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Home » रुस्तम की कविताएँ

रुस्तम की कविताएँ

कृति : Gigi Scaria कविता में कवि जब खुद की ओर मुडता है तब वह अस्तित्वगत प्रश्नों  की तरफ भी जाता है. आख़िरकार इस विश्व में वह क्यों कर है और है तो इस तरह क्यों है ? जैसी विराट व्याकुलताएं उसे सृजनात्मक रचाव  की तरफ ले जाती हैं. हिंदी में आत्म के कवि कम […]

by arun dev
September 16, 2017
in कविता
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कृति : Gigi Scaria

कविता में कवि जब खुद की ओर मुडता है तब वह अस्तित्वगत प्रश्नों  की तरफ भी जाता है. आख़िरकार इस विश्व में वह क्यों कर है और है तो इस तरह क्यों है ? जैसी विराट व्याकुलताएं उसे सृजनात्मक रचाव  की तरफ ले जाती हैं.

हिंदी में आत्म के कवि कम हैं. इस आत्म के भी कई पक्ष हैं. कुछ कवि जहाँ इसे उदात्तता प्रदान करते हैं वहीं कुछ कवि आत्म के तलघर में निवास करते हैं.  रुस्तम आत्म के तलघर के दुर्लभ कवि हैं. उनके सृजन वृत्त में लगभग निर्थक होती जिंदगी की रूटीन की ऊब है. स्मृति पर वर्तमान का इतना दबाव है कि  स्मृतिहीनता को वह एक उपचार की तरह देखते हैं. अंत से उम्मीद की कामना में कवि अपने बिखरने, टूटने, विस्मृत कर दिए जाने को लिखता चलता है.

रुस्तम की बारह कविताएँ  ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए.

रुस्तम की कविताएँ                    

 


आज फिर उठना है

आज फिर उठना है.

आज फिर हगना है.

आज फिर नहाना है.

आज फिर काम पर जाना है.

आज फिर किसी से मिलना है, किसी से बोलना है, किसी को सुनना है.

आज फिर किसी को देखना है, किसी द्वारा देखा जाना है.

किसी को गाली देना है, किसी से गाली खाना है.

आज फिर कई बार पानी पीना है, कई बार मूतना है,

कुछ खरीदना है, कुछ बेचना है.

आज फिर पीटना है, पिट कर आना है.

आज फिर लौटना है.

शायद दुबारा हगना है.

आज फिर सोना है. सोने से पहले फिर मूतना है.





आज मैं कुछ नहीं करुँगा

 

आज मैं कुछ नहीं करुँगा.

उठूँगा, नहाऊँगा,

कुछ खाऊँगा.

थोड़ी देर लेटूँगा,

अखबार को

हाथ भी नहीं लगाऊँगा.

फिर बाज़ार चला जाऊँगा,

लोगों को देखूँगा,

दुकानों में झाँकूँगा,

खरीदूँगा कुछ भी नहीं,

चाय–कॉफी पीऊँगा.

वहीँ कुछ खा लूँगा,

किसी रेस्तरां के बाहर,

किसी पेड़ के नीचे,

सुस्ता लूँगा.

शाम को घर लौटूँगा,

डिनर बनाने तक बस लेटूँगा, बस लेटूँगा.

कुछ सोचूँगा नहीं, कुछ महसूस नहीं करुँगा.

डिनर बनाऊँगा, खाऊँगा, सारा ध्यान उसी पर लगाऊँगा, सिर्फ उसी पर.

एक उद्देश्यहीन दिन बिताकर

सो जाऊँगा.

आज मैं कुछ नहीं करुँगा.

 

उस घर को मैं याद नहीं करुँगा

उस घर को मैं याद नहीं करुँगा.

उस नदी को मैं याद नहीं करुँगा.

उस वन को मैं याद नहीं करुँगा.

उस नगर को मैं भुला दूँगा.

उन सड़कों को मैं याद नहीं करुँगा.

उन गलियों को मैं याद नहीं करुँगा.

कुछ भी याद करके क्या मिलता है ?

क्या ?

अपनी स्मृति को मैं पोंछ दूँगा.

उसे साफ़ कर दूँगा.

मैं सब कुछ भुला दूँगा.

 

प्रतीक्षा करता हूँ

प्रतीक्षा करता हूँ

तुम्हारे जाने की.

प्रतीक्षा करता हूँ

कि तुम

जल्द ही

छोड़ दोगे मेरा पिण्ड.

प्रतीक्षा करता हूँ

कि कल

सूर्य नहीं निकलेगा,

या वह भिड़ जायेगा

किसी अन्य सूर्य से.

प्रतीक्षा करता हूँ

कि जब मैं जागूँगा

तो यहाँ

कुछ भी नहीं होगा

इस सुन्दर जीवन का.

 

पहले धीरे–धीरे टूटता है शरीर

पहले धीरे–धीरे टूटता है शरीर,

फिर टूटती है आत्मा.

या पहले धीरे–धीरे टूटती है आत्मा,

फिर शरीर

टूटता है.

आत्मा

छोड़ नहीं जाती है शरीर को.

उसी के भीतर

बिखर जाती है टुकड़ों में.

उसके बाद

बिखरता है

शरीर.


दर्पण तुम्हें नहीं पुकारता

दर्पण

तुम्हें नहीं पुकारता

न कभी पुकारेगा.

जो आवाज़ तुम सुनते हो

वह तुम्हारे ही

तुच्छ ह्रदय की पुकार है

दर्पण की दिशा में.

एक छिद्र है तुम्हारे ह्रदय में,

एक खाली जगह

जो बढ़ रही है.

बहुत जल्द ही

तुम सुन नहीं पाओगे

अपने ह्रदय की पुकार भी.

 

मृतक नहीं जानते

मृतक नहीं जानते

कि उनके मरने के बाद

यहाँ क्या हुआ.

ना किसी का दुःख,

ना किसी की खुशियाँ;

कौन हँसा,

कौन रोया;

किसने उनको याद रक्खा,

किसने

भुला दिया;

कौन तड़पा कि वे चले गये,

किसे जीवन ने तड़पा दिया —

मृतक नहीं जानते.

तुम्हें भी भूल जाऊँगा

तुम्हें भी भूल जाऊँगा

या नहीं भूल जाऊँगा

जब मैं

अँधेरे में उतरूँगा

या रोशनी में चढूँगा.

वहाँ

अँधेरे और रोशनी में फ़र्क नहीं होगा.

वहाँ

भूलने

और याद रखने का

कोई अर्थ नहीं होगा.

मैं तुम्हारी कमी को महसूस नहीं करूँगा,

न उसे

कमी ही कहूँगा —-

वहाँ

भिन्न होगी भाषा,

वहाँ समझ का स्वरूप कुछ और ही होगा.

वहाँ कोई नहीं पूछेगा —-

बताओ तुम्हें

याद आती है किसी की ?

बताओ कोई

छूट गया है पीछे ?

वहाँ

कोई नहीं पूछेगा.

जब बिखर जाती है आत्मा

जब बिखर जाती है आत्मा,

तो क्या बचा रहता है ?

क्या ?

रुस्तम (सिंह) बिखर चुका है.

वह बिखर गया था

बहुत वर्ष पहले.

उसकी आत्मा के ज़र्रे

अब

अपनी–अपनी

दिशा में बढ़ते हैं.

कृति : Gigi Scaria

 

रात

रात सदा अँधेरी और काली नहीं होती. न यह ही सही है कि लोग केवल रात को ही सोते हैं. बिजली रात को भी कड़कती है, चाँद रात को भी उगता है : उसकी रोशनी में हर शय नहायी हुई लगती है.

कितनी अलग होती हैं, एक–दूसरे से, गावों और शहरों की रातें ! झोपड़ियों और इमारतों की रातें भी, आपस में, बहुत कम ही मेल खाती हैं.

एक ही रात में कोई सारी रात जागता है, कोई घोड़े बेचकर सोता है. कुत्ते गलियों में आवारा भूँकते हैं; उल्लू शिकार पर जाते हैं. तिलचट्टे रात–रात भर भोजन भाँजते हैं; चूहे उसे तलाशते हैं — आप चाहें तो रसोई में उनकी खटर–पटर सुन पाते हैं.

कुछ लोग देर रात गए दफ्तरों से निकलते हैं. कुछ अन्य लोग रात ख़त्म होते ही फैक्ट्रियों में घुसते हैं : निश्चित ही ये बाद वाले लोग झोपड़–पट्टियों से आते हैं.

रईसों के लड़के–लड़कियाँ देर रात तक पबों में नाचते हैं : उनकी रात को रात कहना ठीक नहीं होगा. किसान रात भर खेत को पानी देता है : रात बहुत कम ही उसके अपने हाथ में होती है.

मैं रात को अक्सर दो या तीन बजे तक जागता हूँ. यही वह समय है जब मैं इस जैसे आलेख लिखता हूँ.

घर 

घर क्या है ? क्या वह केवल भावना है ? या वह वास्तव में कोई जगह होती है जो घर होती है, बस घर, जो घर ही होती है, और कुछ नहीं ?

मुझे पता नहीं.

पर मैंने तरह–तरह के घर देखे हैं, यानी वे ढांचे, वे जगहें जिन्हें लोग घर कहते हैं. उनमें से ज़्यादातर दीवारें लिए रहते हैं, उन पर छतें होती हैं. और वे विभिन्न रंगों से पुते होते हैं. इस तरह मैंने श्वेत, नीले, हरे, पीले, और बैंगनी भी घर देखे हैं.

कुछ ऐसे घर भी होते हैं जिनका कोई रंग नहीं होता, पर वे फिर भी कोई रंग लिए रहते हैं.

कुछ घरों की दीवारें नहीं होतीं, न छतें होती हैं; तब भी वे घर ही कहे जाते हैं, शायद वे घर ही होते हैं : वे घर जैसा ही सुकून देते हैं.

और मैंने कहाँ–कहाँ घर नहीं देखे !

अधिकतर घर आपस में जुड़े होते हैं. कुछ अन्य सबसे दूर हटकर अकेले में खड़े रहते हैं. (और जो घरों के बीच में से निकलती है, उसे गली कहते हैं.)

सभी घर मौसम और काल के थपेड़े सहते हैं. कुछ ध्वंस हो जाते हैं, कुछ ढहा दिए जाते हैं. परन्तु कुछ नये और कुछ पुराने घर भी होते हैं. और कुछ ऐसे भी जो बरसों तक खाली पड़े रहते हैं.

पर ये खाली पड़े घर, क्या ये भी किसी का घर होते हैं ?

छतें

छतें भी तरह–तरह की होती हैं. और वे तरह–तरह के काम आती हैं. पर कुछ छतें किसी काम नहीं आतीं. कुछ नीची होती हैं, कुछ ऊँची, कुछ ढलान जैसी और कुछ समतल. कुछ पक्की और मज़बूत होती हैं, कुछ कच्ची और बारिश में चूती हैं. कुछ छतों को देखकर लगता है कि वे अब गिरीं, तब गिरीं.

कुछ छतों के ऊपर पेड़ झूलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, गिलहरियाँ दौड़ती हैं, या थोड़ी देर रुककर कुछ खाती हैं. परन्तु कुछ छतों के आसपास एक भी पेड़ नहीं होता, और कुछ अन्य से दूर–दूर तक कोई पेड़ नज़र नहीं आता.

मुझे एक ऐसी छत की याद है जिस पर खड़े होकर  — बहुत दूर — ईंटों वाले भट्टे की चिमनी नज़र आती थी.

कुछ छतों की मुण्डेर नहीं होती, जैसे झोंपड़ियों की छतें. कुछ छतें इतनी जर्जर होती हैं कि हर बारिश में गिर जाती हैं. इस तरह की छतों पर आप चढ़ नहीं सकते, बैठ नहीं सकते, कुछ कर नहीं सकते.

खर–पतवार की छतें सबसे सुन्दर लगती हैं; वे हर वर्ष नयी खर–पतवार से बुनी जाती हैं.

बहुमंज़िला मकानों की छतें काली–काली टंकियों से पटी रहती हैं. कौन जाना चाहता है ऐसी  छतों पर ?

कवि कविता लिखता है अकेले छत पर बैठकर; किशोर लड़की घरवालों से बचकर मोबाइल पर बतियाती है — तब उसके चेहरे पर कई किस्म के भाव आते हैं.

 

जब मैं अभी छोटा था तो मैंने “न्यूयार्क की छतें” नाम की फिल्म देखी थी. उसमें छतों पर होने वाली बहुत सी बातें थीं, जिनमें से एक यह भी थी कि एक युवा लड़का दूरबीन से दूसरी छतों को देखता था.
_______

(फोटो द्वारा तेजी ग्रोवर)

 

 

कवि और दार्शनिक रुस्तम सिंह (जन्म : 16 मई 1955) “रुस्तम” नाम से कविताएँ लिखते हैं. अब तक उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. सबसे बाद वाला संग्रह “मेरी आत्मा काँपती है” सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से २०१५ में छपा था. एक अन्य संग्रह “रुस्तम की कविताएँ” वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, से २००३ में छपा था. “तेजी और रुस्तम की कविताएँ” नामक एक ही पुस्तक में तेजी ग्रोवर और रुस्तम दोनों के अलग-अलग संग्रह थे. यह पुस्तक हार्पर कॉलिंस इंडिया से २००९ में प्रकाशित हुई थी. अंग्रेज़ी में भी रुस्तम की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उनकी कवितायेँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मलयाली, स्वीडी, नॉर्वीजी, एस्टोनि तथा फ्रांसीसी भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. किशोरों के लिए ‘पेड़ नीला था और अन्य कविताएँ’  एकलव्य प्रकाशन से २०१६ में प्रकाशित हुई हैं.

उन्होंने नॉर्वे के विख्यात कवियों उलाव हाऊगे तथा लार्श आमुन्द वोगे की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है. ये पुस्तकें “सात हवाएँ” तथा “शब्द के पीछे छाया है” शीर्षकों से वाणी प्रकाशन, दिल्ली, से प्रकाशित हुईं.

वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, तथा विकासशील समाज अध्ययन केंद्र, दिल्ली, में फ़ेलो रहे हैं. वे “इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली”, मुंबई, के सह-संपादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, की अंग्रेजी पत्रिका “हिन्दी : लैंग्वेज, डिस्कोर्स, राइटिंग”के संस्थापक संपादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, में विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं.

ईमेल : rustamsingh1@gmail.com
_________

Tags: कवितारुस्तम
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