दो समलैंगिक लड़कियों के सत्रह स्वप्न |
(1)
वे बड़ी जोर से चीखती हैं
लीलती हुई असंख्य शोकफूलों को
जवान शरीरों में वे खड़ी होती हैं
जैसे अठारह कोस रेत के बाद कोई थका आराम फूटा हो
उनकी गरदनों के नीचे घुड़के हाडों में
नमक जम गया है
वे अपने झुलस खा चुके गालों में चौमासी चीड़ के जंगल से
देख रही हैं
कि पानी तैर रहा है
नदी सूख रही है
सारी कैंचियाँ तैंतीस करोड़ कतरे बालों पर पड़ी हैं
सड़कों पर लिपिस्टिकों के चौरासी लाख खोके पड़े हैं
अनाज पर लार गिराती गायों ने गोबर कर दिया
ईश्वर को कब्ज है
और अब वे दोनों प्याज़ी रात के तामियाँ चाँद तले छातियाँ ढ़ीली करके सो रही हैं साथ
(२)
उन्हें अपने पिता याद आते हैं
वे उंगलियाँ चटकाने लगती हैं
उन्हें अपनी माँएं याद आती हैं
वे सिंगारदान छुपाने लगती हैं
उन्हें अपने भाई याद आते हैं
वे तकियों में काँखें छुपाने लगती हैं
उन्हें अपनी कामनाएँ याद आती हैं
उनकी एड़ियाँ फूलने लगती हैं
नितम्ब ठण्डे पड़ते हैं
जाँघें फड़कती हैं
वे आँख भीच लेती हैं
आँख खुलती हैं
फिर उन्हें नींद नहीं आती
(३)
चली जा रही हैं वे
पीछे मुड़े बगैर
और पूरा काग़ज़ एक समाज की अफ़्वाह में गीला हो रहा है
उन्हें गुबारों के पेड़ दिखते हैं
बड़े घने पेड़ दिखते हैं
पीछे मुड़े बगैर
(४)
मेज़ पर ग्लोब है
धरती उतनी घूमी है जितनी देर तक उन्होंने घुमाया
(अंतरिक्ष में हवा
नहीं होती)
(५)
उसने चॉकलेट निकाली
बस्ते की चैन लगाई
और बुलाया ‘कहाँ हो सुनीति!’
(६)
उनकी गुलगुली हथेलियाँ काँच के गिलास में भर रही हैं पानी उनके चश्मे सूख रहे हैं फेसवॉश मलती हैं चेहरे पर नई रिंगटोन खोजती हैं ज़िप लगाती हैं
उनके पास धर्म की किताब है
और तास की गड्डी
वे तास के पत्तों में रनिवास नहीं रजोधर्म से निवृत्त खातून ढूँढ़ रही हैं
(७)
लंबी सड़क थी
हिंदू थे मुसलमान थे
चुनाव का बैनर था
आयोग के विरोध के बोर्ड
सरकार से असहमत तख्ती थी
उबले अण्डों की दुकान थी
शनिचर था
वे ज़ेब्रा क्रॉसिंग ढूँढ़ रही हैं
(८)
उन्हें अजवाइन की गंध पसंद है वे आलू के पराठे चख रही हैं अभी बरसात में छोड़ा है घुटने पर लगा मटिया घोंघा

(९)
वे उस देवता को जानती थीं
जिसके सामने उनकी माँओं ने फेंक दिया था उन्हें
उनकी हँसोड़ पड़ोसिनें पशुपतिनाथों पर चुआती थीं जल
लौटकर गाती थीं
वे पहली बार केले के छिलके पर फिसली हैं
धड़ाम!
केला खाने वाले को वे जानती हैं
(१०)
उनके चचेरे स्कूल निकल पड़े हैं
वे टाइयाँ कस रही हैं
उन्हें अपना गला ढीला भी रखना है
(११)
वे गूलर के तले
मशगूल नाउम्मीदी से बैठ गई हैं
आसमान में बगुलों की रेखा खिंची जा रही है
बहुत दूर
कोई हरकारा उनके घर नहीं आएगा
वे खाँसने लगती हैं निसंग
जैसे उनके लिए आसमान सूखा हो उठा हो
उन्हें न मृत्यु से
न ज़िंदा रहने का डर है
(१२)
वे किताब खोलकर
नेरुदा की नाक पर हँसती हैं
फ्रॉस्ट के बालों पर
एंजेलो की गरदन पर
माया सभ्यता की भाषा पर
इंडस वेली की नृत्यांगना की नीली कमर पर
वे और ठोस होकर हँसती हैं
जब पार्रा ठहाका लगा रहा होता है

(१३)
वे सड़क पार करती हैं
ठीक उसी वक्त
जब सूरजमुखी का फूल तेल के लिए तोड़ा जा रहा है
(१४)
उनके सामने एक थुलथुला दिन है
बगल में एक सरकारी क्लर्क
उनकी नींद में कोरियाई सिनेमा
उनके हाथ में कुछ नहीं है और
(१५)
वार्षिकोत्सव का गोल्ड मेडल मुंहासों की क्रीम बादामी टी-शर्ट स्वीट-हार्ट की इमोजी रिच डैड पुअर डैड की किताब
(१६)
वे बहुत भूखी हैं
बहुत प्यासी हैं
वे बाल नोच नहीं सकती
नाखून चबा नहीं सकती
नमक चख नहीं सकती
आत्महत्या
उन्हें चिर-परिचित लगने लगी है
उन्हें अचानक याद आ जाती है सुनीति घोष!
(१७)
सुबह की घास में पड़ी उनकी घड़ी बेफिक्र होकर गुलमोहर-सी दमकती है पहाड़ का सूरज अमलतास लीपता है कोरस गाते हैं बिलाते चमगादड़
साइकिलों की घंटियाँ जगाती हैं उन्हें –
‘उठो!
अब ईश्वर को सोने दो!’
सत्यव्रत रजक 04 मार्च 2006, मध्यप्रदेश कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित satyavratrajak@gmail.com |
बहुत ही सुंदर और अद्भुत कविताएं हैं। उन बूढ़ों को पढ़ना चाहिए कि जो हर जगह कहते घूमते हैं कि आजकल बहुत ख़राब कविताएँ लिखी जा रही हैं।
मतलब, ये अच्छी कविताएं हैं? फिर, अबूझ, फेंकू और बकैती भरी कथित कविताएं किसे कहेंगे?
हां, मैं कवि की प्रशंसा में यह जरूर कहूंगा कि हिंदी कविता को मजाक का वायस, दुरूह और ’अलभ्य’ बनाने में इस युवा का नाम भी शामिल हो गया है।
कमाल की कविताएं हैं। इस विषय पर एक साथ इतनी कविताएं पहली बार पढ़ीं। सत्यव्रत को बहुत बधाई और शुभकामनाएं। पढ़वाने के लिए समालोचन का भी बेहद शुक्रिया 🌻
इस उम्र में इस तरह की समझ और इस तरह के विषय को कथ्य के सुंदर और कसे रूप में ढालकर कह ले जाना बहुत बड़ी बात है। कवि का कवि जीवन समृद्ध होगा। ❤️🌸
कुछ कविताएं सुंदर हैं। सत्यव्रत में संभावनाएं हैं, इसमें शक नहीं।
इंतज़ार में हूं कि कोई बताए कि यह समलैंगिक स्त्रियों के सपने क्यों हैं? किसी भी स्त्री के हो सकते हैं।
उनको एक सुझाव देना चाहती हूं। इसे समयौनिक कर दें। स्त्रियों के लिंग तो होते नहीं इसलिए समलैंगिक कुछ अटपटा लगता है
इन अर्थ बहुल, छबि बहुल और मार्मिक कविताओं ने हाथ पकड़कर रोक लिया है। इस युवतर कवि ने विस्मय और आश्वस्ति से भर दिया है। ये तत्काल एकाधिक पाठ की तरफ़ ले जाती हैं। कठिन विषय को किंचित नवीन करती हुईं। शुभकामनाएँ और बधाई।
वाकई! भावों को अनावृत करने के लिए, संवेदना के उद्वेग के लिए और समय की तीक्ष्णता का संधान के लिए, भाषा के पैनापन को क्या खूब साधा है कवि ने ! बेहतरीन। समालोचन और कवि दोनों को बधाइयां।
सत्यव्रत उम्मीद जगाते हैं कि हिंदी कविता का भविष्य सुरक्षित है….
शिल्प, बिंब, सबमें वैविध्य की प्रचुरता उपस्थित है,
कविताएं कहीं भी किसी भी छोर से शुरू की जाए तो छोर छूटता नज़र नहीं आता।
कवि को शुभकामनाएं
कवियों को समझ में आने वाली कविताएँ !!
बहुत ज़रूरी कविताएँ हैं। यह विषय हिंदी के कवियों से अधिकांशतः अछूता सा रहा लेकिन नये कवि का यह उत्साह नयी आश्वस्ति ला रहा है। बधाई।
सत्यव्रत का परिचय यदि उनकी उम्र से ना किया जाता तो निसंदेह यह किसी परिपक्व अध्ययनशील कवि की कविताएं ही लगती। कविता की भाषा में नए अर्थ और नए बिंब है । समय और समाज में प्रचलित वर्जनाओं को लेकर कोई संकोच इनमें नहीं दिखाई देता । यह कविताएं यथार्थ को उसके बहुआयामी कला रूप में प्रस्तुत करती है। –शरद कोकास
आजकल फेसबुक पर मैं कोई टिप्पणी करने से घबराता हूँ, क्योंकि लोग-बाग आपके ख़िलाफ़ हो जाते हैं और अक़्सर जीवन भर आपके ख़िलाफ़ बने रहते हैं। तब भी मुझे लगता है कि ये सहज नहीं, स्मार्ट किस्म की कविताएँ हैं और इनमें काव्यतत्व की कमी है। इधर युवा कवि अक़्सर स्मार्ट किस्म की कविताएँ लिखते हैं जो उनके हृदय से नहीं, कहीं और से आ रही होती हैं। जो युवा कवि इस स्मार्टनेस में फँसे रहते हैं, उससे निकल नहीं पाते, कवि के तौर पर उनका भविष्य ख़तरे में होता है। यदि कविताएँ किसी समलैंगिक या समयौनिक, जैसा कि कुछ लोगों ने सुझाव दिया है, लड़की या महिला ने अपने अनुभव में से लिखी होतीं तो शायद वे बेहतर होतीं, शायद उनमें ज़्यादा pathos होती, बशर्ते कि शिल्प पर उसकी अच्छी पकड़ होती।
अच्छी कविताएं हैं। बेबाकी और संयम के बीच बिल्कुल तनी और सधी हुई। शीर्षक के अलावा कुछ भी अतिरिक्त नहीं। कविताओं का गद्य और भाषा में बरताव सब कुछ वैसा, जैसा होना वांछित है। Satyavrat Rajak का स्वागत और बधाई।
सत्यव्रत की कल्पनाशीलता प्रभावित करती है। बिम्ब विधान भी।
लेकिन शिल्प में उन्होंने अभी स्वयं को दूसरों से पर्याप्त अलगाया नहीं है। स्वर में निजता का हस्ताक्षर ही वह शै है जिसे कवि को बाकी तमाम तत्वों के साथ साथ साधना होता है।
इनसे उम्मीद रहेगी यह।
आभार इस कवि को हम सब तक पहुंचाने के लिए
बहुत अच्छी कविताएँ। बहुत प्रयोगधर्मी
सत्यव्रत और समालोचन से उम्मीद है कि जल्दी ही और कविताएँ पढ़ने मिलेंगी। नये कवि को आशीष।
कवि विषय के प्रति बहुत सजग है। सत्यव्रत को पढ़ा जाना चाहिए। सत्यव्रत से फेसबुकियों को सीखना चाहिए।
बहुत अच्छी कविताएँ हैं। बहुत दिनों बाद इस विषय पर इतनी गूढ़ कविताएँ पढ़ी है। खूब बधाई
अच्छी कविताएँ। इस समय इस अधूते से विषय पर हिंदी की कविताएँ सुखद हैं।
ऐसी कविताएं जीवन में आशा के बीज बोती हैं।
भाषा लाजवाब।
बिम्ब प्रतिबिंबित करने में सक्षम।
सच कहूं तो इन्हें पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। आबाद है कविता की दुनिया।
सत्यव्रत रजक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं !
अरे वाह प्रिये! क्या ही भाव, क्या ही भाषा कौशल, क्या ही कल्पना..मैं ऐसा क्या कहूं की तुम्हारी इस कल्पना के थोड़ा बहुत भी समकक्ष आ सके….मैं निःशब्द हूं….हमारे हिंदी जगत को आवश्यकता है तुम जैसे प्रखरों की…..शुभ्र भविष्य की शुभकामनाओं के साथ, बढ़ते रहो, गढ़ते रहो…