रंगसाज की रसोई
रस और ध्वनि का काव्य-संसार
ओम निश्चल
अरुण कमल की कविता जीवन और जगत की गतिविधियों से भरी और दूसरों की पीड़ा और अवसाद से हरी है. सब कुछ उनकी कविताओं में इस तरह आता है जैसे जीवन और दिनचर्या में हारे थके हुए दिन आते हैं और कभी-कभी उल्लास की कोई खिड़की भी खुली दिखाई देती है. उनका संग्रह रंगसाज की रसोई देखने पढ़ने में जितना रंगबाज लगता है उतना है नहीं और यह सचमुच कहे तो रंगसाज की भी नहीं एक कवि की रसोई है. कवि अपनी आंखों से दुनिया के सारे रंग देखता है, इन्हीं रंगों में विवर्ण होते हुए समय को देखता है, मनुष्य की फीकी पड़ती हुई आवृत्ति को देखता है. वह देखता है कि यह दुनिया कामगारों की नहीं है. यह दुनिया उसके सपनों की नहीं है. यह पूंजीवादी दौर है जहाँ पर किसी के आंसुओं की कोई सुनवाई नहीं है. अचरज नहीं कि रंगसाज की रसोई के बहाने अरुण कमल ने मजदूरों के जीवन पर बहुत सी मार्मिक कविताएँ यहाँ लिखी हैं. एक कविता कथरी` तो ऐतिहासिक कविता है ही. लंबी कविताओं पर बहुत शोरोगुल हुआ लेकिन मुक्तिबोध और धूमिल के मानक को पार करने वाली कविताएँ कम लिखी गईं. अरुण कमल के यहाँ भी लंबी कविताएँ नहीं है. लंबी कविताओं का उनका मिजाज भी नहीं है. वह छोटी कविताओं में ही कभी-कभी एक रैखिक अनुभूति को ही कविता के पूरे प्रतिबिंब में ढाल देते हैं और तब वह उस क्षण का सबसे जीवंत अनुभव होता है.
वे शायद उन लोगों में भी नहीं है जो कविता को सार्थक वक्तव्य मानते हों और हर कविता में वक्तव्य देने बैठ जाते हों. अरुण कमल की कविता यथार्थ के संज्ञान से बनती है उनकी कविताओं में उनके अपने कन्फेशन भी बोलते हैं, पाप और पुण्य बोलता है, नीति और अनीति बोलती है, नियति और नीयत बोलती है, प्रारब्ध और कर्म बोलता है; लेकिन कभी-कभी कर्म पर भी प्रारब्ध भारी पड़ता है. ऐसे ही प्रारब्ध के शिकार श्रमिकों पर अनेक कविताएँ यहाँ है. बरसों पहले जिस कविता से उन्होंने शुरुआत की थी अपने कवि जीवन की: अपना क्या है जीवन में सब कुछ लिया उधार, लगता है इस संग्रह में आकर जब मजदूरों पर लिखी उनकी कविताएँ पढ़ते हैं, स्त्रियों पर, कामगार स्त्रियों पर कविताएँ पढ़ते हैं तो लगता है उस उधार जिए जा रहे जीवन की अंतर कथाएँ हैं, व्यथाएँ हैं.जैसे ये जीवन की जलती हुई समिधाएँ हैं.
बोरिस बेकर के बहाने खेल कविता की आखिरी पंक्तियां बहुत निर्णायक हैं. इस दुनिया को देखने का सलीका क्या होना चाहिए, यह भी शायद जीवन की क्षणभंगुरता की एक कहानी है जहाँ दुनिया सिर्फ आनी- जानी है. अरुण कमल का कथन देखें :
“दुनिया को सिर्फ ऐसे ही नहीं देखो
जैसे पहली बार देख रहे हो
दुनिया को ऐसे भी देखो
जैसे आखिरी बार देख रहे हो-“
(खेल, पृष्ठ 16)
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे, उनकी दुख कविता का जैसे निहितार्थ है. घर खोने वाले व्यक्ति के लिए देखें तो यह दृश्य कितना भयावह होता है और कवि के अनुभव की भाषा में देखें तो संवेदना जैसे भीतर से आच्छादित कर लेती है :
“जब भी कोई घर खाली होता है
मुझे दुःख होता है
जब भी कोई तम्बू उखड़ता है दुकान उठती है
या भिखारी छोड़ते हैं ठिकाना-
धुएँ से झंवाईं ईंटों उखड़े खम्बों के गढ्ढों टूटे प्याले
छूटी सुराहियों को देख दुःख होता है
(दुख, पृष्ठ 21)
कामगार स्त्रियों पर बहुत सारी कविताएँ लिखी गई हैं. पहले तो वही सिरमौर कविता जब इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती स्त्री के दर्शन कविवर निराला ने किए थे और वह तोड़ती पत्थर जैसे कविता लिखी थी. तब से अब तक कवियों ने कामगार स्त्रियों और श्रमिक मजदूरों को लेकर बहुत सी कविताएँ लिखी हैं. अरुण कमल की पवित्रता कविता उन्हीं में एक है जो एक निचले तबके की स्त्री के अवदान की चिंता से निस्सृत है :
“तुम्हारे लिए सबसे जरूरी है वह स्त्री
जो अभी अभी रोटियाँ सेंक कर
रख गयी है रात की खातिर,
जो अभी अभी उतरी है सीढ़ियाँ,
गलियों के अँधेरों से होती जो
जा रही होगी अपनी अँखमुँदी कोठरी में
(पवित्रता, पृष्ठ 23)
अपनी देह की थकान मिटाने के लिए जरा सी शराब के सेवन के लिए दंडित एक कामगार के बहाने कवि के इस पीड़ा भरे अनुभव से गुजरने पर मालूम होता है कि एक मजदूर के लिए वह कितना सहृदय है जिसके लिए हर सुख जैसे एक कारागार है :
कौन तय करेगा मेरा स्वाद मेरा त्रास
कौन तय करेगा यह जीवन किसका ग्रास
(हर सुख एक कारागार, पृष्ठ 25)
धनतेरस की रात भी एक बिहारी कामगार के लिए अच्छी मार्मिक कविता है जिसमें पगार और कर्ज न मिलने की चिंता व्यक्त की गई है कि दीपावली के उत्सव में डूबा समाज कहाँ जान पाता है एक कामगार आदमी का दुख कि अगर उसे पगार न मिली हो तो धनतेरस के दिन भी उसे कोई कर्ज नहीं देने वाला.
समुद्र मनुष्यों को बहुत लुभाता रहा है. मुंबई का तो दूसरा नाम ही समुद्र का आकर्षण है जहाँ जाकर मजदूर भी यह देखकर चकित रह जाता है कि कितनी बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ और सामने हहराता समुद्र दिखता है जहाँ पर तैनात चौकीदार की क्या खूब जिंदगी होती होगी. लेकिन जैसे ही वह उससे बातें करता है, जिंदगी की सच्चाई की तुरपाई उधड़ने लगती है. यह एक कामगार के सामने दूसरे कामगार का सच है जो कवि को बुरी तरह कचोटता है. और अंत में , फुटपाथ पर पड़ा था एक सुंदर फूल कुचला कहकर जैसे जीवन की त्रासदी का पूरा बिंब उकेर दिया है कविवर अरुण कमल ने :
“पहली बार गया था मुम्बई
और घंटों देखता रहा समुद्र
फिर भी लगता रहा कुछ नहीं देखा,
अजब छटपटी थी.
चलते चलते एक अट्टालिका दिखी
और फाटक पर चौकीदार
(समुद्र और मनुष्य, पृष्ठ 27)
इसी तरह एक कविता है जिसमें उसे उस मजदूर की चिंता है जो दिन में तो कहीं रात बिता लेता है सड़क या फुटपाथ पर, कहीं भी; लेकिन आज तो बारिश है. आज की रात वह कहाँ सोएगा ? बारिश में कामगार की यह चिंता कवि के सरोकारों को बड़ा बनाती है. इसे पढ़ते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी बरबस याद हो आती है. कवि वह नहीं जैसा एक शायर कहता है: बस अपना ही ग़म देखा है/ तूने कितना कम देखा है. कवि तो वही जिसकी आंख वंचितों को देखकर नम हो उठती है.
कविता हूक और कूक से बनती है. जबकि नरेश सक्सेना कहते हैं कि वाह नहीं आह है कविता की कसौटी. लेकिन जहाँ तक अरुण कमल की कविता का संबंध है वह हूक और कूक दोनों से बनी है क्योंकि उनके यहाँ लोकेल यानी स्थानिकता का जादू भी है जो कई बार अलक्षित मुहावरों में व्यक्त होता है और हूक तो हर कविता पढ़कर उठती है, जैसे कि मलिन बस्तियों की ओर निहारते हुए उठती है. उनके यहाँ स्त्री कामगार के प्रति भी चिंता है. उसकी पीड़ा भी उनकी संवेदना में शामिल है और तलाश कविता भी जैसे स्त्री के हिय की हूक से जन्मी है. मजदूर जीवन की टीस के साथ-साथ प्रेम की हल्की छुवन भी यहाँ है; पर वेदना अपार कि इसे पढ़ते हुए मन काषाय हो उठता है और मन यह कह उठता है : उफ्फ यह निषिद्ध जीवन! पंक्तियां देखें :
“लड़का तो कुछ न कुछ कर लेगा,
उसकी ज्यादा फिकिर नहीं
लेकिन बेटी की चिन्ता है,
ये प्रसंग जिंदगी के ऐसे प्रसंग हैं जो पूंजीवादी दुनिया के कोलाहल में कोई मायने नहीं रखते लेकिन कवि के अंतःकरण में हलचल पैदा करते हैं.कोई कवि कैसे यह देख सकता है कि समाज में इतनी गैर बराबरी है कि धनतेरस के दिन अगर पगार नहीं मिलती तो कोई कर्ज भी देने वाला नहीं है. एक कामगार औरत जिसका पति मर गया है ऐसी कामगार स्त्री बच्चों को अकेले पालती है. वह भी इस निष्करुण जमाने में कि वह एक अदद अपने मजदूर साथी से प्रेम का इजहार भी नहीं कर सकती. जीवन इस कदर बंधन में है कि कहीं कोई आश्वस्ति नहीं .
अरुण कमल का कविता संग्रह नए इलाके में अपने समय के कुछ अच्छे संग्रहों में था जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 1996 में आए इस संग्रह के बहाने जैसे नई उदित होती सभ्यता और अपने समय की टूटन को बहुत अच्छी तरीके से और अरुण कमल ने व्यक्त किया है. यह दुनिया भूमंडलीकरण के बाद की दुनिया है जब यह दुनिया पूंजी के आकर्षण में दिनों दिन अग्रसर थी. पूंजी और राजनीति, पूंजी और अपराध, सबके खेल बड़े निराले हैं. यह दुनिया बड़ी विचित्र है. जो पापी और अपराधी है वह जेल से बाहर है और वह कोई और है जो जेल की सीखचों में है, जो पापी नहीं बस भागी है पाप का. इस संग्रह की सोए में चलना कविता पढ़ते हुए यही अहसास होता है कि हमारे यहाँ जेलें ऐसे निरपराधियों से भरी हैं जिन्होंने भले ही आवेग में किसी की हत्या कर दी हो लेकिन इरादतन वे हत्यारे नहीं है. कवि ऐसे ही एक हत्यारे से जेल में मिलकर जिस नतीजे पर पहुंचता है वह हमें उसके इस बोध तक पहुंचाता है जहाँ उसका मन है कि वह उसकी तरफ शब्दों का फाहा बढ़ाए जो सबसे कमजोर है; जो अपने कौर के लिए भी हाथ नहीं उठा सकता. उसी के शब्दों में :
“केवल शब्दों का फाहा लिये जाना चाहता हूँ
उसकी तरफ से जो सबसे कमजोर है
जो अपने कौर के लिए भी हाथ उठा नहीं सकता
(सोए में चलना, नए इलाके में, पृष्ठ 22)
यही वह जन सरोकार है जिसका हल्ला तो कविता में बहुत होता है लेकिन जिसे एग्जीक्यूट कर पाना सबके वश में नहीं है. अरुण कमल यह काम बड़ी खूबी से करते हैं. उनकी कविता बड़े-बड़े दावे नहीं करती, बड़ी चुनौतियां नहीं फेंकती; लेकिन वह मनुष्य की सफरिंग्स की दास्तानगोई बहुत मार्मिकता से करती है.
संग्रह रंगसाज की रसोई की यह कविता एक कविता कथरी बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि यह कविता खुद अपने आप में काव्य हेतुओं का केंद्र है. कवि के शब्दों में …
जिसने तुम्हारे लिए रोटियां बेलीं
उसका भी शुक्रिया कहो
जिसने सुरंग के मुंह तक रास्ता बनाया
उसको भी शुक्रिया
(पृष्ठ 71)
यही कृतज्ञता है जिसका दिनों दिन समाज में लोप हो रहा है, जैसे कैलाश वाजपेयी कहते हैं, ` भविष्य घट रहा है`, यह कृतज्ञता भी आम जीवन से घट रही है, पुण्य घट रहा है, उदारता घट रही है और इस घटने और कम होते जाने या न्यून होते जाने के लिए कवि जगह-जगह चिंता व्यक्त करता है.
कहना न होगा कि अरुण कमल अपने उत्तर जीवन के उस युवा वैभव में है जब उनका काव्य चिंतन अत्यंत परिपक्व हो चुका है. उनका कवि किसी प्रलोभन के सम्मुख माथा नहीं टेकता. यों तो रंगसाज की रसोई में अनेक कविताएँ हैं लेकिन मैं असहमत की यह पंक्तियां यह जताती हैं कि कवि की निगाह से सामाजिक विकृतियाँ कभी ओझल नहीं होती. इसीलिए वह यह कहने पर विवश होता है :
हर ललाट पर ठुका हुआ है जाति धर्म का ठप्पा
हर बंदा अब खोज रहा है अपना दुश्मन सच्चा
(पृष्ठ 62)
रंगसाज की रसोई में कुछ नीति कथाएँ भी हैं लोक कथाओं के रूप में. कहा जा सकता है कि अरुण कमल ने जैसे किंवदंतियों जनश्रुतियों और मिथकों की राह अपनाई है लेकिन इन लोक कथात्मक कविताओं में बड़ी रोचकता है. हमारा जीवन लोक कथाओं और आख्यानों से ही बना बुना है और अब वह जमाना नहीं रहा कि घर में ऐसे बड़े बुजुर्ग नहीं रहे जो ऐसी कहानियां सुनाएँ लेकिन कविता में इन कहानियों के जरिए अंत में कवि अपनी बात भी कहता है और अरुण कमल यह काम बहुत अच्छी तरह करते हैं. उदाहरण के लिए कोयल को लेकर लिखी गई लोक कथा है जिसमें एक बहेलिया कोयल को मार डालता है.लेकिन गाती हुई कोयल को मार डालने और उसे भून कर खा जाने के बावजूद राख से भी कोयल के गान सुनाई दे रहे थे. राजा तक बात पहुंची तो वह भी परेशान हुआ कि कोयल के न होने पर भी उसका गान पोर-पोर से फूट रहा है. अंततः राज ज्योतिषी राजा से प्राण रक्षा का वचन लेकर कहता है कि आप कोयल को तो मार सकते हैं परंतु उसके गान को नहीं और कवि इसी बिंदु पर अपनी कविता का अंत करता है कि एक कोयल लगातार गा रही थी बसंत की ऋतु थी. इन लोक कथाओं की तरह एक भक्त के निवेदन भी रोचक हैं.प्रभु से संवाद शैली में लिखे गए निवेदन प्रभु तुम चंदन हम पानी से आगे की कल्पनाशीलता को एक आधार देते हैं.
अंत में कविवर तिरुवल्लुवर के बहाने से कवि ने जो कामना की है एक कवि से; वही शायद एक सार्वभौम कामना है और किसी कवि से कोई भला क्या मांग सकता है! उसकी दृष्टि से ज्यादा मंगलकारी भला क्या है? कविता मुलाहिजा हो:
हम तुमसे कुछ नहीं माँगते हे कवि
बस तुम रहो यहीं हमारे पास हवा धूप जल की तरह
(आशीर्वाद, 114)
अरुण कमल की कविता ध्वनि और रस के आलोक में इस तरह पगी हुई है जहाँ मनुष्यता की गंध हमें विचलित करती है. समाज के दर्पण में उनकी कविता जब अपना चेहरा निहारती है तो वह भी दैनंदिन गिरती मनुष्यता के सूचकांक को लेकर विचलित होती है.अरुण कमल की कविता संवेदना और अनुभव की इन्हीं सरणियों पर अग्रसर कविता है जो हर बार हमें अपने नए अर्थबोध और प्रतीतियों से चकित और विस्मित करती है.
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, शान ए हिंदी खिताब, अज्ञेय भाषा सेतु सम्मान, कल्याणमल लोढा साहित्य सम्मान, गंग-देव सम्मान, रामस्वरूप चतुर्वेदी आलोचना सम्मान आदि अनेक सम्मानों से विभूषित हैं. |
इस सुविचारित पुस्तक समीक्षा के लिए ओम निश्चल जी को साधुवाद.
अरुण कमल हमारे समय के एक ऐसे बड़े कवि हैं जिनकी कविता की जड़ें विभिन्न वर्गों और तबकों में बंटे भारतीय समाज में गहरे धंसी हैं.
वे कविता में अपनी वर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए समाज के सबसे कमजोर तबके की जीवनस्थिति का जायजा लेने दबे पाँव पहुँचते हैं, जिस पर मध्यवर्ग के रचनाकारों की नज़र कम पड़ती है. इसके अलावा अरुण जी की ‘दोस्त’ सरीखी अनेक कविताएं हैं जो शाश्वत मानवीय मूल्यों को कला के स्तर पर व्यंजित करती हैं. उनकी ‘दोस्त’ कविता का मर्म मुझे तब क़ायदे से समझ में आया जब उन्होंने लगभग डेढ़- दो दशक पूर्व हमारे विश्वविद्यालय में नरोत्तमदास रचित ‘सुदामा चरित’ पर केंद्रित एक सारगर्भित व्याख्यान दिया था.
निराला के शब्दों में कहें तो अरुण कमल ‘समधीत काव्यशास्त्रालोचन’ कवि हैं. उनकी काव्य संवेदना का दायरा बहुत बड़ा है. उसमें कबीर, तुलसी, निराला, नागार्जुन और केदारनाथ सिंह के साथ ही रोमांटिक कवि शेली भी हैं,जिन पर उन्होंने एक श्रेष्ठ कविता लिखी है.
अरुण कमल जी को जन्मदिन की अग्रिम शुभकामनाएँ और ओम निश्चल जी को पुन: धन्यवाद.
सुंदर समीक्षा है रंगसाज की रसोई की।
अरुण कमल के नए कविता संग्रह ‘रंगसाज की रसोई’ पर केंद्रित ओम जी की समीक्षा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सहजता, जो एकाध अपवादों को छोड़कर हमारे समय की आलोचना में सिरे से ग़ायब है.
अरुण कमल ज्ञान के हाथी पर सहज का दुलीचा डालकर काव्य-सृजन में प्रवृत्त होने वाले गिनेचुने हिंदी कवियों में एक हैं.कामगारों और ख़ासकर स्त्री-श्रमिकों पर केंद्रित उनकी रचनाओं पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि उनके यहाँ कविता में नारेबाज़ी के बजाय कला के स्तर पर सामाजिक यथार्थ का चित्रण मिलता है.
मुक्तिबोध ने लिखा है कि कविता जीवन की पुनर्रचना है. अरुण कमल जी की कविता और आलोचना में जो संवेदनात्मक एवं बौद्धिक ऊंचाई है उसके मूल में उनके पारदर्शी व्यक्तित्व की ऊंचाई है.
कवि एवं आलोचक, दोनों के लिए शुभकामनाएँ.
अरुण कमल का नया कविता संग्रह ‘रंगसाज की रसोई’ जितना महत्वपूर्ण और विविधताओं से भरा है यह समीक्षा भी इस संग्रह को संपूर्णता में समेटने की एक ख़ूबसूरत कोशिश है। अरुण जी की कविताएं अलग अलग टोन में अलग अलग विषय वस्तु के साथ आती हैं और जब उन्हें समग्रता से पढ़ा जाए तो कई बार चकित ही हुआ जा सकता है कि उनकी दृष्टि कैसे अदेखे को सिर्फ देखती नहीं बल्कि उसे सबको दिखला देने का सामर्थ्य रखती है। उनके बड़े कवि होने का रहस्य ही यही है कि वे यथार्थ को भी इतने मार्मिक ढंग से रचते हैं कि पत्थर हृदय भी कविता पढ़े तो एक पल के लिए पिघल जाए।
सुंदर समीक्षा इस सुंदर कविता संग्रह की।
दुनिया को सिर्फ ऐसे ही नहीं देखो
जैसे पहली बार देख रहे हो!
कालजयी पंक्तियाॅं पढ़कर मन चिंतन में रम गया! लाजवाब समीक्षात्मक अभिव्यक्ति!
कहीं मैंने पढ़ा था कि अरुण कमल ग्रामीण संवेदना के कवि हैं, परंतु आप द्वारा की गई ‘ रंगसाज की रसोई ‘ की समीक्षा पढ़ कर मुझे ऐसा लगा कि अरुण कमल अनुभूतिक संवेदना के कवि हैं। एकांतिक अनुभति की गहराई उनकी कविताओं में निहित वैचारिक परिप्रेक्ष्य को उदात्त की ऊंचाई तक पहुंचा देती है। अरुण कमल की अनुभूति की गहराई और अभिव्यक्ति कौशल की ऊंचाई की पकड़ जिस समीक्षक में नहीं होगी वह पुल पार भले कर ले, नदी पार नहीं कर सकता। कहने की आवश्यकता नहीं कि ओम निश्चल जी कविता की समीक्षा करते वक्त दूसरों के बनाए पुल से होकर नहीं गुजरते हैं, वे रिस्क लेकर नदी में कूदते हैं और एक अनुभवी गोताखोर के समान कविता के भाव – प्रवाल को खोज निकालते हैं।’ रंगसाज की रसोई ‘ किसी रंगसाज की रसोई नहीं बल्कि स्वयं कवि अरुण कमल की रसोई है ‘ ऐसा रिमार्क वही दे सकता है जिसने अरुण कमल की भाव भंगिमा को आत्मसात कर लिया हो। वह चाहे अपने काम से अपने घर की अंधेरी कोठरी में लौटती कोई कामगार स्त्री हो या अन्य कोई श्रमिक, उसके चित्रण में अरुण कमल जितने गहरे पैठते हैं, ओम निश्चल भी गहराई के उसी स्तर पर उतरते हैं और एक- एक शब्द, एक -एक पद को अर्थ गौरव प्रदान करते हुए उसका सार भाग पाठकों को पकड़ा देते हैं। ओम जी अपनी समीक्षा में कविता का भाष्य नहीं रचते हैं बल्कि कविता में निहित भावों का भाष्य रचते हैं। ‘रंगसाज की रसोई ‘ में कवि के भावों का भाष्य रचते ओम निश्चल की सहज संप्रेषणीय समीक्षा, समीक्षा के नए द्वार खोलती है जहां पांडित्य प्रदर्शन नहीं, भाव – अर्जन और भाव – दर्शन है।