शूद्र: एक नये पथ की परिकल्पना नए दौर में शूद्र समाजों पर विमर्श राम कुमार ठाकुर |
अब्राहम लिंकन के अनुसार, “लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के लिए शासन है.” यह परिभाषा लोकतंत्र की सामान्य समझ है, हालांकि बहुमत शासन (Majority rule) की अवधारणा भी उतनी ही प्रभावशाली है. राजनीतिक दार्शनिक जेएस मिल ने लोकतंत्र की गुणात्मक समझ की वकालत करके इस विमर्श को आगे बढ़ाया है, जिसके तहत अल्पसंख्यक राय और भागीदारी आधिपत्यवादी बहुसंख्यकवादी और मात्रात्मक लोकतांत्रिक धारणाओं को चुनौती देती है.
ये विवरण दो महत्वपूर्ण चुनौतियों को सामने लाता है. पहला, ऐतिहासिक रूप से लोकतंत्र की बहुसंख्यक अवधारणा श्वेत जाति, संपत्तिवान पुरुष की ओर झुकी हुई थी. लंबे समय तक चली देश-दुनिया के क्रांतिकारी और सुधारात्मक परिवर्तनों के साथ ही श्रमिक वर्ग, महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यक को समान माना जाने लगा, इसलिए आधुनिक बहुमत लोकतंत्र एक नई अवधारणा द्वारा निर्मित की गई है, जहाँ लोगों ने एक विशिष्ट संदर्भ में अधिकार में अर्थ प्राप्त किया है, भारत में लोकतान्त्रिक उदय आधुनिक राष्ट्रवादी आंदोलन और संवैधानिक विचारधारा की स्थापना इसी संदर्भ में हम देख सकते हैं.
दूसरी बात, अल्पसंख्यक अधिकारों के विचार ने लोकतंत्र के बदलते गुणात्मक मुहावरों के साथ एक नई राजनीतिक विश्वसनीयता हासिल की है, जो लिब्रल डेमोक्रसी का महत्वपूर्ण पहलू बन गया.
भारतीय संविधान लोकतंत्र के मात्रात्मक (बहुमत-शासन) और गुणात्मक (अल्पसंख्यक हक) दोनों पहलुओं को संस्थागत बनाता है और उनमें सामंजस्य स्थापित करता है.
हाल के दिनों में भारतीय लोकतंत्र का संवैधानिक आधार गहरे दबाव में दिखती है, हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी सरकारों की नीतियों से आम लोकतान्त्रिक मूल्य हाशिए पर है, चाहे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो, आस्था का अधिकार हो या नागरिक समाज के अधिकारों पर निशाना हो. यहाँ तक कि नागरिकता संशोधन अधिनियम और एनआरसी से बुनियादी नागरिकता के विमर्श में धर्म और गैर-नागरिकों के अवैध प्रवास का मुद्दा केंद्र में आ गया है, जिसके बाद मुस्लिम और भाषाई अल्पसंख्यकों की नागरिकता के ढांचे में अनिश्चितता उत्पन्न हुई है.
2018 में वैरायटीज ऑफ डेमोक्रेसी (वी-डेम) शोध परियोजना ने भारत को ‘चुनावी निरंकुशता’ और 2024 में लोकतांत्रिक देशों में सबसे खराब ‘निरंकुशतावादियों की और अग्रसर’ देशों में से एक घोषित किया था.
विश्व के विभिन्न भागों में लोकलुभावन सत्तावादी (Populist authoritarian) सरकारों के उदय और प्रभुत्व के कारण, लोकतंत्र की मूलभूत चिंताएँ, सिद्धांत और संस्थाएँ खतरे में पड़ गई हैं, चाहे वह एशिया हो, अफ्रीका हो, यूरोप हो, लैटिन अमेरिका हो या अमेरिका! सही मायनों में लोकतंत्र का अस्तित्व और परिभाषा दोनों खतरों में है. ऐसे समय में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम पीछे मुड़कर देखें, मूल्यांकन और अध्ययन करें कि वास्तविक लोकतंत्र का वादा कहाँ लुप्त हो गया, क्या इसका जवाब इतिहास में है या समकालीन समय में है?
इस संदर्भ में यह विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि इन अनिश्चित समय में भारतीयों नागरिकों की अवधारणा को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, चाहे वह बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समाज का मूल्यांकन क्यों न हो.
यह पुस्तक (शूद्र: एक नये पथ की परिकल्पना) समृद्ध भारत फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित चौदह पुस्तक श्रृंखला का हिस्सा है, जिसमें विभिन्न विषयों पर 150 बुद्धिजीवियों ने भारत के सामने ज्वलंत राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सवालों पर विचार करने की कोशिश की है. इन बुद्धिजीवियों के आलेख लोकतंत्र से जुड़े विभिन्न बुनियादी सवालों और चुनौतियों का सामना करते हैं और संवैधानिक मूल्यों के पुनरुद्धार की वकालत करते हैं.
शूद्र: एक नये पथ की परिकल्पना का संपादन कांचा इलैया शेफ़र्ड और कार्तिक राजा करुप्पूसवामी द्वारा किया गया है. यह किताब बहुसंख्यक शूद्र उत्पादक जातियों की दुर्दशा को समझने और उसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखने का प्रयास करती है. इतिहास, आधुनिक संवैधानिक लोकतांत्रिक वादों और भविष्य की संभावनाओं पर यह एक अकादमिक और राजनीतिक गहन चर्चा की शुरुआत है. यह पुस्तक मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी और इसका हिंदी अनुवाद हिमांशी यादव और रौनक सिंह ने किया है. जो हिंदी के पुराने और प्रसिद्ध प्रकाशन ‘राजपाल एँड सन्ज़’ द्वारा प्रकाशित है.
यह किताब विविध 11 अध्यायों का रोमांचक और विचारोत्तेजक संग्रह है.
दोनों संपादकों ने सारे लेखों को व्यवस्थित रूप से संगठित करके हुए इन्हें मुख्य रूप से तीन दिशाओं की ओर मोड़ा है.
पहला: ज्ञान निर्माण के क्षेत्र में शूद्र पक्ष की परिकल्पना का विस्तार. जहाँ शास्त्रसम्मत अनुष्ठान और प्रथाओं के माध्यम से स्थापित ज्ञान और शक्ति के बीच संबंध को शूद्र उत्पीड़न का मूल कारण माना गया है.
दूसरा: सत्ता से सच बोलने की निडर कोशिश.
तीसरा : यह किताब सार्वजनिक तर्क और विवाद के लिए भी गुंजाइश रखती है जिससे विमर्श के और भी आयाम जुड़ सके.
इस पुस्तक की ताकत इस बात में निहित है कि सारे लेख विश्लेषणात्मक तर्क द्वारा मौजूदा इतिहास और इतिहासलेखन को बहुसंख्यक शूद्र जाति समूहों के नजरिए से प्रस्तुत करते हैं.
कांचा इलैया नै अपने बौद्धिक विमर्श में ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था को शूद्र जाति समूहों की गुलामी का मुख्य कारण माना है, जिसकी जड़ें अतीत से लेकर आधुनिक समय तक फैली हुई हैं, जिसमें राजतंत्रीय, औपनिवेशिक और वर्तमान लोकतांत्रिक शासन तक शामिल हैं. इलैया यह भी बताते हैं कि यद्यपि विभिन्न ऐतिहासिक मोड़ों पर क्षेत्रीय शूद्रों ने भूमि स्वामित्व, संपत्ति और राज्य शक्ति और संपदा का आनंद लिया है, लेकिन उनके बीच बौद्धिक नेताओं की कमी के कारण उनका इतिहास अल्पकालिक है.
मनुस्मृति और अर्थशास्त्र तथा सभी धार्मिक ग्रंथों में द्विजों के शासन की विस्तृत व्याख्या की गई है, तथापि बहुसंख्यक शूद्रों और अतिशूद्रों के इतिहास को केन्द्रीयता या सार्थक दृश्यता नहीं मिल पाई है. उनका मानना है कि दलित और आदिवासी बुद्धिजीवी ऐतिहासिक और सामाजिक उत्पीड़न के मूल कारण को परिभाषित करने में सक्षम रहे हैं और एक बड़े वर्ग को राजनीतिक रूप से भेदभाव और हिंसा का मुकाबला करने के लिए तैयार किया है, वही दूसरी तरफ ओबीसी/शूद्र ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म के आधिपत्य का मुकाबला करने में विफल रहे हैं.
विशेष रूप से अगर राजनेताओं की बात करें तो सरदार पटेल हो या यहाँ तक कि ‘तथाकथित’ ओबीसी वर्तमान प्रधानमंत्री, सभी ‘धर्मनिरपेक्ष’ कांग्रेस या ‘हिंदुत्व’ आरएसएस/बीजेपी के ब्राह्मण-वैश्य राष्ट्रवाद के प्रतिमान के भीतर काम करते रहे हैं.
फुले ने इसी विरोधाभास को भट्टजी-सेठजी के वैचारिक आधिपत्य के रूप में समझा और परिभाषित किया था.
कांचा इलैया का मानना है की शूद्र राजनीति की दो सदियों के क्रांतिकारी इतिहास की परिकल्पना से प्रेरणा लेने की और इस विरासत को आगे ले जाने की जरूरत है.
समाज सुधारक जोड़े सवित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने शिक्षा, अंतर-जातीय विवाह, सरकारी रोजगार तथा आध्यात्मिक-धार्मिक संरचनाओं को तर्क और प्रगतिशील विचारों से न केवल चुनौती दी, बल्कि आधुनिक विचारों से प्रेरित होकर सभी जातियों की महिलाओं और बच्चों के लिए स्कूल खोलने जैसी गैर-सांप्रदायिक मानवतावादी प्रथाओं का भी नेतृत्व किया.
फुले के ऐसे प्रयासों ने ब्राह्मणवादी समाज सुधारकों और रूढ़िवादी तथा कथित प्रगतिशील दोनों प्रकार के राष्ट्रवादियों की सांप्रदायिकता को उजागर किया तथा बाद के राष्ट्रवादियों द्वारा अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष तथा लैंगिक समानता की वकालत करने के प्रश्न को उठाने से बहुत पहले ही रचनात्मक कार्यक्रम और विकल्प के लिए आधार तैयार कर दिया.
पुस्तक के संपादकों का मानना है कि भले ही फुले दंपति ने इतिहास में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, फिर भी हम उन्हें पर्याप्त चर्चा में नहीं पाते हैं या तथाकथित भारतीय पुनर्जागरण के आधुनिक बुद्धिजीवियों में उनकी उपस्थिति नहीं दिखती है, इसके लिए केवल हिंदुत्ववादी बुद्धिजीवी ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि भद्रलोक बुद्धिजीवी भी जिम्मेदार हैं. (पृष्ठ 17 देखें)
19वीं शताब्दी में हम पाते हैं कि अयोथी थास (Iyothee Thass ) ने जातिविहीन राष्ट्रवाद के लिए संघर्ष का नेतृत्व किया तथा ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद की आलोचना की, इसी प्रकार पेरियार के तर्कवादी और नास्तिक दर्शन ने ब्राह्मणवादी ग्रंथों, मूल्यों और अनुष्ठानों की आलोचना के लिए आधार तैयार किया, जिससे आत्म-सम्मान आंदोलन की नई खोज हुई तथा औपनिवेशिक ढांचे के भीतर और बाहर गैर-ब्राह्मणों के लिए संस्थागत प्रतिनिधित्व के दावे सुनिश्चित हुए.
कांचा इलैया का मानता है कि पेरियार के क्रांतिकारी विचार उत्तर भारत की राजनीति की दिशा को प्रभावित नहीं कर सके, यह तमिल भाषी क्षेत्र तक ही सीमित था, इसके अलावा एक और सीमा जो हम पीछे मुड़कर देख सकते हैं वह यह है कि द्रविड़ पहचान पर व्यापक सहमति के बावजूद, दलितों के खिलाफ प्रकट जातिगत विरोधाभास जारी है.
हालांकि सामाजिक न्याय की सैद्धांतिक राजनीति का कायम रहना इस बात का प्रमाण है कि जाति-विरोधी राजनीति की जड़ें तमिलनाडु में काफी गहरी हैं और व्यापक हिंदुत्व राजनीति के लिए अभी भी एक कांटे की तरह चुभने वाली चुनौती बनी हुई है.
वहीं दूसरी तरफ दक्षिण भारत के विपरीत उत्तर भारत में शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व का प्रश्न ब्राह्मणवादी ढांचे और प्रथाओं की सीमाओं से बंधा हुआ था न कि मुक्ति आधारित विचारों से. उत्तर भारत में मण्डल कमिशन के आने से लोकतान्त्रिक व्यवस्था में एक नई गति मिली, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड के उदय ने द्विजों की वर्चस्ववादी राजनीति के निर्विरोध क्षेत्र में सेंध लगा दी. इन घटनाक्रमों ने दीर्घावधि में गठबंधन की राजनीति को भी एक नया अर्थ प्रदान किया.
इन परिवर्तनों को राजनीतिक वैज्ञानिकों ने सही ढंग से वैचारिक रूप से समझा है. क्रिस्टोफर जाफरलॉट और योगेंद्र यादव ने मण्डलीकरण को क्रमशः मौन क्रांति और द्वितीय लोकतांत्रिक उभार कहा है.
मंडलीकरण ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद आरक्षण की गुंजाइश खोल दी है. सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों और बाद में सार्वजनिक शिक्षा में आरक्षण ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए एक मजबूत अधिकार आधारित विमर्श का रास्ता खोल दिया.
वीपी सिंह की अल्पसंख्यक गठबंधन सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन ने द्विज नागरिक समाज, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों और नारीवादी समूहों द्वारा गहरी जातिवादी प्रतिक्रिया उत्पन्न की.
प्राची पाटिल का अध्याय दलित महिलाओं द्वारा भारतीय बहिनापा के इस जटिल दावों पर सवाल उठाए जाने के साथ-साथ शूद्र महिलाओं की स्वायत्त राजनीति को अपनी शर्तों पर व्यक्त करने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालता है.
पुस्तक में आए अधिकांश लेखकों का तर्क है कि इंदिरा सॉवनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ओबीसी आरक्षण में आर्थिक मानदंड को संवैधानिक स्वीकृति मिली लेकिन ओबीसी आरक्षण का अभ्यास और कार्यान्वयन अभी भी दयनीय स्थिति में है. इस चुनौती के साथ ही सामाजिक न्याय की राजनीति को उदारीकरण और साम्प्रदायिकता की राजनीति से भी जूझना पड़ा है. बाजार (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) हो या मंदिर (बाबरी मस्जिद विध्वंस) दोनों ने मंडलीकरण की राजनीति के खिलाफ एक सीधा मोर्चा खोल दिया था जिसका प्रभाव आज भी समकालीन राजनीति में महसूस किया जा सकता है.
आर्थिक रूप से संपन्न शूद्र भी शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए हैं. कृषि से उनकी जड़ें जुड़ी हुई हैं, फिर भी आध्यात्मिकता, धर्म और अनुष्ठान तथा ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की प्रथाओं के क्षेत्र में उन्हें अभी भी दरकिनार किया जाता है. हाशिए पर रखा जाता है. और असमान माना जाता है. हिंदुत्व प्रतिमान के भीतर शूद्रों के लिए समावेश का एकमात्र रूप बाहुबली और हिंदुत्ववादी समर्थक के रूप में है. ओबीसी, दलित, आदिवासी, मजदूर वर्ग, धार्मिक अल्पसंख्यकों को किसी भी सार्थक लोकतांत्रिक समावेश और लोकतांत्रिक सत्ता के आनंद के दायरे से बाहर देखा जाता है.
कांचा इलैया शेफ़र्ड और कार्तिक राजा करुप्पूसवामी द्वारा संपादित शूद्र: एक नए नये पथ की परिकल्पना किताब न केवल सराहनीय है बल्कि महत्त्वपूर्ण भी है क्योंकि इस एक जिल्द में विभिन्न लेखकों ने शूद्र समाज के बहुसंख्यक लोगों का इतिहास, उत्पादक, सामाजिक और आर्थिक संबंधों को तार्किक ढंग से उजागर किया है दूसरी तरफ समाज और राज्यसत्ता में शक्तिहीनता और संघर्षों का भी विस्तृत रूप से लेखा-जोखा दिया है.
पुस्तक में कुछ सीमाएँ भी दिखाई देती हैं. यह शूद्रों और दलितों के बीच एक जैविक सामाजिक गठबंधन को परिभाषित करने में विफल रहती है.
कृषि आधार के अलावा शूद्र समुदायों के भीतर भी उदारीकरण की राजनीति के कारण सामाजिक और आर्थिक विरोधाभास पैदा हुए हैं जो आर्थिक विभाजन और राजनीतिक विरोधाभासों को बढ़ाते हैं. आर्थिक रूप से संपन्न ओबीसी द्वारा संचालित आरक्षण और आरक्षण विरोधी आंदोलन के विरोधाभासी आवेग इस तथ्य की पुष्टि करते हैं.
यह किताब आधुनिक विचारों, ऐतिहासिक संघर्षों और समसामयिक संदर्भों में शूद्र समाजों के लिए सार्थक परिवर्तन हेतु वैध मार्ग के रूप में संवैधानिक साधनों की वकालत करती है. साथ ही धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत अंग्रेजी को मुक्ति की भाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को सीखने की आवश्यकता जताती है.
कांचा इलैया का मानना है की केवल बौद्धिक नेतृत्व के माध्यम से ही आधिपत्यवादी वर्ग और जाति की शक्ति और एकाधिकार का सामना किया जा सकता है और सार्थक लोकतांत्रिक संभावना को साकार किया जा सकता है.
शूद्र: एक नये पथ की परिकल्पना
संपादन: कांचा इलैया शेफ़र्ड और कार्तिक राजा करुप्पूसवामी
राजपाल एँड सन्ज़, दिल्ली
संस्करण : 2025, मूल्य: 450
डॉ. राम कुमार ठाकुर |
एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निहायत जरूरी पुस्तक पर लिखने के लिए डॉ राम कुमार जी बधाई के पात्र हैं। इन्होंने हम पाठकों को इस पुस्तक को रुबरु कराया, साधुवाद।