मुझे स्वीकार करना चाहिए कि आज से कोई पच्चीस बरस पहले, 8 अगस्त, 1996 को सुबह लगभग साढ़े दस बजे मैं नामवर जी के निवास-स्थान, एफ-32, शिवलिक अपार्टमेंट पहुँचा तो मेरी धड़कनें काफी तेज थीं और घंटी दबाकर दरवाजा खुलने का इंतजार करते समय मुझे उन्हें ‘सम’ पर लाने के लिए खास श्रम करना पड़ा. हालाँकि तो भी मैं पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहा था और खुद पर बुरी तरह झुँझलाहट छूट रही थी.
बहरहाल दरवाजा खुला और मैं भीतर जाकर बैठ गया. थोड़ी देर बाद नामवर जी इंटरव्यू के लिए तैयार होकर आए. सफेद बेदाग कुर्ता, सफेद तहमद, बगल में पान का पुड़ा! मुसकराते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा. हालाँकि अब तक मैं पूरी तरह ‘नॉर्मल’ नहीं हो पाया था और घबराहट के मारे बार-बार अपने सवालों पर नजर दौड़ा रहा था, बल्कि उनमें कुछ और जोड़ने-घटाने की निरर्थक कवायद में लीन हो गया. शायद इसलिए कि उन्होंने बातचीत के लिए मुझे बहुत कम समय दिया था, केवल डेढ़ घंटे, जबकि मेरे पास सवालों का अनंत सिलसिला था. आखिर मैं उस विलक्षण शख्स के सामने था, जिसे बरसों पहले मैंने गुरु के आसन पर बैठाया था और जिनसे एकतरफा संवाद करते हुए, पूरा एक युग बीत चुका था.
यह नामवर जी ही थे जिन्होंने मुझे खोला. मैं सत्यार्थी जी की कहानियों का बड़ा संग्रह (जिसका संकलन-संपादन मैंने और संजीव ठाकुर ने किया है.) तथा पत्रकारिता जगत पर लिखे गए अपने चर्चित उपन्यास ‘यह तो दिल्ली है’ का राजकमल से छपा पैपरबैक एडीशन नामवर जी को भेंट करने के लिए ले गया था. उन्हें उलटते-पुलटते हुए नामवर जी सहज भाव से कुछ पूछते-बतियाते रहे और मेरा मनोवैज्ञानिक भय उड़न-छू हो गया. इस बीच खुद ही उन्होंने मेरे बृहत् उपन्यास ‘कथा सर्कस’ की चर्चा की, “आपके कथा सर्कस की तो काफी अच्छी समीक्षाएँ आ रही हैं. ”
“आपने पढ़ीं?” मैंने कुछ संकोच से पूछा. पता चला, नामवर जी ने ‘हंस’ और ‘जनसत्ता’ में छपी समीक्षाएँ पढ़ी हैं. मेरे लिए यह बड़े सुख की बात थी.
“शुरू करें?” मैंने सकुचाते हुए पूछा.
“आप पानी-वानी पिएँगे?” नामवर जी ने शायद मुझ पर तरस खाते हुए पूछ लिया.
“हाँ, थोड़ा सा पानी..!” पानी पीकर मैंने खुद को थोड़ा ठकठकाया और सवालों के लिए तैयार हो गया.
हाँ, लेकिन मुझे उस ‘मनोवैज्ञानिक भय’ के बारे में थोड़ा सा और बताना चाहिए, जिसका ऊपर जिक्र हुआ है. एक तो पिछले बीस से भी अधिक वर्षों में नामवर जी को पढ़ते और उनकी ‘इमेज’ से एकतरफा झगड़ते हुए ‘मैं बीत रहा था’, और अब जबकि यह सारा कुछ एक पहाड़ की तरह मन में इकट्ठा हो गया था, वे सामने थे और मुझे उनसे बात करने का अवसर मिल रहा था. तो क्या पूछूँ, क्या नहीं, यह तय करना ही मुश्किल था.
बातचीत का विषय बहुत व्यापक था. नामवर जी के आलोचक व्यक्तित्व की बुनावट, अंतर्विरोधों और उसकी विकास-यात्रा से शुरू हुई यह बातचीत प्रगतिवादी विचारधारा के आत्मसंघर्ष, तत्कालीन साहित्य, समाज और परिस्थितियों के विश्लेषण से गुजरती हुई आने वाली सदी को लेकर नामवर जी के चिंतन और वैचारिक द्वंद्व तक को खुद में समेट लेती है.
कुछ सवाल नामवर जी की ‘इमेज’ को लेकर थे, खासकर आलोचक और वक्ता के रूप में जिस तरह से साहित्य जगत में उनकी छवि बन रही थी. कुछ भली-भली सी तो कुछ विवादास्पद भी. इनमें कुछ बहुत तीखे सवाल भी थे, लेकिन नामवर जी ने उतनी ही आत्मीय मुसकराहट और नि:संगता से उनके भी जवाब दिए, बगैर उत्तेजित हुए. हाँ, बीच-बीच में कटाक्ष भरे व्यंग्य के कुछ रेशे उसमें शामिल होते गए. बातचीत के बीच में “अब तो चाय पी जानी चाहिए” के सहज आग्रह के साथ एक बार नामवर जी उठकर गए.
अलबत्ता चाय पीते हुए भी बातचीत के सिलसिले या गति में कोई फर्क नहीं आया. बीच में दो-तीन दफा नामवर जी ने पान के बीड़े मुँह में दबाए और इससे बातचीत का ‘रस’ और बढ़ा ही. यह ‘रस’ अलबत्ता डॉ. नगेंद्र के ‘रसशास्त्र’ में शामिल न था, जिसकी बातचीत में एकाधिक बार चर्चा हुई!
बहरहाल, लौटते समय लगा, नामवर जी के आलोचक से तो मुलाकात हुई है, लेकिन नामवर जी के भीतर जो एक और नामवर है-और जो आलोचक नहीं, एक बहुत ही तारल्य भरा सर्जक बल्कि वही ज्यादा है, साथ-साथ उससे भी मिल लिया गया है. बातचीत में आचार्य हजारीप्रसाद द्विेवदी, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रामविलास शर्मा आदि का स्मरण और उनसे जुड़े प्रसंगों की निरंतर आवाजाही इस कदर हुई कि यह सारी बातचीत गहन आलोचनात्मक स्तरों पर चलती हुई भी शायद एक लंबे, आत्मीय संस्मरण का सा सुख देती है.
नामवर जी को याद करना हिंदी साहित्य के एक दौर को याद करना है।
बहुत सुंदर. प्रिय अरुण देव जी, आप बहुत ही सार्थक और गंभीर साहित्यिक कार्य कर रहे हैं. मैं नियमित पढ़ता रहता हूँ. नामवर सिंह से संबंधित मेरे अनुभव बिल्कुल अलग तरह के हैं. उनको संचित कर रहा हूँ. समालोचन का कोई सानी नहीं. बधाई हो.
बहुत सार्थक बातचीत है,,लगभग हर पहलू पर,,साधुवाद
प्रकाश जी का नामवर सिंह जी पर केन्द्रित ख़ास तौर से उनके जन्मदिन पर जो लेखांकित संस्मरण है उसमें नामवरसिंह को लेकर उनका सम्मानीय दृष्टिकोण के
साथ-साथ कुछ अनसुलझे,अनछुये पहलुओं को भी रेखांकित किया है. गौरेतारीफ़ है.
नामवर सिंह से मेरी मुलाक़ात ( खड़े-खड़े ) राठीजी ने करायी,जेएनयू का परिसर था.उनकी कँटीली मुस्कान और कटाक्ष आज भी याद है ‘ महाकवि जा रहे हैं ‘ कवि का नाम विस्मृत हो गया लेकिन लहजा याद है.बहरहाल
अशोकजी का ‘फ़िलहाल ‘ सहित कई आलोचनात्मक किताबें आई, और साहित्य में छाये घनघोर रजत-श्याम बादलों से आच्छादित आकाश को, विस्तीर्ण धुन्ध को साफ़ किया है.
प्रकाश जी ने बेबाक़ी के साथ जो उल्लेख किये हैं, वे सच के साथ नामवर जी को आत्मसात् करते हैं. रामविलास जी को उद्धृत करते हुए उनके मन को खंगालना, दुर्भावना नहीं बल्कि सहजता थी.
प्रकाश जी को पढ़ते हुए उनसे बातचीत करना अच्छा लगता है.
वंशी माहेश्वरी.
नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में अपने आलोचना कर्म के बारे में कहा था कि मैं गया तो था कविता के मंदिर में पूजा का थाल लेकर लेकिन मंदिर की गन्दगी देख झाड़ू उठा लिया और बुहारने लगा। आलोचक की वही भूमिका होती है जो सेना में ‘सैपर्स एंड माइनर्स’ की होती है।सेना को मार्ग दिखाते, पुल-पुलिया बनाते वही आगे आगे चलता है और सबसे पहले मारा भी वही जाता है। यह भी कहा था कि आलोचक न्यायाधीश नहीं, मुकदमे के बचाव पक्ष (डिफेंस) का वकील होता है और वह भी इतना ईमानदार वकील कि मुव्वकिल से केस के संबंध में कुछ छुपाता नहीं। साफ साफ बता देता है कि तुम्हारा केस कमजोर है। फिरभी, जिरह करेंगे जीतने के लिए।वह साहित्य का सहचर है। प्रकाश मनु और नामवर सिंह के बीच का यह विशद संवाद ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।इसमें कई महत्वपूर्ण बातें उभरकर आती हैं।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
आभारी हूँ भाई अरुण जी।
नामवर जी पिछले कोई पैंतालीस बरसों से मेरे मन और चेतना पर छाए हुए हैं। उन्हें खूब पढ़ा। उनके लिखे एक-एक शब्द को लेकर खुद से और अपने भीतर बैठे नामवर जी की छवि से अंतहीन बहसें कीं, यह एक अंनंत सिलसिला है।
लेकिन साथ ही मैंने उन्हें अपने गुरु के आसन पर बैठाया। ऐसा गुरु, जो शिष्य से यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ, वह मान लो। इसके बरक्स वे मेरे ऐसे गुरु थे, जो शिष्य को बहस के लिए न्योतते थे।
वे यह नहीं चाहते थे कि शिष्य ‘जी…जी’ करता उनके पास आए, बल्कि वे इस बात के लिए उत्तेजित करते थे कि आप उनके पास सवाल लेकर जाएँ। और सवालों के उस कठघरे में बैठकर जवाब देना उन्हें प्रिय था। एक चुनौती की तरह वे प्रसन्नता से सवालों का सामना करते थे।
शायद इसीलिए मेरे मन में उनके लिए इतना आदर और इतनी ऊँची जगह है, जहाँ कोई दूसरा नहीं आ सका।
और इससे भी बड़ी बात थी, उनका आत्म-स्वीकार या कनफेशन, जहाँ वे खुद अपने काम से असंतोष जताते हैं, और मानो एक तीखी आत्मग्लानि के साथ कहते हैं कि वे इससे कुछ बेहतर कर सकते थे, या कि उन्हें करना चाहिए था।
नामवर जी की इस ईमानदारी ने मुझे उनका सबसे ज्यादा मुरीद बनाया। कम से कम मैंने अपनी निसफ सदी की साहित्य यात्रा में ऐसा कोई दूसरा लेखक या आलोचक नहीं देखा, जिसने अपने काम से इस कदर असंतोष जताया हो या इतनी ईमानदारी से कनफेशन किया हो।
इसीलिए आत्मकथा लिखते हुए नामवर जी पर लिखना मेरे लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा था। वह लिखा गया, और ‘समालोचन’ के जरिए मेरे बहुत सारे मित्रों और सहृदय पाठकों तक पहुँचा। इसके लिए भाई अरुण जी और ‘समालोचन’ का साधुवाद।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
नामवरजी को या तो बहुत प्रशंसा भाव से देखा गया (उनके आगे-पीछे उनके शिष्यों की एक बड़ी जमात थी ) या फिर अपने पूर्वाग्रहों के कारण अति निंदाभाव से। लेकिन उनकी साहित्यि समारोहों में उपस्थिति अनिवार्य थी। ।वे एक कद्दावर व्यक्ति थे और प्रखर वक्त थे। उन्हें सुनना स्वयं को समृद्ध करना था मेरे लिए।