पक्षधरता का चुनाव और आचरण का संकट
कुमार अम्बुज
पक्षधरता संबंधी स्क्रीनिंग या टिप्पणी उन्हीं लोगों पर होती है जो सार्वजनिक जीवन में विचार, प्रतिज्ञा, लेखन या किसी आचरण के द्वारा अपने आपको इस हेतु प्रस्तुत कर चुके हैं. अथवा उन पर जो दो नावों की सवारी करना चाहते हैं. कई लोग विश्वामित्र की मुद्रा में प्रतिबद्धता की घोषणाएँ करते हैं लेकिन परीक्षा तब होती है जब उन्हें लुभाया जाता है. तब कोई भी देख सकता है कि ज़रा-से आकर्षण उन्हें डिगा देते हैं. तपस्या भंग हो जाती है. फिर विचलन को किसी अवसर के रूप में देखना शुरू होता है. विचलन के पक्ष में तर्क खोजे जाते हैं. पूर्व के विचलन उदाहरण और आदर्श की तरह पेश किए जाने की क़वायद शुरू होती है.
यदि कोई चाहता है कि वह मनमाना आचरण तो करे लेकिन मीमांसा, आलोचना, टीका के दायरे में न आए तो यह एक बेतुकी इच्छा है. क्योंकि लेखक, कलाकार के जीवन का एक पक्ष सार्वजनिक भी होता है. इसलिए कौन कहाँ बना रहता है, क्या करता है और किन रास्तों से गुज़रता है या किन मुद्दों से कन्नी काट जाता है, लिखता क्या है और अमल क्या है, ये सभी बिंदु महत्वपूर्ण हैं.
एक)
इस संसार में यदि सभी विचारवान लोग एक ही तरह से सोचते, एक ही तरह से इस दुनिया-समाज को देखते तो कितनी आसानी, शांति और यथास्थिति होती. लेकिन यह मानकीकरण, एकरूपता और एकसरीखापन इस संसार में सिवाय एक सड़ते हुए पोखर के, कहीं नहीं पाया जाता. न वनस्पतियों में, न प्राणिजगत में और न ही प्रकृति के अन्य रूपों में. समाजों में भी नहीं. इसलिए किसी भी समस्या और उसके निदान के बारे में सिर्फ़ समन्वयवादी या समझौतापरस्त ढंग से नहीं सोचा जा सकता.
यह देखा गया है कि अकसर समन्यवाद या सर्वसमावेशी पैंतरा किसी न किसी अवसरवाद में जाकर स्खलित होता है. जो तथाकथित उदारवादी, व्यक्तिवादी, परिवारवादी, समन्यवादी, कार्पोरेटी, न्यासवादी, एनजीओवादी साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाएँ हैं वे अपने अधिकांश में महज़़ रोज़ी-रोटी चलाने, अनुदान और अन्य निधि व्यवस्था में एक लाभार्थी जैसे याची प्रभामंडल तले, ‘निजी हैसियत’ कमाने के प्रत्यक्ष-परोक्ष उद्देश्य से काम कर रही हैं. लेकिन जब हम किसी विचार में भरोसा करते हैं और किसी दृष्टि के साथ अपने को संबद्ध करते हैं तो फिर संगठन की ज़रूरत पड़ती है, जिसके माध्यम से वैचारिकता का क्रियान्वयन मुमकिन हो. क्योंकि ‘सामाजिक दर्शन या वैचारिकता’ को आप केवल व्यक्तिगत तौर पर लागू नहीं कर सकते. वह अपनी प्रकृति, आकांक्षा और बुनियाद में ही सार्वजनिकता की माँग करती है. स्वतंत्रता, समानता, लोकतांत्रिकता, जन प्रतिरोध, न्याय वगैरह अपनी मूल आकांक्षा में ही बहुवचनीय हैं. इन्हें किसी व्यापक समाज में ही घटित किया जा सकता है.
ऐसी वैचारिक साहित्यिक संस्थाओं या उनके प्रखर सदस्यों को, अन्य विचारधारा के संगठन अपने मंच का उपयोग क्यों करने देना चाहते हैं, इस विषय पर बार-बार ग़ौ़र किया जाना आवश्यक है. जब हमारा विचार, साहित्य, कला की समझ और अजैण्डा एकदम अलग है, बल्कि कहीं-कहीं एक-दूसरे के विपरीत है तो क्या हम एक-दूसरे को समझाने के लिए एक-दूसरे के मंच शेयर करें?
मंच, रचना या विचार शिविर नहीं होते और न ही इस तरह की कोई मंशा वहाँ होती है कि धुर विरोधी विचार को एक लोकतांत्रिक, सुविचारित और सदाशयी जगह उपलब्ध कराई जाए. वहाँ बारीक़ अक्षरों में शर्तें लिखी रहती हैं और कई बार मोटे अक्षरों में भी. दरअसल, अभी भी साहित्य-संस्कृति में दक्षिणपंथी और पुनरुत्थानवादी संस्थाओं के सामने मुश्किल यह है कि उनके पास मान्य और तेजस्वी लेखक प्राय: नहीं हैं. उनके महत्वहीन, गरिमाहीन और लेखकविहीन आयोजनों को कुछ गरिमा, महत्व और लेखकीय समर्थन मिल सके, इसलिए वे उन तमाम सुप्रसिद्ध लेखकों को भी बुलाते हैं जिनमें अधिकांश अभी भी स्वयं को, टूटा-फूटा ही सही, वामपंथी कहते हैं या कहें कि वे दक्षिणपंथी तो नहीं हैं. उन्हें इसलिए भी आमंत्रित किया जाता है ताकि ऐसी संस्थाओं को वह वैधता और प्रतिष्ठा मिल सके जो उन्हें अन्यथा प्राप्त हो नहीं सकती.
ऐसी संस्थाएँ हमेशा घालमेली लोकतांत्रिकता का निर्माण करना चाहती हैं जहाँ किसी भी तरह का विमर्श हास्यास्पद, कारुणिक या समन्यवादी हो जाए. उन मुद्दों पर बहस हो जो सत्ता के मुरीद मुद्दे हैं. वे अपने ख़िलाफ़ किसी भी प्रतिरोध को नखविहीन या आपसदारी का बना देना चाहती हैं और जो लेखक इन आयोजनों में नहीं जाते उनके संदर्भ में यह जताना चाहती हैं कि हम तो उन्हें आमंत्रित करते हैं, वे आते ही नहीं. यानी वे आएँ तो उनके आयोजकीय खाते में लेखक बढ़ते हैं और न आएँ तो उन पर दूरी बनाए रखने, छुआछूत करने या कट्टरता का लांछन सहज ही लगाया ही जा सकता है.
दो)
याद रखें कि लेखकों ने अपना मंच और अपना संगठन बनाया ही इसलिए है कि वे अन्य से कुछ अलग हैं. उनके विचारों से पृथक और अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप काम करना चाहते हैं. संख्या में चाहे वे कम हों या ज़्यादा. यह अलग संगठन होना छुआछूत नहीं है, असहमति है, विरोध है और पृथक कार्य है. यों भी, दूसरों के मंच का उपयोग करना गहरी योजना, समझ और चतुराई की माँग करता है. सामान्यीकरण करते हुए इसकी व्यापक छूट उचित नहीं. इसमें औसत का नियम नहीं लगाया जा सकता कि नदी में से पौने छह फ़ीट का आदमी बिना डूबे निकल गया तो ‘पौने छह फ़ीट ऊँचाई के औसत’ समूह को नदी में से पार उतरवा दिया जाए. (और फिर फ़ासीवादी नदी ऐसी जिसमें पानी लगातार बढ़ रहा हो.)
वैचारिक बहुलता, लोकतांत्रिकता का सम्मान अपनी जगह है लेकिन आज दक्षिणपंथ शासित राज्यों की सांस्कृतिक संस्थाओं, परिषदों, अकादेमियों में पदासीन सचिवों, संपादकों, न्यासियों, अध्यक्षों का बायोडेटा देखें तो इनमें से अधिसंख्य की साहित्यिक-सांस्कृतिक विपन्नता, यथारूप कुटुम्बकम और मानवतावाद का अंदाज़ा आसान है. उनके नाम पढ़कर हतप्रभ हुआ जा सकता है, वे किसी भी कोटि के लेखक नहीं है. साहित्य उत्सवों में साहित्येतर इतना प्रगल्भ है कि पृथक से रेखांकित या चिह्नित करने की आवश्यकता नहीं रह गई है. मीना-बाज़ार में हर बार नये इज़ाफ़े हो रहे हैं.
इस बीच मानो जनपक्षधर लेखकों के सामने संकट यह आन पड़ा है कि जाएँ तो जाएँ कहाँ! लेकिन समाधान यह कतई नहीं हो सकता कि कहीं भी चले जाएँ. या अचानक, बिना सोचे-विचारे समन्वयवादी, समझौतावादी या सत्तानुरूप हो जाएँ. सच्चा उपाय तो यहीं से निकलेगा कि वैचारिक संगठनों की सक्रियता बढ़ाई जाए. छोटे-छोटे दल बनाए जाएँ, प्रखरता से काम किया जाए. यह कुओं और तालाबों को रिचार्ज़ करने जैसा व्यापक और ज़रूरी काम है. इनकी जगह बड़े बाँध काम न देंगे क्योंकि उनके उद्देश्य अलग हैं. उनसे लाभान्वित होने की आबादी अलग है और उनसे डूब में आनेवाली आबादी और गाँव अलग हैं.
जब तक वैचारिक साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन पुनः सक्रिय और तेजस्वी नहीं हो जाते, अकेले ही या कुछ समानधर्मा मित्रों के साथ अपना काम ज़ारी रखा जा सकता है. प्रतिबद्धता और धीरज के साथ. इधर-उधर लपलपाने से कैसे काम होगा?
तीन)
फ़ासीवादी संरचनाओं में कैसे और कितनी जगह खोजी जाए, इसकी एक वृहत्तर रणनीति तो हो सकती है लेकिन इसमें ख़ास तरह के कौशल, चतुराई और विवेक की आवश्यकता होगी. इसलिए यह भी सोचना होगा कि ऐसे संस्थान भला क्यों आपको आमंत्रित करेंगे, क्यों आपको जगह देंगे? ज़ाहिर है इसमें उनकी भी कोई न कोई रणनीति शामिल है. वे भोले या उदार संगठन नहीं हैं. उनकी अपनी योजनाएँ, प्रशिक्षण, कैमोफ्लाज़, शिकारीपन और लक्ष्य हैं. यदि आप यह मानकर चल रहे हैं कि उनके मंच पर जाकर केवल आप उनका उपयोग कर रहे हैं तो इससे अधिक भोलापन और कुछ नहीं. यह ग़ाफ़िल होना है. निश्चय ही, वे आपको उनके अपने तात्कालिक लाभ या रणनीति के तहत ही बुलावा भेज रहे हैं. वहाँ कार्यरत कुछ लोग मित्र या संवेदनशील हो सकते हैं लेकिन वे अपने संस्थान के अजैंडे से विवश हैं. वे भी वहाँ शिकार हैं हालाँकि काम उन्हें शिकारी का मिला है.
यहाँ यह याद दिलाना उचित है कि अगर आप अपने मंच से अपना विचार, अपना रॉकेट प्रक्षेपित नहीं कर सकते तो किसी दूसरे के प्लेटफॉर्म से वह इतनी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष शर्तों पर और इतने कुहासे के बीच लांच होगा कि ‘लांचिंग’ ही संदिग्ध हो जाएगी. यह भी संभव है कि वह प्रक्षेपण आपके ही अब तक के बनाये शिविर और घर को निशाने पर लेकर ध्वस्त कर दे.
कई प्रदेशों में दक्षिणपंथी तत्व इतने मजबूत, एकीकृत, राजनीतिक रूप से शक्तिशाली और दुस्साहसी हैं कि आप धर्मान्धता या सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ अथवा पूँजीवादी संस्थानों के विरोध में कोई बयान दीजिए, लेख लिखिए, आप पर मुक़दमा वगैरह ज़रूरत हुई तो बाद में चलेगा, उनके संगठनों के तथाकथित सांस्कृतिक सदस्य, छुटपुट लोग, आपके ऊपर व्यक्तिगत आक्रमण कर देंगे और मुमकिन यही है कि आप इस तंत्र में उनके विरुद्ध कुछ न कर पाएँ. कई बार तो आप केवल इसलिए निशाने पर हैं कि आप विचारवान लेखक हैं, पत्रकार हैं, नागरिक हैं. एक दर्जन लोग अभी भी इसलिए कारागार में हैं. यदि लिखने, बयानबाज़ी करने के बावजूद आपके ख़िलाफ़ कुछ नहीं हो रहा है तो समझिए कि अभी आप उनके रास्ते में उल्लेखनीय अवरोध नहीं बने हैं. इसके समानांतर प्रतिरोध के सिनेमा, साहित्य और नाटक के प्रदर्शनों को रोकने, अराजक ढंग से व्यवधान पहुँचाने की ख़बरें तो रोज़ ही पढ़ी-सुनी जा सकती हैं. यदि अब भी आप हँस रहे हैं तो ब्रेष्ट से क्षमायाचना सहित यह कि आप जानबूझकर बुरी ख़बरों से मुँह फेरकर बैठे हैं. इसलिए बुरी ख़बरें आप तक पहुँच नहीं रही हैं.
इधर, अभी दशक-दो दशक पहले ही कुछ युवा और वरिष्ठ लेखक तुर्क, ग़ुस्सैल, नाराज़, आक्रामक थे और अपने तेवरों के लिए विख्यात लेकिन अब शायद अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है कि इनमें से अधिसंख्य अवसरवादी थे. पहले फ़ैशनेबल वामपंथी होने, लेखक-संगठनों से जुड़ाव के अपने अवसर-लाभ दिखते थे सो उनके साथ हुए. अब उनका तर्क है कि ‘कहाँ कहाँ नहीं जाओगे’, ‘किस किस को मना करोगे’, ‘यह तो छुआछूत है’. ‘चारों तरफ़ अब ऐसी ही संस्थाएँ हैं, ऐसे ही लोग हैं.’ ‘वे भी इसी समाज से हैं, सबसे ही तो अपना संबंध है.’ ‘सबको शिक्षित करना है, अपने ही जैसे लोगों के बीच में क्या बोलते रहना.’ ‘एक विशाल साहित्यिक परिवार है.’ अब ये समावेशीकरण पर जोर देते हैं, हर जगह से पैसा, चर्चा और सुविधा लेना है. हर जगह छपना चाहते हैं. कहीं के लिए भी साक्षात्कार और तस्वीरें ले जाइए. इनका कहना है कि हम तो भाई, इन सब चीज़ों से ऊपर उठ गए हैं और वक़्त भी वैसा नहीं रहा. सच्चाई यह है कि ये उनके मंचों का ‘उपयोग’ नहीं, ‘उपभोग’ करना चाहते हैं.
तब प्रश्न यह उठता है कि आपने अपना मंच या संगठन क्यों बनाया था, आप उसमें शामिल क्यों हुए? रही तर्क की बात तो गाँधी के हत्यारों के पास भी, हत्या करने का तर्क रहा आया है. गोर्बाचोव, इंदिरा गाँधी, मनमोहन सिंह के पास भी अपने कृत्यों का तर्क रहा है. डॉ. हेडगेवार के पास तो लिखित है. अब ट्रम्प के पास है. रूस और इजराइल के पास भी युद्ध हेतु तार्किक बयान है. इसलिए देखा जाना चाहिए कि उस तर्क के साथ आप अंतत: खड़े कहाँ जाकर होते हैं. और यदि आप बार-बार ‘‘वहीं’’ जाकर खड़े होते हैं तो फिर किसी भी तर्क का कोई मायना नहीं रह जाता. वह मात्र शब्दाडम्बर है. दरअसल, आपकी ‘पोजीशन’ ही अर्थवान और निर्णायक है. वही आपके विचारों का वास्तविक सूचकांक है.
चार)
यह भी कम अजीब स्थिति नहीं कि किसी दक्षिणपंथी संस्थान या विभाग में अपने पदभार या आयोजनकर्ता हो जाने से अचानक कोई उदारवादी लेखक सोचने लगता है कि उसके रहते सभी वामपंथी लेखकों को इस संस्था में आना-जाना शुरू कर देना चाहिए. वह मान लेता है कि ऐसा उसका न केवल हक़ है, बल्कि यह उसका साहस है कि वह वामपंथी छवि के लेखकों को आमंत्रित कर रहा है. कि वह उस संस्था के द्वार बावजूद विपरीत विचार की सरकार के, वाम लेखकों के लिए भी खोले दे रहा है. वह सारा दबाव लेखकों पर डालेगा बजाय इसके कि वह संस्था या अपने भीतर उन कारणों को दूर करे जिनकी वजह से उस संस्था के प्रति बहिष्कार, विवाद, संशय या दुविधा है. लेकिन वह ऐसा करता नहीं क्योंकि वह तो सत्ताधीशों के साथ अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंधों पर ही वहाँ टिका है.
ध्यान से देखें तो दिखेगा कि वह स्वयं दया का पात्र है, अपना ही कैरीकेचर है, इसलिए अब वह एक आभासी वातावरण बना देना चाहता है जिसके अंतर्गत उसे अपनी प्रशासकीय, प्रबंधन, संपादकीय या अकादेमिक श्रेष्ठता साबित कर देना है. फिर वह तमाम लेखकों को प्रलोभित करता है, निजी संबंधों का वास्ता देता है, तोड़-फोड़ करता है. यह दिलचस्प विडंबना है कि हमारे अनेक ‘तथाकथित प्रतिबद्ध लेखक’ इस हेतु उत्सुक और दीवाने हो जाते हैं. लेकिन इस वजह से समाज में, साहित्य की दुनिया में, वैचारिक संघर्ष में कुछ भी ऐसा औचित्यपूर्ण घटित नहीं होता कि इस आवाजाही के पक्ष में खड़ा हुआ जा सके. यों तो एक ‘रसरंजन पार्टी’ भी हमारे लेखकों के विचारों को तात्कालिक रूप से ही सही, रातों-रात बदल सकने में सक्षम हो जाती है. लेकिन इन कारणों से भी आवाजाही या समन्यवाद का तर्क और औचित्य नहीं बनता.
प्रसंगवश- अभी-अभी ख़बर सामने आई है कि ब्रिटिश बुलडौज़र कंपनी ‘जेसीबी’ द्वारा दिए जानेवाले साहित्यिक पुरस्कार को हमारे देश और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक लेखकों ने प्रश्नांकित करते हुए खुला पत्र जारी किया है. कि पैसे या पुरस्कार से अधिक महत्वपूर्ण वैचारिक स्पष्टता है. कि संस्थाओं का दोहरा चरित्र नहीं चलेगा. कि एक हाथ से दमन और दूसरे हाथ से पुरस्कार. कि एक में नरम दस्ताना, दूसरे में मारक हथियार. प्रतिरोध कहीं न कहीं जारी रहता है, आप इसमें शामिल हैं या नहीं हैं, बस यही फ़र्क़ है. इसलिए कौन कहाँ ठहरा हुआ है, किन रास्तों से गुज़रता है, किसका समर्थन करता है या किन मुद्दों से कन्नी काट जाता है, ये सभी बातें निर्णायक हैं. महत्वपूर्ण हैं.
यों कहीं भी, किसी अन्य विचार के मंच पर जाने के लिए किसी तर्क या बहाने की ज़रूरत है भी नहीं. यह व्यक्ति स्वतंत्रता का विषय भी हो सकता है लेकिन फिर वैचारिक और प्रतिबद्ध संगठनों घोषणाओं से दूरी बनाकर रखिए. अन्यथा अपने कृत्य को किसी व्यावहारिकता की ओट में ‘सही’, ‘ज़रूरी’, ‘समयानुकूल’ या अपनी बात कहने के लिए व्यापक मंच साबित करने की कोशिश हास्यास्पद और संदिग्ध होने के लिए अभिशप्त है. किसी सार्वजनिक माध्यम का उपयोग करना एक बात है और उसका पार्टनर हो जाना, उसका हिस्सा होना या उसका सक्रिय सहायक हो जाना नितांत दूसरी बात. ख़ुशी की बात है कि ‘कुछ ज़्यादा लोग’ और ‘कुछ कम लोग’ एक तरह से नहीं सोचते हैं, इसलिए इस विषय पर असहमति है, विवाद है और यह बना रह सकता है.
या आप इस बात पर कुछ भरोसा रख सकते हैं कि एक सच्चा लेखक छोटे से कमरे के एक कोने में बैठकर अपनी बात लिखता है और वह पूरे संसार में फैल सकती है. इंटरनेट और सोशल मीडिया के पहले भी यह होता रहा है. अब तो अधिक विकल्प हैं. आसानियाँ हैं. लेकिन यदि कोई लेखक संगठनों, लेखकों की सामूहिक वैचारिकता और पक्षधरता के साथ है तो अपना पक्ष असंदिग्ध बनाए रखना एक जवाबदारी है. दायित्व है. केवल लिखने में नहीं, केवल विचार में नहीं, अपने आचरण में भी. वरना यह तो हो नहीं सकता कि काँख भी ढँकी रहे और विरोध में उठे हाथ की मुट्ठी भी तनी रहे.
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लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं. किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित. ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com |
बिलकुल मनाही ठीक नहीं है, देखना होगा कि हम क्या आयोजकों की मंशा को वैधता दे रहे हैं,या उनकी कथित आवभगत,उदारता, तथाकथित शुल्क,अनुग्रह राशि,सम्मान, शाल, पुष्प गुच्छ , स्मृति चिन्ह से लहालोट हो कर मुदित।भाव,या पाखंडी उपेक्षा से आनंदित हो कर उनकी बातों,एजेंडा को शब्द चातुर्य से व्यक्त कर रहे हैं। हमें भी अपनी बात कहने का सलीका, साहस,समझ होनी चाहिए।
इस मामले में लेनिन आदर्श हैं. पक्षधरता की यांत्रिकता भी कम पीड़ादायक नहीं होती. इकतरफा पक्षधरता गहरी निराशा और अवसाद में न बदल जाय इसके उपायों और विकल्पों पर भी सोचा जाना चाहिए. बहुमत और बहुसंख्यकता पर आधारित लोकतंत्र में जनविमुख सिकुडती पक्षधरता के कोई मायने हैं क्या? इस राजनीति की शतरंज के खिलाडी सिर्फ आपस में लडकर निपट लेंगे और सत्ता का….जुलूस शान से निकलता चला जायेगा.
ताज्जुब तो यह है कि इस मामले में तथाकथित वामपंथी लेखक ही ज्यादा परेशान क्यों हैं .जिन राजनीतिक दलों या विचार के प्रति उनकी पक्षधरता है उनके नेतृत्व में इसे लेकर कोई चिन्तन और चिन्ता क्यों नहीं?क्या वहां कोई नम्बूदरीपाद नहीं बचा?यदि ऐसा है तो लेखकों को सब काम छोड़कर पक्षधर दलों का नेतृत्व क्यों नहीं संभाल लेना चाहिए?शुद्ध आचरण का ठेका लेखक ही क्यों ले?
यहां यह दिलाना आवश्यक है कि आप अपने मंच से अपना विचार, अपना रॉकेट प्रक्षेपित नहीं कर सकते तो किसी दूसरे के प्लेटफॉर्म से वह इतनी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष शर्तों पर और इतने कुहासे के बीच लांच होगा कि ‘लांचिंग’ ही संदिग्ध हो जाएगी. यह भी संभव है कि वह प्रक्षेपण आपके ही अब तक के बनाये शिविर और घर को निशाने पर लेकर ध्वस्त कर दे.
याद रखें कि लेखकों ने अपना मंच और अपना संगठन बनाया ही इसलिए है कि वे अन्य से कुछ अलग हैं. उनके विचारों से पृथक और अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप काम करना चाहते हैं. संख्या में चाहे वे कम हों या ज़्यादा. यह अलग संगठन होना छुआछूत नहीं है, असहमति है, विरोध है और पृथक कार्य है. यों भी, दूसरों के मंच का उपयोग करना गहरी योजना, समझ और चतुराई की माँग करता है. सामान्यीकरण करते हुए इसकी व्यापक छूट उचित नहीं. इसमें औसत का नियम नहीं लगाया जा सकता।…सही।
उल्लेखनीय लेख। आभार ।
भाई कुमार अंबुज ने बहुत विस्तार से इस समय उठने वाले प्रश्नों का उत्तर दिया है। वे केवल इस तरह के आयोजन में शामिल होने वाले साहित्यकारों ,आयोजन में उठाए गए विषय,साहित्येतर गतिविधियां , और आयोजन के उद्देश्य, आयोजकों के समीकरण इत्यादि पर ही टिप्पणी नहीं करते बल्कि साहित्यिक संगठनों के अपने आत्मालोचन पर भी प्रश्न खड़े करते हैं। संभव है यह इस दौर के कुछ युवा और वरिष्ठ लेखकों के मन में विचारधारा प्रतिबद्धता जैसे बिंदुओं को लेकर कुछ बीज बोने का काम करे। विचारधारा के नाम पर लगभग एक पूरी की पूरी पीढ़ी अब शून्य है दर्शन का अध्ययन उनके पास नहीं है। साहित्य का अध्ययन भी लोकप्रियता से प्रभावित है। उम्मीद करते हैं कि यह आलेख ऐसे लोगों तक भी पहुंचेगा। भाई कुमार अंबुज को बधाई। संगठनों की प्रतिबद्धता विचार और युवा पीढ़ी को लेकर भी एक विस्तृत आलेख की उनसे अपेक्षा है।
इस लेख को नरेश सक्सेना के आलोक में नहीं पढ़ा जाना चाहिए…तब रौशनी कम हो जायेगी और रौशनाई फैल रहेगी, अक्षर नहीं दिखेगा, एक धुंधला-सा चित्र दीखेगा…इस लेख से हल्के इशारे निकाल दिए जाएं तो यह शानदार लेख है……
Manoj Mohan जी, बिल्कुल। यह किसी
लेखक विशेष के संदर्भ में है भी नहीं।
सहमत
दरअसल हमारे बहुत से वरिष्ठ और साथ के मित्र इस तरह की पक्षधरता धरते हुए तमाम पैसे वाले और उनकी पक्षधरता के ठीक उलट संस्थानों में शिरकत करते हुए उन्हें वैध साबित कर रहे हैं।
जेसीबी का विरोध करने वाले साहित्यकार घोर पाखण्डी हैँ जब उन्हेँ अपने देश मेँ रजनीगन्धा साहित्य आजतक का ‘कार्यक्रम’ नहीँ दिखता। कैंसर किङ्ग के कारनामेँ नहीँ दिखते और तो और कोई स्वर तक नहीँ उठता। बात यही है कि एजेण्डा क्या है? किसी का रजनीगन्धा है किसी का जेसीबी है। लेकिन जनपक्षधरता, सत्यता और शुचिता किसी के पास नहीँ है। यदि होती तो इन साहित्य मेलोँ पर कोई निर्णायक कदम कब का उठ चुका होता।
सुझाव:
प्रियवर, पहले आप जेसेबी पुरस्कार संबंधी विरोध पर लेखकों की सूची देख लें फिर कुछ बात कहें। (यह असद जैदी की फेसबुक दीवार पर है।) और उचित समझें तो इस मसले पर अपना स्टैंड भी स्पष्ट कर दें ताकि भविष्य में वह भी एक संदर्भ बिंदु रह सके।
सर, मैँने अपनी स्थिति पहले भी स्पष्ट की थी। फिर से कर देता हूँ। वह यह है कि चुनिन्दा और सुविधाजनक विरोध और प्रतिरोध पाखण्ड के सिवा कुछ नहीँ है। रजनीगन्धा आदि हानिकारक चीजेँ जब साहित्य का समर्थन चाहती हैँ तो देश के मूर्धन्य साहित्यकारोँ ने मूक सहमति दे कर उसमेँ भागीदारी ली। मैँ फेसबुक पर नहीँ हूँ और असद ज़ैदी जी के घोषणापत्र से कोई सरोकार नहीँ रखना चाहता। लेखकोँ की सूची चाहे जितनी भी हो या कितनी सम्मानीय या प्रतिष्ठित क्योँ न हो, रजनीगन्धा या शराब, बीडी़, सिगरेट या बीयर बनाने वालेे बुकर वाली कम्पनियाँ जो सीधे लोग के पतन की जिम्मेदार हैँ, उसकी तरफ से मुँह मोड़ लेने से ही उनका चरित्र स्पष्ट है। कहने का अर्थॅ यह है कि राजनैतिक पक्षधरता या चुनाव शुचिता या सत्यता या जनपक्षधरता का अवलम्बन नहीँ है। यदि ऐसा होता तो साहित्य समारोह केवल आम जनता के चन्दे से चलते। पुरस्कारोँ की दरकार कभी न होती।
यह आपका और बहुतोँ का मानना है कि राजनैतिक पक्षधरता ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। यहाँ मैँ रेखाङ्कित करना चाहता हूँ कि राजनीति का मूलभूत प्रश्न समुदायगत हित है, व्यक्तिगत हित नहीँ। साहित्य व्यक्तिगत कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है। जहाँ इस सिद्धान्त का अतिक्रमण होता है, जैसा कि लोग डेढ़ सौ साल से करने मेँ लगे ही हैँ, साहित्य ने आमजन से खुद को दूर कर अजायबखाने का माल बना दिया है।
आलेख पढ़ा । अच्छा लगा कि समस्या पर विचार तरतीब से किया गया है। साहित्य के नाम पर उत्सव का मायाजाल विचारधारात्मक लेखन को भले प्रभावित न करे, उसके तेज को आगे चलकर प्रभावित तो करता ही है। पूँजी का प्रगल्भ मोहपाश आपको बाँधे भी और खरोंच भी न आये, ऐसा कैसे हो सकता है? असल में राजनीतिक शक्तियाँ जब कमजोर पड़ती हैं, तो विचार में उदारतावाद की घुसपैठ लाजिम है। मसला गंभीर है और वैष्णवी शुचिता के रास्ते निदान ढूँढना भी अतिवाद का शिकार होना होगा। तथापि…..
रायपुर साहित्य महोत्सव में सम्मिलित होने को लेकर मैंने नरेश सक्सेना जी से और रणेन्द्र दोनों से (साक्षात्कार में) प्रश्न किया था। नरेश जी का ख़याल था कि लेखक को ‘हर जगह’ जाना चाहिए। दूसरी तरफ़ रणेन्द्र जी ने कहा कि वहाँ जा कर ‘ग़लती’ हो गयी। दोनों बातें लिखित तौर पर दर्ज हैं।
लेखक संगठनों की स्थिति और राजनीति बहुत साफ़ नहीं है। प्रायः वे औसत या ख़राब लेखन को ही प्रोत्साहित करते हुए, अच्छे लेखकों के चेहरे इस्तेमाल करते हैं। इसके पीछे विचारधारात्मक प्रतिबद्धता इत्यादि का तर्क देते हैं। ‘जाति’ भी वहाँ कारक तत्त्व होती है। उदारता और समाविष्टि का नाटक दिखाने के लिए दलित, स्त्री, आदिवासी, मुसलमान लेखक भी पासंग की भाँति इस्तेमाल कर लिये जाते हैं। लेखक संगठनों ने तो अपने मध्य के लेखकों को भी उपेक्षा से बर्बाद किया है।
न्यासों आदि का भी यही हाल है। वहाँ ‘सिफ़ारिश’ और ‘अनुशंसा’ को वरीयता दी जाती है। लेखकों को बर्बाद करने के लिए इतना काफ़ी है कि उन्हें किसी मंच पर पहुँचने के लिए अनुशंसा करने वाला मंच के अधिष्ठाता का कोई प्रिय चाहिए। जबकि संगठनों और न्यासों को देखना चाहिए कि कौन अच्छा कार्य कर रहा है और कौन उपेक्षा से मर रहा है।
हिन्दी-लेखन का यह टुटपुँजियापन कभी ख़त्म होगा ऐसा संभव होता नहीं दिखायी देता। मेरा ख़याल है कि ‘साहित्य आज तक’ में जाने के लिए भी जो सूची बनी होगी उसे भी किसी अवसरवादी मठाधीश द्वारा ‘वेरीफ़ाई’ किया गया होगा।
प्रतिबद्धता और विचारधारा इत्यादि लेखक के ज़मीर (अंतः करण) पर निर्भर हैं। जैसा कि अवधी में मुहावरा है, ‘बाँधे बनिया बज़ार नहीं लगती।’ कार्पोरेट तो ऐसी स्थितियाँ निर्मित करने के लिए ही है। यह तर्क बेहूदा और निष्ठा को विष्ठा में बदलने वाला है कि दूसरे ऐसा कर रहे हैं, इसलिए मैं भी कर रहा हूँ।
एक बार फिर से बेहद जरूरी और विवादास्पद मुद्दे पर स्पष्ट और सुलझी हुई दृष्टि रखने वाला लेख।
लेकिन आश्चर्य है कि दुनिया को राय दिखाने का दावा करने वाले लेखक हर साल इसी चौराहे पर आकर खड़े हो जाते हैं।
हर साल ऐसे ही लेख और बहस की जरूरत होती है।
उन्हीं घिसे-पिटे तर्कों को लेकर कोई और आ खड़ा होता है- हम जनता के पास जा रहे हैं, अपनी बात कहने जा रहे हैं, उनके मंचों का उपयोग करने जा रहे हैं!!!
अब “जनता” शब्द का विश्लेषण भी जरूरी है कि क्या जनता बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स के साहित्यिक मेलों में ही होती है?
क्या कोई लेखक किसी संगठन का सदस्य हुए बग़ैर प्रतिबद्ध नहीं हो सकता? क्या समाज के प्रति प्रतिबद्धता विचारधारा से बंधे बिना संभव नहीं? हमारे यहाँ तो संगठन विचारधारा से कहीं ज़्यादा राजनीतिक दलों से प्रभावित होते हैं। इसलिए विचारधारा का स्रोत एक होते हुए भी अलग-अलग संगठन खड़े हो जाते हैं। एक लेखक के निधन पर अलग-अलग शोकसभाएँ होती आई हैं। जब-तब पार्टी के राजनीतिक दिशानिर्देश भी लेखक संगठन के सदस्य लेखकों पर लाद दिए जाते हैं। प्रतिबद्धता के बावजूद इमरजेंसी के समर्थन की ऐतिहासिक भूल इसका बहुत बड़ा उदाहरण है। और शायद सबक भी। मेरी निजी राय किसी साहित्य-उत्सव या साहित्य के पुरस्कार के विरुद्ध हो सकती है, पर आयोजन में जाने न जाने या पुरस्कार लेने न लेने का निर्णय लेखक को अपने विवेक से करना चाहिए, संगठन के आदेश से नहीं। संगठन को भी लेखक पर दबाव डालने, मिलकर घेरने और लांछित करने की नीति से दूर रहना चाहिए। याद रखिए, समानधर्मा लेखक खुली सांस नहीं ले पाएगा तो एक रोज़ खुले में चला जाएगा। लिखने के लिए लेखक को किसी संगठन की ज़रूरत नहीं होती। कभी उससे आड़ या समर्थन के साये का भरोसा रहता ज़रूर था। अब उसकी भी गारंटी नहीं।
मेरी राय है कि हिन्दी में प्रतिबद्धता की माँग जितनी बढ़ती गयी, उसी अनुपात में लेखक की पाठक से निस्बत कम होती गयी और दलगत सम्बद्धता बढ़ती गयी। आज हिन्दी में प्रतिबद्ध कविताएँ ज्यादा हैं और उर्दू में जनप्रिय शायर ज्यादा हैं। जिस कार्यक्रम के हवाले से ताजा विमर्श शुरू हुआ उसमें भी उर्दू के कई लेखक शामिल हुए और उर्दू जगत में उसपर कोई ऐसी बहस मेरी जानकारी में नहीं है। हिन्दी जगत में मोरल-पुलिसिंग की पिनक ज्यादा गहरी है। ऐसा लगता है कि हमारा समकालीन हिन्दी लेखक “गुनाहों का देवता” सिण्ड्रोम में जीता रहता है। ऐसे लेखक हिन्दी में बढ़ते जा रहे हैं जिनके पास प्रतिबद्धता ज्यादा है, कविता या साहित्य कम होते जा रहे हैं।
मेरा सुझाव है कि हिन्दी लेखकों को प्रतिबद्धता के बजाय लेखकीयता पर विचार करना चाहिए। प्रतिबद्धता के सवाल को 10-20 साल के लिए किनारे रख सकते हैं। आज हिन्दी में साहित्यिक माने जाने वाले किसी लेखक के पास 50 हजार समर्पित पाठक नहीं होंगे। हिन्दी लेखक कब तक अपने समय में उपेक्षित क्लासिक रचनाओं की ओट में अपनी सीमाओं को नजरअंदाज करते रहेंगे। क्या हम ये मान लें कि हिन्दी में केवल भविष्य के क्लासिक रचे जा रहे हैं! थोड़ी छूट लेकर हम कह सकते हैं कि ज्यादातर हिन्दी लेखक समकालीन जनमत के निर्माण में हाशिये पर हैं। इसके लिए पाठकों को लानत भेजने के बजाय, लेखकों को सोचना होगा कि उनके लेखन में वह बात क्यों नहीं है जिससे जनता जुड़ पा रही है। वही जनता, जिसकी दुहाई देकर हमारे लेखक लेखकीयता के बजाय प्रतिबद्धता के दम पर लेखक बने हुए हैं।
लेखकों की मोरल-पुलिसिंग ने लेखन को हमेशा नुकसान पहुँचाया है। नैतिकता के सिपाही-दरोगा दूसरों को आईना दिखाना चाहते हैं मगर वे खुद आईने के सामने बैठने से कतराते हैं। इस लेख में भी अति सरलीकृत तरीके से घिसपिटे बाइनरी विभाजन (वामपंथ और दक्षिणपंथ) या काले-सफद दो खानों में बाँटकर देखा गया है। यागाना चंगेजी याद आ गये, सब तिरे सिवा काफ़िर आख़िर इस का मतलब क्या! चंगेजी का यह शेर इसलिए अमर है क्योंकि यह अपने अन्दर झाँकता है। दूसरों को आईना दिखाना जितना आसान काम तो कोई भी कर सकता है, इसके लिए लेखकीय पद प्रतिष्ठा की जरूरत नहीं ।
आज इतना ही। शेष, फिर कभी।
बहुत अच्छा लिखा है आपने। लेखकों में विचलन अब आम है। प्रतिबद्ध लेखक संगठनों की सक्रियता बढ़ानी होगी, यही एक मात्र रास्ता है जो आपने सुझाया है। शुक्रिया सर।
क्या किसी लेखक या कलाकार या सृजनकर्ता का किसी विचारधारा या मंच या संगठन से बंधा होना जरूरी है? अगर वह किसी विचारधारा से बंधा हुआ है तो फिर उस विचारधारा से नत्थी उन बातों का समर्थन करना भी उसकी मजबूरी हो जाती है (और उसे इस मजबूरी का एहसास भी नहीं होता), जो समाज के व्यापक हितों के अनुकूल नहीं है। क्योंकि कोई भी विचारधारा या संगठन चाहे लाख बेहतर हो, धीर-धीरे उसके भी एक पोखर में बदलते चले जाना उसकी नियति है। बड़ा सवाल यही है कि क्या सृजनकर्ता का इंसानपरस्त होना काफी नहीं होगा? क्या लेखक या सृजनकर्ता किसी विचारधारा या संगठन से जुड़े बगैर अपना दायित्व नहीं निभा सकते?
अगर किसी को अपना व्यक्तिगत फैसला ज्यादा तार्किक, ताकतवर लगता है तो वेहतर है, वह लेखक संगठन से दूरी बना लें। यही दोनों के लिए अच्छा है। मैं कुमार अंबुज जी के आलेख से सहमत हूँ। इसके पहले भी इसी विषय पर उनका बहुत धारदार आलेख हैं, जिसे
दुविधा में फंसे साथियों से मैं पढ़ने का अनुरोध करते रहता हूँ। यह टिप्पणी किसी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में नहीं है।
मुझे लगता है कि प्रतिबद्धता और संगठन के मसले को दो अलग-अलग सूत्रों की तरह देखने के बजाय एक संरचना के रूप में देखा जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि लेखक संगठन के बग़ैर भी प्रतिबद्ध हो सकता है लेकिन, अंततः कोई भी संगठन प्रतिबद्धता का ही विस्तार होता है।
दूसरे शब्दों में, इसका यह अर्थ भी है कि सिद्धांतत: अम्बुज जी का वक्तव्य दुरुस्त है। परंतु मैं इस सवाल के अंदरूनी हिस्सों में जाना चाहता हूं।
ग़ौरतलब है कि प्रतिबद्धता और आचरण पर अक्सर हम जो कहते-विचारते हैं, वह मुख्यतः एक आदर्शात्मक स्थिति होती है। संकट यह है कि व्यवहार के स्तर पर यह विन्यास बदल जाता है। मसलन, जैसा कि अम्बुज जी ने ख़ुद भी इसकी तरफ़ इशारा किया है, अक्सर यह होता है कि एक वाक्पटु, मुखर और सिद्धांतों की प्रस्तुति में माहिर लेखक संगठन का चेहरा बन जाता है। लेकिन यह क़तई ज़रूरी नहीं है कि वह प्रतिबद्ध भी हो। व्यक्ति (लेखक) में ‘इधर का दिखते हुए उधर का हो जाने’ की अनंत क्षमता होती है। अपने आसपास पचास से पैंसठ की आयु वर्ग के कुछ चमकदार और प्रगल्भ चेहरों को देखिए। उनमें कई अपने-अपने समय पर आंदोलनों और संगठन में भी रहे, लेकिन जैसे-जैसे उन्हें संगठन से ज़्यादा ताक़तवर मुक़ाम मिलते गए, उनकी बोली-बानी उसी अनुपात में बदलती गयी— कुछों ने ज़्यादा हरी-भरी जगहों का टिकट कटाने के लिए चुप्पी अख़्तियार कर ली, कुछ अपने इस ऐलान को क़िस्तों में बयान करते रहे कि दुनिया इतनी बदल चुकी है कि इसमें अब वैचारिक प्रतिबद्धता का कोई मानी ही नहीं बचा है!
यह याद रखा जाना चाहिए कि इनमें एकाध अपवाद को छोड़कर ज़्यादातर लोग पर्याप्त प्रतिभाशाली थे। हस्बे-मामूल ये कि बहुत-से लेखक बहुत धज और टीम-टाम के साथ प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं जबकि उनके संपर्कों का एक समानांतर और भूमिगत संसार भी होता है।
कई दफ़ा लेखक के पास कुछ ऐसी हैसियत और प्रतिष्ठा होती है कि उसके एक वाक्य को ही उसकी प्रतिबद्धता का सूचक मान लिया जाता है।
ख़ैर, कहने का आशय कुल इतना है कि लेखक की प्रतिबद्धता और संगठन के औचित्य को ठहरे हुए फ्रेम में रखकर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि बहुत सारे लेखक संगठन में रहते हुए भी प्रतिबद्ध नहीं होते जबकि उसी समय में एक बड़ी संख्या ऐसे लेखकों की भी हो सकती है जो संगठन की औपचारिक सदस्यता न लेने के बावजूद प्रतिबद्ध रहते हैं।
कुमार अंबुज ने दो टूक लफ़्ज़ों में इस बहस को सूत्रबद्ध कर दिया है।
इस लेख पर आई कुछ प्रतिक्रियाओं पर कुछ कहने की जरूरत महसूस हो रही है
बात यह है कि हर तरह के लेखक होते हैं और हर तरह की प्रतिबद्धताएं होती हैं।
कुछ ऐसे भी लेखक होंगे, जो समझते होंगे कि संस्कृति का क्षेत्र राजनीति से सर्वथा मुक्त है, या फिर उसके विरुद्ध है। ऐसे लेखकों की प्रतिबद्धता राजनीतिविरोधी संस्कृति के लिए होगी, जो अंततः सत्ताधारी राजनीति के काम आएगी।
राजनीति विरोध कुछ और नहीं, सत्ताधारी की छद्म राजनीति होती है। इसका मकसद जन साधारण को राजनीति से दूर रखना होता है।
ऐसे लेखक जो यह समझते हैं कि संस्कृति का क्षेत्र संघर्ष का क्षेत्र है, उन्हें तय करना पड़ेगा कि वे वर्चस्व की संस्कृति के सहचर हैं या प्रतिरोध की संस्कृति के। वे किसी संगठन के सदस्य हों या नहीं, उनके लेखन और आचरण को उनकी अपनी ही प्रतिबद्धता की कसौटी पर जरूर परखा जाएगा।
संगठन किसी लेखक को आदेशित निर्देशित न तो करता है, न कर सकता है। लेकिन किसी लेखक की प्रतिबद्धता निर्णायक रूप से उसके चुने हुए संगठन, समूह या साथियों की प्रतिबद्धता से अलग हो गई हो उसे अपनी अलग स्वतंत्र राह लेने में न रोका जा सकता है, न रोका जाना चाहिए।
संगठनों को भी ऐसे लेखकों की स्वतंत्रता को सुगम बनाने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
लेकिन जब तक संवाद, बहस और विचार विमर्श की गुंजाइश बची हुई है, तब तक उसका भरपूर उपयोग करना चाहिए।
लेखकीयता बनाम प्रतिबद्धता की बात चलाने वालों की साफगोई प्रशंसनीय है। उनके लेखे लेखक होना पाठकों की संख्या पर निर्भर करता है, न कि लेखन की गुणवत्ता पर। इस कसौटी पर कुमार विश्वास ही कवि माने जाएंगे, कुमार अंबुज नहीं।
लेकिन ऐसा नहीं कि कुमार विश्वास की कोई प्रतिबद्धता नहीं। मैं समझता हूं उनकी प्रतिबद्धता अपने भक्तों के लिए है, क्योंकि उनकी कविता कथा वाचन का रूप ले चुकी है और उनके पाठक/ श्रोता भक्तों में बदल चुके हैं। जिस दिन वे अपनी इस प्रतिबद्धता से विचलित होंगे, वह जरूर उनके लिए भी संकट का दिन होगा।
इन बातों के साथ अपनी अन्यत्र कही कुछ बातें यहां भी कह देता हूं, क्योंकि प्रासंगिक है।
अदबी नुमाइशों में अदब नहीं होता, नुमाइश होती है। इनका जितना जोर बढ़ेगा संजीदा साहित्य के लिए मुश्किल बढ़ेगी।
हमारी आंखों के सामने ही कवि सम्मेलनों ने कविता को फूहड़ चुटकुलों से विस्थापित कर दिया।
अदबी नुमाइशों की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वे साहित्य और सस्ते मनोरंजन के बीच के अंतर को धुंधला कर देती हैं।
सस्ता मनोरंजन साहित्य बन जाता है और साहित्य सस्ता मनोरंजन।
जो लोग वहां जा रहे हैं , सब कुछ जान समझ कर जा रहे हैं। उनमें भी संघर्षशील युवा लेखकों और सम्मानित स्थापित लेखकों को एक ही तराजू पर तौलना नाइंसाफी है।
बहस होनी चाहिए, विच हंटिंग नहीं।
हमें ‘पतित’ लेखकों की लिस्ट नहीं बनानी। किसी को तंखैया घोषित नहीं करना।
लेकिन बहस और तेज करनी है। समझ तभी साफ होती है, जब बहस तेज होती है।
आपकी कृति या कलाकृति कोई रेफ्रिजरेटर नहीं है, जिसके भीतर उसका आशय सुरक्षित और अप्रभावित बना रहता है। माध्यम, मंच, माहौल, मजलिस और मेले उसे बदल देते हैं।
पिकासो की महान रचना गुएर्निका को इजरायली युद्ध अपराधी अपने घर की दीवार पर सजा ले तो क्या उसका वही मतलब रह जाएगा, जो हम अब तक समझते आए हैं?
आप चाहें न चाहें आपकी कविता पर एक जबरदस्त रस्साकशी जारी है। आपकी कविता एक युद्ध के बीच है।
आप उसे जनता तक ले जाना चाहती हैं, ठीक है।
लेकिन किस जनता तक? जीवन संघर्ष में जुटी हुई जनता तक या तफरीह तलाशने में लगी हुई जनता तक?
और किस कविता को? जिसका आशय जीवन का संघर्ष है या जिसका संघर्ष कुछ ऊबे हुए लोगों के मनोरंजन का मसाला है?
आपकी कविता एक युद्ध के बीच है. वह आपके लोगों की रहेगी या उनकी हो जाएगी? अदबी नुमाइश वालों की?
उनकी होकर वही नहीं रह जाएगी। जनसंहार के विरुद्ध लिखी गई कविता जनसंहार के पक्ष में खड़ी कर दी जाएगी।
आप वहां यूं ही टहलते हुए जाकर पान खाकर नहीं आ सकते।
यह एक सांस्कृतिक युद्ध है।
वे केवल आपकी कविता नहीं ले जाएंगे। उनकी नजर साहित्य, संस्कृति और कला की समूची विरासत पर है। उनकी आँखें आने वाले कल पर गड़ी हुई हैं। वे पूरा का पूरा भविष्य ले जाना चाहते हैं। एक तीखी लड़ाई छिड़ी हुई है।
फैसला आपका है। तय कर लीजिए।
भूलिए मत कि रजनीगंधा एक गीत का और एक फूल का नाम हुआ करता था।
इससे पहले कि मैं कोई और बात करूँ, मैं अपने वामपंथी credentials स्थापित कर दूँ। जब मैं युवा था तो हरियाणा के टोहाना शहर में पहली बार सीपीआई (एम) का दफ़्तर मैंने और मेरे दो मित्रों ने स्थापित किया था। कुछ वर्ष बाद हम तीनों में से एक टोहाना से ही सीपीआई (एम) का हरियाणा का पहला और अब तक का एक मात्र एम.एल.ए. बना। बाद में मैं एम.फिल. तथा पीएच.डी. करने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, आ गया जहाँ मैं चंडीगढ़ एस. एफ.आई. की छह सदस्यी समिति का वरिष्ठ का सदस्य था। इन सारे वर्षों में मैं सीपीआई (एम) पार्टी का भी सदस्य था। इसके अलावा मेरा पीएच.डी. का काम भी मार्क्सवाद पर ही था जिस दौरान मैंने सभी प्रमुख मार्क्सवादी तथा अन्य वामपंथी चिन्तकों का अध्ययन किया, जिसके परिणामस्वरूप बाद में मेरी निम्नलिखित पुस्तक भी प्रकाशित हुई: Violence and Marxism: Marx to Mao.
यह सब मैंने इसलिए लिखा क्योंकि मुझे कवि के तौर पर अक़्सर तथाकथित कलावादियों के साथ जोड़ा गया है।
अब, इस लेख के संदर्भ में मुझे बस दो मुद्दों की ओर इशारा करना है।
पहला मुद्दा यह है कि हिन्दी लेखन के संदर्भ में प्रतिबद्धता को हमेशा सीमित अर्थों में समझा गया है, और इस लेख और इस पर हुई टिप्पणियों में भी ऐसा ही हुआ है। यानी समाज के कुछ ख़ास वर्गों या समुदायों के प्रति प्रतिबद्धता, जैसे मजदूर वर्ग या आदिवासी समुदाय, और इनमें से भी विशेषकर मज़दूर वर्ग। परन्तु वह लेखन जो स्त्रियों या पृथ्वी, प्रकृति, पर्यावरण तथा मनुष्येतर जानवरों की
पक्षधरता करता है, क्या उसे भी प्रतिबद्ध लेखन नहीं कहा जाना चाहिए?
दूसरा मुद्दा यह है: जो कवि-लेखक अपने लेखन में प्रतिबद्धता ज़ाहिर नहीं करते हैं, लेकिन अपने रहन-सहन, आचरण तथा क्रियाकलापों में मज़दूर वर्ग, अन्य निचले वर्गों, महिलाओं तथा पृथ्वी, प्रकृति, पर्यावरण तथा मनुष्येतर जानवरों की
पक्षधरता करते हैं और लम्बे काल तक उनके लिए काम करते हैं, क्या उन्हें प्रतिबद्ध लेखक नहीं कहना चाहिए? या कि प्रतिबद्धता केवल लेखन में ही ज़ाहिर और साबित होती है?
Rustam Singh बहुत सही ओर तार्किक बात कही है आपने। इस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए, ताकि प्रतिबद्धता को एक क्षेत्र विशेष में न बांधा जाए।
इस पर भी विचार होना चाहिए कि जिस तबके की हम चर्चा करते हैं या उसके बारे में लिखते हैं, उस तक तो पहुंच नहीं पाती!
मास्को के प्रावदा प्रकाशन की तरह हमारे लेखकों की किताबें कहां छप पाती हैं?
इस समस्या से पहले गांव कस्बों में पुस्तकालयों की स्थापना करना जरूरी है, जिससे बचपन से ही रुचि का विकास हो सके। चंदामामा, राजा भैया, पराग, धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं बंद हो गईं, जबकि आबादी तब की तुलना में कई गुना अधिक बढ़ चुकी है और जो छोटे-छोटे पुस्तकालय छोटे शहरों में हुआ करते थे, उनका कहीं पता नहीं। यह मूल प्रश्न हैं, जिनके समाधान के बाद ही विचारधारा के बारे में कोई गंभीर बात हो सकती है।
मलयालम और बंगाल में यह इतनी बड़ी समस्या नहीं है, क्योंकि वहां बड़ा पाठक वर्ग है। हिंदी में बड़ी पत्रिकाएं तक चार-पांच हजार तक सीमित हो गई हैं और अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाएं और पुस्तकों के मुद्रण की संख्या 300 से 500 तक रह गई है।
कुमार अम्बुज के विचारों से सहमत हूँ. क्योंकि जैसा कि ज्या पाल सात्रर्र ने कहा था कि प्रतिबद्धता केवल शब्द भर नहीं है बल्कि सचेत कर्म है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज प्रतिबद्धता सिर्फ शब्द भर रह गया है कर्म से उसका वास्ता बहुत कम दिखता है. इसीलिए आज हिंदी भाषी इलाको में लेखक की छवि बहुत धूमिल हुईं है. नाम इनाम और थोड़े से धन संग्रह के चक्कर में उसकी साख श्रीहीन हो गयी है. जबकि प्रगतिशील लेखन का एक गौरवशाली इतिहास मौजूद रहा है. त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर, राम विलास शर्मा, नामवर सिंह जैसे लोग प्रतिबद्धता के सिरमौर लेखकों में शुमार रहें हैं. इस कड़ी में मैं विजय देव नारायण साही का भी नाम जोड़ना पसंद करूँगा. आज सवाल यह है कि क्या हम बचे खुचे प्रगतिशील लोग नई पीढ़ी के लेखकों को अपने शब्द और कर्म से क्या वाकई जागृत कर सकेंगे? अन्यथा साहित्य कि दुनिया में बाजारवाद आकंठ धंस चुका है जिससे पार पाना आसान नहीं.
उनका बोलना बेअसर क्यों हो गया?
मैं अनेक वर्षो से देश के वंचित और दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के मुद्दों पर लगातार लिख रहा हूँ, लिहाजा अपने काम को ठीक से करूँ इसके लिए अक्सर बड़े लेखकों का लिखा पढ़ता हूँ। कई बार कुछ विशेष व्यक्ति के विचार जानने के लिए उनके इंटरव्यू भी पढ़ता-सुनता हूँ। बात ज्यादा पुरानी नहीं है, ज्यादा-से-ज्यादा तीन-चार वर्ष पहले मैंने मूलत: अंग्रेजी के जाने-पाने रूरल रिपोर्टर, राइटर के एक इंटरव्यू में उनके विचार जाने तो लगा कि एक विशेष बिंदु पर मुझे नए सिरे से अपनी समझ बनानी चाहिए। दरअसल, उनसे पूछा गया था कि साहित्य महोत्सवों को लेकर उनकी क्या राय है।
उनकी राय बहुत स्पष्ट थी कि साहित्य महोत्सवों में उनका विश्वास नहीं है। वह एक अलग दुनिया है। उसमें कॉर्पोरेट पूँजी लगी होती है और ऐसे मेले में जो लोग होते हैं वे उनकी समझ में नहीं आते।
फिर लंबे समय बाद उनकी स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों पर अंग्रेजी में लिखी एक किताब चर्चित हुई और वे उन्हीं साहित्य महोत्सवों में शिरकत करते पाए गए जिनमें कॉर्पोरेट पूँजी लगी होने के चलते महज कुछ समय पहले तक उनका ऐसे आयोजनों से भरोसा उठा हुआ था। लेकिन, वे महोत्सवों में जमा उन्हीं मेले के लोगों के बीच अपनी नई किताब के बारे में जोर-शोर से प्रचारित करते दिख रहे थे जो उनकी नजर में समझ से परे थे और उनके नजरिए से जैसे दूसरी दुनिया के रहवासी जान पड़ते थे।
जाहिर है कि उनके बोले और व्यवहार के बीच इस तरह से एक फर्क सामने आया जो थोड़ी देर के लिए ही सही आपको हैरान करता है। सवाल महोत्सवों में जाने या नहीं जाने का नहीं है। सवाल है फर्क के सामने आने का। आप सोचते हैं कि यह जो बड़ा आदमी है आखिर है तो आदमी ही। हो सकता है कि इन कुछ वर्ष में ही इनके विचार बदल गए हों और इन्हें बाद में समझ आया हो कि इन्होंने जो बोला था वह सही नहीं था, पर बाद में जो किया वह सही किया।
यदि ऐसा भी है तो अपने एक अहम पक्ष से पीछे हटने का तार्किक कारण या किसी तरह का दबाव समझ तो आना चाहिए, ताकि उन्हें सुनने-समझने वालों की अपनी समझ में सुधार हो। या, फिर इस फर्क के बीच असल में इसे क्या कहा जाए? -पाखंड।
यहाँ मैं यह भी जोड़ना चाहूँगा कि मेरी नजर में इन रूरल रिपोर्टर, राइटर का काम इतना महान है कि महज एक फर्क दिखने पर तो क्या ऐसे कई सौ फर्क दिखने पर भी इनके कार्य को खारिज करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। बेशक लेखन में नए विचारों को प्रधानता और सामाजिक सरोकारों के लिए इन्होंने जो रास्ता तैयार किया है कि उस पर चलना हमारे लिए आसान हुआ है। लेकिन, उदाहरण सिर्फ एक बड़े लेखक के फर्क का ही होता तो यह बात ही नहीं आती, बल्कि सच तो यह है कि कथित प्रतिबद्ध लेखकों की बिरादरी ऐसे कई स्थापित बौद्धिकों के फर्क के सामने आने के उदाहरणों से भरी पड़ी है।
आज सबसे बड़ा संकट है कि यही लोग प्रतिबद्धता की दुहाई दें तो इन्हें क्यों सुनें? इनसे प्रतिबद्धता का प्रमाण-पत्र लेकर क्या करें? यही वजह है कि इनका बोला असर खो रहा है और ये करीब-करीब बेअसर हो चुके हैं।
मैं पिछले दिनों गुजरात के अहमदाबाद स्थित गांधी जी के साबरमती आश्रम गया था। आश्रम में संग्रहालय की सफेद दीवार पर एक जगह गाँधी जी का यह कथन लिखा देखा: ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।’
मैं न खुद से और न किसी अन्य से गांधी जी की तरह जीवन जीने की अपेक्षा रखता हूँ। हर लेखक एक आदमी की तरह कमजोर हो सकता है कि आखिर में वह वही है। मेरा बस यही मत है कि मैं उतना ही लिखूँ और बोलूँ जितना कि मैं हूँ। लेकिन, यदि मैं जो नहीं हूँ वह भी लिख रहा हूँ और जैसा हूँ खुद को उससे अलग जाहिर कर रहा हूँ तो यह मेरे अंदर का आडम्बर है, पाखंड है।
लिहाजा मेरी कोशिश यही रहनी चाहिए कि मैं जो हूँ अपने बारे में उतना ही लिखूँ और सार्वजनिक तौर पर खुद को वैसे ही जाहिर करूँ, जैसा हूँ। लेकिन, प्रवचन का ट्रेंड है जिसमें आप खुद तो सत्ता और कॉर्पोरेट की सारी मलाई चाटना चाहते हैं, पर यह भी चाहते हैं कि दूसरे पर आरोप लगा कर कैसे उसे ‘प्रतिबद्धता’ की कतार से खारिज किया जाए। यदि आपका विश्वास कंबल ओढ़ कर घी पीने में है तो अवश्य पीयें, पर ध्यान रखें कि खुलेआम घी पीने वाले आपसे बेहतर और कम खतरनाक हैं, क्योंकि वे आपके पाखंडी गिरोह से बाहर के आदमी हैं, जैसे हैं वे वैसे ही दिखते तो हैं!
वादों और वाद-विवादों में कठिनाई यह है आम पाठक (किसी वाद का प्रतिबद्ध पाठक नहीं) वाद नहीं पढ़ता – लिखे के अंदर दृष्टि को देखता है उसकी वास्तविकता को देखता है।
पाठकों तक पहुँचने के फार्मूला के तौर पर यदि कोई कॉर्पोरेट समारोह को प्रयोग करता है या किसी संगठन का, पाठक के सरोकार वही रहेंगे, जो होने है। पाठक वाद नहीं पढ़ेगा – सुनेगा, लिखे के सरोकार समझेगा। वरना आपके लिखे का तकिया बनाकर पाठक सो जाएगा और दस रुपये किलो में आपके लिखे को बेच देगा।
जिस वैचारिक प्रतिबद्धता ने उन्हें लेखक बनाया उसका अहसानफरामोश नहीं हो जाना चाहिए। उसका सम्मान तो आपके अंदर रहना ही चाहिए। पहले वैचारिक प्रतिबद्धता के गीत गाते थे, अब उसका सुर भी नहीं सुहाता, आखिर क्यों?
कुमार अम्बुज जी के लेख से सहमत होते हुए उनकी पंक्तियों में कहना ठीक लगता है कि कांख भी ढंकी रहे और प्रतिरोध में मुट्ठियां भी तनी रहें, एक साथ यह संभव नहीं।