मनु गांधी की डायरी महात्मा से गांधी तक रूबल |
पिछले दिनों मनु गांधी की लिखी हुई डायरी का दूसरा भाग गुजराती से अंग्रेजी में अनूदित होकर प्रकाशित हुआ है. इसमें उनके और गांधी के 1946 के अंतिम दिनों से लेकर गांधी की मृत्यु के आखिरी दिनों तक की बातें सहेजी गई हैं जो कि इस डायरी को 1946 से लेकर गांधी के आखिरी दिनों तक का एक मुकम्मल दस्तावेज़ बनाती हैं. इस डायरी का पहला खंड 1943 से 1944 तक का है जो अंग्रेजी में अनूदित होकर आ चुका है.
टुकड़ों टुकड़ों में लिखी यह डायरी गांधी के अंतिम दिनों का जीवंत और मार्मिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करती है. जाहिर तौर पर इस डायरी के केंद्र में गांधी हैं. अपने अंतिम दिनों में गांधी क्या सोचते रहे, क्या करते रहे, उनके भीतर के संशय और निराशा को मनु ने बारीकी से दर्ज कर उनके जीवन के अंतिम सालों को यहाँ लिखा है. दो वर्षों की इस अवधि में मनु गांधी के जीवन में प्रमुख भूमिका अदा करती दिखाई देती हैं. हालाँकि गांधी इन डायरियों के मुख्य किरदार रहे, पर मनु भी इससे स्वयं को बचा नहीं सकी हैं.
छह सौ पृष्ठों से भी अधिक के इस डायरी में मनु खुद की भीतरी तहों को उत्खनन करती हैं. जब हम इसके अंतिम पृष्ठ पर पहुँचते हैं जहाँ गांधी के निर्वाण को पूर्णता दी गई है, वहीं गांधी के संसार छोड़े जाने का दुख उसके एक महीने बाद मनु के दिल्ली छोड़े जाने के दुख के साथ एकसार हो उठता है. अगर यहाँ यह कहा जाये कि गांधी का इस दुनिया को छोड़ जाना, उस दुख से कहीं छोटा हो उठता है जिस दुख और अलगाव को मनु ने गांधी के सानिध्य से दूर होते हुए महसूस किया है तो यह कोई विसंगति नहीं होगी.
पाठक धीरे-धीरे गांधी के बजाय मनु के व्यक्तित्व से तादात्म्य महसूस करने लगते है. उनके साथ रोता है और हँसता है. उनके अकेलेपन को अपना अकेलापन, उनकी खुशी को अपनी खुशी मानने लगते हैं. इस तरह मनु इस डायरी की केंद्रीयता पा लेती हैं. यहाँ डायरी लिखने वाला ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठा है बनिस्बत जिसको केंद्र में रखकर यह डायरी शुरू की गयी है.

१.
गांधी के लेखन से यह स्पष्ट होता है कि गांधी अपने साथ के व्यक्तियों को डायरी लिखने के लिए कहते रहते थे. यह कहना सिर्फ मान मनुहार से कहीं ज्यादा एक निर्देश के तौर पर रहता रहा होगा. इसी क्रम में महादेव देसाई की डायरी, मनु गांधी की डायरी के साथ उल्लेखनीय मानी जा सकती है. महादेव की मृत्यु तक (1917 से 1942 ) महादेव देसाई द्वारा लिखी गयी यह डायरी गांधी के दैनिक जीवन के हर क्षण को दर्ज करती रही थी. महादेव की डायरी में गांधी एक पुरुष, एक राजनेता और एक सामाजिक कार्यकारी के रूप में चिह्नित होते दिखाई देते हैं, वहीं मनु की डायरी एक छोटी उम्र की लड़की की डायरी है जो महादेव की ही तरह गांधी को दर्ज करने की इच्छा लिए उनके जिए गए हर क्षणों को सहेजना चाहती थी. सामाजिक रूप से परिपक्वता और उम्र के फर्क से ज्यादा इन दोनों की डायरी में सामाजिक संबंधों का भी एक बड़ा फर्क दिखाई देता है.
ऊपर से देखे जाने पर महादेव की डायरी को राजनीतिक और मनु की डायरी को आध्यात्मिक बताया जा सकता है. सामान्य तौर पर इसके लिए तर्क दिया जा सकता है कि महादेव की डायरी गांधी के बाहरी जीवन से जुड़ी हैं, तो मनु की भीतरी. महादेव की डायरी राजनीतिक गांधी के बारे में हैं, तो मनु की डायरी उनके आध्यात्मिक स्वरूप के बारे में. ऐसे में प्रश्न उठता है कि तब क्या गांधी के द्वारा स्वयं के भीतरी और बाहरी जगत को एक करने की उनकी ताउम्र कोशिशों का कोई महत्व नहीं रह जाता है? जिस गांधी के लिए राजनीतिक-आध्यात्मिकता ही जीवन का एक उद्देश्य रहा, तब कैसे दो व्यक्तियों की दृष्टि एक ही गांधी को अलग-अलग खाँचो में लक्षित करती है.
दो अलग-अलग व्यक्ति केन्द्रीयता के दबाव में भी वैयक्तिकता के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सके, इसे शायद मनु की डायरी के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है. ऐसा नहीं है कि इस भेद और वैयक्तिकता के मूल में क्या है, इसपर प्रश्न उठाये नहीं जा सकते हैं. महादेव का पुरुष होना और मनु का स्त्री होने का लैंगिक विभाजन ही इस पूरे आख्यान का केन्द्रीय पक्ष है ?
क्या वास्तव में एक स्त्री का व्यक्तित्व सामाजिक तरंगों और हलचलों को एक पुरुष से हटकर गृहीत करता है, इस सपाट और प्रचलित कथ्य का वाकई यहाँ कोई औचित्य सिद्ध होता है? क्या वाकई पुरुष और स्त्री के संवेदनात्मक स्तर पर सामाजिक स्थितियों का प्रत्यक्ष असर पड़ता है या यह पूरी तरह से जैविक रूप से निर्लिप्त स्थिर आधार का कोई प्रश्न है ?
सिर्फ यही नहीं, इन दोनों डायरियों की अंतरंगता और अभिव्यक्ति की संरचना भी एक दूसरे से अलग है. तो क्या इस तरह की संरचनात्मक अभिव्यक्ति डायरी जैसी निजी लेखन का ही एक गुण है, जो दोनों ही व्यक्तियों की सार्वजनिकता और उनके सामाजिक अर्थ को बाईपास कर सकने में सक्षम रही है ? अगर इन प्रश्नों के उत्तर की तफतीश न करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश की जाए तो भी इस तरह के प्रश्नों से कभी-न-कभी सामना तो करना ही पड़ेगा कि क्यों गांधी की अंतरंगता और भीतरी कोनों को एक स्त्री ही उकेर पाई? क्यों उनकी डायरी में गांधी की आंतरिकता प्रबल आवेग और उतनी ही स्थिरता के साथ प्रतिबिंबित होती है ? यह भी मुमकिन है कि गांधी के प्रयोगों जैसा यह भी समाज और उसकी हलचलों को स्त्री और पुरुष की दृष्टि से समझने की उनकी कोई योजना रही हो.
2.
यूँ तो मनु की डायरी का पहला भाग पहले ही गुजराती से अंग्रेजी में अनूदित होकर कुछ साल पहले आ चुका था, लेकिन इस दूसरे हिस्से की गांधी को पढ़ने और समझने का प्रयास करने वालों के एक बड़े तबके को बेसब्री से प्रतीक्षा थी. इसका प्रमुख कारण इस दूसरे हिस्से की डायरी की अवधि में दर्ज गांधी द्वारा ब्रह्मचर्य के प्रयोगों का वह सिलसिला कहा जा सकता है, जिसमें मनु का नाम प्रमुखता से लिया जाता रहा है. यह पूरा आख्यान बहुत लम्बे समय से गांधी के स्त्रियों के साथ संबंधों को लेकर एक महत्वपूर्ण आधार की तरह रहा है. सच पूछें तो प्रस्तुत डायरी उन प्रयोगों या उस यज्ञ की मनु के द्वारा लिखी गयी दैनिक दस्तावेज से भरी एक प्राइमरी स्रोत का अहम् रूप हो सकती है. साथ ही मनु की ही नज़र से पहली बार यह डायरी गांधी के ब्रह्मचर्य के अर्थ को समझने की दृष्टि देती है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसी डायरी में गांधी के अंतिम दो सालों के प्रत्येक दिन के संशय और दिमागी उलझने उनके साथ बिल्कुल साये की तरह रहने वाली मनु द्वारा दर्ज किये गए हैं. वास्तव में यह डायरी गांधी की अंतिम यात्रा की बड़ा-सा रिपोतार्ज है, अहम् और संवेदनशील.
इस डायरी को गांधी के अलावा मनु के साथ-साथ दूसरी कई स्त्रियों के मनोविज्ञान को समझने की एक कुंजी के तौर पर भी देखा जा सकता है. इसमें मनु और आभा के बीच गांधी को बांटे जाने की टकराहट है, इसमें सुशीला नैयर (नायर) का गांधी के अपने से दूर होते जाने का विलाप और शोक है. इसमें मीरा का कस्तूरबा के प्रति रवैये का जिक्र है. इसमें मीरा की अंग्रेजियत और नफ़ासत के प्रति मनु की शिकायत है. इसमें इन सभी स्त्रियों व पुरुषों के आपसी रिश्ते भी हैं जहाँ गांधी के केंद्र में रहते हुए भी सभी व्यक्ति एक दूसरे के साथ संवेदनात्मक धरातल पर जुड़े हुए हैं.
स्पष्ट रूप से मनु की दृष्टि से देखी गयी अनेक स्त्रियों और पुरुषों (और इससे इतर भी) द्वारा अपनी बात यहाँ न रख पाने की अपूर्णता को अगर कुछ समय के लिए भूल जायें तो यह डायरी गांधी के संबंधों, विशेष रूप से स्त्रियों के साथ उनके संबंधों का एक गहरा मनोवैज्ञानिक आख्यान है.
इन डायरियों का महत्व और भी बढ़ जाता है जब इन डायरियों के मूल गुजराती से अंग्रेजी के अनुवादक और इनकी भूमिका लिखने वाले त्रिदीप सुहृद मनु की पहली क़िस्त की डायरी (1943-1944) और दूसरी क़िस्त की डायरी (19 दिसम्बर 1946 से 31 जनवरी 1948 ) के बीच के अंतर को बेहद बारीकी से स्पष्ट करके दिखाते है. वे लिखते हैं कि पहली क़िस्त की डायरी में मनु एक पंद्रह साल की छोटी उम्र की लड़की थी, जिसे गांधी के साथ अपनी किसी भी भूमिका के बारे में कोई निश्चयात्मकता नहीं थी. वे कहते हैं कि गांधी के लगातार मार्गदर्शन ने मनु की डायरी पर गहरा असर डाला. दूसरे क़िस्त की इन डायरियों में गांधी मनु के मार्गदर्शक से ज्यादा उसके एक साथी की तरह हो गए जो अपने यज्ञ की प्रक्रिया में मनु को एक अहम् गवाह के तौर पर देखने लगे थे 1 .
3.
पृष्ठ-दर-पृष्ठ इस डायरी की रीडिंग कुछ लोगों को अ-साधारण रूप से बोझिल और बेहद धीमी लग सकती है. इसका कारण इसमें मनु द्वारा दर्ज गांधी की दिन भर की ख़ुराक और लगभग उनके नहाने–मालिश करने से लेकर सोने तक का अरोचक और एक जैसा दैनिक कार्य कलाप का दर्ज होना माना जा सकता है. पर यह उदासी से भी भरी डायरी है, जिसमें आजाद होते भारत ने धीरे-धीरे कैसे अपने ही महात्मा को उपेक्षित करना शुरू कर दिया था, दर्ज किया गया है. यहाँ गांधी मनोवैज्ञानिक रूप से हताश हो चुके व्यक्ति के तौर पर दर्ज हैं और मनु इस हताश हुए व्यक्ति के द्वारा स्वयं को टटोलने को अपनी लेखनी में दर्ज करने की कोशिश कर रही हैं. इस हताश गांधी को कितने मनोवैज्ञानिकों ने अपना विषय बनाया है. कितनी ही बार दुःख और संताप में डूबे गांधी को आत्मपीडन की सभी सीमाएँ लाँघ जाने तक चित्रित किया जाता रहा है.
कुछ लोग इस हताशा को गांधी द्वारा उनके करीबियों के साथ रखकर एक असमंजस की स्थिति में चित्रित करने के लिए व्याकुल रहते हैं. उनके लिए ‘दिन के गांधी’ और ‘रात के गांधी’ जैसी शब्दावली गढ़ना कोई विशिष्ट नई बात नहीं है. इस तरह के लोगों के लिए यह डायरी या इसका अनूदित होना कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं है. इसके उलट सुधीर कक्कड़ एक गंभीर स्कॉलर की तरह सिर्फ गांधी के ही नहीं उनके साथ स्त्रियों के संबंधों के मनोविज्ञान का भी उत्खनन करते हैं. उनकी कई बातें और कई विचार गांधी के मस्तिष्क की कई परतों को आसानी से समझने और समझाने का प्रयास करती दिखती हैं. आप बेशक उनकी स्थापनाओं और कथ्य से सहमत-असहमत होते हुए गांधी के सन्दर्भ में कहे उनके सिद्धान्तों से भिन्न अपनी बात रख सकते हैं, या उसमें अपनी बात जोड़ सकते हैं. लेकिन आप उनके विश्लेषण को नजरंदाज नहीं कर सकते. सुधीर अगर आज जीवित होते तो यह तो तय है कि इस डायरी के प्रकाश में आने से वे गांधी को और बेहतर समझने की स्थिति में होते. बहरहाल, सुधीर कक्कड़ के मनोविश्लेषण का गहरा व बड़ा आधार माँ और उस ममत्व का माना जा सकता है जहाँ नायक या नायिका बचपन से अपनी माँ और उनके साथ अपने पिता के संबंध के आधार पर स्वयं के जीवन के सूत्र तलाशते हैं.
गांधी के साथ भी सुधीर इसी तरह उतरते हैं, जहाँ पुतलीबाई की अठारह साल की उम्र में चालीस साल उम्र पार उनके पिता के साथ चौथा विवाह हुआ था. सुधीर कहते हैं कि गांधी अपनी कम उम्र की माँ को बड़ी उम्र के पुरुष की शक्तिशाली कामना के सामने असहाय और क्षीण मानते रहे होंगे और गांधी ने इस तरह की हिंसा का प्रतिरोध आगे चलकर कुछ इस तरह के लेख लिखकर दिए जिनके शीर्षक रहे- ‘बूढ़े और जवान का विवाह या व्यभिचार’?2 हालांकि सुधीर ने जितने गहरे से गांधी की यौनिकता को उनके बीते इतिहास से जोड़ा है उसकी सीमा सिर्फ यहीं तक नहीं है.
सुधीर के अनुसार गांधी अपने वृद्ध होते पिता की हिंसा से अपनी माँ को जाने अनजाने बचाने के प्रयत्न पर ठीक-ठीक खरे साबित नहीं होते. यद्यपि गांधी पुरुषों की हिंसा का स्त्री के द्वारा अहिंसक यौनिक प्रतिरोध करते दिखते हैं लेकिन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गांधी के साथ उनके प्रयोग में उनसे कम उम्र की लडकियाँ ही रहीं. और जिस स्त्री के साथ गांधी ने अपने अंतिम यज्ञ को संभव करने की शुरुआत की थी उसकी उम्र गांधी की उम्र से करीबन पाँच दशक कम थी.
यद्यपि सुधीर कक्कड़ के पास इस तरह के विश्लेषण की लंबी परंपरा है और गांधी के संदर्भ में उनसे बेहतर मनोविश्लेषण विरले ही मिलेगा, तब भी मनु के साथ गांधी के ब्रह्मचर्य का व्रत आजमाना उनकी उम्र और हिंसा से सम्बंधित सुधीर के द्वारा दिए गए कथ्य को पुख्ता साबित नहीं करता.
सुधीर कक्कड़ कहते हैं कि यूँ तो गांधी अपने आहार, अपने शरीर के प्रति बेहद जागरूक रहते थे, जिसका प्रभाव जनता पर सीधे-सीधे पड़ता भी था, लेकिन जैसे ही गांधी हताशा का सामना करते वैसे ही उनकी ऐद्रिकता और आध्यात्मिकता का ताना बाना टूट-सा जाता जिससे उनकी यौन इच्छा सम्बन्धी पीड़ा उनपर हावी होने लगती थी. सुधीर के अनुसार सामाजिक राजनीतिक हताशाएँ गांधी को एक बार फिर उन्हें उसी पुराने शत्रु के खिलाफ संघर्ष में धकेल देती थीं जिसे हराने के लिए गांधी हमेशा अपने पराजयों की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति का हथियार इस्तेमाल करते थे. 3
गांधी के लिए इस तरह की यौनिक परिभाषाएँ बेहद सटीक फिट होतीं अगर गांधी की अपनी यौनिक अभिव्यक्तियों के साथ सम्बन्ध हताशा और राजनीतिक विफलताओं के अलावा कभी प्रकट नहीं होता. लेकिन जिस हताशा को सुधीर गांधी के लिए उनके दैहिक नैतिक असमंजस के जिन्न के रूप में अचानक प्रकट होने का स्रोत मानते हैं, वह मनु की डायरियों के अलावा भी, गांधी द्वारा लिखे गए कमोबेश सभी लेखन में प्रभावी रूप से सामने आता है. अगर ऐसा भी कहें कि यह गांधी के साथ हर स्थिति में चलने वाला बेहद श्रमसाध्य मानसिक अभ्यास है, तो ग़लत नहीं होगा. ध्यान से देखें तो शायद ही ऐसा कोई दिन जाता हो जब गांधी अपने भीतर के यौनिक विखंडन को महसूस नहीं करते दिखते. अपने आहार, विचार सभी में गांधी अपनी यौनिकता को लेकर बेहद सशंकित रहते थे. अपनी आत्मकथा के शुरुआती पन्नों में ही गांधी उपवास और देह दमन के सम्बन्ध के बारे में लिखने लगे थे .
“जिन दिनों मैंने दूध और अनाज छोड़कर फलाहार प्रयोग शुरू किया, उन्हीं दिनों संयम के हेतु से उपवास भी शुरू किये. … पहले मैं उपवास केवल आरोग्य की दृष्टि से करता था. एक मित्र की प्रेरणा से मैंने यह समझा कि देह-दमन के लिए उपवास की आवश्यकता है.4”
इस डायरी में भी मनु द्वारा दर्ज यह विखंडन सबसे पुख्ता कथ्य साबित होता है जहाँ मनु खुद को इसमें गांधी के साथ भागीदारी निभाने वाली बराबर की साथी मानती हैं.
“बापू मुझे किस दिशा में ले जा रहे हैं? क्या मैं उनकी आकांक्षाओं को पूरा कर पाऊँगी? मैं अपने भीतर इस तरह की क्षमता को नहीं के बराबर पाती हूँ. मैं भगवान से उन सभी कार्यों को पूर्ण करने की ताकत माँगती हूँ जिन्हें बापू ने मेरे लिए सोचा हुआ है. मुझे और कुछ नहीं चाहिए .”5
”मैंने उन्हें (गांधी) अपना संकल्प बताया कि जब तक मैं उनके साथ हूँ, चाहे वह कहीं भी जाएँ, मैं किसी भी तरह की परीक्षा या अपने ऊपर लगायी गयी स्थिति के लिए तैयार रहूंगी“. 6
यद्यपि सुधीर के प्रस्तुत तर्क मनु की डायरी के प्रकाश में अगर और विस्तार की माँग रहे हो तो भी उनके गांधी को लेकर एक तर्क ने गांधी की माँ रूपेण सम्भावना की बेहद सावधानी से विवेचना की है. उन्होंने गांधी द्वारा स्वयं को स्त्री के रूप में चित्रित करने के प्रयासों का ही नहीं बल्कि साथ में स्वयं गांधी का स्त्री के सबसे ऊंचे पायदान पर स्थित माँ को अपने व्यक्तित्व में भी एकमेव करने के प्रयासों और उनकी सफलताओं विफलताओं पर गंभीर बातें रखीं हैं. यह सही भी है कि गांधी माँ और स्त्री के रूपक में खुद को ढालने के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहे. इस पूरी डायरी में जब भी गांधी को ऐसे लगने लगता था कि मनु को गांधी के साथ के संबंधों को लेकर, या किसी भी बात को लेकर संशय उभरता तो वे मनु के साथ उसकी माँ बनकर ही बात करते थे. इस डायरी में बार-बार गांधी सबके लिए बापू लेकिन मनु के लिए माँ बनने की बात करते रहे.
4.
सच कहें तो आप इस डायरी के साथ एक रोलर कोस्टर की सवारी कर रहे होते हैं. संवेदना और ज्ञान का घर्षण जो यहाँ है ही, गांधी को आजमाने, उन्हें समझने और परखने के लिए ऊपर नीचे यहाँ इतनी कलाबाजियाँ हैं कि उनसे निकले हुए निष्कर्ष ज्यादातर गांधी की यौनिकता को लेकर पॉपुलर स्फीयर में लिखे और रचे-बसे सरलतम और अनर्थ निष्कर्षों के साथ एक हो उठते हैं. इन सरलीकृत प्रचारकों को एक ओर रखते हुए उस घर्षण से पैदा होती संवेदनाओं और दृष्टि का मूल्याङ्कन जरूरी है.
मनु को गांधी द्वारा दी गयी नैतिक जिम्मेदारी और गांधी की अपने यज्ञ में उसकी भागीदारी, किस तरह उस पर मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव बनाये हुए थी, यह इस डायरी से निकलता सबसे बड़ा संवेदनाओं का ज्वार है. यही ज्वार पाठक को संवेदनाओं के सबसे तरल धरातल पर गोते लगाने के लिए विवश करता है. इसके अलावा मनु का पूरी डायरी में इस बात को लेकर हमेशा चिंता में रहना कि गांधी के सहयोगी उसके बारे में क्या सोचते हैं और उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, असुरक्षा की हद तक पाठक की संवेदनाओं को गांधी से ज्यादा मनु के करीब करता चलता है. करुणा और अनुभूति का बड़ा-सा तूफान गांधी से छिटककर मनु के मन और मस्तिष्क के उफानो में जा मिलता है. हर बदलते पृष्ठों पर यह डर बढ़ने लगता है कि अब मनु क्या लिख देंगी ? अब गांधी क्या माँग बैठेंगे? यह एक ऐसा द्वंद्व है जो कभी किसी भी डायरी में शायद ही किसी ने महसूस किया हो.
आप गांधी के पक्ष में चाहे मस्तिष्क को कितना भी मोड़ लें, लेकिन आपका मन मनु से दूर जाने के लिए नहीं मानेगा. आपका बौद्धिक तर्क गांधी के साथ हो सकता है, क्योंकि आप गांधी को समझने के क्रम में उनकी भीतरी तहों के कोनों का अनुसंधान करते आ रहे हैं, लेकिन आपकी खुद की संवेदनाएँ मनु, आभा या सुशीला के साथ एक दूसरी ही दुनिया में जाने को बेचैन रहती हैं. इसके छोटे-बड़े कारणों में से कई ऐसे हैं जिनकी गुत्थी बेहद उलझी हुई है. उदाहरण के लिए. इसी डायरी में आप हर दिन, हर पृष्ठ पर गांधी की ख़ुराक, उनका रहन सहन मनु के द्वारा अंकित होते हुए देखते रहते हैं, पर कहीं पर भी मनु अपने खाने पीने पर कोई कलम नहीं चलाती दिखती है. मनु का स्वयं को इतना गैर जरूरी मान कर चलना कि स्वयं का होना भी उन्हें गांधी के अपने यज्ञ और आस्था के प्रति समर्पण से ज्यादा का नहीं लगता.
इसी तरह डायरी जो लेखनी के सबसे अंतरतम क्षणों की साक्षी है वहाँ भी मनु के लिए गांधी को केंद्र में रखकर ही एक दुनिया की रचना हुई और उन्हीं की मृत्यु पर जाकर खत्म हो गयी है. आपका दिमाग आपसे प्रश्न पूछता रहता है कि जिस भारतीय समाज में 1809 में जन्मी रससुंदरी देवी को सिर्फ पढ़ने और लिखने के लिए इतना कड़ा संघर्ष करना पड़ा हो तब सौ साल का यह समय एक कदम आगे बढ़ सार्वजनिक जीवन में आई मनु के खुद के जीवन में क्या प्रगति लाया होगा? वह घर की दीवारें लाँघ कर तो आ गयीं, लेकिन पौरुष का फौलाद उनके चारों ओर की सार्वजनिकता का ईंट गारा ही रहा. पूरी डायरी में आप इन विरोधाभासों से गुजरते, गिरते पड़ते आगे बढ़ते रहते हैं. कितनी विडंबना है कि गांधी के आह्वान पर जो स्त्रियाँ अपने घरों को छोड़कर उस राजनीतिक माहौल में उतर आयी थीं, वास्तव में उनके जीवन की केंद्र में कोई-न-कोई पुरुष ही रहा. धीरे-धीरे आपको लगने लगता है कि सार्वजनिकता का सिर्फ भौगोलिक परिवर्तन मनु या उस जैसी स्त्रियों के जीवन में जो भी बदलाव कर सका इससे उनकी मानसिक बुनावट को समझना बेहद मुश्किल कार्य है.
इस पूरे पाठ की विडंबना यह है कि आप जानते हैं कि यह पाठ किन्हीं काल्पनिक पात्रों का नहीं बल्कि जीते जागते लोगों का हैं, जिनका राजनीतिक व सामाजिक इतिहास हमें पहले से ही पता है. आप जानते हैं कि मनु गांधी के साथ उनके अंतिम दिन तक रहीं और कितनी ही बार उन्होंने गांधी को माँ का दर्जा दिया. आप इतिहास से परिचित होते हैं. आप जानते हैं कि गांधी के साथ रहने वाली किसी भी स्त्री ने उनके ऊपर कभी कोई आपत्ति नहीं जताई. उस सबके बावजूद भी इस डायरी का एक-एक पन्ना आपको मनु को लेकर सशंकित बनाये रखता है. यहाँ पढ़ने वाले की संवेदना और उनका निजी झुकाव मनु के साथ ही बने रहने को विवश है. यह स्वाभाविक और क्षम्य है.
अब प्रश्न यह पूछा जा सकता है कि कैसे यह मान लिया गया कि मनु के प्रति कोई भी झुकाव गांधी-विरोध की धारा में नहीं जा मिलता है? जब भी गांधी के ब्रह्मचर्य पर सवाल उठाया जाता है स्वतः ही उस स्त्री या उन स्त्रियों की बायनरी में इस प्रश्न के शिनाख्त की कोशिश की जाती है. इस बायनरी की प्रक्रिया एक को कटघरे में रख दूसरे को बरी करने जैसी है. पर इस तरह का मूल्याङ्कन समतल मार्ग पर चलने की इच्छा लिए मानवीय यथार्थ और उसके द्वंद्व से खुद को कितना ही बचा ले, विरोधाभासों और मानवीय उलझनों से पटा गाँधी के जीवन का ऐतिहासिक यथार्थ उसे हर बार मुश्किल स्थिति में डालने को अभिशप्त है.

5.
इस विरोधाभास के मूल में क्या है ?
किसी भी काल और खंड में किसी भी विचार को समझने के तत्व उस विचार के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही संभव होते हैं. लेकिन सभ्यता की लंबी और धीमी प्रक्रिया और उससे जुड़ी सामाजिक रूपांतरण की कोई भी शैली एक लंबे क्रम में ही बदलाव में आती है.
नैतिकता भी कुछ इसी प्रकार के एक लंबे विकास का विश्लेषण है. इसीलिए गांधी के द्वारा किया गया कोई भी कार्य जैसे ही यौनिकता और नैतिकता के साथ जुड़ता हुआ प्रतीत होता है वैसे ही वहाँ संवेदनाओं का प्रभाव किसी भी दूसरे भावों के ऊपर आ जाता है. यह संवेदनाएँ कोई एब्सोल्यूट वातावरण में नहीं पैदा होती हैं, इनके पीछे लंबी ज्ञान परंपराओं के साथ-साथ अनुभूति का लंबा इतिहास है. यहाँ तक कि जिस समय और स्पेस में नैतिकता और यौनिकता का यह जो पाठ घटित होता है, उसमें भी लेखक और पाठक के बीच ट्रांसडक्टेंट (transductant) का विभाजन हमेशा ही इस पूरे पाठ को जटिल बनाता रहता है.
बहुत बार सिर्फ इस डायरी में ही नहीं अन्य जगह भी गांधी के जीवन में ऐसे प्रसंग आते हैं जब वे समाज की स्वीकार्य नैतिकता से स्वयं को अलगा कर कुछ ऐसा लिखते और करते हैं जो कई बार तो साफ़ तौर पर दिखाई दे जाता है तो कई बार उसे देखने के लिए थोड़ा गांधी के भीतर या कहें और गहरे में उतरने की कोशिश करनी पड़ती है.
गांधी के आखिरी सालों के जो प्रसंग इस डायरी में लिखित हैं, उनमें गांधी सीधे तौर पर तथाकथित सामाजिक नैतिकता पर प्रश्न लगाते दिखते हैं.
उदाहरण के तौर पर आभा गांधी जिनके पति कानु को इस तरह के प्रयोगों से आपत्ति थी. .उसपर गांधी कहते हैं कि- “अगर मेरी बात मानी जाए तो मैं उससे कहूंगा कि तुम कानु को लिख दो कि तुम्हारी आपत्ति के कारण मैं बापू के पास नहीं सोऊंगी लेकिन इस पर मेरे विचार नहीं बदले हैं.“
मनु के इस बारे में यह कहने पर कि यह लिखने पर उन दोनों पति पत्नी के बीच बेवजह झगड़े की नौबत आ जाएगी, गांधी कहते हैं- “अगर ऐसा होता है तो होने दो. कल ही मैंने एक पत्नी की जिम्मेदारी के बारे में बात की थी. अगर वह अपने चुने हुए रास्ते पर नहीं चल सकती तो महिलाओं को और अधिक दबाया जाएगा.‘’ 7
अब इस तरह की नैतिकता को किसी भी एक तह में नहीं सुलझाया जा सकता है. गांधी एक ओर तो स्त्री को अपने वैवाहिक जीवन में आज़ादी देने की बात कर रहे है लेकिन दूसरी ही तह में अपने यज्ञ और प्रयोगों की खोज में यह नहीं समझना चाह रहे कि जिस सत्य और अहिंसा की ताप में वह जलने निकल पड़े हैं क्या सामने वाला मनुष्य भी उसी ताप को अपने भीतर वैसे ही पाता होगा या इसके उलट उसका कोई भी अनुगमन गांधी की विराट महात्मा की छवि के दबाव का परिणाम है.
उसी तरह एक दूसरे उदाहरण में इस डायरी से नहीं बल्कि गांधी की आत्मकथा के उस हिस्से की बात की जा सकती है जहाँ वे अपने पिता की मृत्यु के अंतिम क्षणों की बात कर रहे होते हैं. जब वे अपने चाचा की आज्ञा को मान अपने बीमार पिता के पास से उठकर अपने शयन कक्ष में सोने के लिए जाने की बात करते हैं.
“चाचा जी ने मुझसे कहा: “जा. अब मैं बैठूंगा.”
मैं खुश हुआ और सीधा शयन गृह में पहुंचा.
पत्नी तो बेचारी गहरी नींद में थी.
पर मैं सोने कैसे देता?
मैंने उसे जगाया.
पाँच सात मिनट बीते होंगे इतने में जिस नौकर की मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूँ उसने आकर किवाड़ खटखटाया. मुझे धक्का-सा लगा मैं चौका.
नौकर ने कहा- ”उठो, बापू बहुत बीमार हैं.”
“कह तो ! सही बात क्या है ?”
जवाब मिला, ”बापू गुजर गए.”
मेरा पछताना किस काम आता? मैं बहुत शरमाया. बहुत दुखी हुआ.
अपनी इस दोहरी शर्म की चर्चा समाप्त करने से पहले मैं यह भी बता दूं कि पत्नी ने जो बालक जन्मा वह दो चार दिन जीकर चला गया. कोई दूसरा परिणाम हो भी क्या सकता था?8
इस वाकये का जाने कितनी बार गांधी को पढ़ने और उन पर लिखने वाले अपने-अपने तर्कों से मतलब निकालते रहे हैं. सभी का अपना-अपना तर्क हो सकता है, लेकिन यहाँ दो विपरीत तर्कों से सामाजिक और वैयक्तिक नैतिकता पर अपनी बात रखी जा सकती है.
पहली तो ये कि जब कभी भी गांधी अपने वैवाहिक क्षणों की कोई भी बात लिखते हैं तो वह तथाकथित सामाजिक नैतिकता को सवालिया नज़र से देखने की कोशिश करते हैं, कि कैसे एक बापू कहलाए जाने वाला व्यक्ति अपने शयन गृह की बातें जनता को लिख-लिख कर बता रहा होता है.
जिस समाज में व्यक्ति के सामाजिक सरोकार उसके घर के यौनिक व्यवहार और इच्छाओं से बिल्कुल भिन्न रखे जाते हैं, उसी समाज में बापू यानी गांधी अपनी यौनिक अभिव्यक्तियों को सामाजिक मंच तक ले आते हैं. वे एक बार नहीं कई-कई बार अपनी यौन इन्द्रियों की कमजोरियों की सार्वजनिक आत्मस्वीकृति करते हैं. यह उदाहरण ऐसे अनेक उदाहरणों में से सिर्फ एक भर है जिसमें गांधी नैतिकता के सामाजिक और वैयक्तिक द्वैत को चुनौती देते दिखते हैं.
लेकिन यहीं इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो एक ऐसी कठोरता की तरफ इशारा करता है जिसे एक बार नहीं, कई बार गांधी अपने जीवन से और अपने सहभागियों के साथ जुड़ते हुए प्रसंगों में प्रकट करते हैं. सोच कर देखें जब गांधी की यह आत्मकथा धीरे-धीरे प्रकाशित हुई होगी तब उस स्त्री के मन के अंतर्द्वंद्व की क्या स्थिति रही होगी जिनका गांधी के तथाकथित विषयांध में सहभागिता के रूप में सहयोग रहा था.
ऐसे में कस्तूरबा को चाहे गांधी बेचारी स्त्री के रूप में कितनी भी बार बेगुनाह साबित करते आये हों, जो पुरुष की विषय वासना के कारण चुप हो जाती रही हो लेकिन जब इसी स्त्री के शयन गृह से जुड़ी हुई कोई भी बात सामाजिक परिवेश में आती होगी तब क्या कस्तूरबा बिलकुल वैसे ही सहज रह पाती होंगी जैसे कि गांधी अपने सत्य के प्रयोगों की आत्मस्वीकृतियों की लम्बी फेहरिस्त में अनेक ऐसे प्रसंग जोड़ते-जोड़ते उसके भार से मुक्त होते जाते होंगे. क्या बा गांधी के द्वारा अपने अंतरंग क्षणों को इस तरह सार्वजनिक रूप से याद किए जाने से उनकी ही तरह कभी मुक्त हो पाई होंगी? क्या मनु की मनःस्थिति यहाँ कस्तूरबा जैसी नहीं लग रही? गाँधी के यज्ञ में उनकी पार्टनर बनने वाली मनु क्या गांधी के दूसरे सहयोगियों के सामने सहज महसूस कर पाती होंगी ?
ध्यान यह भी रखना होगा कि सामाजिक स्वीकृति की गाँधी को कोई चिंता नहीं थी लेकिन कस्तूरबा या मनु को तो सामाजिक स्वीकृति सिर्फ गांधी के लिए नहीं स्वयं के अस्तित्व के लिए भी चाहिए थी. विडंबना यह रही कि उनके पास तो इन आत्म-स्वीकृतियों का आत्म ही सामाजिक और वैयक्तिक नैतिकता के द्वैत के धुंधले बादलों में छुपा रहा. ऐसे में क्या सामाजिक व्यवहार में पुरुष और स्त्री के बीच के आरोपित अंतर से उस प्रवृत्ति पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता है जो किसी पुरुष को वैयक्तिक और सामाजिक नैतिकता के द्वैत को व्यक्त करने में ज्यादा आसानी और ज्यादा संभावना देता है. क्या एक पुरुष के लिए कोई भी नैतिक प्रश्न स्त्री की अपेक्षा ज्यादा आसान और सुरक्षित नहीं? क्या कोई स्त्री भारत की गरीबी से द्रवित सत्य के प्रयोगों की राह में अपने शरीर के कपड़ों की लम्बाई गांधी के ही समान कम कर सकती थी? क्या समाज उस तरह रहती हुई स्त्री को आश्रम में रहकर अन्य लोगों को उसका अनुगमन करने की मानसिक स्वीकृति दे सकता था ? क्या गांधी के बजाये या गांधी का अनुसरण करती हुई कोई भी स्त्री अपने ब्रह्मचर्य के ताप को साधने के लिए तात्कालिक भारत के राजनीतिक वातावरण में वे सभी यज्ञ और प्रयोग करने के लिए मुक्त हो सकती थी जितनी आज़ादी से गांधी अपनी बात समाज तक पहुंचा सके? यह इस तथाकथित बाइनरी का सिर्फ एक हिस्सा है जो ज्यादा प्रकट ज्यादा साफ़ दिखाई दे पाता है.
दूसरी बात यह है कि (यह बाइनरी का छोर नहीं, दूसरा विचार है) गांधी एक मॉडलनुमा खोज में जीवन भर प्रयत्नरत रहे. गांधी का यह प्रयत्न इतना सूक्ष्म, इतना बारीक़ होता हुआ भी उन तक पहुंचने की इच्छा करने वाले हर व्यक्ति को अपने ताप से मुक्त होने नहीं दे सकता था. इस मुश्किल राह में जिस तरह गांधी को धीरे-धीरे अपने आत्मिक राग की अनुभूति हुई होगी उसी तरह गांधी को समझने की चाह रखने वाले गांधी की राह में आने वाले हर विरोधाभासों और मुश्किलों में ही उस राग की हल्की-हल्की ध्वनि सुनाई पडती होगी. वे जानते हैं कि गांधी और महात्मा का कोई अस्तित्व नहीं अगर उनकी चेतना में विरोधाभास और मुश्किलों के लिए कोई स्पेस नहीं. तब उनके लिए महात्मा हो या गांधी यह महत्वपूर्ण नहीं रहता. जो सबसे जरूरी रह जाता है वह है उनका जिया हर दिन हर क्षण का वजूद. यह डायरी अंततः इसी वजूद के अंतिम वर्षों में किसी भी तरह के ज्ञान-विवेक और सुचिताओ को तोड़ती मरोड़ती कभी नैतिकता को उसके सामाजिक पदानुक्रम में सीमित तो कभी उन्हीं के द्वारा किसी मॉडल की रचना में लगे प्रयोगों की सांच में उसे दम तोड़ते दिखाती रही है.
यह कोई गांधी को बचाने का प्रयास नहीं न ही यह गांधी के वृहत व्यक्तित्व से पैदा हुआ कोई दबाव है. यह तो दरअसल गांधी के समग्र मूल्यांकन की माँग करता हुआ उनके द्वारा बिताया जिया हर एक क्षण, हर एक पहर का वास्ता है जिसमें मनुष्य के अन्दर मौजूद विशिष्टबोध और वैशिष्ट्य की अवधारणा का पूर्ण रूप से त्याग कर साधारणता में घुल जाने की कोशिश दिखाई देती है. वह जो हर एक मनुष्य के साथ एकात्म हो सके.
गाँधी अनवरत यह दिखाते आये कि साधारणता की यह खोज हर उस हाड़ माँस के व्यक्ति द्वारा संभव हो सकती है जो इस दुनिया में रहता आया है. उस साधारण के लिए चाहे कोई सीधा रास्ता न हो, चाहे उसके लिए उसे कितने वैचारिक मतभेद का सामना करना पड़े, पर वो प्रत्येक मनुष्य के भीतर स्वयं के आत्म को पहचानने की ताकत दे सकता है .
इस डायरी को पढ़ते हुए आप गांधी और महात्मा के परस्पर वैचारिक संबंधों से दो चार होते रहेंगे और ऐसा कभी नहीं मानना चाहिए कि यह द्वैत और द्वंद्व उस समय गांधी के साथ रह रहे लोगों ने नहीं महसूस किया होगा. इस महसूस होते रहने की हदें सभी के लिए अलग-अलग होनी बिल्कुल स्वाभाविक हैं लेकिन स्वयं मनु जो गांधी की विराट महात्म्य छवि से कभी भी खुद को मुक्त नहीं कर पाई अगर वह भी गांधी से प्रश्न पूछ न पाए जाने की ऊष्मा से खुद को बेचैन पा रही थीं तो संभव है कि वह सिर्फ अकेली ही नहीं हैं.
“आज की डायरी मैं करीबन चार पाँच दिनों के बाद लिख रही हूँ. बीते कुछ दिनों से डायरी लिखने का मन ही नहीं हुआ. मैं बहुत दुखी रही. कभी-कभी मुझे सब कुछ छोड़ कर जंगल में भगवान ढूंढने का मन करता है. वह कहाँ है? मुझे समझ नहीं आता कि क्यों भगवान मुझे ऐसा सोचने के लिए विवश करते हैं. मुझे तो बापू जी तक के साथ रहने का मन नहीं कर रहा, और इन्हीं कारणों से मैंने डायरी भी नहीं लिखी.”9
ध्यान से देखने पर मनु का कुछ दिनों के लिए डायरी का न लिखना एक अप्रत्यक्ष प्रतिरोध का ही रूप है, जो उन्होंने गांधी से ही सीखा. गांधी हमेशा अपने साथ के लोगों को डायरी लिखने के लिए बोलते दिखते हैं और इस तरह उनकी बात की अवमानना करके मनु उन्हीं के द्वारा सिखाए गए अस्त्रों का अपने जीवन में प्रयोग करती दिखती हैं.
इस तरह गांधी अपने उस उद्देश्य के बहुत करीब दिखाई देते हैं, जिसे लेकर वह पूरे जीवन भर मनोवैज्ञानिक तौर पर उधेड़बुन में लगे रहे. यही गांधी और उनके महात्म्य को जोड़ती क्रिया का सही आकलन हैं, क्योंकि गांधी पूरी जिंदगी इन दो ध्रुवों के बीच की दूरी को पाटने की यथासंभव कोशिशें करते रहे. यह पाटना सामाजिक आत्मस्वीकृति से उनके लिए आसान होता रहा, जिसमें उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि उनका अंत गांधी या महात्मा की किस धुरी के समीप होगा. शायद यह सार्वजनिक आत्मस्वीकृति ही बार-बार स्वयं के भीतर जाते गांधी को हर दूसरे व्यक्ति के साथ जोड़ने में सक्षम रही और उन्हें चेताती रही कि उनका कोई भी आगे बढ़ा हुआ कदम दूर बैठे अंतिम ही सही, किसी एक व्यक्ति के अनुसरण का हो सकता है. यही गांधी की ताकत भी है, वरना सोच कर देखें जब जीवन की आखिरी बेला में गांधी पूरी दुनिया से स्वयं को काटकर एकांत के एक कोने में जाने का मन बना रहे थे तब भी वे श्री परशुराम नाम के टाइपराइटर को अपने साथ ले जाने को इच्छुक थे. अपने सबसे ज्यादा मानसिक कष्ट में भी वे सार्वजनिक आत्मस्वीकृति को ही अपनी चेतना का सबसे जरूरी हिस्सा मानते हैं .
एक और बात जो इस डायरी में शायद सबसे गैर जरूरी लगती है. गांधी की ख़ुराक और उनकी दैनिक गतिविधि का दस्तावेज है. पर असल में वे गांधी की अपने स्वयं पर पहुँचने की यात्रा का ही जरूरी पड़ाव है. अगर इन ऊब से भरी उनकी ख़ुराक और दैनिक कार्यशैली पर ध्यान दें तो पाएंगे जो कि एक सतत क्रिया का प्रमुख मन्त्र है. जो जीवन भर अपने “खुद” पर वापिस लौटने का गांधी के लोभ का हिस्सा है. यह लौटना सिर्फ शरीर को उसके सबसे मूल रूप में लौटा लाना ही नहीं है जहाँ भोजन और जल बाहरी पदार्थ के समान शरीर की सेवा कर रहे होते हैं. गांधी बाहरी हर खुराक का अतिक्रमण कर खुद को उसकी इच्छा की पीड़ा से ऊपर ले जाना चाहते रहे थे. यह ग़ुलाम भारत की सामाजिकता का आध्यात्मीकरण नहीं, उससे डटकर मुकाबला करना है. इस पीड़ा को सहने का दंभ और उसकी ताकत उन्होंने वर्षों के तप से पायी है. वह जान रहे थे कि अगर एक व्यक्ति भी इस तप और पीड़ा से बाहर निकल पाया तो वह पूरे संसार को अपने व्यक्तित्व और उसकी ऊष्मा से प्रकाशमय कर सकता है. गांधी बिल्कुल उसी मॉडल की खोज में जुटे थे.
उनका अपने ऊपर किया गया कोई भी प्रयोग इसी बात की नुमाइंदगी करता है. लेकिन आत्म प्रताड़ना का कोई मतलब नहीं रह जाता अगर उसका कोई सामाजिक रूपांतरण संभव न हो सके. उसके लिए गांधी अपने को तैयार करते रहे, उनकी रोज की खुराक, शरीर की देखभाल इसका एक गहरा प्रकार है. वह जानते थे कि इस शरीर को एक दिन मिट्टी में ही मिलना है लेकिन उससे पहले उस शरीर के ही साथ वह संसार और अपनी आस्था के प्रति सत्य और अहिंसा की धुरी पर स्थित अपने को अस्तित्वहीन देखना चाहते थे. यह शून्य की तलाश थी. गांधी का बार-बार खुद को शून्य में बदलने की कोशिश और उसके प्रति अबाध प्रेम उसी मॉडल की तलाश को पूरा कर लेना था, जो हर व्यक्ति के साथ एकात्म हो सके, जिसे कोई भी अपने से अलग न माने. जो शून्य की तरह भारहीन हो. जिसकी अपनी कोई सत्ता या ताकत नहीं हो, वह रहे तो सिर्फ दूसरे के भीतर बिना किसी अतिरिक्त भार के अपने जीवन भर की ऊष्मा के साथ. आत्मसात होकर. अविभाजित और उसमें मिलकर.
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सन्दर्भ सूची
1. मनु गांधी, द डायरी ऑफ़ मनु गांधी 1946-1948, एडिटेड एँड ट्रांसलेट्द: त्रिदीप सुहृद ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली 2024. पृष्ठ xvii
2. सुधीर कक्कड़, अंतरंगता का स्वप्न, अनुवाद : अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली, 2007. पृष्ठ १९
3. वही, पृष्ठ १६२
4. एम. के. गांधी, सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, अनुवाद : काशिनाथ त्रिवेदी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद १९५७. पृष्ठ ३०२
5. मनु गांधी, द डायरी ऑफ़ मनु गांधी 1946-1948,एडिटेड एँड ट्रांसलेट्द: त्रिदीप सुहृद ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,नई दिल्ली 2024. पृष्ठ 45
6. वही पृष्ठ 12
7. वही पृष्ठ 524
8. एम.के. गांधी, सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, अनुवाद : काशिनाथ त्रिवेदी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद १९५७. पृष्ठ २७
9. मनु गांधी, द डायरी ऑफ़ मनु गांधी 1946-1948,एडिटेड एँड ट्रांसलेट्द : त्रिदीप सुहृद सुहृद ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,नई दिल्ली 2024. पृष्ठ 491.
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इस
डायरी के आत्मीय पाठ के जरिए रूबल जी ने गांधी जी और डायरी लेखिका मनु की मनः स्थिति के बारे में ही नहीं बल्कि अपनी वृहत्तर व्याख्या से उनके केंद्रीय मर्म की तरफ भी इशारा किया है। कह सकते हैं कि यह एक तरह से हरि कथा है :अनंत । सुधीर कक्कड़ के मनोविश्लेषण से निश्चय ही प्रकरण में कुछ मदद मिलती हो लेकिन फैसला तो फिर भी नहीं हो पाता/सकता और यही शायद गांधी नामक पहेली का मूल मंत्र है ।
एक शानदार सुचिंतित आलेख के लिए समालोचन और रूबल जी को बधाई।
प्रिय रूबल
आपने मनुबेन की डायरी पर बातचीत के मद्देनजर गांधी जी के व्यक्तित्व से जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलूओं की तरफ हमारा ध्यान खींचा है । सबसे पहले मनुबेन के विचारों और गांधी से कई बिन्दुओं पर असहमति को नए तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई …. गांधी के यौनिकता संबंधी प्रयोग हमेशा से ही उनके आलोचकों के लिए पसंदीदा और कम्फ़र्ट जोन वाले विषय रहे हैं । स्त्रीवादी चिंतन परंपरा ने भी गांधी के इन प्रयोगों की यह कह कर आलोचना की है कि यह जाने बिना कि उस प्रयोग में सहभागी बनी स्त्रियाँ गांधी के साथ कितनी सहज थीं , क्या उनकी सहमति थी, क्या उनसे पूछकर गांधी जी ने कस्तूरबा और आँय स्त्रियॉं के साथ अपने सम्बन्धों पर तफ़्सील से लिखा ? क्या गांधी जी के लिए अपनी स्त्री अनुयायियों के वैचारिक पक्ष का कोई महत्व था या वे स्वयं को उनमें और उनकी दिनचर्या में उसी तरह विलीन कर लिया करती थीं , जैसे मनुबेन ने किया था । मनुबेन की डायरी और उसमें दर्ज़ उनके मनोभाव , कुछ नहीं कहकर भी बहुत कुछ कह जाते हैं …. आपने सबसे पहले इसपर अपनी बात रखी… अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से गांधी के सत्य तक पहुँचने का प्रयास किया …. अब इस डायरी के हवाले से कई व्याख्याओं की प्रतीक्षा है … आपको पुनः बधाई ।
बहुत ही सुंदर , तार्किक और प्रमाणिक आलेख ।