इतिहास-चेतना, राजनीति-दर्शन और उपन्यास |
अंग्रेजी भाषा के रचनाकार क्रिस्टोफर मार्लो की 1590 में रचित कालजयी नाट्य-कृति है ‘डॉ. फॉस्टस‘. औद्योगिक क्रांति से पूर्व का यह समय इंग्लैंड में चर्च के आप्लावनकारी प्रभाव और नैतिकता के शुद्धतावादी आग्रहों से बुना हुआ था. तब व्यक्ति एक स्वतंत्र, स्वायत्त, चिंतनशील मानवीय अस्मिता न होकर सामुदायिक सोच और परंपरा का हिस्सा था. पाप और पुण्य, सत् और असत् के बीच विभाजित समाज में निर्णय लेने और सीमाओं का अतिक्रमण करने का साहस अमूमन नहीं होता. वर्जनाएँ और आचार-संहिताएँ ही समय के मनोविज्ञान को बुनती है, और वही उसकी परिधि का व्यास भी बनती हैं.
ऐसे में जब क्रिस्टोफर मार्लो जर्मन लोक-कथाओं में (कु?) ख्यात फॉस्ट जैसे इतिहाससम्मत चरित्र को अपने ट्रैजिक नाटक का नायक बनाते हैं, और उसके जरिए ‘पुण्यात्मा‘ मनुष्य के भीतर वर्जनाओं का अतिक्रमण कर अपना जीवन-इतिहास स्वयं रचने की ललक को आरोपित करते हैं, तब वह अनायास नए सवालों-शंकाओं से टकराकर रेनेसांकालीन चेतना के प्रसव का प्रतीक बन जाता है. नाटक में डॉ. फॉस्टस सुखी, संपन्न, प्रतिभाशाली विद्वान है, लेकिन अ-चुनौतीपूर्ण सत्ता पाकर स्वयं ‘ईश्वर‘ हो जाने की उग्र राजनीतिक महत्वाकांक्षा उसे बेचैन किया रहती है. वह काल का अधिष्ठाता, तीनों लोकों का स्वामी और दसों दिशाओं की नियंत्रणकारी ताकत होना चाहता है.
काला जादू जैसी तंत्र-विद्या सीख कर समूचा ब्रह्मांड अपनी मुट्ठी में करने की जुगत में है कि इसी दौरान शैतान ल्युसिफर के दूत मैफिस्टोफिलिस से उसकी भेंट होती है. मंत्रणा के बाद दोनों के बीच एक समझौता होता है. यह समझौता दरअसल डॉ. फॉस्टस के खून से तैयार एक अनुबंध-पत्र है जिसके अनुसार तुरंत प्रभाव से डॉ. फॉस्टस को अपनी अंतरात्मा शैतान ल्युसिफर को सौंप देनी होगी. इसके एवज़ में वह चौबीस साल तक अपनी हर वैध-अवैध इच्छा की पूर्ति करके समय को उंगलियों पर नचाता रह सकेगा. लेकिन इस बीच यदि उसने भूल से भी ईश्वर का नाम लेकर अनुबंध तोड़ने की बात सोची तो उसे तत्काल तड़पा-तड़पा कर मार दिया जाएगा. अन्यथा चौबीस बरस के अखंड ‘ईश्वरत्व‘ को भोगने के बाद मैफिस्टोफिलिस ‘सम्मानपूर्वक‘ उसे लेने आएगा और तब वह अनंत समय तक नरक की दारूण यातना में जलाया-तड़पाया जाता रहेगा.
भौतिक जीवन में ‘ईश्वर‘ बनने का लोभ न दूर खड़ी मृत्यु के बारे में सोचने की मोहलत देता है, न आत्मसाक्षात्कार जैसी नैतिक जवाबदेही. जाहिर है नाटक का अंत मृत्यु की अंतिम वेला में डॉक्टर फॉस्टस के सुदीर्घ प्रायश्चितपरक (आत्मशुद्धि की नैतिक चेतना) स्वगत-भाषण से होता है जो काव्यात्मक सौंदर्य को एक नए शिखर पर ले जाकर न केवल पाठक के भीतर संवेदनाओं का सघन आलोड़न पैदा करता है, बल्कि नायक और प्रति नायक की स्पष्ट विभाजित कोटियों की द्वैधता को खत्म कर मनुष्य एवं समय-समाज को नए सिरे से समझने की जरूरत पर बल देता है.
हालांकि परंपरागत आलोचना नाटक की रीडिंग को विक्टोरियन नैतिकतावादी धर्मपरायणता के फ्रेम में ही सीमित कर देती है, लेकिन दरअसल क्रिस्टोफर मार्लो प्रायश्चित और आत्मदया के दारुण दुश्चक्र में फंसे डॉ. फॉस्टस को ट्रैजिक चरित्र बनाने की अपेक्षा एक सवाल के रूप में प्रस्तुत करते हैं. वे उसे तदयुगीन समाज से आगे ले जाकर स्वतंत्रता, प्रतिरोध और निर्णय-संपन्नता जैसे मानवीय मूल्यों का प्रतीक बनाते हैं. इस क्रम में मौजूदा राजतंत्र के समानांतर उस राजनीतिक व्यवस्था की कामना की जाती है जो साधारण व्यक्ति को न केवल सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से ताकतवर बनाए,बल्कि इतना स्पेस भी दे कि अपनी वैचारिक अवधारणाओं को तर्कसंगत ढंग से रख कर एक नई राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप दे सके. लेकिन डॉ. फॉस्टस ने अनियंत्रित सत्ता से मिले भोग, प्रतिशोध और दंड के पैशाचिक आनंद में स्वयं को इतना झोंक लिया है कि चिंतन करने का अवकाश ही नहीं पाता. इसलिए मार्लो के सामने तीन सवाल ज्यादा अहम हो जाते हैं.
एक, स्वतंत्रता का अर्थ क्या है? क्या स्वतंत्रता का चरित्र अनिवार्यतः यादृच्छिक है जो विवेकपूर्ण आत्मानुशासन और व्यवस्थागत नियम-कानून पालन की बाध्यता से मुक्त होकर निरंकुशता में ढल जाने को अभिशप्त है? जिस तरह डॉ. फॉस्टस इतिहास की कब्रगाह में सोए विशाल रोमन साम्राज्य के पुरोधा सिकंदर से अभद्र छेड़छाड़ करता है या वॉर ऑफ ट्रॉय की मुख्य किरदार हेलेन के साथ कामुकतापूर्ण व्यवहार करके ‘अन्य‘ की गरिमा को क्षरित करता है, क्या वह सहिष्णुता को निरंकुशता में, औदात्य को आडंबर में, और प्रतिरोध को प्रतिशोध में ढालने की प्रवृत्ति नहीं, जो व्यक्ति से चलकर व्यवस्था तक आते-आते अधिक उग्र और अमानवीय हो जाती है?
दूसरे, स्वतंत्रता की अवधारणा क्या अनिवार्य रूप से न्याय-चेतना से नहीं जुड़ी होनी चाहिए जो विवेक और अविवेक के बीच की विभाजक रेखा का सम्मान करे, और फिर राज्य-दंड के भय की अपेक्षा आत्मानुशासन के जरिए अपनी मनुष्यता के समानांतर दूसरों की मनुष्यता को भी अक्षुण्ण रख सके? तीसरे, क्या व्यवस्था और व्यक्ति के बीच सीधे, संवादपूर्ण, समन्वयपरक संबंध नहीं होने चाहिए ताकि दमित क्रोध किसी मेधावी प्रज्ञा को डॉ. फॉस्टस जैसी नकारात्मकता में तब्दील न कर सके?
1.
ज्ञान ही सत्य है
तमाम सभ्यताओं की विकास-यात्रा इन बुनियादी सवालों से अपने-अपने ढंग से टकराती हैं. भारतीय संदर्भ में कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र‘ व्यवस्था एवं प्रशासन के व्यावहारिक स्तर पर इन सवालों को एड्रेस करता है तो यूनानी दार्शनिक प्लेटो की पुस्तक ‘द रिपब्लिक‘ में राज्य, राजा और राजनीति की सूक्ष्मतम अर्थ-व्यंजनाओं को पकड़ते हुए इन्हें मनुष्य के संदर्भ में देखा गया है. प्लेटो चूंकि मूलतः दार्शनिक है और कौटिल्य की तरह उन्हें एक विशाल साम्राज्य के नियमन की प्रशासनिक बाध्यता नहीं है, इसलिए वे ‘द रिपब्लिक‘ में स्वतंत्रता, न्याय, ज्ञान, उदारता, साहस, धर्म जैसी अवधारणाओं; और लोकतंत्र आदि पाँच विविध राज्य-व्यवस्थाओं का सैद्धांतिक प्रतिपादन ही नहीं करते, बल्कि क्रॉस क्वश्चनिंग के सहारे तह तक पहुंच कर उनमें अंतर्निहित अंतर्विरोधों और दुर्बलताओं पर समग्र विचार की कोशिश भी करते हैं. लिहाज़ा कौटिल्य की प्रतिपादन शैली की कमांडिंग टोन के विपरीत प्लेटो की डायलेक्टिक शैली सूत में से सूत निकलते हुए राजनीतिक स्थापनाओं को दर्शन का रूप देती है. दर्शन का अर्थ ही है वर्तमान के फौरी दबाबों को समय की अखंड समग्रता में विलीन कर चेतना और ज्ञान-साधना की चौकस निरंतरता को बनाए रखना. जिज्ञासा, संशय, संवाद, विश्लेषण और ज्ञान के भिन्न-भिन्न स्रोतों तक पहुंचकर विकसित हुई दृष्टि के आलोक में स्थितियों के परीक्षण एवं पुनर्मूल्याँकन की ललक दर्शन को ज्ञान-प्राप्ति की सतत साधना का रूप देती है.
प्लेटो ने पुस्तक में नैरेटर के रूप में अपने गुरु सुकरात की परिकल्पना की है और उन्हीं की संशयात्मक संवाद शैली में अतिपरिचित किंतु बेहद जटिल ‘न्याय‘ की अवधारणा पर विमर्श का आह्वान किया है. परंपरागत नैतिक आप्त वचनों से शुरू हुई यह चर्चा सत्य, निष्ठा और ईमानदारी की बात कह कर थम जाना चाहती है तो सुकरात इसे समकाल से जोड़ने की जुगत में कुछ काल्पनिक स्थितियों की नियोजना करते हैं ताकि समय के दबाव से बने मानव-मनोविज्ञान की थाह ली जा सके. तब एक स्तर पर ‘न्याय‘ की अवधारणा गुण, मूल्य और प्रकृति (न्याय-चेतना) जैसी समानार्थी अभिव्यंजनाओं के जरिए स्पष्टतर होती चलती है तो दूसरे स्तर पर कुछ परिभाषाएँ भी सामने आती हैं. जैसे, न्याय मनुष्य की आत्मा (चेतना) की उन्नत अवस्था है; कि न्याय ‘मनुष्य‘ होने के लिए अनिवार्य नैतिक गुण है जो समानता और समन्वय के आधार पर मनुष्य को मनुष्य, मनुष्यतेर प्राणि-जगत और समाज से जोड़ता है; कि न्याय मनुष्य द्वारा अपने दायित्वों के निर्वहण की सम्यक् चेतन है तो सिटी-स्टेट के लिए कल्याणकारी राज्य की अवधारणा. लेकिन ठीक यहीं देर से चुपचाप बैठे सोफिस्ट दार्शनिक थ्रेसीमाचस (Thrasymachus) का अकस्मात् परिचर्चा में कूद पड़ना और अपनी असहमतियाँ दर्ज कराते हुए न्याय की सर्वस्वीकृत अवधारणा को सर के बल खड़ा कर देना पुस्तक का टर्निंग पॉइंट बन जाता है.
थ्रेसीमाचस की स्पष्ट मान्यता है कि न्याय न नैतिक मूल्य है, न मनुष्य के कल्याण के लिए निर्मित की गई समतामूलक समाज-व्यवस्था. वह ताकतवर द्वारा कमजोर को हाँकने का शातिर प्रपंच है.राज्य-व्यवस्थाएँ अपने निहित हितों की रक्षा के लिए पहले समाज में ‘मूल्य‘ जैसी नैतिकताओं का निर्माण करती हैं ताकि इंसानी दिमाग को नियंत्रित करके उसे दुर्बल बनाया जा सके; और फिर पुरस्कार और दंड-विधान जैसे बटखरों के सहारे उसे निरंतर बांटा जाए. थ्रेसीमाचस की दृष्टि में निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) कुछ भी नहीं है. वस्तुएँ (और व्यक्ति, संस्थाएँ एवं संबंध भी) सापेक्षिक मूल्य के कारण एक-दूसरे से बंधे हैं. इसलिए ‘जस्ट‘ (ताकतवर) वही है जो ‘जस्ट‘ (न्यायपूर्ण) होने का दिखावा करे. थ्रेसीमाचस के अनुसार तमाम धर्म ग्रंथ, समाज संस्थाएँ और स्वयं मनुष्य सार्वजनिक तौर पर अन्याय का विरोध करते हुए मूल्य, गुण और दंड-व्यवस्था के रूप में न्याय के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि स्वार्थ-प्रेरित यह विरोध व्यक्तिगत स्तर पर अन्यायपूर्ण व्यवस्था का शिकार होने से बचने की नैतिक कोशिश भर है. वह जानता है कि मौका मिलने पर वह स्वयं अपने हितों की रक्षा के लिए अन्यायपूर्ण कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगा क्योंकि अपने अनुभव से उसने जाना है कि न्यायपरक आचरण की तुलना में अन्यायपूर्ण आचरण ज्यादा भौतिक लाभ, प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता देता है. देखती हूँ, अकस्मात् कठघरे में नि:संज्ञ-से खड़े डॉक्टर फास्टस के भीतर चेतना की एक चमकीली लहर दौड़ गई है. आंखों में गहरी जिज्ञासा भर उसने थ्रैसीमाचस के चेहरे पर टक दृष्टि जमा दी है, मानो पैरोकार के रूप में कोई दार्शनिक वकील अंततः पा लिया हो. उसके सामने थ्रैसीमाचस का एक वाक्य है –
“Justice is nothing other than the advantage of the stronger.”
वह पूछना चाहता है कि शासक और शासित के अलावा जिस ‘अन्य‘ यानी ‘ताकतवर‘ की बात यहाँ की गई है, वह कौन है? क्या ‘वह‘ उस जैसे मुट्ठी भर डिफाएँट लोग हैं जिन्हें तमाम काबिलियत के बावजूद अपनी वर्गीय पहचान से ऊपर उठने के अवसर नहीं दिए गए जाते? यदि ऐसा है तो क्या असमानता का पोषण करने, प्रतिभा को कुचलने और विकास के अवसरों को सर्वसुलभ न कराने के लिए स्वयं व्यवस्था ही सवालों के घेरे में नहीं आ जाती? या वह ‘ताकतवर‘ निश्चय ही तामसी वृत्तियों से बुनी गई कोई ‘बुरी आत्मा‘ (इविल) है? यदि ऐसा है तो क्या तुरंत व्यवस्था की उन खामियों की पड़ताल नहीं की जानी चाहिए जो व्यक्ति को ‘बुरा‘ बनाती हैं? साथ ही, क्या इस तथ्य को समझना भी जरूरी नहीं कि ‘अच्छा‘ और ‘बुरा‘ सापेक्षिक अवधारणाएँ हैं जो तमाम वस्तुपरकता के बावजूद निर्धारक वर्ग के हितों के अनुरूप अस्तित्व पाती हैं?
प्लेटो इन सवालों की अहमियत जानते हैं. इसलिए थ्रेसीमाचस को उन्होंने भ्रष्ट विचारधारा का प्रतीक माना है और पूरी पुस्तक में तर्कपूर्वक इस तथ्य को प्रतिपादित किया है कि पतनशील विचारधारा का प्रभाव कैसे धीरे-धीरे व्यक्ति, समाज और राजनीतिक व्यवस्था को विघटित कर सकता है.फलत: समूची डिबेट प्रच्छन्न रूप से सुकरात बनाम थ्रेसीमाचस बाइनरी का रूप ले लेती है. इसे कुछ युक्तियों द्वारा प्रत्यक्ष किया गया है. जैसे, सबसे पहले सुकरात की शालीन संयत संवादोन्मुखी भाषा और तर्कपूर्ण विश्लेषण के समानांतर थ्रेसीमाचस की आक्रामक बॉडी लैंग्वेज, अमर्यादित भाषा और आवेशमयी मान्यताओं को रखा जाता है.
फिर थ्रेसीमाचस की न्यायविषयक मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कसते हुए सिद्ध किया जाता है कि वे अंतर्विरोधों से भरी भावाभिव्यक्तियाँ मात्र हैं जो नैतिकता और सत्याचरण से कोसों दूर हैं; और इस प्रकार ‘न्याय‘ की नहीं, वरन न्याय की प्रतिलोमी अवधारणा ‘अन्याय‘ की निर्मिति के खतरों की संकेतक हैं. जाहिर है इस प्रक्रिया में प्लेटो का मुख्य उद्देश्य अपने समय की प्रतिद्वंद्वी सोफिस्ट विचारधारा की अंतर्निहित वैचारिक नकारात्मकताओं को उजागर करना रहा है.
और अंत में सुकरात को ज्ञान मार्ग का सच्चा साधक घोषित करने की प्रक्रिया में ज्ञान और आडंबर; तर्क और आरोप; सत्य और सत्यभास जैसे निगूढ़ दार्शनिक सवालों के अलावा मनुष्य की प्रकृति, समाज-व्यवस्थाओं और राज्य-प्रबंधन की विविध प्रणालियों की गहरी पड़ताल की जाती है.
ऐसा प्रतीत होता है कि सुकरात के पब्लिक ट्रायल और मृत्युदंड की घटना ने मर्मांतक आघात देने के बाद प्लेटो के राजनीतिक दर्शन को गहरे तक प्रभावित किया है. उन्होंने देखा कि 501 सदस्यों की ज्यूरी में मुकदमे को तन्मय एकाग्रता के साथ सुनने की न गंभीरता थी, न बहस का तार्किक विश्लेषण करने की क्षमता; और न ही मुकद्दमे का फैसला सुनाते हुए न्यायिक-चिंतन की वस्तुपरकता. इसके स्थान पर उसके चरित्र में सनसनीखेज चंचलता है जो पर्यवेक्षण, विश्लेषण और चिंतन के सहारे किसी नतीजे पर पहुंचने की बजाय पब्लिक परसेप्शन को अंतिम सत्य माने का दुराग्रह देती है. न्याय भावनाओं के उत्तेजना में बह जाने की वैचारिक दुर्बलता नहीं है. वह ज्ञान के आलोक में एक-दूसरे में उलझी संश्लिष्ट परतों में दबे सत्य को खोज निकालने की दुर्निवार बीहड़ यात्रा है. प्लेटो साफ देख पाते हैं कि थ्रेसीमाचस जैसे दार्शनिक सोफिस्टों की छिछली भोगवादी वैचारिक संस्कृति की बुद्धिहीन उच्छृंखल संतान है ज्यूरी जो मौका मिलते ही ताकतवर ‘डेमेगॉग‘ बनने के लिए लालायित है.
सोफिस्ट विचारधारा को मोटे तौर पर आज की उपभोक्ता-संस्कृति के दबावों से उत्पन्न बाजार की व्यावसायिक वृत्ति का नाम दिया जा सकता है जो सूचना को ज्ञान, सतह को तल, सत्य को असत्य, विचार को सनसनी, कृत्रिम शब्द-जाल को प्रभावशाली वक्तृता शैली; और आडंबर को एथनिक मूल्य की आकर्षक पैकेजिंग का रूप देकर बालू में से तेल निकालने का हुनर जानती है. थ्रेसीमाचस सोफिस्ट विचारधारा की इसी जमात का प्रमुख स्तंभ है. इसलिए अपने रिपब्लिक से उसकी अनुपस्थिति सुनिश्चित करने के बावजूद प्लेटो उसकी मान्यताओं की अनुगूंज को प्रतिप्रश्न की तरह वहीं रहने देते हैं और निषेध से विधेय की ओर अग्रसरित डायलेक्टिक शैली में एक-एक कर अपनी स्थापनाएँ देते चलते हैं.
प्लेटो की दृष्टि में ज्ञान ही अंतिम सत्य है क्योंकि वह ईश्वर की तरह निरपेक्ष, नित्य, निरंतर और अविकारी है. ज्ञान संशय से परे की स्थिति है जो प्रकृति, मनुष्य और मनोवृत्तियों पर समग्रता से विचार करते हुए निरंतर अज्ञान के रहस्यमय कुहासों का उच्छेदन करती है. ज्ञान के मूल में जिज्ञासा है जो सत्यान्वेषण का कारक भी है. इसे अपने ‘होने‘ से लेकर समस्त चराचर जगत के ‘होने‘ के रहस्य तथा परिवर्तन की निरंतरता और विनाश (मृत्यु) की अपरिहार्यता से जुड़ी सत्यान्वेषणपरक जिज्ञासा का नाम भी दिया जा सकता है. सत्यान्वेषी साधक सत्य को निरपेक्ष और समग्र मानता है. वह जानता है कि मानवीय सीमाओं के कारण सत्य का समग्रता में साक्षात्कार संभव नहीं. फिर भी प्रकृति और अस्तित्व, व्यवस्था और व्यक्ति की अंदरूनी परतों को जोड़ने वाले अन्योन्याश्रित तत्वों को एक दूसरे के संदर्भ में जानने का प्रयास करता है. इसलिए उसमें निर्विकार बने रहकर स्थितियों को समभाव से देखने-गुनने और समझने का विजन विकसित होता चलता है. लेकिन जिज्ञासा जब सुविधानुसार समग्रता को टुकड़ों में बांटने लगे, तो वह तत्कालिकता की चंचल लहरों पर सवार शोख उत्सुकता बन जाती है.
अधीरता और उतावलापन उत्सुकता का स्वभाव है. इसलिए सत्य की विराटता से एक मनवांछित टुकड़ा काटकर जब वह उस पर विचार करने लगती है तो उससे निष्पन्न एकांगी मान्यताओं को ‘अंतिम सत्य‘ मानने लगती है. स्खलन की यह स्थिति एक-दूसरे की जड़ों में अपने अस्तित्व की जीवंतता और सार्थकता को उलझा कर सदैव चैतन्य और गतिशील बने रहने वाली मनीषा के निस्पंद होने की विडंबनात्मक स्थिति है. इसे प्लेटो ‘ओपिनियन‘ का नाम देते हैं जो आत्मपरकता, मूढ़ता और संवेगों से संचालित होकर सत्य की खोज को मिथ्याडंबर, भ्रांत अवधारणा और दुराग्रह में विघटित कर देती है. यह स्थिति पूर्ण सत्य के पूर्ण अस्वीकार की भयावह स्थिति है. फलत: इससे बचने के लिए न केवल एक ‘समानांतर सत्य‘ की सृष्टि का आग्रह किया जाने लगता है, बल्कि अपने से इतर प्रत्येक विचार और अस्तित्व को घातक मानकर अपने भय को घृणा, और असुरक्षा को आतंक का रूप दिया जाने लगता है.
प्लेटो के अनुसार चूंकि ज्ञान अपने अन्यतम रूप में सत्य शिव सुंदर है और इन तीनों का सम्मिश्रण न्याय-चेतना को संभव बनाता है; अतः वे ज्ञान से छिटक कर दूर हो गए ‘ओपिनियन‘ को स्वेच्छाचारिता और अन्याय की संज्ञा देते हैं जो व्यक्ति और व्यवस्था दोनों के मानसिक-बौद्धिक-नैतिक विचलन का मार्ग प्रशस्त करती है. यहीं वे निश्चयात्मक ढंग से अपनी मान्यता प्रस्तुत करते हैं कि ज्ञान (मनीषा) और गुण (वर्च्यू/ मूल्य) से अस्तित्व पाने वाली न्याय-चेतना ज्ञान और गुण के प्रसार की प्रमुख संस्था बन जाती है, और समाज में सौहार्द, समन्वय, संतुलन एवं दृष्टिगत उदारता का विकास करती है. इसलिए वे मानते हैं कि समूचे ब्रह्मांड को समदृष्टि से देखने वाला दार्शनिक ही किसी भी राज्य-व्यवस्था का बेहतर शासक हो सकता है, मानो इस मान्यता के आलोक में थ्रेसीमाचस के उस अभिमत को खारिज कर देना चाहते हैं कि न्याय-व्यवस्था ताकतवर की उंगलियों पर नाचने वाली कठपुतली है.
लेकिन फिर भी सवाल तो बना ही रहता है कि सोच-समझकर बनाई गई व्यवस्था में बुराई कहाँ से प्रविष्ट होती है? क्या बुराई (अज्ञान) का उत्स व्यक्ति की आदिम मनोवृत्तियाँ और संवेग हैं? यदि हाँ, तो ऐसे व्यक्तियों का परिष्करण और समाज में समायोजन किस प्रकार किया जाए? इसके लिए वे त्रिस्तरीय समाज-व्यवस्था की परिकल्पना करते हैं. सबसे पहले व्यक्तियों को उनके सहजात गुणों, प्राथमिकताओं और अभिरुचियों के आधार पर अलग-अलग वर्गों /समूहों में विभाजित किया जाए. फिर उसी के अनुरूप शिक्षा एवं व्यावसायिक कौशल प्रशिक्षण दिया जाए; और तीसरे स्तर पर उनकी भौतिक-मानसिक अर्हताओं के अनुरूप उनके जीवन-स्तर का निर्धारण किया जाए.
मैं अकस्मात यहाँ आकर चौंक जाती हूँ और भारतीय दर्शन की वर्णाश्रम व्यवस्था और त्रिगुण की अवधारणा का स्मरण करने लगती हूँ. सांख्य दर्शन में मनुष्य में पाए जाने वाले ये तीन अनिवार्य गुण हैं – सत्व गुण, रजोगुण, तमोगुण.
सत्व गुण अर्थात् सत्य एवं ज्ञान. रजोगुण अर्थात् ऊर्जा एवं शौर्य.तमोगुण अर्थात् भौतिक इच्छाएँ. प्लेटो इन तीन गुणों को नाम देते हैं – विज़्डम, करेज एँड एनर्जी, और एपीटाइट. वे कहते हैं, ये तीन गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं. देखना यह है कि किस व्यक्ति में कौन सा गुण अनुपात में ज्यादा है.जिन व्यक्तियों में तामसी प्रवृत्तियाँ यानी भौतिक लिप्साएँ प्रधान होती हैं, वे ज्ञान और शौर्य की अपेक्षा दुनियादारी में लिप्त रह कर समय की तात्कालिकता में खो जाना ज्यादा पसंद करते हैं. ऐसे व्यक्ति प्रोड्यूसर्स हैं यानी कृषि उत्पादों से लेकर धातु व अन्य वस्तुओं के शिल्पकार.
यानी भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था की तीसरी पायदान पर श्रमजीवी वर्ग.
फिर आते हैं अपेक्षाकृत बेहतर बुद्धि के लोग जो योद्धा और स्थानीय प्रशासक के तौर पर अपनी क्षमताओं का विकास करते हैं, और सिटी-स्टेट को बाहर-भीतर के शत्रुओं से बचाते हैं.यानी भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था के क्षत्रिय!
सर्वश्रेष्ठ हैं वे लोग जिनमें बुद्धि और तर्क की प्रधानता है. ये लोग निस्संग भाव से ज्ञान-प्राप्ति की खोज में व्यस्त रहते हैं, और परम सत्ता से साक्षात्कार कर सत्य और सत्याभास के बीच के फर्क से सभ्यता को परिचित कराना चाहते हैं. प्लेटो इन्हें दार्शनिक की संज्ञा देते हैं और अपने रिपब्लिक के राज्य-संचालन का जिम्मा इन पर छोड़ते हैं.
यानी भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था के ब्राह्मण!
साम्यता एक स्तर और है, कि प्रत्येक वर्ग को अपने समूह के दायित्वों का संपूर्ण निष्ठा से निर्वाह करना होगा; और किसी दूसरे वर्ग हेतु निर्दिष्ट दायित्वों/ कौशल को अपनाने की चाह को नियम-उल्लंघन माना जाएगा. इसे प्लेटो समेत समूची भारतीय चिंतन-परंपरा ‘न्याय-चेतना‘ का नाम देती है, लेकिन मैं सांस्कृतिक विकास की समूची चेतना को चिंतन में ढाल कर कहती हूँ – यह यथास्थितिवाद और सामाजिक जड़ता के स्वीकार की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जो कालांतर में धीरे-धीरे सुलग कर असंतोष और विद्रोह को जन्म देती है.यह वही स्थिति है जिस वजह से रामायण में विद्याध्ययन के जुर्म में दलित शंबूक की हत्या कर दी जाती है, महाभारत में धनुर्धर बनने के अपराध में आदिवासी एकलव्य का अंगूठा काट दिया जाता है; और आज भी मलिन कामों को करने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था के चौथे पायदान पर खड़े वर्गों को ही आगे कर दिया जाता है.
चौथा वर्ग?
प्लेटो उसका जिक्र नहीं करते. पर अदृश्य कर दिए जाने पर भी ठोस वजूद छुपाए नहीं छुपते. भारतीय दर्शन की तरह ‘द रिपब्लिक‘ में भी यह चौथा वर्ग शेष तीन वर्गों के हित-पोषण के लिए सेवा-प्रदाता के तौर पर तैयार किया गया है. फर्क यह है कि यहाँ वह ब्रह्मा के पैर से उत्पन्न नहीं हुआ, बल्कि यूनान और सीमावर्ती जनपदों के साथ हुए युद्ध में युद्धबंदी के तौर पर पकड़ कर लाया गया है. या मूल रूप से एथेंस का ही निवासी है लेकिन राजकोप अथवा कंगाली की वजह से उसने अपने नागरिक अधिकार खो दिए हैं. कहा जाता है कि स्वयं प्लेटो को भी राजकोप का भाजन होने की वजह से एक बार गुलाम के रूप में बेचा गया था. यह दीगर बात है कि उनके किसी परिचित ने दाम चुका कर उनके लिए स्वतंत्रता खरीद दी थी. इस चौथे वर्ग को अदृश्य इसलिए रखा गया क्योंकि इसके पास न नागरिक की हैसियत से मिलने वाली तमाम स्वतंत्रताएँ, अधिकार और प्रतिष्ठा है, न अपने निजी जीवन (विवाह एवं परिवार) को निजता के साथ जीने का वैधानिक अधिकार. उसकी पत्नी, बच्चे, परिवार उसकी तरह वस्तुएँ हैं जिनका क्रय-विक्रय मालिक की मर्जी पर है. तब डॉ. फॉस्टस का सवाल पुन: प्रासंगिक हो जाता है कि ‘द रिपब्लिक‘ में न्याय को परिभाषित करते हुए समानता और स्वतंत्रता की जो बात कही गई है, क्यों वह समाज के संभ्रांत, संपन्न, शिक्षित वर्ग तक ही सीमित कर दी गई है? और क्यों उसकी ज़द में अधिकारविहीन स्वत्वविहीन आम आदमी की गरिमा को नहीं लिया जाता?
पहली शताब्दी ईसा पूर्व गुलाम प्रथा की खिलाफत में शुरू हुई रोमन गुलाम स्पार्टाकस की संघर्ष-यात्रा बेशक कई सदियों बाद गुलाम-प्रथा की समाप्ति के रूप में मनुष्य मात्र की आजादी को सुनिश्चित करती है, लेकिन फिर भी क्या भेद और विभाजन की मानसिकता, धार्मिक कट्टरता, नस्लीय शुद्धता की श्रेष्ठता ग्रंथि और जातिगत अस्पृश्यता जैसी नकारात्मकताओं से मनुष्यता को मुक्त कर सकी है?
प्लेटो की सीमा है कि उनके भीतर का सत्यान्वेषक दार्शनिक सत्य (ट्रुथ) और सत् (गुड/ वर्च्यू) को एक दूसरे के समानार्थी के रूप में ग्रहण करता है. इसलिए वह व्यवस्थापरक मूल्य और अनुशासन का उल्लंघन करने वाली ‘बुराई’ (?) को कठोर दंड देकर समय के सामने ‘न्याय‘ की नज़ीर पेश करना चाहता है. लिहाजा डॉ. फॉस्टस और स्पार्टाकस दोनों दंडनीय हैं, प्रतिरोध के मानवीय स्वर नहीं. उनके नैतिकतावादी आग्रह इतने कट्टर हैं कि पहले डिबेट में सुकरात के जरिए न्याय, नैतिकता और सत्य को ज्ञान का पुंजीभूत रूप कह कर इसे ही ईश्वरीय विधान का रूप देते हैं. फिर यूनानी योद्धा एर की मिथकीय कथा को उद्धृत कर स्वर्ग-नरक, कर्मफल, पुनर्जन्म और भाग्य को अंतिम सत्य और सत्ता घोषित कर देते हैं.
जाहिर है इस प्रक्रिया में मुक्ति, समानता, और न्याय जैसी अवधारणाओं के पुनर्परीक्षण की मांग को लेकर खड़ी डॉ. फॉस्टस जैसी विडंबनापरक त्रासदियों पर ज़रा भी सहानुभूतिपूर्वक विचार नहीं किया जाता. यह वही आग्रही सोच है जो ज्ञान के तमाम संसाधनों पर कब्जा करके अज्ञान को बुराई का प्रतीक बनाती है और फिर व्यवस्था के प्रति जन-असंतोष को प्रभुत्वशाली वर्ग की नीतियों/उत्पीड़न की प्रतिक्रिया न मानकर उनके नैतिक स्खलन को ही दोषी ठहराती है. प्लेटो की सीमा है कि प्रस्तावित गणराज्य को चार वर्गों में बांटने के बाद वे उनके अंतर्क्रियात्मक संघर्ष को अंतिम दो वर्गों की ओर से सहानुभूतिपूर्वक विश्लेषित नहीं कर पाते.
यहाँ अनायास प्लेटो की बहुचर्चित ‘गुफा एवं प्रकाश-छाया‘ की रूपक-कथा का स्मरण हो आता है, जहाँ उन्होंने सत्य (ज्ञान), सत्याभास (अज्ञान) और सत्य की छद्म निर्मिति (साहित्य) के त्रिक् के जरिए ज्ञान, अज्ञान और मिथ्या को समझने का प्रयास किया है. प्लेटो के अनुसार आम दुनियादार आदमी अपनी दृष्टिगत संकीर्णता के कारण ज्ञान (सत्य) के अनंत स्रोत तक नहीं पहुंच पाता. केवल दार्शनिक ही वहाँ तक पहुंच सकता है क्योंकि वह भौतिकता के मोह से मुक्त है. किंतु इक्कीसवीं सदी की जमीन पर खड़े होकर मैं पाती हूँ कि ज्ञान की अवधारणा भी अपने-आप में खासी भ्रांत है. भारतीय दर्शन में ज्ञान पब्लिक प्रॉपर्टी कभी नहीं रहा. वह हमेशा से अभिजात (ब्राह्मण) वर्ग की बपौती रहा है.
दूसरे, शिक्षा के मौलिक अधिकार के मद्देनजर ज्ञान को चिंतन एवं आलोचनात्मक विवेक से हीन करके जिस प्रकार सूचना में विघटित किया गया है और सूचना एवं सूचना प्रदान करने वाले संस्थानों पर जिस तरह अंकुश लगाकर ‘अर्ध सत्य‘ को पब्लिक डोमेन में उपभोग के लिए छोड़ दिया जाता है, उससे पता चलता है कि ज्ञान प्रारंभ से ही सत्ता पक्ष का धारदार हथियार रहा है जिसके जरिए वह ‘भययुक्त‘ रक्तहीन क्रांति करके अपनी सत्ता को अजर-अमर बनाए रख सकता है.
तीसरे, जिस तरह प्राइमरी स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा की गुणवत्ता का विघटन किया जा रहा है, बौद्धिकता की जगह औसत (मीडियॉक्रिटी) को श्रेष्ठ सिद्ध किया जा रहा है, और नई पीढ़ी को ‘डेटाखोर‘ के रूप में विकसित किया जा रहा है, वह प्रच्छन्न ढंग से उनके नागरिक अधिकारों को कुचलने और राजनीतिक दृष्टि से अ-चेतन बनाने की मुहिम है. सूचनाएँ किस कदर कूटनीति को बनाने और युद्ध जीतने के लिए जरूरी हैं, इसे हिज्बुल्लाह कमांडरों के पेजर और बंकर पर इजरायली हमले से भी समझा जा सकता है. महाभारत का युद्ध तो सूचनाओं के इसी अलौकिक ज्ञान (?) की बुनियाद पर ही जीता गया था.
प्लेटो की यूटोपियन समझ उन्हें एक सदी पूर्व हुए अपने यूनानी पूर्वज सोलोन की तरह वर्जनाओं, व्यवस्थाओं और कालाबद्ध दबावों का अतिक्रमण नहीं करने देती. दार्शनिक शासक सोलोन की विशेषता थी कि गरीबी, ऋणग्रस्तता और उत्पीड़न के कारण समाज के तीसरे और चौथे वर्ग के बीच बढ़ते असंतोष को मिटाने के लिए उन्होंने न केवल ड्रैकोनियन कानून पर आधारित मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में भारी उलट फेर कर सामंतों और कुलीनों की संपत्ति एवं नागरिक अधिकारों में कतरब्योंत की; न केवल तीसरे-चौथे वर्ग के किसानों- शिल्पकारों-गुलामों के कर्जों को माफ किया; न केवल तीसरे वर्ग के नागरिक अधिकारों का दायरा बढ़ाते हुए उन्हें राजनीतिक भागीदारी के अधिकार भी दिए, बल्कि टाइमोक्रेसी के रूप में एक ऐसी शासन-व्यवस्था की नींव रखी जो धीरे-धीरे लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की ओर उन्मुख हुई.
लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि प्लेटो डेमोक्रेसी को नापसंद करते हैं. वे सोलोन के प्रशंसक थे. टाइमोक्रेसी और उससे विघटित होकर बनने वाली ऑलिगैर्की में भी उनकी आस्था रही है. ये दोनों राज्य-व्यवस्थाएँ एक छोटे से कुलीन शासक-समूह के हाथ में सत्ता का केंद्रीकरण करती थीं जो बकौल प्लेटो दार्शनिक शासक द्वारा चलाई जाने वाली आदर्श राज्य-व्यवस्था एरिस्टोक्रेसी के समान पूर्ण ज्ञान पर आधारित बेशक न थी, लेकिन फिर भी व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर शासक जनता के कल्याण के लिए शासन-कार्य करते थे. अपने रिपब्लिक में प्रस्तावित पाँच राज्य-व्यवस्थाओं में वे डेमोक्रेसी को चौथे स्थान पर रखते हैं जो अपने गर्भ में निरंकुश शासन तंत्र (टायरैनी) को लेकर आती है. इसी डेमोक्रेसी ने अविवेकपूर्ण निर्णय लेते हुए सुकरात को मृत्यु दंड सुनाया था॥ इसलिए उनकी नाराजगी के कई कारण हैं:
(१) ज्ञान, प्रतिष्ठा और संपत्ति जैसे मानकों की अवहेलना कर बहुजन समाज की सत्ता में भागीदारी,
(२) वर्ग-व्यवस्था के अनुदेशकों को छिन्न-भिन्न कर सबको स्वतंत्र एवं समान मानना,
(३) सत्ता के प्रमुख स्थानों पर ऐसे लोगों का काबिज होना जो राज्य-प्रशासन और कूटनीति के विशिष्ट प्रशिक्षण से अनभिज्ञ हैं, और इस प्रकार अपनी अक्षमता के कारण राज्य में अराजकता की स्थिति को जन्म देते हैं,
(४) तीसरे-चौथे वर्ग के ऐसे लोगों का ताकतवर होना जो झूठ, लच्छेदार भाषा और धुआंधार भाषण की बदौलत विचार को प्रोपेगेंडा में तब्दील करते हैं. धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति विचारहीन पापुलिज्म की जड़ें मजबूत करती है और डेमोगॉग तथा अधिनायकों को पैदा करती है.
जाहिर है प्लेटो की डेमोक्रेसी के प्रति प्रतिकूल धारणा बनाने में उनके निजी अनुभवों का प्रमुख हाथ रहा है. लेकिन आज विश्व का प्रत्येक सभ्य समाज लोकतंत्र के अतिरिक्त किसी अन्य विकल्प को बेहतर नहीं पाता॥ लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी, संविधान की संकल्पना, व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का कानूनी एवं संवैधानिक संरक्षण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अवसर की समानता, और पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक न्याय पहुंचने की प्रतिबद्धता का दावा किया जाता है. बेशक प्लेटो की आशंका निर्मूल नहीं कि वोट का अविवेकपूर्ण उपयोग लोकतंत्र की गरिमा और बुनियादी स्वरूप को विघटित करता है. इसलिए आज सैद्धांतिक तौर पर मतदाता की शिक्षा, वैचारिक सजगता और आलोचनात्मक विवेक को उन्नत करने की जरूरत पर बल दिया जाता है.
सवाल उठ सकता है कि समकालीन हिंदी उपन्यास में राजनीति/दर्शन की पड़ताल के लिए मैं क्यों ढाई हजार साल पुरानी विदेशी रचना को कैनन ग्रंथ के रूप में इतनी तफसील के साथ उद्धृत कर रही हूँ. इसकी तीन वजहें हैं. एक, राजनीति-दर्शन राजनीतिक व्यवस्थाओं, विचारधाराओं और सत्ता के चरित्र के विश्लेषण तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि उनके प्रभावस्वरूप मंथर गति से नया रूप ग्रहण करने वाली समाज-व्यवस्थाओं, मूल्यपरक आचार-संहिताओं, इतिहास की गहरी गूंज में सिमटी पदचापों और संस्कृतियों की रंगत को भी पकड़ता है; और इन सबके बीच अपनी स्वतंत्र भास्वर इयत्ता को लेकर सक्रिय बने रहने वाले मनुष्य के मनोविज्ञान और चिंताओं का भी अध्ययन करता है.
दरअसल इसे यूं भी कहा जा सकता है कि राजनीति-दर्शन का बुनियादी केंद्र है मनुष्य, जो राजनीति की नियामक व्यवस्था के अधीन मनुष्य-जीवन की तमाम गतिविधियों को अनुशासित करने का फैसला करता है. फिर न्याय और कानून, स्वतंत्रता और समानता, संपत्ति और स्वामित्व, दायित्व और अधिकार, धर्म और संस्कृति, अस्मिता और वर्चस्व से जुड़े तमाम पहलुओं पर विचार करते हुए अपनी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप उनमें वांछित परिवर्तन करता चलता है. प्लेटो दार्शनिक होने की वजह से अपने समय की राजनीतिक पड़ताल को इतिहास और संस्कृति की विकास-यात्रा तक ले जाकर मनुष्य के अस्तित्व-चिंतन और भविष्य-दर्शन से भी जोड़ते हैं. इसी चिंतन-पद्धति के अनुरूप प्लेटो का आलोचनात्मक अध्ययन उनकी परवर्ती राजनीतिक दार्शनिक विचारधारा की समझ को भी साफ करता है, और लोकतंत्र एवं हाशियाग्रस्त अस्मिताओं की रुद्ध कर दी गई आवाज़ को भी केंद्र में लाता है.
दूसरे, कठोर होने पर भी रचनाकारों के प्रति प्लेटो की मान्यता विचारणीय है.होमर की कविताओं को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि जहाँ-जहाँ कवि इतिहास की गुत्थियों और चरित्रों के मनोविज्ञान को समझने में असमर्थ रहा, जहाँ-जहाँ पाठक को ‘आनंदित‘ करने का ‘लोभ‘ उसके भीतर जगा, वह भावोच्छ्वासपरक अभिव्यक्तियों, भाषागत सौंदर्य और आलंकारिक व्यामोह में फंसता चला गया. लेखक को सत्य का साधक होना चाहिए. तर्क और ज्ञान उसकी दो आंखें हैं. जो रचनाकार पाठक के हृदय में भावनाओं को उत्तेजित कर उसकी तामसिक वृत्तियों को उद्वेलित करता है; और फिर उसे भावुकता और अतार्किकता की रपटीली ढलनों पर लुढ़कने के लिए छोड़ देता है, वह दरअसल स्वयं अज्ञान में गहरे धंसा है और अपनी अक्षमता को सम्मोहक मिथ्या की रचना करके छुपा लेना चाहता है. यह सत्य से तिगुना दूर जाने की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. इसके विपरीत साहित्य का लक्ष्य पाठक के विवेक और चेतना को उन्नत कर सत्य की ‘छुपा दी गई‘ उन संश्लिष्ट तहों तक ले जाना है जो अंततः उसके भीतर ज्ञान-आलोक पाने की व्यग्रता को बलवती करें. यानी साहित्य मनोरंजन नहीं, ज्ञानार्जन की सृजनात्मक प्रक्रिया हो. प्लेटो की इस मान्यता को प्रतिमान बनाकर मैं यह भी जानना चाहूँगी कि उपन्यासकारों ने अपने विषय को कितनी गंभीरता से जाना है और रचनात्मक सौंदर्य के साथ उनकी संश्लिष्टताओं को कैसे पाठक से साझा किया है.
तीसरे, इस आलेख को लिखने की मूल प्रेरणा पुस्तकनामा के वार्षिक अंक में प्रियंवद के सद्य प्रकाशित उपन्यास ‘एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गई सिंफनी‘ से मिली. उपन्यास पढ़ते समय लगा मानो मैं बरसों पहले पढ़ी पुस्तक ‘द रिपब्लिक‘ का खूबसूरत कथात्मक संस्करण पढ़ रही हूँ; और हमारे समय को प्रभावित करने वाली राजनीति के अधिनायकवादी चरित्र की तहकीकात भी कर रही हूँ. जाहिर है इस आलेख में मेरी पड़ताल के तीन बिंदु होंगे.
एक, बेशक समय की नियामक शक्ति मनुष्य है, लेकिन समय (इतिहास) से सबक न लेकर वह हमेशा जख्म देने और जख्म चाटने की बदहवासी में क्यों भटकता रहता है?
दूसरे, अनुभव से व्यक्ति जान गया है कि राज्य-सत्ता का चरित्र निरंकुश है. फिर क्यों वह इस या उस व्यवस्था/शासन का चयन कर अपनी निरीहता को और भी वल्नरेबल बनता चलता है? क्रांति का सूत्रपात क्या वास्तव में इतना कठिन है?
तीसरे, क्या सचमुच भविष्य जैसी कोई उम्मीद है जिसे भू पर उतारने के लिए हाथ-पैर मारे जा सकें? या हकीकत यह है कि हम यूटोपिया से चलकर डिस्टोपिया तक आ पहुंचे हैं?
इन सवालों को जिन तीन उपन्यासों के जरिए विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है, वे हैं – ‘
एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गई सिंफनी‘ (प्रियंवद, 2024),
‘कितने पाकिस्तान‘ (कमलेश्वर, 2000) और
‘नाइंटीन एट्टी फोर, (जॉर्ज ऑरवेल, 1946). इस विवेचन में
‘महाभोज‘ (मन्नू भंडारी) से लेकर ‘आखिरी कलाम‘ (दूधनाथ सिंह), ‘खुदा सही सलामत है ‘ (रवीन्द्र कालिया), ‘वैधानिक गल्प‘ (चंदन पांडेय) और ‘गूंगी रुलाई का कोरस‘ (रणेंद्र) तक तमाम राजनीति-केंद्रित उपन्यासों को छोड़ दिया गया है क्योंकि वे दर्पण में प्रतिबिंबित यथार्थ की प्रतिच्छवियाँ मात्र हैं, यथार्थ को ‘गढ़ने‘ के क्रम में जतन से छुपाई गई तल्ख सच्चाइयों की खोज की उद्विग्नता नहीं.
2.
‘इतिहास रुका हुआ है. वर्तमान के सिवा कुछ नहीं है.… और वर्तमान में भी केवल ‘द पार्टी’ का अस्तित्व है…’
‘हमें दूसरों की भलाई में कोई दिलचस्पी नहीं. हमें सत्ता अपने लिए चाहिए. सत्ता और शक्ति साधन नहीं, साध्य हैं. … क्रांति इसलिए की जाती है कि तानाशाही कायम की जा सके. इसलिए नहीं कि तानाशाही खत्म हो.… दमन का उद्देश्य दमन है, यंत्रणा का उद्देश्य यंत्रणा क्योंकि हम ही तमाम नियम-विधानों के निर्माता और संचालक हैं.”
यह आश्चर्य ही है कि कई आश्चर्यजनक समानताओं के बावजूद ग्रीक दार्शनिक प्लेटो और ब्रिटिश उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल एक-दूसरे का विलोम भी हैं और विस्तार भी.
लोकतंत्र एवं साम्यवाद के प्रति आस्था व्यक्त करने के क्रम में एक ओर यदि ऑरवेल प्लेटो की लोकतंत्रविषयक मान्यताओं का खंडन करते हैं तो दूसरी ओर प्लेटो की आशंकाओं से पूरी तरह इत्तफाक रखते हैं और सहमति की इस समन्वयात्मक अवस्था में प्लेटो के यूटोपियन राजनीतिक-दर्शन को डिस्टोपिया में बदल देते हैं.
यूटोपिया भविष्य की ओर खुलने वाली आशाओं का सुनहरा जीवंत संसार है, तो डिस्टोपिया हताशा का प्रगाढ़ तिमिर-लोक.
प्लेटो अंधेरे (टायरैनी जिसे वे लोकतंत्र के गर्भ से उपजने वाली अनिवार्य राजनीतिक परिणति बताते हैं) के अछोर रसातल में कूदने से पहले समय को सत्य, ज्ञान, सह-अस्तित्व जैसी अवधारणाओं को संरक्षित करने का नैतिक दायित्व सौंपते हैं.
ऑरवेल जानते हैं रसातल में कूदना नहीं पड़ता. वह तमाम ग्रेविटी का केंद्र बनकर विघटनशील समय को अपने भीतर खींच लेता है. मनुष्य बेहतरी की आस में स्वयं को भरमा सकता है, वस्तुस्थिति में ज्यादा फेरबदल नहीं कर सकता. सदियों के दमन-तंत्र ने उसे सिखा दिया है कि वह सत्ता-निर्मित गुफा का आदिम बंदी है या फिर डुगडुगी; कि सत्य, ज्ञान, सह-अस्तित्व मिथ्या प्रवंचनाएँ हैं जो सत्ता द्वारा अपने निहित मंतव्यों को पूरा करने के लिए गढ़ी और ध्वस्त की जाती हैं.
प्लेटो की तरह ऑरवेल भी अपने समय की राजनीतिक व्यवस्थाओं के गंभीर अध्यता रहे हैं और किसी न किसी रूप में भागीदार भी. खासतौर पर स्टालिन के उद्भव, विकास और कार्यशैली का उन्होंने गहरी दिलचस्पी के साथ अध्ययन किया. इसकी एक वजह यह भी थी कि कार्ल मार्क्स से प्रभावित बीसवीं शताब्दी का विश्व सर्वहारा वर्ग की क्रांति के सहारे स्थापित साम्यवाद को उम्मीद भरी नजरों से देखता था. जाहिर है ज़ारशाही को अपदस्थ कर 1917 की रूसी क्रांति एक बेहतर भविष्य-समाज का स्वप्न थी. लेकिन 1936 में स्पेनिश गृह-युद्ध में एक सैनिक के तौर पर भाग लेने पर ही ऑरवेल समझ पाए कि राजनीतिक पार्टियों की नीतियाँ और चेहरे ऊपरी तौर पर भले ही अलग-अलग हों, वास्तविकता यह है कि राजनीति की अंतर्लहरियो में निरंकुश वर्चस्ववादी लिप्साएँ बहुत गहरे तक पैठी होती हैं जो अंततः उन्हें भाषा, भंगिमा, कार्य-प्रणाली और चरित्र सभी दृष्टियों से यकसां बना देती हैं.
ब्रिटेन की इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की अनुशंसा पर स्पेन के साम्यवादी दल पी.ओ.यू.एम. (जिसे एँटी-स्टालिन होने के कारण प्रो-ट्रोटस्की मान लिया जाता था) की ओर से लड़ते हुए ऑरवेल ने देखा कि स्पेनिश गृह-युद्ध तत्कालीन रिपब्लिकन पार्टी (जिसे स्टालिन सहित विश्व की अधिकांश साम्यवादी-समाजवादी-उदारवादी पार्टियों का समर्थन प्राप्त था) और विद्रोही नेशनलिस्ट पार्टी (जिसे जर्मनी के नाजीवाद और इटली के फासीवाद का समर्थन प्राप्त था) के बीच में ही नहीं था, बल्कि फासिज़म-विरोधी दो गुटों के बीच भी था जो विचारधारा के स्तर पर स्वयं को स्टालिनवादी एवं ट्रॉटस्कीवादी मानते थे. झूठ, दुष्प्रचार और दमन को हथियार बना कर ये दोनों गुट जिस प्रकार आपस में लड़ रहे थे, उससे लगता था जैसे उनका प्रच्छन्न लक्ष्य फासिस्ट ताकतों को ही फायदा पहुँचाना था .
मौत के मुँह से बचकर युद्ध से लौटने के बाद लिखे गए अपने विस्तृत विश्लेषणात्मक आलेख ‘स्पिलिंग द स्पेनिश बीन्स’ में ऑरवेल ने बेलाग ढंग से गृह-युद्ध के उन तमाम तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है जिन्हें फासीवादी कहलाए जाने के भय से विश्व एवं ब्रिटिश मीडिया जतन से छुपाए रखना चाहता था.
“1914-18 के महायुद्ध के बाद यदि किसी और युद्ध ने झूठ की शानदार फसल उगाई है तो वह है स्पेन का गृह-युद्ध” –
अपने लेख की शुरुआत ही वे इस पंक्ति से करते हैं. यहाँ उनका बल इस तथ्य को रेखांकित करने की ओर अधिक रहा है कि कैसे बेहतर उद्देश्य (साम्यवाद या लोकतंत्र का स्वप्न) से शुरू की गई क्रांति धीरे-धीरे तानाशाही में विघटित होती चलती है. क्रांति के जरिए मिलों, फैक्ट्रियों, खेतों पर कब्जा करके सर्वहारा वर्ग नए युग के स्वप्न को साकार करने के लिए दूने परिश्रम से आगे बढ़ता चला है. लेकिन जान ही नहीं पाता कि उसके बीच छुपकर मौके का इंतजार करता बूर्जुआ वर्ग कब धीरे-धीरे संगठित होने लगता है और विदेशी सहायता के नाम पर बने किसी राजनीतिक संगठन का हाथ थाम कर वर्चस्ववाद के उन्हीं किलों को गढ़ने लगता है जिन्हें गिराकर उसने नए युग की तामीर का स्वप्न रचा था. चेतता तब है, जब वही पुरानी किलेनुमा व्यवस्था उम्मीद और परिवर्तन के नाम पर नए पैकेज के रूप में उस पर लाद दी जाती है और उसी के कुछ क्रांतिकारी साथी हाकिम बनकर स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और सामाजिक-न्याय के सिद्धांतों को धता बताने लगते हैं.
विरोध की हल्की सी चेष्टा पर भी गुर्रा कर उसका मुँह बंद कर दिया जाता है कि ‘क्रांति? कैसी क्रांति? क्रांति तो कभी हुई ही नहीं. हम सब मिलकर एक कॉमन दुश्मन फासिज़्म के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं.’ या ‘पूंजीवाद की प्रतिष्ठा का आरोप? क्या व्यापारिक गठबंधन को पूंजीवाद कहोगे? यह तो बूर्जुआजी की डेमोक्रेसी है? क्या बूर्जुआजी या किसी भी इंसान से उसका हक छीन कर हम फासिस्ट बन जाएँ?’ ज़ाहिर है जो विरोध के स्वर का गला न घोंट पाए, उसे फ़ासिस्ट कहकर रास्ते से हटा दो. स्टालिन का ‘द ग्रेट पर्ज’ और ‘ट्रॉटस्कीवादी फासिस्ट’ जैसी अवधारणा इसके उदाहरण हैं.
उपन्यासिका ‘एनिमल फार्म’ उनके इन्हीं निष्कर्षों पर आधारित कालजयी रूपक-कथा है. लेकिन यह उतनी सघनता से ऑरवेल के राजनीति-दर्शन को संप्रेषित नहीं कर पाती जितनी मारक व्यंजना के साथ उन्होंने ‘स्पिलिंग द स्पेनिश बीन्स’ लेख लिखा, और जिसे ब्रिटेन के प्रसिद्ध अखबार ‘न्यू स्टेट्समैन’ ने इस आशंका पर छापने से इनकार कर दिया कि इसके दूरगामी अनिष्टकारी प्रभाव हो सकते हैं. क्या इसलिए कि इससे साम्यवाद का मनुष्य-विरोधी दुर्दांत चेहरा सामने आता है? या इसलिए कि साम्यवादी सिंबल हथौड़े-हंसिया के नीचे भीतरी परतों में दरअसल स्वास्तिक का टैटू ही छुपा है? या क्या इसलिए कि रिपब्लिकन सरकार स्टालिन से सैन्य गठबंधन के बाद जिस प्रकार अंधाधुंध प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों का दमन करने लगी थी, बिना मुकदमा चलाए अपने ही साम्यवादी विरोधियों को जेल में ठूंस दिया जाने लगा था, जासूसी और पुलिसिया दमन के सहारे आम आदमी की सांसों को कुचला जा रहा था, वह किसी एक देश या कालखंड की किसी एक सत्ता का सच न होकर तमाम सत्ता का वर्ग-चरित्र था? इसे ही गहरी खिन्नता के साथ ऑरवेल ‘ऑर्थोडॉक्सी स्निफर्स’ का नाम देते हैं.
ऑरवेल के लिए ‘1984’ उपन्यास का लेखन अपने भीतर की हताशा, संत्रास, घुटन, जुगुप्सा और दुश्चिंताओं को एक दु:स्वप्न और सवाल के रूप में मनुष्यता के समक्ष धर देना था कि क्या यही मंजिल उसने भविष्य के लिए चुनी है?
ऑरवेल दार्शनिक नहीं हैं कि समय के कुहासे को चीर कर किन्हीं अदृश्य सच्चाइयों-परिणतियों -संभावनाओं को परिलक्षित कर सत्य को खोज सकें. वे चिंतक हैं. इसलिए अपने समय की एक-दूसरे से विच्छिन्न दीख पड़ने वाली उलझी स्थितियों और परिघटनाओं की सुसंबद्ध बारीक जाँच कर दो निष्कर्षों पर पहुँचते हैं.
एक, सतही तौर पर वाम और दक्षिण में बंटी वैश्विक-राजनीति न केवल अपने मूल चरित्र में मनुष्य-विरोधी और अधिनायकवादी है, बल्कि असुरक्षित, कायर और पाखंडी भी है. इसलिए वह अपने चारों ओर परामर्श-मंडल (इन्नर पार्टी), और सेना समेत अन्य सत्ता-संस्थानों (आउटर पार्टी) की मदद से कई-कई परतों वाले सुरक्षा-घेरे की रचना करती है.
दूसरे, आबादी का बड़ा भाग (पिचासी प्रतिशत) मध्यवर्ग और सर्वहारा वर्ग में इस कुशलता से बांट दिया जाता है कि वंचित-उत्पीड़ित होते हुए भी दोनों एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से भरे रहते हैं और अपने रहनुमा के तौर पर उत्पीड़क शासक को ही वरीयता देते हैं. यह अपनी ही जड़ता में कैद होने की ग़ुलाम मानसिकता है जो ‘कोऊ होय नृप हमें का हानी’ का राग अलापते हुए भारत में भी सदियों से चली आ रही है.
ऑरवेल के ये दोनों निष्कर्ष अपनी सांकेतिकता में प्लेटो की दो मान्यताओं को प्रश्नांकित करते दिखाई देते हैं.
एक, प्लेटो राजनीतिक व्यवस्था के रूप में ‘ओलीगार्की’ यानी कुलीन-तंत्र को श्रेयस्कर मानते हैं. ऑरवेल समय की वृहद प्रदक्षिणा कर पाते हैं कि यह कुलीन-तंत्र डेमोक्रेसी और साम्यवाद की सीढ़ियाँ चढ़कर उनके समय तक आते-आते ब्यूरोक्रेटिक कलेक्टिविज्म में तब्दील हो गया है जिसे वे उपन्यास में ओलिगैर्किकल कलेक्टिविज्म का नाम देते हैं. ट्रॉटस्की की चर्चित पुस्तक ‘द रिवोल्यूशन बिट्रेड : व्हाट इस द सोवियत यूनियन एँड व्हेयर इज़ इट गोइंग’ की स्थापनाओं के आधार पर वे उपन्यास में गोल्डस्टीन नामक विद्रोही (?) चरित्र की प्रतिबंधित पुस्तक ‘द थ्योरी एँड प्रैक्टिस ऑफ़ ओलिगैर्किकल कलेक्टिविज्म’ की परिकल्पना करते हैं और इस सटल ढंग से अर्थव्यंजना करते हैं कि वह पुस्तक दरअसल किसी एक दल या व्यक्ति की रचना न रह कर तमाम राजनीतिक विचारधाराओं की गीता बन जाती है.
दूसरे, वे प्लेटो द्वारा समाज के त्रिस्तरीय संरचनात्मक ढांचे की अपरिहार्यता को स्वीकार अवश्य करते हैं, किंतु खिन्न अवस्था में प्रश्न भी कर डालते हैं कि समानता का दावा करने वाली व्यवस्थाएँ ‘ऑल आर इक्वल, बट सम आर मोर इक्वल’ को अपने दर्शन की धुरी क्यों बना डालती हैं? और क्यों भेड़ों के दल की तरह सर्वहारा वर्ग ही इस ‘गीत’ का मंत्र-जाप कर असमानता को मूल्य के रूप में स्वीकार करता चलता है? कि निरंतर उपभोग, अज्ञान और आतंक के अप्रतिरोध्य दबाव में रखकर क्या एक पूरी पीढ़ी और कौम को मनुष्य-अस्तित्व से स्खलित करने का साहस सत्ता में कहाँ से आता है?
उपन्यास के चरित्रों, घटनाओं और कथानक का उल्लेख न करते हुए मैं उन प्रभावों का आकलन करना चाहूँगी जो स्याह आकृतियों की तरह मंडरा कर घुटन के माहौल को गाढ़ा कर जाते हैं. केंद्रीय चरित्र विंस्टन स्मिथ मिनिस्ट्री ऑफ़ ट्रुथ में काम करता है … और इस एक छोटी सी सूचना के साथ एक विडंबनात्मक परिदृश्य खुलने लगत है जहाँ शब्द और अर्थ पारस्परिकता खोकर किन्हीं नई क्रूर व्यंजनाओं की अभिव्यक्ति करने लगते हैं.
जैसे प्रेम मंत्रालय का काम है शांति एवं व्यवस्था कायम करने के लिए जेल, यंत्रणा-गृह, पुलिस और जासूसी-तंत्र को चप्पे-चप्पे पर बिछा देना. बागियों और देशद्रोहियों को फाँसी या अमानुषिक यातनाएँ देने के काम को जनता की मौजूदगी में खुले चौराहे या टेलीविजन पर इस प्रकार प्रसारित करना कि आतंक को भीतर उतार कर विद्रोह की भावना को नष्ट किया जा सके और साथ ही नृशंस दंड-विधान को इतना सामान्य और सर्वस्वीकृत कर दिया जाए कि वह जुगुप्सा की जगह आनंद की सृष्टि करे.
शांति मंत्रालय का काम है निरंतर खबरों में, टीवी में युद्धोन्माद को ज़िंदा रखकर पहले एक शत्रु की परिकल्पना करना, फिर परिकल्पित शत्रु के प्रति लोगों की घृणा, हिंसा और पैशाचिकता को भड़काए रखना. इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए घृणा-सप्ताह का भव्य आयोजन … जनता की हिंसक फूत्कारों के बीच युद्ध-बंदियों का रोड शो … हर कार्यालय में प्रति दिन दो मिनट की घृणा-फिल्म का अनिवार्य प्रसारण- प्रेम मंत्रालय का सबसे बड़ा दायित्व है. और विंस्टन का सत्य मंत्रालय …वह इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर सत्तागत पार्टी की नीतियों के आलोक में हर असुविधाजनक सच्चाई, तथ्य, आंकड़े, तस्वीर को बदलता चलता है.
दरअसल 1884 में ब्रिटिश सोशलिस्ट फेबियन सोसायटी की पैरोडी पर उपन्यास में ओशनिया स्टेट की जिस इंग्सोश विचारधारा को परिकल्पित किया गया है, वह शब्द को अर्थ से, इतिहास को वर्तमान से विछिन्न कर अपनी प्रभुसत्ता, आतंक और साम्राज्य को अनंत समय तक अ-चुनौतीपूर्ण बनाए रखना चाहती है. उसका नारा है –
‘जो वर्तमान को नियंत्रित करता है, वही अतीत को रचता है, और जो अतीत को नियंत्रित करने की कुव्वत रखता है, भविष्य उसी की अपेक्षाओं के अनुसार बुना जाता है.’
इसलिए स्मृतिविहीन, विचारविहीन, संवेदनाविहीन, संवादविहीन भविष्य-समाज बनाने के लिए प्रचलित भाषा को निर्ममता से कुचला जाता है. क्रिया, विशेषण, संज्ञा, सर्वनाम, विलोम, पर्यायवाची शब्द – सब ‘फालतू’ माने जाते हैं.
‘न्यूस्पीक’ नामक नई भाषा ईजाद की जाती है. इस भाषा के अनुसार जब ‘अच्छा’ कह देने से काम चल सकता है तो उसकी सुपरलेटिव डिग्री या विलोम की क्या आवश्यकता? ‘गुड’, ‘प्लसगुड’, ‘डबलप्लसगुड’ या ‘अनगुड’ कह कर जब गुड, बैटर, बेस्ट या बेड का अर्थ संप्रेषित किया जा सकता है तो अनावश्यक शब्दों का वहन क्यों? निजाम (‘द पार्टी’) जानता है कि शब्दों में संप्रेषण, संवाद, विचार और सृजन की शक्ति होती है. शब्दों में निष्प्राण के भीतर भी जान फूंक देने की ताकत है, और तालाबंद सच्चाइयों की अंदरूनी तहों को जानकर राख को शोलों में तब्दील करने की क्षमता भी. इसलिए उसका लक्ष्य है कि आगामी पचास साल तक भाषा को अपने मंतव्य के अनुरूप इस कदर ‘पालतू’ बना लिया जाए कि कोई आज की मौजूदा भाषा/हालात को समझ ही न पाए.
भाषा पर फौलादी जकड़न बनाकर इंग्सोश दरअसल दो निशाने साध लेना चाहता है. एक, विचार-अपराध (बिग ब्रदर के लिए मन की भीतरी तहों में पलती घृणा) को असंभव बना देना. भाषा नहीं होगी तो अभिव्यक्ति नहीं होगी. अभिव्यक्ति नहीं होगी तो विचार का प्रवाह और प्रभाव दूर तक संक्रमित नहीं होगा. अभिव्यक्ति का विकल्प नहीं होगा तो भाव अपने-आप चेहरे पर आ जाएगा, और इस प्रकार ‘फेस-क्राइम ‘की धरपकड़ आसान हो जाएगी. दूसरे, इससे स्वतंत्रता और दासता, युद्ध और शांति, ज्ञान और अज्ञान जैसी भ्रामक अवधारणाएँ भी लुप्त हो जाएँगी जो विद्रोह को जन्म देती हैं. तब सत्ता के लिए दासता को स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित करना, अज्ञान को ज्ञान बनाना और युद्ध की निरंतरता को शांति का पर्याय बनाना सरल हो जाएगा.
अपवाद होंगे सिर्फ मजदूर! उन पर भाषा का अनुशासन लागू नहीं होगा क्योंकि पार्टी की मान्यता है – ‘मजदूर आदमी थोड़े ही हैं’. ऑरवेल शो-स्टॉपर की तरह इस उक्ति को देर तक उपन्यास की फिजाओं में फ्रीज कर देते हैं ताकि पाठकीय वितृष्णा आतंक की जड़ीभूत अवस्था का रूप लेकर चेता सके कि आज जो स्थिति मजदूर की है, कल रेंग कर उस तक भी जरूर पहुंचेगी. लेकिन सर्वहारा वर्ग को ‘सभ्य’ समाज से काटने की साजिशों का जिक्र थोड़ी देर बाद.
यहाँ यह जानना भी दिलचस्प होगा कि सत्ता-पक्ष के लिए भाषा पर किसी भी तरह का नियंत्रण लागू नहीं होता. बल्कि उसकी सुविधा के लिए न्यूस्पीक में दो तरह की बोलियों का प्रावधान है – डबलस्पीक और डकस्पीक.
डबलस्पीक यानी जरूरत के अनुसार तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर आज आप जो बात कह रहे हैं, कल स्थितियाँ बदलते ही उसी आत्मविश्वास से आप उसके ठीक उलट भी बोल सकते हैं. जनता का काम है सुनना और स्वीकारना. संदेह करना नहीं.
डकस्पीक दुधारी तलवार है. बेकाबू होती स्थिति को न संभाल पाएँ तो कुछ भी निरर्थक ध्वनियाँ इस अंदाज में उच्चार दें कि लगे गूढ़ बात कही जा रही है. लेकिन यदि प्रतिपक्षी नेता तथ्य-तर्कपूर्वक आपके झूठ की पोटलियाँ खोल रहा हो तो उसका मज़ाक़ उड़ा कर बताएँ कि वह बत्तख की तरह कें कें करने के अलावा जानता ही क्या है.
स्पेनिश गृहयुद्ध के सेनानी और बीबीसी के प्रेस रिपोर्टर के रूप में ऑरवेल ने हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन के रूप में अधिनायकवाद के अजेय कहे जाने वाले स्तंभों को बनते देखा है, और गंभीर अध्येता के रूप में राजनीति-दर्शन की गहन किताबें पढ़कर व्यवस्थाओं के व्यक्तित्व और कार्यशैली का अध्ययन किया है. फलतः इन तीनों के बीच कॉमन पाए जाने वाले तत्व – कल्ट ऑफ पर्सनैलिटी – को आधार बनाकर वे उपन्यास में बिग ब्रदर की रचना करते हैं. बिग ब्रदर व्यक्ति नहीं, गढ़ी गई लार्जर दैन लाइफ छवि है. चूँकि वह रियल नहीं, वर्चुअल है, अतः उसे रोज़ नई-नई मनोहरी भंगिमाओं में प्रस्तुत कर जिंदा रखना होता है. तब जो तत्व काम आते हैं, वे हैं – अहर्निश झूठ, प्रोपेगेंडा, खुशामद, स्तुतिगान, राष्ट्रवाद का उन्माद, युद्ध का आतंक, और अलग-अलग मुद्राओं/पोशाकों में चप्पे-चप्पे पर टंगे बिग ब्रदर के बड़े-बड़े कट-आउट/ पोस्टर – इस ऐलान के साथ कि बिग ब्रदर आपको देख रहा है.
इस ‘देखने‘ में सिहरा देने वाली ठंडी चेतावनी भी है और बिग ब्रदर के ईश्वरीय आभा से युक्त होने का ऐलान भी. कल्ट आफ पर्सनैलिटी के लिए मीडिया एवं अन्य प्रचार साधनों पर पूर्ण नियंत्रण जितना जरूरी है, उतनी ही यह सावधानी बरतना भी कि प्रतिपक्षी नेता कहीं किसी कोने में प्रतिद्वंद्वी कल्ट बनकर खड़ा न हो सके. शील-शक्ति-सौंदर्य का आगार बताते हुए बिग ब्रदर की पर्सनैलिटी कल्ट को इस तरह प्रतिष्ठित किया जाता है कि वह पितृसत्ता और कुलीनता (श्रेष्ठतावाद) की तमाम लुभावनी विशेषताओं से संपन्न भी हो सके, और पंक्ति के आखिरी व्यक्ति को भी विश्वास दिलाए कि एकमात्र वही उसका हमदम और हमदर्द है. वस्तुतः पर्सनैलिटी कल्ट का लक्ष्य है राजनीति को धर्म बनाकर नशे की तरह लोगों की नसों में इंजेक्ट कर देना.
लेकिन यह तो उपन्यास और लेखक के राजनीति-दर्शन का ऊपरी ढांचा भर है. असली सवाल यह है कि सत्ता द्वारा जो भी अमानवीय नृशंस कृत्य किए जा रहे हैं, उसके पीछे मक़सद क्या है? सत्ता की प्रशासनिक नाकामी? या संलिप्तता? डिस्टोपिया के सहारे इस सवाल को एड्रेस करते हुए ऑरवेल उन तमाम सतरंगी चिलमनों को नोच देते हैं जो सत्ता और जनता के बीच बुनी जाती हैं.
डिस्टोपियन रचना वस्तु के स्तर पर समय के भविष्यहीन हो उठने की त्रासदी को व्यक्त करती है तो शैली के स्तर पर समय का आलोचनात्मक आख्यान रचती संश्लिष्ट बौद्धिक रचना है. वह रस-भंग की प्रतीति को कथा-रस के पर्याय के रूप में स्वीकार करती है. घटनाओं की जगह ख़बरें या स्मृतियों की उच्छृंखल आवाजाही कथान्विति को जानबूझकर तोड़ती है, लेकिन गहरी विदग्धता के साथ ख़बरों को दृश्यों में और दृश्यों को क्षरणशील मूल्यों में अनूदित करती चलती है. डिस्टोपिया शैली पाठक की बौद्धिक क्षमता पर विश्वास करते हुए उससे सृजनात्मक होने की अतिरिक्त प्रतिभा की अपेक्षा करती ताकि यहाँ-वहाँ संकेतों और परस्पर असंबद्ध टुकड़ों में कही गई बातों/घटनाओं/स्थितियों के अंतर्संबंध पर गुनते हुए वह कथागत रिक्तियों को स्वयं बुन सके.
समय को कथाकृतियों का नायक बनाने की परंपरा काफ़ी पुरानी रही है, लेकिन यहाँ समय को ऐसी घुटन भरी जकड़न में प्रस्तुत किया जाता है कि प्रयाण के उसी एक बिन्दु पर टंगे रहने की विवशता क्रमशः झुँझलाहट, बेचैनी और भय में गाढ़ी होती चलती है. पाठक के पास तादात्मीकरण के लिए न कोई चरित्र शेष रहता है, न कल्पना की उड़ान के लिए स्पेस. वह लहूलुहान है. उपन्यास उसकी संवेदनाओं को उदात्त करके विरेचन के सुख-लाभ का कोई दावा नहीं करता. तुरंत एक बैठक में पूरा उपन्यास पढ़ने की ललक (हिप्नोटिज्म) और किताब परे फेंक कर कष्ट से रिहाई की इच्छा (रिलीफ़ फ्रॉम सफोकेशन) – इसी द्वंद्व के बीच पाठक को निरंतर हताहत करते रहने की युक्ति है डिस्टोपियन शैली. ऐसे बाध्यकारी दबाव के साथ टेरती कि पाठक को दूसरे पाठ के लिए लौटना ही पड़ता है. तब इसका पाठ उसके भीतर भय और वितृष्णा पैदा नहीं करता, इन्हें पहचानने का स्व-उपार्जित विवेक देता है.
भय बर्बरता से नहीं, बर्बर शक्तियों के प्रति आत्म-समर्पण करती इंसानी विवशताओं से है जो प्रतिरोध के सारे दरवाज़ों पर आप-ही-आप ताला जड़ आती है. वितृष्णा वर्चस्ववादियों से ज्यादा उन्हें सम्पोषित करने वाली परिस्थितियों के प्रति है जो हमारे अपने सहयोग के बिना नहीं पनपतीं.तब शिनाख्त का यह बिंदु अपनी कायरता से बुनी भागीदारी और इंसानियत से साक्षात्कार का स्थल बन जाता है जहाँ समय को भविष्यहीन कर देने वाली साजिशों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना ज़िंदा रहने का एकमात्र विकल्प बन जाता है.
इसके लिए ऑरवेल विंस्टन जैसे साधारण से किरदार के सहारे भीषण त्रासदी में विघटित होती उसकी कुछ मासूम-सी जीवन-घटनाओं को लेते हैं. जैसे नोटबुक खरीदना, प्रेम करना और टेलिस्क्रीन (सत्ता का निगरानी-यंत्र ) से विहीन कैमरे के एकांत में प्रेमिका जूलिया के साथ अतीत के अच्छे दिनों की बात करते हुए वर्जनामुक्त जीवन जीने का स्वप्न देखना. यह जानते हुए भी कि इस शासन-तंत्र में व्यक्ति का निजी कुछ भी नहीं है. न अपनी पसंद का भोजन-पोशाक (की गुणवत्ता और मात्रा) चुनने की आजादी, न निर्णय लेने की स्वतंत्रता. न प्रेम-विवाह-सेक्स-बच्चे पैदा करने की आजादी, न सोचने और विचारों को नोटबुक में दर्ज करने की स्वतंत्रता.
विंस्टन जानता है चूँकि इस निजाम में लिखना-सोचना जघन्य अपराध है, इसलिए नोटबुक खरीदना ही उसे ‘विचार-अपराधी’ सिद्ध करने का पुख्ता सबूत है. लेकिन ‘दानवों की बस्ती में‘ दानवी-जीवन जीने की घुटन में वह नष्ट कर दिए गए अतीत और किसी अदृश्य गिरफ्त में तड़फड़ाते बदरंग भविष्य की बातें सोच लेना चाहता है. बिग ब्रदर के प्रति घृणा व्यक्त करने वाले प्रेम मंत्रालय के अधिकारी ओ’ब्रायन की संवेदनात्मक सहानुभूति और हौसला-अफजाई पाकर वह विद्रोही पार्टी ‘ब्रदरहुड’ में शामिल होने के लिए उसके पास आता है. यहीं वह जिबह कर दिया जाता है. तरह-तरह की अमानुषिक शारीरिक यातनाएँ, मानसिक उत्पीड़न, तमाम तरह के सत्ता-विरोधी अपराधों में भागीदारी कबूल करवा कर हस्ताक्षर लेना, मौत के कगार पर ले जाकर भी न मरने देना – सिर्फ इसलिए कि वह कबूल ले, दो और दो पाँच होते हैं.
ऑरवेल ‘दो और दो पाँच’ व्यंग्योक्ति के प्रचलित अर्थ का विस्तार कर इसे दो विचारधाराओं की आपसी टकराहट का रूप देते हैं. इसका एक सिर स्टालिन की पंचवर्षीय योजनाओं को चार वर्ष में अपेक्षाकृत बेहतर परिणाम के साथ खत्म कर देने के आदेश से जुड़ा है, जो कर्मचारी और मजदूरों के इंसानी वजूद को मानने से ही इनकार करता है, तो दूसरा सिरा अनुभव, स्मृति, संवेदना, तथ्य-तर्क और ज्ञान की तमाम परंपरा पर काबिज होकर सत्य की ‘पुनर्रचना’ करने के वर्चस्ववादी अहंकार को उद्घाटित करता है. ओ’ब्रायन को ऑरवेल ने बिग ब्रदर का प्रतिनिधि प्रवक्ता बनाया है और विंस्टन को अधिनायकवादी निरंकुश तंत्र को ललकारने वाली विवेकपूर्ण नैतिक दृढ़ता. “दो और दो चार होते हैं, यह कहने का अधिकार ही स्वतंत्रता है. यदि यह अधिकार मिल जाता है तो और सब चीज़ें भी मिल जाएँगी” –
विंस्टन की इस मान्यता के ठीक विपरीत है ओ’ब्रायन का बयान कि वस्तुपरक यथार्थ जैसी कोई चीज नहीं होती क्योंकि यथार्थ को नियंत्रित किया जा सकता है; कि पार्टी सत्ता भी है, सत्ता की पुरोहित भी और स्वयं निराकार ईश्वर भी; कि सत्य वही है जिसे पार्टी ‘सत्य’ कहे. व्यक्ति की निजी मान्यताओं और विश्वास की वहाँ कोई जगह नहीं क्योंकि व्यक्ति गलती कर सकता है, पार्टी नहीं. पार्टी का मस्तिष्क सामूहिक, प्रामाणिक और अमर है. ओ’ब्रायन स्वीकार करता है कि
“पुरानी सभ्यताओं का दावा था कि उनकी नींव प्रेम तथा न्याय पर है. हमारी दुनिया की नींव घृणा है. हमारी दुनिया में भय, क्रोध, विजयोन्माद और आत्मपतन के सिवा अन्य कोई मानवीय भावना शेष नहीं रहेगी. बाकी हर चीज को हम नष्ट कर देंगे.… हमने पुरानी आदतें छोड़ दी हैं. हमने माता-पिता और बच्चों के बीच का संबंध खत्म कर दिया है. … आदमी-आदमी का रिश्ता तोड़ दिया है. स्त्री और पुरुष के बीच विश्वास, प्रेम और काम का संबंध नष्ट कर दिया है. कोई भी व्यक्ति अपने मित्र, बच्चे और पत्नी पर विश्वास नहीं कर सकता. … बच्चे जन्म के बाद माताओं से उसी तरह ले लिए जाएँगे जैसे मुर्गी के अंडे उठा लिए जाते हैं. राशन-कार्ड को जिस तरह तारीख डलवा कर नया कराया जाता है, उसी तरह संतानोत्पत्ति भी वार्षिक क्रिया होगी.… पार्टी भक्ति के सिवा कोई बात शेष नहीं रह जाएगी. … बिग ब्रदर के सिवा कोई किसी से प्रेम नहीं करेगा. न कला रह जाएगी, न विज्ञान, न साहित्य. जब हम सर्वांतर्यामी और सर्वशक्तिमान होंगे तब विज्ञान की क्या जरूरत? कोई जिज्ञासा नहीं रह जाएगी और जीवन की कोई आवश्यकता नहीं बचेगी. सभी शारीरिक सुखों को नष्ट कर दिया जाएगा, परंतु सत्ता का डर बराबर बना रहेगा.… असहाय शत्रु को अपनी टांगों में दबा देख हम हमेशा हर्षित रहेंगे.… हर दिन, हर क्षण विरोधी हराए जाएँगे, बदनाम किए जाएँगे, उनकी हंसी उड़ाई जाएगी, उन पर थूक जाएग, लेकिन फिर भी उन्हें जिंदा रखा जाएगा. … याद रखो विंस्टन, गाल पर जूते का निशान लेकर सिहरता हुआ आदमी… यही है भविष्य का एकमात्र चित्र.”
यह वही स्थल है जहाँ पार्टी की उक्ति – “मज़दूर आदमी थोड़े ही हैं”- का पुनर्स्मरण करते हुए ओ’ब्रायन के इस विश्वास पर विचार करना ज़रूरी हो जाता है कि क्यों “मज़दूर कभी विद्रोह नहीं करेंगे. हज़ार या लाख साल बाद भी नहीं. वे विद्रोह कर ही नहीं सकते.”
ऑरवेल ने देखा है कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की बात करते हुए हर विचारधारा की शासन-व्यवस्था इन्हीं तीनों को कुचलने में पूरी ताकत झोंक देती है. सर्वहारा क्रांति ने उन्हें चेता दिया है कि बंधुत्व, सौहार्द सद्भाव और संवाद जर्जर व्यक्ति को भी मज़बूत संगठन में बदल सकते हैं. ज्ञान की ललक, चिंतन-क्षमता और स्वप्नदर्शिता उसे गत्यात्मक और संघर्षशील बन सकते हैं. इसलिए प्रतिक्रांति की तमाम संभावनाओं को कुचलने के लिए जरूरी है जनता के बीच संवाद और सद्भाव की समाप्ति, अभाव, आतंक और असुरक्षा की गहराती झुरझुरी, अज्ञान और अंधविश्वास का प्रसार, क्षणिक भोग और अपराध के प्रति उत्तेजनापूर्ण ललक पैदा की जाए.
ऑरवेल देखते हैं, औद्योगिक क्रांति की वजह से माँग की अपेक्षा कई गुना अधिक उत्पादन होने के बावजूद जनता अभावग्रस्त है. जिन संसाधनों का समाज के समान विकास और समृद्धि के लिए सदुपयोग किया जा सकता था, वे युद्ध जैसी ओढ़ी गई ‘अनिवार्यता’ पर जानबूझ कर नष्ट किए जा रहे हैं. शिक्षा को क्रमशः नष्ट करके अक्षर-ज्ञान तक ही सीमित नहीं किया जा रहा है बल्कि पार्टी-लाइन के आधार पर उसका असली उद्देश्य तोड़ा जा रहा है. लेकिन लोगों में शिक्षित होने का आत्मविश्वास पैदा करने के लिए उनके बीच अश्लील एवं आपराधिक साहित्य वितरित किया जाता है. यह विश्वास दिलाया जाता है कि वे मूलत: पशु हैं, लेकिन सत्ता की अनुकंपा पाकर ‘मनुष्य’ की तरह जी रहे हैं.अतः सत्ता के मौजूदा स्वरूप को बनाए रखना उनकी अपनी सलामती की पहली जरूरत है. वे जानते हैं, ओ’ब्रायन की यह धमकी दु:स्वप्न नहीं, रीढ़ तोड़ देने वाले यथार्थ की तरह उनकी ज़िंदगी में पसर चुकी है-
“यह मत सोचना विंस्टन कि तुम पूर्ण आत्मसमर्पण कर दोगे तो बच जाओगे … हम तुम्हें इतना कुचल देंगे कि फिर तुम कभी उठ ही नहीं सकोगे.… सामान्य मानवीय अनुभूतियाँ तुम में कभी उत्पन्न नहीं हो सकेंगी. तुम न प्रेम कर सकोगे, न हंस सकोगे. न तुम में जिज्ञासा बचेगी, न साहस और न ईमानदारी. … हम तुम्हें निचोड़ कर एकदम रिक्त कर देंगे. फिर तुम में अपनी भावनाएँ भर देंगे.… हम अपने दुश्मन को मारते नहीं, उसके दिमाग को बिल्कुल ‘ठीक‘ करके बदल देते हैं.”
जाहिर है सत्ता का सबसे बड़ा गुनाह है इंसान को उपभोक्ता बना देना, दिमाग के ऊपर पेट को रख देना, और आर्थिक-सांस्कृतिक असमानता को सर्वस्वीकृत मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित कर देना. लेकिन ऑरवेल मानते हैं कि स्मृति और स्वप्न इंसान की पूंजी हैं. स्मृति नष्ट कर दिए गए अतीत की सकारात्मकता से जोड़ती है तो स्वप्न भविष्य की दायित्वशील रचनात्मकता से. लेख ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ (1946) में वे लिखते हैं –
“1936 से अब तक मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर पूरी तरह से अधिनायकवाद के खिलाफ़ है … वह पूरी तरह से लोकतांत्रिक समाजवाद के पक्ष में है.”
लोकतांत्रिक समाजवाद यानी सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता-सौहार्द की गारंटी, कुलीनतावाद के तमाम विशेषाधिकारों का निरस्तीकरण, आर्थिक संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण, और शिक्षा के समान सर्वसुलभ अवसर. उपन्यास ‘नाइंटीन एटी फोर’ दरअसल इसी न्यायपूर्ण समाज की पुनर्संरचना का स्वप्न है जिसे कई सदी पहले साकार हो जाना चाहिए था.
3.
‘ग़लत फैसलों से हिंसा उपजती है और हिंसा से अपसंस्कृतियाँ और रक्तपात‘ …’आखिर कितनी सदियाँ कितनी सदियों से बदला लेंगी?’
आर्थिक उदारीकरण की पीठ पर सवार नव-औपनिवेशिक शक्तियों ने उपभोक्ता-संस्कृति के ज़रिए व्यक्ति की चेतना का अपहरण कर जिस प्रकार संसार भर में आतंकवाद, युद्ध, सांप्रदायिकता द्वेष, नफ़रत और धर्मगत विभाजनकारी विभीषिका को धधकाना चाहा है, उससे बुद्धिजीवी वर्ग के कान खड़े होना स्वाभाविक है.
सांस्कृतिक वर्चस्व की ज़मीन पर उभरने वाली अधिनायकवादी ताक़तें अतीत को दुधारी तलवार की तरह इस्तेमाल करती हैं. चुनी हुई चुप्पियों और गढ़ी गई तल्ख़ सच्चाइयों से बुना अर्ध-सत्य उनका बघनखा है जिसे रामनामी चादर के नीचे छिपाकर खून की होली खेली जाती है. भारतीय संदर्भ में 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद राममंदिर की माँग और 2024 में राम-मंदिर- निर्माण के बाद मथुरा-काशी के अलावा अल्पसंख्यक समुदाय विशेष के लगभग सभी महत्वपूर्ण पूजा-स्थलों के आर्कियोलॉजिकल सर्वे की सत्ता-संस्तुत उन्मत्त माँग थियोक्रेसी की समीप आती पदचापों को सुनने की चेतावनी देती है.
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हालाँकि स्थिति आज के समय की तरह अराजक और पोलराइज़्ड नहीं थी, लेकिन हिंसक हुंकारों में आज के यथार्थ की तस्वीर ज़रूर उभर रही थी. इसलिए इतिहास-चेतना से निर्मित राजनीतिक-दृष्टि के साथ जब कमलेश्वर ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में मंदिर-मस्जिद-विवाद के संदर्भ में भारत की सांस्कृतिक पहचान को नए सिरे से खोजने निकलते हैं तो बाबर से औरंगज़ेब तक मुग़लिया सल्तनत की विश्लेषणपरक पड़ताल कर डालते हैं. वे पाते हैं कि समय को निस्संग दृष्टि से रचने की बजाय दरबारी इतिहासकार और औपनिवेशिक इतिहासकार अपने-अपने कोण से मनमाना इतिहास रच रहे हैं. तो क्या इतिहास-लेखन की कोई निरपेक्ष वस्तुपरक पद्धति नहीं है? क्या वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ दृष्टि से इतिहास का आकलन संभव नहीं जहाँ कठघरे और शमशीरें नहीं, संग-साथ बैठकर उलझे मसलों को सुलझाने की वैचारिक परिपक्वता हो? यह तय है कि ‘इतिहास-बंदी‘ होकर इतिहास-चेतना को नहीं पाया जा सकता.
इतिहास-चेतना इतिहास को अकादमिक किताबों की चारदीवारी से मुक्त कर समय को अखंडता में देखने; सांस्कृतिक परम्पराओं, धर्म, दर्शन और लोक-विश्वासों को परखने; और वर्तमान की गोद में पलते भविष्य को बेहतर मनुष्य-संस्कार देने की सजग वैचारिक तमीज़ है. वह अस्मिता, समाज-नीति और दर्शन के सवालों से टकराते हुए सत्य को पुनर्प्रतिष्ठित करने की चेष्टा है. इसलिए उसके सामने तीन सवाल प्रमुख हैं.
एक, मनुष्य के तौर पर ‘मैं’ कौन हूँ? मेरी जड़ें सृष्टि और अन्य मनुष्यों के साथ मेरे संबंधों को कैसे परिभाषित करती हैं?
दो, क्या समाज-व्यवस्था का नियमन करने वाली आचार-संहिताएँ, नियम-विधान आदि समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व से बँधी सामाजिक-न्याय चेतना को अक्षुण्ण रख पाए हैं? यदि नहीं तो इसके लिए दोषी संस्थाओं/मनोवृत्तियों की पड़ताल करते हुए उत्पीड़ित हाशियाग्रस्त अस्मिताओं के पुनरुत्थान की कोशिश कैसे की जाए? इस कोशिश में यह याद रखना बेहद ज़रूरी है कि वर्तमान इतिहास की ख़ूनी लड़ाइयों का युद्ध-क्षेत्र नहीं है.
तीन, इतिहास में अमृत भी है और विष भी. चयन हमें करना है कि हमारी प्राथमिकताएँ क्या हैं ? कि हम अपनी लिप्साओं के रंग में एकरंगी समाज की रचना करना चाहते हैं? या बहुलतावादी सेकुलर समाज की जहाँ संवेदनापरक आलोचनात्मक विवेक मनुष्य की कर्मनिष्ठा बने और सहिष्णुता-समानता-एम्पैथी जीवन-लक्ष्य?
समकालीन राजनीति की अंतरंग परतों की सूक्ष्म पड़ताल करते हुए जॉर्ज ऑरवेल की बौद्धिक बेचैनी में मनुष्यता के झुलसते पंखों को आग की लपटों से खींच लाने की अंतिम कोशिश है (और इस प्रक्रिया में वे प्राय: मुक्तिबोध की तरह आत्म-विश्लेषण की ज्वाला में दमकती मेधा का प्रतिरूप बन जाते हैं) तो कमलेश्वर बौद्धिकता को भावुकता में सान कर इतिहास-पाखी की तरह तमाम सभ्यताओं, संस्कृतियों और समय की अनंत यात्रा पर निकल जाते हैं. फोकस्ड स्टडी की बजाय वे इतिहास के नाजुक स्थलों से कुछ सैंपल उठा कर लाते हैं और परखते हैं कि राजनीत-धर्म-पूंजी का गठजोड़ अ-चुनौतीपूर्ण अधिनायकवादी सत्ता का रूप लेकर मनुष्य-व्यवहार को प्रभावित और परिनिर्मित करता अवश्य है, लेकिन मनुष्य से उसके सपने और संकल्प नहीं छीन पाता. तमाम संस्कृतियाँ मनुष्य के ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचने की उदात्त यात्राएँ हैं. लेकिन हर उदात्त-यात्रा संघर्ष और जिजीविषा के साथ स्खलन और उत्पीड़न के खतरों से भी भरपूर है. इसलिए यहाँ आग चुराकर अन्यायपूर्ण सत्ता को चुनौती देता प्रमथ्यु भी है और देवताओं के षड्यंत्र के शिकार मित्र एँकिदू को मौत के मुँह से बचाने के लिए मृत्यु-औषधि की तलाश में भटकता सुमेरियन सम्राट गिलगमेश भी है.
प्रागैतिहासिक काल की प्रमुख सभ्यताओं – बेबीलोनिया, मेसोपोटामिया, सुमेरी-अक्कादी, मिस्र, सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक संस्कृति – की परिक्रमा कर कमलेश्वर दो निष्कर्षों पर पहुँचते हैं. एक, धर्म मनुष्य को कमज़ोर बनाने के लिए वर्चस्ववादियों द्वारा गढ़ी गई मिथ्या प्रवंचना है; दूसरे आँसू (करुणा), पसीना (श्रम) और सपने (सृजनाकुलता) ही मनुष्य की मुक्ति के द्वार हैं. वे देखते हैं कि तमाम संस्कृतियों में पराशक्ति, देवता और मनुष्य के आदिम द्वंद्व की पौराणिक कथाएँ मनुष्य-सभ्यता के प्रारंभिक स्वरूप को रचती हैं.
सर्वशक्तिमान अनश्वर देवता विलास, अनाचार और अहंकार के प्रतीक हैं, तो मनुष्य नश्वर अकिंचनता के बावजूद संघर्ष करके अपनी क्षमताओं और सीमाओं का अतिक्रमण करने वाली अपराजेय जिजीविषा है. वह परिस्थितियों से जूझ कर स्वयं को गढ़ता है और नई-नई संकल्पनाएँ ईजाद कर अपनी ही ताकत को बढ़ाता चलता है. जैसे मित्रता, प्रेम, श्रम और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व जैसी नियामतों का ‘आविष्कार’. उसकी इस ताकत से बुरी तरह घबराए हुए हैं देवता क्योंकि जानते हैं मनुष्य की विवेक-शक्ति के सामने वे कभी अपने वर्चस्व को अ-चुनौतीपूर्ण बनाए नहीं रख सकेंगे. इसलिए मनुष्य की ताकत के समस्त आधार-स्तंभों को ही जालसाज़ी द्वारा धराशायी कर देना चाहते हैं. सकारात्मक के जवाब में नकारात्मकता को रचते हैं और घोषणा करते हैं कि श्रम को श्रमसाध्य बना कर वे घृणा से प्रेम को, शत्रुता से मित्रता को, अशांति से शांति को और मृत्यु-भय से जीवन को नष्ट करते रहेंगे.
भारतीय पौराणिक साहित्य में यह लड़ाई देवासुर संग्राम के रूप में है तो सत् की प्रतिष्ठा के नाम पर लड़ी गईं अवतार-युग की तमाम लड़ाइयाँ अपने ही अधिनायकत्व को पुख्ता करने की कोशिशें हैं.’हम’ और ‘वे’ का स्पष्ट विभाजन वैश्विक संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान है जहाँ ऑरवैल द्वारा बताई गई हर राजनीतिक पार्टी की सत्ता-संरचना को बख़ूबी देखा जा सकता है. शीर्ष पर राजा (रक्षक) और उसका अंतरंग परामर्श-मंडल है जिसे ईश्वर का प्रतिनिधित्व करते हुए जनमानस की रक्षा करना है. मान लिया जाता है कि जनमानस अशक्त है और निर्णय-दुर्बल. राजा की कृपाकांक्षा के लिए उसे राज्य-धर्म द्वारा विहित विधानों और आचार-संहिताओं का पालन करते हुए अपनी अकिंचन (किंतु सुरक्षित) अवस्था पर संतुष्ट रहना है. ‘संतुष्टि’ का अर्थ है अपने मनुष्य-अस्तित्व और अस्मिता से जुड़े तमाम मानवीय-अधिकारों को खुशी-खुशी सत्ता के हवाले कर देना. यानी श्रम हमारा, फसल तुम्हारी; विष हमारा, अमिय तुम्हारी. संस्कृतियों के उदय में राजनीतिक दुरभिसंधियों की कुत्सित छाया हमेशा मौजूद रहती है.
कमलेश्वर इसे ‘ब्राह्मणवाद’ की संज्ञा देते हैं जो अपनी सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए विषमतापूर्ण वर्ग-वर्ण-विभाजन को समाज-नियमन की अनुशासित व्यवस्था बना देता है. प्लेटो के गणतंत्र में यह व्यवस्था महान दार्शनिक की संस्तुति के साथ उपस्थित है तो ऑरवेल के यहाँ असुविधाजनक स्वीकृति के साथ. कमलेश्वर शंबूक-वध और धर्म की स्थापना के लिए लड़े गए महाभारत-युद्ध के बहाने धर्म को ही पुनर्परिभाषित करने की बात करते हैं.
बेशक उनके पास एतद्विषयक कोई स्पष्ट संकल्पना नहीं, लेकिन मृत्यु-औषधि की तलाश में निकले गिलगमेश के अकूत हौसले की तरह स्थितियों को उलट-पलट कर ‘अधर्म’ को चीन्हने और चिंतन के गवाक्ष खोलते असुविधाजनक सवाल पूछने का विवेक अवश्य है. वह स्पष्ट करते हैं कि
“मैं उतने ही अतीत को देखना और समझना चाहता हूँ जो वर्तमान पर काली छाया डालकर हमारी आज की ज़िंदगी में नफरत और प्रतिशोध के पाकिस्तानों की नींव डालना चाहता है.”
अपने समय में नफरत का बीज बोती कट्टर वैश्विक धार्मिकताओं से भी सवाल करते हैं कि सांस्कृतिक-समन्वय की मिसाल कहे जाने वाले मिस्र से फारोहों, हेलेनिकों और ईसाइयों की विरासत निकाल कर वे जिस ‘धर्म-विशेष’ की तामीर करेंगे, क्या वह अंततः रेत का ढूह भर नहीं रह जाएगा? रेशम-मार्ग के जरिए विश्व के दो छोरों को जोड़ता बौद्ध-धर्म क्या बामियान में बुद्ध-प्रतिमा-ध्वंस के बावजूद बुद्ध की करुणा, अहिंसा, शांति के संदेश को नष्ट कर पाया? क्या स्फिंक्स की नाक तोड़ने से या धर्म बदल लेने से इतिहास की जड़ें बदली जा सकीं? क्या तलवारों के बल पर खड़ा किया गया धर्म अंततः हमें ही भस्मासुर बनाकर मौत के आगोश में नहीं ले जाता? तो धर्म न उन्माद है, न नफरत, न विजय-पताका. वह एक संवेदनशील वैचारिक परिपक्वता है कि
“जितना जो कुछ टूट गया, उसे भूल जाओ. जो कुछ टूटने के बाद बना है, उसे टूटने से बचाओ.” इसलिए इतिहास-चेतना के जिन कंगूरों का आरोहण कर कमलेश्वर का राजनीतिक-चिंतन अस्तित्व में आता है, वह इतिहास और अतीत में फर्क समझने की पैरवी भी करता है. इतिहास अतीत का रहनुमा है, ढूहों-टीलों, खंडहरों-दरारों में भटकते अतीत का पिछलग्गू नहीं. अतीत में ढेर-से काल-खंड हैं और ढेर-सी पुरा-कथाएँ; ढेर-से मिथक हैं और ढेर-सी संस्कृतियाँ जो सत्ता और धर्म बदलने पर भी अक्षुण्ण रहती हैं. यहाँ परंपराएँ और परंपरा-भंजन के दुस्साहस भी हैं और जातियों-उपजातियों, वर्गों-वर्णों की जातीय स्मृतियाँ भी जिनमें आपसी टकराहटें भी हैं और मेल-मिलाप की मिठास भी; उत्थान-पतन और समझौते-संधियों के बीच मानापमान की कड़वी घूटें हैं तो अस्वीकृतियों के कठिन दौर के बाद स्वीकृति पाती अभिलाषाएँ भी. सब स्वायत्त भी हैं और परस्पर संबद्ध भी. अतीत विराट होते हुए भी खंडित है, इसलिए मूर्छित है. इतिहास-चेतना उन खंडों के बीच तर्कपूर्ण कार्य-कारण-चेतना का प्रवाह करती है और समय को समग्रता में समझने का विवेक देती है. अतीत अराजक ‘अग्निकुंड’ है जो ‘नफरती एकता’ के काम आता है. अतीत के पास विवेक नहीं, भावुकता है; दूर तक देखने की दृष्टि नहीं, मोतियाबिंद के कारण धुंधला गई नजर से आकृतियों की टोह भर लेने की सामर्थ्य है. इसलिए वह
“आंशिक सत्यों को स्मृति की कहानियों में बदल देता है और फिर उन्हें सदियों तक जीवित रखता है. अतीत नफरत का ऐसा स्कूल है जिसमें पहले खुद को प्रताड़ित, अपमानित और दंशित किया जाता है. उसे घृणा की खाद से सींचा जाता है और तब उसकी स्मृति को एकात्मक करके प्रतिशोध के नुकीले हल से जोतकर हमवार किया जाता है. इसलिए घृणावादियों के तर्क इकहरे और एक-से होते हैं; वे हज़ारों-लाखों मुखों से एक ही स्वर में बोलते हैं, एक-से प्रश्न उठाते हैं, एक ही दलील देते हैं. यही उनकी एकता की पहचान बन जाती है.”
लिहाजा कमलेश्वर इतिहास को बुनने वाली तमाम आड़ी-तिरछी बुनाइयों, बुनकरों, रंगों और धागों को अपनी अदालत में हाजिर करते हैं. अदालत तार्किक न्याय-चेतना की प्रतीक ही नहीं, सामाजिक-न्याय को आधारभूत मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करने वाली महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्था भी है. अदीब (बुद्धिजीवी सृजनात्मकता) को अदालत के रूप में परिकल्पित कर कमलेश्वर दो चीजों की ओर संकेत करते हैं. एक, लोकतंत्र की हिफाजत के लिए हर बुद्धिजीवी नागरिक को अपनी जा़ती जिंदगी की चौहद्दी से बाहर निकाल कर समय और संस्कृति को बचाने के लिए आगे आना होगा. दूसरे, इतिहास-चेतना के बुनियादी अर्थ को हृदयंगम करते हुए घटना/चरित्र/कालखंड को उसकी निर्माता अंदरूनी परतों की संश्लिष्ट जांच के साथ समझना होगा. इतिहास के सरलीकरण की कोशिश समय के सीने में खंजर घोंपना है. इसलिए कमलेश्वर जब बाबरी-मस्जिद- ध्वंस को लेकर अदीब की अदालत लगाते हैं तो बाबरनामा और तत्कालीन इतिहासकारों के अलावा ब्रिटिशकालीन गजेटियरों, इतिहास-पुस्तकों का गहन अध्ययन करने के बाद तर्क, साक्ष्य और बहस की लंबी श्रृंखला का आगाज़ करते हैं. पूरे प्रकरण में ढेर-सी अन्य गवाहियों के अलावा दो गवाहियाँ महत्वपूर्ण हैं. एक बाबर की, और दूसरी ब्रिटिश अधिकारी ए फ्यूहरर की.
बाबर की ओर से दिए गए दो बयान क़ाबिले-गौर हैं –
“मेरा दुश्मन हिंदुस्तान का हिंदू नहीं, आगरा का मुसलमान बादशाह इब्राहिम लोदी था.” तथा
“यदि मुझे मंदिर तोड़ना ही होता तो मैं कृष्ण का जन्म स्थान न तोड़ता जो आगरा से महज पचास मील दूर था.… भागा-भागा अयोध्या तक जाके राम का जन्मस्थान क्यों तोड़ता? राम तो भगवान हुए तुलसीदास के बाद, और मेरे सामने तुलसीदास बच्चा था. उसने रामायण मेरे मरने के बाद लिखी.”
दूसरा बयान ब्रिटिश आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया के निदेशक ए फ्यूहरर का है जो स्वीकार करते हैं कि सन 1889 में उन्होंने मस्जिद के शिलालेख को पढ़ा तो पता चला, मस्जिद की नींव सितंबर 1523 में इब्राहिम लोदी ने रखी थी जो सितंबर 1524 में बनकर तैयार हुई. शुरु से ही वहाँ मंदिर का कोई नामोनिशान न था. इस शिलालेख को बाद में ब्रिटिश सरकार की औपनिवेशिक नीतियों के तहत नष्ट कर दिया गया, किंतु असावधानीवश अनुवाद के पन्ने फाइलों में दबे रह गए. जाहिर है यह ब्रिटिश नीति थी – हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ना. तीसरा बयान हालाँकि अंग्रेज अफसर एच.आर. नेविल ने स्वयं अदालत में उपस्थित होकर नहीं दिया, लेकिन फैज़ाबाद गजेटियर में दर्ज उनके बयान को उद्धृत किया गया है कि ‘तामीर होती मस्जिद पर जब हिंदुओं ने हमला किया तो उस जंग में मुसलमानों ने 174000 हिंदुओं को हलाक किया. उन्हीं हिंदुओं के खून से मस्जिद के लिए गारा बनाया गया था.‘ इस बयान पर बाबर के सवाल को परिकल्पित करते हुए कमलेश्वर आंकड़ों की शरण में जाते हैं कि गजेटियर में फैजाबाद-अयोध्या की कुल आबादी 1869 में 9949 दर्ज की गई और सन 1881 यानी 12 बरस बाद करीब दो हज़ार की वृद्धि हुई तो सवाल उठता है, 140 साल पहले उस छोटे से क्षेत्र की आबादी में ऐसी कितनी बढ़ोत्तरी हुई होगी कि स्थानीय कलह में 174000 हिंदू मारे गए?
दारा शिकोह की हत्या को कमलेश्वर ‘एक नए बनते हुए हिंदुस्तान की हत्या‘ मानते हैं. एक ऐसा नया हिंदुस्तान जो अकबर की पहलकदमी में इस्लामपरस्ती को हिंदुस्तानपरस्ती में तब्दील करने का स्वप्न संजोए हुए था जहाँ बादशाह हिंदू राजाओं की तरह अवाम को ‘झरोखा दर्शन‘ देते हों, हिंदुओं के साथ दरबारी, दोस्ताना और वैवाहिक रिश्ते कायम करते हों, और सबको अपने-अपने मजहब के मुताबिक़ खानपान, वेशभूषा, रीति-रिवाज की आजादी देते हों. अकबर का दीन-ए-इलाही धर्म दारा शिकोह की सेकुलर सोच में संपूर्णता पाता है. दारा का मत है कि
“सूफीवाद के तौहीद और वैदिक धर्म के अद्वैतवाद में कहीं कोई फर्क नहीं.तौहीद का मार्ग समझदारी, समन्वय और दया का है. तौहीद यानी न अहं का अस्तित्व, न ईश्वर के अलावा किसी और वस्तु का वजूद – यानी वस्तु और व्यक्ति पिघल कर एक ईश्वर में विलीन.”
लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि इस्लाम की कट्टरवादी शाखा ने अकबर की उदारवादी सोच से घबराकर हिंदुओं के ब्राह्मणवादी विकारों को ग्रहण करना शुरू कर दिया. अपनी मान्यता के समर्थन में कमलेश्वर अदीब की अदालत में इतिहास-पुरुष को गवाह बनाकर प्रस्तुत करते हैं. तब इस्लामी कट्टरता को ‘हिंदू वर्णश्रम धर्म वाले सांचे में ढली विकृति‘ का नाम देते हैं जिसकी तीन परिणतियाँ हुईं. एक, “जो भी हिंदुस्तानी कलमा पढ़ कर मुसलमान बना, मुगलिया सल्तनत में वह खादिम और चौबदार के ओहदे से ऊपर नहीं जा सका.” दो, “इसी इस्लामी ब्राह्मणवाद ने अकबर की कोशिशों को नाकाम किया”. तीन, दारा-सरीखे ‘मुसलमान-ब्राह्मण‘ जैसी इंसानपरस्त पहचान से सख्त परहेज कर औरंगजेब मजहबपरस्ती के रास्ते पर चल पड़ा. ‘खलनायक‘ जैसा फतवा देकर औरंगजेब को खारिज करने की बजाय कमलेश्वर औरंगजेब के व्यक्तित्व की संश्लिष्ट परतों को धैर्य एवं सहानुभूतिपूर्वक पढ़ने की माँग करते हैं.
दो धर्मों की टकराहट समन्वय की सफल/विफल चेष्टा के अलावा ध्रुवीकरण की कट्टरता में भी विघटित हो जाती है. इस्लाम की हिंसा के समानांतर हिंदू धर्म भी सहिष्णुता और समन्वय-प्रवृत्ति खोकर हिंसक बनता जा रहा था. मंदिर हिंदुओं के शस्त्रागार और सैन्य-संचालन के अड्डे बनने लगे थे. बागी साधुओं की परंपरा संप्रदायों-अखाड़ों-छावनियों में विस्तार पाकर छापामार हमलों में अपने को पुनर्परिभाषित कर रही थी. ग़ौरतलब है कि ‘आनंदमठ‘ इसी संन्यासी-विद्रोह को केंद्रित कर हिंदू-मुस्लिम विद्वेष को राष्ट्रवाद की गौरवशाली पहचान देता है. जाहिर है ‘कितने पाकिस्तान‘ की रचना का उद्देश्य इतिहास की पड़ताल के बहाने अपने समय को खोखला करने वाली धर्मोन्मादी ताकतों को पहचानने और प्रतिरोध की सार्थक लड़ाई लड़ने का आह्वान भी है.
कमलेश्वर की इतिहास-चेतना साम्राज्यवादी औपनिवेशिक राजनीति की टोह लेने के क्रम में स्पेनिश लुटेरों द्वारा 15वीं शताब्दी में मेसो-अमेरिकन सभ्यताओं -माया एवं अजटेक – को नष्ट करने की साज़िशें भी उघाड़ती चलती है. वह इस प्रकरण को रेखांकित करना भी नहीं भूलते कि झूठ और दुष्प्रचार के अलावा अज़टेक-सभ्यता के सम्राट मोंतेजुमा को अपना मित्र बनकर ही साम्राज्यवादी अधिनायक कोर्टेस ने उसकी पीठ में खंजर घोंपा था. ठीक ऐसे ही प्रकरण की नियोजना दारा शिकोह के संदर्भ में भी की गई है. पीछा करती औरंगजेब की दुर्दांत सेना से बचने के क्रम में दारा जिस भी मित्र के पास शरण लेने जाता है, वही उसे धोखा देता है. जोधपुर, जयपुर और मेवाड़ के राजपूत राजा भी, और अफगानिस्तान में दादर रियासत का अधिपति मलिक जीवन भी, जो बाद में औरंगजेब को प्रसन्न करने के लिए धर्म बदलकर बख्तियार खां हो गया. ये दोनों प्रकरण लोभ और राजनीतिक लिप्साओं के चलते मानवीय मूल्यों के क्रमिक क्षरण के उदाहरण ही नहीं, गिलगामेश द्वारा खोजे गए मित्रता के वरदान को कुचलकर व्यक्ति को अकेला असहाय और असुरक्षित भी बना देते हैं. सभ्यताओं की सांस्कृतिक-यात्रा जब उल्टी चाल से चलकर अपनी ही उपलब्धियों को खाने लगे, तब चिंता की लकीरों के बीच भविष्य की पगडंडियों की तलाश भी जरूरी हो जाती है. लेकिन वास्तविकता यह है कि आज हर देश, हर धर्म, हर कौम अपने सीने में जाने कितनी-कितनी नफ़रतों के बवंडर लिए प्रतिशोध में सुलग रही है. कमलेश्वर उपन्यास में नब्बे के दशक के जिस ज्वलनशील वैश्विक परिदृश्य की खबर लेते हैं, वह आज के समय से अलग नहीं.
अफ्रीका महाद्वीप को पूरी तरह निचोड़ कर गरीबी, अभाव, अज्ञान और उपेक्षा के अंधकार में झोंकने के बाद पश्चिम की अधिनायकवादी ताकतें एशिया को अस्थिर करने में लगी हुई हैं – यह किसी से छुपा नहीं. इजराइल-फिलिस्तीन, रूस-यूक्रेन, धार्मिक रंजिशों में सुलगता मध्य एशिया, रूस और चीन की बढ़ती सैन्य एवं व्यापारिक ताकत से ख़ौफ़जदा होकर कूटनीतिक साजिश करता अमेरिका, आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक बदहाली के कारण विघटित होता बांग्लादेश-श्रीलंका, और दक्षिणपंथी नीतियों पर चलकर तमाम पड़ोसी देशों से अ-मैत्रीपूर्ण संबंधों को गहराता भारत! इन सबके बीच है ‘मागा’(मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) की दुंदुभि के साथ अमेरिका को समूचे विश्व का इकलौता पावर-सेंटर सिद्ध करना; और डॉलर की प्रभुसत्ता को बनाए रखने के लिए ब्रिक्स देशों पर सघन दबाव बनाना कि वे अपनी करेंसी न ईजाद कर सकें.कमलेश्वर के शब्दों में कहूँ तो यह अपने-अपने ‘पाकिस्तानों‘ की चाह में अंधेरी दुनिया बनाने की कोशिश है. तो क्या वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम नई विश्व व्यवस्था के नाम पर उसी त्रिस्तरीय वैश्विक-समाज-संरचना को मज़बूत करना चाहता है जहाँ पराशक्ति अमेरिका है, देवता तमाम राष्ट्राध्यक्ष हैं, और असुर के किरदार में अपने नागरिक अधिकारों से वंचित औसत आदमी होगा.
इतिहास-चेतना राजनीतिक व्यवस्थाओं की शिनाख्त के दौरान चूँकि सांस्कृतिक उत्थान-पतन के विविध सोपनों की यात्रा भी करती चलती है, इसलिए न वह एकमात्र विक्टिम के रूप में आम आदमी की पहचान करती है, न उसकी निष्क्रियताओं और क्षुद्रताओं से आँख चुराकर खामख्वाह क्लीन-चिट देने की कोशिश करती है. इतिहास बहुत-से ‘अंधकार-युगों’ से बना है, लेकिन हर बार मनुष्य की जिजीविषा ही आगे बढ़कर उजालों को लौटा लाई है. कमलेश्वर के पास भी यही आशावादी स्वर है. यह विडंबना ही है कि परमाणु शक्ति-संपन्न होने के बावजूद भारत-पाकिस्तान एक दूसरे से न सुरक्षित हुए हैं, न मजबूत; बल्कि संवादहीनता के कारण स्थितियों को कटुतापूर्ण संबंधों के अंतिम छोर तक ले आए हैं. कमलेश्वर की मान्यता है कि संबंध हार्दिकता के उज्जवल आलोक में नहाए संवाद से बनते हैं.हार्दिकता तमाम विभाजनों को अस्वीकार कर मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है और बेहतरीन की आशा के गीत गाती है. इसलिए अनायास नहीं कि लेखक उपन्यास में एक बूढ़े वैज्ञानिक की परिकल्पना करते हैं जो मनुष्य की गुमशुदा होती तासीरों -आँसू, पसीना खंडित और सपनों – को प्रमथ्यु की निगहबानी में सहेज कर रख रहा है ताकि आने वाली नस्लें खोई नियामतों की तलाश में निकलें तो उन्हें पा सकें.
4.
“अदंडित मत जाने दो अत्याचारी को
उसके अहंकार को
यदि ऐसा न किया तो
नष्ट होगी भवितव्यता, मनुष्य के ही हाथों
नष्ट होंगी अर्चनाएँ , प्रार्थनाएँ
मृत होगा धर्म”
तमाम सभ्यताओं-संस्कृतियों के उत्थान-पतन की यकसां गाथा के संवेदनात्मक विश्लेषण से बनी प्रियंवद की राजनीतिक-चेतना अंडरकरंट की तरह उनके समूचे कथा-साहित्य में मौजूद है. यह चेतना उस समय विश्व-दृष्टि का रूप लेती है जब राजनीतिक खबरों, घटनाओं कूटनीतियों के विश्लेषण में न जाकर जनमानस पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन करती है. इस क्रम में लेखक की नजर समय के गर्भ में छिपी विचार की उस अनंत मंथर प्रक्रिया पर टिकी रहती है जो एक स्तर पर इन राजनीतिक प्रभावों को बोध, संवेदना और तर्क से जोड़ कर जन-चेतना (और कभी-कभी जन-आंदोलन) का रूप देती है, तो दूसरे स्तर पर उन अंधेरों की शिनाख्त भी करती है जो व्यक्ति की हिंसक लिप्साओं और दयनीय कातरताओं से सघन होकर तांडव और त्रासदी की रचना करती है.
इस दृष्टि से उनके सद्य प्रकाशित उपन्यास ‘एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गई सिंम्फनी‘ को समय की शिला पर उत्कीर्ण संश्लिष्ट सांस्कृतिक-स्मारक की संज्ञा दी जा सकती है जहाँ चारों दिशाओं से विविध कालखंड, इतिहास, सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ, मनुष्य, मनुष्येतर प्राणी, संरचनाएँ, सत्ताएँह और व्यवस्थाएँह तमाम अनुशासनों और बंधनों का अतिक्रमण कर निर्बाध चली आ रही हैं, और ‘संपूर्ण को समेटने वाली चीख‘ का रूप ले लेती हैं. लेकिन इस चीख में भय या हताशा की तात्कालिक प्रतिक्रियात्मक अनुगूंज नहीं है, बल्कि भय और हताशा को रचने वाली ताकतों, व्यवस्थाओं और रहस्य के नीम अंधेरे में लिपटी कुटिलताओं की शिनाख्त की धीरजभरी संजीदगी है. इसलिए उपन्यास बार-बार उन्हीं गहन-गूढ़ दार्शनिक सवालों से टकराता चलता है जो सदियों से अनुत्तरित हैं कि जीवन और मृत्यु क्या है?
ईश्वर और धर्म, पाप और पुण्य, सत् और असत् क्या मनुष्य को भरमाने के लिए गढ़ी गई भ्रांत राजनीतिक संरचनाएँ हैं, या मूल्य व्यवस्था की ऊर्ध्वगामी चेतना हैं? सत्ता और मनुष्य का आपसी संबंध क्या है? और इस सब में न्याय की भूमिका क्या मृगमरीचिका भर है? मनुष्य क्या है? मनुष्यता के रूपहले पन्नों में ‘व्यक्ति‘ की ठोस चमकीली अस्मिता अक्सर गुम क्यों हो जाती है? क्यों उसे हमेशा दो विरोधी ध्रुवांतों पर लटका हुआ दिखाया जाता है जहाँ एक ओर वह धीरू और निर्णय-दुर्बल है तो दूसरी ओर विद्रोही और समय का सर्जक?
दर्शन (फिलॉसफी) मनीषी मेधा द्वारा जीवन के अंग-उपांग पर किया गया गंभीर चिंतन है जहाँ तात्कालिकता का आवेश नहीं, बल्कि समय के मनोविज्ञान की संश्लिष्ट परतों को खोलने की धैर्यपूर्ण उत्सुकता है. यह तय है कि जीवन-यात्रा के दौरान निजी स्तर पर जमा की गई स्मृतियाँ , अनुभव, आकांक्षाएँ, घाव, पराजय, स्वप्न, संघर्ष संघटित होकर तात्कालिकता के आवेश को निगूढ़ चिंतन में ढालते हैं, और निजता के घेरे का अतिक्रमण करने के क्रम में आत्मपरकता को वस्तुपरकता में, व्यष्टि को समष्टि में रूपांतरित करते हुए जातीय स्मृति, सामूहिक स्वप्न और मानव-संघर्ष में परिणत हो जाते हैं. इस पूरी ज्ञान-परंपरा को आत्मसात करते हुए वर्तमान की पेचीदगियों से टकराना और अपनी सुनिश्चित सामाजिक-बौद्धिक-मानसिक पोजिशनिंग (अवस्थिति) के हिसाब से बेहतर भविष्य के सर्जक विकल्पों को खोजना ही दरअसल दर्शन की जमीन पर चलना है.
प्रियंवद का यह उपन्यास मौलिक उद्भावना के रूप में किसी दार्शनिक विचार-बिंदु को प्रस्तुत नहीं करता, लेकिन जीव-जगत-जीवन के चारों ओर बुने दार्शनिक सवालों को समय की क्रमिक चिंतन-प्रक्रिया के रूप में जरूर उभारता है. इसलिए यहाँ शिल्प के लिए किस्सागोई को चुना जाता है, और प्लॉट के लिए मृत्यु को. लेकिन यह उस तरह से मृत्यु-बोध का उपन्यास नहीं जिस तरह ‘अपने-अपने अजनबी‘ (अज्ञेय), ‘अंतिम अरण्य‘ (निर्मल वर्मा) या ‘ऐ लड़की‘ (कृष्णा सोबती). इसके विपरीत उपन्यास के शीर्षक में ही उपन्यास की मूल ध्वनि को निबद्ध कर दिया गया है कि यह मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गई सिंफनी है. तब सवाल उठता है किसकी मृत्यु? किसी एक व्यक्ति की? व्यवस्था या तंत्र की? मूल्यों की? या आज की आप्लावनकारी नृशंस उपभोक्तावादी संस्कृति की, जो पूंजीकेंद्रित नव-उपनिवेशवाद को मजबूत करने वाली एक राजनीतिक चाल भी है? या फिर मनुष्यता की? दरअसल मृत्यु-बोध की रचना अपनी अंतिम टेक में मृत्यु के दारुण सत्य का बखान करते-करते जिंदगी के रहस्य और जीवन के चाव-रचाव पर बात करने लगती है. प्रियंवद भी इसका अपवाद नहीं. वह भय, घृणा, आतंक, लिप्सा, क्रूरता, आत्म-संकीर्णता जैसी मनोवृत्तियों को मृत्यु के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हुए उन तमाम सकारात्मकताओं को जीवन की संज्ञा देते हैं जो मनुष्य के अस्तित्व और चेतना को उन्मुक्त करती हैं. ये सकारात्मकताएँ हैं – विवेक, तर्क-बुद्धि, स्वप्नशीलता, संघर्ष, सह-अस्तित्व और करुणा. लेकिन उपन्यास पाठक से मौत पर नहीं, मौत की प्रतीक्षा में जुटाई गई महफिल पर ध्यान केंद्रित करने की अपेक्षा करता है. इस महफिल को लेखक ने चौपाल पर सजी हुक्का गुड़गुड़ाती महफिल का रूप न देकर प्लेटो की दार्शनिक पुस्तक ‘द रिपब्लिक‘ की विचारगझिन संवाद-गोष्ठी का रूप देने की कोशिश की है, जहाँ मनुष्य-अस्तित्व से जुड़ी तमाम बुनियादी गुत्थियों को सुलझाने की प्रक्रिया में प्रधान रहता है सवाल, और उस सवाल को समग्रता एवं संश्लिष्टता में देखने का प्रयास करती भिन्न-भिन्न स्वायत्त दृष्टियाँ.
जाहिर है यहाँ यदि एक स्तर पर परंपरा के बरक्स आधुनिकता, रूढ़िवादिता के बरक्स परिवर्तन की अनिवार्यता अनायास उभर कर आती है तो दूसरे स्तर पर भागीदारी करते तमाम चरित्र अपनी-अपनी निजता खोकर लेखक की ही लाउड थिंकिंग का प्रतीक बन जाते हैं. प्रियंवद ने उपन्यास में एक और प्रयोग किया है. आदि-मध्य-अंत से बुने गए कथा-शिल्प के सीधे-सरल परंपरागत फॉर्मेट से परहेज करते हुए उपन्यास को अधिक जटिल एवं रहस्यात्मक बनाने की कोशिश में वह कविता और नाटक के औजारों का भरपूर इस्तेमाल करते हैं. कविता से बिंब, रूपक, प्रतीक, लय और नाद-सौंदर्य को लेते हैं, तो नाटक से कुछ तकनीकी कुशलताएँ, जो एक ओर मंच-सज्जा की भौतिक जरूरतों पर टिकी हैं तो दूसरी ओर प्रकाश एवं छाया, ध्वनि और मौन के बेहतरीन संयोजन के जरिए कथा की संश्लिष्टताओं और चरित्रों के अंतर्द्वंद्व को उभारती हैं. स्वायत्तता और पारस्परिकता उनके कथा-शिल्प की खूबी बन जाते हैं. तब चित्र-मूर्तियाँ-इमारतें रंगोपकरणों के रूप में जुटाई गई ‘सामग्री‘ भर नहीं रहते, बल्कि रूपक, बिंब और प्रतीक की आंतरिक लय में गुंथ कर विराट सांस्कृतिक-यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव बन जाते हैं.
लेखक जानते हैं, विधाओं के घालमेल का यह निरंकुश खेल औसत पाठक की ‘अभ्यस्त‘ स्वाद-ग्रंथियों को चोटिल करेगा. लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं. वह दत्तचित्त भाव से कथा के मुख्य घटनास्थल को चुन-चुन कर जुटाई गई प्राचीन नायाब कलाकृतियों का संग्रहालय बना देते हैं, और फिर उन सब के बीच मरणासन्न अधिनायकवादी शासक को प्रस्थापित कर देते हैं. कमरे में सघन मौन है, लेकिन एक-दूसरे की संगति में निष्प्राण पड़ी कलाकृतियों के अंतस् में सदियों की दबी-घुटी आवाजों का कोलाहल है. लिहाजा लेखक अर्थव्यंजक डिटेलिंग के साथ उन कलाकृतियों के गर्भ में कूट बीज (कोड) डालता चलता है और अपेक्षा करता है कि चटोर पाठक की केंचुली उतार कर पाठक ऊर्ध्व चेतना संपन्न लोकतांत्रिक सहृदय नागरिक का चोला पहन ले, और अपनी स्मृति, स्वाध्याय, थिसॉरस (जिसके नवीनतम संस्करण को हम गूगल सर्च के नाम से जानते हैं) और स्वप्नदर्शिता के जरिए राजनीतिक कुचक्रों की कितनी ही ऐतिहासिक यात्राओं से गुजरता चले. इस मायने में यह उपन्यास निर्विवाद रूप से हिंदी का ‘द विंची कोड‘ कहा जा सकता है!
मैं धैर्यपूर्वक इस जटिल संकेत-संजाल (कोड श्रृंखला) को डिकोड करने की कोशिश में दो चीजों को एक साथ घटित होते हुए देखती हूँ. एक, प्रत्येक कलाकृति इतिहास की विशाल कब्रगाह में सोई किसी नामी-गिरामी शख्सियत का रूप लेकर जीवंत हो उठी है और अपने समय की तमाम वैचारिक-राजनीतिक टकराहटों के बीच किसी एक मनोवृत्ति, विचारधारा या संस्कृति की पैरोकार बन जाती है. दूसरे, इन सबका संयोजन इस प्रकार हुआ है कि लोकतंत्र, नास्तिकतावाद और मनुष्य-अस्मिता के प्रति लेखकीय आस्था को समय के दबावकारी प्रभाव की तरह ग्रहण किया जा सके. मंच सज्जा हेतु समर्पित कथा का यह प्रारंभिक भाग खासा जटिल है. मैं चार प्रतीकात्मक कलाकृतियों/ संकेतों/ स्थलों के जरिए उपन्यास को दिशा देती राजनीतिक चेतना को समझने का प्रयास करूँगी. सबसे पहले देखती हूँ, कमरे में हिंसा, आतंक, युद्ध और विजय-अभियानों का महिमामंडन करने वाली मूर्तियों-चित्रों की भरमार है.
इन सबके बीच एक चित्र बाथ-टब में बैठकर कुछ लिख-पढ़ रहे व्यक्ति का भी है जिसकी हत्या कर दी गई है. हत्या-स्थल पर लिखने का एक स्टूल है जिसके कोने में दो नाम अंकित हैं – ए. मारात और डेविड. ए. मारात (1743-1793) यानी फ्रांसीसी क्रांति के समर्थक और रेडिकल विचारक; और जैक लुई डेविड यानी मारात के क्रांतिकारी दल के सदस्य और सुप्रसिद्ध चित्रकार. तब समूचा परिदृश्य राजतंत्र बनाम लोकतंत्र, युद्ध और लिप्सा बनाम शांति एवं सह-अस्तित्व का आलोचनात्मक पाठ प्रस्तुत करने लगता है. कला जगत् में इस चित्र को माइकल एँजेलो द्वारा बनाई गई मूर्ति ‘अवर लेडी ऑफ़ पायटी‘ (हमारी पवित्र माँ मरियम) की समकक्षता में रखा गया है जहाँ६ सूली पर चढ़ा दी गई ईसा की मृत देह को गोद में लेकर मरियम माँ के हाहाकार और ईसा की करुणा को आत्मसात कर एक नए युग के सूत्रपात की घोषणा कर रही हैं. फ्रांसीसी क्रांति का सीधा संबंध समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की अवधारणा को पुष्ट करना है, लेकिन इस चित्र के साथ ईसा की युगांतरकारी भूमिका को जोड़ लेने पर यह प्रतीक रूप में हर तरह की व्यवस्थागत-नीतिगत बर्बरता (चाहे वह कैथोलिक चर्च का हस्तक्षेप ही क्यों न हो) के प्रतिरोध की आवाज़ बन जाता है.
ठीक इसी तरह कस्बे के मुख्य द्वार पर लगी बेडौल फकीर की मूर्ति और सराय के निकट लगी भिखारी बुढ़िया की मूर्ति भी अपने प्रतीकार्थ में गहरी दार्शनिक अभिव्यक्तियाँ लिए हुए हैं. ये दोनों मूर्तियाँ भौतिकतावादी आग्रहों एवं दबावों का निषेध करते हुए अपरिग्रह और बेफिक्री को अपना मूल्य बनती हैं; और पहली नजर में लाफिंग बुद्धा और चार्वाक-दर्शन को अभिव्याँजित करती हैं. लेकिन वस्तुतः ये दोनों मूर्तियााँ तीसरी-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व की उस ग्रीक संस्कृति को प्रत्यक्ष करती हैं जहाँब राजशाही, कुलीनतंत्र (ऑलिगैर्की) और गणतंत्र की तमाम बौद्धिक बहसों के बावजूद जीवन और काल दोनों जगह आम आदमी की दृश्यात्मकता (विजिबिलिटी) न के बराबर थी. इसलिए यहाँब बेडौल फकीर को मूर्ति के मार्फत जिस प्रकार गढ़ा गया है, वह कोई काल्पनिक व्यक्ति न रह कर प्लेटो के समकालीन दार्शनिक डायोजीनीज़ (Diogenese) का स्मरण कराता है. डायोजीनीज़ बेखौफ निडरता, वैचारिक प्रखरता और बोहेमियन प्रवृत्ति का प्रतीक है जो सुकरात का शिष्य न होते हुए भी सच्चाई को समग्रता में देखने का आग्रही है. वह प्लेटो का धुर विलोम है. प्लेटो जो पिछली कई पीढ़ियों से राजवंशी है, और इस कारण उसकी दृष्टि और व्यक्तित्व में अभिजात वर्ग-चरित्र समाया हुआ है.
इसलिए उसकी तमाम बौद्धिकता मनुष्य, जगत और जीवन की बात करते हुए भी विडंबनामूलक यथार्थ स्थितियों और मानवीय सरोकारों की सूक्ष्मतम परतों को नहीं पकड़ पाती.इसके विपरीत डायोजीनीज़ ने गलियों में भटक कर, घर और वस्त्र जैसी आधारभूत जरूरतों का परित्याग कर जीवन को उसकी रुंधी दरारों में धड़कते हुए देखा है. वह प्लेटो की तरह आइडिया और आदर्श की बात नहीं करता. भौतिक जगत को उसकी वास्तविकता में स्वीकार करते हुए उसके विघटन और संवर्धन के लिए मनुष्य, तंत्र और व्यवस्था को भी उत्तरदायी मानता है. अपनी इसी रेडिकल सोच के कारण वह सत्ता और सिंहासन से सदैव टकराने की मुद्रा में रहता है. इसी वजह से सिकंदर को यह कहकर लौटने में भी नहीं हिचकता कि ‘इस समय मैं धूप सेंक रहा हूँ और तुम सूर्य और मेरे बीच व्यवधान की तरह उपस्थित हो. तुम यहाँ से हट जाओ!‘ एकमात्र डायोजीनीज़ ही अकादमिक जगत में प्लेटो की निर्विवाद सर्वोच्चता को प्रश्नांकित करता रहा है.
प्याले को आइडिया (ईश्वरकृत रचना) की अनुकृति कह उसे सत्य से दोगुना दूर मानने वाले प्लेटो को वह यह प्रश्न पूछ कर निरुत्तर कर देता है कि ‘ठीक! प्याला अनुकृति है. लेकिन इस खाली प्याले में जो ‘खालीपन‘ है, वह किसकी अनुकृति है?‘ इसलिए आश्चर्य नहीं कि उपन्यास का बेडौल फकीर महानताओं के पीछे छिपी हुई सच्चाइयों को देखने की बात करता है. वह व्यक्तिगत आजादी/स्वायत्तता को महत्वपूर्ण मानता है, लेकिन अपने से इतर अन्य मनुष्य-अस्मिताओं को भी उतना ही महत्वपूर्ण, विशिष्ट और सम्माननीय होने का प्रबोधन भी देता है ताकि सह-अस्तित्व एवं बहुलतावादी दर्शन कोरे मूल्य न रहकर व्यक्ति की जीवन-शैली, जीवन-दृष्टि और क्रिया-व्यवहार बन सकें. साथ ही वह तमाम राजसत्ताओं की नृशंसताओं से टकराने का फौलादी हौसला भी मनुष्य और चेतन को देता है ताकि वह पीढ़ी दर पीढ़ी इस ज्ञान को हस्तांतरित कर आततायियों से समय की रक्षा करना सीख जाए कि –
“राजमुकुट सर बदलते रहते हैं पर उसके लिए जरूरी गुण और विवेक नहीं. कई मुकुट बंजर भूमि के टीले जैसे सरों पर सज जाते हैं.”
तीसरा महत्वपूर्ण संकेत किले और बस्ती की ऑपोजिट बाइनरी में प्रकट हुआ है. पहाड़ी पर बना खंडहरनुमा किला निरंतर क्षरित हो रहा है. वहाँ सीलन भरे अंधेरे में घायल काल, इतिहास और अतीत के नाचते प्रेत घुटनभरा माहौल पैदा कर रहे हैं. वहाँ न मनुष्य है, न जीवन का कलरव. सिर्फ कबूतरों की फड़फड़ाहटें हैं और तहखानों की गिरफ्त से छूटकर पूरे किले के सन्नाटे में सरसराती कराहें और सीत्कारें हैं. इसके विपरीत पहाड़ी की तलहटी में बसी बस्ती में जीवन की तमाम रौनकें हैं. चिमनी से उठता धुंआ, चूल्हे में जलती आग, रोटी की महक से गमकती रसोई, बच्चों की किलकारियाँज, पसीना, बीमारियाँ और मौत – बस्ती किले की तरह चारदीवारी में बंध कर रहस्यमय जीवन नहीं जीती. वह खुले आसमान के नीचे सुख-दुख के बावजूद उलझी गलियों जैसे जटिलतर जीवन को जीते हुए हमेशा गुलजार बनी रहती है. किले के गरुर को थामने वाले तख्त और ताज मिट्टी में मिल जाते हैं, लेकिन मिट्टी में मिला दिए जाने की शाही कोशिशों के बावजूद बस्तियाँ अपने वजूद को अटल सत्य की तरह बनाए रखती हैं, और समय की धारा को मोड देने वाले जननायकों का प्रसव करती चलती हैं. किले के भीतर सांस लेता इतिहास हमेशा मुझे संवाद के लिए आमंत्रित करता है और फिर कितने ही ऊबड़-खाबड़ कालखंडों को वैचारिक अन्विति के सूत्र में पिरोते हुए फेंटेसी लोक की यात्रा पर ले चलता है. तब उपन्यास का यह किला रूप बदलकर कभी आगरा का लाल किला बन जाता है और मैं बंदी शहंशाह शाहजहाँ को तमाम अभूतपूर्व वैभव के बावजूद आजादी और सुकून के एक कतरे तक के लिए कातर देखती हूँ. कभी यह किला रोम का इतिहास-प्रसिद्ध कोलोसियम बन जाता है.
ठीक यहीं इस निष्कर्ष पर भी पहुंचती हूँ कि घोड़े पर चढ़कर तलवार भांजती लिप्साओं के सहारे साम्राज्य जरूर खड़े किए जा सकते हैं, लेकिन सर पर कफन बांधकर निकाला निहत्था जुनून आजादी, मानवाधिकार और अस्मिता-संघर्ष का कभी न रुकने वाला परचम बन जाता है. एक तीसरा बिंब भी कौंधता है. वह है महीनों आग की लपटों में झुलसता नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय. यह बिंब अमेरिकी उपन्यासकार रे ब्रैडबरी के डिस्टोपियन उपन्यास ‘ फॉरेनहाइट 451’ की याद दिला कर अधिनायकवादी सत्ता के चरित्र की एक और विशेषता को रेखांकित करता है कि ज्ञान, आलोचनात्मक विवेक और चिंतक-नागरिक से हर देश-काल की सत्ता भयभीत है; कि हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन की तरह भय ही उन्हें दुर्दांत बनाकर उनके साम्राज्य, व्यक्तित्व और विचार की बुनियाद खोखली करता चलता है. इसीलिए बेडौल फकीर डायोजीनीज़ और सुकरात जैसे विद्रोही दार्शनिक हमेशा राज्य की सीमाओं से निष्कासित कर दिए जाते हैं या मार दिए जाते हैं. लेकिन फिर भी विचार और प्रेरणा बनकर समय और समाज के बीच सदियों की उम्र प्रकार जीते चलते हैं. इसके विपरीत अमरता की तलाश में बेचैन निरंकुश शहंशाह अपनी कब्र तक में जीवन के तमाम ऐश्वर्य और उपभोग सामग्री इकट्ठा कर मृत्यु-पार जीवन को उसी दंभ से जीने का झूठ पालने लगते हैं. मिस्र के पिरामिडों की ममीज़ इन अधिनायकवादियों की अनंत लिप्साओं का उदाहरण ही तो हैं.
उपन्यास के प्रारंभिक भाग (जिसे मैं मंच-सज्जा कहना अधिक पसंद करूँगी) का यह अंतिम दृश्य है, जहाँब लेखक ने प्रकाश को मरणासन्न राजा पर केंद्रित करने की बजाय उसके ताबूत में रखी जाने वाली तमाम अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त दो वस्तुओं पर केंद्रित किया है, वे हैं – चीते के अंडकोष से बनी कामोत्तेजना बढ़ाने की दवा और सात सौ साल पहले देवताओं को खुश करने के लिए बलि दिए गए मनुष्य की तीसरी दाईं पसली का चूरा.यानी भय और भोग के लिए धर्म का इस्तेमाल.
इस पृष्ठभूमि में लेखक जिस समाज की कल्पना करते हैं, उसके पास जातीय स्मृतियों का समृद्ध इतिहास है; आनुवांशिक अनुभवों को सहेजने की प्रक्रिया में पनपी एक खास तरह की मनोवैज्ञानिक संरचना है; और एक सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा है जिसे मिथकीय कथाओं, धार्मिक मान्यताओं और सुस्पष्ट जीवन-शैली ने रचा है. चूँकि उपन्यास का लोकेल भारत न होकर पश्चिमी सभ्यता का कोई कोना है, इसलिए यहाँ भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं है. जिस समय को यहाँ कल्पित किया गया है, वह फ्रांसीसी क्रांति के बाद का, और एडीसन द्वारा बल्ब के पुनराविष्कार से पूर्व का समय है यानी उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों के बीच का कोई कालखंड.
प्रियंवद का समूचा शिल्प-कौशल वस्तु को बिंब, प्रतीक, संकेत बनाकर कथा को रूपक (मेटाफर) का विधान देने में है जहाँब आतंक बनाम प्रतिरोध, सत्ता बनाम व्यक्ति, ईश्वर बनाम मनुष्य की ऑपोजिट बाइनरी के जरिए हाशिए पर धकेल दी गई आवाजों और अस्मिताओं को केंद्र में लाया जाता है. इस क्रम में लोकतंत्र की हिफाजत जितना ही महत्वपूर्ण हो जाता है लोकतंत्र की हत्यारी ताकतों की शिनाख्त करने का विवेक, जो बहुसंख्यकवाद की केंद्रीय निरंकुशता को प्रतिष्ठित करने की कोशिश में भावुकता और प्रतिशोध-केंद्रित फासीवाद में विघटित हो जाती है. लेखक ने प्रत्यक्षतया इन विविध राजनीतिक शासन-व्यवस्थाओं का विश्लेषण नहीं किया है, लेकिन इनकी नीतियाँ और नियम-कानून दबावकारी प्रभाव बनकर जिस प्रकार समाज-संस्थाओं और आचार-संहिताओं को रचते हैं; और संस्कृति का रूप लेकर मनुष्य की रोजमर्रा की जीवन-शैली में घुल-मिल जाते हैं, उसे ही दर्शन का आभास देती तत्व-चिंतनपरक बहसों में प्रकट किया है.
सबसे पहले वह एक-दूसरे में गुड़ी-मुड़ी पड़ी भय और घृणा की ग्रंथियों की तहकीकात करते हैं. प्रत्यक्षतया वह इस भय-ग्रंथि को मृत्यु-भय के रूप में चीन्हते हैं और फिर अपनी-अपनी भय-ग्रंथियों को टटोलने के क्रम में तुर्गनेव, ज़ोला, डुडेट और गॉनकॉर्ट की अंतरंग बातचीत की नियोजना कर आत्मपरकता को वस्तुपरकता की नि:संगता में ढाल देते हैं. रूपांतरण की यह प्रक्रिया इतनी दिलचस्प और अर्थव्यंजक है कि बृहत्तर स्तर पर मृत्यु की भय-ग्रंथि शिकार का हिंसक आनंद बन जाती है जहाँ ‘टारगेट‘ यानी जानवर (?) को मार दिए जाने की वैधानिक स्वीकृति शिकारी को हत्या या पाप-पुण्य जैसी नैतिकताओं से मुक्त करती है. चूँकि दर्शन अभिधात्मक अभिव्यक्तियों का स्थल न होकर सांकेतिकता की अर्थव्यंजक श्रृंखला होता है, अतः ‘राज्य‘, ‘शत्रु‘, ‘सुरक्षा‘ और ‘प्रजा‘ जैसी अवधारणाओं की संरचनाओं के जरिए इस हिंसक आनंद का स्थित्यानुसार युद्धोन्माद (मॉब लिंचिंग भी) में उदात्तीकरण कर दिया जाता है. उपन्यास का कुलीन राजवंशी शासक/प्रशासक इतना ताकतवर है कि दो सौ ताबूतों को अपने शयन-कक्ष में रखकर भीषण नरसंहार को अंजाम देने में भी नहीं हिचकता. भय दरअसल हिंसा को पकाता है, और बदले में अपने ही अस्तित्व को असुरक्षित करते हुए समूहवाद की खोखली सांप्रदायिक शरणस्थली की तलाश करता है.
“घृणा के ऊपर डर अक्सर घाव पर पपड़ी की तरह जमा रहता है. ज्यादातर लोग पपड़ी को नोचने की हिम्मत नहीं करते.” प्रियंवद के इस बयान में सवाल भी छुपा है और दूसरे किस्सागो का लबादा ओढ़ कर वह स्वयं जवाब को तलाश लाते हैं कि
“किसी भी आतंक और भय की जड़ें हमेशा मोटी सतहों के नीचे, किसी युग की संस्कृति, किसी धर्म, किसी राज्य, किसी जीवन-शैली में होती हैं . सदियों से आत्माओं के बंद तहखानों में होती हैब. तर्क और चेतना के संपूर्ण विनाश में होती हैं .”
दरअसल यह जवाब नहीं, सभ्यता-समीक्षा की कुंजी है जो सामाजिक-न्याय और मनुष्य की प्रतिष्ठा के लिए तमाम अवरोधों को पार कर लेना चाहती है. वह पाते हैं कि सत्ता को अभियुक्त के कटघरे में खड़ा करके स्वयं को दोषमुक्त करना किसी भी मनुष्य/समुदाय के लिए बेहद सरल है. बेशक सत्ता की कार्यशैली भय और प्रलेभन के पायों पर टिकी हुई है जहाँ एक हाथ में चाकू और दूसरे हाथ में रोटी लेकर वह जनता को भेड़ की तरह हाँकती चलती है; और जनता उनकी व्यवस्था द्वारा पैदा की गई भूख और डर से कांप कर जीवन की याचना में अपने वजूद को और भी बौना एवं विकृत कर लेती है. नियतिवाद, कर्मफल और ईश्वर – यदि जनता की इसी हताशा का परिणाम हैं तो क्या तिलचट्टे की तरह जीता प्राणि-समूह मनुष्य कहलाने का अधिकारी है? सत्ता के मद की तरह क्या जनता की दयनीयता को भी महिमामंडित किया जाना चाहिए? क्या घुटनों पर रेंगती दयनीयता मानसिक रुग्णता का पर्याय नहीं जो अंततः मृत्यु का रूपक ही रचती है? तो क्या रुग्णता को परिचय बना कर किसी भी देश-काल का मनुष्य-समाज गर्वोन्नत भाव से जीवित रह सकता है?
प्रियंवद इन सवालों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत पर बल देते हैं. चूँकि उनके लिए कथा-चरित्र या कथानाक महत्वपूर्ण नहीं, सवालों की नुकीली कोंच ज्यादा जरूरी है, इसलिए वह किस्सों के जरिए भिन्न-भिन्न दृष्टियों का समाहार करते हुए आदर्श-राज्य और आदर्श-मनुष्य की तलाश जारी रखते हैं. यह तय है कि तर्क और चेतना के संपूर्ण विनाश के लिए धर्म सत्ता के हाथ का सबसे असरदार हथियार है. आम आदमी इस बात को जानता है, लेकिन फिर भी अपनी कातरता में घिरकर ईश्वर की प्रतिमा गढ़ता है, पूजता है और नष्ट कर देता है. दैन्य और समर्पण, आस्था और अनास्था, संशय और संकल्प का यह अंतहीन सिलसिला बहुदेववाद, अवतारवाद, नास्तिकवाद के कितने ही सिलसिले पार कर अक्षत बना रहता है. वेटिकन सिटी की अ-चुनौतीपूर्ण सत्ता हो या मक्का-मदीना की; सनातन धर्म की रूढ़िवादिता हो या अपनी-अपनी नस्ल का श्रेष्ठता-दंभ – सत्ता के अनुकरण पर मनुष्य स्वयं अपने चारों ओर गहरी खाइयाँ खोदता चलता है. प्रियंवद उपन्यास में नितंब-पूजा के जुगुप्सापूर्ण दृश्य को जिस नि:संग तन्मयता के साथ चित्रित करते हैं, वह जंगल में शिकार हेतु मचान बनाकर हाँका लगाने की उत्तेजना की याद दिलाता है.
इस दृश्य में सबसे पहले धर्मगुरु एवं धर्म-गायकों द्वारा मृदंग-झाल बजाकर भीड़ के अंतस्थल में सोए उन्माद को जगाया जाता है. नियंत्रणकारी संस्थाएँ जानती हैं, भावनाएँ (तामसी वृत्तियाँ ) जिस सघनता से उत्तेजित की जाएँगी, उसी वेग से चेतना और विवेक को हर कर वे मनुष्य को आपाद्कंठ दलदल में धंसा ‘शिकार‘ बना देंगी. सत्ता चूँकि संवाद नहीं करती, फरमान जारी करती है, इसलिए उसे बुद्धिजीवी नहीं, फरमाबदार कठपुतलियाँ चाहिए. प्रत्येक स्खलन पर मनुष्य से प्रायश्चित, आत्मघृणा या आत्म-दया की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. जरूरत है धर्म के स्वरूप को पुनर्परिभाषित करने की कि जिस ईश्वर को मनुष्य ने स्वयं गढ़ा है, वह अधिक ताकतवर होकर कैसे उसकी सत्ता को नष्ट कर सकता है? कि ईश्वर और कर्मकांडी धर्म का दखल उसकी जिंदगी में कितना होना चाहिए? वह सार्वजनिक प्रदर्शन का आडंबर या राजनीतिक हथियार बने या किसी निजी एकाकी आस्था का गोपन मामला?
“ईश्वर की ताकत, प्रभाव, उसका इलाका कम कर दो. वह इतना ही रह जाएगा, जितना हम इंसानों का होता है. हम सब अपने ईश्वर के साथ अपने बंद कमरे में जिएँ. उसके साथ जो जैसा चाहे व्यवहार करें. जैसा चाहे रहें, जैसे हम अपनी बीवियों के साथ रहते हैं.”
प्रियंवद एक विकल्प देते हैं, और मैं सुकरात के पब्लिक ट्रायल पर केंद्रित प्लेटो की रचना ‘द एपॉलिजी‘ का स्मरण करती हूँ . अपनी इन्हीं कन्विक्शंस के साथ तो जीना चाहते थे सुकरात – स्वायत्त स्वतंत्र बुद्धिजीवी अस्मिता की तरह. जानते थे, धर्म किसी देवता, किसी सिंबल, किसी पशु के रूप में विस्फोटक बम बनकर संस्कृतियाँ नेस्तनाबूद कर सकता है. इसलिए विवेक और संवेदना को संभाल कर रखे बिना व्यक्ति के ‘मनुष्य‘ होने की लड़ाई नहीं लड़ सकता.
और अंत में
आलोच्य कृतियों का विश्लेषण करने के उपरांत कुछ तथ्य स्पष्ट उभर कर आते हैं.
एक, साहित्य और दर्शन का प्रमुख सरोकार ज्ञान, सत्य, सत्ता और मनुष्य की बुनियादी अवधारणा को उनके अंतर्संबंधों के साथ जानना और सुरक्षित रखना है.
दूसरे, सभ्यता के विकास-क्रम में राजनीतिक सत्ता ने पाया कि एक-दूसरे की पारस्परिकता में विकसित होकर ‘ज्ञान’ और ‘मनुष्य’ की अखंड सत्ता ‘पराशक्ति’ का रूप ले लेती है. लिहाज़ा अपने वर्चस्व के लिए राजनीति-पूंजी-धर्म तीनों सत्ताएँ गठबंधन कर लेती हैं. फलतः ‘वर्चस्व बनाम अस्मिता’ का संघर्ष चक्रिल गति से घूमती मनुष्य की सांस्कृतिक विकास-यात्रा का हासिल बन जाता है.
तीसरे, वर्तमान से सम्बद्ध होते हुए भी राजनीतिक व्यवस्था की जड़ें अतीत और सहयोगी सत्ताओं-संस्थाओं के चरित्र से जुड़ी हैं. फलतः इतिहास-चेतना के बिना राजनीतिक-चिंतन को राजनीति-दर्शन में नहीं ढाला जा सकता.
चौथे, डेमोक्रेसी के प्रति प्लेटो की आशंकाओं से सहमत होते हुए भी तीनों उपन्यासकार लोकतंत्र में ही मनुष्य की मुक्ति देखते हैं. प्लेटों ने डेमोक्रेसी के गर्भ से जिस डेमागॉग के पनपने की बात की थी, उसे अपने समय में ऑरवेल भलीभाँति देख चुके थे; और कमलेश्वर की आशंकाओं के अनुरूप प्रियंवद देख रहे हैं. फिर भी डेमागॉग से मुक़ाबला करने के लिए वे मनुष्य को ही चुनते हैं.
पाँचवे, हालाँकि रचनाकारों ने इस तथ्य को तो रेखांकित किया है कि प्रोपेगेंडा, झूठे आश्वासन और दमन-तंत्र के सहारे सत्ता ज्ञान/सत्य के तमाम स्रोतों को अवरुद्ध कर मनुष्य को अज्ञानी और विभाजित करती है, लेकिन डिह्यूमन कर दिये गये मनुष्य के पुनर्संस्कार और पुनरुत्थान के लिए किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया को प्रस्तावित नहीं कर पाते. संभवतया यह काम दार्शनिक का है जो कुहासों को चीरकर किसी अदृश्य लिपि को पढ़ने/लिखने की अंतर्दृष्टि से संपन्न होते हैं. लेकिन टायरैनी (निरंकुशतावाद) या थियोक्रेसी के आसन्न खतरों से आगाह करते रहने का काम संवेदनशील बुद्धिजीवी का ही है. नहीं भूलना चाहिए कि सदियों तक तिब्बत की 95 प्रतिशत आबादी को ‘सर्फ’ और ग़ुलाम बनाकर रखने का अपराधी कोई और नहीं, सामंती धर्मतंत्र ही था.
छठे, भारतीय साहित्य-दृष्टि यूरोपीय साहित्य की तरह निराशावादी नहीं है. इस कारण भारतीय साहित्य-परंपरा में त्रासदी और डिस्टोपियन रचनाएँ बहुत कम मिलती हैं. प्लेटो और ऑरवेल के विपरीत कमलेश्वर एवं प्रियंवद का आशावाद भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है; किन्तु इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यह आशावाद पाश्चात्य दार्शनिकों-चिन्तकों की तरह प्रखर वैचारिक सन्नद्धता और वैज्ञानिक दृष्टि के साथ समकाल को जर्जर करती सांस्कृतिक-राजनीतिक रुग्णताओं की तह तक नहीं पहुँच पाता. क्या इसके पीछे आत्ममुग्धता, अनाम भय या गहरी संलग्नता का अभाव है जिस कारण हम ‘देशभक्त’ और ‘देशद्रोही’ कोटियों में आसानी से विभाजित कर दिए जाते हैं; बस नागरिक (लोकतंत्र का सजग प्रहरी) ही नहीं बन पाते.
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रोहिणी अग्रवाल![]() आलोचना पुस्तकें : हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला, एक नज़र कृष्णा सोबती पर, इतिवृत्त की संरचना और स्वरूप, समकालीन कथा साहित्य: सरहदें और सरोकार, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, साहित्य की ज़मीन और स्त्री मन के उच्छवास, हिंदी कहानी: वक़्त की शिनाख्त और सृजन का राग, हिंदी उपन्यास का स्त्री पाठ, साहित्य का स्त्री स्वर, हिंदी उपन्यास: समय से संवाद, कथालोचना के प्रतिमान, कहानी का स्त्री- समय. आदि कहानी संग्रह : घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ सम्मान एवं पुरस्कार : हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पर तीन बार, स्पंदन आलोचना सम्मान, वनमाली कथा आलोचना सम्मान, रेवांत मुक्तिबोध सम्मान, डॉक्टर शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान, डॉक्टर रामविलास शर्मा स्मृति सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, श्रेष्ठ महिला सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी rohini1959@gmail.com |
सत्ता से एक नियत दूरी बनाकर किस तरह साहित्य का काम किया जा सकता है , रोहिणी मैम इसका ज्वलंत उदाहरण हैं . एम. ए. के दिनों से ही उनकी आलोचकीय दृष्टि की मैं कायल रही हूं और बहुत कुछ सीखी भी हूं , खासकर ’स्त्री आलोचना’ के क्षेत्र में . इतिहास और राजनीति पर पांडेय सर की दृष्टि के बाद इनको पढ़ना सुखद है . हम जैसे दूर दराज में बैठे प्राध्यापक को बल मिलता है.
साथ ही अरुण सर आपको भी धन्यवाद कि आप समालोचन को लगातार समृद्ध कर रहे हैं .🙏
दरअसल इस प्रस्तुति में तीन चार निबंध छिपे बैठे हैं.
डॉ. फॉस्टस पर ही शुरुआत का फोकस होने से उम्मीद होती है कि यहीं प्रसंग लम्बा चलेगा.
दिलचस्प तो बहुत है लेकिन बहुत कुछ समेटने में थोड़ा बिखराव महसूस होता है…
संयोग की बात है कि कथा साहित्य को समझने और भाषा संरद्धि के लिए आजकल रोहिणी मैडम को फिर से पढ़ रहा हूँ। आज दिन की व्यस्तता के कारण समालोचन को देर से देखा। मैडम के लेखन और उनकी दृष्टि का तो हमेशा मुरीद रहा हूँ। आज के आलेख में आपने बहुत कुछ समेटने का प्रयास किया है। ये सब तीन आलेखों का विषय है।
बहुत अच्छा लगा । सरल भाषा में न्याय और उसके थीसिस और antithesis को समझा।
बहुत आभार महेश जी
यह शायद पहली बार देख रहा हूं कि एक बहुत महत्त्वपूर्ण लेख अपनी सामग्री, विचार की जटिल परतों, वैचारिक श्रेणियों के गझिन विवरणों और संकल्पना की व्यापकता के कारण ‘भारी’ हो गया है। क़ायदे में इसे क़िस्त वार दिया जाना चाहिए था— तब इसका फ़ोकस सधा रहता।
फ़िलहाल यह एक ऐसी लंबी यात्रा बन गया है जिसमें असबाब भी ज़्यादा है और एक रास्ते से बहुत-से छोटे-छोटे रास्ते निकलते प्रतीत हो रहे हैं।
निस्संदेह यह बहुत महत्त्वाकांक्षी है — न्याय की चेतना, शक्ति की संरचना, राजनीति के हर नये पुनर्गठन में नियंत्रण और दमन की पिछली निरंतरता को बचा लेने की व्यूह-रचना का यह ऐतिहासिक-साहित्यिक विवेचन ग़ौर से पढ़े जाने की मांग करता है, लेकिन इसकी प्रस्तुति और अतिशय विस्तार बार-बार इसके महत्त्व के आड़े आ रहा है।
पुनश्च : प्रस्तुत लेख के वैचारिक सूत्रों और उनमें विस्तार -विवेचन की संभावना को देखते हुए मुझे लगता है कि रोहिणी जी को इस पर एक स्वतंत्र मोनोग्राफ़ जैसा कुछ लाना चाहिए। असल में, किताब को हाथ में थामते हुए हमारी एक अलग मानसिक तैयारी होती है। अब इस पर पुनर्विचार करते हुए महसूस हुआ हो रहा है कि यह लेख इसलिए भारी लगा था क्योंकि इसमें एक किताब का विस्तार छुपा हुआ है।
आपने इतनी गहनता और आत्मीयता से आलेख पढ़ा, शुक्रिया नरेश जी ।
आपके सुझाव से सहमत हूं।
दरअसल लिखने के दौरान लेख के फार्मेट में अपने विचार-प्रवाह को सिकोड़ने और ढेर सी प्रति-गूंजों को अनसुना करने की प्रक्रिया भी परिपार्श्व में चलती रही।
काम तो श्रमसाध्य है, लेकिन शायद विश्व-राजनीति के बन रहे मौजूदा स्वरूप को समझने के लिए जरूरी भी है जो दक्षिणपंथी रुझान और इतिहास की मनचाही व्याख्या के जरिए समय और विवेक को तहस-नहस कर रही है ।
ऐसे सूक्ष्म, गहन आलेख दर्शन, साहित्य, समाज पर कम ही पढ़ने को मिलते हैं, निसंदेह यह आलेख पाठक को रूपांतरित कर देता है, इसको पुस्तक रूप में आना चाहिए। प्रो. रोहिणी अग्रवाल जी का बहुत बहुत आभार।