वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात सुरेश ऋतुपर्ण |
लगभग 30 वर्ष पहले, सन् 1990 में ट्रिनिडाड में एक क्रिसमस पार्टी के दौरान अनायास ही भारतीय मूल के प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार सर विदिया सूरजप्रसाद नायपॉल से मेरी भेंट हुई थी. यह मुलाकात इतनी अप्रत्याशित थी कि आज भी इसे याद करने पर मैं रोमांचित हो उठता हूँ.
मैं उस समय भारतीय उच्चायोग में एक डिप्लोमैट के रूप में कार्यरत था. क्रिसमस से एक सप्ताह पहले मेरी पत्नी की मित्र श्रीमती क्लोडिया ने हमें अपने घर पर आयोजित क्रिसमस पार्टी में आमंत्रित किया. तय समय पर हम तैयार होकर निकलने वाले थे, तभी मैंने सोचा कि कैमरा ले लूँ. लेकिन मेरी पत्नी ने कहा, “छोड़ो, कैमरा लेकर क्या करोगे?” मैंने भी सोचा कि हाथ और दिमाग खाली रखना बेहतर होगा. वैसे भी, हमें देर हो रही थी और दूरी भी काफी थी.
लगभग 30 मिनट की ड्राइव के बाद हम क्लोडिया के घर पहुँचे. गाड़ी पार्क करते ही क्लोडिया स्वागत के लिए बाहर आईं और हमें अंदर ले गईं. उनके ड्रॉइंग रूम में काफी लोग थे, खास तौर पर महिलाओं की संख्या अधिक थी. इसका कारण था कि क्लोडिया भारतीय उच्चायोग से संबद्ध इंडियन वीमेन ग्रुप की सक्रिय सदस्य थीं, और ग्रुप की अधिकांश सदस्य वहाँ उपस्थित थीं.
हमें सॉफ्ट ड्रिंक दी गई. मैं ऑरेंज जूस का गिलास लेकर एक ओर खड़े क्लोडिया के पति से बात करने लगा. कुछ देर बाद क्लोडिया मेरे पास आई और बोली, “आओ, मैं तुम्हें अपने एक खास दोस्त से मिलवाती हूँ.” मैं उनके साथ चल पड़ा. क्लोडिया का घर बहुत बड़ा था. वे मुझे पीछे की ओर बने स्विमिंग पूल की ओर ले गईं. शाम हो चुकी थी, और हल्का अंधेरा छा गया था. पूल के किनारे कुछ बत्तियाँ जल रही थीं, जिनके मंद प्रकाश में हम कुर्सियों के पास रुके. वहाँ पहले से ही एक व्यक्ति बैठा था, जिसके हाथ में ड्रिंक थी. उसने धीरे से ड्रिंक सिप की और गिलास मेज पर रखा. तभी क्लोडिया ने कहा, “विदिया, इनसे मिलो. ये डॉ. ऋतुपर्ण हैं, भारतीय उच्चायोग में डिप्लोमैट हैं.”
उस क्षण मुझे समझ आ गया कि वह व्यक्ति कोई और नहीं, विश्व प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार वी.एस. नायपॉल हैं. मुझे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि इस पार्टी में उनकी मुलाकात होगी. क्लोडिया की बात सुनकर नायपॉल ने चेहरा उठाया और बेहद ठंडी आवाज़ में “हैलो” कहा. उनके चेहरे पर कोई उत्साह या ललक नहीं थी. मैं सोचने लगा कि मैं कहाँ फँस गया! लेकिन क्लोडिया ने तुरंत स्थिति को भाँप लिया. मेरे भारतीय डिप्लोमैट होने में उनकी कोई रुचि नहीं थी. फिर क्लोडिया ने बात आगे बढ़ाई,
“But look, Vidiya, he is not a career diplomat. He is the person who started the Hindi teaching program for the first time at the University of the West Indies. I think this evening you will have a good time with him.”
मेरी जान मुसीबत में थी. ट्रिनिडाड में रहते हुए मुझे दो साल होने को थे, और मैंने कई लोगों से सुना था कि नायपॉल बहुत रिज़र्व्ड और मुँहफट हैं. किसी को नहीं बख्शते. मैं सोच रहा था कि पता नहीं क्या होगा. बिना उनकी अनुमति के बैठना भी उचित नहीं था, और लौटना भी ठीक नहीं लग रहा था. लेकिन क्लोडिया के शब्दों ने जादू किया. नायपॉल के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभरी, और वे बोले, “ओह! ए प्रोफेसर ऑफ़ हिन्दी लिटरेचर. हैव ए सीट. क्लोडिया गिव हिम ए ड्रिंक !
सच कहूँ, मैं सकुचाते और कुछ डरते हुए उनकी बगल वाली कुर्सी पर बैठ गया. मन में यह चिंता थी कि क्या वे बात करेंगे, और अगर करेंगे तो क्या? मुझे उनके बारे में सिर्फ़ सतही जानकारी थी; उनकी कोई पुस्तक पूरी तरह नहीं पढ़ी थी. अवसर भी नहीं मिला था. तभी क्लोडिया मेरे लिए ड्रिंक ले आई. मैंने “चीयर्स” कहा, तो वे भी मुस्करा उठे. धीरे-धीरे माहौल सहज होने लगा. मैं सोच रहा था कि बातचीत की शुरुआत कैसे करूँ, तभी उन्होंने मुझसे सवाल किया,
“Professor, tell me, was Premchand really as poor as he is depicted in the books? He was the most popular writer in India. His novels were prescribed in the syllabus, and he also had his own printing press. How could he be so poor?”
मैं अवाक् रह गया. मुझे इस तरह के सवाल की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी. यह मेरे लिए अचंभे की बात थी कि नायपॉल प्रेमचंद का नाम जानते हैं. मैंने खुद को संभाला और जवाब दिया, (हमारी सारी बातचीत अंग्रेजी में हो रही थी लेकिन मैं उसका भावार्थ हिन्दी में प्रस्तुत करूंगा) “हाँ, यह सही है कि प्रेमचंद अपने शुरुआती दिनों में बहुत संपन्न लेखक नहीं थे, लेकिन गरीब भी नहीं थे. उनके मार्क्सवादी आलोचक उन्हें गरीब दिखाते रहे हैं, क्योंकि उनके हिसाब से केवल गरीब लेखक ही प्रगतिशील हो सकता है.”
वे हल्के से मुस्कराए और बताया कि उन्होंने गोदान का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा है. माहौल और सहज हो गया. फिर वे अपने बचपन की यादें साझा करने लगे. उनके दादा और पिता हिंदी जानते थे. वे बचपन में उनके मुँह से रामचरितमानस की चौपाइयाँ और हनुमान चालीसा सुना करते थे. आसपास कुछ कबीर पंथी भी रहते थे, जो कबीर के पद बड़े सुंदर ढंग से गाते थे. मैंने पूछा, “क्या आपने हिंदी पढ़ी थी?” उन्होंने बताया, “नहीं, क्योंकि उसके पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं थी. मेरे पिता पढ़ाई को बहुत महत्व देते थे. उन्होंने अपनी मेहनत से पढ़ाई की थी और हम सभी को पढ़ाने पर विशेष ध्यान दिया.”
अचानक वे बोले, “प्रोफेसर, पश्चिमी लोगों को हमारे साहित्य के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, क्योंकि हमारे यहाँ अच्छे अनुवाद उपलब्ध नहीं हैं.”
मैंने उनकी बात से सहमति जताई. तभी क्लोडिया का बुलावा आया कि डिनर परोसा जा रहा है. हम डिनर टेबल की ओर बढ़े. मैंने अपनी पत्नी और दोनों बेटियों को बुलाया और उनका परिचय नायपॉल से कराया. उनकी बड़ी बहन कमला भी वहाँ आ चुकी थीं. मेरी पत्नी उनसे पहले ही परिचित थीं. मैं मन ही मन सोच रहा था कि काश, आज कैमरा होता तो इस अवसर की कुछ तस्वीरें ले लेता. तभी मैंने देखा कि क्लोडिया अपना कैमरा लेकर आ रही थी. उसने कहा, “चलो, आप सबका एक ग्रुप फोटो लेती हूँ.” उस दिन ली गई तस्वीर इस लेख के साथ प्रकाशित है.

इसी बीच मेरी छोटी बेटी जूही, जो तब 8 साल की थी, मुझसे पूछने लगी, “ये अंकल कौन हैं?” मैंने धीरे से उसके कान में बताया कि ये अंग्रेजी साहित्य के बहुत बड़े लेखक हैं. वह बोली, “तो क्या मैं इनका ऑटोग्राफ ले लूँ?” मैंने कहा, “तुम्हारी ऑटोग्राफ बुक तो घर पर है.” उसने कहा, “कोई बात नहीं,” और इधर-उधर देखने लगी. तभी उसे ज़मीन पर एक कार्ड पड़ा दिखा. उसने उसे उठाया, अपने फ्रॉक से साफ किया, और नायपॉल के पास जाकर बोली, “अंकल, ऑटोग्राफ प्लीज़!”
मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा. पता नहीं, इस बच्ची की हरकत पर वे क्या कहेंगे. नायपॉल ने जूही की ओर देखा. उसने कार्ड उनकी ओर बढ़ाया. उनके चेहरे पर एक अजीब-सा भाव उभरा. उन्होंने कार्ड को देखा, फिर जूही को. फिर न जाने क्या सोचकर, हल्के से मुस्कराते हुए कार्ड ले लिया. कोट की जेब से पेन निकाला और ऑटोग्राफ देकर कार्ड जूही को थमा दिया. मेरी जान में जान आई. पास खड़ी कमला हँस रही थीं.

यह थी ट्रिनिडाड में वी. एस. नायपॉल से मेरी पहली और आखिरी मुलाकात, जो पूरी तरह अनायास और अप्रत्याशित थी. कैमरा न होने के बावजूद फोटो खींचा गया, और ऑटोग्राफ बुक न होने के बावजूद ऑटोग्राफ मिल गया. जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं, जिनकी कल्पना भी नहीं की जाती. मेरे साथ ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं.
दो)
इसी क्रम में कुछ और रोचक घटनाएँ घटीं. सेंट जेम्स इलाके में एक मंदिर था, ‘पश्चिम काशी’, जिसके निर्माण में नायपॉल के मामा श्री शंभुनाथ कपिलदेव का बड़ा योगदान था. मैं प्रत्येक रविवार को परिवार के साथ वहाँ पूजा-आरती के लिए जाता था. वहाँ हमारे उच्चायोग के सभी सहयोगी भी अपने परिवार के साथ आते थे. इस दौरान पोर्ट ऑफ स्पेन में बसे अन्य भारतीयों से मिलने का सुखद अवसर भी मिलता था.
एक दिन मंदिर की सबसे पीछे वाली बेंच पर सफेद कुर्ता पहने एक वृद्ध सज्जन ने मुझे इशारे से बुलाया. उनसे परिचय हुआ. उन्होंने यह तो नहीं बताया कि वे नायपॉल के मामा हैं, लेकिन उनका नाम जानकर मैं समझ गया कि वे शंभुनाथ कपिलदेव हैं. वे जाने-माने बैरिस्टर थे और सेंट जेम्स में ही रहते थे. वे बहुत अच्छी हिंदी बोलते थे. भारत की नई-नई खबरें सुनने के लिए वे मुझे याद करते, और मैं उनके पास बैठकर ढेर सारी जानकारी प्राप्त करता.
यह वही इलाका है, जहाँ नायपॉल परिवार का घर था. वहाँ कई गलियों के नाम भारत के शहरों के नाम पर हैं, जैसे दिल्ली स्ट्रीट, पटना स्ट्रीट. एक गली का नाम नेपाल स्ट्रीट है, जिसमें 26 नंबर मकान नायपॉल के पिता ने खरीदा था. इसका ज़िक्र उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ में है.
रक्षाबंधन के अवसर पर मंदिर में विशेष आयोजन था. हमेशा की तरह हम भी वहाँ थे. दर्शन के बाद मैं शंभुनाथ जी के पास बैठ गया. मंदिर में हवन, पूजन और कीर्तन चल रहा था. तभी एक महिला छोटी-सी थाली में राखी और रोली लेकर मुख्य द्वार से अंदर आई और शंभुनाथ जी के बगल में बैठ गई. दोनों में नमस्ते के साथ कुछ बातचीत हुई. मैं सामने देख रहा था, क्योंकि मुझे नहीं पता था कि वे कौन हैं. तभी शंभुनाथ जी ने उनकी ओर इशारा करते हुए कहा, “ये हमारी बहन हैं, यहीं पास में रहती हैं.” मैंने प्रणाम किया. उन्होंने मुस्कराते हुए “सीता-राम” कहा.
अब तक आप समझ गए होंगे कि वे कोई और नहीं, वी.एस. नायपॉल की माँ द्रोपती थीं. उनके नाक-नक्श तीखे और चेहरा सौम्य था. वे सादी सफेद सूती साड़ी पहनती थीं और सिर हमेशा ढँका रहता था. उनका रंग गहरा साँवला था. इसके बाद कई बार मंदिर में उनसे भेंट हुई, लेकिन बातचीत “सीता-राम” के अभिवादन तक ही सीमित रही.
एक दिन कार्यालय पहुँचने पर पता चला कि श्रीमती द्रोपती नायपॉल का निधन हो गया है. उसी दोपहर उनका अंतिम संस्कार होने वाला था. हमारे उच्चायुक्त विदेश में थे, इसलिए मैं मिशन की ओर से शोक प्रकट करने के लिए रीथ लेकर सरकूलर मॉल के पास स्थित इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम गया. द्रोपती का जन्म 1913 में पंडित रघुनाथ कपिलदेव के घर सातवीं संतान के रूप में हुआ था, और 1991 में 78 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ.
ट्रिनिडाड अपने इस महान लेखक पर बहुत गर्व करता है. मेरी उनसे भेंट सन् 1990 में हुई थी, यानी आज से लगभग 35 वर्ष पहले. वहाँ रहते हुए मेरी मुलाकात कई ऐसे लोगों से भी हुई, जिनके पास नायपॉल और उनके परिवार से जुड़ी अनेक कहानियाँ थीं. इनमें उनके पिता सीपरसाद नायपॉल, नाना पंडित रघुनाथ कपिलदेव, और मामा शंभुनाथ व रुद्रनाथ कपिलदेव के बारे में कई बातें शामिल थीं. इनका प्रमाण सीपरसाद और वी.एस. नायपॉल के लेखन में भी मिलता है.
वी. एस. नायपॉल की लगभग 29 रचनाओं में सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ है, जो उनके पिता के जीवन-संघर्ष पर आधारित माना जाता है. इसमें चित्रित ‘हनुमान हाउस’ वास्तव में पंडित कपिलदेव महाराज का बनवाया आनंद भवन, उर्फ लायन हाउस, है, जो ट्रिनिडाड के शगुआनस में स्थित है. लगभग 100 वर्ष पुराना यह मकान आज ट्रिनिडाड का गौरव स्थल है, क्योंकि यहीं 1932 में वी.एस. नायपॉल का जन्म हुआ था. उनके माता-पिता इसी मकान में रहते थे. वे घर-जमाई थे. पंडित कपिलदेव का परिवार भी बहुत बड़ा था, और सीपरसाद व द्रोपती के सात बच्चों में से पाँच यहीं जन्मे थे.
इस मकान को ट्रिनिडाड में ‘लायन हाउस’ के नाम से जाना जाता है. पंडित रघुनाथ कपिलदेव 1894 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से गिरमिटिया मज़दूर के रूप में ट्रिनिडाड गए थे. उन्होंने मेहनत और पंडिताई से जल्दी ही अच्छा धन कमा लिया और 1920 के आसपास यह मकान बनवाना शुरू किया. इसका नाम आनंद भवन रखा गया. मकान के बाहरी किनारों पर सीमेंट के दो शेर बनवाए गए. पंडित कपिलदेव कहा करते थे, “गोरखपुर में मेरा घर ऐसा ही था. अब ट्रिनिडाड में यह स्थान मेरा गोरखपुर है.” इस घर में उनके 11 बच्चों का जन्म हुआ. उनकी सातवीं संतान द्रोपती का विवाह 1929 में सीपरसाद नायपॉल से हुआ, और कपिलदेव की पत्नी सूगी ने उन्हें घर-जमाई बनाकर रख लिया. 1930 में उनकी पहली संतान कमला और 1932 में विदिया का जन्म हुआ.
चूँकि यह परिवार बहुत बड़ा था, इसलिए आपसी रिश्तों में कई परेशानियाँ आती थीं. खास तौर पर उनके दोनों बेटों, शंभू और रुद्र, की अपने जीजा से नहीं बनती थी. सीपरसाद एक संघर्षशील पत्रकार थे, और उनकी आय बहुत अधिक नहीं थी. इस कारण रोज़मर्रा के अहंकार की लड़ाइयाँ होती रहती थीं. वी.एस. नायपॉल ने बचपन में इन घटनाओं को देखा, जिनका उनके मन पर गहरा असर पड़ा. उनके पिता अक्सर कहते, “देखना, एक दिन मेरा भी घर होगा.” यही वह मूल भावना थी, जो ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ की प्रेरणा बनी.
तीन)
वी.एस. नायपॉल की माँ द्रोपती की भारत यात्रा से जुड़ी एक घटना ट्रिनिडाड के प्रसिद्ध ब्रॉडकास्टर और नेशनल काउंसिल ऑफ इंडियन कल्चर के अध्यक्ष श्री हंस हनूमान सिंह ने सुनाई थी. वे अमराल ट्रैवल एजेंसी के मालिक थे और 1980 के दशक में पुरखों के देश की यात्रा’ के तहत ट्रिनिडाड के लोगों को बड़े समूहों में भारत यात्रा पर ले जाते थे. संभवतः इसी यात्रा के पहले या दूसरे समूह में द्रोपती नायपॉल भी भारत आई थीं. यह उनकी जीवनभर की इच्छा थी, जो पति सीपरसाद के 1953 में निधन और पुत्र के लंदन चले जाने के कारण पूरी नहीं हो पाई थी. इस समूह के साथ वे भारत आईं. उनके लिए भारत पुरखों का देश और तीर्थ था, इसलिए वे बहुत प्रसन्न थीं.
हंस हनूमान सिंह ने ट्रिनिडाड में कई बड़े कार्यक्रम आयोजित किए थे, जिनमें अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, और कंचन-बबला जैसे कलाकारों के शो शामिल थे. इसलिए भारत में उनके संपर्क व्यापक थे. इस समूह यात्रा के लौटने से पहले बंबई (अब मुंबई) में पत्रकारों के साथ यात्रियों की भेंटवार्ता आयोजित की गई थी. जब हंस हनूमान सिंह ने द्रोपती का परिचय वी.एस. नायपॉल की माँ के रूप में कराया, तो पत्रकार उनकी पुस्तक ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ को लेकर उनसे उलझ पड़े और आलोचना करने लगे. स्थिति काफी असहज हो गई. किसी तरह यह भेंटवार्ता समाप्त हुई, लेकिन द्रोपती के मन पर गहरा अवसाद छा गया.
दरअसल, ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ नायपॉल की निराशा से उपजी पुस्तक थी. जब वे लगभग एक वर्ष तक भारत में रहे और पूरे देश का भ्रमण किया, तो जो भारत उन्होंने देखा, वह उनकी कल्पना के भारत से बिल्कुल अलग था. उनके पुरखों, माता-पिता, और किंवदंतियों के ज़रिए जो भारत उनके मन में बसा था, वह पूरी तरह ध्वस्त हो गया. 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ, और उसी समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई.
इसके बाद उनकी दो अन्य पुस्तकें भारत पर आईं: 1977 में इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइज़ेशन और 1990 में ‘इंडिया: ए मिलियन म्यूटिनीज़ नाउ’. इन पुस्तकों में उनका दृष्टिकोण धीरे-धीरे बदलता गया, और उन्हें भारत की अंतर्निहित शक्ति का अहसास हुआ.
कुछ वर्ष पहले जब मैं पुनः ट्रिनिडाड गया, तो हंस हनूमान सिंह से फिर मुलाकात हुई. उन्होंने मुझे एक पुस्तक भेंट की, ‘बिटवीन फादर एंड सन: फैमिली लेटर्स.’ यह पुस्तक वी.एस. नायपॉल, उनके पिता सीपरसाद, माँ, और बड़ी बहन कमला के बीच 21 सितंबर 1949 से 20 जून 1957 तक के पत्रों का संकलन है. यह पुस्तक नायपॉल की रचनात्मक प्रतिबद्धता को उजागर करती है. यह एक ओर पिता-पुत्र के आत्मीय संवाद को प्रस्तुत करती है, तो दूसरी ओर उनके ननिहाल से जुड़े लोगों के प्रति उनकी नाराज़गी को भी प्रकट करती है. इन पत्रों को पढ़ने से ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ की सृजन-कथा के कई पहलू स्पष्ट होते हैं, और यह भी साफ़ होता है कि यह रचना आत्म कथात्मक है.
सीपरसाद नायपॉल अपने जीवन में जो नहीं कर पाए, वह उनका पुत्र करे, ऐसी उनकी आकांक्षा इन पत्रों में झलकती है. वे पत्रकार और कथालेखक थे, लेकिन उनका जीवन आर्थिक तंगी की त्रासदी बनकर रह गया. उनकी बड़ी बेटी कमला बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने गई थीं, और बड़े बेटे विदिया को सरकारी छात्रवृत्ति पर ऑक्सफोर्ड पढ़ने का अवसर मिला. ये दोनों उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियाँ थीं, जिन पर उन्हें गर्व था. लेकिन इन बच्चों की पढ़ाई और घर चलाने की चिंताओं से वे कभी मुक्त नहीं हो सके और मात्र 47 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया.
पिता के इस संघर्षमय जीवन से वी.एस. नायपॉल को प्रेरणा मिली. ऑक्सफोर्ड के वर्षों में उन्होंने धन कमाने के लिए कई तरह के काम किए— खेतों में मज़दूरी, किताबें बेचना, और कैरेबियन वॉयसेज़ के लिए प्रसारण. धीरे-धीरे उनके जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हुआ, और उन्होंने लेखक बनने का निश्चय किया. उनके पिता ने उन्हें लेखन का सबसे महत्वपूर्ण गुर सिखाया:
“One cannot write well unless one can think well. However, when writing fiction, one must be able to think as the character would in the given circumstances.”
इसी तरह, एक आदर्श माँ की तरह, द्रोपती भी कभी-कभी अपने पति के पत्रों के साथ कुछ पंक्तियाँ लिख देती थीं. 24 जनवरी 1952 को लिखे एक पत्र में उन्होंने विदिया से पढ़ाई पर ध्यान देने और “गोरी लड़की” से शादी न करने का आग्रह किया:
“Well, this is one thing I beg you not to do — please don’t marry a white girl. I’m not saying you will, but your aim should be your studies, nothing else. I suppose there are plenty of Indian girls studying in England. If you marry one of them, and only after you have completed your education, I shall be very pleased.”
किसी भी भारतीय पिता की तरह, सीपरसाद चाहते थे कि उनका बड़ा बेटा पढ़-लिखकर घर लौटे, यहीं नौकरी करे, और शादी करे. लेकिन वे जल्दी शादी न करने की सलाह भी देते थे, क्योंकि घर की स्थिति ठीक नहीं थी. 24 सितंबर 1953 के एक पत्र में उन्होंने विदिया को स्पष्ट लिखा: “तुम जल्दी शादी मत करना. घर की स्थिति ठीक नहीं है. पहले घर को देखो, फिर शादी करना.”
अपने पत्रों में सीपरसाद बेटे को बार-बार बताते कि ट्रिनिडाड में नए स्कूल-कॉलेज खुल रहे हैं, और शिक्षकों की ज़रूरत है. संकेत था कि वह लौट आए, नौकरी पक्की है. लेकिन वी.एस. लौटना नहीं चाहते थे. उनके अपने तर्क थे. पिता बार-बार कुछ समय के लिए घर आने की इच्छा जताते रहे. उनका आखिरी पत्र 24 सितंबर 1953 को लिखा गया, जिसका जवाब वी. एस. ने 8 अक्टूबर 1953 को एक लंबे पत्र में दिया. यह पत्र बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें उनकी भविष्य की योजनाएँ झलकती हैं. उन्होंने लिखा:
अगले 10 महीनों (जून-जुलाई) के बाद मैं आपके पास आऊँगा. यह वादा है.
मैं आपकी इच्छा समझता हूँ कि मैं ट्रिनिडाड में बस जाऊँ, लेकिन मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ऐसा करने पर मैं अपनी बौद्धिक भूखमरी से मर जाऊँगा.
उन्हें ट्रिनिडाड के लोगों और अपने मामा-मामी का व्यवहार बचकाना लगता था. इसलिए वे लिखते हैं:
And it seems difficult for me to find a society to which I could belong without effort
यह उनका आखिरी पत्र था. इसके कुछ ही समय बाद, संभवतः 8-10 अक्टूबर 1953 के बीच, सीपरसाद का निधन हो गया. संभव है कि उन्हें यह पत्र भी न मिला हो, क्योंकि 10 अक्टूबर को वी. एस. ने घर संवेदना का टेलीग्राम भेजा था.
14 अक्टूबर 1953 को उन्होंने अपनी माँ को पत्र लिखा और घर की स्थिति को लेकर चिंता जताई. वे अपने जीवन को पिता के जीवन की निरंतरता में देखते थे. 28 अक्टूबर 1953 के पत्र में वे लिखते हैं:
I had always looked upon my life as a continuation of his – a continuation which I hoped, would also be fulfilment. It still , is, but I have abandon the idea of growing olden in Pa’s company, and I have to get strength to stand alone, I only wish I have half Pa’s bravery and fortitude.
3 मई 1954 के एक पत्र में वे माँ को लिखते हैं कि वे ट्रिनिडाड स्टाइल का जीवन जीने में असमर्थ हैं:
“The Fact is this. I don’t see myself fitting into Trinidad way of life. I think I shall die if I had to spend the rest of my life in Trinidad,”
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि वी. एस. नायपॉल के मन में अपनी जन्मभूमि ट्रिनिडाड के लिए कोई आकर्षण नहीं था. वे पूरे जीवन इंग्लैंड में रहे और वहाँ से दुनिया भर में भटकते रहे. वे पूरी तरह प्रवासी थे, कहीं के नहीं. एक बार प्रसिद्ध पत्रकार राहुल सिंह ने उनसे पूछा,
“आप, यदि मैं कहूँ, रवींद्रनाथ टैगोर के बाद दूसरे भारतीय हैं, जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला. भारतीयों को आप पर गर्व है. आपने भारत पर तीन पुस्तकें लिखीं, और आपके उपन्यास ‘ए बेंड इन द रिवर’ का मुख्य पात्र भी भारतीय है. क्या इसका मतलब है कि आपने खुद को भारतीय मानना शुरू कर दिया है?”
नायपॉल ने कुछ नाराज़गी के साथ जवाब दिया,
“मैंने अपने नोबेल पुरस्कार समारोह के भाषण में कहा था कि मैं ट्रिनिडाड में जन्मा हूँ, मैंने अपना अधिकांश जीवन इंग्लैंड में जिया है, और भारत मेरे पुरखों का देश है. यही सब कुछ है. मैं न अंग्रेज़ हूँ, न भारतीय, न ट्रिनिडाडियन. मैं मैं हूँ.”
इससे समझा जा सकता है कि नायपॉल ने एक विस्थापित का जीवन जिया. वे पूरी तरह किसी एक के नहीं थे. कभी-कभी लगता है कि उनमें एक कड़वाहट थी, जो शायद बचपन में नाना के घर में माता-पिता के प्रति असम्मान और असुरक्षा से जन्मी थी. अपनी बहन कमला को 3 अक्टूबर 1955 के एक पत्र में उन्होंने लिखा:
Look, I am going to be a success as a writer. I know that. I have gambled all my future on that possibility.
इसी साफ़गोई के कारण वे बार-बार आलोचना के पात्र बने. उनके लक्ष्य शुरू से स्पष्ट थे, और वे उस ओर निरंतर बढ़ते गए. शुरुआत में पिता उनकी इस प्रवृत्ति को समझते और प्रोत्साहित करते थे. उनके न रहने के बाद वे अकेले थे, और अपनी राह खुद बनानी थी. वे परिवार के दबावों को झेलते और हटाते हुए आगे बढ़े. 6 अप्रैल 1955 को कमला को लिखे पत्र में वे कहते हैं:
“मैं लेखक बनने जा रहा हूँ. मैंने बहुत संघर्ष किया है. मेरे पास अब वह हिम्मत है, जो मुझे अपने लक्ष्य तक ले जाएगी.”
3 अक्टूबर 1955 के पत्र में उन्होंने कमला को बताया कि उन्होंने पैट से शादी कर ली है. ज़ाहिर है, उनकी माँ की आशंका सच साबित हुई. यह उनकी ज़िंदगी का एक बड़ा दाँव था. इसके बाद दिसंबर 1955 में उन्होंने कमला को एक तार भेजा: “पुस्तक स्वीकृत.” यह वह क्षण था, जिसका वे इंतज़ार कर रहे थे. उनका पहला उपन्यास ‘द मिस्टिक मेस्योर’ प्रकाशक द्वारा स्वीकृत हो गया. काश, उनके पिता अपने बेटे की सफलता देखने के लिए जीवित होते.
10 फरवरी 1956 के पत्र में उन्होंने कमला को द मिस्टिक मेस्योर के स्वीकृत होने की पूरी कहानी बताई. पत्र के अंत में वे आत्मविश्वास से लिखते हैं:
“मुझे नहीं लगता कि मेरे पास कोई खास प्रतिभा है, लेकिन मैं जानता हूँ कि मैंने जो समय लेखन में लगाया, वह व्यर्थ नहीं जाएगा.”
यह आत्मविश्वास उनकी साहित्यिक यात्रा में निरंतर मज़बूत हुआ. 29 से अधिक रचनाओं के साथ वे अंग्रेजी साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित लेखक बने और 21वीं सदी का पहला नोबेल पुरस्कार (2001) उनके नाम हुआ. यह उनकी उस यात्रा का चरम बिंदु था, जिसकी शुरुआत उन्होंने 1949 में की थी. 24 नवंबर 1949 को ऑक्सफोर्ड जाने से पहले कमला को लिखे पत्र में वे कहते हैं:
My stay in Trinidad is drawing to a close – I only have nine months left. Then I shall go away never to come back, as I trust. I think I am at heart really a loafer. Intellectualism is merely fashionable sloth. That’s why I think I am going to be either a big success or an unheard of failure, But I am prepared for anything . I want to satisfy myself that I have lived as I wanted to live.
19 साल की उम्र में ऑक्सफोर्ड जाने की तैयारी कर रहे एक युवा की यह स्पष्टता उनकी नियति को दर्शाती है. अपनी बहन को सलाह देते हुए वे उसी पत्र में लिखते हैं:
My thesis is that the world is dying – Asia today is only a primitive manifestation of a long dead culture; Europe is battered into a Primitism by masterial circumstances. America is an abortion. Look at Indian Music. It is being influenced by western music to an amusing extent, Indian painting and sculpture have ceased to exist. That is the picture I want you to look for – a dead country still running with the momentum of its hey day.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के विश्व का यह आकलन उनकी कुशाग्रता को दर्शाता है. बाद में जब वे ट्रिनिडाड में “बौद्धिक भूखमरी” की बात करते हैं, तो वह गलत नहीं थी. वे कुएँ का मेढ़क नहीं बन सकते थे. उनकी मंज़िलें शुरू से स्पष्ट थीं.
इसी प्रबुद्धता ने उन्हें अहंकार की सीमा तक मुँहफट बना दिया. उनसे बात करते समय बहुत सावधानी बरतनी पड़ती थी. उनकी प्रतिक्रियाएँ तीखी होती थीं. जो बात उन्हें ठीक लगती, उसे वे बिना लाग-लपेट के कह देते. उनका कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं था. वे एक निरीक्षक थे. उनकी दृष्टि सभी तरह के भेदभाव, अन्याय, और क्रूरता को समग्रता में समझने की थी. भारत पर उनकी तीनों पुस्तकों को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है.
भारतीय मूल के इस विश्व-नागरिक लेखक की 90वीं जन्म-जयंती पर यह स्मरणांजलि.
विश्व-नागरिक की त्रासदी यही है कि वह सबका होता है, और कहीं का नहीं. यही कारण है कि वी.एस. नायपॉल प्रवासी साहित्य के अप्रतिम शिखर हैं. वे भले ही इंग्लैंड में रहे, लेकिन उनका यायावर मन उन्हें दुनिया के हर कोने में ले जाता था.
आज पूरी दुनिया विस्थापन के दौर से गुज़र रही है. अवसरों की तलाश में मनुष्य अपनी जड़ों से दूर जाने को अभिशप्त है. कुछ इसे सुविधाओं की होड़ कह सकते हैं, लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में यह शोषण का एक नया रूप बन गया है. विस्थापित मनुष्य पूँजीवादी ताकतों की कठपुतली बनने को मजबूर है. मध्य-पूर्व में काम करने वाले भारतीय प्रवासी मज़दूरों की कहानियाँ इसका जीवंत उदाहरण हैं. एक बार घर से निकलने के बाद लौटना लगभग असंभव हो जाता है. यही प्रवासी की विडंबना है.
वी.एस. नायपॉल भी ट्रिनिडाड से निकले और फिर कभी लौट नहीं सके. 25 वर्ष की आयु में उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. वे घोर असंतोषी थे. लगता था कि दुनिया की कोई चीज़ उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकती. उनकी तीक्ष्ण आलोचनात्मक दृष्टि उन्हें यथार्थवादी बनाती थी. उनकी रचनाओं में जीवन की रागात्मकता का अभाव है.
उनकी रचनाएँ मनुष्य की वेदना, पीड़ा, असफलता से जन्मी निराशा, और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट को अभिव्यक्त करती हैं. लेकिन इन सबके बावजूद, मनुष्य के पास छोटी-छोटी खुशियाँ, आशा, प्रेम, परिहास, त्याग, और तपस्या जैसे भाव भी होते हैं, जो इस विश्व को चलाते हैं. घोर निराशा में भी आशा की किरण उजास बनकर आती है, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती.
भारतीय मूल के वी.एस. नायपॉल से पहले 1913 में रवींद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था. एक भारत का है, तो दूसरा भारतीय मूल का. दोनों की जन्मभूमि और जीवन-परिस्थितियाँ अलग हैं. उनके साहित्यिक सरोकार भी भिन्न हैं. टैगोर के लिए मनुष्य की संभावनाएँ अनंत हैं. उनकी रचनाओं में मनुष्य का आंतरिक जीवन संगीत की तरह गूँजता है. उनका मनुष्य लाचार नहीं है. वह गहरी वेदना में भी जीवन का अमृत खोज लेता है. वहीं, नायपॉल की रचनाओं में मनुष्य हारी हुई लड़ाई जीतने की कोशिश में लगा है. भविष्य की अनिश्चितता से जूझना उसकी नियति है.
ईमानदारी से देखें, तो टैगोर, शरतचंद्र, प्रेमचंद, और फणीश्वरनाथ रेणु जैसे रचनाकारों का रचना-फलक नायपॉल की तुलना में कहीं अधिक विस्तृत और बहुआयामी है. उनमें सार्वजनिकता और सार्वकालिकता की गूँज अधिक है. टैगोर और नायपॉल, दोनों नोबेल विजेताओं का तुलनात्मक अध्ययन रोचक हो सकता है.
तीन देशों और तीन संस्कृतियों से जुड़े नायपॉल की जड़ें कहीं से नहीं जुड़ी थीं. कभी-कभी लगता है कि उनका जीवन त्रिशंकु का था. अपनी जड़ों की गहराई तलाशने वाला यह लेखक किसी भी जड़ को स्वीकार नहीं कर सका.
जिसकी जड़ें एक स्थान पर नहीं होतीं, वह यायावर बन जाता है. नायपॉल निश्चित रूप से यायावर थे. उन्हें किसी चीज़ की तलाश थी, जो उन्हें भटकाती थी. सारी दुनिया घूमने के बाद वे इंग्लैंड लौटते, लेकिन उन्हें चैन कहीं नहीं था. भारत की भी उन्होंने कई यात्राएँ कीं. फिल्म ‘शोला और शबनम का यह गीत मुझे यहाँ याद आता है: “जाने क्या ढूँढ़ती रहती हैं ये आँखें मुझमें, राख के ढेर में शोला है न चिंगारी.” वे जीवनभर कुछ ढूँढ़ते रहे.
उनके पिता का पूरा जीवन एक घर की तलाश में बीता था. वी.एस. में भी यह तलाश का तत्व था. किसी भी बड़े लेखक की यह तलाश—खुद को पहचानने और पाने की आकांक्षा— ही उसकी रचनात्मक ऊर्जा का स्रोत होती है.
कोई कहे कि नायपॉल लंदन में बस गए, इसलिए इंग्लैंड उनका घर था, लेकिन उनके लेखन का अधिकांश लंदन से नहीं जुड़ा. उनकी स्मृतियाँ ट्रिनिडाड की हैं, जिनमें उनके पुरखों द्वारा संचरित भारत की स्मृतियाँ भी शामिल हैं. इंग्लैंड में उन्होंने हवा-पानी लिया, लेकिन उनके लेखन की जड़ें वहाँ नहीं थीं.
सच तो यह है कि कोई भी बड़ा लेखक अपने अतीत की अवहेलना नहीं कर सकता. वह अपने हिस्से का अतीत जीने को अभिशप्त होता है. यह उस पर निर्भर है कि वह इसे अभिशाप माने या वरदान. नायपॉल के लेखन का श्रेष्ठ हिस्सा ट्रिनिडाड की स्मृतियों से ही निकला है. लेकिन वे ट्रिनिडाड लौटना नहीं चाहते थे. उनकी रचनाओं में ट्रिनिडाड के सहारे भारत की स्मृतियाँ रची-बसी हैं.
उन्होंने कई बार भारत की यात्रा की. भारत ही वह देश है, जो उन्हें निरंतर आकर्षित और बेचैन करता रहा. उसका बाहरी खोल उन्हें “अग्ली” लगता—ढोंग, पाखंड, भ्रष्टाचार, पंडे-पुजारी, हज़ार साल की गुलामी से जन्मी मानसिकता, और उपनिवेशवादी काल का बनावटी दंभ. ये सब उन्हें नाराज़ करते थे. उनकी पुस्तक इंडिया: ए मिलियन म्यूटिनीज़ नाउ की भूमिका में वे लिखते हैं:
“भारत मेरे लिए एक जटिल देश है. यह मेरा गृह-देश नहीं है, और मेरा घर हो भी नहीं सकता. लेकिन मैं इसे खारिज नहीं कर सकता, न ही इसके प्रति उदासीन हो सकता हूँ.”
इसी भूमिका के अंत में वे कहते हैं:
“मैं भारत में एक अजनबी हूँ, लेकिन मैं समझ रहा हूँ कि भारत से जुड़ी मेरी स्मृतियाँ- वह भारत जो ट्रिनिडाड में मेरे बचपन में व्याप्त था- एक अतल अतीत में उतरने के चोर दरवाजों की तरह हैं.”
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सुरेश ऋतुपर्ण (1949, मथुरा ) ![]() 1988 से 1992 तक ट्रिनीडाड एवं टुबैगो स्थित भारतीय हाई कमीशन में राजनयिक के रूप में प्रतिनियुक्ति. सन् 1999 से 2002 तक मॉरिशस स्थित महात्मा गांधी संस्थान में ‘जवाहरलाल नेहरू चेयर ऑफ़ इंडियन स्टडीज़’ पर अतिथि आचार्य के रूप में कार्य. ‘मुक्तिबोध की काव्य-सृष्टि’ व ‘हिन्दी की विश्व-यात्रा’, ‘मुट्ठियों में बन्द आकार’, ‘द विक’, ‘निकन्धायन’, ‘फ़िजी में सनातन धर्म’, ‘जापान की लोककथाएँ’ सहित कई पुस्तकें प्रकाशित. सन् 1980 में प्रथम कविता-संग्रह ‘अकेली गौरैया देख’ प्रकाशित एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत. अमेरिका, जापान, कनाडा, ट्रिनीडाड, सूरीनाम, गयाना, फ़िजी, मॉरिशस, फ़्रांस, जर्मनी, इटली आदि के अतिरिक्त यूरोप के अनेक देशों की यात्राएँ एवं दीर्घ प्रवास. ‘विश्व हिन्दी न्यास’ (न्यूयॉर्क, अमेरिका) के अन्तर्राष्ट्रीय समन्वयक एवं त्रैमासिक पत्रिका ‘हिन्दी जगत’ के प्रबन्ध सम्पादक. विदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार के लिए भारतीय विदिया संस्थान, ट्रिनीडाड द्वारा ‘ट्रिनीडाड हिन्दी भूषण सम्मान’/ हिन्दी फ़ाउंडेशन ऑफ़ ट्रिनीडाड एवं टुबैगो द्वारा ‘हिन्दी निधि सम्मान’ एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा वर्ष 2004 में ‘विदेश हिन्दी प्रचार सम्मान’, ‘फ़ादर कामिल बुल्के सम्मान’, ‘सरस्वती साहित्य सम्मान’ आदि से सम्मानित. जापान के ‘तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़’ में प्रोफ़ेसर पद पर भी कार्य. सम्प्रति : निदेशक, के.के. बिरला फ़ाउंडेशन. |
नायपॉल की मनोस्थिति को देखकर मुझे निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का एक दार्शनिक किरदार डॉ मुखर्जी की याद आती है। वे बर्मा से थे और उन्हें भारत आना पड़ा। उनकी इच्छा है कि वे एक बार अपने देश जाएं। लेकिन साथ ही उन्हें यह भी लगता है कि वहां उन्हें पहचानेगा कौन?
नायपॉल के ऊपर यह लेख बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक भी है।
नायपाॅल के बारे में सुरेश ऋतुपर्ण से जानना बहुत महत्वपूर्ण लगा। दरअसल लेखन उन्हीं लोगों का सच्चा हो सकता है जिनमें माकूल जीवटता, साहस और आत्मविश्वास हो। लेखक को पूरे जीवन को दाव पर लगाना पड़ता है। उसे सारी दुनिया पर नजर रखनी चाहिए।
समालोचन को बहुत धन्यवाद।
मैंने नायपाॅल साहब की सर्वाधिक चर्चित पुस्तक “एरिआ ऑफ डार्कनेस ” नब्बे के दशक में पढ़ा था। नायपाॅल बहुत साफगोई से भारत की समस्याओं और कमजोरियों पर दृष्टिपात करते हुए दिखते हैं। आज के लेखकों के लिए वे एक बानगी हैं।
पहली बार वी एस नायपॉल पर इतना सारगर्भित संस्मरण पढ़ने को मिला।सुरेश ऋतुपर्ण जी ने नायपॉल के ऊपर फैली काफी राख धूल साफ करने का प्रयास किया है।An Area of Darkness पढ़ने के बाद हमारे मन में भी उनकी एक नकारात्मक छवि बन गयी थी। हम उंन्हे भारत विमुख या भारत द्वेषी तक समझ लेते थे।थोड़ी धुँध साफ हुई।उनके उखड़ें हुए दिल दिमाग का अनुमान लगा।
नायपॉल पर यह अद्भुत आलेख है।
ऋतुपर्ण जी ने बहुत प्रामाणिक रूप से इसे प्रस्तुत किया, पढ़कर मैं उद्विग्न और आश्वस्त एक साथ हुई ।
सुरेश जी का लेख बहुतों की आँखें खोलेगा, उनके भ्रम व पूर्वग्रह दूर करेगा. और तो और, प्रेमचंद के बारे में भी नयी दृष्टि देगा !
हिंदी में नायपॉल का बिना पढ़े विरोध दो मुख्य कारणों से होता रहा है. एक तो यह, कि उन्हें भारत-विरोधी माना जाता है, और दूसरा उनका उससे भी बड़ा गुनाह यह कि उन्हें मुस्लिम-विरोधी माना जाता रहा है. जब कि सच यह है कि उन्होंने हमें अपने इतिहास और समाज के बारे में अनेक अप्रिय सत्य बताए, और अंतर्राष्ट्रीय मुस्लिम संस्कृति और राजनीति का पांच अलग-अलग मुस्लिम देशों में जाकर गहन अध्ययन किया. (एक पाकिस्तानी मुस्लिम महिला से उन्होंने शादी भी की पर उसको चलिए अलग रखिये). एक और उनकी उपलब्धि यह है कि हिन्दू संयुक्त परिवार में व्याप्त परस्पर स्नेह और साथ ही नित्यप्रति की तनातनी और कलह का जैसा आत्मीय और अन्तरंग वर्णन उन्होंने अपने महान उपन्यास “ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास ” में किया है वह हिंदी में भी दुर्लभ है. जैसा कि मैंने उनके देहावसान के समय छपी शोक-श्रद्धांजलि में कहा था, अपने पूर्वजों के देश भारत के प्रति उनकी “निर्मम ममता” थी.
मुझे मित्रवर सुरेश जी का लेख इसलिए भी भाया कि उनकी तरह मैं भी नायपॉल से मिला था और त्रिनिदाद में उनके एक नहीं पर तीन-तीन घरों को देखने का सौभाग्य मुझे भी मिला था. पिछले तीन दशकों में मैंने उन पर अनेक लेख लिखे हैं पर हा हन्त! वे अंग्रेज़ी में हैं तो लिखना न लिखना बराबर ही रहा.
बहुत ही ज्ञानवर्धक और महत्वपूर्ण जानकारी । ऋतुपर्ण जी इसे रोचक और इतने सुंदर ढंग से प्रस्तुत करने के लिये बधाई और धन्यवाद ।
नायपॉल बहुत बड़े लेखक हैं, गहरी दृष्टि से देखकर उन्होंने मसलों को विश्लेषित किया| भारत पर लिखी त्रयी के कारण, और जब वे भारत आये तब अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार थी, तभी उन्हें नोबल मिला था, और लाल कृष्ण अडवाणी उनके प्रशंसक थे, इन्हीं सब वजहों से, बिना पढ़े, भारतीय मुस्लिम उन्हें पसंद नहीं करते, और उस कारण वाम पक्ष के लोग भी उनके लिखे से नाता नहीं रखते क्योंकि उन्हें अपने पक्ष में कोट नहीं कर सकते|