| पीएच.डी. की दुनिया भारत बनाम अमेरिका रविन्द्र कुमार |
मैं और मेरी पीएच.डी.
अभी दिन के तीन बजे हैं और मैं अपने विभाग में बैठा हूँ. काम पर ध्यान देने के बजाय दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा है. थोड़ी भूमिका बता दूँ: मैं अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. कर रहा हूँ, भारत की भाषा में कहें तो रिसर्च स्कॉलर, मगर यहाँ की भाषा में पीएच.डी. कैंडिडेट कहलाता हूँ.
अमेरिका में पीएच.डी. वाले भी बाकायदा स्टूडेंट ही माने जाते हैं, जैसे अंडरग्रैजुएट बच्चे माने जाते हैं. जब कोई यहाँ पीएच.डी. में दाखिला लेता है तो उसे पीएच.डी. स्टूडेंट कहा जाता है. पहले दो-तीन साल कोर्सवर्क करना पड़ता है, फिर एक कैंडिडेसी परीक्षा पास करनी होती है, जो अपने-आप में एक भारी-भरकम अग्निपरीक्षा है.
मेरी यूनिवर्सिटी में पात्रता के लिए तीन अलग-अलग फ़ील्ड में आपकी परीक्षा होती है. पहला, आपका मेजर शोध क्षेत्र; दूसरा, एक टीचिंग (शिक्षण) क्षेत्र; और तीसरा, एक माइनर शोध क्षेत्र.
उदाहरण के लिए, अगर मैं अमेरिका में किसी पर्यावरणीय मुद्दे पर शोध कर रहा हूँ तो वह मेरा मुख्य शोध-क्षेत्र हुआ. इसके साथ मुझे एक टीचिंग क्षेत्र चुनना होता है जिसमें आगे चलकर मैं ग्रैजुएट लेवल (यहाँ ग्रैजुएट मतलब एम.ए./ पीएच.डी. स्तर) का सेमिनार कोर्स पढ़ा सकूँ.
एक माइनर क्षेत्र भी चुनना पड़ता है जो मेरे अपने भौगोलिक शोध क्षेत्र से अलग हो. मसलन, अगर मैं आधुनिक दक्षिण एशिया का इतिहास पढ़ रहा हूँ तो मेरी मुख्य फ़ील्ड मॉडर्न साउथ एशिया हुई; टीचिंग फ़ील्ड हो सकती है कॉलोनियल मेडिसिन, वर्ल्ड हिस्ट्री या इंडिजीनस स्टडीज़; और माइनर फ़ील्ड हो सकती है, सांस्कृतिक नृविज्ञान (कल्चरल एंथ्रोपोलॉजी) या विश्व साहित्य का कोई हिस्सा, आदि.
इन तीनों क्षेत्रों की तैयारी के लिए विभाग के तीन प्रोफ़ेसर मेरी मार्गदर्शन कमेटी में हैं. वे मुझे हर फ़ील्ड की एक कोर रीडिंग लिस्ट पकड़ा देते हैं. अंत तक पहुँचते-पहुँचते कुल मिलाकर, 250–300 किताबें और शोध-पत्र पढ़ने होते हैं. सारे पढ़ डालो, उनके मुख्य तर्क समझो, उनके स्रोत और मेथड जानो, और उन पर अपने आलोचनात्मक नोट्स बनाओ. फिर एक दिन कमेटी बैठती है और फ़रमान होता है– “आओ भइया, पिछले तीन साल में जो कुछ पढ़ा है, इस बंद कमरे में तीन घंटे में हमें सुना दो.”
सामने ऐसे दिग्गज प्रोफ़ेसर बैठे होते हैं जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी उन पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ाते बिताई है. फिर सवाल दागे जाते हैं: “बताओ, बर्नार्ड एस. कोहन क्या कह रहे थे उपनिवेशकालीन भारत पर?”, वगैरह-वगैरह.
तीन घंटे तक पसीना बहाने के बाद उसी दिन या बाद में एक तीन घंटे का वाइवा या लिखित परीक्षा होती है.
इसके बाद कमेटी आपको पास या फेल करती है. बहुत लोग फेल भी होते हैं. मेरी एक दोस्त पिछले साल फेल हो गई थी. फेल होने पर एक और मौक़ा मिलता है; फिर भी न पास हुए तो घर जाइए. कमेटी दो टूक कह देती है –
“आप अपनी शोध को लेकर गंभीर नहीं हैं. दो-तीन साल में आपने इतना भी नहीं सीखा कि आपको ऐडवांसमेंट के लिए रिकमेंड किया जा सके.” और अगर आप पास हो गए, तो कमेटी आपका नाम एडवांसमेंट के लिए भेजती है और आप कहलाते हैं एडवांस्ड स्टूडेंट या पीएच.डी. कैंडिडेट, क्योंकि आपने कैंडिडेसी इग्ज़ाम क्लीयर कर लिया.
भारत में पीएच.डी.
अब ज़रा हिंदुस्तानी प्रणाली पर नज़र डालें, क्योंकि मैं अपने जीवन के 27 साल भारत रहकर यहाँ आया हूँ. भारत में तो छात्र गुरुजी को पहला प्रणाम करते ही “रिसर्च स्कॉलर, फलाँ यूनिवर्सिटी” की उपाधि पा जाता है! पहले दिन से ही उसके नाम के साथ रिसर्च स्कॉलर जुड़ जाता है, और वह झट से इसे अपने फ़ेसबुक/इंस्टा बायो, लिंक्डइन प्रोफ़ाइल, और कभी-कभी तो मोटरसाइकिल के मडगार्ड तक पर लिखवा लेता है. उधर अमेरिका में बेचारा तीन साल खुद को घिसने के बाद कहीं जाकर पीएच.डी. कैंडिडेट बनता है. यह नाम का फ़र्क है, इधर मस्क्कत करते रहो, उधर शुरुआत में ही तमगा मिल जाता है.
सवाल ये है कि क्या भारत में वाकई रिसर्चर में इतनी योग्यता आ जाती है शुरू के दिनों में? कटु सत्य यह है कि अपने देश में कई जगह पीएच.डी. एक औपचारिकता भर बन कर रह गई है. गुणवत्ता की जगह कभी-कभी केवल जुगाड़ चलता है. सुना है, अब तो पीएच.डी. खरीदी भी जा सकती है!
चेन्नई के एक अख़बार ने खुलासा किया था कि तमिलनाडु में पीएच.डी. के लिए भयानक गोरखधंधा चल रहा है, सिर्फ एक फोन कॉल पर तीन लाख रुपये में आपको डॉक्टरेट की डिग्री घर बैठे मिल सकती है. उत्तर भारतीय राज्यों पर तो मैं बात भी नहीं कर रहा हूँ. जी हाँ, बाकायदा घोस्टराइटर रखे जाते हैं जो पैसे लेकर आपका पूरा शोध-पत्र, डेटा एनालिसिस और थीसिस लिख देंगे, और जर्नल में छपवा भी देंगे. इन्होंने तो रेस्तराँ जैसा मेन्यू बना रखा है – रिसर्च कराने के इतने पैसे, डेटा एनालिसिस के इतने, किसी नामी जर्नल में पब्लिश कराने के इतने! अगर आपके पास खुद का शोध तैयार है और बस पब्लिश करवाना है तो रेस्टॉरेंट स्टाइल रेट-कार्ड पर ₹45,000 लिखा है; लेकिन “थाली” फ़ुल चाहिए यानी रिसर्च से लेकर थीसिस तक आउटसोर्स तो तकरीबन ₹3 लाख का पैकेज हाज़िर.
जब से कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की नौकरी के लिए पीएच.डी. अनिवार्य कर दी गई है, इस मांग ने पीएच.डी. फ़ैक्ट्रियों को पनपने का बढ़िया मौक़ा दे दिया. कई तथाकथित कंसल्टेंसी सर्विसेज़ खुल गई हैं जो शोध-छात्र और घोस्टराइटर/जर्नल के बीच बिचौलिये बनकर सौदा तय करती हैं.
जब का छोड़िए अब तो बाकायदा इंस्टाग्राम पर रील्स आते हैं, एक रील में आदमी कहता है कि
“पीएच.डी. में ऐडमिशन तो मिल गया, अब थीसिस लिखने में दिक्कत आ रही है, घबराइए मत, हम हैं ना.”
अब ज़रा सोचिए, जिस रिसर्च स्कॉलर ने ख़ुद अपना थीसिस भी नहीं लिखा, अपने नाम से शोध-पत्र छपवाने के लिए पैसे दिए वो आगे चलकर कैसा प्रोफ़ेसर बनेगा? इस अनैतिक करम कांड के चलते विश्वविद्यालय डिग्री बाँटने वाली मशीन में बदल गए हैं और शोध का स्तर गिरा रहा है; और यही कारण है कि हमारा देश उच्च-गुणवत्ता वाले शोध-प्रकाशन पर्याप्त संख्या में पैदा नहीं कर पा रहा.
एक बहुत ही अनौपचारिक बातचीत में एक दोस्त जो दिल्ली के काफ़ी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं, ने बताया था कि अकादमिक प्रमोशन के लिए ‘पब्लिश या पेरिश’ के दबाव ने एक अवैध उद्योग को जन्म दे दिया है, जहाँ ₹5,000 में पत्रिकाओं में नाम मात्र के लिए शोध-पत्र छप जाते हैं और सही दाम दो तो कोई आपके लिए पूरा रिसर्च पेपर घोस्टराइट करके दे देगा. हद तो यह है कि कुछ लोग जो ढंग से एक वाक्य नहीं बोल या लिख सकते, वे भी बस पैसा खर्च करके अपने नाम से अंतरराष्ट्रीय जर्नल में पर्चे छपवा रहे हैं और यूनिवर्सिटी में नौकरी और प्रमोशन पा रहे हैं.
मतलब जहाँ देखो जुगाड़! पैसे दो और डिग्री लो, पैसे दो और पेपर लो. रिसर्च पैशन से कम, पैसों और पॉइंट्स का खेल ज़्यादा हो गया है. जाहिर है, इस माहौल में ईमानदार शोधकर्ता भी हतोत्साहित होते हैं और भारत की साख अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में गिरती है.
शिक्षा की लागत: डॉलर बनाम रुपया
अब ज़रा दूसरी तरफ़ नज़र डालें, अमेरिका में शिक्षा का जो तामझाम है, उसकी कीमत क्या है. साल 2025 में अमेरिका में एक औसत कॉलेज से चार साल का अंडरग्रैजुएट/स्नातक डिग्री प्रोग्राम पूरा करने की औसत कुल लागत लगभग $1,19,640 से $2,47,960 के बीच आती है.
यानी डॉलर को रुपये में बदलें (चलो $1 = ₹85 मान लेते हैं) तो कहिए करीब ₹1.02 करोड़ से ₹2.1 करोड़! बड़े नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों का खर्चा आप गूगल बाबा से पूछ सकते हैं. ध्यान रहे, यह औसत आँकड़े हैं; कई जगह इससे बहुत ज़्यादा या थोड़े कम हो सकते हैं. कुल मिलाकर, अमेरिकी उच्च शिक्षा दुनिया के सबसे महंगे एजुकेशन सिस्टम में गिनी जाती है.
तुलना के लिए, भारत में अभी तक अधिकांश सरकारी यूनिवर्सिटी में पूरी स्नातक की डिग्री कुछ लाख रुपयों में हो जाती है, अगर आप ह्यूमैनिटीज़ और सोशल साइंसेज़ में हैं तो यह केवल कुछ हज़ारों में होगी. हालाँकि कुछ निजी संस्थान अब करोड़ों की दौड़ में शामिल हो चले हैं और वो अमेरिकी यूनिवर्सिटीज़ से टक्कर ले रहे हैं; पढ़ने-पढ़ाने का पता नहीं मगर फ़ीस में ज़रूर वो इनके बराबर हो जाएँगे.
यहाँ कई छात्रों को स्कॉलरशिप या फ़ाइनैंशियल एड मिल जाती है जिससे वास्तविक खर्च कुछ कम हो जाता है, लेकिन फिर भी अमेरिकी डिग्री जेब पर बहुत भारी पड़ती है. आगे चलकर यही भारी-भरकम निवेश वहाँ के समाज को भी प्रभावित करता है. सोचिए, इतनी महंगी पढ़ाई हर कोई तो कर नहीं सकता.
तथ्य यह है कि अमेरिका में 25 वर्ष से अधिक आयु के सिर्फ 37% वयस्कों के पास बैचलर डिग्री या उससे ऊपर की डिग्री है. बाकी अधिकांश लोग या तो बीच में पढ़ाई छोड़कर काम में लग जाते हैं, या वोकेशनल कोर्स करते हैं. जो पढ़ते हैं उनमें से भी लगभग आधे को कर्ज़ लेना पड़ता है: फ़ेडरल रिज़र्व की एक रिपोर्ट के अनुसार बैचलर डिग्री हासिल करने वाले 48% और पोस्ट-ग्रैजुएट डिग्री (मास्टर/ पीएच.डी.) वालों में 54% ने स्टूडेंट लोन लिया था. मतलब आधे से ज़्यादा उच्च शिक्षा प्राप्त अमेरिकी उधार के बोझ तले डिग्री लेते हैं – फिर दशकों तक उसे चुकाते रहते हैं.
अमेरिका में पोस्टग्रैजुएट स्तर (मास्टर/ पीएच.डी.) की पढ़ाई भी कम खर्चीली नहीं. सामान्य दो साल के मास्टर प्रोग्राम का कुल खर्च (ट्यूशन, फीस, रहना, खाना, किताबें आदि मिलाकर) लगभग $70,000 से $120,000 के बीच बैठता है. रुपये में कहें तो करीब ₹60–90 लाख.
कुछ महंगे कोर्स या बड़े शहरों में यह $140000 तक जा सकता है (₹1.2 करोड़ तक). औसत अमेरिकी ग्रैजुएट स्टूडेंट प्रति वर्ष ~$43,620 खर्च करता है (करीब ₹36–40 लाख).
पब्लिक यूनिवर्सिटियों में मास्टर्स थोड़ा सस्ता हो सकता है– सालाना ₹25–30 लाख तक भी निपट सकता है. मगर आइवी लीग या एमबीए, क़ानून, मेडिकल जैसे प्रोफेशनल प्रोग्राम तो आराम से ₹50 लाख प्रति वर्ष के पार पहुँच जाते हैं. हाँ, पीएच.डी. छात्रों के लिए अक्सर यूनिवर्सिटी फंडिंग या असिस्टेंटशिप का इंतज़ाम कर देती है.
मैंने आज तक जितने भी अंतरराष्ट्रीय पीएच.डी. छात्र देखे हैं, सबको किसी न किसी रूप में फंडिंग मिली ही हुई है, ट्यूशन माफी, स्टाइपेंड, टीचिंग/रिसर्च असिस्टेंटशिप आदि के रूप में. इसीलिए कहा जाता है कि पीएच.डी. अगर बिना आर्थिक सहयोग के करनी पड़े, तो वाकई बहुत महँगा सौदा है और ज्यादातर काबिल विद्यार्थी ऐसे ऑफर एक्सेप्ट ही नहीं करते. लेकिन मास्टर्स प्रोग्राम, विशेषकर कोर्सवर्क वाले (जैसे एमबीए, एमएस, आदि), प्रायः फ़ंडेड नहीं होते. मतलब अगर आपको पॉलिटिकल साइंस में एम.ए. करनी है या डेटा एनालिटिक्स में एमएससी, तो संभवतः आपको अपनी जेब से ही एक-डेढ़ करोड़ रुपये का इंतज़ाम करना होगा. इसके बावजूद हर साल भारत से हज़ारों छात्र दौड़कर अमेरिका मास्टर्स करने जाते हैं. कुछ के लिए यह यूएसए में सेटल होने का बैकडोर है, कुछ के लिए करियर में छलांग लगाने का ज़रिया.
सत्र 2023–24 में तो भारतीय छात्रों ने, जैसा कि वे नए-नए कीर्तिमान बनाते रहते हैं, एक नया कीर्तिमान बना दिया था– कुल 3,31,602 भारतीय छात्र अमेरिकी कॉलेजों/यूनिवर्सिटियों में पढ़ने आए थे. यह संख्या पहली बार चीन से भी ऊपर निकल गई और अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय छात्रों का लगभग 29.4% केवल भारतीय छात्रों का हो गया.
इनमें से लगभग 1,96,500 छात्र ग्रैजुएट प्रोग्रामों (मास्टर्स/डॉक्टरल) में नामांकित थे, जो पिछले साल से 19% अधिक है. इन ग्रैजुएट भारतीय छात्रों में भारी बहुमत मास्टर्स का है (इंजीनियरिंग, कंप्यूटर साइंस, डेटा एनालिटिक्स, बिज़नेस आदि में), बाकी पीएच.डी. कर रहे हैं.
यह रुझान दिखाता है कि उच्च शिक्षा के लिए भारतीय छात्रों की पसंद में अमेरिका अभी भी शीर्ष पर बना हुआ है. एक तरफ़ अमेरिका की डिग्री का आकर्षण है, दूसरी तरफ़ शायद भारत में वैसा रिसर्च या प्रोफ़ेशनल माहौल/अवसर न मिल पाने की धारणा भी है. तभी तो हर साल रिकॉर्ड टूट रहा है. ब्रेन ड्रेन कह लीजिए या गेन, हकीकत यह है कि अमेरिका लाखों भारतीय युवाओं, जिनमें स्टूडेंट्स, टीचर्स, प्रोफ़ेसर, शामिल हैं के लिए अमेरिका अब भी आकर्षक गंतव्य है.
ध्यान देने की बात है, भारत में भी अब कई नए निजी विश्वविद्यालय खुले हैं जहाँ सालाना ट्यूशन और हॉस्टल का खर्च दस-पंद्रह लाख से ऊपर है – कुछ एमबीए प्रोग्राम तो ₹40–50 लाख तक के हो गए हैं. यानी अपने देश में भी उच्च शिक्षा तेज़ी से महंगी हो रही है, हालाँकि वैश्विक प्रतिष्ठा के मामले में वे संस्थान अभी कहीं-कहीं पीछे हैं.
ग्रेजुएशन का जश्न और एक गाउन की कीमत
शिक्षा में भारी निवेश के चलते अमेरिकियों के लिए डिग्री पूरी करना किसी उत्सव से कम नहीं. जो छात्र चार-साला बैचलर डिग्री पूरी कर लेते हैं, उनके परिवारों के लिए वह गर्व का अवसर होता है. आखिर देश के केवल ~37% वयस्क ही इस मुकाम तक पहुँच पाते हैं. स्टूडेंट लोन लेकर या पार्ट-टाइम नौकरी करके, जैसे-तैसे इन्होंने डिग्री पाई होती है. इसलिए कमेंसमेंट/दीक्षांत समारोह यहाँ बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. बच्चों के माता-पिता दूर-दराज़ से छुट्टी लेकर आते हैं, बढ़िया सूट-बूट या पोशाकें पहनकर कैंपस में जुटते हैं, मानो मेले में आए हों. यूनिवर्सिटी के ग्रैंड हॉल में सब लोग ग्रेजुएशन गाउन पहनकर इकट्ठा होते हैं. कॉलेज का प्रेज़िडेंट जोरदार भाषण देता है– किस तरह आज के ग्रेजुएट दुनिया बदल देंगे वगैरह-वगैरह. फिर अलग-अलग कॉलेज/डिपार्टमेंट अपने-अपने डिग्री वितरण सेरेमनी करते हैं.
डिपार्टमेंट हेड या कोई सीनियर प्रोफ़ेसर नाम पुकारकर प्रत्येक छात्र को मंच पर डिप्लोमा कवर थमाता है, असली डिग्री बाद में मिलेगी . स्टूडेंट टोपी उछालते हैं, कैमरे चमकते हैं. मंच पर विभाग के प्रोफ़ेसर लोग भी अपने-अपने ग्रैजुएट स्कूलों के रंग-बिरंगे एकेडमिक गाउन पहने विराजमान रहते हैं – किसी के गाउन पर लाल पट्टी, तो किसी पर नीली. पूरी सभा देखने में एक बौद्धिक बारात जैसी लगती है– ज्ञान के दुल्हे-दुल्हन अपनी डिग्री रूपी वरमाला लेने को बेताब हैं! समारोह के बाद परिवार के लोग घर लौटते हैं, सेलिब्रेट करते हैं, तस्वीरें खिंचवाते हैं, और फिर जीवन अपने ढर्रे पर वापस आ जाता है.
पिछले टर्म मुझे भी एक एडवांस्ड डिग्री पूरी करने का अवसर मिला, तो मैंने ये ग्रेजुएशन सेरेमनी ख़ुद अनुभव की. बढ़िया लगा– पर उससे पहले एक पापड़ बेलना पड़ा…अपने लिए ग्रेजुएशन गाउन खरीदने का पापड़! हर विश्वविद्यालय का अपना ड्रेस कोड, अपना मास्कट और रंग-रूप होता है. और ग्रेजुएशन रेगेलिया (गाउन, हुड, टोपी, फ्रेम आदि) सिर्फ़ यूनिवर्सिटी-अधिकृत स्टोर से ही मिलते हैं. और उनकी कीमत…हे भगवान! मुझे लगा था $10-20 में मिल जाएगा! यहाँ गाउन खरीदना पड़ता है, और वो भी हज़ार-दो हज़ार नहीं – पूरे तीन-चार सौ डॉलर का पैकेज! हमारे कैंपस स्टोर में ग्रेजुएशन पैकेजेस इस प्रकार थे: बैचलर डिग्री के लिए ग्रीन पैकेज $303.50 का, और गोल्ड पैकेज $413.50.
ग्रीन पैकेज में एक गाउन, कैप, डिप्लोमा कवर, कमेंसमेंट फीस (यूनिवर्सिटी द्वारा अनिवार्य), एक स्टोल, और टसल (जिसमें साल 2025 का गोल्ड चार्म लगा हुआ)– यहाँ तक कि एक स्टैंडर्ड डिप्लोमा फ़्रेम भी शामिल था.
गोल्ड पैकेज में फ्रेम थोड़ा हाई-फाई था, बस. मास्टर डिग्री वालों के पैकेज में एक हुड और जुड़ गया तो कीमत ~50 डॉलर और बढ़ गई– करीब $353.50 (ग्रीन) और $463.50 (गोल्ड) थी.
पीएच.डी. वालों के गाउन तो और भारी, और महंगे– उनके पैकेज इनसे भी $50-100 ज़्यादा यानी कुल मिलाकर $400+ के आस-पास पहुँच गए. अब इस $400 को रुपये में बदलें तो लगभग ₹35,000! सच बताऊँ, भारत में के.जी. से पी.जी. तक और बीच में छोड़ी गई पीएच.डी. सहित मेरी पूरी पढ़ाई पर उतना खर्च नहीं आया होगा जितने का यह एक गाउन यहाँ मिल रहा था! मुझे अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं हुआ.
पर क्या करें, दीक्षांत समारोह में हिस्सा लेना था तो ड्रेस कोड का पालन करना ही था. ख़ैर, एक जुगाड़ू भारतीय आदमी रास्ता निकाल ही लेता है. मैंने भी सिनियरों से मिन्नत करके एक सेकंड-हैंड गाउन उधार ले लिया और स्टोल-टोपी के लिए सस्ता विकल्प ढूंढकर काम चला लिया. मन में यह ख़याल जरूर आया कि अगर बुकर टी. वॉशिंगटन को अपना मशहूर निबंध “स्ट्रगल फॉर माय एजुकेशन” दोबारा आज के दौर में लिखना पड़े, तो क्या वे इस बार अपनी शिक्षा के संघर्ष में $300 वाले गाउन का दर्द भी जोड़ेंगे?
दोनों देशों की बातों पर ग़ौर करें तो बड़ा रोचक विरोधाभास नज़र आता है.
एक ओर अमेरिका में शिक्षा हासिल करना महँगा सौदा है, पर प्रणाली काफ़ी संगठित और कड़ी है; डिग्री पाना सचमुच अर्जित करना पड़ता है, अभी तक तो– तभी शायद लोग उसे खुलकर सेलिब्रेट भी करते हैं. दूसरी ओर, अपने भारत में उच्च शिक्षा आर्थिक दृष्टि से भले इतनी महँगी नहीं (हालाँकि बढ़ रही है), पर गुणवत्ता और ईमानदारी के मोर्चे पर कई चुनौतियाँ हैं.
समाज के स्तर पर देखूँ तो यहाँ (अमेरिका में) लोग डिग्री को नौकरी/जीवन सुधारने के साधन की तरह देखते हैं, जबकि भारत में अब भी कई लोग डिग्री को रुतबा या प्रभामंडल की तरह इस्तेमाल करते हैं तभी तो पहले दिन से “रिसर्च स्कॉलर” का तमगा लगाकर घूमते हैं. लेकिन उसी तमगे की आड़ में कब शोध सिर्फ़ दिखावा बन जाता है और कब जुगाड़ से डिग्रियाँ बँटने लगती हैं, पता ही नहीं चलता.
मैं यह नहीं कहता कि पूरी भारतीय अकादमिक बिरादरी ऐसी है, निश्चित ही आज भी हमारे देश से असाधारण प्रतिभाएं निकल रही हैं, जो कम संसाधनों में बेहतरीन शोध कर रही हैं. पर तस्वीर के दोनों रुख़ हैं: एक ओर वे जुनूनी लोग हैं जो बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ रहे हैं, और दूसरी ओर वो लोग जिन्होंने पीएच.डी. को बस एक रूटीन डिग्री या प्रमोशन की सीढ़ी बनाकर रखा है. उधर अमेरिका में भी हर कोई हैरान-परेशान है, स्टूडेंट लोन के बढ़ते बोझ से, कॉलेज ट्यूशन के आसमान छूते खर्च से, और इस डर से कि कहीं डिग्री लेना घाटे का सौदा न बन जाए. मतलब शिक्षा का संघर्ष दोनो जगह है. मगर रूप अलग-अलग हैं. एक तरफ़ डॉलर का संकट है तो दूसरी तरफ़ जुगाड़ का. कहीं ज्ञान पाने के लिए जेब ढीली करनी पड़ती है, तो कहीं जेब के दम पर ज्ञान का ढोंग भी रचा जा सकता है.
सोचता हूँ, मेरी तरह न जाने कितने छात्र इन दोनों दुनियाओं के बीच फ़र्क देख रहे होंगे, इधर या उधर टिक जाने की जुगत लगा रहे होंगे. दिन के तीन बजे अपने डिपार्टमेंट में बैठे-बैठे मैं यही सब सोच रहा था. अब घड़ी की तरफ़ देखता हूँ. साढ़े पाँच बजने को हैं. शायद मुझे वाकई अपने काम पर लौट जाना चाहिए, आखिरकार, पीएच.डी. का कैंडिडेट हूँ, कहीं कमेटी को यह न लगे कि मैं अपनी रिसर्च को लेकर सीरियस नहीं हूँ!
| रविन्द्र कुमार ओरेगन विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के आधुनिक दक्षिण एशियाई इतिहास पर शोध कार्य कर रहे हैं. ravinderkumar955@gmail.com |



मुनाफे पर आधारित अर्थव्यवस्था में कैसे हर छोटी से छोटी चीज़ एक व्यवसाय का रूप ले लेती है !
नहीं, यह बात सही होती तो अमेरिका में लोग अपने चूहे बिल्ली के लिए पीएचडी खरीदने में सक्षम हो चुके होते। बात स्तरीय व्यवसाय करने की मानसिकता की है। आप कटे फटे कपड़े का गूदड़ बनाकर धंधा करना चाहते हैं या कला बना कर, यह दृष्टि और दिशा का पक्ष है कुतुबनुमा का नहीं।
बहुत उचित प्रश्न उठाया गया है। एक और अफीम है honoris causa
इस का पता मुझे तब चला जब मुझे भी पीएचडी का चाव हुआ। मगर समस्या थी कि मैं किसी विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट नहीं हूँ। सीए, सीएस, आदि कई पाठ्यक्रम को कई विश्वविद्यालय पोस्ट ग्रेजुएट की मान्यता देते हैं मगर इन कोर्स में वांछित 60% लाना नहीं हो पाता।
मैं अपनी सनक के लिए कोई विश्व विद्यालय ढूंढ रहा था तब एक मित्र ने कहा बहुत कम श्रम और दाम में तो doctrate honoris causa मिल जाएगी। बल्कि दो माह में वह अपने लिए ले भी आए। फिर मन नहीं किया। बल्कि बैठे ठाले इगनू में जो एमए हिन्दी में दाखिला लिया था वह भी इच्छा जाती रही।
न जाने हम बिकाऊ डिग्री क्यों खरीदते हैं जबकि इस से ज्यादा इज्जत तो अब इस देश में कार, कपड़े, खरीदकर मिल जाती है। यह उत्तर ही हमारी शिक्षा और उच्च शिक्षा को सुधार सकता है।
दिलचस्प, पठनीय और धारदार टिप्पणी।
लेकिन, भारत में शोध (पीएचडी) का परिदृश्य शायद रोग के बाहरी लक्षणों तक सीमित हो गया है। रविन्द्र को इस विकृति के बुनियादी -संरचनात्मक पहलुओं की पड़ताल न सही लेकिन उनकी ओर इशारा करना चाहिए था।
मसलन, वह कैसी मानसिकता है और उसे कहां से वैधता हासिल होती है जो ज्ञान और शोध के उच्चतर मानकों की बांह मरोड़ने को हमेशा तैयार बैठी रहती है?
दूसरे, इस मानसिकता की जड़ें कहां हैं जो पद, हैसियत और प्रतिष्ठा का तो आनंद लेना चाहती है परंतु उस पद की गरिमा और अर्हता का निर्वाह नहीं करना चाहती? ऐसा क्या और क्यों है कि यहां बौद्धिक काम भी रौब-दाब की संरचना में ग़र्क़ हो जाता है? और जिसे जहां नहीं होना चाहिए था, वही सबसे पहले दिखाई देता है?
फिर भी, रविन्द्र ने इस लेख के ज़रिए एक ऐसे ज़रूरी मुद्दे की ओर ध्यान खींचा है जो अब लगभग सुधारातीत हो गया है।
अमेरिका में ग्रेजुएट होना मुश्किल है । पीएचडी करना नामुमकिन सा । इतनी रक़म का ऐंठना समझ से परे है । लेकिन महत्ता है तभी युवा पीढ़ी शोध की डिग्री हासिल करते हैं ।
Ravi एक सांस में पढ़ लिया, भारत में गाइड जैसे भगवान के कुत्ते घुमाना, मेम के लिए सब्जी लाना जैसे कृत्य भूल गए लिखना, शोषण के नित नए औजार है
विदेश में कम से कम स्वीकृति ( recognition ) तो है प्रक्रिया जटिल और लंबी है पर आखिर में आलू से सोना बन ही जाता है
दूसरा अब यहां निजी विवि खुलने से तीन से पांच लाख में पूरी सुपारी ले ली जाती है कल ही न्यूज १८ में दिल्ली के किसी गली में पंद्रह से बीस हजार तक थीसिस मिलने की रील देख रहा था
तुमने एक ओर जहां अकादमिक बातें लिखी वही बहुत चुटीले व्यंग्य भी इसमें डाले है
बहुत खूब
भगवान करें तुम भी पीएचडी के साथ पोस्ट डाक का विशेषण लेकर ही जल्दी लौट आओ, वहां मत रहना, जल्दी आओ तब तक सब्जी भाजी लाने वालों और कुत्ता घुमाने वालों की फौज तैयार करता हूँ🤣
शुक्रिया अरूण जी, एक बेहतरीन कथेतर प्रकाशित करने के लिए
अमेरिका में शिक्षा पूर्णतः व्यापार बन चुका है और भारत में उस ओर अग्रसर है। अमरीकी शिक्षा बेहद महंगी है और भारत में स्तरहीन होती जा रही है।
भारतीय प्रोफेसर्स चापलूसी मे अब्बल हैं।
भारत से बाहर गए कई मित्रों से मैंने भारत और भारत के बाहर पढ़ने लिखने में उनके निजी अनुभव कैसे अलग होते हैं को जानने की कोशिश की पर शायद ही किसी ने इतने अच्छे ढंग से यह बात प्रकट की होगी।
पीएचडी को लेकर मेरा भ्रम तब समाप्त हुआ जब एक यूनिवर्सिटी ने पीएचडी डिग्री हासिल करने का सीधा -सा रास्ता दिखाया और एक हिन्दी विभाग के प्रैफेसर ने पीएचडी लिखने का आफर दिया।
मैं उन सभी पीएचडी धारकों का सम्मान करता हूं जिन्होंने हिन्दी के बड़े विद्वानों के संरक्षण में यह डिग्री हासिल की।
बहरहाल, पीएचडी उपाधि की
विषम वास्तविकताओं से गहरा परिचय होते हुए भी इस उपाधि का सम्मान करता हूं वो चाहे पैसे से खरीदकर क्यों न हासिल की गई हो।
इसलिए, अमेरिका से जरूर कुछ सीखा जाना चाहिए हमें।
Ravindra are you in Eugene or Corvallis? I am at OSU Corvallis.—Sushma Naithani