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हम अक्सर इतिहास के विराट फ़लक का अवलोकन करते समय महान व्यक्तियों के कार्यों को नेपथ्य से प्रेरणा एवं गति प्रदान करने वाले पात्रों को आँखों से ओझल कर देते हैं. इस कारण बहुतों को यथेष्ट सम्मान नहीं मिल पाता है. इसके पीछे उनके बारे में समुचित जानकारी का अभाव भी एक कारण है. यह बात तब और भी जटिल हो जाती है जब पात्र कोई महिला हो.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में गांधी के साथ अपनी महती भूमिका निभाने वाली एक ऐसी ही महिला मेडलिन स्लेड थीं, जिन्हें हम मीराबेन के नाम से जानते हैं.
मीरा के बारे में हम कितना कम जानते हैं यह एहसास सुप्रिया पाठक की पुस्तक, ‘मीराबेन: गांधी की सहयात्री’ पढ़ते हुए पन्ना-दर-पन्ना गहराता जाता है. इतिहास के धुंधलके में खो गई ऐसी ही महान शख्सियत को अपने संवेदनशील और गंभीर लेखन द्वारा पुनर्जीवित करने का काम करने के लिए लेखिका साधुवाद की पात्र हैं. सहज, सरल और प्रवाहमयी भाषा के जरिये मीराबेन का एक यादगार चित्र उन्होंने उकेरा है, जो पुस्तक पढ़ जाने के बाद भी काफी देर तक संवेदित करता रहता हैं. पाठक एक भावुक उदासी में तैरने लगता है और बार-बार खुद से पूछता है कि ‘जाने कहाँ गए वो लोग’. दरअसल यह भावबोध जगाना ही लेखिका के प्रयत्न की सार्थकता भी है.
लेखिका ने प्रारम्भ में ही अपनी जानकारी के स्रोतों का विवरण देते हुए पुस्तक लिखने के पीछे अपने उद्देश्यों को स्पष्ट कर दिया है. उन्होंने मीराबेन के व्यक्तित्व, जीवन और कार्यों को गांधी की दृष्टि से न देखकर एक स्वतंत्र स्त्री की जीवन-यात्रा के रूप में देखने का प्रयास किया है. उन्होंने गांधी और मीराबेन के बीच संभावित प्रेम संबंध के आयामों को खारिज न करते हुए भी उसे अधिक महत्व प्रदान नहीं किया है. उनकी दृष्टि भारत के राजनीतिक पटल पर मीराबेन की सशक्त उपस्थिति और हस्तक्षेप पर केन्द्रित है, जिसकी अनदेखी बार-बार की जाती रही है. लेकिन छूटे हुए पहलू को उजागर करने के औचित्य को स्वीकारते हुए यह सवाल तो उठता ही है कि किसी के व्यक्तित्व का सांगोपांग विश्लेषण उसे टुकड़ों में बांटकर कैसे किया जा सकता है? उनकी साफ़गोई का यह परिणाम तो अवश्य हुआ है कि वे रूढ़िवादी नैतिकता की जकड़न से मुक्त होकर मीरा-गांधी के सम्बन्धों का व्यापक दृष्टि से मूल्यांकन कर सकी हैं.
गांधी के जीवन में और उनके आश्रम में अनेक विदेशी स्त्रियाँ आईं, रहीं और चली गईं लेकिन कोई भी मीराबेन का स्थान नहीं पा सकी, क्योंकि उनमें न तो गांधी के प्रति व्यक्तिगत आसक्ति थी और न उनके आदर्शों के प्रति अगाध श्रद्धा ही, जो उनके प्रति अपना सारा जीवन समर्पित कर सकने का मनोबल दे सके. लेखिका के शब्दों में
”मीराबेन के लिए गांधी ही उनके जीवन का ध्येय थे. वे अंदर और बाहर से गांधीमय थीं. वे उनके जीवन और आत्मा के विस्तार थे.”
ऐसा कैसे संभव हो सका? एक नौसेना अधिकारी की पुत्री और कुलीन परिवार से ताल्लुक रखने वाली, बीथोवेन के संगीत के साथ अपने एकांत में रमने वाली मेडलिन स्लेड के जीवन में रूपान्तरण की विस्मयकारी कथा को सुधी पाठकों तक पहुंचाने का कार्य लेखिका ने सफलतापूर्वक किया है.
यह तो सही है कि मेडलीन स्लेड के रूपान्तरण की प्रक्रिया उनके रोम्या रोलां से मिलने और उनकी गांधी पर लिखी पुस्तक पढ़ने के बाद से ही शुरू हो गई थी, लेकिन रोलां की पुस्तक तो बहुतों ने पढ़ी होगी, उनमें ऐसा रूपान्तरण क्यों नहीं हो सका? शायद यह वही रहस्य है जो अधिकांश महान व्यक्तित्वों को समझने के क्रम में अनसुलझा ही रह जाता है. उदाहरण के लिए गांधी की तरह साउथ अफ्रीका में प्लैटफ़ार्म पर फेंक दिये जाने का अपमानपूर्ण अनुभव तो बहुतों को हुआ होगा किन्तु उन सभी ने गांधी की तरह गोरी सरकार को घुटनों के बल लाने का दृढ़ निश्चय नहीं किया. ऐसा प्रतीत होता है कि स्लेड में वह गहरी नैतिक चेतना पहले से ही थी जो रोम्या रोलां के संपर्क से और जाग्रत हो गई, गांधी के संपर्क ने उसे नैतिक दृष्टि दी और आश्रमवास ने उसे आचरण में ले आने का अभ्यास कराया. साबरमती आश्रम का कठोर, अनुशासित और तपस्यापूर्ण सादा जीवन तो अधिकांश कांग्रेसी नेताओं के वश की बात भी नहीं थी.
एक ठंडे मुल्क में आराम से सभी सुख-सुविधाओं में पली-बढ़ी विदेशी महिला के लिए तो वह बिलकुल नया और कठिन अनुभव था. इसके पीछे उनका गांधी के प्रति अगाध प्रेम और विश्वास तो था ही, साथ ही भारतीय स्वतन्त्रता का स्वप्न भी निहित था.
भारत की कठोर गरम जलवायु और विपरीत परिस्थितियों में अनुकूलन-अभ्यास के प्रारम्भिक वर्षों को यदि छोड़ दें तो मीराबेन ‘गांधी की छाया’ भर बनकर कभी नहीं रहीं. उन्होंने कई महत्वपूर्ण दायित्वों को सफलतापूर्वक निभाया. चाहे 1931 में गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने लंदन जाना हो या 1934 में पुनः लंदन और फिर अमेरिका जाकर भारत के पक्ष में लोकमत जुटाना हो. देशव्यापी खादी-यात्रा हो या 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के प्रस्ताव को कांग्रेस कार्य समिति के समक्ष रखना हो और उसे लेकर वायसराय को समझाने की कोशिश और फिर गिरफ्तार होकर जेल की यातना से गुजरना. ये सभी मीराबेन के मजबूत और स्वतंत्र व्यक्तित्व के परिचायक हैं. इसी में गांधी के जीवित रहते हुए और उनके बाद भी अपना एक अलग आश्रम बनाने का उनका प्रयत्न भी जोड़ दिया जाना चाहिए. लेकिन जब स्वतंत्रता प्राप्ति और गांधी की मृत्यु के उपरांत उन्हें लगता है कि देश के कर्णधार गांधी के आदर्शों के अनुरूप नहीं चल रहे हैं तो भारत छोड़ने का स्वतंत्र निर्णय लेने से भी वे नहीं कतरातीं.
गांधी की सहयात्री तो वे ज़रूर हैं लेकिन निर्भीक, स्वतंत्र निर्णय लेने का साहस भी उनमें भरपूर है. ब्रह्मचर्य धारण करने का निर्णय भी नितांत उनका अपना ही था, जो उन्होंने गांधी के मना करने के बावजूद लिया. इन सभी घटनाओं का जिक्र लेखिका ने अपनी पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर किया है.
यद्यपि पुस्तक का मुख्य उद्देश्य मीराबेन की जीवन-यात्रा, उनकी चारित्रिक विशेषताओं और राजनीतिक कौशल को ही पाठकों के सम्मुख लाना था किन्तु कस्तूरबा और आश्रमवासी गांधी की करीबी अन्य स्त्रियों के साथ मीराबेन के सम्बन्धों का उल्लेख नहीं मिलता. क्या स्त्री-सुलभ ईर्ष्या की सहज प्रवृत्ति उनके बीच नहीं जगती? क्या कस्तूरबा पत्नी होने के नाते अपने पति की शारीरिक सेवा के अधिकार में मीराबेन की दखल को बिना प्रतिरोध स्वीकार कर लेती हैं? इन प्रश्नों से दो-चार हुए बिना कहानी की बुनावट अधूरी सी लगती है.
यह बात प्रशंसनीय है कि लेखिका मीराबेन और गांधी के बीच अंतरंगता के विवादास्पद विषय को नज़रअंदाज़ नहीं करती. पृथ्वी सिंह के साथ मीरा के गहराते यौनाकर्षण और उससे गांधी का आहत होना, पहले विरोध करना और फिर विवाह की इजाजत दे देना, गांधी और मीरा के सम्बन्धों की जटिलता को दर्शाता है.
पृथ्वी सिंह जी का मीरा के विवाह-प्रस्ताव को स्वीकार न करना और आश्रम छोड़कर चले जाना मीरा को गहरे वियोग-जनित अवसाद से भर देता है. यहीं कई प्रश्न भी खड़े होते हैं- क्या मीरा और गांधी के संबंध को नैसर्गिक शारीरिक आकर्षण की परिधि में रखकर, परंपरागत यौन नैतिकता की कसौटी पर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए? या उन्हें प्रेम के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आयामों में विभाजित करके समझना चाहिए?
क्या ब्रह्मचर्य की साधना और प्रेम एक साथ चल सकते हैं? यदि हम दोनों की बीच प्राकृतिक, सार्वभौमिक शारीरिक आकर्षण के सत्य को स्वीकार भी कर लें तो क्या उसकी श्रेष्ठ सामाजिक परिणति को हम नकार सकते हैं? यदि हम यौन नैतिकता के रूढ़िगत मानदंडों को छोड़ दें तो मीरा–गांधी के सम्बन्धों में ऐसा क्या है, जिसकी प्रशंसा करने के स्थान पर उसपर उंगली उठाई जा सके? यदि उंगली उठाने का हक़ किसी को हो सकता है तो वह केवल कस्तूरबा ही होंगी, लेकिन उनकी चर्चा पुस्तक में अत्यंत सीमित है.
लेखिका ने मीराबेन को गांधी की सहयात्री कहा है लेकिन उनकी जीवन-संगिनी कस्तूरबा के प्रति उनकी उपेक्षा पाठक को किंचित हताश करती है. क्या लेखिका का मन्तव्य यह है कि कस्तूरबा गांधी की जीवन संगिनी तो थीं किन्तु सहयात्री नहीं थीं?
यह तो लगभग सभी को ज्ञात है कि गांधी के सुदीर्घ राजनैतिक जीवन में अनेक स्त्रियों ने सहयोग प्रदान किया. लेकिन सवाल यह उठता है कि लेखिका ने मीराबेन को ही क्यों गांधी की सहयात्री के रूप में अपने अध्ययन का विषय बनाया? सरला देवी चौधरानी, जो रवीद्रनाथ टैगोर की भतीजी और पंजाब के महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेता की पत्नी थीं, सुंदर होने के साथ-साथ एक प्रखर, आकर्षक, बौद्धिक सामाजिक व्यक्तित्व की स्वामिनी भी थीं, जिनकी खादी प्रचार में अग्रणी भूमिका थी और जिन्हें गांधी ने अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ का दर्जा तक प्रदान किया था, में ऐसी क्या कमी थी जो दोनों अधिक दूर तक साथ न चल सके?
दोनों के बीच आकर्षण की बात उस समय जग-जाहिर थी और आश्रम के भीतर-बाहर चिंता का विषय भी. ये गांधी कस्तूरबा के बीच गहरे तनाव के दिन थे और बात उनके दांपत्य के टूटने तक आ पहुंची थी.
समस्या यह थी कि दोनों शादी-शुदा थे और ऐसे संबंध को हमारी परम्परागत यौन नैतिकता उचित नहीं मानती है. अपने–अपने जीवनसाथी से तलाक लिए बिना ऐसे अवैध संबंध को जीना दोनों के लिए संभव नहीं था. गहरे तनाव से गुजरने के बाद गांधी ने अंततः सरला देवी से संबंध तोड़ लिया था. लेकिन जब तक यह संबंध रहा, उसकी तीक्ष्णता से कोई इनकार नहीं कर सका. दोनों के बीच का पत्र-व्यवहार इसकी गवाही देते हैं.
उपरोक्त के आधार पर क्या हम कह सकते हैं कि गांधी की सहयात्री की भूमिका निभा सकने की सरला देवी की योग्यता किसी से कम थी? क्या मीरा और गांधी के संबंध को लेकर आश्रम और समाज में चर्चाएँ नहीं रही होंगी? फिर भी गांधी ने मीरा को ही क्यों वरीयता दी? पुस्तक में इस प्रश्न पर कोई रोशनी मिलती तो विभिन्न स्त्रियों के साथ गांधी के सम्बन्धों के व्यापक फ़लक को समझने में पाठक को ज़रूर मदद मिलती.
उपरोक्त प्रश्न के संभावित उत्तर के रूप में कहा जा सकता है कि मीरा, अविवाहित होने और ब्रह्मचर्य धारण करने के कारण परंपरागत यौन नैतिकता के वृत्त में नहीं समाती. गांधी उनको अपनी बेटी मानते थे और उनका नामकरण भी उन्होंने ही मध्य युगीन भारतीय संत मीरांबाई के नाम पर किया था. किन्तु उनके बीच भी आकर्षण-विकर्षण जनित तनाव से इंकार नहीं किया जा सकता. उनके बीच का पत्र-व्यवहार और गांधी का बार–बार और सायास मीरा को अपने से दूर भेजना उनके अंतर्द्वंद्व की कहानी कहता है. शायद सरला देवी के साथ अपने सम्बन्धों की परिणति से सबक लेकर, गांधी मीरा के प्रति आकर्षण के साथ-साथ एक स्वस्थ संबंध जी सके.
पिछले दिनों गांधी और सरला देवी के संबंध को लेकर हिन्दी लेखिका अलका सरावगी का उपन्यास आया है और मनु की डायरी भी प्रकाशित हुई है. इसी तरह गांधी के जीवन में आने वाली अन्य स्त्रियों- प्रेमाकंटक, अनसुइयाँ आदि पर भी शोधकार्य करने की ज़रूरत है, तभी हम ‘कामातुर-महात्मा’ के पूर्वाग्रह से निकल कर गांधी द्वारा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के नए व्याकरण की तलाश को ठीक से समझ सकेंगे और यह भी स्पष्ट हो सकेगा कि ऐसे सम्बन्धों की भारत के स्वाधीनता आंदोलन में कितनी सकारात्मक अथवा नकारात्मक भूमिका थी.
समीक्ष्य पुस्तक किन्हीं मात्र दो अनजान व्यक्तियों के अंतरंग सम्बन्धों की दास्तान नहीं है. यह ऐसे दो महान व्यक्तियों की बीच पनपी अंतरंगता की कहानी है, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में केंद्रीय भूमिका निभाई है. इसमें उनके अंतर्द्वंद्व भी हैं और निष्ठाएँ भी. अंत में विजय निष्ठा की ही होती है. लेकिन मीराबेन जो यह मानती थीं कि उनमें बापू की आत्मा प्रवेश कर गई है, यह कैसे स्वीकार कर सकती हैं कि-
“गांधी के संरक्षण में उनके स्व का विलोप हो गया था….. जिस दिन भारत छोडूंगी, उस दिन सही मायने में मुक्त हो पाऊँगी”
(पृ. 110-111)
ऐसे में मीरा का ‘वास्तविक स्व’ क्या था, यह समझना दुष्कर प्रतीत होता है. इस अंतर्विरोध का स्पष्ट समाधान पुस्तक में नहीं मिलता. यदि यह मान लिया जाए कि गांधी की मृत्यु के बाद मीराबेन के स्व को कैद से मुक्ति मिल गई तो क्या मीरा ने गांधी के साथ सहयात्रा किसी ‘कृत्रिम स्व’ के साथ की थी. ऐसे में उनके संबंध की अर्थवत्ता पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा और लेखिका की समस्त परियोजना ही खटाई में पड़ जाएगी.
पुस्तक की विशेषताओं के बारे में और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है किन्तु उसका स्वाद पाठक स्वयं पढ़कर लें तो ज्यादा अच्छा होगा. पुस्तक की भाषा में अद्भुत रवानी है. सन 1942 के बाद की राजनीतिक घटनाओं के चित्रण और उनमें मीराबेन की सक्रिय भागीदारी का प्रकरण एक सांस में पढ़ जाने वाला है. गांधी की मृत्यु के बाद मीराबेन के मन में गहराता अवसाद इस ऐतिहासिक कथा का दुखांत रचता है, जिससे मन में एक गहरी संवेदनशीलता पनपती है.
भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम की अंतरंग झांकी और उसमें अल्पचर्चित किन्तु विशिष्ट एक केंद्रीय पात्र को सबके सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए लेखिका निश्चय ही विशेष बधाई की पात्र है.
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बहुत अच्छा आलेख। ऐसी किसी भी पुस्तक की सीमाएँ होंगी ही, तभी तो किसी एक व्यक्ति से न्याय हो पायेगा!! आलोक जी की प्रस्तुति सहज ही पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता पैदा करती है।
यदि यह ऑनलाइन उपलब्ध हो तो कृपया लिंक भेजें। मीराबेन और मनु गाँधी दोनों में मेरी गहन रुचि है।
सरला देवी और गाँधी जी को लेकर Alka Saraogi की पुस्तक भी सबको पढ़नी चाहिए। अच्छा है कि आलोक जी ने इसका ज़िक़्र भी आलेख में किया है।