तुलसी राम से अरुण देव की बातचीत
आप जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के अन्तर-राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में पिछले कई सालों से अध्यापन कार्य कर रहे हैं. आपको दलित-बुद्धिजीवी के रूप में जाना जाता है. आपके पास दलित-प्रश्नों के वैश्विक सन्दर्भ हैं और शायद इसीलिए उत्तर भी वहीं न होंगे जो बार-बार दुहराये जाते हैं. |
भारत की दलित-समस्या विश्व के उन लोगों से जुड़ी हुयी है, जिनके साथ जातीय-आधार पर या रंग-भेद के कारण भेद-भाव किया जाता है. पर हमारे देश में जाति को जिस तरह से धर्म और संस्कृति से जोड़ दिया गया है, वैसा कहीं नहीं है. जापान में एक समुदाय है- बुराकुमीन, ये लोग प्रवासी लोग हैं जो कोरिया से जापान गये थे. इनके साथ जापान में छुआछूत का व्यवहार किया जाता था. यह परम्परा बहुत भयानक थी. जापान में बौद्ध-धर्म के विकास होने के बावजूद यह समस्या अभी भी वहाँ है. मेरा यह मानना है कि यदि कोई बुरी चीज परम्परा का हिस्सा बन जाती है तो रैशनल लोगों के लिए भी उसे दूर करना मुश्किल होता है. भारत के कम्युनिस्ट इसके अच्छे उदाहरण हैं.
भारत में चल रहे दलितों की मुक्ति के आन्दोलन को अक्सर दक्षिण-अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ हुए आन्दोलन से जोड़ कर देखा जाता है. यह एक दिलचस्प तथ्य है कि गांधी जी, जो दक्षिण-अफ्रीका के रंगभेद के विरोध में चले आन्दोलन के शुरुआती नेता थे, आज भारत में चल रहे दलित-आन्दोलन में खलनायक नजर आते हैं? औपनिवेशिक भारत में दलितों की मुक्ति के सवाल के सन्दर्भ में गांधी जी की भूमिका को लेकर काफी कुछ लिखा-पढ़ा गया है. क्या आपको लगता नहीं कि वर्ण व्यवस्था को लेकर गांधी जी के विचारों में क्रमिक विकास दिखता है? गांधी जी के व्यावहारिक-कर्म में क्या दलितों के प्रति उनकी चिन्ता वास्तविक रूप से प्रकट नहीं हुयी है?
रंगभेद की समस्या दलितों की समस्याओं से अलग है. दक्षिण-अफ्रीका की रंगभेद की समस्या उपनिवेशवादियों द्वारा पैदा किया गया था जबकि दलित समस्या को यहाँ के ही लोगों ने पैदा किया था. वहाँ काले-गोरों का सवाल सिर्फ रंग के आधार पर था जबकि भारत में वर्ण-व्यवस्था को धर्म का आधार प्रदान किया गया. इसीलिए दक्षिण-अफ्रीका में विदेशी शासन के अन्त के बाद यह समस्या समाप्त हो गयी है जबकि भारत में तीन-चार हजार पहले की वर्ण-व्यवस्था की समस्या आज भी जस-की-तस है. भारत में जाति के आधार पर दलितों पर जितना अत्याचार स्वदेशी शासन में हुआ है, उतना किसी विदेशी शासन के अन्तर्गत भी नहीं हुआ है. जहाँ तक दलितों के संदर्भ पर बाबा साहब आम्बेडकर और गांधी जी का प्रश्न है-तो मेरा मानना है कि अपने मानवीय गुणों के कारण गांधी जी ने अस्पृश्यता को आधार बनाकर एक आन्दोलन भारत में खड़ा किया. दलित-मुक्ति के प्रश्न पर उन्होंने एकमात्र जो रास्ता अपनाया वह छुआछूत दूर करने का था. गांधी जी इस बात को कभी नहीं समझ पाये कि दलितों की समस्या एकमात्र छुआछूत दूर करने की समस्या नहीं है.
मूल समस्या वर्णव्यवस्था की थी. उनकी समझदारी यह थी कि वर्ण-व्यवस्था से ही देश का उत्थान होगा. उन्होंने इसे साफ शब्दों में कहा है और लिखा है. विवेकानन्द की तरह वह भी कहते थे कि वर्णव्यवस्था के समाप्त हो जाने पर भारत समाप्त हो जायेगा. उनकी इसी समझदारी के कारण डा. आम्बेडकर से उनकी दूरी बढ़ी. एक तरफ तो आप छुआछूत दूर करने की बात करते हैं वहीं वर्णव्यवस्था जो उसका आधार है उसके आप समर्थक भी हैं. यह एक बहुत बड़ा अन्तर्विरोध है. बाद में उनके विचारों में जो परिवर्तन भी हुये वे आदर्शवादी अधिक हैं, यथार्थवादी कम. उनके आश्रम में विष्ठा साफ करने वाली जो बातें हैं-उसमें आदर्शवाद, मानसिक-सन्तुष्टि तथा दिखावा है. यह सामाजिक रुप से अप्रासंगिक था.
किसी भी आन्दोलन के प्रगतिशील होने का एक प्रमाण यह भी होता है कि जिन मूल्यों के लिए वह संघर्ष कर रहा है उन मूल्यों को क्या वह अपने हाशिए के लिए भी उपलब्ध कराता है? भारतीय स्वाधीनता का आन्दोलन सिर्फ वाह्य शोषण के विरुद्ध ही नहीं आन्तरिक शोषण के खिलाफ भी था. दलित-आन्दोलन सवर्ण जातिवाद के विरुद्ध जितना आक्रामक है क्या स्वयं उसके अन्दर जो जातिवाद और उसमें निहित सत्ता-वर्चस्व है,उसके खिलाफ है? इसके आलोचकों का कहना है कि दलितों को मिलने वाली सुविधाओं का 80 प्रतिशत हिस्सा एक जाति-विशेष ही हड़प जाती है, दलितों में उनकी स्थिति आज सर्वणों में ब्राह्मणों सी हो गयी है. इसके प्रमाण में पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की राजनीति में जाटवों और वाल्मीकियों के बीच के मतभेदों को सामने रखा जा सकता है. |
अगर दलित भी जातिवाद करते हैं तो इसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. वर्ण-व्यवस्था का जो धार्मिक आधार है और उसे जो अंधविश्वास से जोड़ा गया है, अशिक्षित होने के कारण इसके सबसे अधिक शिकार दलित ही हुये हैं. जाति-व्यवस्था ईश्वर ने बनाया है और पिछले जन्म में किये गये कर्म से आपकी जाति निर्धारित होती है,जैसी बातों का जनता में बहुत ही प्रचार हुआ है. दलित भी इनके प्रभाव में आ जाता है और सोचता है कि जो उससे नीचे हैं उसने पूर्व जन्म में उससे भी खराब कर्म किये होंगे. जिसके कारण वह उसको छूता नहीं है. इसके लिए दोषी दलित न हो कर वर्णव्यवस्था ही है. जो व्यवस्था दलितों को भी आपस में इतना प्रतिक्रियावादी बना सकती है तो आप कल्पना कीजिए कि सवर्ण पूरे दलित समुदाय के लिए कितने घातक साबित हो रहे होंगे. जाति व्यवस्था इतनी क्रूर है कि वह स्वयं दलित को दलित के विरोध में खडा कर देती है. मराठी के महान संत और कवि चोखा मेला जो 13वीं शताब्दी में हुये थे उनका दर्शन ही यह था कि मैं दलित इसलिए हूं कि पुर्व जन्म में मैंने कोई ख़राब कर्म किया था. डा. आम्बेडकर ने अपनी एक किताब का समर्पण इनको किया है. वर्णव्यवस्था के धार्मिक रूप का यह एक टीपिकल उदाहरण है. आज संघ-परिवार जाति-व्यवस्था के इसी धार्मिक-आधार का प्रचार कर रही है. उसे सिर्फ साम्प्रदायिक समझना गलत है. उनके लिए साम्प्रदायिकता वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने का एक साधन है.
दलित-आन्दोलन, मुख्यतः ब्राहम्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ दलित-पुरुषों का आन्देालन है. दलित-स्त्रियों के सन्दर्भ में इसका क्या औचित्य बनता है? वर्णव्यवस्था के नष्ट हो जाने पर क्या लिंग सम्बन्धी असमानताएँ भी समाप्त हो जायेंगी? दलित-आन्दोलन के किसी स्त्री-पाठ की संभावना के विषय में आप क्या सोचते हैं? |
मेरे ख्याल से दलित-आन्दोलन को मुख्यतः दलित-पुरुषों का आन्देालन कहना अनुचित है. यह पूरे दलित-समुदाय का आन्दोलन है. प्राचीन काल में सारे विश्व में मातृ-सत्ता थी. भारत में पुरुषवादी आर्यों ने मातृसत्ता को नष्ट करके पुरुष-वर्चस्व की स्थापना की. शेष विश्व की तरह भारत में उसने एक संस्कृति का रूप ले लिया. अतः इससे सर्वणों के साथ-साथ दलित भी प्रभावित हुये हैं.
पुरुष प्रधान समाज को खत्म करना बहुत मुश्किल है अतः मुझे नहीं लगता कि वर्णव्यवस्था के नष्ट हो जाने पर लिंग सम्बन्धी असमानताएं भी समाप्त हो जायेंगी.
जहाँ तक दलितों के संदर्भ में स्त्री-स्वतन्त्रता का सवाल है तो वे भले ही यह न कहें कि वे सारी स्त्री जाति की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं पर उनका संघर्ष इससे जुडा हुआ है. भारत में औरतों की गुलामी की शुरुआत मूल रुप से ब्राहम्मणवादी वर्ण व्यवस्था की देन है. इसका भी धार्मिक आधार है. डा. आम्बेडकर ने 1951 में नेहरु के कैबिनेट से इसी प्रश्न पर त्यागपत्र दे दिया था. नेहरु जी हिन्दू-कोड-बिल को पटेल और पंत जैसे रूढिवादी लोगों के दबाव के कारण पास नहीं करा पाये थे. हिन्दू-कोड-बिल का संदर्भ दलितों से बहुत कम था. डाक्टर आम्बेडकर ने त्यागपत्र के बाद दिये अपने बयान में कहा था कि जो योगदान मैंने संविधान लिख कर नहीं किया उससे बडा योगदान मैं हिन्दू-कोड-बिल के माध्यम से करना चाहता था. हिन्दू-कोड-बिल में औरतों को बहुत अधिकार दिये गये थे उसे तलाक से लेकर संपत्ति में हक तक दिये गये थे.
भारत में स्त्री-आन्दोलन चलाने का प्रथम प्रयास महात्मा फुले ने किया था जो कि एक दलित थे. महाराष्ट्र में औरतों के विधवा होने पर उनके सिर के बाल काट दिये जाते थे .इस कुरीति को दूर करने के लिए महात्मा फुले ने नाईयों को संगठित कर उन्हें ऐसी स्थिति में बाल न काटने के लिए तैयार किया. डा. आम्बेडकर इसी परम्परा में थे. स्त्री-स्वतन्त्रता और दलित-मुक्ति का प्रश्न कई मायनों में एक दूसरे से जुड़े हुये हैं. अगर दलित आन्दोलन से ब्राहम्मणवाद कमजोर होता है तो इससे स्त्री-स्वतन्त्रता मजबूत ही होगी.
पिछड़ों का आन्दोलन भी वर्णव्यवस्था में निहित उस असमानता के विरुद्ध है जिस तर्क पर दलितों ने अपना आन्दोलन खड़ा किया. दोनों के शत्रु एक है पर दोनों आज एक दूसरे के शत्रु अधिक नज़र आते हैं? ऐसा क्यों है? क्या आपको नहीं लगता कि ये अस्मितापरक-आन्दोलन सत्ता-प्राप्ति के संघर्ष में उलझ कर रह गये हैं? इनका नेतृत्व अवसरवादी, भ्रष्ट और आपराधिक किस्म के नेताओं के पास चला गया है. |
यह प्रश्न अपने आप में शतप्रतिशत सही है. आज की पिछडी जातियाँ प्राचीन काल की शूद्र जातियाँ ही हैं. यह एक भारी विडम्बना है कि ये शूद्र जातियाँ आज अपने को सवर्ण बनने के होड़ में शामिल कर चुकी हैं. इसकी शुरुआत दक्षिण भारत से हुयी है. पेरियार के नेतृत्व में ब्राहम्णवाद के विरुद्ध शूद्रों (आज के पिछडे) का जो आन्दोलन प्रारम्भ हुआ था उसमें दलितों ने भी हिस्सा लिया था. इसका फल यह हुआ कि राजनीति में सवर्णा का वर्चस्व समाप्त हो गया. पिछले 40 सालों से दक्षिण में पिछड़ों का शासन है. राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद किसी भी वर्ग में जितने भी दुर्गुण आ सकते थे सब दक्षिण भारत के इस वर्ग में आये. दलितों पर अत्याचार और बढ़ गये. इधर दक्षिण-भारत में वर्णव्यवस्था की मूल संस्कृति को फिर पुनर्जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं. दलितों के लिए होटलों में अलग पात्र (नारियल की खाली-खोपड़ी) रखे जा रहे हैं. दक्षिण-भारत के पिछड़ों में आज जितना धार्मिक प्रभाव बढा है मैं तो कहता हूँ उतना उत्तर-भारत में भी नहीं है. मंडल कमीशन के लागू होने के कारण बिहार और उत्तर-प्रदेश में पिछड़ों की सरकार बन गयी पर ये लोग शासन में आते ही वर्णव्यवस्था से मुक्ति के सवाल को भूल गये. मंडल-कमीशन ने राजनीतिक रुप से निहायत ही नकारात्मक प्रभाव उत्तर-भारत में डाला है. सामाजिक रुप से यह वैसे बहुत गुणकारी भी है,पर राजनीति के हावी हो जाने के कारण इसका सामाजिक सन्दर्भ बहुत ही धुंधला हो गया है. कुछ दलित नेताओं तथा कुछ पिछडे़ नेताओं की दुश्मनी दुर्भाग्य से आज दलितों और पिछड़ों की आपसी दुश्मनी में बदल गयी है. इसके जिम्मेदार दोनों वर्ग के नेता हैं.
चिन्तकों ने दलित-आन्दोलन को भारत में ही प्राचीन काल से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था के विरोध की परम्परा से जोड़ कर देखा है? चार्वाक, बुद्ध तथा कबीर से होते हुए यह परम्परा डा. आम्बेडकर तक आती है? बौद्ध-धर्म निश्चित रुप से दलित-चिन्तन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है? आज कुछ दलित-लेखक डा. आम्बेडकर के बौद्ध-धर्म स्वीकार करने को उनकी भूल के रुप में देखते हैं? बौद्ध-चिन्तन के अधिकारी विद्वान होने के नाते मैं आपसे इस पर टिप्पणी चाहूंगा. |
यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है. चार्वाक, बुद्ध से पहले हुये थे, उन्होनें वर्णव्यवस्था पर बहुत ही जोरदार हमला किया था. चार्वाक के समय बहुत से महर्षि थे जो नास्तिक थे, ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे पर वे वेदों में विश्वास करते थे. चार्वाक इनमें विशिष्ट इसलिए थे कि उन्होंने पहली बार धर्म और कर्मकाण्ड़ के मूल पर प्रहार किया . उन्होंने कहा कि त्रयो वेदस्य कर्तारः भान्ड, धूर्त निशाचरः अर्थात वेदों के रचयिता भाड़, धूर्त और निशाचर हैं जाहिर है कि उनके समय तक सिर्फ तीन ही वेद थे. उन्होंने वर्णव्यवस्था के आधार पर चोट की. वर्णव्यवस्था के आधार ही वेद हैं-पुरुषसुक्त में ही ब्रहमा के मुख से चारों वर्णों के उत्पन्न होने की बात कही गयी है. तो बुद्ध के दर्शन की पृष्ठभूमि में ये लोग थे. पर बुद्ध ने अपने तर्क और विवेक के द्वारा एक ऐसी क्रान्ति की जिससे कि उनके विचार जन-जन तक फैल गये. रुस के बौद्ध-विद्वान श्चेर्वात्सकी का तो यह भी कहना है कि बुद्ध के लाजिक की प्रतिक्रिया में हिन्दुओं ने अपना लाजिक विकसित किया . इसका सबसे बड़ा उदाहरण सातवीं-आठवीं शताब्दी सदी के अति महत्वपूर्ण हिन्दू दार्शनिक कुमारिल भट्ट तथा आदि शंकराचार्य हैं जिनका सारा का सारा दर्शन बौद्धों के खण्ड़न-मण्ड़न पर आधारित है.
बुद्ध दुनिया के वह पहले पैगम्बर या भगवान थे जिन्होंने यह कहा कि मेरी बात को तर्क की कसौटी पर परखो अगर तर्कसम्मत लगे तो स्वीकार करो नहीं तो छोड़ दो. इसमें परिवर्तन की भी गुंजाईश है. ऐसा किसी ने नहीं कहा. सब यह कहते रहे कि जो मै कह रहा हूं उसे ही तुम स्वीकार करो. तमाम यूरोपीय विद्वानों ने इसी लिए उन्हें पहला वैज्ञानिक विचारक माना है. बुद्ध का दर्शन वर्णव्यवस्था का मूल रूप से विरोधी है. बुद्ध के साथ बहुत से कवि और नाटककार भी थे. अश्वघोष के नाटक-सारिपुत्रप्रकरण में सारिपुत्र का यह कहना कि अगर रोग गम्भीर हो तो शूद्र के पास भी जाना चाहिए, मुख्यतः वर्णव्यवस्था विरोधी कथन है. बुद्ध ने अपनी विचारधारा को 45 सालों तक धूम-धूम कर एक आन्दोलन की तरह फैलाया. यह आन्दोलन आगे सदियों तक चलता रहा. इस आन्दोलन के प्रभाव के कारण ही अशोक जैसे महान राजा ने यह घोषणा की उनके शासन में कोई ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं मानेगा तथा भिक्षुओं को तंग नहीं करेगा क्योंकि भिक्षु वर्णव्यवस्था के खिलाफ प्रचार करते हैं. वर्णव्यवस्था के जितने भी स्तम्भ थे जैसे बलिप्रथा-वगैरह उन पर रोक लगायी गयी.
पिछले साल मैं जब रुस गया था तब वहाँ मुझे मंगोल स्रोत से एक जानकारी मिली जिसमें कि अल्तान ख़ान जो चंगेज़ ख़ान का वंशज था और मंगोल का बादशाह था उसने 1575 ई0 में एक फरमान जारी किया था जिसमें 10 सूत्र थे. उसमें उसने बलिप्रथा पर रोक लगायी थी. ईसा मसीह के जन्म के पूर्व बौद्ध धर्म की गूंज येरुशलम तक पहुंच चुकी थी.यही कारण है कि बुद्ध की करुणा की झलक बाइबिल में साफ दिखायी देती है. अनेक यूरोपीय विद्वानों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि बुद्ध का ईसा मसीह पर गहरा प्रभाव था, विशेष रूप से उनका चर्च-सिस्टम बौद्ध मठों का प्रतिरूप है. अतः बुद्व के आन्दोलन के बिना दलितों के आन्दोलन की कल्पना करना निहायत ही ख़्याली है. ये लोग न इतिहास समझते हैं न इस समाज को. यही कारण है कि बहुत सोच समझ कर बाबा साहब ने बुद्व धर्म अपनाया था. यह कोई अचानक नहीं हुआ था. 1935 में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि वे हिन्दू पैदा हुये हैं पर वह हिन्दू मरेंगे नहीं. धनजंय कीर के बाबा साहब की जीवनी से एक महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता है कि जब वे हाईस्कूल में थे तब उनको उनके एक ब्राहम्मण अध्यापक ने बुद्ध की जीवनी दी थी जिससे वह बहुत ही प्रभावित हुये थे. बाद में जब उन्होंने वर्णव्यवस्था के विरोध में अपनी मुहिम चलायी तब उसका आधार उन्होंने बुद्ध से ही लिया. बुद्ध के बिना बाबा साहब की कल्पना नहीं की जा सकती है. इसके अलावा आप संविधान को देखें इसको बाबा साहब ने बुद्ध धर्म ग्रहण करने से पहले लिखा था. उसमें जो पंचशील का सिद्धान्त है,तिरंगें में जो धम्मचक्र है, जो चैमुहां शेर है वह तो अशोक का है. ये सब तो बुद्व के चिन्ह हैं. वस्तुतः संघ इस संविधान को इसी लिए विदेशी कहता है. समानता,स्वतन्त्रता और बन्धुत्व जैसे नारे भी मुख्यतः बुद्ध के नारे हैं. अतः यह कहना मुर्खतापूर्ण है कि उन्होंने जल्दी में बुद्ध धर्म स्वीकार किया था. रही बात बुद्ध धर्म स्वीकार करके गलती करने की तो इस सन्दर्भ में आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं. यह तभी संभव है जब बुद्ध दलित विरोधी हों. क्या बुद्ध दलित विरोधी थे? उनका दर्शन यद्यपि भारत में हिंसा के साथ कुचल दिया गया है फिर भी बाहर के पचासों देशों में यह फैला है और इसकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है.
साहित्य और विचारधारा के सम्बन्धों पर विवाद बहुत ही पुराना विवाद है? मार्क्सवाद ने साहित्य से विचारधारा के सम्बन्धों को एक सुसंगत वैचारिक आधार प्रदान किया है? दलित-साहित्य में अनुभूति की प्रामाणिकता पर बहुत जोर है? और यह प्रामाणिकता आपको तभी प्राप्त हो सकती है जब आप जन्म से दलित हों. जैसे कि ब्राह्मण यह कहा करते थे कि ब्राह्मणत्व की प्राप्ति के लिए आपको ब्राहम्ण के घर पैदा होना अनिवार्य है. इस अतिवाद के कारण प्रेमचन्द का लेखन जहां प्रतिक्रियावादी हो जाता है वहीं निराला वह तोड़ती पत्थर में किसी दलित युवती के सौन्दर्य पर लार टपकाते नजर आते हैं? दलित-साहित्य के लिए क्या सवर्णों से घृणा का प्रदर्शन अनिवार्य है? |
नहीं, प्रश्न सवर्णों से घृणा करने का नहीं है-वर्णव्यवस्था से घृणा करने का है. इससे तो सिर्फ दलितों को ही नहीं सवर्णों को भी घृणा करनी चाहिए. सवर्णों से घृणा न बुद्ध का लक्ष्य रहा है न बाबा साहब का. जहाँ तक दलित-लेखन के लिए दलित ही होने की बात है तो मैं इससे सहमत नहीं हूँ.
प्रेमचन्द, निराला तथा गांधी जी जैसे लोगों ने दलित अत्याचार का विरोध तो किया पर उन्होंने वर्णव्यवस्था के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा.
मेरा मानना है कि दलित-साहित्य वर्णव्यवस्था के विरोध का साहित्य है. वर्णव्यवस्था का विरोध चाहे जो भी करे ब्राहम्मण करे या कोई भी वह दलित साहित्य का अभिन्न हिस्सा है. दलित साहित्य का उद्गम बुद्ध-धर्म है. इसको सभी स्वीकार करते हैं. मराठी में 60 के बाद आधुनिक दलित-साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ था इस आन्दोलन के लेखक और आलोचक इसके स्रोत को बुद्ध से जोड़ते हैं. अश्वघोष तो अयोध्या के ब्राहम्मण थे पर उन्हें क्यों दलित साहित्य के अन्तर्गत रखा जाता है? इसलिए कि उन्होंने वर्णव्यवस्था पर जोरदार हमला बोला था. सरहपा, राहुल को इसीलिए दलित लेखन की परम्परा में रखा जाता है कि उन्होंने वर्णव्यवस्था के जड़ पर चोट की थी. प्रेमचन्द और निराला में यह बात नहीं है. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आप प्रेमचन्द और निराला को गाली देने लगे. उग्रवादिता ठीक नहीं है. अगर उनके लेखन से दलितों के आन्दोलन का कोई एक पक्ष मजबूत होता है तो ठीक है. दलित बेसिकली जातिवादी हो ही नहीं सकता. ब्राहम्णवाद के बदले ब्राहम्मण को गाली देना मानसिक विकृति है. बाबा साहब ने बार-बार इस पर जोर दिया है. उनके अनेक मित्र ब्राहम्मण थे. मैं तो यह कहता हूं कि वे दलित जो ब्राहम्मणवादी है अर्थात जो संघ में हैं, विश्व हिन्दू परिषद या भाजपा में है उनका भी विरोध होना चाहिए.
हिन्दी में आज दलित-रचनाशीलता से अधिक दलित-आलोचना ध्यान खींचती है? रचनाशीलता के लिए आवश्यक शिल्प और विविधता की कमी ख़ासकर हिन्दी के दलित रचनाकारों के पास दिखती हैं. आपको क्या लगता है? |
अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो मुझे तो यह लगता है कि दलित-आलोचना की स्थिति अधिक दयनीय है. आत्मकथा लेखन के कारण दलित-साहित्य को बहुत ही लोकप्रियता मिली है. ये अनुभव ऐसे हैं जो किसी भी दलित समुदाय पर लागू हो जाते हैं. स्थान और नाम बदल दें तो यह किसी भी दलित का अनुभव हो सकता है. यह एक खास बात है. आत्मकथा के सन्दर्भ में हम यह बात कह सकते हैं कि इसे केवल दलित ही लिख सकता है.
हिन्दी का दलित साहित्य अत्यन्त कमजोर है यह तो ठीक से अभी शैशवावस्था में भी नहीं है. आज अधिकतर दलित-लेखक आत्मकथा ही लिखना चाहते हैं. कई बार तो दलित-लेखक अपने लेखन की शुरूआत ही आत्मकथा लेखन से करते हैं. आत्मकथा का सम्बन्ध उम्र से होता है. इसे युवावस्था में लिखने से यह अधूरी रहती है, अनुभव की अपरिपक्वता भी दिखता है. जबकि कविता, कहानी उपन्यास और नाटक के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है. अतः दलित लेखकों को अपनी शुरूआत ही आत्मकथा से करने से बचना चाहिए.
जहाँ तक आलोचना की बात है तो जैसे धर्मवीर की आलोचना को मैं आलोचना मानता ही नहीं हूं. उनका लेखन आलोचना की परिधि में दूर-दूर तक नहीं आता है. धर्मवीर का लेखन बहुत ही ग़लत समझदारी पर आधारित है. वह न तो ब्राहम्मणवाद को ठीक से समझते हैं न दलित समाज को. वह नया धर्म चलाने की बात करते हैं-साईं बाबा की तरह. यह तो साहित्य में आता ही नहीं. यह तो एक मानसिक उन्माद है. उनके लेखन की एक-एक पंक्ति में पैग़म्बर होने की बू आती है. मैं जो कह रहा हूं उसको मानिये आप. मेरे अलावा सब ग़लत हैं- ब्राहम्मण भी, बुद्ध भी, और आम्बेडकर भी. प्राचीन काल में धर्मवीर होते थे शायद ठीक रहता आधुनिक काल में तो यह सब नहीं चल सकता है. उनको न तो दलित साहित्यकार कहा जा सकता है न दलित विरोधी. धर्मवीर का सारा लेखन शंकराचार्य के हवाले से कहूं तो माया है.
आलोचना के लिए बहुत ही विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता होती है. दलितों की दुर्भाग्य से परिस्थितियां ऐसी हैं कि उन्हें अध्ययन का अवसर नहीं मिल पाता. फिर भी जो लोग भी हैं थोड़ा बहुत लिख रहे हैं. यही स्थिति हिन्दी आलोचना की भी है. दलित-साहित्य के कमजोर होने के कारणों में दलितों का बुद्ध दर्शन के विषय में अल्प ज्ञानी होना भी है. वे इस समस्या को ऐतिहासिक प्रक्रिया में नहीं देख पाते हैं. उनका लेखन बस यहीं से निकलता है कि किसने उन्हें कुएं पर नही चढने दिया, उन्हें नौकरी नहीं मिली या पक्षपात हुआ. इसीलिए वे ब्राहम्मणवाद का विरोध न करके ब्राह्मणों का विरोध करने लगते हैं. इसमें से कुछ लोग घर आकर धूप बत्ती भी जलाते हैं. अगर कोई दलित लेखक कितना भी अच्छा लिखता हो पर धर्म में विश्वास रखता हो -मैं साफ-साफ कहूंगा कि हिन्दू धर्म में, तो वह दलित-साहित्यकार हो ही नहीं सकता है. हिन्दू धर्म में विश्वास रखने वाला वर्णव्यवस्था विरोधी हो ही नहीं सकता है.
ओमप्रकाश वाल्मीकि तथा सूरजपाल सिंह चैहान के लेखन में रचनात्मकता है. ये लोग रैशनल हो कर लिखते हैं. इसके अलावा भी कुछ लोग हैं जो ठीक-ठाक लिख रहे हैं.
कबीर आज हिन्दी-आलोचना के केन्द्र में हैं. उनकी रचनाशीलता की कोई नयी व्याख्या अभी सामने नहीं आयी है पर उनपर प्राप्त आलोचनाओं को आधार बनाकर नयी स्थापनाएं की गयीं हैं. इस विवाद पर आप क्या सोचते हैं?
आलोचना और मूल्यांकन में अन्तर होता है. दलित-आलोचक आलोचना और मूल्यांकन में अन्तर नहीं कर पा रहे हैं. आलोचना भी वे निन्दा के अर्थ में करते हैं. कबीर पर विचार करते हुए उस समय की स्थितियों को भी ध्यान में रखना चाहिए. कबीर के समय तुलसी भी थे पर कबीर ने अलग सोचा और इसीलिए आज वह महान हैं. अतः कबीर के दर्शन पर विचार करके उनके मूल्यांकन की आवश्यकता आज भी बनी हुयी है.
अरुण देव
devarun72@gmail.com
प्रो. तुलसी राम बौद्ध धर्म और साहित्य के विशेषज्ञ, वरिष्ठ दलित चिन्तक हैं. इधर अपनी आत्मकथा– मुर्दहिया से चर्चित हैं. |