 81) इस ट्रेजेडी से उपजी वह विषाद दृष्टि मुख्य है जो दो चरित्रों में फर्क करती है. एक दारुल इस्लाम के लिए लड़ता है तो दूसरा दो संस्कृतियों के मेल-जोल के लिए. साही के जायसी इसी सांस्कृतिक मेल-जोल के कवि हैं.
किसी आलोचक का महत्त्व इस बात में नहीं है कि उसने कितनी पुस्तकें लिखीं. उसका महत्त्व इस बात में हैं कि वह अपनी आलोचना-दृष्टि और इतिहास-विवेक से साहित्य के इतिहास में बने-बनाए क्रम को बदलने का कितना और कैसा प्रभावकारी दबाव बनाता है. साही अपनी इस छोटी-सी पुस्तक के ज़रिये हिंदी साहित्य के इतिहास में बने-बनाए क्रम को बदलते हुए दिखाई देते हैं. जायसी यदि सम्प्रदाय मुक्त कवि हैं तो भक्तिकाल का सम्प्रदायों के आधार पर जो बँटवारा है, उस पर क्या पुनर्विचार की ज़रूरत नहीं है? मनुष्य का ईश्वर की जगह साहित्य के केंद्र में आना यदि आधुनिकता की पहचान है तो आधुनिक काल भारतेंदु के समय से ही क्यों माना जाए- जायसी के समय से क्यों नहीं?
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गोपेश्वर सिंह वरिष्ठ आलोचक नलिन विलोचन ‘शर्मा, साहित्य से संवाद, आलोचना का नया पाठ, भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार, नलिन विलोचन शर्मा संकलित निबंध, कल्पना का ‘उर्वशी’ विवाद (संपादित) आदि पुस्तकें प्रकाशित. |
इस लेख की ट्रेजेडी यह है कि गोपेश्वर जी ने साही जी की ओट लेकर अपना ज्ञान उड़ेल दिया है। वह ज्ञान क्या है?
बिना विचारधारा, दर्शन और मतवाद के ही कोई कवि हो सकता है। वो भी जायसी जैसा सिद्ध प्रबंध काव्य का कवि। जिसे रामचंद्र शुक्ल श्रेष्ठतम प्रबंध काव्य कहते हैं। गोपेश्वर जी का तमाशा देखिए कि वो मध्यकाल में ही जायसी के बहाने आधुनिकता भी ला देते हैं।
गोपेश्वर जी ने इस्लाम से भी अपना हिसाब चुकता कर ही लिया है इस समुद्र पार कर लेने वाले नावनुमा लेख में।
जायसी को बहुत मोटे हिसाब में भी निर्गुण धारा में प्रेमाख्यान का कवि माना जाता है। कबीर और जायसी बिना विचारधारा के कैसे होंगे जबकि तुलसी तक नहीं हैं। जो शत कोटि अपारा से भी राम राज्य का स्वप्न देखते हैं।
अनुमान ही किया जा सकता है कि गोपेश्वर सिंह जी ने कितना कन्फ्यूजन फैलाया होगा। और अब तो उनके प्रसन्न रहने के भी दिन हैं-
सुखी मीन जे नीर अगाधा
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा
जायसी बेशक दुनिया के बड़े कवियों में एक हैं और विजयदेव नारायण साही भी निर्विवाद रूप से हिंदी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि -अलोचक हैं. पर साही ने जो कुछ लिखा है उसे ब्रह्मवाक्य मान लेना ठीक नहीं है.इससे भ्रम पैदा होगा.
किसी लेखक पर केंद्रित गोष्ठी में अक्सर अतिरिक्त श्रद्धावश उसकी सीमाओं पर बात नहीं होती.
सवाल उठना लाज़िमी है कि यदि ‘जायसी हिंदी के पहले विधिवत कवि हैं’ तो फिर विद्यापति क्या हैं?
विद्यापति खुद को कवि कहते हैं और उनके पद आज भी मिथिला में गाए जाते हैं. उनका काव्य पढ़े जाने के लिए केवल शिक्षा संस्थानों पर निर्भर नहीं है.’विद्यापति पदावली’ भले ही ‘पदमावत’ या ‘रामचरितमानस’ की तरह प्रबंध काव्य न हो पर ‘सूरसागर’ की तरह किसी भी प्रबंधकाव्य से कम नहीं है. वह भक्ति और शृंगार की कविता तो है ही, समाज में प्रचलित बेमेल विवाह से त्रस्त स्त्री की पीड़ा का आख्यान भी है. विद्यापति की नायिका सवाल उठाती है कि “आख़िर वह कौन सा तप करने से मैं चुक गई जिससे स्त्री के रूप में उसका जन्म हुआ… हे विधाता! अगला जन्म स्त्री के रूप में न हो.” इतना ही नहीं, “कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ’ पद में कहा गया है कि “दुःख में जन्म हुआ और दुख में ही सारा जीवन व्यतीत हुआ.स्वप्न में भी सुख नहीं मिला”. शिव भक्ति के आवरण में यह आज दुनिया के लगभग दो बिलियन से ज़्यादा बेघर लोगों की व्यथा को वाणी देने वाला पद है जिनको दो समय का भोजन तक नसीब नहीं होता.
भक्त होते हुए विद्यापति एक धर्मनिरपेक्ष कवि हैं.’कीर्तिलता’ में उन्होंने तत्कालीन मुसलमान कहे जाने वाले बादशाहों के क़रिंदों के अत्याचार का भी वर्णन किया है.
जायसी अपने ग्रन्थ के आरंभ में ईश वंदना और अपने मजहब के पैग़म्बर को याद करते हैं जिसमें कोई बुराई नहीं है पर इसके साथ ही वे शाह -ए -वक़्त को भी आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि आप संसार के बादशाह हैं और संसार आपका मोहताज है. आप युग युग तक राज करें:
पतिसाही तुम जग के जग तुम्हार मोहताज
दीन्ह असीस मुहम्मद करहुँ जुगह जुग राज.
कहने की ज़रूरत नहीं कि यह आधुनिकता का लक्षण नहीं है.उल्लेखनीय है कि कबीर,सूर,तुलसी आदि अपने समय के राजा को कोई महत्त्व नहीं देते.
इतना ही नहीं, जायसी के ‘मुहमद सती सराहिए’ जैसे कथन को साही ने नज़रअंदाज़ कर दिया है.
बातें बहुत सारी हैं. लगभग एक दशक पूर्व एक विद्यार्थी ने मेरे निर्देशन में साही पर पी-एच. डी का शोध प्रबंध जमा किया था. उसमें विस्तार से साही की शक्ति और सीमा का उल्लेख है.
गोपेश्वर जी ने बहुत परिश्रम से अपना व्याख्यान तैयार किया है। चूंकि मैं भक्ति काव्य का सुधी अध्येता नही हूं, उनके इस लेख का तटस्थ और तलस्पर्शी विश्लेषण करने की क्षमता मुझमें नहीं है। मैं उनका लेख पढकर समृद्ध हुआ।
मुझे एक और बात कहनी है। जब वे कहते हैं कि “उस युग में सिर्फ जायसी अपने को कवि मानते थे”, वे साक्ष्य की पुख्ता जमीन पर खडे नहीं दिखते। भक्तिकाल के कवियों की प्राथमिक विशेषता दैन्य भाव है, अहं का लोप है। मेरी दृष्टि में काव्य-विवेक के अभाव वाली तुलसीदास की पंक्ति से यह पर्याप्त रूप से प्रमाणित नहीं होता कि वे स्वयं को कवि नहीं मानते थे। यह उनकी विनयशीलता का सहज उच्छ्वास हे, उनके निरभिमान व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। रामचरितमानस की आरम्भिक पंक्तियां से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूरी तैयारी के साथ काव्य के अखाड़े में उतरे हैं। “वर्णानाम अर्थसंघानाम रसानाम छन्दसामपि” के साथ-साथ वे इसकी भी घोषणा कर देते हैं कि उन्होंने नाना प्रकार के पुराण, आगम, निगम तथा अन्य श्रोतों के आधार पर रामकथा लिखी है और उनके ग्रंथ की भाषा अत्यन्त मनोहारी है।इसी तरह जब सूरदास अपने को कुटिल, खल एवं कामी कहते हैं, यह उनके पाप की स्वीकारोक्ति नहीं है। यह उनका विनीत भाव है।
बिलाशुबह जायसी धार्मिक सत्ता के बरअक्स प्रेम की सत्ता को स्थापित करने वाले महाकवि हैं। वो सूफ़ी तो नहीं हैं लेकिन सूफ़ीवाद से मुतासिर ज़रूर नज़र आते हैं, वरना वो यूँ ना कहते-
बिगसे कुमुद देखि ससि रेखा। भै तेहिं रूप जहाँ जो देखा।।
पाए रूप रूप जस चहे। ससि मुख सब दरपन होइ रहै।।
उनका ये दोहा ग़ालिब के इस शेर की याद दिलाता है-
“दहर जुज़ जलवा-ए-यकताइ-ए-माशूक़ नहीं
हम कहाँ होते अगर हुस्न न होता ख़ुदबीं”
ग़ालिब के इस शेर का अर्थ है कि ये दुनिया बनाकर ख़ुदा ने अपना हुस्न ज़ाहिर किया है। ये दहर (दुनिया) उस हुस्न-ए-अववलीं (ख़ुदा) के लिए आईना है।
ग़ालिब और जायसी इक ही बात कह रहे हैं। यहाँ ग़ालिब का माशूक़ जायसी के लिए पद्मावती है।
तो हम कह सकते हैं कि जायसी इश्क़ के ज़रिये ख़ुदा तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं।
जायसी ख़ुदा की तलाश में हैं। इक तरह से वो एक्स्प्लोरर हैं, उनका ये दोहा इसकी दलील है-
हौं हौं कहत सबै मति खोई । जौ तू नाहिं आहि सब कोई ।।
आपुहि गुरु सों आपुहि चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ।।
साही जी की जायसी के काव्य विवेक पर एकाग्र पर आधारित यह आलेख उसके मानवीय पक्ष पर गंभीरता पूर्वक विवेचन करता है।ख़ुसरो और जायसी की
तुलना लेख को वह असंदिग्ध आधार प्रदान करती है जिसके चलते जायसी का मानवतावाद उन्हें उन उच्च बुलंदियों पर ला खड़ा करता है जहाँ हिंदी का कोई दूसरा मुस्लिम कवि नहीं पहुंचा।धार्मिक मत-मतान्तरों से इतर वे सच्चे अर्थों में मनुष्य के पक्षधर कवि हैं।
कुछ असहमतियां
गोपेश्वर जी अपने इस लेख में काफी जोर इस बात पर देते हैं कि ‘साही मुसलमान और मुसलमान में फर्क करते हैं।’ यानी कि जायसी अच्छे मुसलमान खुसरो कट्टर सांप्रदायिक मुसलमान। गोपेश्वर जी इस तरह की अवधारणा पर कोई प्रतिवाद नहीं करते, इससे लगता है कि वे इससे सहमत हैं। इसी तरह क्या वे अच्छा हिंदू- कट्टर हिंदू, अच्छा सवर्ण-कट्टर सवर्ण, अच्छा दलित-कट्टर दलित जैसी अवधारणा के भी हिमायती हैं। इसके बजाय अच्छा मनुष्य और बुरा मनुष्य जैसी सर्वसमावेशी अवधारणा क्या ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं होगी।
गोपेश्वर जी साही जी के हवाले से कहते हैं, ‘जायसी की समीक्षा का विषय धर्म नहीं, मनुष्य है’। इस कोट के बाद अपना निष्कर्ष देते हैं, यह साही की जायसी विषयक आलोचना का केंद्रीय बिंदु है।
अगर ‘धर्म नहीं मनुष्य’ उनकी आलोचना का केंद्र बिंदु होता तो वे अच्छा मुसलमान-बुरा मुसलमान जैसी संकीर्ण बात के बजाय अच्छे मनुष्य और बुरे मनुष्य की बात करते।
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गोपेश्वर जी ने लिखा है, ‘अमीर खुसरो और जायसी का जो अंतर साही प्रस्तुत करते हैं उसमें लोहिया के चिंतन का प्रभाव है।’
मैंने लोहिया को जितना पढ़ा है, उसमें कहीं खुसरो को सांप्रदायिक नहीं बताया गया है। गोपेश्वर जी अगर स्रोत बता सकें तो ज्ञानवर्धन होगा।
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गोपेश्वर जी इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि अपने कवि के बारे में जायसी गर्व करते हैं और साही जी द्वारा उद्धृत दोहा भी कोट करते हैं
मुहम्मद कवि जो प्रेम का ना तन रकत ना माँसु I
जेइं मुँह देखा तेइं हंसा सुना तो आए आँसु II
आगे वे दावा करते हैं, ‘ऐसा ‘आत्म-सजग’ स्वर सिर्फ जायसी का है!’
इस दावे से असहमति है। तुलसी भी जायसी से कम आत्म-सजग कवि नहीं हैं। लिखते समय वह इस बात को लेकर सजग रहते हैं कि उनके लिखे हुए को पढ़कर कोई उन्हें कुकवि न मान ले। सीता स्वयंवर के वक्त जानकी के सौंदर्य के लिए कोई सुयोग्य उपमा न पाकर तुलसी कहते हैं कि सीता के लिए कोई उपमा देकर कौन कुकवि कहलाने का अपयश लेना चाहेगा।
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई
कुकबि कहाइ अजसु को लेई।
साही वाला आप का आलेख तीसरी बार पढ़ गया और इस बार-बार इस नतीजे पर पहुँचा कि आप भी समाजवादी आलोचक साही जी के बौद्धिक प्रवाह की बाढ़ में बगैर अपना हाथ पाँव मारे बहते चले गए हैं. आप ने यह भी नहीं सोचा कि जायसी अगर निरे मानवीय प्रेम के कवि हैं, तो जो किस्सा वे कह रहे हैं, वह अन्य प्रचलित प्रेमकथाओं से किन अर्थों में भिन्न है, और किस कारण और आधार पर?
अगर वे केवल लौकिक प्रेम कवि हैं तो उनकी प्रेमानुभूति का जो स्वरूप है, वह आगे पीछे के किन गीत, प्रगीत अथवा प्रबंध कवियों जैसा या भिन्न है.
साही को पढ़ते हुए यह भी लगता है कि वे जितना ट्रैजेडी के स्वरूप से परिचित हैं, उतना उस सूफीवाद से नहीं, जो इस्लाम का सबसे प्रतिवादी प्रतिपक्ष है और केवल प्रेम की बात करता है.
साही काश! सूफी मत से भी संवाद करते और उसके इस्लामिक प्रतिसंस्करण से टकरा कर यह बयान देते कि कवि जायसी कैसे भी सूफी मतवादी कवि नहीं हैं?
दूसरी बात आपने धर्म और मनुष्य को लेकर कही है, सो भी जायसी के बहाने. क्या धर्म और मनुष्य/मनुष्यता, इंसान, इंसानीपन दो अलग सांस्कृतिक संस्थान हैं. महाभारत, गीतगोविन्द आदि फिर हाफिज़, मीर,ग़ालिब ये जिस मानव प्रेम की बात करते हैं, उसके पीछे की जो दृष्टि है,वह कितनी संस्कृति-निरपेक्ष है?या किसी सुचिंतित, गहरी इंसानी अंतर्दृष्टि की अन्यतम उपलब्धि है?
साही जी के बयान इस संदर्भ में किसी फतवे से कम नहीं हैं.
तीसरा जो सवाल आपने बहुत भोलेपन के साथ उठाया है कि जायसी अपने को कवि कहते हैं, भरपूर आत्मसजग होकर और अन्य मध्यकालीन कवि ऐसा कोई दावा नहीं करते जो सरासर निराधार है. आप और साही(?) इस संदर्भ में आँख मूँदकर जिस तरह तुलसी को इस दावे से बाहर करते हुए” कवि न होउँ “की याद दिलाते हैं, उसे क्या कहूँ ?अगले ही छंदांश में वे लिखते हैं—
खल परिहास होइ हित मोरा।
काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।
बालकांड में ही वे अपने काव्यादर्श का जो गौरव गान करते हैं, और जितनी बारीकी से करते हैं, वह अद्वितीय है. मौका मिले तो एक बार बालकांड के शुरुआती पृष्ठों को देख लें.
आपका यह कथन बतौर उद्धरण कि ‘कवि न होहुँ’ मुझे शर्मिन्दा कर गया कि आप जैसा शब्द मर्मी और भाव प्रज्ञ उसकी ध्वनि की कैसी निर्मम अवहेला कर रहा.
धर्म और कविता और महान कविता और धर्म पर आप और साही जी जैसा सोच और कह रहे हैं, वह हैरत में डालता है. खासकर रामायण महाभारत वाले देश के काव्य-पारखियों के लिए. धर्म को अपनी सात्विक पहचान के लिए बार-बार काव्य की शरण में आना पड़ता है. पुराण की मदद लेनी पड़ती है.
मुझे मालूम नहीं कि साही जी ने कभी ट्रैजेडी का भी अपनी ओर से कोई विवेचन कभी किया या नहीं पर शेक्सपीरियन ट्रैजेडी के मूल में ईसाइयत की कितनी गहरी भूमिका है, यह जानने वाले जानते हैं. खुद ग़ालिब जब-निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन, बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले, कहते हैं तब इस्लाम की उपस्थिति छिपी नहीं रह जाती.
आपने एक और बात आधुनिकता की उठाई है. जायसी वह कवि हैं जो शाहे-वक्त़ की प्रशंसा करते हैं, हिन्दू राजा और हिन्दू राजकुमारी की ही प्रेमकथा कहते हैं, सो भी विवाहित और सप्तपदी की शपथों का उल्लंघन करते हुए. यह मध्यकालीन सामंतवाद अगर आधुनिक है तो फिर मध्यकालीनता क्या है? इस तुलना में कबीर, सूर, मीरां और तुलसी कहीं आधुनिक हैं.
जायसी निस्संदेह बेहद विनम्र हैं, सूफियों जैसे पर प्रच्छन्न आत्मप्रशंसा से ग्रस्त भी कम नहीं हैं. वे ही हैं जो कवि तारागणों के बीच स्वयं को चन्द्रमा कह रहे. यह भी कि मैंने तो एक आँख से जितना देख लिया है, उतना दो आँख वाले भी क्या देख पाएंगे?
साही जी ने जायसी के आत्म- कथनों को दरकिनार करते हुए जैसी आलोचना-शैली प्रदर्शित की है, वह कई तरह के परीक्षणों की माँग करती है.
एक और बात जो लिखने से छूट गई थी वह यह कि पद्मिनी का जैसा अलौकिक सौंदर्य वर्णन वे मानसरोदक- खंड में करते हैं वह निर्द्वन्द्व रूप से रहस्यात्मक है. इसलिए यह प्रसंग उस सूफीवाद की ही परिणति है जहाँ साधक अपने खुदा से निखालिस प्रेम की जमीन पर उतरता है और प्रेम याचना करता है.
गोपेश्वर जी की भाषा में जिस तरह का प्रवाह, सरलता और सहजता होती है, वह अपने तरह का अनूठा है। इस तरह की भाषा एक दिन में अर्जित नहीं हो जाती। वह विषद् अकादमिक एवं सामाजिक अध्ययन का परिणाम ही परिलक्षित होता है।
गोपेश्वर जी की खूबी है कि उनके कहे में तथ्यों की प्रचुरता तो होती ही है साथ ही वहां संवाद की गुंजाइश भी होती है।
साही जी की जायसी विषयक मान्यता को तर्कों की कसौटी पर ख़ारिज किया जा सकता है या नहीं, यह भरपूर संवाद का विषय है। लेकिन, गोपेश्वर जी ने साही जी के जायसी विषयक मान्यताओं पर जिस तरह जोर दिया है, वह अकारण नहीं है।
मुझे लगता है कि रचना में मनुष्यता की ख़ोज ही कृति और कृतिकार की सच्ची पड़ताल है। इस कसौटी पर साही जी ने जायसी के जिस रूप को सामने लाते हैं, उससे भला क्या इंकार हो सकता है। जायसी में प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते को परिभाषित करने में जिस संवेदनात्मक दृष्टि का परिचय दिया है, वह उन्हें अपने युग का विलक्षण कवि ही सिद्ध करता है।
आधुनिक काल के श्रेष्ठ कवियों में शुमार पंत जी ने कहा है कि ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान..।’ वास्तविक कवि की परिभाषा यदि यह है तो सही अर्थों में जायसी कवि ही हैं। सूफ़ी और अन्य मतवाद उनके पिछलग्गू ही कहे जायेंगे। जायसी के यहां अद्वैत की प्रधानता है। वहां धर्म और अन्य आरोपित मतवाद गौण हैं। जायसी मनुष्य मात्र की सिद्धि पर जोर देते हैं। वह मुसलमान होते हुए भी हिंदू आख्यान लेकर आते हैं। उनके यहां समन्वय, प्रेम और करुणा की पुकार है।
यद्दपि कि यह बात भी उतनी ही ज़रूरी है कि जायसी के यहां मनुष्यता के केंद्र में होने मात्र से आधुनिक काल की शुरुआत भारतेंदु की बजाय सीधे जायसी से किया जाना ठीक नहीं कहा जाना चाहिए। आधुनिकता के लिए जिन-जिन प्रवृत्तियों की पहचान की गई और उसे जिन वजहों से उस काल को पूर्ववर्ती समय से अलगाया गया या उसका नामकरण किया गया, वह सब कुछ जायसी के यहां नहीं है।