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समालोचन

Home » मिर्र : पवन करण

मिर्र : पवन करण

युवा कथाकार आयशा आरफ़ीन का पहला कहानी-संग्रह ‘मिर्र’ इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. आयशा आरफ़ीन की कहानियाँ और अनुवाद आप पहले भी पढ़ते रहे हैं. उनकी कहानियों में ‘अप्रकट’ कई बार किसी पात्र की तरह उपस्थित होता है. उनके इस संग्रह की चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ कवि एवं लेखक पवन करण.

by arun dev
October 28, 2025
in समीक्षा
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मिर्र : पवन करण
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अपनी दुनिया गढ़ती कहानियाँ
पवन करण

 

एक कहानीकार अपनी कहानी में तेज चाल चलती जा रही है. उसके पास स्वयं अर्जित गति है इसलिए वह अपनी कहानियों में भटक नहीं रही तेज चल रही है. वैसे भी विद्वान टहलने को भटकने की तरह देखते हैं जहाँ कोई ख़ुद को एक जगह से कुछ आगे ले जाकर वहीं लौटाता है. मगर यहाँ वह अपनी ही कहानियों को लांघती जा रही है. वह ख़ुद भी नहीं जानती कि वह अपनी तेज चाल से अपनी ही लिखीं कितनी कहानियाँ अपने पीछे छोड़ती आगे बढ़ती चली जायेगी. ख़ुद को रोकना ख़ुद के लिए भी संभव नहीं उसके. अपनी कहानियों में उसका हर बार नया नाम है और एक नया चरित्र. मगर मैं मिर्र की कहानियों का एक पाठक उसे आयशा आरफ़ीन के नाम से पहचानता हूँ या कहिये कि पहचानने लगा हूँ क्योंकि मुझे उम्मीद है आगे भी उनकी कहानियों में मेरी उनसे मुलाकात होगी.

यह आसान नहीं कि आयशा अपनी हर कहानी में अपनी पिछली कहानियों से सर्वथा जुदा एक स्त्री-चरित्र चुनती हैं और ख़ुद को आर एक्स हंड्रेड के साये के आगोश में समा देती हैं. जहाँ इस कहानी में वे एक और पहचान वाली तेज चाल स्त्री हैं. मगर आयशा की कहानियाँ पढ़कर क्या लिखा जाये कि उनकी कल्पनाएं उन्हें अपने किए जाने के लिए खास दृष्टि का स्वामित्व सौंपती हैं जो उनकी कहानियों के पाठक को हैरत में डालता है और असमंजस भरे आश्चर्य में ले जाकर खड़ा कर देता है. मगर उस कल्पना संसार की खासियत यह है कि वह कभी अपने पढ़ने वाले को विश्वास से बाहर निकलने देता. पाठक उसके रचे-लिखे जाने पर भरोसा किए जाता है. यह इस मामले में भी अनूठा है कि सबसे पहले कहानीकार अपने लिखे जाने पर यकीन करती है और वह अपना विश्वास नहीं डगमगाने देती.

आयशा आरफ़ीन की विशेषता भी यही है कि उनकी कहानियों में अपनी पहचान बदल-बदलकर आगे बढ़ती स्त्री अ-उल्लेखनीय दृष्टि-सामर्थ्य से संपन्न है. इतनी की वह ‘टोटम’ कहानी की नायिका की तरह आपको यह कहकर की वह यामिनी नहीं शेषाद्री है रोमांचित ही नहीं कर सकती बल्कि वह आपको सुंदर की तरह विवाह वाले घर के पिछवाड़े में बने कुएं में सांप जैसा हो जाते हुए सरक जाने के लिए बदल सकती हैं.

आयशा आरफ़ीन की कहानी की केंद्रीय स्त्री अपनी उस दुनिया की स्त्री है जो सबकी दुनिया के भीतर अपनी दुनिया गढ़ती जाती है. एक ऐसी दुनिया जो गढ़ते जाते हुए उसके लिए भी नई है और पढ़ते जाते हुए पाठक के लिए भी नई. मुझे नहीं लगता कि कि आयशा की कहानियों की नायिका को पहले से पता होता है कि वह क्या गढ़ने जा रही है. वह गढ़ने बैठती है और गढ़ देती है.

वह एक बंद मकान में घुस जाती है. फिलहाल जिसमें रहने वाला कोई नहीं है. मगर वह उसमें अपना स्वयं का  ऑल्टरईगो खड़ा कर लेती है या ये माने कि उसके भीतर रहता आया वह अवसर मिलते ही स्वयं उसके भीतर से बाहर निकलकर उसके सामने खड़ा हो जाता है. अब वह उस घर में अपने ऑल्टरईगो के साथ खुद है. खुद के ऑल्टरईगो से जिरह करती. ख़ुद की परतों को उधेड़ती. उससे बचने की हर कोशिश में उससे भिड़ती. ख़ला का गजब तिलिस्म है जिसमें वह है और वह है. अवसर मिले तो ख़ुद से पूछने के लिए कितनी बाते हैं. करने के लिए खुद से कितने प्रश्न हैं. उधेड़ने के लिए कितनी सिलाईयाँ हैं. मगर ख़ुद से बचकर भागने का कोई रास्ता नहीं.

कोई रास्ता ख़ुद के भीतर से निकलकर बाहर नहीं जाता सब रास्ते बाहर से चलकर भीतर उतरकर ठहरते हैं. तब क्या अंत जीवन के रास्ते का अंतिम है जहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं जाता. फांसी के फंदे पर झूलती परछाई जो अब दीवार पर भी नजर नहीं आती के पास भी कोई उत्तर नहीं. बस तेज चाल आगे बढ़ना है.

यदि वह ‘ख़ला का तिलिस्म’ कहानी में ख़ुद का ऑल्टरईगो खड़ा कर सकती है तो ‘वायपर’ कहानी में ख़ुद को मीरा और बन्दगी नाम की दो स्त्रियों बांटकर एक-दूसरे से सटकर खड़ा कर सकती है. ये दो ऐसी स्त्रियाँ हैं जो माँ-बेटी हैं एक-दूसरे के लिए गहरे असमंजस की तरह हैं. प्रेम नाम का एक धागा जिसने दोनों को ख़ुद से बांध रखा है. जिसने बेटी से लिपटकर घर में कदम रखा है और अब माँ उससे लिपटी है. जैसा कि मैंने कहा कथाकार ख़ुद इन स्त्रियों को पैदा करती है तो कम-स-कम उनके बीच शत्रुता अथवा ईर्ष्या तो नहीं पनपने देती. वैसे भी ईर्ष्या, नफरत, कुढ़न उनकी कहानियों से दूर हैं  आयशा आरफ़ीन की किसी कहानी में मर्द के लिए लड़तीं दो स्त्रियाँ नहीं. ‘वायपर’ संग्रह की एकमात्र ऐसी कहानी है जिसमें दो असमंजस भरे मगर

संयत समानान्तर स्त्री पात्र हैं. ये आयशा आरफ़ीन की दो ऐसी स्त्रियाँ हैं जिसमें उसका प्रेमी उसका इस हद तक प्रेमी है कि वह प्रकाशित संदेह में घिरी उसकी बेटी है. इस संदर्भ में बेटी को देने के लिए माँ के पास जवाब के स्थान पर एक दर्शन है. जिससे बचने का बेटी के पास कोई रास्ता नहीं. कमाल है कि माँ भी शिकार है और बेटी भी शिकार है और वायपर शांति से सब साफ करके एक तरफ बैठा है.

मगर अपने प्यार को अपराजित-आत्मविश्वास की शक्ल में अभिव्यक्त करने के लिए वह सोलोमेट्स की हासिनी को चुनती है. अपराध को दंडित करने की एक अलग राह का चयन करते हम उसे यहाँ देखते हैं. वह ‘इल्हाम’ और ‘मुश्क’ की स्त्री नहीं. या वह इन कहानियों की स्त्रियों से बाहर निकलकर ‘सोलमेट्स’ की हासिनी तक आ चुकी स्त्री है. ‘इल्हाम’ की स्त्री की तड़प हासिनी के पास नहीं. वह उस खाई को लांघ चुकी है या उसमें गिरकर घिसटती-चढ़ती उससे बाहर आ चुकी है. उसके पास वह ख़ुद है. कितनी अच्छी दिखाई देती है वह ख़ुद की बाँहों में. मगर मुहब्बत की मुश्क दोनों जगह है. मिर्र जैसी. वह तुम्हें फ़रयाल की चौखट पर मंसूर की शक्ल

में मिलेगी मुजस्समा बनाती और मिटाती. क्या मुहब्बत की किस्मत में मुजस्समें बनाकर मिटाना ही लिखा है. वहाँ भी जहाँ उसे वह हासिल है, वहाँ जहाँ उसे वह हासिल नहीं.

मगर विचार यह है कि आयशा की कहानी की बहुनामी और बहुआयामी स्त्री के पास आखिर में बिछुड़ना ही बचता है. यह दुखद और पीड़ादायी तो है लेकिन कुछ चेहरों में विभक्त वह स्त्री अपनी इस नियति को अपनी पहचान नहीं बनाती. उसे पकड़कर, बैठकर, ठहरकर नहीं रह जाती. हर बार वह उसे अपने गीले बालों से पानी तरह झटक देती है. उसे ऐसा करते कभी आप देख पाते हैं, कभी नहीं. आप पहली कहानी से संग्रह की आखिरी कहानी तक पहुंचिये अंत में उस स्त्री के हिस्से वियोग ही आता. प्रेम को वह जुदा होने के परिणाम के रूप में हासिल करती है. मगर मिलने-बिछुड़ने के अंतराल में वह ‘दैहिक-नजदीकी’ हासिल करने और उसे स्वीकार करने में नहीं हिचकती. यही वजह है कि वह प्रेम में जुदा होने का अनुवाद रुदन अथवा गंवा चुके का पीछा करने में नहीं करती.

वह सोलमेट्स की हासिनी, स्कूएर वन और इल्हाम की अनाम स्त्रियों की तरह अपना दैहिक अतीत स्वीकार करती हैं. आयशा आरफ़ीन की कहानी की स्त्रियाँ ठीक वैसी हैं जैसी वह ख़ुद का होना चाहती हैं. यही वजह है कि उनकी ‘फ़रयाल’ कहानी की स्त्री हो अथवा ‘इल्हाम’ की वह मिटते जाने के बाद भी मिटतीं नजर नहीं आतीं. उनके क्षरण पर भरोसा नहीं होता. वह ‘शहरबदर’ कहानी में नायक को चिता पर लेटी माँ में मार्था की तरह नजर आकर बौखला देने को विवश जरूर कर सकती है मगर इसके बाद भी उसे अपना मिटना मंजूर नहीं.

‘ताज़ियत’ और ‘एक घोड़े की मौत’ कहानियों में आयशा आरफ़ीन ने अपनी कहानी के लिए दो यादगार स्त्री-चरित्र चुने हैं. साथ ही इन कहानियों के पुरुष चरित्र भी उतने ही संवेदनशील और प्रेम में पराजित पुरुष हैं. कहानियों की स्त्रियाँ दोनों पुरुषों की वर्तमान जिंदगी को स्वयं आईना बनकर दिखाने का मर्म छूता और संवेदित करता प्रयास करती हैं. इन दोनों कमाल की कहानियों की स्त्रियों में से एक फूलों के रास्ते और दूसरी अपनी आंखों के माध्यम से दृश्य निर्मित करती हैं. बीच में बस कुछ कथन आते हैं. दोनों कहानियों को पढ़कर मेरा हाल

यह है कि अब मुझे जब भी लालबत्ती पर कोई लड़की फूल बेचती नजर आयेगी. वह मुझे कहानी में कार का शीशा चढ़ाये बैठे पुरुष में बदलना शुरु कर देगी या मैं अपने कंधों पर लकड़ी ढोते रामो सेठ में ख़ुद को देखना शुरु कर दूंगा.

मगर स्कूएर वन में आयशा आरफ़ीन यह जानने के लिए कि- बताओ यह कैसे जाना जा सकता है कि उसकी माँ उससे कितना प्यार करती है. वह जिस तरह माँ को एक औरत के रूप में देखती हैं वह हिंदी कहानी में एक एकदम नई, परिपक्व कल्पनाशीलता और विमर्शनियता है. इसके आधार पर एक पाठक के तौर पर खुद से यह पूछने में मुझे कोई हिचक नहीं कि क्या आयशा को एक ख़ास, परिपक्व दिमाग हासिल है जिसके चलते वह ऐसे सरल से दिखाई देते प्रश्नों के अब तक न देखे दृश्यों की शक्ल में गांठ-लगे जबाव देती हैं. तब शायद बिना ना-नुकुर के मुझे इसका जबाव हाँ में मिले. अब यह आपके पाले में हैं यदि आप में सामर्थ्य है तो आप उसे खोलें और कुछ अलग हासिल करें. अलग हासिल करना आसान भी नहीं होता. कुएं के भीतर बिस्तर पर लेटी वह औरत जिसे कहानी की नायिका अपनी माँ की तरह देखती है-

लेखक को, पाठक को अपनी कल्पना और अपनी रचना का अतिक्रमण करने की चुनौती देती है. कुएं में बिस्तर पर लेटी स्त्री के बदलाव भरे दो दृश्य बंध ‘विचार’ की परीक्षा लेने में सक्षम हैं

आयशा आरफ़ीन की इन कहानियों को पढ़कर एक पाठक की तरह मैं सोचता हूँ कि हिंदी कहानी निरंतर नवनिर्मित होतीं, प्रकाशपूर्ण कल्पनाओं को हाथों में टाॅर्च की तरह लिए, दिमाग की भीतरी कंदराओं में निर्भीक घुसती चली जा रही हैं. लगता है न तो अब यह कहानीकार के भीतर का पाताल फोड़े बिना मानेगी और न ही लेखक के भीतर के अंधेरे-उजाले से लगातार संवादरत बने रहने का कोई खुद को कोई अवसर चूकने  देगी. उसे अब नव्यता से कम कुछ हासिल नहीं. वह भीतर से हासिल होने वाली खुशी और हैरत को ही नहीं अंदर से फूटने वाली पीड़ा और पश्चाताप के स्रोतों को उधेड़े बिना नहीं रुकेगी.

युवा कहानीकारों द्वारा लिखी जा रही हिंदी कहानी कमाल कर रही है. जबरदस्त कहानियाँ लिखतीं आयशा आरफ़ीन उस कमाल का प्रतिनिधित्व करतीं एक और युवा कहानीकार हैं.

 कहानी संग्रह यहाँ से प्राप्त करें

 

पवन करण
(
 18 जून, 1964; ग्वालियर,म.प्र.)

प्रकाशित काव्य-संग्रह : ‘इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफ़ोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाज़ू पर बटन’, ‘कल की थकान’ और ‘स्त्रीशतक’ खंड–एक एवं ‘स्त्रीशतक’ खंड–दो प्रकाशित.
सम्मान : ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान आदि से सम्मानित.
pawankaran64@rediffmail.com

Tags: आयशा आरफ़ीनपवन करणमिर्र
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