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Home » विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर लेखकों की प्रतिक्रियाएँ : मनोज मोहन

विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर लेखकों की प्रतिक्रियाएँ : मनोज मोहन

हिंदी साहित्य-संसार में अधिकतर पुरस्कार संदिग्ध और विवादास्पद हो जाते हैं. इन्हें लेखक के विचलन के रूप में भी देखा जाता है. जबकि सम्मान, समाज द्वारा लेखक के प्रति कृतज्ञता की एक तरह की अभिव्यक्ति है. यह तब है जब अधिकतर पुरस्कारों की राशि शर्मनाक रूप से न्यूनतम है. हिंदी में पूर्णकालिक लेखक होकर जीवित रहना आज भी असम्भव है. विनोद कुमार शुक्ल को 59 वें ज्ञानपीठ सम्मान प्रदान करने की घोषणा के अवसर पर मनोज मोहन ने साहित्य के कुछ समादृत रचनाकारों से बात की है. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 28, 2025
in गतिविधियाँ
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विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर लेखकों की प्रतिक्रियाएँ : मनोज मोहन
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II विनोद कुमार शुक्ल : 59 वाँ ज्ञानपीठ सम्मान II

 

विनोद कुमार शुक्ल गहरी संवेदनशीलता और गहन प्रतीकात्मकता के कवि हैं. कविता को नारे की तरह पढ़ने, रचने और गढ़ने से उन्हें परहेज रहा है बल्कि कविता में मंत्र सी पवित्रता भर देने की विशेष योग्यता उनकी पहचान मानी जा सकती है. उनकी रचना में जितनी गहरी जिज्ञासा है, जितना गहन अन्वेषण है उससे भी कहीं ज्यादा संकोच और एक अप्रस्तुत विधान भरा हुआ है. उनकी लेखनी आम जीवन की संवेदनाओं को अनूठे ढंग से प्रस्तुत करती है. उनकी लेखन शैली एक तरफ़ सरल, सहज है तो दूसरी  तरफ़ उनके लिखे में गहरी दार्शनिकता भी है. वे रोज़मर्रा के जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से बड़े प्रश्न उठाते हैं. यही कारण है कि उनकी रचनाओं में कल्पनाशीलता और यथार्थ का अद्भुत संतुलन देखने को मिलता है.

वे कवि होने के साथ-साथ शीर्षस्थ कथाकार भी हैं. उनके उपन्यासों ने हिंदी में पहली बार एक मौलिक भारतीय उपन्यास की संभावना को राह दी है. उन्होंने एक साथ लोकआख्यान और आधुनिक मनुष्य की अस्तित्वमूलक जटिल आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को समाविष्ट कर एक नये कथा-ढाँचे का निर्माण किया है. ‘नौकर की कमीज’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने हमारे दैनंदिन जीवन की कथा-समृद्धि को अद्भुत कौशल के साथ उभारा है. मध्यवर्गीय जीवन की बहुविध बारीकियों को समाये उनके विलक्षण चरित्रों का भारतीय कथा-सृष्टि में समृद्धिकारी योगदान है. वे अपनी पीढ़ी के ऐसे अकेले लेखक हैं, जिनके लेखन ने एक नयी तरह की आलोचना दृष्टि को आविष्कृत करने की प्रेरणा दी है. आज वे सर्वाधिक चर्चित और सम्मानित लेखक हैं. उन्होंने बच्चों के लिए भी पर्याप्त लेखन उन्होंने किया है. अपनी विशिष्ट भाषिक बनावट, संवेदनात्मक गहराई, उत्कृष्ट सृजनशीलता से विनोद कुमार शुक्ल ने सिर्फ़ भारतीय भाषाओं को ही नहीं वैश्विक साहित्य को भी अद्वितीय रूप से समृद्ध किया है.

हिंदी साहित्य में अद्वितीय योगदान, सृजनात्मकता और विशिष्ट लेखन शैली के लिए प्रख्यात कवि, लेखक और कहानीकार विनोद कुमार शुक्ल को वर्ष 2024 के लिए प्रतिष्ठित 59 वाँ ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा हुई है. यह भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान है, जिसे भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य के लिए प्रतिवर्ष दिया जाता है. इसके अंतर्गत 11 लाख रुपये की राशि, वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है. विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी के 12वें साहित्यकार हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है. उड़िया कथाकार श्रीमती प्रतिभा राय की अध्यक्षता में और चयन समिति के अन्य महत्त्वपूर्ण सदस्य थे-  माधव कौशिक, दामोदर मावजो, प्रभा वर्मा, अनामिका, ए. कृष्णा राव, प्रफुल्ल शिलेदार, जानकी प्रसाद शर्मा और ज्ञानपीठ के निदेशक मधुसूदन आनन्द. सम्मान प्राप्त होने की सूचना उन्हें प्रतिभा राय ने फ़ोन पर दी. यह भी विदित हो कि उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ पर मणि कौल ने फ़िल्म भी बनाई थी.

छत्तीसगढ़ के रहने वाले 88 वर्षीय शुक्ल जी ने पुरस्कार के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया अपने ख़ास लेखकीय अंदाज में ही दी—मुझे लिखना बहुत था, बहुत कम लिख पाया. मैंने देखा बहुत सुना भी मैंने बहुत, महसूस भी किया बहुत लेकिन लिखने में थोड़ा ही लिखा. कितना कुछ लिखना बाक़ी है, जब सोचता हूँ तो लगता है बहुत बाक़ी है. इस बचे हुए को मैं लिख लेना चाहता हूँ. अपने बचे होने तक मैं अपने बचे लेखक को शायद लिख नहीं पाऊँगा, तो मैं क्या करूँ? मैं बड़ी दुविधा में रहता हूँ. मैं अपनी ज़िंदगी का पीछा अपने लेखन से करना चाहता हूँ. लेकिन मेरी ज़िंदगी कम होने के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ती है और मैं लेखन को उतनी तेज़ी से बढ़ा नहीं पाता तो कुछ अफ़सोस भी है. ये पुरस्कार बहुत बड़ा पुरस्कार है. मेरी ज़िंदगी में ये एक ज़िम्मेदारी का अहसास है, मैं उसको महसूस करता हूँ. और अच्छा तो लगता है, ख़ुश होता हूँ. बड़ी उथल-पुथल है. यह महसूस करना कि ये पुरस्कार कैसा लगा, बहुत बढ़िया लगा. मेरे पास में शब्द नहीं हैं कहने के लिए क्योंकि बहुत मीठा लगा कहूँगा तो मैं शुगर का पेशेंट हूँ. मैं इसको कैसे कह दूँ कि बहुत मीठा लगा. बस अच्छा लग रहा है.

फिर कोई चिड़िया
मेरी बाँहों की हरियाली में
घोंसले बनाये
अंडे दे.

वे अपनी इस आकांक्षा को मूर्तन की ओर ले जायें, उन्हें बधाई.

 

 

अशोक वाजपेयी

विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ मिलने के समाचार का स्वागत करता हूँ. समकालीन राजनीतिक परिदृश्य की अतिनाटकीयता के विपरीत यह पुरस्कार एक ऐसे व्यक्ति को दिया गया है जिसने अपनी रचनाधर्मिता को निपट साधारण और  नायकत्व से निरपेक्ष व्यक्ति को समर्पित किया है.

शुक्ल की रचनाधर्मिता में अ-नायक के संघर्ष, मानवतावाद और उसके आत्मसम्मान की आहट है. यही उसका आकर्षण भी है. एक जाने-माने कवि और उपन्यासकार के रूप में यह पुरस्कार उन्हें अधिकारस्वरूप मिला है. विनोद जी को सम्मानित कर ज्ञानपीठ ने कुछ हद तक अपनी गिरती हुई साख को बचाने का उपक्रम किया है.

 

मृदुला गर्ग

हिंदी साहित्य जगत का मिज़ाज बन गया है कि अधिकतर लेखक आम आदमी का पैरोकार होने का दम भरते हैं. होते नहीं बस कहते हैं. पुरस्कृत लेखक से भी यही अपेक्षा करते हैं.

लेखन से ज्यादा उनके लिए वक्तव्य महत्त्वपूर्ण होता है. विनोद कुमार शुक्ल वक्तव्य नहीं देते, अनकहे से स्वर में आम आदमी की कथा खुद को सुनाते हैं. यह जो अनकहा सा रह जाता है, वही असल कथ्य या साहित्य होता है. वे आम आदमी को परिभाषित नहीं करते. किया ही नहीं जा सकता. कौन है आम आदमी? शहर का बेरोज़गार या गाँव का. जंगल में भूखा मरता इंसान या स्लम में? किससे शापित शोषित; जाति-भेद, लिंग-भेद या पूंजी-भेद से? या प्रज्ञा, गर्भाशय और जिगर की कशमकश से? अपने यहाँ इतने प्रकार की असमानता, अन्याय और नफ़रत है कि समझ नहीं आता, किसे चुने, किसे छोड़ें? जब सब को दिमाग़ और ज़िगर में जज़्ब कर लें, तब वह इंसान बनता है, जिसके बारे में विनोद कुमार शुक्ल खुद से बतियाते हैं. अपने ईजाद किये अनोखे शिल्प में. कभी कविता में, कभी उपन्यास में. तो क्यों न उन्हें ज्ञानपीठ मिले. मिलना चाहिए था, मिल गया. मुबारकबाद एक सही चयन को. और कहना क्या!

 

नरेश सक्सेना

विनोद कुमार शुक्ल को पैन अमेरिकन पुरस्कार मिला तो उसकी प्रतिक्रिया काफी ठंडी थी, अख़बारों में भी मुखपृष्ठ पर इस पुरस्कार की घोषणा नहीं दिखी. कुछ वर्ष पहले तक वे अचर्चित साहित्यकार की तरह थे. ज़्यादातर वामपंथी लेखकों के द्वारा उनको कलावादी कहा जाता था, रूपवादी कहा जाता था, जो कि पूरी तरह गलत था. यदि आप अतिशय कल्पनाशीलता और सुगठित रूप से रची हुई संरचनाओं को रूपवाद मानते हैं तो फिर आप कला का कौशल से कोई संबंध नहीं मानते.
यदि वे बड़े कवि हैं तो इसलिए कि वे औरो से बिल्कुल अलग थे.

1967 में पहली बार मैंने उन पर एक टिप्पणी लिखी थी जो आरंभ पत्रिका के दूसरे अंक में छपी थी. उसकी कुछ पंक्तियाँ हैं—

मुझमें जड़ें हैं
जड़ों से निकली जड़ें
और उनसे भी निकली सिर्फ़ जड़ें ही हैं
ये जड़ों का संसार सब जानते हैं
कि ज़मीन के नीचे होता है
और किसी को दिखाई नहीं देता 

ये कविता स्वयं अपने आप में एक तरह से उनके व्यक्तित्व के प्रतीक की तरह है. अपनी प्रकृति से वे चप्पे हैं और ये कोई अपराध नहीं है. उन्हें जो कहना है लिखकर कहते हैं और मैं उनकी सैकड़ों कविताएँ बता सकता हूँ जो किसानों, मज़दूरों और आदिवासियों के पक्ष में हैं. वे कहते हैं—

मज़दूरों
अगर तुम हाथों में फूलों की डाली लेकर जाओगे तो भी मारे जाओगे
और निहत्थे जाओगे
तब भी तुम पर गोली चलेगी.

शुरू से ही वे मुक्तिबोध के प्रभाव में रहे और उस समय भाषा और संरचना उनके क़ाबू में नहीं थे. इंटरमीडिएट में वे हिंदी में फेल हो चुके थे, तब भी वे अपनी दृष्टि में सबसे अलग थे सबसे कल्पनाशील थे और मनुष्यता के प्रति अगाध प्रेम से भरे हुए थे. इसलिए उनको भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा दिए गए सम्मान से उनकी श्रेष्ठता पर मोहर लगी है. इससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ. अंतिम बात यह है कि वह ऐसा बहुत कुछ लिखते हैं जिसका पाठक कोई मतलब नहीं निकाल पाते हैं, और इस बात की विनोद जी फ़िक्र भी नहीं करते. जिस बात का मतलब हम निकाल पाते हैं हमारा मूल्यांकन उसी पर आधारित होना चाहिए.

अंत में उनकी दो पंक्तियाँ:

अच्छे दिन आएँगे
छत्तीसगढ़िया में लबार बोलत हैं.

और एक पंक्ति:
ग़रीब आदमी वसीयत नहीं लिखता.

 

अशोक अग्रवाल 

इस सम्मान की सबसे बड़ी उपलब्धि हमारे लिए यह है कि उनका सबसे पहला उपन्यास ‘नौकर की कमीज‘ और सबसे पहला कविता संग्रह ‘वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह‘ छापने का सौभाग्य हमको मिला. नौकर की कमीज की पांडुलिपि को एक बड़े प्रकाशक ने काफी दिन तक रोके रखा था, इससे अशोक वाजपेयी खिन्न थे. उनका पत्र आया कि आप संभावना से इस किताब को छापना पसंद करेंगे. मैंने कहा मैं तो विनोद जी का प्रशंसक हूं उनको छापना मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी.

आज हिंदी के लिए और मेरे लिए भी सौभाग्य का दिन है कि यह सम्मान विनोद जी को मिला है.

 

रवि भूषण

पराधीन भारत में, सन् 1944 में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना हुई थी और स्वाधीन भारत में 1965 में ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रारंभ हुआ. विभिन्न भारतीय भाषाओं में से एक सर्वोत्कृष्ट कृति अथवा लेखक का चयन कठिन कार्य है. 59 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार कवि-उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल को इस वर्ष दिया गया है. इसके पहले सुमित्रानन्दन पंत, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, अज्ञेय, महादेवी वर्मा, नरेश मेहता, निर्मल वर्मा, अमरकान्त, केदारनाथ सिंह और कृष्णा सोबती को यह पुरस्कार प्राप्त हुआ है.

2023 का 58 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार गुलज़ार एवं हिन्दू धार्मिक-आध्यात्मिक नेता, चित्रकूट में तुलसीपीठ के संस्थापक जगद्गुरु रामभद्राचार्य को संयुक्त रूप से मिला था. संस्कृत में रामभद्राचार्य के पहले 2006 में सत्यव्रत शास्त्री इस पुरस्कार से सम्मानित हुए थे. उनमें और रामभद्राचार्य में अंतर है. सत्यव्रत शास्त्री संस्कृत विद्वान लेखक, वैयाकरण और कवि थे. रामभद्राचार्य का जो भी महत्त्व हो, उनमें धार्मिक कट्टरता बहुत अधिक है. उन्होंने अभी बनारस में ज्ञान‌वापी पाने तक संघर्ष जारी रखने की बात कही है, मुग़लों के नाम पर रखे गये स्थानों के नाम बदलने को कहा है और मनुस्मृति के एक भी अक्षर को राष्ट्रविरोधी नहीं माना है.

ज्ञानपीठ ने रामभद्राचार्य को पुरस्कृत कर अपनी जो गरिमा खोई थी उसे उसने विनोद कुमार शुक्ल को पुरस्कृत कर बहाल करने का एक प्रयत्न किया है. पुरस्कार समिति के सदस्यों में केवल इस बार अनामिका नयी थीं. चयन समिति की अध्यक्ष प्रतिभा राय रामभद्राचार्य के समय भी थीं. माधव कौशिक, दामोदर माउजे, सुरंजन दास, पुरु‌षोत्तम् बिमाले, प्रफुल्ल शिलेदार, हरीश त्रिवेदी, प्रभावर्मा, जानकी प्रसाद शर्मा, ए कृष्णराव और ज्ञानपीठ के निदेशक मधुसूदन आनंद सबने मिलकर रामभद्राचार्य को ज्ञानपीठ पुरस्कार के योग्य समझा था. ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय साहित्य का सर्वाधिक प्रतिष्ठित एवं विश्वसनीय पुरस्कार रहा है, जिस पर एक धब्बा लग चुका है.

विनोद कुमार शुक्ल की कविता और उपन्यास सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में अपनी कलात्मकता एवं मौलिकता के कारण अन्यतम हैं. उनके रचना-कर्म पर अलग से विस्तार से बात की जानी चाहिए, पर इससे शायद ही कोई इंकार करेगा कि वे मौलिक सृजनात्मकता, कलात्मकता तथा गहरी मानवीय संवेदना के कारण इस समय भारतीय साहित्य में विशिष्ट और अन्यतम हैं. उन्हें पुरस्कृत कर ज्ञानपीठ ने निस्संदेह प्रशंसनीय कार्य किया है.

 

लीलाधर मंडलोई

सबके हिस्से का भात, रोटी, आकाश और समय सोचता कवि -विनोद कुमार शुक्ल

मैं जून 1976 में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर पहुंचा. यह पहुंचना मुक्तिबोध के साहित्य परिवार में प्रवेश पाना था. विनोद कुमार शुक्ल इस परिवार के सदस्य थे. इस तरह मुक्तिबोध के विनोद जी से मिलना हुआ. तब मैं आकाशवाणी में था और आवाज़ के संसार में .विनोद जी की आवाज़ को रिकार्ड किया. कविताएं कई बार रिकार्ड करने का अवसर मिला. मैं विनोद जी से अधिक उनकी आवाज़ से मिला. उनकी आवाज़ में छत्तीसगढ़ की भाषा, लोगों और इलाकों की सच्ची चित्र आवाजें थीं. “रायपुर बिलासपुर संभाग” उनकी लंबी

कविता कई बार पढ़ी. यह मेरे मानस में उनकी कविता का खुलता आश्चर्य था. यक़ीन की तरह सच होता. इसी रास्ते मैं “नौकर की कमीज” और “दीवार में एक खिड़की” तक पहुंचा. और उनके यक़ीन की लेखनी के अलक्षित सौंदर्य विचारों के खिलने को थोड़ा पा सका. अंग्रेज़ी साहित्य का विद्यार्थी मैं, गोया हिंदी के अन्यतम पद्य और गद्य की पाठशाला में था—विस्मित. उनके लिखे को मैं त्वचा में अनुभूत करता कुछ वयस्क हुआ. ऐसी काव्यात्मक संवेदना कम थी और उस भाषिक मुहावरे में जो उनके साहित्य की सिग्नेचर ट्यून बनी. वह आकाश थी और वही कवि आकाश की दृश्यातीत सीमा भी. वे मध्य वर्ग के रचनाकार हैं लेकिन निम्न वर्ग में संचरित होते हैं. बस्तर के आदिवासी लोक में जाते हैं. वहाँ का जीवन समाज उभरता है किंतु वहाँ कैमरा लांग शाट में बना रहता है. क्लोज अप कम-कम हैं. थोड़ा कम गहरा यथार्थ. ज्ञानपीठ सम्मान के बाद उन्होंने स्वीकार वक्तव्य में कहा – “बहुत देखा, सुना ,अनुभव किया लेकिन कम लिख सका. इच्छा अभी भी कम नहीं.”

कविता में वे कहते हैं-

आँख मूँदकर देखना
अंधे की तरह देखना नहीं है.
पेड़ की छाया में, व्यस्त सड़क के किनारे
तरह-तरह की आवाज़ों के बीच
कुर्सी बुनता हुआ एक अंधा
संसार से सबसे अधिक प्रेम करता है

वह कुछ संसार स्पर्श करता है और
बहुत संसार स्पर्श करना चाहता है.

मुझे लगता है सृष्टि और उसके दृश्य-अदृश्य लोक में पहुँचने की यही जिजीविषा विनोद जी की रचना प्रक्रिया है. इसलिए उनकी भाषा में वैश्विक सिंफनी की एक अनुगूंज है. सरोकारों का चित्र संसार है.और विचारों की मध्य लय का आलोक है. मनुष्य से मनुष्य ध्वनि तक. वे अपनी सुस्थापित विचार शैली में कहते हैं-“

मुझे बचाना है
एक-एक कर
अपनी प्यारी दुनिया को
बुरे लोगों की नज़र है
इसे ख़त्म कर देने को.

उनके समकालीन होने और उनके विचारों के हमसफ़र होने पर मुझे गर्व है.

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित अन्य राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार ,जो विनोद कुमार शुक्ल को प्राप्त हुए, उनसे उन सम्मानों और उनकी संस्थाओं का सम्मान बढ़ा है और हमारा भी ,जो विनोद जी के पाठक है.

 

वीरेंद्र यादव

विगत कुछ वर्षों में ज्ञानपीठ पुरस्कार ने जिस तरह अपने महत्व पर ग्रहण लगाया है उससे अब इस पुरस्कार को गंभीरता से न लिया जाना स्वाभाविक है. विगत वर्ष जब यह पुरस्कार हिंदुत्ववादी कथित संत राम भद्राचार्य को दिया गया, तभी यह अधोगति को प्राप्त हो गया था. वैसे इस अधोगति की शुरुआत तब हो चुकी थी जब यह पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों शहरयार को दिलवाया गया था. सत्ता के शीर्ष राजनेताओं की आवाजाही भी इस बीच ज्ञानपीठ समारोहों में बढ़ी है. इस सबके बीच विनोद कुमार शुक्ल को यह सम्मान दिए जाने की घोषणा इस पुरस्कार की छवि सुधार की एक कार्यवाही से अधिक कुछ नहीं है.

विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के समादृत रचनाकार हैं, क्या उन्हें ज्ञानपीठ के छवि सुधार की इस तिकड़म का इच्छुक सहभागी बनना चाहिए, यह उनका स्वविवेक है. सच तो यह है कि इस सम्मान से विनोद कुमार शुक्ल न सम्मानित होकर, पुरस्कार ही अपने खोए हुए सम्मान को वापस पाने के लिए प्रयत्नशील है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस दौर में कमोबेश अधिकांश पुरस्कार इसी दुर्गति को प्राप्त हो रहे हैं.

 

अलका सरावगी

विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ सम्मान मिलना व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए बहुत हर्ष की बात है. कई बार सही व्यक्ति को सही सम्मान नहीं मिल पाता. ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के पात्र—हाथी पर स्कूल जाता मास्टर और खिड़की से निकलकर जादुई प्रकृति में उसका पत्नी के साथ घूमना —बरसों से मेरे अंदर बसे हुए हैं. ‘नौकर की क़मीज़’ पढ़ना भी एक अनुभव था. यथार्थ में जीते हुए उनके पात्र यथार्थ का अतिक्रमण करते हैं और एक चमत्कार सा घट जाता है. साधारण में असाधारणता को देखना और दिखाना उनके जैसा ही कोई साध सकता है.

 

संजीव कुमार

विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के अनोखे रचनाकार हैं. उनके यहाँ चीज़ों को देखने और अपने देखे हुए को कहने का जो अनोखापन है, वह हमें व्यवस्था द्वारा अनुकूलित प्रत्यक्षीकरण  से बाहर निकालता है और अलग तरह से चीज़ों को देख पाने में सक्षम बनाता है. यह अन-अनुकूलित ग्रहणशीलता वास्तविकता पर पड़े विचारधारात्मक घटाटोप को भेदने के काम आती है. इसलिए भाषा को वे जिस तरह बरतते हैं, उसे खिलवाड़ कहकर हल्का नहीं किया जाना चाहिए. यह सच है कि उनके यहाँ सुपरिचित सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं, स्थितियों, समस्याओं आदि का चित्रण नहीं मिलता, पर इनका चित्रण न तो किसी रचना के महत्त्वपूर्ण होने की कसौटी है, न ही इनकी अनुपस्थिति किसी रचना के कमतर होने का प्रमाण.

हाँ, मुझे यह ज़रूर अखरता है कि विनोद जी ने पिछले 11 सालों में शायद ही कभी हमारे देश के मौजूदा चिंताजनक हालात पर और अल्पसंख्यकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, लेखकों-कलाकारों, स्टैन्डअप कॉमेडियनों पर हो रहे सरकारी-ग़ैरसरकारी हमलों पर सीधे कुछ कहा है. सच कहें तो इस मामले में उनका पक्ष क्या है, यही हमें नहीं पता! यह रचनाओं से परे रचनाकार के प्रति मेरे सम्मान को कुछ सीमित करता है.

 

प्रत्यक्षा

हम सब के प्रिय कथाकार विनोद कुमार शुक्ल जी को 59वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जाना हिंदी साहित्य जगत के लिए गर्व की बात है. उनकी कविताएं , कहानियाँ , उपन्यास और बच्चों और युवाओं के लिए लिखी रचनाएं एक अलग ज़मीन पर फूलों और सपने की तरह खिलती हैं. ‘लगभग जयहिंद’, ‘नौकर की कमीज़’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, खिलेगा तो देखेंगे जैसी रचनाओं ने एक नये संसार की सर्जना की है जो अपने पूर्ववर्ती  लेखन से एकदम अलग रास्ते चलती है . वो जैसे सादा , असाधारण और मीठे हैं उनकी लेखनी में भी उसी जादू को देखा जा सकता है . उनका व्यक्तित्व और उनका लेखन दोनों एक सम पर है , दोनों में कोई फांक नहीं दिखता.

विनोद कुमार शुक्ल की भाषा अनूठी है और उस भाषा के जरिए एक दुनिया बनती है ऐसी जो हमेशा से थी हमारे सामने फिर भी ओझल रही. तो इस ओझल को जिस मिठास से वो प्रगट करते हैं और ऐसे छोटे छोटे वाक्यों के जरिए से, जीवन की रोज़मर्रा की दिनचर्या के माध्यम से, जादुई यथार्थवाद के रास्ते से कि वही आम बातें बड़ी गहराई से , बड़े प्रवाह में पाठक तक पहुँचती हैं. मानवीय अनुभवों की जटिलता को, उसके मर्म को वो बहुत सादगी से, बड़े राग से उकेरते हैं. उनकी भाषा में एक विशेष प्रकार की मासूमियत और ठहराव है, जो पाठकों को अपने आसपास की दुनिया को देखने की अलग और नई दृष्टि देती है.

यह सम्मान न केवल उनकी साहित्यिक साधना की स्वीकृति है, बल्कि समकालीन हिंदी साहित्य की समृद्धि का उत्सव भी है.

 

शर्मिला जालान  

‘खिलेगा तो देखेंगे’ (1996) और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ (1997) ये उपन्यास जिन दिनों प्रकाशित हुए, मैं कोलकाता विश्वविद्यालय से एम.ए. और एम.फिल. कर रही थी और मैंने तीन-चार कहानियाँ लिख डाली थीं.

कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद ग्रंथालय से लेकर इन उपन्यासों को पढ़ा और उसके बाद ‘नौकर की कमीज़’ को. उपन्यासों को पढ़ने के बाद मन में यह बात आई कि विनोद कुमार शुक्ल को सारे बड़े पुरस्कार मिलेंगे. ऐसा सोचने का कारण और आधार उन दिनों क्या था, आज याद नहीं, पर यह बात मन में ज़रूर रही थी कि विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ छोटे-छोटे वाक्य हैं, जिनमें छोटी-छोटी बातों से, सरल भाव से बहता हुआ गद्य कोई गहरी बात कहता है और एक बड़ा संसार रचता है. विनोद कुमार शुक्ल अपने सरल, सहज और गहरे भाव-संसार के साथ मेरे अंदर के संसार में वर्षों से बसे हुए हैं. अपनी इसी सरल, सहज और गहरे भाव के कारण वे आज युवा वर्ग में बहुत पढ़े जाने वाले लेखक हैं.

इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं और उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. इस तरह ज्ञानपीठ पुरस्कार ने अपने को गौरवान्वित किया है. विनोद कुमार शुक्ल को बहुत-बहुत बधाई और शुभेच्छा. 

मनोज मोहन
वरिष्ठ पत्रकार व लेखक.
वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान: समय समाज संस्कृति के सहायक संपादक.
सीएसडीएस की  आर्काइव परियोजना में शामिल

manojmohan2828@gmail.com

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Comments 8

  1. बटरोही says:
    3 months ago

    बहुत अच्छी परिचर्चा आयोजित है और विभिन्न आयामों वाली. हमारे समय के एक बड़े रचनाकार के विविध आयामों को समझने में यह चर्चा मदद करती है.

    Reply
  2. प्रकाश चंद्रायन says:
    3 months ago

    परिचर्चा में विनोद जी का दृश्य और व्यक्त आता है। अव्यक्त और अदृश्य छूट जाता है।

    Reply
  3. कैलाश मनहर says:
    3 months ago

    बहुत प्रभावशाली चर्चा है। अच्छा लगा।

    Reply
  4. हरीश त्रिवेदी says:
    3 months ago

    विविध मतों की सार्थक टिप्पणियाँ पढ़ीं. ….

    रविभूषण जी ने अपनी टिप्पणी में मेरा भी उल्लेख किया. मैं पिछले वर्ष ही नहीं, 2015 से लगातार चयन समिति का सदस्य था. (नियमानुसार नौ साल ही सदस्यता की अधिकतम अवधि होती है.) अब मुक्त हूँ तो कुछ महीने बाद, जब पिछले वर्ष के दोनों विजेताओं (जो अभी तक क़तार में ही खड़े हैं) और इस वर्ष के विजेता का भी पुरस्कार-समारोह संपन्न हो जाय, तब मैं इस पुरस्कार की पूरी प्रक्रिया और प्रणाली पर अवश्य एक अन्तरंग लेख लिखना चाहूँगा — किसी विशेष रहस्योद्घाटन या खुद अपनी सहभागिता की दृष्टि से ही नहीं पर जन-हित में भी (!), क्योंकि यह जानकारी सभी लेखकों-पाठकों के लिए शायद रूचिकर भी हो और ज्ञानवर्द्धक भी. … (“हम घूम-फिर के कूचा-ए क़ातिल से आये हैं…”)

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    • Hemant Deolekar says:
      3 months ago

      ज़रूर, हम उसे जानना चाहेंगे. आप उस पर कहने के लिए आगे आये, यह एक तसल्ली वाली बात है

      Reply
  5. M P Haridev says:
    3 months ago

    समालोचन अहर्निश साहित्य में अद्यतन होता है । सूरज की तरह उत्तरी गोलार्ध से दक्षिण तक । लीलाधर जगूड़ी के शब्दों में ‘इस धरती पर पुराने सूरज से मिलती है रोज़ एक नयी सुबह’ ।
    ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के बाद विनोद कुमार जी शुक्ल ने दी प्रतिक्रिया को डायरी में लिखूँगा । बीमारी की वजह से हर चौबीस घंटे में मुझसे ज़िंदगी तेज़ी से छीन लेता है । फिर भी वह दिन पुलक पैदा करता है जब समालोचन पढ़ता हूँ । एक शायर लिखते हैं-
    अजब चराग़ हूँ, दिन रात जलता रहता हूँ
    मैं थक गया हूँ, हवा से कहो बुझाये मुझे
    अशोक वाजपेयी ने अपने परिचित अंदाज़ में लिखा । मृदुला जी गर्ग की पंक्तियों ने शुक्ल जी के लेखन का आविष्कार किया । अलका जी ने दीवार में एक खिड़की रहती थी की लाइन हाथी पर सवार मास्टर जी’ ने उपन्यास में पहली दफ़ा पढ़ी थी तभी मन बना लिया कि दोबारा पढ़ूँगा । जिस प्रकार घड़े में पानी निथरने में वक़्त लेता है वैसे ही कुछ हफ़्ते बाद फिर से उपन्यास पढ़ा ।
    अंक में किसी ने लिखा कि आँखें बंद करना अंधा होना नहीं है । जिस प्रकार अंधा उँगलियों के स्पर्श से कुर्सी बुनता है उसी स्पर्श से वह विश्व के कमज़ोर वर्गों में विश्व नागरिक बन जाता है । जितना याद कर सका अशोक जी अग्रवाल ने नौकर की क़मीज़ छापा था ।
    सभी सहभागी लेखकों को बधाई । लीलाधर मंडलोई का नाम लिखना भूल गया । उनके सामने नहीं परंतु लीलाधर जगूड़ी की आयु के पचहत्तर वर्ष के अवसर पर त्रिवेणी संगम या सभागार में मंच संचालक के रूप में सुना और आख्यान में भी ।

    Reply
  6. Sawai Singh Shekhawat says:
    3 months ago

    सभी ने विनोद जी के वैशिष्ट्य और वैदुष्य को स्वीकारा यह अच्छी बात है।किंतु जो भी लोग सामाजिक सरोकारों पर लिखने का सवाल उठा रहे हैं,उनसे यह निवेदन है कुछ लेखक अपने लेखन के स्तर पर ही यह प्रयास करते रहे हैं ऐसे में उनके मुहावरे, भाषा और रचना-स्रोतों को देखा जाना कहीं अधिक उपयुक्त होगा।बाकी काम एक्टिविस्ट कर ही रहे हैं।

    Reply
  7. Hemant Deolekar says:
    3 months ago

    सबसे अच्छी टिप्पणी संजीव कुमार जी की लगी

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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