पुराकथाएँ शिरीष कुमार मौर्य |
1. |
बर्फ़ गिर रही है
चालीस बरस पहले की बर्फ़
आज गिर रही है
चालीस बरस पहले जो बर्फ़ गिरी थी
कब की थी ?
मैं चालीस बरस से वहाँ रहता हूँ
जहाँ से चला आया था
समाज में साधारण जन या तो राजनीति में जनता
ऐसे ही रहती है
चालीस बरस
पीछे
मेरे मुलुक में
बर्फ़ गिरती है
वोट पड़ते है
बदलाव के लिए लोग चलते हैं कई कोस
उनके पाँव के निशान छुप जाते हैं
बर्फ़ में
यहाँ चुनाव एक पुराकथा है
बर्फ़ में धँसी
इधर
बिलकुल नयी एक बर्फ़ गिरी है
नौशीन
मुझको पुकारती हुई उसकी ख़ामोशी
मेरे साथ साथ चलती है
मैं जब देश, राजनीति और समाज के बारे में
सोच रहा होता हूँ
मेरे पाँवों के गहरे निशान बन जाते हैं
ताज़ा गिरी उस बर्फ़ में
बाँज की लकड़ियाँ कोयला बनती रहीं मेरे जीवन में
धुँआ करता रहा चीड़
लीसे से भरा
मेरे पिछले चालीस बरस में सघन थे बाँज के वन
चीड़ छितराए हुए
चीड़ के बीज खाकर
बाँज के वन का पानी किसी ने पिया है
तो मेरे मुलुक का प्रेम जिया है
ऐसा ही मेरे मुलुक का समाज रहा है
या कि कथा-समाज
मेरी पुराकथाओं का
ये अलग बात है
कि चींटी जितना वज़न भी नहीं है
हमारा और हमारे समाज का
हमारे समय की राजनीति पर
जबकि वहाँ होने थे
हमारे होने स्थायी निशान
जिन्हें हर पाँच बरस में बर्फ़ ढाँक लेती
हर पाँच बरस में वे नए हो जाते
ऐसे निशानों से भरी कोई कथा नहीं मेरे पास
चालीस बरस बाद भी
जब बर्फ़ गिरेगी
तब मैं ठीक ऐसी ही किसी पुराकथा में रहूँगा
शायद तब भी
किसी सामाजिक उड्यार में
कभी-कभी आएगी
विकट
राजनीतिक गुर्राहट एक
और एक पुकार
विकल
प्रेम से
भरी
2. |
शिवालिक से हिमालय की ओर
एक पहाड़
एक जगह धारपानीधार
निकलती एक छलछल जलधारा
निश्छल एक वृद्ध साधक
कौशिक कहलाया जो परम्परा में
इस पहाड़ पर लोगों ने
क्या कहा होगा उसे?
तब इस पहाड़ पर उसके सिवा
कोई था भी कि नहीं?
मैं नहीं जानता
स्थान को कौसानी
जलधारा को कोसी कहा मेरे लोगों ने
तत्सम में कौशिकी कह सकते हैं
तत्सम को
मेरे लोग तद्भव कर देते हैं
ऐसी व्याकरणिक मान्यता है
तद्भव को तत्सम कर देते हैं विद्व
ऐसा मुझे लगता रहा
न जाने क्यों
पहाड़ कौसानी हुआ
पार तहसील इसकी गरुड़ बैजनाथ
कुछ और पार जिला बागेश्वर
नदियाँ मंदिर श्मशान घाट
तंत्र मंत्र
देवियों-योगनियों को सिद्ध करने की आकांक्षा से भरे
चंद कपटी होशियार
अनासक्ति योग की साधना में चले आए थे गांधी भी
इसी ओर
बीसवीं सदी का वो तीसरा दशक था
इक्कीसवीं सदी का यह तीसरा दशक है
यह जो दीखता है चमकता हिमाल
इस पर सुनहरा घाम
कविवर पंत ने भी देखा
और लिखा किरनों का वह स्वर्ण-जाल
इस जाल में चलती हैं मकड़ियाँ भी
फंसती है जनता
जब हिमालय धुंधलाता है
अपनी ही भाप में
अपने ही संताप में
तस्वीरों में सब कुछ सुन्दर सुन्दर दिखाया जाता है
कोई नहीं जानता जाल में फंसे हुए लोगों का दु:ख
सुदूर किसी गांव में अधरात
कोसी के बहने की आवाज़ आती है बिलखती हुई-सी
जो बताती है
मछलियों के दु:ख भी मनुष्यों की तरह होते हैं
एक संसार अगल-बगल हर जगह उनके ख़िलाफ़ जाता हुआ
एक जाल अदृश्य लगातार उनके पास आता हुआ
सैकड़ों वर्षों से
यह भी पहाड़ों की एक पुराकथा है
यही पानी की
उस पानी पर जीवित अनगिन लोगों के
दु:ख इस पानी में हैं
यह पानी महान जलधाराओं में समाएगा
समुद्र तक जाएगा
दु:खों से बनी ये पुराकथाऍं
हिमालय के भाल से
समुद्रों के पाताल तक मिलेंगी
छटपटाती हुई जब हिलेंगी उस अथाह पानी में विशाल मछलियाँ
समझ जाना
यह शिवालिक और हिमाल का कोई छोटा-सा दु:ख है
जिसे कभी गांव के मनुष्यों ने गांव के पानी से कहा था
बाक़ी तो सब उन्होंने अपने हिमाल की तरह
भीतर ही सहा था
3. |
जैसे जीवन
वैसे ही मृत्यु भी एक पुराकथा है
हर पल मरते हैं अनगिन कीड़े
घास और मिट्टी में
उनकी देह तक नहीं मिलती
दो चिड़ियॉं थीं अहाते में
सुन्दर सजीली
खंजननयन
एक कहां गई यह दूसरी को भी पता नहीं
भटकती है अकेले ही
गई दीवाली
एक उल्लू का सिर्फ़ धड़ मिला अहाते में
उसका कटा हुआ सिर
सप्तॠषियों के पास अब भी घूमता है 360 अंश पर
मेरे अतीत
और भविष्य को एक साथ देखता हुआ
वे तीन थे
अब एक भी नहीं
न कनेर पर इल्लियाँ हैं इन दिनों
न दूब पर रंग
वैरागी हो गया स्रष्टा
सृष्टि मानो किसी कल्पवास में एकाग्र हठीली-सी
माघ के बाद ही खोलेगी आंख
एक बिल्कुल नयी कथा का
पुरातन प्रकट हुआ है
जानता हूँ मेरे भीतर से
कोई भर्राती हुई भारी आवाज़ न आएगी अब
अंधेरे को खोलने
वह कंठ में समाधिस्थ है अब
इस अहाते के गुड़हल में
लाल रंग तो है पर समाप्त हो रहा है उसका स्पर्श
न मेंढक हैं न सर्प
न चूहे
न छछूंदर
उन्हें मारने का विष नाहक ही लाए लोग
अब वह प्राणघातक रसायन उस मिट्टी की परतों में रहेगा सदा
जहां कुछ जीव सोये हैं
सदा के लिए
उनके पेट का वह विष मेरे हृदय में जा चुका
रहस्यमय है जीवन
पुरातन और अभिनव भी
मनुष्य ही सम्भालें अब अपनी क्षुद्रता और महानता
विजयी बनें
अपने समाज
और दीमकों की बॉंबी सरीखे
अपने संसार में
मैं अब भी जाता हूँ
पुराकथाओं में
देखता हूँ झुके हुए मस्तक देवताओं के
और
रहता हूँ सधा हुआ
अपने
तथाकथित मनुष्यवत
व्यवहार में
4. |
लोग
कुछ न कुछ कह ही रहे हैं
मेरे बारे में
बहुत पुराने समय से अब तक
कब तक कहेंगे मैं नहीं जानता
न जानना चाहता हूँ
पहाड़ में
राई जीरा धनिया बोते ही
खेत में उतर आती थी
घुघुती
अपनी नाज़ुक चोंच
और आलसी व्यवहार से
पलटाती मिट्टी
अधिकांश बीज वह चुग जाती थी
बचे हुए बीजों से
होती थी फ़सल
लहलहाते हुए पत्ते
हम हरा साग खाते तो लगता
हमसे पहले घुघुती ने खाया
बड़े हुए तो
लोक गीतों में पाया उसे
विकल प्रेम की वाहक
वह चिड़िया
कोमल और थोड़ी आलसी
घुघुती के कुतरे हुए
बहुत सुन्दर संसार में रहा
मैं भरपूर कृतज्ञता के साथ
आज भी वह उतरती है
मेरे जीवन में
उतनी ही कोमलता और आलस के साथ
चलती है धीरे-धीरे
उसे चुगती और कुतरती
कुछ और सुन्दर – सुडौल बनाती है
वह एक पुरा कथा है
और समकालीन एक व्यथा भी
जिसमें
पीड़ा और प्रेम एक साथ रहते हैं
जैसे मृत्यु और जीवन रहते हैं
इसी एक ही देह में
5. |
बहुत साल हुए सब बोलते रहे
मैं सुनता रहा
कितनी ऋतुएँ बीतीं
कितनी फ़स्लें उगीं और कटीं
मैं एक बार उगा
फिर ठहर गया
देखता रहा फ़स्लों का कटना
घाटों से अंतिम अग्नि के बाद
लोगों का हटना
मेरे स्वप्न थमे रहे
उन हाथों की प्रतीक्षा में
जिन्हें किसी
पुराकथा में पकड़ा था मैंने
और एक दिन
अचानक उन्हें छोड़ कर
चला आया
बिल्कुल नयी एक कथा में
अग्नि के भीतर मेरे अपने लोग
अक्षुण्ण जलते रहे
चलते रहे मेरे जीवन में
मानो सदियाँ पार की उन्होंने
वो आज भी चलते हैं
और रुकते हैं
एक बाबा ने कुछ कहा बिलखते हुए
एक मां ने सब सहा
एक श्वान साहसी मेरे साथ खड़ा रहा
गुर्राता हुआ
मेरे आस-पास पर
एक चिड़िया जिसे सब कहते हैं खंजननयन
मेरे इर्दगिर्द फुदकती है
वह अधूरी रह गई कोई इच्छा है
एक नाग अचानक मर गया
कुछ न करते हुए
अपना फन पसारे बस देखता था संसार को
बहुत चमकीली आंखों से
जिन्हें मैंने अपने सामने ही बुझ जाने दिया
जो पलता रहा विष
कलुषित हृदयों में जिसने वास किया
वे भी कब तक सुवासित रहते
कब तक असत्य कहते
कलुष भी एक सत्य है जैसे प्रकाश सत्य है
मैं कथाओं में भटकता हुआ
दिखता हूँ
पर रहता हूँ समकालीन संसार में
पुरातन हवाएँ
न्याय की
शुद्धि की
सत्य की
अभिनव रखती हैं मुझे
मैं उन हाथों को देखता हूँ
मैं देखता हूँ उन रातों को
वे रातें विचरण की
यात्राओं में व्यर्थ नहीं चली गईं हैं
उनसे मैंने
अलग ही एक सवेरा पाया है
एक बूढ़ा बाबा
अपने कंधों बिठाए एक बच्ची को
अनथक चलता था
हिंस्र पशुओं से भरे वनों में
आज वह चलता है उससे भी अधिक
हिंसक हो चुके समाज में
एक मां
ममता और गरिमा से भरी
साधती है जीवन को
पुरानी से नयी हुई जाती है
एक बाघ पंजों की विशाल छाप छोड़ जाता है
गुड़हल की क्यारी में
एक पुत्र
बैठा है अपने ही
अनूठे
एक सत्य की पीठ पर
सतपुड़ा जितनी प्राचीन
कैसी यह पुराकथा
समकालीन समाज की
हिमालय जितनी नयी
उसकी व्यथा
मैं रहता हूँ दोनों समयों और
दोनों जगहों में
ऋतुएँ बीतती हैं
रीतते हैं मेरे लोगों के पात्र
मैं उन्हें अन्न नहीं दे सकता
पर
भाषा दे सकता हूँ
प्रकाश पता नहीं दे पाऊं या नहीं
किन्तु उसकी
बिखरी हुई-सी एक आशा दे सकता हूँ
जलना
अपनी अंतिम अग्नि में जलना मेरे लोगो
किंतु उसे पहले
हो सके जितनी
उतनी करवटें बदलना
ख़ूब भटकना
और
चलना
घोर सामाजिक इस
वन-प्रांतर में
न कोई पथ अंतिम है यहां
न कोई शय्या
और न ही कोई कथा
6. |
बीज जो बोने से बच गए
रखे गए
गोबर से लिपे कोठार में
दादी ने रद्दी काग़ज़ों को गला कर
टोकरियाँ बनाईं
ताई ने कुछ सपने रखे हमारी आंखों में
ताऊ जी ने बुनियादी उसूल
जैसे सच बोलना
जैसे ईमानदार रहना
न डरना सिखाया जीवन ने
बीज अगली फ़सल तक बचे रहे
उनमें कीड़े नहीं लगे
न सपनों में
न सच में
न ईमानदारी में
किसी चीज़ में कीड़े नहीं लगे
दादी की टोकरियों में
धीरज था उम्र भर का
बना रहा
हमारी उम्रों में भी फला
हम मिट्टी के
गोबर के
काग़ज़ के
सत्य के
ईमान के बने हुए लोग
हमारी कथाओं में भी
नहीं लगा कभी कोई कीड़ा
साबुत रहीं वे
पुरानी रौशनी और नयी उम्मीद से भरी
उन्हें सुनाने को
सदियों पार भी कुछ लोग होंगे
कीड़े भी होंगे ही
कितने नये कितने पुराने होंगे कोठार
कितनी होगी फ़सल
ये हिसाब
मैंने लिखकर कहीं रख दिया है
इन्हीं पुराकथाओं में
जब कहीं कोई हुंकारा भरेगा
उसे अपने ही स्वर
यह हिसाब भी मिलेगा
अभी तो छटपटाती है वे
जैसे अंधेरे की छाती में मनुष्यता की कोई हूक
अनसुनी
या जैसे कोई प्रकाश
टिमटिमाता-सा
बिल्कुल नये किसी तारे का
अनदेखा
7. |
गोत्र पूछ रहे हैं पंडित जी
समकालीन एक अनुष्ठान में
मैं दबे स्वर में
दादी का बताया कश्यप कहता हूँ
कहना कुछ और चाहता हूँ
मैं तो
इस अनुष्ठान में रहना भी नहीं चाहता
ऐसे हर कर्मकाण्ड से बाहर
मैं अपने अनगिन जनों का सगोतिया हूँ
समय में मैं सगोतिया हूँ प्राचीन का
और प्रस्तोता नवीन का
मैं धरती पर बच रहे वनों का सगोतिया हूँ
मैं उष्णकटिबंधीय शिरीष हूँ
पर शिवालिक के बॉंज का सगोतिया हूँ
मैं सतपुड़ा के कठिन पानी
और हिमाल की
महान कहाई गई जलधाराओं में
मिलते अनाम अनगिन
पहाड़ी सोतों का सगोतिया हूँ
पचमढ़ी की चट्टानों की परतों में आज भी सुरक्षित हैं जो
प्रागैतिहासिक सीपियाँ
समुद्री जलचरों के जीवाश्म
मैं उनका सगोतिया हूँ
मैं बहुत पुरानी
और बिल्कुल नयी उस स्मृति का सगोतिया हूँ
जो सदा ही
पुराकथाओं से समकालीन समाज तक
विचरते भावुक एक वृद्ध पुरुष
एक साहसी वृद्ध स्त्री
एक कोमल युवती
एक निर्भय श्वान
बहुत पुराने एक बाघ
गोचारण युग से अब तक मिथक हो चुके
एक वृषभ
फन पसारे निष्कलुष एक नाग
पश्चिम की ओर बहती एक नदी
और पृथ्वी की उम्र जितने बड़े एक पहाड़ के हृदय में रही
नाद बनकर
राग बनकर जो बही
मैं हर उस विलाप का सगोतिया हूँ
जो हर मनुष्य के जीवन में
शामिल रहता है
तमाम उत्सवों के बीच
जब वह हारता है
टूटता है
वही विलाप
मेरी कविता बनता है
आप कह सकते हैं
विपुला इस पृथ्वी
और विस्तीर्ण इस कठिन समाज में
मैं कविता का सगोतिया हूँ
मैं उस भूख का सगोतिया हूँ
जो लगती है बार बार काम पर ले जाती है
पेट भर जाने पर
जो काग़ज़ पर कुछ लिखवाती है
कैनवास पर कुछ बनवाती है
शिलाओं पर कुछ गढ़वाती है
कंठ की आवाज़ों को जो तरतीब देती
कुछ गवाती है
उस ठेठ मानवीय ज़रूरत का भी मैं
सगोतिया हूँ
निरन्तर एक भीतरी आग में जलता
मैं सूर्य का सगोतिया हूँ
और समूचे सौरमंडल का जल अपने हृदय में धरे पृथ्वी का भी
जीवन के कठिन और दुर्धर्ष में फंसे
मेरे लोगो
तुम सबकी तरह
कथाओं में उस कथा का सगोतिया हूँ
जो अब तक कही नहीं गई
लेकिन जिसे अब कहना मैं चाहता हूँ
समकाल की द्वाभा में
सत्य, शुद्धि, न्याय और प्रेम से भरी
एक पुराकथा की तरह
8. |
कुहासे की कथाएँ प्राचीन हैं
जब मनुष्य नहीं थे तब भी कुहासा था धरती पर
मनुष्य ने उसे और बढ़ाया
मौसम बदलने पर जो घिरता था
घिरने लगा रिश्ते बदलने पर
किसी आदिम कुहासे से शुरू हुई
मनुष्य की जन्मने की कथा
कोई समूह
कुहासे में शिकार करता था
मिट्टी खोदता
कंद मूल बटोरता था
चलते हुए लोग
भटकते थे पर पहुँच ही जाते थे
कहीं न कहीं
कुहासे में
पुकारते थे एक दूसरे को
छाती में बैठ जाता था कुहासा
तो खॉंसते थे
मुझे जो खॉंसी उठी है अभी-अभी
मैं जानता हूँ प्रागैतिहासिक है
और कभी-कभी जो खॉंसता है इतिहास
उसके सीने में सदियों का कुहासा है
यह कैसी हताशा है
कि कुहासे में जन्मे लोग कुहासा हटने के बाद
और भी घिर जाते हैं
कुहासे की इन पुराकथाओं में
मैंने वे पुराकथाएँ चुनी हैं
जो घाम में तपे पत्थरों
और बर्फ़ में दबी मिट्टी से बनी हैं
कई पत्थर
इतिहास में मेरे लोगों ने
अपनी पीठ पर
ढोए हैं
कई सपने उन्होंने
आंसुओं में भिगोए हैं
मैं ख़ुद एक ढोया हुआ पत्थर हूँ
एक ढुलका हुआ आंसू
समकालीन कुहासे में
एक हाथ मुझे पोंछता है हौले से
कुछ ताक़त लगाकर
वह मुझे उठाता है और एक रास्ते पर लगा देता है
इस रास्ते पर भी
भरपूर कुहासा होगा
दम घोंटता इतिहास होगा इसका
इस पर भी खॉंसने की
आवाज़ आएगी
एक दिवस
जब सूर्य उत्तरायण होगा
कुछ धूप होगी
तब मैं उस रोशनी में चमकते
रास्ते की तरह नहीं
बल्कि इसलिए याद किया जाऊंगा
कि समय रहते
कितनी बार
दु:ख और हताशा की मकर रेखा
उलॉंघी मैंने
एक ऐतिहासिक विवशता
और एक प्रागैतिहासिक खॉंसी के साथ
कितनी बार
मैं उस सूर्य के साथ चला
और इतिहास के मलबे में दब कर भी
कितना प्रागैतिहासिक बना रहा
विकट चढ़ाई वाले रास्ते पर
आ रही
किसी बूढ़ी खॉंसी में सुनना तुम
मेरा रोना
महसूस करना
कहीं पास से ही उठ रहे किसी नवजात के रुदन में
मेरा होना
9. |
प्राचीन है भूख
और उसका अन्न से सम्बन्ध
भूख का होना
और अन्न का न होना इतना प्राचीन है
कि प्राचीन एक महाकाव्य में
एक स्त्री के घर
भगवान भी भूखे ही आते हैं
और पाते हैं
अन्न का मात्र एक दाना ही बचा है
उस स्त्री के पात्र में
सत्ताएँ भी प्राचीन हैं
और उनके लिए लड़े गए युद्ध भी
अन्न की भूख
और सत्ता की भूख मनुष्यों में
प्राचीन है
भूख
प्रकृति का सहज क्रिया-व्यापार है
और सत्ता
मनुष्य का रचा हुआ
कथित वर्चस्ववादी संसार
प्राचीन है
इस राष्ट्र में राजा और प्रजा का विधान
दोनों की भूख भी प्राचीन है
किन्तु समान नहीं
अपने स्वप्नों तक में भूखी है प्रजा
विपन्न
और राजा से की जा रही
अपनी याचनाओं, अभ्यर्थनाओं और आशाओं में
अत्यन्त दयनीय भी
प्रजा का
अल्प वस्त्र और बेघर होना प्राचीन है
उस पर की गई दया के
प्राचीन उल्लेख इसका प्रमाण हैं
सत्ताओं की महिमा के उल्लेख प्राचीन हैं
उन्हीं में छुपी हैं
पुराकथाएँ जो बताती हैं
कि राजाओं की महिमा बहुत थी
किन्तु गरिमा का उनमें
बहुधा अभाव ही था
ईश्वर भी
साधारण गोपालक के रूप में जन्म लेकर
अंततः राजा ही बनते थे
स्थापित करते थे सत्ता
भूख जितने ही प्राचीन हैं
ईश्वर भी
इस राष्ट्र में
इस प्राचीनता में भटकते हुए
मैं चाहता हूं
ऐसा ईश्वर जो सत्ताविहीन हो
उस भूख में वास करे
जो अन्न के लिए जगती है
उस आवश्यकता में
जो देह ढांपने भर वस्त्र
और सिर ढंकने भर छत के लिए होती है
सहज जीवन से
वंचित कर दिए गए मनुष्यों
के लिए
उतना ही वंचित एक ईश्वर
भूखा
बेघर
बेपरवाह
बहुत प्राचीन
इतना
कि राजा न बने
अपनी ही बनाई विपुला
इस पृथ्वी पर
सहस्त्रों वर्ष तक अछोर भटकता
एक पथिक बन जाए
भले ही
मिथक बन जाए उसकी
प्राचीनता
अपना
भूखा पेट भरने के लिए
जूझते
प्रजा या कि भक्त बना दिए गए
मेरे लोगों!
महसूस करो
अपनी भूख
सिर पर सवार सत्ताएँ
और अपने बेघर ईश्वर की
प्राचीनता को
महसूस करो
बिना उसे समझे
कभी नहीं समझ पाओगे
अपनी
जगह-जगह से
टूटती
और कराहती समकालीनता
शिरीष कुमार मौर्य कुमाऊँ विश्वविद्यालय के ठाकुर देव सिंह बिष्ट परिसर, नैनीताल में प्रोफ़ेसर (हिन्दी) तथा महादेवी वर्मा सृजनपीठ (कुमाऊँ विश्वविद्यालय, रामगढ़) के निदेशक. प्रकाशित पुस्तकें : ‘पहला क़दम’, ‘शब्दों के झुरमुट’, ‘पृथ्वी पर एक जगह’, ‘जैसे कोई सुनता हो मुझे’, ‘दन्तकथा और अन्य कविताएँ’, ‘खाँटी कठिन कठोर अति’, ‘ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम’, ‘साँसों के प्राचीन ग्रामोफ़ोन सरीखे इस बाजे पर’, ‘मुश्किल दिन की बात’, ‘सबसे मुश्किल वक़्तों के निशाँ’ (स्त्री-संसार की कविताओं का संचयन), ‘ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम’ (पहाड़ सम्बन्धी कविताओं का संचयन, सं.: हरीशचन्द्र पांडे) (कविता); ‘धनुष पर चिड़िया’ (चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं के स्त्री-संसार का संचयन), ‘शीर्षक कहानियाँ’ (सम्पादन); ‘लिखत-पढ़त’, ‘शानी का संसार’, ‘कई उम्रों की कविता’ (आलोचना); ‘धरती जानती है’ (येहूदा आमीखाई की कविताओं के अनुवाद की किताब सुपरिचित अनुवादक अशोक पांडे के साथ), ‘कू-सेंग की कविताएँ’ (अनुवाद). पुरस्कार : प्रथम ‘अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार’, ‘लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘गिर्दा स्मृति जनगीत सम्मान’. |
शिरीष जी को नई कविताओँ के लिए धन्यवाद एवं बधाई।
सुंदर। इन कविताओं में एक विरल संसार है जो धीरे धीरे अपने आवर्त में ले जाता है। चिन्तन के वैभव से ही नहीं, ये कविताएँ अपने धीरज से भी प्रभावित करती हैं।
इतिहास से लेकर समकाल तक मनुष्य के संकटों, संघर्षों और स्मृतियों के वितान रचती इन कविताओं में मनुष्यता के प्रति गहरी आश्वस्ति का स्वर सुखद है। सृष्टि के सभी उपादानों से तादात्म्य महसूस करते, सगोतिया मानते हुए कवि का अपने विद्रोहों, स्वप्नों और आकांक्षाओं सहित अपने लोगों के साथ चिर उपस्थित रहने का विश्वास हमेशा रोशन रहेगा।
शिरीष जी को बहुत बधाई।
शिरीष का रचनाकर्म अलहदा और अच्छा है। ये कविताएँ भी इसकी पुष्टि कर रही हैं।
शिरीष हिमालय के तद्भव को पकड़ने का प्रयास कर रहा है। यह मुझे अच्छा लगा । यह अलग बात है कि इधर उस की कविता का विन्यास उत्तरोत्तर बोझिल होता गया है । शायद मेरी ही पढ़त की कमज़ोरी होगी।
बहुत सुंदर कविताएं हैं। मैं शिरीष मौर्य सर को बहुत दिनों से पढ़ रहा हूँ। उनकी कविताओं में शब्द संपदा के साथ साथ अद्भुत गहराई है। संरचना में कसावट है जहां एक भी शब्द व्यर्थ नहीं लगता।
शिरीष की इन पुराकथाओं को मैं सत्ता, वर्चस्व और सभ्यता के प्रतिपक्ष की पुराकथाएं कहूंगा। लेकिन, ऐसा कहकर मैं इन कविताओं के सौंदर्य, एक वैकल्पिक विज़न को छूने और पाने की जद्दोजहद व अर्थों के एक नए उन्मेष को किसी इच्छित सरलता या फार्मूले में रिड्यूस करने की कोशिश नहीं कर रहा।
असल में, मुझे जो चीज़ बार-बार इन कविताओं की ओर खींच रही है, वह इनका सत्याग्रही स्वर है। कवि बख़ूबी जानता है कि कहां-कहां और क्या-क्या ग़लत है। मसलन, उसे पता है कि यहां चुनाव बर्फ़ में धंसी एक पुराकथा बन गए हैं; कि हमारा और हमारे समाज का समय की राजनीति पर चींटी जितना वजन भी नहीं है; कि उसके अगल-बगल एक ऐसा संसार बन रहा है जो हर जगह उसके लोगों के ख़िलाफ़ जाता दिखता है; उसे भान है कि मेंढक, सर्प, चूहों और छछूंदरों को मारने के लिए लोग व्यर्थ ही विष का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि दरअसल विभिन्न प्राणियों के जीवन को नष्ट कर देने वाले रसायन तो अब मिट्टी की परतों में ज़ज्ब हो चुके हैं इसलिए उसे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ‘मनुष्य ही संभाले अब अपनी क्षुद्रता और महानता
विजयी बनें
अपने समाज
और दीमकों की बांबी सरीखे अपने संसार में’।
वह आलसी और नाज़ुक-चोंच घुघुती की बदमाशियों को जानता है कि वह अधिकांश बीज चुग जाती है, लेकिन वह उसके द्वारा कुतरे हुए संसार को भी सुंदर मानता है और उसमें कृतज्ञता से रहता है; वह भले ही कथाओं में भटकता दिखाई देता हो लेकिन उसका निवास इसी समकालीन संसार में है; वह जानता है कि विगत में एक बच्ची को अपने कंधों पर बिठाए हिंस्र पशुओं से भरे जंगल से गुज़रते बूढ़े बाबा को आज एक ऐसे समाज से गुज़रना होगा जो जंगल से ज़्यादा हिंसक हो चला है; वह कर्मकांड के पूरे औचित्य को पल भर में व्यर्थ सिद्ध कर देता है, जब वह अपने गोत्र का परिचय देने के एवज़ में एक के बाद एक बताता जाता है कि वह कर्मकांडों से बाहर छूट गए लोगों, धरती पर बचे हुए वनों, सतपुड़ा और हिमाल की जलधाराओं में निमग्न हो जाने वाले अनगिनत सोतों, सीपियों और जीवाश्म, पुरानी से पुरानी और नयी से नयी स्मृतियों, मनुष्य जीवन के विलाप, आदमी को बार-बार काम में झोंक देने वाली भूख, और अब तक अनकही रह गयी कथाओं का सगोतिया है तो वह सत्ता के पूरे शीराजे को उलट देता है।
ख़ैर, देखने में अक्सर यह आया है कि प्राचीन और नवीन, विगत और वर्तमान तथा आदि से अद्यतन तक को एक साथ साध लेने का दावा करने वाले लोग बहुधा इस यात्रा की थकान से ही पस्त हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में वे न्याय के तकाज़े से ही निस्संग हो जाते हैं।
लेकिन, शिरीष की इन पुराकथाओं को पढ़ते हुए साफ़ दिखता है कि उनके पास ग़लत को पहचान लेने और न्याय के कंधे पर प्यार और सम्मान से हाथ रख देने की एक ऐसी सलाहियत है जिसके लिए उन्हें ऊंची आवाज़ में नहीं बोलना पड़ता।
कविता की बुनियाद शर्त पर खरी उतरनेवाली इन कविताओं से गुजरते हुए बहुत सारे अगियावैताल कवि परिवर्तनकामी कविता लिखने की सलाहियत से दो चार हो सकते हैं.
कारण यह इनमें नारेबाजी के बजाय पाठक को सोचने-गुनने के लिए बाध्य कर देने की क्षमता है.